‘मेरी ज़िन्दगी भारत के राष्ट्रपति के नाम समर्पित रहेगी। मैं भारत और भारत के संविधान के प्रति समर्पित रहूँगा। उसी के लिए जियूँगा... उसी के लिए मरूँगा... कि मैं अपना हित सबसे अन्त में सोचूँगा।’
हाँ, यही शपथ थी जो उसने देहरादून में इंडियन मिलिट्री एकेदमी के पासिंग-आउट परेड के अन्त में दोस्तों के बीच टोपियाँ उछालने के बाद ली थी।
कितनी पवित्रता के साथ किया था उसने फ़ौजी जीवन का वरण। Soldier I am born, soldier I shall die - यही था उन दिनों का उसका नारा जिसे वह जब-तब हवा में उछाल दिया करता था, ख़ुद को भीतरी ताक़त देने के लिए।
अपने में डूबे, अपने दुख-सुख, यादों, सपनों, दुःस्वप्नों, सम्मानों-अपमानों और ख़ालीपन की अनन्त गहराई में डूबे वे खोल रहे हैं अपने अतीत को किसी जादू की तरह। जो आज उन्हें लग रहा है किसी लोक कथा की तरह। रोमांचक! अविश्वसनीय और अद्भुत!
होंठों पर हँसी किसी नन्हीं चिड़िया की तरह फुदकने लगती है। वह अद्भुत समय! जब पापा के पास काम-ही-काम था और उसके पास समय-ही-समय। सपने ही सपने। भरोसा-ही-भरोसा। ख़ुद पर। दुनिया पर। उफ! किस तरह पूरे घर को उसने डरा और रुला दिया था, इंडियन आर्मी में दाख़िला लेकर!
वजह!
सपनों से खेलने के वे दिन- और एक विज्ञापन! सिर्फ़ एक विज्ञापन! और देखते-ही-देखते सबकुछ पलट गया था!
यह विज्ञापन जिसे ‘टाइम्स ऑव इंडिया’ के मुखपृष्ठ पर एक चमकती सुबह अपने दमकते हौसलों के साथ पढ़ा था उन्होंने Nation needs you (राष्ट्र को आपकी आवश्यकता है) और इसके साथ ही देश के युवाओं से आर्मी ज्वाइन करने की भावुक-सी अपील की गयी थी। विज्ञापन में छपे दो बन्दूक़धारी कड़क फ़ौजी और अपील को पढ़ रोमांचित हो गये थे वे। आर्मी उनके लिए एक आदर्श हीरो बन गयी थी जिसे उनकी ज़रूरत थी। ‘नेशन नीड्स यू,’ देश को उनकी ज़रूरत है - जैसे हर कोने से उठ रही थी यह आवाज़!
अठारह वर्ष की भावुक स्वप्निल उम्र और ‘टाइम्स ऑव इंडिया’ का वह जादुई विज्ञापन! उन्हें लगा, जिस चीज़ की तलाश थी- उन्हें, वह चीज़ मिल गयी है उन्हें। एक रहस्यमयी दुनिया बुला रही थी उन्हें, ‘आओ आओ। मेरे पास आओ!’
कितना सर्वशक्तिमान था वह क्षण कि उसके जादू की हत्या पूरा परिवार भी मिलकर नहीं कर पाया था। नहीं अब उसे इंजीनियरिंग कॉलेज में दाख़िला नहीं लेना है। उसे फ़ौजी बनना है। जाने कितने ज्वाइंट इंट्रेंस एग्जाम दे चुका था वह। परिणाम बस आने ही वाले थे।
अच्छा हुआ कि उसने वह विज्ञापन पढ़ लिया।
व्यापारी पिता चाहते थे कि वह किसी अच्छे कॉलेज से इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल कर ख़ुद की फैक्टरी खोले या शाम का कॉलेज ज्वाइन कर अच्छे-ख़ासे चलते व्यापार में बढ़ोतरी करे।
पर उसके सपने थोड़े अलग थे। पिता के साथ दुकान पर बैठे-बैठे पीतल तौल-तौलकर वह अपनी ज़िन्दगी नकारा नहीं करना चाहता था। वह चाहता था कोई होली क्रान्ति, कोई मिशन - कोई स्वप्न - कोई उद्देश्य - जीने के लिए। ज़िन्दगी को सजाने के लिए।
उसे चाहिए था कुछ और जो उसके पिता और चाचा के जीवन से हटकर हो। क्योंकि जब-जब वह पिता को दुकान पर बैठे पीतल के बर्तन तौलते देखता उसे लगता कि उनकी दुनिया में कोई भारी कमी है। सबकुछ है पर जैसे कुछ नहीं है। जीवन है पर स्पन्दन नहीं। उसे पूरा विश्वास था कि जीवन के अधूरेपन से, इस अपूर्णताबोध से उसे छुटकारा मिल सकता है तो सिर्फ़ फ़ौजी बनकर। इसीलिए घरवालों से छिपाकर और दोस्तों से रुपये उधार लेकर उसने फार्म भरा था।
और जब इंटरव्यू के लिए उसे इलाहाबाद बुलाया गया तो घर पर जैसे बिजली गिर गयी।
माँ अवाक्।
पिता यूँ उछले जैसे हाथ में भारतीय फ़ौज का लिफ़ाफ़ा नहीं वरन साँप का ठंडा शरीर गिर पड़ा हो।
‘‘यह क्या मज़ाक है?’’ इंटरव्यू लेटर को चारों कोनों से घुमा-घुमाकर पूछा था उसके पापा ने।
अपनी अठारहवर्षीय उम्र की ताज़गी और नये-नये अर्जित आत्मविश्वास के गुमान के साथ कहा था उसने, ‘‘पापा, यह मज़ाक नहीं, मेरा स्वप्न है। मैंने तय कर लिया है कि मुझे फ़ौज में दाख़िला लेना है।’’
‘‘क्या?’’ पिता का दिमाग़ घूम गया। क्या उन्होंने वही सुना, वही समझा जो उनके बड़े बेटे सन्दीप ने कहा, ‘‘मैंने तय कर लिया है। अरे, कल तक जिसे नाड़ा बाँधना तक नहीं आता था, आज कह रहा है कि मैंने तय कर लिया है।’’ उन्हें लगा जैसे उनका माथा घूम रहा है। धरती घूम रही है। खुले शर्ट के बटन बन्द करते हाथ रुक गये। दम फूल गया। किसी प्रकार ख़ुद को संयत कर पूछा, ‘‘पर क्यों?’’
‘‘क्योंकि देश को मेरी ज़रूरत है और मुझे फ़ौज की। क्योंकि यदि मेरे सपने कहीं साँस ले सकते हैं तो सिर्फ़ फ़ौज में। यदि और कहीं मैं गया तो घुट-घुट कर मर जाएँगे मेरे सपने।’’
‘‘क्या? हतप्रभ रह गये शेखर बाबू। क्या इस प्रकार भी भला सोचता है कोई? सोच सकता है? देश को ज़रूरत है? माँ-बाप की कोई ज़रूरत-नहीं? बित्ते भर का छोकरा और यह साहस! दुस्साहस! चीर जानेवाली ठंडी निगाहों से देखा उन्होंने पुत्र को। दिमाग़ ने तभी यह भी सिग्नल दिया और ज़ोर लगाओ।
इस बार दूसरी तरफ़ से कलाई मरोड़ने की चेष्टा हुई।
‘‘क्या जानते हो तुम फ़ौजी जीवन के बारे में? देखा है किसी फ़ौजी को? कितनी कठोर लाइफ़ होती है फ़ौजियों की। और मिलता क्या है एक फ़ौजी अफ़सर को? मेरे एक व्यापारी का भतीजा, फ़ौज में, मेज़र है- चलो मिला देता हूँ उनसे। अपनी बेटी को जन्म के डेढ़ साल बाद तक भी देख नहीं पाया था वह, छुट्टी ही नहीं मिली थी। दस वर्ष की नौकरी के बाद भी जितना उसका बाप महीने भर में कमा लेता है, उसके बेटे को साल भर में भी नहीं देती है सरकार। तुम पैसे को महत्त्व नहीं देते क्योंकि तुमने कभी दमघोंटु अभावों और संघर्षों का जीवन नहीं जीया ना। इसीलिए कह दिया... मेरे गुज़ारे लायक़ दे देगी आर्मी। अरे, मुझसे पूछो, कैसे पैसा-पैसा जोड़ जुटायी है ये सुविधाएँ। कभी दस पैसे बचाने के लिए सियालदाह से कॉलेज स्ट्रीट तक पैदल जाता था। तुम्हारी दादी मन्दिर जाती थी तो रास्ते में पड़ा गोबर उठा लाती थी कि उपले बन जाएँगे। अरे! फ़ौज में वही जाता है जिसके लिए दूसरे सारे रास्ते बन्द हो चुके होते हैं, या जो ज़िन्दगी को बट्टे खाते लिख चुका होता है। तुम्हें क्या कमी जो तुम- मरने को, गोली खाने को फ़ौज में जाओगे।’’
पिता की आँखों में बेटे के लिए उठती पीड़ा के समुन्दर को देखा सन्दीप ने। वह संजीदा हुआ। पिता को समझाने की फिर एक कोशिश की उसने, ‘‘हाँ, आप सही हो सकते हैं पापा कि फ़ौज में मुझे वो सुख-सुविधाएँ नहीं मिले जो आपके व्यापार या दूसरी नौकरियों में मुझे मिल सकती है। यह भी हो सकता है कि फ़ौजी ज़िन्दगी मेरे सपनों की ज़िन्दगी न बन पाए - पर वह ज़िन्दगी उस ज़िन्दगी से ज़रूर अलग होगी जो आप जी रहे हैं। नहीं, पापा, आनेवाली ज़िन्दगी की शक्ल चाहे जैसी भी हो, पर मैं आप जैसी ज़िन्दगी नहीं जीऊँगा, यह फ़ैसला मैंने कर लिया है।’’
‘फ़ैसला कर लिया है’ शब्द फिर चाबुक की तरह उनके पितृत्व के सीने पर पड़े। उनके जबड़े भिंच गये। लगा, कि बेटे के हाथों पूरी तरह ही ठगा गये हैं। वे बौखला गये उफ़! सुख- जब घर में पूरी तरह आसन मार कर बैठ गया था तो फिर नियति ने यह कैसी पटखनी दी! क्यों दी? क्या यह उनके सुखी-सन्तुष्ट जीवन के अन्त की शुरुआत है? वे सोचने लगे, पिछली सात पीढ़ी में घर का कोई लड़का फ़ौज में तो क्या नौकरी तक में नहीं गया था। हाँ एक पीढ़ी पूर्व उनकी बहन ने ज़रूर लीक से हटकर निर्णय लिया था - मैं साध्वी बनूँगी। क्या उसकी बुआ के ही जींस आ गये हैं इस लड़के में? उन्होंने फिर निर्णायक स्वर में कहा, ‘‘तुम फ़ौज में नहीं जाओगे।’’
शेखर बाबू तल्ख हुए तो पुत्र के भी जींस बदले। उसने भी अपना जवाब फिर चाबुक की तरह हवा में लहराया, ‘‘इट्स माई लाइफ़, पापा! इट्स माई डिसीजन, पापा! पापा! आप तो पौराणिक कथाओं में बहुत रुचि रखते हैं ना, क्या आप जानते हैं कि महाभारत में एक जगह श्री कृष्ण कहते हैं कि हर इनसान को अपनी कर्मभूमि के पत्थर ख़ुद ही तोड़ने पड़ते हैं। तो क्यों न वह कर्मभूमि मेरे सपनों की कर्मभूमि ही हो कि पत्थर तोड़ते भी आनन्द का अहसास बना रहे।’’
‘‘भाड़ में जाओ।’’ क्रोध और आवेग में काँपने लगे थे शेखर बाबू। अभी तक तो सुनते ही आये थे कि ज़माना बदल गया है, बच्चे बड़ों का लिहाज़ नहीं करते पर ख़ुद के घर की फ़िज़ा ही इतनी जल्दी बदल जाएगी, स्वप्न में भी नहीं सोचा था उन्होंने। उन्हें लगा बेटे ने अपना जवाब नहीं, वरन उनके वजूद को ही हवा में उछाल दिया है। घर की दिशा-दिशा से जैसे एक ही वाक्य रह रहकर गूँज उठता था- ‘‘इट्स माई लाइफ़! माई डिसीजन!’’
