हम उन ग्रंथों को सुनें जो कहता है ज्ञान ही ईश्वर है। इसी पर गर्व करें
,
ना कि दूसरे धर्मों का सोचकर स्वयं को संशय में डाले।
एटैयापुरम में आंग्ल वर्नाकुलर स्कूल में पढ़े। फिर तिरूनेलवेल्ली के हिंदू कॉलेज में कक्षा नौ तक शिक्षा ग्रहण की। सुब्बैया स्कूल जाते थे, सभी विषयों में सफल
भी हो जाते थे पर तमिल साहित्य से उसे विशेष प्रेम था। साथ ही प्रकृति का साथ उसे अत्यधिक भाता। प्रकृति के हरे-भरे विभिन्न रंगों को निहारते कभी उड़ते बादल में
नाचते हुए मोर या लेटे हुए हाथी का स्वरूप ढूँढ़ निकालते। बाकी बच्चों के साथ कभी खेले-कूदे नहीं। खेल से अरुचि होने और स्वंय के दुबले-पतले होने का, कुछ बड़े हो
जाने पर उसे हमेशा दुख भी हुआ।
उनके प्रकृति प्रेम के कारण वे खुले आसमान के नीचे इस तरह विचरते रहते थे कि हरियाली, नीलिमा तितलियों, और चिड़ियों के बीच उनका अपरिमित समय निकल जाता था। ऐसे
में उन्हें ना भूख लगती ना प्यास। स्कूल से घर लौटते हुए भी इसी मनोस्थिति में होते और अपना बस्ता आदि कहीं का कहीं छोड़ देते। बालक की विमाता उसकी आदतों से
परिचित हो चुकी थी। वो नया बस्ता-स्लेट आदि खरीद कर रखे रहती थी, जिससे उसे पिता के लौटने पर डाँट भी नहीं पड़ती थी। पिताजी को तो पता ही नहीं चल पाता कि बेटे ने
बस्ता खो दिया है। सुब्बैया का प्राकृतिक प्रेम का जज्बा मानों उसे ईश्वरीय कृपा के रूप में स्वयंमेव प्राप्त था।
चिन्नस्वामी गणित के धुरंधर थे और मशीनरी का भी सूक्ष्म ज्ञान रखते थे। विदेशी मशीनों को भी वे सुधार लेते थे अपने बेटे सुब्बैया को गणित और अँग्रेजी में
विद्वान बना देखना चाहते थे। उनकी इच्छा थी कि बेटा पढ़ लिख कर ऊँचे पद पर आसीन हो। घर पर उसे गणित और अँग्रेजी का ज्ञान देने की उनकी कोशिश बनी रहती थी। बालक
सुब्बैया भी पिता का आदर करते हुए ध्यान से सीखता। पर उसका मन हर बात, हर शब्द, हर ध्वनि और वातावरण से प्रेरित होकर तुकबंदी करने लगता। उनके मुँह से कविताएँ
यूँ सहज होकर झरती कि लगता माँ शारदा उनकी जीभ की नोक पर ही विराजी हुई हों।
बाल्यावस्था में माँ का देहांत हो जाने से कदाचित हर स्त्री में वो माँ की छवि देखते थे। उनकी कविताओं में भी 'अम्मा' की सतत व अनवरत गूँज है। 'अम्मा' की इस
प्यास ने ही शायद उन्हें गणित व अन्य विषयों की ओर से विरक्त किया हो। साथ ही इसी प्यास ने उनमें तमिल साहित्य के प्रति आसक्ति जगाई हो। यह भी हो सकता है उनकी
दिवंगत माता की यही इच्छा रही हो और उन्हीं का आशीर्वाद रहा हो। सुब्बैया की रुचि और प्रवृत्ति से उसके पिताश्री भी अनजान नहीं थें। इसीलिए उन्होंने रामायण,
महाभारत, तिरूकुरल (जीवन के हर क्षेत्र में मनुष्य के आचार-विचार तथा व्यवहार को नियंत्रित करते आदर्श मानक की तमिल पुस्तक। इस पुस्तक का अनुवाद अनेकों
देशी-विदेशी भाषाओं में हुआ है।) व अन्य ग्रंथों को काव्य रूप में स्वयं ही सिखाया। मात्र सात वर्ष में सुब्बैया बड़ी-बड़ी अर्थपूर्ण कविताएँ सुनाने वाला बालक बन
गया। सन 1893 में जब वे मात्र ग्यारह वर्ष के ही थे स्वयं माकूल कविताएँ रचने लगे।
उनकी किशोरावस्था की एक घटना जिसे भुलाया नहीं जा सकता। उनके दोस्तों में उनके मामा भी थे जो उनसे मात्र तीन वर्ष बड़े थे। ये दोनों गाँव में घूमते, खेलते, कूदते
और शरारत करते। सुबैया के पिताजी की जीनिंग फैक्ट्री में दोनों अक्सर ही जाया करते। पिता चिन्नस्वामी अय्यर जिन्हें मशीनरी से बेहद प्यार था, बहुत खुश होते। वे
सोचते कि बेटे का विज्ञान से लगाव बढ़ेगा। जब कि दोनों बालक यूँ ही मटरगश्ती करने हेतु इधर-उधर जाते थे। एक बार तो छुट्टी वाले दिन दीवार फंड कर फैक्ट्री गए और
अपने पिता के मेज की दराज आदि खोल-खोल कर यूँ ही देख रहे थे। एक दराज में एक चमकदार नली दिखी। उसे हाथ में ले भी लिया, जो कि एक पिस्तौल (रिवाल्वर) थी। मामा
सांबाशिव अय्यर ने यूँ ही उसे चला दी। बार खाली गया। पर अगले ही खोल में गोली थी जो बड़ी आवाज करते हुए चल गई। वो गोली सुबैया के सिर के एक दम पास से निकली और वो
सही में बाल-बाल बचे।