उस रात न कुछ खाया उन्होंने, न किसी से कुछ कहा। बस बन्द कमरे में मुँह ढाँप औंधे पड़े रहे वे।
रात माँ ने सन्दीप के माथे पर हाथ फेरते हुए उसे अपने ढंग से समझाया। अपनी ममता का वास्ता दिया, ‘‘बेटे, तुम घर के बड़े बेटे हो। तुम चले गये तो सिद्धार्थ को कौन सँभालेगा? पापा को तो बिजनेस से ही फ़ुर्सत नहीं मिलती। मुझे कौन देखेगा?’’
सिद्धार्थ की चिन्ता मत करो माँ, अब वह बच्चा नहीं रहा और यूँ भी वह बहुत तेज़ है। उसने तो मेरे निर्णय का स्वागत ही किया है। रही बात तुम्हारी तो तुम चिन्ता मत करो, जब तुम्हें मेरी ज़रूरत होगी तुम मुझे अपने क़रीब पाओगी।
और माँ ख़ामोश हो गयी। समझ गयी, इस बाढ़ को रोकना फ़िलहाल किसी के बूते का नहीं। इसने तो जैसे अपने गले में पट्टी ही लटका ली थी - इंडियन आर्मी।
जानेकिसने कह दिया था सन्दीप को कि तुम्हारा वज़न ज़्यादा है। तुम तो फ़ौजी के लिये जानेवाले इंटरव्यू में ही रिजेक्ट कर दिए जाओगे क्योंकि आर्मी को चाहिए एकदम कड़क, छरहरा, चुस्त बदन और शेर-सी कमर। बस उस दिन से ही दिनभर धूप और शाम चूल्हे के सामने खड़े रह-रहकर उसने सुखाया अपने भीतर का अतिरिक्त जल।
बेटे को धूप में खड़े देखते तो मन पर खरोंच पड़ जाती शेखर बाबू के। भरोसा अनाथ हो जाता। पिता की गुहार, माँ के आँसू... किसी का कोई मोल नहीं इस छोकरे के सामने। हलकी-सी उम्मीद की कोई किरण थी तो यही कि कौन जाने आर्मी के इतने सख्त इंटरव्यू में ही रिजेक्ट कर दिया जाए जनाब को। आख़िर है तो बनिये का ही बेटा, दिमाग़ चाहे जितना तेज़ दौड़ा ले, पर असल दौड़ में क्या खाकर मुक़ाबला करेगा वह जाटों और गुरखों का। कर ले एक बार मन की, वहाँ से रिजेक्टेड होकर आएगा तो सारी फुटानी निकल जाएगी। भाग-खड़ी होगी सारी कड़क, सारा आत्मविश्वास! दूम दबाकर भाग जाएगा आर्मी का भूत।
बस उम्मीद के उस आख़िरी रेशमी खरगोश को बड़े जतन से हाथों में पकड़े-पकड़े खड़ा था सारा घर।
दस दिनों तक इंटरव्यू चलता रहा था। लिखित और मौखिक दोनों तरह के इंटरव्यू। ढेर सारे इंटेलीजेंट टेस्ट। रिजन और लॉजिक की जाँच करता - आई क्यू टेस्ट। कैसा इनसान है, के परीक्षण के लिए कई मनोवैज्ञानिक टेस्ट। टीम स्पिरिट जाँचने के लिए कई ग्रुप इंटरव्यू। ग्रुप प्रोजेक्ट। ग्रुप एक्टिविटिज। ग्रुप डिस्कशन। एक्सटेम्पोर कम्पटीशन... यह जाँचने के लिए कि बिना पूर्व चिन्तन के आप कैसे अपने विचारों को अभिव्यक्ति दे पाते हैं कि कहीं अभिव्यक्ति लड़खड़ा तो नहीं जाती है।
और अन्त में सबसे बड़ा टेस्ट... फ़िजिकल टेस्ट। शारीरिक सामर्थ्य और साहस की जाँच करता फ़िजिकल टेस्ट। आप दौड़ रहे हैं, सामने नाला! कितने साहसी हैं आप? कहीं नाला देखकर डर तो नहीं गये?
सारे छोटे-मोटे पहाड़ों को पार कर जब राहत की साँस ली सन्दीप ने तो पता चला कि असली हिमालय तो सामने खड़ा है। तीनों एजेंसियों की सम्मिलित बैठक। इसमें पास होने पर ही आप फ़ाइनल मेडिकल टेस्ट के लिए योग्य घोषित होते हैं। सन्दीप के बैच के तैंतीस उम्मीदवारों में से सिर्फ़ तीन उम्मीदवार ही फ़इनल राउंड तक पहुँच पाए थे। आधे से अधिक सेमीफाइनल से पहले ही मैच से बाहर हो चुके थे।
और अब अन्तिम टेस्ट - मेडिकल टेस्ट। लगभग सारे मेडिकल टेस्ट पास किये उसने, बस एक जगह गाड़ी अटक गयी। नाक की हड्डी थोड़ी टेढ़ी पायी गयी। लेकिन यह कोई भारी- भरकम अड़चन नहीं थी। उससे कहा गया कि महीने भर के अन्दर वह नाक की माइनर सर्जरी करवा ले।
घर आते ही छोटे भाई सिद्धार्थ को साथ लेकर वह ख़ुद ही अस्पताल में भर्ती हो गया। नाक की हड्डी सीधी करवाने के लिए। एक छोटा-सा ऑपरेशन और नाक फिट।
उसकी बेताबी और फुर्ती को देख पिता को फिर करंट लगा। एक गहरी साँस खींची - आर्मी का जादू सिर पर सवार है। बहुत मुश्किल है अब डोर वापस खींचना। हे बजरंग बली! सवा मन के असली घी के लड्डू तेरे दरबार में, बेटे को नियुक्ति पत्र नहीं मिले।
और एक शाम उसे मिल गया नियुक्ति पत्र। पूरे घर ने जैसे भूकम्प का झटका दुबारा झेला। लगा, जैसे नियुक्ति पत्र नहीं, घर की मौत का घोषणा-पत्र हो। सन्दीप ने वातावरण को हल्का करने की चेष्टा करते हुए कहा, ‘‘पापा, मैं अपने कर्मशील जीवन की पहली उड़ान भरने जा रहा हूँ और ख़ुश होने के बजाय आप हैं कि मातम मना रहे हैं।’’
भीगे गले से गीले-गीले शब्द निकले, ‘‘तुम सिर्फ़ धाँसू डायलॉग मार रहे हो और भावनाओं में बह रहे हो। तुममें जोश ज़रूर है पर होश नहीं। आर्मी का सीमित आकाश तुम्हें ऊँची उड़ान भरने नहीं देगा। तुम्हारे पंख कतर दिए जाएँगे और तुम कुछ नहीं कर पाओगे।’’
शेखर बाबू के सामने कुछ वर्ष पूर्व हुए 1971 के बांग्लादेश युद्ध की विभीषिकाओं के दृश्य सजीव हो, प्रेत की तरह नाचने लगे थे। कितने गये जो कभी लौटकर नहीं आये, कुछ आये तो भी साबूत नहीं आये।
दिल बहुत ही भारी हो गया था उनका। गहरे से फिर देख पुत्र को। समझाने की फिर की आख़िरी चेष्टा, ‘‘देखो, तुम जो मुझे सान्त्वना दे रहे हो न कि यदि मुझे रास नहीं आयी आर्मी तो साल भर के भीतर मैं कभी भी वापस लौटकर आ जाऊँगा, तो तुम यह जान लो बेटा कि एक बार तुम यहाँ से निकल गये तो फिर लौट कर आना तुम्हारे लिए सम्भव नहीं होगा। बहुत दुनिया देखी है मैंने इसीलिए कह रहा हूँ कि स्रोत से निकलकर कोई भी लहर वापस उद्गम तक कभी नहीं लौट पाती है, फिर तो आगे अनन्त समुद्र ही मिलता है। आर्मी का मतलब ही है - मौत, विनाश, अशान्ति और रक्तपात।’’
उसने फिर समझाना चाहा पापा को, ‘‘पापा, मैं क्या करूँ, मुझे बिजनेस से विरक्ति है। मैं अच्छा बिजनेसमैन बन ही नहीं सकता। मेरी मानसिक बनावट वैसी है ही नहीं। हो भी नहीं सकती, मैं यह जानता हूँ। मैंने ख़ूब सोचा है इस पर। मैंने क़रीब से देखा है, आपके और आपके साथियों के जीवन को - एकदम सीधी-सड़क। हज़ार से लाख और लाख से करोड़ तक पहुँचने ही दौड़। मुझे व्यर्थ लगता है ऐसा जीवन जो सिर्फ़ अपने तक हो, जिसमें किसी भी प्रकार का न तो मानसिक और बौद्धिक सन्तोष हो और न ही एडवेंचर या थ्रिल हो। और सबसे बड़ी बात तो यही पापा कि मैं जो हूँ उसे नकारकर यदि आप मुझे तोड़-मरोड़कर कुछ और बनाना चाहेंगे तो मैं तो विकृत होऊँगा ही, आपका भी इस अपराधबोध के साथ जीना दुश्वार हो जाएगा। इसलिए अच्छा है कि आप लहरों को उसकी स्वाभाविक दिशा और वेग से बहने दें, धारा को मोड़ने की चेष्टा न करें।’’
जवाब सुन दंग रह गये शेखरबाबू। भीतर का सूर्य डूबने लगा। डूबती आँखों से फिर देखा पुत्र को - क्या यही उनका बेटा है? अपना ख़ून! क्या सचमुच उनसे कोई भूल हुई? वे समझ ही नहीं पाए बेटों को? वे दिन-पर-दिन अपने व्यापार में गहरे धँसते गये, उनके लिए वित्त -सत्य ही जीवन - सत्य बनता गया और बेटा उनके गुरुत्वाकर्षण से छिटक लहर की तरह दूर होता गया उनसे।
इस बार उन्होंने अपनी रणनीति बदली। पुत्र को तर्क की बजाय ममता से पटकनी दी जाए। बेटा, यह तो सोचो, हमारी सात पीढ़ी में से कोई भी फ़ौज में नहीं गया। यहाँ तक कि नौकरी भी शायद ही किसी ने की हो। तुम मुझ पर इस प्रकार एक साथ यह दुगुनी चोट नहीं कर सकते। ठीक है तुम बिजनेस में नहीं आना चाहते हो मत आओ, इंजीनियरिंग कर नौकरी कर लेना। मैं वचन देता हूँ कि मैं तुम्हें नहीं रोकूँगा, पर फ़ौज में मैं तुम्हें नहीं जाने दूँगा। हर्गिज़ नहीं।
विजेता के भाव से सन्दीप ने नहले पर दहला जड़ा पापा, यदि आप अपनी पीढ़ी का इतिहास ही मुझ पर लादना चाहते हैं तो थोड़ा और पीछे हटिए, आप देखेंगे कि हमारे पूर्वज राजपूत थे। हम ख़ुद राजपूत से जैन बने हैं और राजपूतों में एक समय यह परम्परा थी कि हर राजपूत परिवार अपने बड़े पुत्र को सेना में भेजता था। देशसेवा के लिए। तो मुझे कृपया आप जाने की अनुमति दें, सिद्धार्थ को आप अपने अनुसार ढाल लीजिएगा।
क्या? क्या कहा? उन्हें लगा जैसे वे बेटे को नहीं वरन बेटे के नये अवतार को देख रहे हैं। कब उग आया बेटे का यह नया व्यक्तित्व! पुरखों के जिस इतिहास को उनके माध्यम से बेटे तक पहुँचना चाहिए था वह बेटे से होकर उन तक पहुँच रहा है। हे राम! बेटे का वजूद फैल रहा है, फैलता जा रहा है जबकि उनका दिन-पर-दिन सिकुड़ता जा रहा है।
बेटे के जवाब से पराजय स्वीकार कर ली उन्होंने। समझ गये बेटे को समझाना उनके बस का नहीं। उसके व्यक्तित्व के पर निकल आये हैं, अब उसे उड़ान भरने से रोकना उनके बस का नहीं। इससे पूर्व कि लड़का उनके हाथों से पूरी तरह निकल जाए, अच्छा होगा कि वे भी उसके सरोकारों और सपनों के हिस्सेदार बन जाएँ।
रात उन्होंने रोती-कलपती पत्नी को भी समझाया, ‘‘देखो ख़तरा कहाँ नहीं है। जीना-मरना सब ऊपरवाले के हाथ है। हवा के रुख़ को पहचानो और सन्दीप को राज़ी-ख़ुशी देहरादून के लिए विदा करो।’’
घरवाले और रिश्तेदार ही नहीं, पूरा मुहल्ला विदा करने आया था सन्दीप को स्टेशन। सचमुच वीर घटना थी मुहल्ले के लिए। व्यापारी परिवार और वह भी मारवाड़ी? उनका लड़का सेना में? जिसकी दादी बिल्ली से डर जाती है और जिसकी अम्मा छिपकली देख भाग खड़ी होती है उस परिवार का वंशज तोप, गोला, बारूद और बन्दूक की दुनिया में? क्या बात है। कइयों ने उसे हैरत और गर्व से देखा तो कइयों की निगाह में हैरत, हैरानी और तरस खाने का मिला-जुला भाव भी था। क्या देती है आर्मी... जितना पैसा मिलता है उससे क्या बाप जैसी ठाठ-बाठ की ज़िन्दगी जी पाएगा वह? मुहल्ले की एक अधबूढ़ी औरत ने अतिउत्साह में जब गर्दन हिला -हिलाकर कहा... वाह! देश सेवा के लिए जा रहा है सन्दीप, तो बजाय गौरवान्वित होने के शेखर बाबू और उनकी पत्नी का मुँह सिकुड़-सा गया था। इस काले समय में देशभक्ति भी शायद पिछड़े लोगों की फ़ितरत रह गयी थी।
...और जब गार्ड ने सिग्न्ल दिया, और ट्रेन हिली तो अपने पापा और माँ को हिचकी ले-ले रोते देख सन्दीप की भी आँखें छलछला आयीं, लगा जैसे किसी ने भीगे तौलिये की तरह आत्मा को निचोड़कर रख दिया है। उफ़! कितनी जानलेवा होती है अपनत्व की यह डोर! जिनसे भागकर दूर चला जाना चाहता है वह, वे ही आज चलाचली की इस बेला कितने वेग से खींच रहे हैं उसे अपनी ओर। सही में मन जो न कराए सो थोड़ा।
क़ाश उसे समझाने की बजाय घरवाले उसे समझ पाते कि वह अपना जीवन पिता की तरह पाई-पाई का हिसाब रखने, तेज़ी-मन्दी खेलने, पीतल तौलने या फिर किसी प्राइवेट फर्म के बाँस की मनहूस शक्ल देखने की बजाय राष्ट्र की सुरक्षा कर सीमाओं की चौकसी में बिताना चाहता है!
पर यह गाड़ी क्यों नहीं चल रही? इससे पहले कि भावनाओं का भार असह्य हो जाए और वह कच्चा पड़ जाए परिवार के सामने, गाड़ी को चल जाना चाहिए। उसका मन किया वह ख़ुद धक्का लगा दे ट्रेन को। पूरा महीना निकाल दिया उसने परिवार को झेलते, उनसे झगड़ते पर विदा के ये पन्द्रह-बीस मिनट चट्टान की तरह उसके वजूद पर भारी पड़ रहे थे।
जब उसे लगा बस अब गाड़ी चलने वाली है...। उसने माँ-पापा के चरणस्पर्श किये तो पिता ने अंक में भरते हुए उसे फिर स्मरण कराया, ‘‘बेटा, आर्मी के अनुबन्ध के अनुसार जब तक तुम ट्रेनिंग पीरियड में हो कभी भी लौट कर वापस आ सकते हो नागरिक जीवन में... इसलिए अभी भी तुम चाहो तो निर्णय बदल सकते हो। पर एक बार तुमने अनुबन्ध पत्र और शपथ-पत्र में हस्ताक्षर कर दिया तो फिर नामुमकिन है नागरिक जीवन में वापस लौटना... बोलते-बोलते उसके पिता सचमुच रो पड़े थे। उसके पिता का यह एकदम नया रूप था जिसकी परत उसके सामने खुल रही थी। अभी तक उसने अपने पापा को हमेशा व्यापार में डूबे और मातहतों, कर्मचारियों और क़र्जदारों से सख़्ती से पेश आते ही देखा था। पापा का यह रूप और माँ की लाल -लाल आँखों को देख उसके भीतर के ठिठके ठहरे पानियों में जाने कैसी तो लहर उठी... और उसकी सारी मजबूती रेत के ठूह-सी ढह गयी।
ट्रेन के चलने के पूर्व ही वह अपनी सीट पर चला गया। चलाचली की बेला में कच्चा नहीं पड़ना चाहता था वह।
और जब गाड़ी सचमुच चल दी तो उसने सुना माँ उसकी खिड़की के पास खड़ी, शीशे के उस पार के चिल्ला रही थी - सन्दीप! सन्दीप! दरवाज़े तक आओ। पर वह बाहर नहीं निकला...। भीतर चलती आँधियों को रोके रहा वह। इस क्षण पराजित हो गया तो सारी ज़िन्दगी अपनी इस दुर्बलता के लिए माफ़ नहीं कर पाएगा वह स्वयं को उफ़ कितना रहस्यमय है यह मन! जो वह चाह रहा था, वही हो रहा है, तो भी वह ख़ुश क्यों नहीं? क्यों हो रहा है इतना आकुल -व्याकुल। आख़िर जब ट्रेन चलने लगी तो दौड़कर आया वह दरवाज़े तक। हिलते हाथ। देखा उसने - ध्वस्त हुई माँ को छोटा भाई सहारा देकर ले जा रहा है, आहिस्ता -आहिस्ता! देहरादून स्टेशन! राहत महसूसी उसने - सामने आर्मी की गाड़ी। गाड़ी में लकदक आर्मी अफ़सर उसे ऑफ़िसर्स ट्रेनिंग अकादमी ले जाने के लिए।
सपना पूरा होने के बाद कैसे जीता है आदमी!
ऐसे!
उसे उत्तेजना और आशंका ने एक साथ दबोचा - अब वह इंडियन आर्मी में है। जहाँ इस खयाल ने उसे तरंगित किया वहीं इस सोच ने कि अब वह घर से हज़ारों मील की दूरी पर है, आगे की सारी उड़ान अपने कन्धों पर, क्या सामर्थ्य बटोर पाएगा वह? जाने कैसी ट्रेनिंग हो। बहरहाल अनजाने ही एक उम्मीद भीतर उगने लगी - आर्मी स्वागत करेगी उसका। अख़बार में पढ़ा वह विज्ञापन फिर एक बार आँखों के आगे लहरा गया - नेशन नीड्स यू। अपने चमकते कैरियर को दाँव पर लगा वह यहाँ आया है... इस बात का लिहाज़ क्या नहीं करेगी आर्मी?
आर्मी की बड़ी-सी जीप के पास खड़ा रहा वह जाने किस उम्मीद में कि अचानक सुनी उसने एक रूखी और कड़कती आवाज़ - सामान उठा। क्या...? उसी से कहा गया? भीतर कुछ दरका। उत्साह अचानक हाथ से छूटे गिलास की तरह चूर -चूर हो गया। फ़ौजी जीवन की सनसनी परे हट गयी। धुकधुकी शुरू हो गयी। उसने तो उम्मीद की थी कि कुली आएगा। उसका सामान उठाएगा और वह राजाबाबू की तरह दोनों हाथ पेंट की जेब में डाले मुस्कराते हुए हौले-हौले चलेगा। उफ़! वह तो भूल ही गया था कि यह आर्मी है, कठोर जीवन शैली वाली। पहले आघात से ही नहीं सँभल पाया था वह कि तभी एक और कर्कश आवाज़ कानों से टकरायी - यू बास्टर्ड! कम हियर। उससे सिर्फ़ छह महीने सीनियर अफ़सर का यह रवैया! सँभला-सँभला कि तभी उसी ऑफ़िसर ने उसके बेल्ट की लूप में उँगली डाल उसे गर्दन से धर दबोचा।
उसकी आँखें भर आयीं। क्या दुनिया में ऑक्सीजन की कमी हो गयी है? उसका दम घुटने लगा। उस एक शब्द ‘बास्टर्ड’ ने उसे उसके ख़्वाबों की ज़मीन से दूर पटक अनजाने भविष्य के प्रति उसके कच्चे मन में हल्का -सा डर भी पैदा कर दिया था। उफ़! यह आर्मी है या सांड, मिलते ही लगा सींग मारने। जिस आर्मी के लिए उसने सबको रुलाया, आज पाँव धरते ही उसने उसे ही रुला दिया।
कहीं पापा की भविष्यवाणी सही न हो जाए!
बाद में मालूम पड़ा उसे कि यह सब रैगिंग थी। ऑफिसर्स ट्रेनिंग में क़दम रखते ही उसे कठोर... उसे आदमी, उसे ही-मैन बनाने की प्रक्रिया शुरू हो गयी थी।
बीतेकल की उतरती सीढ़ियाँ।
पहाड़ियों, घाटियों, हवाओं और वादियों का शहर देहरादून।
एक नयी दुनिया थी वह जो परत दर परत खुलती जा रही थी उसके सामने। अपने सारे रहस्यों और उत्तेजनाओं के साथ। एक बार फिर इस विश्वास ने उसके भीतर जगह बनायी कि कितनी मेहनत करती है आर्मी आदमी को आदमी बनाने के लिए। अब समझ में आया उसे कि क्यों इतना कठिन इंटरव्यू होता है आर्मी के ऑफ़िसर्स कैटेगरी के लिए। यदि कच्ची माटी में गुणवत्ता हो तो फिर चाहे जो भी रूप दे दे उसे आर्मी। ऐसा गढ़ती है आर्मी आदमी को किसी कुशल कुम्भकार की तरह कि फिर जीवन भर के लिए आदमी वह नहीं रह पाता है जो वह था - इस दुनिया में घुसने के पूर्व। सबकुछ बदल जाता है उसका - देह, मन, आत्मा।
वह शिवाजी बटालियन की मैक्टीला की कम्पनी में था। हर कम्पनी में 80 ऑफ़िसर थे। उसका दोस्त गिरिराज रंजीत बटालियन की कोहिमा कम्पनी में था। हर कम्पनी के पास दो प्लेटून होते हैं। हरेक प्लेटून में 30 -40 कैडेट होते हैं। उनके ऊपर एक ग्रुप-ऑफ़िसर होता है। वही ट्रेनिंग देता है। उसके कैप्टन का नाम था - ए.के. सिंह।
और वहीं एक और नये सत्य से साक्षात्कार हुआ - जैसे कोई भी पानी हो, छोटी -मोटी नदियाँ हों, नाले हो, चश्मे हो, तालाब हो... लेकिन सब गंगा में जाकर गंगा हो जाती हैं, वैसे ही भारत के विभिन्न राज्यों, प्रान्तों, मैदानों, पहाड़ों, राजमार्गों, पगडंडियों से जो भी आता है यहाँ, आर्मी की गंगा में मिलकर फ़ौजी हो जाता है और वही बनती है उसकी पहचान। और इस फ़ौजी को आर्मी सबसे पहले बनाती है जेंटिलमैन। सबसे पहले तुम एक अच्छे इनसान बनो फिर कुछ और। और इसी प्रक्रिया के तहत हर फ़ौजी को दिया गया - जेंटिलमैन कैडट नम्बर। उसका जेंटिलमैन कैडेट नम्बर था - एक सौ आठ।
यही थी उसकी नयी पहचान। अब वह नाम से नहीं, जी.सी. नम्बर से पहचाना जाता था। और यही था आर्मी का मूलमन्त्र भी। ‘स्व’ को विसर्जित कर समूह में ढालना। यहाँ सारे जीवन मूल्य सामूहिकता के जीवन-मूल्य थे। व्यक्ति से टीम, टीम से कम्पनी, कम्पनी से बैटेलियन, बैटेलियन से रेजिमेंट और रेजिमेंट से राष्ट्र के लिए सोचना। लेकिन सबसे ज़्यादा झुँझलाहट होती उसे बार-बार ड्रेस बदलने से। जैसे उसका वजूद सिमटकर वर्दी में रिड्यूस हो गया हो। जैसे वह मनुष्य नहीं सिर्फ़ एक वर्दी हो। अपने घर में जितनी ड्रेसें वह सप्ताह भर में नहीं बदलता उतनी उसे यहाँ एक दिन में बदलनी पड़ जाती। पी.टी. के लिए सफ़ेद टी.शर्ट और ड्रिल के लिए अलग ड्रेस तक तो बात फिर भी समझ में आती लेकिन इनडोर क्लास के लिए अलग ड्रेस और आउटडोर क्लास के लिए भी अलग चीता ड्रेस - हलके हरी और पीली पत्तियों वाली ड्रेस। कई बार तो उसे पाँच मिनट भी नहीं दिए जाते ड्रेस बदलने के लिए।
क्या इसी प्रकार ड्रेसें बदलवा बदलवा कर उसे फुर्तीला बनाया जाएगा?
उसके शून्य में यह सवाल किसी नन्हें पौधे की तरह उगा। कई बार दिमाग़ में एक और सवाल - उगता, क्या यहाँ आकर उसने कोई भूल की?
विशेषकर जब नियमों के खूटों से बँधी यहाँ की कठोर दिनचर्या और ज़बरदस्त रैगिंग से घबराकर उसकी आत्मा चीत्कार कर उठती – नहीं, यह ज़िन्दगी उसकी नहीं हो सकती, यह तो अजगर की तरह निगल लेगी उसकी तरंगों को, उसके सपनों को उसकी उड़ानों को। ऐसे में घर की यादें, घर का खाना लहरों की तरह उसे उद्वेलित करता बहा ले जाता।
यहाँ उसे पाँच बजे उठा जाना पड़ता। कड़क ठंड में भी नहाना पड़ता और फिर निकल जाना पड़ता पी.टी. के लिए। घंटे भर चलती पी.टी.। इतना ज़्यादा शारीरिक व्यायाम होता कि ठंड में भी वह पसीने में नहा जाता। उसके अंडरवीयर तक भीग जाते, भीतर घाव हो जाते। फिर 20 मिनट का ब्रेक मिलता - जिसमें उसे अपनी ड्रेस बदलनी पड़ती और फिर पैंतालीस मिनट तक की फिर ड्रिल।
उसका आरामतलब शरीर चीख़ उठता।
तब जाकर मिलता उसे सुबह का नाश्ता। दही, कॉफी, चाय, दूध, अंडे, आमलेट, मक्खन, ब्रेड - जितना खा सको।
कई बार उसे भरपेट खाने भी नहीं दिया जाता। वह खाने बैठता कि सीनियर आ धमकते और अपनी कड़क आवाज़ में उसे आदेश देते - पाँच मिनट के अन्दर खाओ। वह खाना नहीं खाता, निगलता। भकोसता जितना भकोस पाता पाँच मिनट में। कई बार खाने बैठता। देखता थाली से चपातियाँ ग़ायब। ख़ाली दाल पीकर वह चल देता।
यहीं आकर उसने जाना - आर्मी की मशहूर स्कवाअर अप रैगिंग। अँग्रेजों के ज़माने से चली आ रही थी यह रैगिंग। स्कवाअर अप मील मतलब भरपेट भोजन। उन्हें खाने पर बुलाया जाता, सजी-धजी थाली सामने रख दी जाती। जैसे ही वे खाना शुरू करते सीनियर आ धमकते। वे खड़े हो सीनियर को सैल्यूट मारते। सीनियर कहते - हवा में चम्मच से स्कवाअर बनाओ, वे हवा में चम्मच से स्कवाअर बनाते। सीनियर कहते, नाऊ, यू हैड ए स्कवाअर मील, नो मोर... अब तुम्हारा स्कवाअर मील यानी भरपेट खाना हो गया, अब तुम जा सकते हो। यह उन दिनों का सबसे दुखद दृश्य होता। पूरे दिन भूखा रहना पड़ता। कई बार वह अपने मोज़ों में चॉकलेट छिपा लेता, जैसे ही मौक़ा मिलता उसे खा लेता।
एक रात कड़कती ठंड में उसे आदेश मिला - कपड़े उतार ज़मीन पर लेटो, सिवाय अंडरवीयर के उसने सारे कपड़े उतार डाले।
और आर्मी के दंड! ख़ुदा बचाए! पीठ पर पत्थर से भरा बोरा लेकर रूटीन दौड़ लगा ही चुका था वह। साइकिल से अपने क्वार्टर की तरफ़ बढ़ रहा था, उसने खयाल नहीं किया सीनियर उधर से निकल रहे थे। आर्मी आचार संहिता के अनुसार उसे साइकिल से उतरकर पैदल ही साइकिल के साथ चलना था। पर ज़बरदस्त थकावट और भूख ने उसे अधमरा कर दिया था। अपने क्वार्टर में लौटा तो खाने की बजाय दंड हाज़िर था - साइकिल कन्धे पर रखकर दौड़ो।
या ख़ुदा क्या सामन्तवाद। छह महीने सीनियर भी मालिक! सर! जिसे खुली छूट रहती है इन नये रंगरूटों को आदमी बनाने की।
धीरे -धीरे उसे समझ में आ गया कि अपने वरिष्ठों की नज़र में वह एक ऐसा गधा है जिसे फ़ौजी बनाने का भूत उन पर सवार है।
आर्मी की कठोर दिनचर्या और उस पर रैगिंग। उसका मन जमने से पहले ही उखड़ने लगा था। ग़नीमत थी तो यही कि इतनी व्यस्तताओं और फ़ौजी हलचलों के बीच कई बार उसे दिल के टूटने -उखड़ने का पता भी नहीं चलता। दिन होता, रात होती, समय चौकड़ियाँ भरता भागता जाता। एक शाम थोड़ा समय मिला तो उसे उदासी ने घेर लिया। घरवालों की याद ने विचलित कर दिया और तभी उसे ऑफ़िस बुलाया गया। वहाँ उसे अपने परम मित्र अभिषेक की एक लम्बी चिट्ठी मिली जिसे देख वह मेढ़क की तरह उछल पड़ा। अभिषेक भी अपने घर से हज़ारों मील दूर तमिलनाडु के त्रिची शहर के रीजनल इंजीनियरिंग कॉलेज से इंजीनियरिंग कर रहा था। चिट्ठी इस प्रकार थी,
उल्लू गधे,
तुझे लगता है कि तुझ पर फ़ौजी कायदे-क़ानून का पहाड़ टूट पड़ा है और मैं यहाँ जलेबियाँ उड़ा रहा हूँ। और जानबूझकर तुझे नहीं लिख रहा हूँ। अरे कार्टून, दुनिया हर जगह एक जैसी है। हर जगह हम लोगों की फट रही है।
तुम्हारे यहाँ होने वाली रैगिंग के बारे में मैंने अख़बार में पढ़ा। मैंने तो यहाँ तक पढ़ा कि आई.एम.ए. के भगत बैटेलियन के सिंगारी कम्पनी के जेंटिलमैन कैडेट एक सौ ग्यारह ने रैंगिग से तंग आकर आत्महत्या कर ली। तुम लोग तो फिर भी ख़ुशनसीब हो कि एक बन्दा पंखे से झूल गया और तुम सबको वैसी जानलेवा रैगिंग से मुक्ति दिला गया।
अब सुन यहाँ के हाल। बेटे, यहाँ आकर पहली बार जाना घर क्या होता है और क्या होता है घर का खाना, घर की सुविधा। घर की सुरक्षा। अभी तक हमने बाहर की दुनिया देखी ही कहाँ थी। हमारे दिमाग़ में सबकुछ अच्छा ही अच्छा भरा था। हमारे लिए बाहर की दुनिया घर का ही विस्तार थी। पहली बार यह भरोसा हमारा यहाँ आकर टूटा कि दुनिया उतनी अच्छी भी नहीं है। यहाँ आकर मैंने पाया कि हमारी निश्चल दुनिया में एकाएक धोखा, अविश्वास, क्रूरता और हिंसा घुस आयी है... कि हमें हर दिन एक नया युद्ध लड़ना होता है।
जानते हो मेरे बैच के दो लड़के रैगिंग से घबराकर घर भाग गये हैं। हम जैसे ढीठ और गैंडा चमड़ी तो सारी जिल्लत, यातना और अपमान झेल जाते हैं, पर स्वाभिमानी और कमज़ोर गुर्देवाले भाग खड़े होते हैं। एक बन्दा तो मानसिक रूप से इतना विक्षिप्त हो गया था कि उसे अस्पताल में दाखिल करवाना पड़ा। उसे पूरी तरह नंगाकर कहा गया - तैर। धरती पर तैर। नंगेपन की शर्म को झेल नहीं पाने के कारण वह सिकुड़ता गया। वे कहते रहे - तैर। सारी रात यही वहशी खेल चलता रहा।
और अब सुन क्या हुआ मेरे साथ। यहाँ नेशनल इंस्टीट्यूट ऑव टेक्नोलॉजी, त्रिची में रैगिंग बहुत ही वैज्ञानिक, परम्परागत और व्यवस्थित ढंग से होती है। हमसे जो साल भर सीनियर हैं, उन्हें हम बाप कहते हैं, जो दो साल सीनियर हैं उन्हें हम दादा कहते हैं, और जो तीन साल सीनियर हैं, वे हुए परदादा। तो हर सीनियर का एक बेटा होता है जिसकी रैगिंग करने का उसे विशेषाधिकार होता है। यहाँ रैगिंग भी नियमानुसार होती है। यानी हर राज्य और प्रान्त वाले अपने ही राज्य और प्रान्तवालों की रैगिंग कर सकते हैं। मैं बंगाल से हूँ तो मेरी रैगिंग सिर्फ़ बंगाल कोटा से आये सीनियर्स ही कर सकते हैं। उसी प्रकार जो एन. आर.आई. हैं उनकी रैगिंग भी एन.आर.आई. ही कर सकते हैं।
क़रीब आठ नौ महीने तक चलती रहती है रैगिंग तब तक जब तक कि हमें सीनियर्स द्वारा फ्रेशर्स वेल्कम पार्टी नहीं मिल जाती। इस दरम्यान हम पर कई प्रतिबन्ध होते हैं, जेल के क़ैदियों की तरह। हम कॉलेज कैम्पस से बाहर घूम नहीं सकते, यदि कोई बेहद ही ज़रूरी काम हो तो भी हमें इजाज़त लेकर ही जाना होता है। इन आठ -नौ महीने हम न बूट पहन सकते हैं, न जींस और न ही टी.शर्ट। कॉलोनी कैम्पस में हमें हवाई चप्पल पहन कर रहना पड़ता है। हमें पूरी बाँह और बन्द गले का बुश्शर्ट पहनना होता है। हमें मिलिट्री कट यानी बहुत छोटे-छोटे बाल रखने होते हैं यानी पूरी तरह लल्लू बनाकर हमें रखा जाता है। मेरे पास पूरी बाँह की कमीज़ें कम थीं, इस कारण एक बार मैंने आधी बाँह का शर्ट पहन लिया जिसकी कॉलर के ऊपर दो शो बटन लगाए हुए थे। मैं कम्प्यूटर रूम की तरफ़ बढ़ रहा था। रास्ते में मुझे दो सीनियर मिले पर मैं निश्चिन्त था, वे मध्य प्रदेश के थे और नियम के अनुसार वे मेरी रैगिंग नहीं कर सकते थे। पर जब तक मैं कम्प्यूटर रूम तक पहुँचा जाने कहाँ से यह ख़बर उड़कर मेरे बाप तक पहुँच गयी और उसके रूम के बाहर बाग देने लगी। आनन-फानन में मेरा बाप हाजिर और दो झन्नाटेदार थप्पड़ मेरे गाल पर। इस प्रकार बास्टर्ड ने खींचे शो बटन कि शर्ट ही फट गयी, फिर उसने पूछा, ‘‘तेरा स्कोर कितना है।’’
मैंने कहा, ‘‘आठ सर।’’
बस आठ ही, फिर दो तीन झन्नाटेदार थप्पड़ मेरे उसी गाल पर फिर बका उसने, ‘‘अब बता कितने स्कोर हुए?’’
मैंने कहा, ‘‘ग्यारह सर! हाँ अब दो अंक वाला स्कोर ठीक है, अब तू जा।’’
कई बार यह रैगिंग बड़ी इंटेलीजेंट टाइप की रैगिंग भी होती है। एक बार रैगिंग के दौरान मुझसे कहा गया, ‘‘तुमको पेशाब लगा है तो तुम क्या करोगे?’’
‘‘सर, मूतूँगा।’’
‘‘तुमको यदि जलते हुए हीटर के ऊपर मूतने को कहा जाए तो क्या करोगे?’’
‘‘सर रुक-रुककर मूतूँगा। (जिससे मुझे करंट नहीं लगे।)’’
तो धोंचु, तेरी क्या रैगिंग हुई। रैगिंग तो हम लोगों की होती है, अभी तो और सुन!
एक बार मेरे बाप ने मुझे अपने कमरे में बुलाया, मैं गया। मैं वहाँ एकदम अकेला था। मेरे इर्द गिर्द पाँच-छह सीनियर थे जो सभी बंगाल से थे। इस क़दर घूर रहे थे वे मुझे कि उनकी आँखों से लपट मारती क्रूरता की तपिश से ही झुलस गया था मैं। तभी मेरी नज़र उस टेबिल पर पड़ी जिस पर रखे थे डिटॉल, कैंची, बैंडेज, रुई, पट्टियाँ और नोवासेल्फ पाउडर (ख़ून बहने से रोकने वाला पाउडर) आदि। और कोने में पड़ा था एक स्ट्रेचर। मेरे तो होश उड़ गये। आज मरा। मैं डर से ठिठुरता रहा। मेरी घड़कनें तेज़ होती गयी।
तभी मैंने सुना। मेरे बाप से उसका दोस्त पूछ रहा था, ‘‘यह डिटॉल, नोवासेल्फ, पट्टियाँ वग़ैरह क्यों रखी हुई हैं? उसने झटके से मटके-सी अपनी गर्दन मेरी ओर घुमायी और यूँ देखा मेरी ओर कि हिटलर के ज़माने में नाजी भी यहूदियों की ओर क्या देखते होंगे। फिर उस बाप ने जवाब दिया, ‘‘पिछले सप्ताह रैगिंग में एक लड़के का माथा फट गया था, बुरी तरह ख़ून बहने लगा था, हमारे पास फर्स्ट एड भी नहीं था, बहुत ख़ून बह गया था बेचारे का। इस कारण इस बार पहले से ही सारे इन्तज़ाम कर रखे हैं।’’
मेरी तो फट गयी। अन्दर गीला-पीला हो गया। अब हुई पिटाई, अब हुई पिटाई। अब लिटाया - स्ट्रेचर पर। सुना था, सत्तर के दशक में बंगाल के नक्सलवादी इंटेरोगेशन रूम में जाते थे चलकर पर निकलते थे स्ट्रेचर पर। वही दृश्य दिमाग़ में घूमने लगा। वे आपस में बतियाने लगे कि कैसे उस लड़के के नाक से ख़ून बहा, फिर कैसे उसका होंठ कटा और अन्त में कैसे उसका माथा फटा जब उन्होंने उसके माथे को दीवाल से भिड़ा दिया था। मैं और सुन नहीं सका और धम्म से ज़मीन पर बैठ गया। बैठे-बैठै ही मेरा दिल इतनी ज़ोर से धड़का कि उसकी आवाज़ मेरे बाप ने भी सुन ली। इसलिए बिना मेरी ओर देखे ही वह बोलता रहा, ‘‘यार, उस दिन तो थोड़ी-सी भी देरी और हो जाती तो उस बेचारे का तो ‘राम नाम सत्य’ हो ही जाता।’’ उसका तो बोलना हुआ और मेरा सिर चकराने लगा। कई बार पढ़ चुका था कि कैसे रैगिंग के दौरान लड़के की मौत तक हो गयी। मैं एकदम अकेला अनजान शहर... अनजान भाषा और सामने पाँच -पाँच साक्षात यमराज! मैं सुबकने लगा। और तभी मेरे बाप ने फिर जड़ा एक करारा.....चाँटा मेरे गालों पर और फिर पूछा, ‘‘क्या है तेरा स्कोर?’’ मैंने कहा ‘‘पचपन।’’
उसके दोस्त ने फिर अपने हाथ मुझपर आजमाए और कहा, ‘‘अब तू अमीर हो गया, अब जा भाग।’’
मैं दुम दबा के भागा। बाद में पता चला वह डिटॉल कैंची और पट्टियाँ सारी नौटंकी थी, महज़ मुझे डराने के लिए थीं।
सोचो, कितनी क्रूरता थी उनमें। कहीं पढा था कि चंगेज ख़ाँ पहाड़ों से हाथियों को गिरवा देता था और उनके आर्त्तनाद को सुनकर आह्लादित होता रहात था। हर युग में सैडिस्ट प्रवृत्ति के ऐसे चंगेज ख़ाँ पैदा होते रहते हैं और धरती के उसी टुकड़े को दुर्गन्धयुक्त करते रहते हैं जो उन्हें पालती-पोसती है।
कई बार मैं सोचता हूँ कि इतनी क्रूरता इनमें आती कहाँ से है। क्या क्रूरता से जन्म लेती है क्रूरता? एक बार मैं रैगिंग के दौरान रो पड़ा था और मेरे मुँह से अपने सीनियर के लिए निकल पड़ा था। आप भी तो छह महीने पूर्व फ्रेशर थे, मेरी तरह क्या आप भूल गये अपने दिन? जानते हो उसने मुझे क्या जवाब दिया? उसने कहा, ‘‘हाँ, छह महीने बाद तुम भी इसी तरह फ्रेशर की रैगिंग करोगे बल्कि हमसे भी कहीं ज़्यादा क्रूर ढंग से। यानी इसी प्रकार चलता रहेगा क्रूरता का यह खेल और दुनिया का पागलपन। कई बार सोचता हूँ कि शायद अपनी नीरस और ऊब से भरी दैनिक जीवन की दिनचर्या से निपटने के लिए एवं जीवन में कुछ थ्रील एवं मजे नामक तत्त्व को शमिल करने के लिए ही किया होगा अँग्रेजों ने रैगिंग का चलन। पर सोचो, अठारह वर्ष की उम्र! अबोध अजानी दुनिया और यह रैगिंग। दुनिया अच्छी लगते-लगते एकाएक ख़राब और खूँखार हो जाती है। और सबकुछ इतना अचानक और एकाएक होता है कि हमारी सारी लय-ताल बिगड़ जाती है। हमारे विश्वास की जड़ों में दुनिया के प्रति अविश्वास की खाद यहीं से डलना शुरू होती है जो ताउम्र हमारी नकारात्मक भावना को ही सींचती रहती हैं।
यार, तुझे ज्ञान देने के जोश में एक घटना तो बताना ही भूल गया। हमारे कैम्पस की सबसे मज़ेदार रैगिंग। मेरे रूममेट द्वैपायन के माँ-बाप उसे छोड़ने आये थे। उसकी माँ ने यहाँ की कुख्यात रैगिंग के बारे में बहुत कुछ सुन रखा था। यहाँ रहते हुए ही उसने देख लिया था सीनियर द्वारा अपने बेटे को घेरे जाते हुए। जाते-जाते वह बेहद चिन्तित हो गयी। उसने सीनियर लड़कों को कहा, ‘‘देखो, द्वैपायन तुम्हारे छोटे भाई के समान है, उसका खयाल रखना।’’
‘‘जी, आंटी, आप बिल्कुल चिन्ता मत कीजिएगा, हम उसका ख़ूब खयाल रखेंगे।’’
सीनियर से वादा ले वे थोड़ी निश्चिन्त हो घर के लिए रवाना हुई। उनके जाते ही सीनियर्स ने द्वैपायन को ज़बरदस्ती बिस्तर पर सुला दिया। उसे टोपी-मोजा पहना, चादर ओढ़ा दिया। तीन दिनों तक उन्होंने द्वैपायन को बिस्तर से उठने नहीं दिया, वहीं बिस्तर पर ही बोतल से दूध, चाय और पानी पिलाते रहे। तुम्हारी माँ बोल गयी है - इसका खयाल रखना।
तो हीरो! तू यह मत सोच कि तू आर्मी में है इसलिए ज़्यादा जकड़ा हुआ है और मैं नागरिक जीवन में हूँ, इसलिए ख़ुशहाल हूँ। मुझे तो लगता है कि हर स्तर पर चुनौतियाँ हैं, तनाव है। सम्पूर्ण सुख-चैन कहीं नहीं है। जब तक ज़िन्दगी है, लहरें तो उठेंगी ही। बस यह समझ ले कि ज़िन्दगी का दूसरा नाम ही है, मुठभेड़, हर क़दम पर मुठभेड़।
घर कब आ रहे हो? हम लोगों को तो शायद दूसरे सिमेस्टर के बाद ही छुट्टियाँ मिलेंगी। जानलेवा रैगिंग से गुज़रने के बाद मैं यह सोचने पर बाध्य हुआ हूँ कि लोगों से घुला-मिला जाए या उनसे दूरी बनाकर रखी जाए। मैं ‘डेल कारनेगी’ और ‘नेपोलियन हिल्स’ पढ़ रहा हूँ... शायद समझ गहराए। तुम्हें चाहिए?
तुम्हारा अभिषेक
अभिषेक के पत्र ने उसके घायल मन की मलहम-पट्टी की। वह तरोताज़ा हुआ। उसने फिर ख़ुद को याद दिलाया कि इस जीवन का वरण उसने ख़ुद आगे बढ़कर किया है, अपने जीवन को वृहत्तर लक्ष्य के प्रति समर्पित करने के लिए।
इस बीच उसके नाप की वर्दी भी आ गयी। जिसे पहन उसे लगा कि एक महान फ़ौजी की आत्मा उसके भीतर प्रवेश कर गयी है। उसके बाल भी मिलिट्री कट कर दिये गये। परिचय -पत्र बन गया। पहली बार वर्दी पहनी उसने तो अपने पर गुमान हो आया। देशप्रेम की भावना भीतर हिलोरे लेने लगी... वह है देश का सिपाही। दूर बचपन में सुना एक गाना, ‘नन्हा मुन्ना राही हूँ/देश का सिपाही हूँ,’ अन्तर्मन में गूँज उठा। लेकिन यह गूँज अपनी सम्पूर्णता में भीतर तरंगित भी नहीं हो पाती कि कुछ ऐसा हो जाता उसके साथ कि उसका मन फिर उखड़ जाता। आर्मी फिर भारी-भरकम चट्टान की तरह आ गिरती उसके नये उगते वजूद पर। उसे लगता कि हरी घास की तरह यहाँ हर जगह बिछी हुई है कठोरता जो उसके सारे कोमल-कोमल अहसासों को, उसके भीतर की सुकुमारता को यहाँ तक कि भीतर के सूक्ष्म सौन्दर्य बोध को भी कुचल रही है।
खेलकूद के बाद उन्हें सिनेमा दिखाया जाता। सिनेमा देखना उनके लिए अनिवार्य था। लेकिन सिनेमा देखते वे दाएँ-बाएँ नहीं देख सकते थे, और तो और लड़कियों की तरफ़ भी निगाहें नहीं फेंक सकते थे। एक बार उसने बजाय फ़िल्मी नायिका के, जीती-जागती हीरोइन को तबियत से देखा, देखता रहा, बस उसे पनिशमेंट मिला गया। जिस वक़्त दिन भर की थकान के बाद उसके बाक़ी साथी सुस्ता रहे थे, वह पीठ पर पत्थरों से भरा बोरा लादे दौड़ लगा रहा था। कठिन दिनचर्या के बाद जो थोड़ी बहुत राहत मिलती उसे, वह भी पनिशमेंट के चलते छिन जाती। ऐसे में बहुत ही मायूस हो जाता वह, आँखें डबडबा जातीं। इच्छा धूम मचाती - भाग खड़ा हो यहाँ से। पर तभी भीतर से आवाज़ निकलती मैं एक सिपाही हूँ, मुझे डटे रहना है, अन्त तक। मैं पीठ नहीं दिखा सकता।
उसके दोस्त परमजीत की हालत उससे भी बदतर थी। वह सरदार था। लम्बे-लम्बे बाल और दाढ़ी। पास में हेयर ड्रायर भी नहीं। इस कारण जब भी जब कोई परेड, पी.टी. या लंच के लिए निकलते, अकसर देर हो जाती उसे। परमजीत जी-जान से चेष्टा करता जल्दी करने की। जल्दी-जल्दी पगड़ी बाँधता पर कभी पगड़ी खुल जाती तो कभी दाढ़ी। कोई कहता, तेरी दाढ़ी काट देंगे, कोई बाल काटने की घुड़की देता। वह जब तक दुबारा पगड़ी बाँधता, देरी हो जाती। उसके चलते कई बार पूरे बैच को ही लेट लग जाती और पूरे बैच को ही दंड मिलता पर कोई उस पर दोषारोपण नहीं करता कि परमजीत के चलते यह हुआ।
आर्मी में टीम स्पिरिट की घूँटी शुरू से ही पिलानी शुरू हो जाती है। सबके साथ रहना अपनी टीम अपने कमांडर और अपने देश को सर्वोच्च सम्मान देना?
उसे अच्छा लगता यह सब।
और जब उसे वेपन ट्रेनिंग दी गयी तो रोमांचित हो उठा वह। बनिये का बेटा पर हाथ में तराजू की जगह तोप! देख ले उसकी दादी तो डर से पीली पड़ जाए।
उसे राइफ़ल्स चलाने का अभ्यास कराया गया ठीक वैसे ही जैसे युद्ध के दौरान कराया जाता है। उससे खाई ख़ुदवायी गयी। उसने सोचा आर्मी शान्ति काल में भी जवानों को युद्ध के तनाव में युद्ध की मानसिकता में रखती है, जिससे कि युद्धकाल में जवान शान्ति से युद्ध कर सकें।
वार और वेपन ट्रेनिंग के बाद अब शुरू हुई उसकी जंगल ट्रेनिंग।
सबसे रोमांचक!
सबसे थ्रिलिंग!
सबसे ख़तरनाक।
पर इसी दौरान उसने पाया कि उसका शरीर अब धीरे-धीरे आर्मी की कठोर दिनचर्या का अभ्यस्त होने लगा है। चूँकि आर्मी-मैन की पोस्टिंग कश्मीर से कन्याकुमारी तक, 46० डिग्री तापमान से माइनस 46० डिग्री तापमान तक कहीं भी हो सकती है, इस कारण उन्हें हर मौसम, हर स्थिति और हर तापमान, हर हवा को झेलने का अभ्यस्त बना दिया जाता है।
एक बार उसे एक अनजान जंगल में छोड़ दिया गया और कहा गया - अपने भोजन की व्यवस्था ख़ुद करो। जंगल ट्रेनिंग के दौरान जाना उसने पेड़ों और फूलों की रकम-रकम की रस्में। पत्तियों की जातियाँ। पत्तियों का सौन्दर्य। रंगबिरंगी पत्तियाँ, जैसे किसी ने पेंटिंग कर उनमें सृष्टि के सारे रंग उड़ेल डाले हों। अभी तक वह सोचता था कि फूल ही सबसे अधिक सुन्दर और अनेक रंगों के होते हैं, पर पत्तियाँ भी इतनी सुन्दर! इतनी विविधताओं और सुन्दरता से भरपूर! और अभी तक पत्तियों के जादू से ही वह उबर नहीं पाया था कि तभी उसने जाना कि हर जंगली पत्ती को छूना घातक हो सकता है, कि उससे खुजली का रोग हो सकता है।
एक बार उसे एक पेड़ पर चढ़ने का आर्डर मिला। वह पूरी तरह चढ़ भी नहीं पाया था कि उसके सीनियर ने दूसरे लड़के को भी उसी पेड़ पर चढ़ने का ऑर्डर दे दिया। संयोग से वह उसी टहनी को पकड़कर चढने लगा जिस पर वह लटका हुआ था। नीचे से ज़ोर का धक्का लगा, उसका सन्तुलन गड़बड़ाया और वह धड़ाम से नीचे।
पर ताज्जुब! इतनी ऊँचाई से गिरा वह, फिर भी वन पीस खड़ा हो गया वह। वह मुस्कराया - इसी तरह आर्मी बना रही है मेरे शरीर को फ़ौलादी। लेकिन उसका सारा फ़ौलादीपन और मुस्कराहटें बोल गयीं जब अगले ही सप्ताह उसे अनिवार्य बैक्सिंग प्रतियोगिता में भाग लेना पड़ा। इस प्रतियोगिता के लिए वह एकदम तैयार नहीं था, न मानसिक रूप से, न शारीरिक रूप से। लेकिन मन मारने की अच्छी प्रयोगशाला थी आर्मी। इस कारण उसे भाग लेना पड़ा। उसके खानदान की सात पीढ़ी में किसी ने मुक्केबाज़ी तो क्या किसी पर मुक्का तक नहीं उठाया था। इतिहास और वर्तमान दोनों साथ छोड़ रहे थे उसका पर जब उसने देखा कि उसके सामने खड़ा है बॉक्सिंग का सूरमा अपनी बाजू की फड़कती मछलियों के साथ तो होश उड़ गये उसके। उसकी धड़कन रुक गयी, लेकिन वह फ़ौजी ही क्या जो डर जाए।
बुजदिली और फ़ौजी साथ-साथ नहीं चल सकते।
बड़ी मार खायी उस दिन उसने। पिटता रहा लेकिन मैदान नहीं छोड़ा उसने। मन-ही-मन स्मरण करता रहा वह उस जापानी सैनिक सोकोई को जिसने उसके कोमल और सुकुमार मन -मस्तिष्क में सैनिक होने का एक नया अर्थ भर दिया था। जब-जब वह उस सैनिक के राष्ट्रप्रेम और उत्सर्ग को स्मरण करता - उसकी सारी दुर्बलता कच्ची दीवार के चूने की तरह झड़ जाती।
वह द्वितीय विश्वयुद्ध का एक साधारण लेकिन बहादुर सैनिक था। जब उसे बताया गया कि जापान ने आत्मसमर्पण कर दिया है, तो उसने विश्वास नहीं किया, इतना महान मेरा देश कैसे अमेरिका के सामने आत्मसमर्पण कर सकता है? इस कारण जब अमेरिका ने 1944 में गुआन प्रायद्वीप को मुक्त किया तो दस सैनिकों की सोकोई की टुकड़ी ने आत्मसमर्पण से इनकार किया और जंगल में भाग गयी कि वे अन्त तक लड़ते रहेंगे लेकिन समर्पण नहीं करेंगे। उन्हें लगा कि समर्पण वाली बात अमेरिका का प्रोपगेंडा मात्र है। 1945 में दूसरा विश्वयुद्ध शुरू हो गया लेकिन वे दस जंगल में छुपे रहे। बाद में उन दस में से सात सैनिक नागरिक जीवन में चले गये। लेकिन तीन अभी तक जंगल में रहे इस विश्वास के साथ कि उनका देश अभी तक लड़ रहा है। उन तीन में से दो भूख से मर गये। 1972 में दूसरे विश्वयुद्ध के 28 साल बाद दो स्थानीय मछुआरों ने उस सैनिक को ज़बर्दस्ती जंगल से निकाला। जब वह जंगल से बाहर आया तो उसे राष्ट्रीय नायक का सम्मान मिला लेकिन उसे यही लगता रहा कि उसने आर्मी के प्रति अपना कर्तव्य पूरी तरह नहीं निभाया, क्योंकि जब उसे जापान के सम्राट के सामने पेश किया गया तो उसने यही कहा, ÒÒIt is with much embarrassment that I have returned alive.” (मेरे लिए यह लज्जा की बात है कि मैं जीवित हूँ।)’’
यही होता है एक सैनिक। वह बुदबुदाया।
उसका मुँह इतना फूल गया था कि अपनी सूरत तक नहीं पहचान सका वह। नाक, होंठ, गाल सब जगह से ख़ून सिरने लगा था। ग़नीमत थी तो यही कि मुँह में उसने कुछ डाल लिया था, जिससे जीभ कटने से बच गयी।
यह मेरी अपनी ही चुनी हुई ज़िन्दगी का स्वाद है। उसने ख़ुद से ही दिल्लगी की।
देखते-देखते बीत गये छह महीने। हवा के झोंके ठंडे होने लगे। ज़िन्दगी मेहरबान होने लगी। पहली बार उसे रविवार को सिविल ड्रेस में कैम्पस से बाहर निकलने की आज्ञा मिली।
अब आलम यह था कि रविवार को वह जी भर जी लेता और रविवार के इन्तज़ार में सप्ताह के बाक़ी छह दिन किसी प्रकार निगल लेता।
औरएक जानदार दोपहर उसे शानदार ख़बर मिली कि उसे घर जाने के लिए दस दिनों की छुट्टियाँ मिल गयी हैं। वह उछल पड़ा। शायद ही बीता हो कोई दिन कि उसे खाते वक़्त, रात को सोते वक़्त, या सीनियर की फटकार सुनते वक़्त या दंड झेलते वक़्त घर की याद न आयी हो।
घर से दूर रहकर ही जाना था उसने कि घर क्या होता है। अपनी ख़ुशी बाँटने वह परमजीत के हॉस्टल की ओर गया तो देखा, परमजीत झोले की तरह मुँह लटकाए एक कोने में उदास बैठा है।
‘‘अरे, तू मुँह लटकाए क्यों बेठा है? घर नहीं जाना? तैयारी नहीं करनी? सामान नहीं जमाना?’’
ख़ाली-ख़ाली आँखों से देखता रहा परमजीत उसे। सन्दीप ने फिर धकेला उसे।
‘‘बोलता क्यों नहीं? सब ख़ैरियत तो है?’’
‘‘मेरी छुट्टियाँ कैंसिल कर दी गयी हैं। मैं नहीं जा रहा घर।’’
किसी तरह शब्दों को बाहर धकेला परमजीत ने।
‘‘पर क्यों?’’
‘‘पनिशमेंट! दंड!’’ हिकारत और व्यंग्य से कहा उसने।
‘‘पनिशमेंट? पर किस बात का?’’
‘‘ड्रिल में प्रदर्शन अच्छा नहीं था इस कारण।’’
‘‘हे भगवान! यह आर्मी है या हथौड़ा। या यह भी उसका अपना ढंग है फ़ौजियों के कोमल तन्तुओं पर प्रहार कर-कर उनकी भावनाओं को कुचलने का!’’
फिर एक प्रश्न नन्हे पौधे की तरह उग आया उसके दिमाग़ के ख़ाली बंजर में। समझ नहीं पाया सन्दीप क्या कहे? क्या न कहे? कैसे सान्त्वना दे अपने मित्र को। उफ़ कितना बेताब था, कितना उछल रहा था वह घर जाने को!
आत्मीय स्पर्श से उसके कन्धे को छुआ उसने। बोलना चाहा तो अभिव्यक्ति लड़खड़ा गयी। बस चुपचाप देखता रहा उसके उदास चेहरे को और फिर चल दिया।
जैसी कि उम्मीद थी, पूरा घर पलकें बिछाए बैठा था उसके स्वागत के लिए। जैसे ही उतरा वह ट्रेन से, लिपट पड़ा पूरा घर।
पर दूसरे ही पल जैसे ही नज़र पड़ी उसके हुलिये पर माँ भौंचक्क - अरे यह कैसी शक्ल बना रखी है। आधी घुटी खोपड़ी! सूखा चेहरा! कमज़ोर शरीर!
‘‘क्या पूरा खाना भी नहीं देती आर्मी? बाल नहीं रखने देती?’’ माँ ग़मगीन हो उठी, बोलते -बोलते रो पड़ी। हीरो-सा चिकना और स्मार्ट दिखनेवाला उसका लाड़ला कैसा उजबक और गाबदी लग रहा है!
उड़ती हुई गाड़ी घर पहुँची। जैसे ही अपने घर में घुसा उसने देखा, बड़ा-सा बैनर, जिस पर लिखा था - वेलकम होम, जीसी 108। कोष्ठ के भीतर लिखा था - गोबरचन्द 108। वह ठहाका मार कर हँस पड़ा, छोटे भाई सिद्धार्थ की शरारत पर। जेंटिलमैन कैडिट को गोबरचन्द कैडिट में बदलते देख।
माँ ने नाश्ते में सभी मनपसन्द चीज़ें चुन-चुन कर बनायी थीं। मेथी के पराठे, लहसुन की चटनी। बादाम का हलुआ। क्लब कचौड़ी और गरम -गरम जलेबी।
वह भावुक हुआ। सुगन्ध से ही सात जन्मों की भूख जाग गयी थी। घर छोड़ने के बाद फिर कभी इतना लजीज़ खाना नसीब नहीं हुआ था। पर उसकी परेशानी यह थी कि उसे जी भर खाना था और अपने वजन को भी नियन्त्रण में रखना था। वजन बढ़ने पर उसे फिर कड़े दंड से गुज़रना पड़ सकता था। इस कारण वह हर चीज़ को ज़रा-ज़रा कर खाता। माँ की ममता ने ताड़ लिया, खाने के प्रति उसकी सावधानी देख। आर्मी जो कि पहले से ही अजूबा थी उस घर के लिए और जिसका दरवाज़ा खोलने में ही डरता था वह बनिया परिवार, अपने लाड़ले का वह गुपचुप कुम्हलाया, बाल मुँड़ा चेहरा और परहेज़ी खाना देख और सहम गया। अभी से ही यह हाल! क्या होगा आगे। माँ उसे खोद-खोद कर पूछती - कैसा खाना मिलता है? अफ़सर कैसे है, अभी किस तरह की ट्रेनिंग दी जा रही है?
क्या बन्दूक भी चलाता है तू? बाल इतने छोटे क्यों कर रखे हैं? सुबह कितने बजे उठना पड़ता है? दिन में पढ़ाई होती है? कितने घंटे? घर की याद आती है?
वह बार-बार बस हूँ-हाँ में जवाब देता रहा। दिमाग़ में चलती रही उन प्रारम्भिक दिनों की स्मृतियाँ जब खाने बैठता वह तो तश्तरी से चपातियाँ ग़ायब मिलती। सिर्फ़ दाल, थ्रेपटिन बिस्कुट और ग्लुकोज के सहारे बीतते प्रारम्भिक दिन! और विडम्बना आज इतना लजीज़ और सुस्वादु खाना सामने पड़ा है तो भी जी भर कर खा नहीं पा रहा है वह कि कहीं वजन न बढ़ जाए?
माँ रुआँसा हो गयी - किसी भी बात का दिल खोलकर जवाब नहीं दिया उसने। इतना सीधा-सादा बेटा, कितना घुन्ना बन गया है, महज़ छह महीने में।
छोटे भाई सिद्धार्थ ने फिर बात सँभाली – अम्मा, ये फ़ौजी सिविलियन से अधिक बात नहीं करते कि कहीं इनका रुतबा फीका न पड़ जाए।
सिद्धार्थ की बात भीतर तक गुदगुदा गयी उसे। मारा पीठ पर एक घौल उसने - साला, मुझे चला आर्मी का रिवाज़ सिखाने।
दसदिन उड़ गये पक्षी की उड़ान की तरह।
पंख फैलाया भी नहीं कि फिर उड़ने की तैयारी। वह फिर हँसा अपने आप पर। उसके साथी, उसके सीनियर ऑफ़िसर शायद ही विश्वास करें कि घर का इतना जमा-जमाया और अच्छी-ख़ासी कमाई वाले धन्धे को छोड़कर वह इस आर्मी के कहाड़ में ख़ाक क्यों छान रहा है? हँसा वह तब भी जब उसने बड़ी शान से घर में पापा और अम्मा को ख़ुश करने के लिए आर्मी की वर्दी पहनी और उसे पहनकर मुहल्ले का चक्कर भी लगा आया तो ख़ुश होने के बजाय उसके पापा ने थोड़ी नाराज़गी और थोड़े हिकारत से कहा, ‘‘उतारो इसे, इसे वहीं पहनना। हमारे सामने इसे मत पहनो।’’
मायूस हो उसने जवाब दिया, ‘‘पापा, कितने आये थे इस वर्दी की ललक में। पर कितनों को मिला - यह सम्मान! अस्सी प्रतिशत तो इंटरव्यू और दूसरे टेस्टिंग तक आते-आते ही रिजेक्ट हो गये। इतना कठोर इंटरव्यू और इतनी टफ ट्रेनिंग के बाद मिली है यह वर्दी और आप इसे देखना भी नहीं चाहते।“ नहीं चाहते हुए भी कटुता मुखर हो उठी शेखर बाबू की, डकार लेते हुए बोले, बेटा, पूरे साल भर में जितना देती है तुम्हें यह वर्दी, उतना तो महीने भर में दे देगा मुझे मेरा बिजनेस! ख़ुशनसीब हो बेटा तुम कि जीवन में तुमने सूखा नहीं देखा, हरा ही हरा चरा न इसलिए समझ नहीं सकते तुम पैसे की क़ीमत। मुझसे पूछो कैसे पहुँचा हूँ मैं यहाँ तक। कैसे ख़रीदा ऑफ़िस कैसे जमाया, अपना बिजनेस। फ़टीचर आदमी था। पूँजी के नाम पर थी सिर्फ़ अपनी मेहनत और हौसला। घर के नाम पर धरती ओढ़ना, आकाश बिछौना। दूसरों की गद्दी में खुले बरामदे में आधी करवट सोकर तो कभी-जागकर रात बितायी। बरसात के दिनों में तो सारी सारी रात बैठकर काटी। कुछ पैसों को बचाने के लिए बस पर नहीं चढ़ता पैदल ही चलता रहता। सोचो, इतना पिला हूँ तब आज चुपड़ी रोटी खा रहा हूँ। तुम्हारी तरह हमारे पास यह विकल्प भी नहीं था कि कह सकूँ कि हमें पीतल तौल कर ज़िन्दगी नहीं गुज़ारनी।
‘‘वो समय तो पापा अब भगवान की कृपा से निकल ही गया है, और आज जब सब कुछ हमारे पास है तो भी आप क्यों पैसे-पैसे के लिए हायतौबा मचाते हैं। क्यों अभी भी गधा खटनी करते हैं। जाने क्यों मुझे लगता है कि बाहरी दरिद्रता से तो आप मुक्त हो चुके हैं पर भीतरी दरिद्रता से आप अभी तक मुक्ति नहीं पा सके हैं। मुझे माफ़ करना पापा, पर मेहनत सिर्फ़ आपकी तरफ़ ही नहीं हमारी तरफ़ भी है। अन्तर सिर्फ़ इतना भर है कि हमारी मेहनत एक बड़े उद्देश्य और होली कॉज के लिए है, जबकि आपका सारा संघर्ष और सारी मेहनत चन्द स्वर्ण सिक्कों के लिए है।’’
जाते-जाते सन्दीप पिता का दिल दुखाना नहीं चाहता था। पर कल के अख़बार में ही उसने पढ़ी थी वह ख़बर जिसमें दिल्ली के एक युवक ने अपनी मँगेतर को तन्दूर में भून डाला था और फिर भी ऐसे समाज में कोई तूफ़ान नहीं आया था। नहीं, उसे नहीं बनना है ऐसे मुर्दा समाज का हिस्सा जहाँ हर दिन इंसानियत का गला घोंटा जाता हो।
अठारह वर्ष की उम्र और संवेदनशील किताबी मन। उस शाम सन्दीप ने फिर मानसिक संवाद किया अपने मित्र अभिषेक से - सबकुछ है संसार में। अब यह लेने वाले की कूबत पर कि वह क्या चुने? दिल्ली या आर्मी? वह क्या बने - मनु शर्मा (तन्दूर केस का मुख्य आरोपी) या फील्ड मार्शल मानेक शॉ? मेरा आशय तुम समझ ही गये हो दोस्त। जब जब मैं घर आता हूँ, पापा पहले तो मेरे सामने भावुकता का चारा फेंकते हैं कि परिवार के मोह से ही सही मैं वापस लौट आऊँ और जब उससे बात नहीं बनती हैं तो पापा मुझे यह जताने में कोई कसर नहीं छोड़ते कि मैंने आर्मी चुनकर किस क़दर अपना कबाड़ा कर डाला है कि बाद में मुझे कितना पछताना पड़ेगा। सम्भव है कि पापा सही हों पर पापा के बने बनाए रास्तों पर चलना मुझे मंजूर नहीं ऐसी तिकड़मी और दो नम्बरी दुनिया मेरी नहीं हो सकती यह मैं अच्छी तरह समझ गया हूँ। फ़िलहाल आर्मी मुझे तोड़ रही है, रौंद रही है, फिर किसी कुम्भकार की तरह शायद मुझे गढ़े। तुमने सही लिखा था कि चुनौतियाँ हर कहीं हैं, तो फिर क्यों न उन्हीं रास्तों की चुनौतियों का सामना किया जाए जो मन के गलियारों से निकलते हों।
दूसरा दिन!
आज उसे रवाना होना था देहरादून के लिए। पूरा घर आया था उसे विदा देने। आते वक़्त पापा ने फिर लिया उससे एक वादा।
‘‘वादा करो तुम अपने जूनियर्स की रैगिंग नहीं करोगे।’’
‘‘वाह, यह कैसे हो सकता है, पापा! आर्मी रैगिंग के द्वारा ही तो हमें हर परिस्थितियों का डटकर मुक़ाबला करना सिखाती है, दुनिया की समझ का विस्तार करती है।’’
‘‘वह तो आर्मी की टफ़ ट्रेनिंग और ज़िन्दगी अपने आप समझा देगी। तुम लोग जिस प्रकार रैगिंग करते हो वह क्रूरता है। याद करो, तुम्हारे ही क्लासमेट ने रैगिंग से परेशान होकर आत्महत्या कर ली थी।’’ अपने सूखे होंठों पर जीभ फेरते हुए कहा शेखर बाबू ने।
‘‘हाँ मुझे याद है पापा। मैं उस हद तक जाऊँगा भी नहीं, लेकिन रैगिंग का जो स्वाद चखा है मैंने, उसका कम-से-कम एक अंश जूनियर्स भी तो चखे।’’
‘‘नहीं बेटा, तुम ऐसा हर्गिज नहीं करोगे। अँग्रेजी में एक कहावत है, ‘एन आई फॉर एन आई विल मेक दि वर्ल्ड बलाइंड।’ यानी कोई तुम्हारी एक आँख फोड़े, तुम उसकी फोड़ो, फिर वह तुम्हारी दूसरी भी फोड़ दे, फिर तुम तो इसी प्रकार आँखें फूटती रहें तो यह दुनिया तो अन्धी हो जाएगी। बोलते-बोलते शेखर बाबू का चेहरा हलके से काँपा।
उसने आश्चर्य से देखा, अपने पापा की ओर! जिस पिता को वह सिर्फ़ नोट कमाने, रौब गाँठने और तिकड़म भिड़ाने की मशीन भर समझता था वे इतना गहरा भी सोच सकते हैं? पहली बार पिता को लेकर हलकी-सी गर्वीली अनुभूति हुई। कौन जाने सृष्टि के प्रथम प्रभात की तरह उसके पिता भी उसकी उम्र में उतने ही आदर्शवादी, मानवीय और स्वप्नदर्शी रहे हों और बाद में जीवन की कड़ी धूप ने सुखा दिये हों सारे अच्छे मूल्य! सारे विकल्प! सारी कोमलता। उसने देखा था ऋषिकेश में, गंगा जब स्रोत से फूटती थी तो उसका पानी कितना उज्ज्वल, श्वेत और स्वच्छ रहता था। उसका पानी सदैव स्रोत के पानी की तरह शुद्ध, उज्ज्वल और स्वच्छ रहे, इसीलिए तो जा रहा है वह आर्मी में। उसने स्नेह और गर्व भरी दृष्टि से देखा अपने पिता की ओर और वादा किया उनसे, ‘‘ठीक है पापा, मैं अपने जूनियर्स की रैगिंग कभी नहीं करूँगा।’’
गाड़ी चलने का समय हो गया था। उसने अपने माता-पिता के चरण स्पर्श किये। पिता ने उसके सिर पर हाथ फेरा। उसने फिर देखा, पिता की आँखों में कोई पीड़ा लहरायी जैसे कोई घुन दिन -रात काट रहा हो उनकी आत्मा को। माँ की आँखें भी भादों का आसमान बनी हुई थी। उससे पहले की वह कच्चा पड़े, उसने झट से सिद्धार्थ की पीठ पर धौल जमाया और फुर्ती से अपनी सीट पर बैठ गया।
ट्रेनदौड़ रही है। घरवाले पीछे छूट गये हैं लेकिन घर है कि लिपटा -लिपटा साथ चला आ रहा है। खिड़की से दिख रहे हैं बाहर के नज़ारे/छोटे-छोटे पोखर। किनारे-किनारे डाब के पेड़। कहीं सुपारी और केले के पेड़। छोटे -छोटे घर, बॉस, खपच्चियों और माटी की टाइल्स की सहायता से बने हुए। कहीं हैंड पाइप चलाती तो कहीं आँगन बुहारती औरतें। घर के बाहर बकरियाँ। मुर्गियाँ। मूँज की खटिया पर लेटा कोई बूढ़ा। बीच-बीच में छोटे-छोटे खेत। पुआलों के ढेर। लगभग एक जैसे दृश्य। एक जगह वह थोड़ा चौंका। उसने देखा - कमर तक कीचड़ में धँसी एक युवती, साथ में एक युवक शायद उसका पति, दोनों मिलकर तालाब के चिकने गन्धाते नीले काले दलदल को बाहर फेंकते हुए शायद वे तालाब की सफ़ाई कर रहे थे। हे भगवान! इतने गन्धाते कीचड़ में कोई कैसे कमर तक धँस कर खड़ा रह सकता है - वह भी इतने लम्बे समय तक के लिए। हिश! कितना कठोर जीवन। सुबह से ही जीवन के बन्दोबस्त में लगे स्त्री-पुरुष! एक जगह देखा उसने, पेड़ पर अटकी पतंग। मन किया उसका, खिड़की से हाथ बढ़ाकर अटकी पतंग को उड़ा दे।
एक जगह देखा उसने... रेलगाड़ी की पटरी के दोनों ओर लोटा पकड़े खुले में सू -सू करते और हगते हुए लोग। हिश, उसने नज़रें घुमा लीं।
उसके माँ-बाप और चाचा-चाची तो नहीं जीने ऐसी ज़िन्दगी! कितना अन्तर है जीवन -जीवन में।
मेरी दुनिया बड़ी हो रही है। मैं ज़िन्दगी में गहरे धँसने की तैयारी कर रहा हूँ। उसने अपने आपसे कहा। उसे याद आया, पिछली बार जब वह पहली बार आर्मी में ज्वाइन करने के लिए निकल रहा था तो अन्त में हताश होकर उसके पिता ने जैसे एक कड़वा सच उसके सामने उगला था - तुम ज़िन्दगी की टफ़ कम्पटीशन से घबराकर आर्मी में मुँह घुसेड़ रहे हो, जहाँ न कोई कम्पटीशन है, न ही नौकरी छूटने का डर, न पीछे छूट जाने का तनाव, सीमित आकाश और सीमित उड़ान। न नीचे गिरने का ख़तरा, न ख़ूब ऊपर गुम हो जाने का डर। एक वाक्य में कहूँ तो तुम ज़िन्दगी से भाग रहे हो। ‘मैं ज़िन्दगी से नहीं वरन ज़िन्दगी में भाग रहा हूँ पापा! आर्मी में यदि नहीं आता तो क्या देख पाता जीवन का यह विद्रूप?
क्या पापा कन्फयूज़्ड हैं?
या यह उनका सिर्फ़ पुत्र मोह है?
विचारों के परिन्दे फिर उड़ने लगे।
देहरादून के मौसम में इस बार ख़ासा बदलाव था। अब वह ख़ुद सीनियर हो गया था और उसके सीनियर ऑफ़िसर्स। रैगिंग के काले बादल छँट गये थे।
दिन बीत रहे थे। कभी हिरण की तरह कुलाँचे भरते तो कभी कछुए की तरह रेंगते। हर दिन उस रहस्यमयी दुनिया की एकाध नयी परत और खुल जाती। जितना अधिक वह जानता इस दुनिया को इसके प्रति उसका आकर्षण, विकर्षण, सम्मान और अनादर घटता बढ़ता रहता। कभी लगता, ठीक किया उसने आर्मी में आकर तो कभी मन उखड़ जाता - साली यह भी कोई लाइफ़ है, ज़रा सी चूक, साइकिलों के ढेर के ऊपर लोट लगाओ, जैसे वह हाड़-मांस का इनसान नहीं आलू का बोरा हो।
और देखते-देखते आ गयी, आर्मी की चर्चित विख़्यात, पासिंग आउट परेड। उसके बाद भरना होगा उसे अनुबन्ध पत्र, शपथ पत्र - आर्मी के साथ। फिर वह चाहे तो भी बीस वर्ष पूर्व लौट कर नहीं आ सकता नागरिक जीवन में।
अभी भी निर्णय उसके हाथों में। चाहे तो अभी भी लौट सकता है वह। हर चिट्ठी में उसकी माँ और पिता के आख़िरी शब्द यही होते - लौट आओ। इस बार तो पिता के शब्दों में निराशा के रंग कुछ ज़्यादा ही गहरे थे - देख लेना, फ़ौज में रहकर भी तुम देश के लिए कुछ नहीं कर पाओगे। इन दिनों के अख़बार शायद तुमने पढ़े ही होंगे। फ़ौज के ही कई उच्च अधिकारियों को ‘सैक़’ कर दिया गया है क्योंकि उन्होंने खुलकर गृह और रक्षा मन्त्रालयों की नीतियों का विरोध किया था। इस देश में सेना कुछ नहीं कर सकती है क्योंकि यहाँ सेना के सोचने और बोलने, दोनों पर ही पाबन्दी है। और शीघ्र ही परिवर्तन की उम्मीद भी बेकार है क्योंकि इस देश में इनसानों का कहीं राज है ही नहीं। यहाँ राज है तो कहीं चमचों का तो कहीं तमंचों का। कहीं गधे बैठे हैं तो कहीं लालची गिद्ध। लौट आओ, अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है।
क्यों वह लौट जाए वापस? नहीं, हर्गिज नहीं। वह फ़ौजी ही क्या जो चुनौतियों से मुँह मोड़ ले। अब वह स्वयं को फ़ौजी समझने लगा था। और साल भर की ज़िन्दगी में ही देख लिए थे उसने ज़िन्दगी के कई रंग जो कि उसके पिता ने अपने पैंतालीस वर्षीय जीवन में भी नहीं देखे होंगे। नहीं, उसे नहीं तौलना है पीतल के बर्तन। उसे उठानी है बन्दूक और देखनी है दुनिया। उसके सारे दोस्त, परमजीत, विनय, गिरिराज, लक्ष्मण और हिमांशु अपने निश्चय में अटल है तो अकेला वह ही क्यों भागे यहाँ से?
और स्वप्नों भरी एक चमकती दोपहर, आई.एम.ए. के विशाल प्रांगण में पासिंग आउट परेड हुई। उसके सभी दोस्तों के परिवार आये। उसका भी पूरा परिवार आया। देहरादून के सारे वी.आई.पी. और प्रभावशाली व्यक्ति भी मौजूद थे उस परेड में। टी.वी. कवरेज। रकम-रकम के बैंड। अरबी घोड़े। तरह-तरह की वर्दियों में भिन्न-भिन्न दिशाओं से आती अलग-अलग टुकड़ियाँ यानी पूरा तामझाम। और उस समय उसका हृदय राष्ट्रबोध और राष्ट्रगौरव से अभिभूत हो गया जब मार्चिंग परेड में सहस्र-सहस्र कंठों से, अलग-अलग दिशाओं से अलग-अलग टुकड़ियाँ, ‘क़दम-क़दम बढ़ाए जा, ख़ुशी के गीत गाये जा... ये ज़िन्दगी है क़ौम की क़ौम पर लुटाए जा...’ गाती हुई आती और धीरे-धीरे एक बड़ी धारा में मिल जाती। बरसते सावन की तरह हर तरफ़ बरस रहा था, आश्चर्य, सौन्दर्य, अनुशासन और राष्ट्रप्रेम। सारा कार्यक्रम इतना भव्य, अनुशासित और राष्ट्रबोध से ओतप्रोत था कि वह मन्त्रमुग्ध हो गया। ठगा-सा रह गया।
परेड के अन्त में टोपियाँ उछाली गयीं और उसे नयी वर्दी दी गयी। अब वह जी.सी.कैडेट 108 नहीं, वरन आर्मी मैन था। लेफ़्टिनेंट था। उसकी वर्दी में दोनों कन्धों के ऊपर दो स्टार लगे थे। दोनों स्टार लाल रंग के कपड़ों से ढके हुए थे जिसे हटाने का गौरव हर लेफ़्टिनेंट की माँ को दिया जाता था।
पासिंग आउट परेड के बाद सभी पैरेंट्स को आई.एम.ए. की तरफ़ से प्रीति भोज के लिए आमन्त्रित किया गया। खान -खिलाने के बीच बातचीत भी जारी थी। उनकी बातों के टुकड़े हवा में उछलते हुए सन्दीप से टकरा रहे थे। बातें पहली पोस्टिंग की हो रही थी। सन्दीप के दोस्त नीरज की पहली पोस्टिंग ही कश्मीर के अतिसंवेदनशील इलाके राजौरी में हुई थी। नीरजा के पिता बेहद आहत थे जैसे ठगा गये हों। सन्दीप के पिता से कह रहे थे वे, ‘‘देखिए पहली पोस्टिंग ही इतनी ख़तरनाक। यानी तैयार होते ही मरने की तैयारी।’’
दूसरे दोस्त अखिलेश की पोस्टिंग भी अनन्तनाग में हुई थी। वे भी भड़के हुए थे - आर्मी भी तो अपना नफ़ा-नुकसान देखती है जी। ये नये-नये चूजे हैं। इन पर अभी न तो आर्मी का इतना खर्चा हुआ है और न ही ये इतने अनुभवी हैं तो इन्हें ही झोंक दो आतंकवाद के कुंड में। 10-20 साल पुराने मेज़र या कर्नल को भेजेंगे तो कितना महँगा पड़ेगा।
एक और अभिभावक बोले, ‘‘बच्चों की शहादत भी स्वीकार कर लें यदि यह ऊँचे और महान उद्देश्य के लिए हो तो पर आप देखिए कि हमारे जवान सरहद पर ख़ून बहाते हैं, एक -एक इंच भूमि के लिए क़ुर्बानी देते हैं और हमारे नेता टेबुल पर बैठकर उसी भूमि पर समझौता कर लेते हैं, जिसके लिए हमारे जवान शहीद हुए थे। क्या वे सोचते हैं कि उस भूमि को लौटाने का हक उन्हें किसने दिया है? और यदि वे जीती हुई भूमि लौटाते हैं तो हमारे जवानों की ज़िन्दगी भी वापस लौटाएँ। दरअसल - जब तक इन नेताओं के ख़ुद के बेटे नहीं शामिल होंगे आर्मी में, ये नहीं समझ पाएँगे शहीदों के दर्द को।
भाई, इनके बेटे क्यों जाएँगे आर्मी में? इनके पास पैसों की क्या कमी? ये तो हम जैसों के बच्चे ही जाते हैं कि चलो, पक्की नौकरी तो मिली। अब आप ही देखिए, बाहर के किसी प्राइवेट कॉलेज से इंजीनियरिंग करवाने भेजते आप सन्दीप को तो नहीं तो भी साल के लाख, डेढ़ लाख तो ठुक ही जाते। यहाँ न केवल मुफ़्त में इंजीनियर हो जाएगा वरन हाथ खर्च भी मिलेगा।
अन्तर्मन हिल उठा शेखरबाबू का। गर्दन कटे मुर्गे की तरह वे फड़फड़ाए। क्या सुन रहे हैं वे। कहाँ झोंक दिया कलेजे के टुकड़े को? पहली बार आत्मग्लानि हुई। काश, वित्त सत्य ही जीवन सत्य न होता तो बेटा यूँ हाथ से न निकलता। आख़िर आर्मी ज्वाइन करने का उसका अहम कारण यही था कि उसने अपने पिता के जीवन को नकारना चाहा था। बहरहाल, राहत की बात थी तो सिर्फ़ यही कि सन्दीप का दाख़िला चूँकि विशेष टेक्निकल स्कीम के अन्तर्गत हुआ था इस कारण उसे लेफ़्टिनेंट बनाकर चार साल के लिए मऊ भेज दिया था - इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए।
नयीवर्दी। नये सफ़र की पहली उड़ान।
फ़ख्र से देखा उसने अपनी चमचमाती वर्दी को, मेटल को चमचमाते अक्षरों से लिखा गया था जिस पर - सिग्नल!
रात उसे अपने सभी वरिष्ठ अधिकारियों की उपस्थिति में शपथ दिलायी गयी थी, आर्मी की वह प्रसिद्ध शपथ...।
‘मेरी ज़िन्दगी भारत के राष्ट्रपति के नाम समर्पित रहेगी। मैं उसी के लिए जीऊँगा और अपना हित सबसे अन्त में सोचूँगा।’
एकाएक मोबाइल पर मैसेज चमका 'Rajori & Phulgam police, 31RR 62 RR & 4 para in a joint operation killed 2 militants between saipathri & Ardwas area in the hills of SHOPIAN (INAM - UN- NABI)।’ वे चौंके। वे चमके। वे हड़बड़ाए। सिर को एक झटका दिया उन्होंने और अतीत की गुफ़ा से बाहर निकले। मैसेज को फिर दुबारा पढ़ा और एक नज़र अपनी सिटीजन घड़ी पर डाली। और बुदबुदाए - उफ़! कितना गहरे उतर गये थे वे स्मृतियों के समुद्र में। कितनी दूर तक चले गये थे वे। पिछले 15 वर्षों में जाने कितनी बार ज़ेहन से गुज़र चुकी है वह शपथ जिसे उन्होंने तब ली थी जब वे महज़ 18 वर्ष के थे। दुनिया अबोध और अनजान थी और फ़ौज का जादू सिर पर सवार था। पर अब जाकर खुले हैं उस शपथ के अर्थ अपने सम्पूर्ण विस्तार और आयाम में आज चौंतीस वर्ष की उम्र में।
काश! उस समय समझ पाते वे उस शपथ और आर्मी का अर्थ। पर यही तो विडम्बना है जीवन की। जब तक आप जीवन के क़रीब नहीं आते, उसमें गहरे नहीं धँसते कहाँ समझ पाते हैं और जब तक आप समझ पाते हैं कि ज़िन्दगी को समझने के लिए जिन रास्तों का चुनाव किया था आपने, वे सही नहीं थे, आप इतनी दूर निकल चुके होते हैं कि वापस लौटने के सारे रास्ते बन्द हो चुके होते हैं। समय हाथ से निकल चुका होता है। उन्होंने भी तो कहाँ समझा था फ़ौजी होने का अर्थ। यदि कश्मीर के गुंड, जैसे संवेदनशील इलाकों में, राष्ट्रीय राइफल्स 14 के अन्तर्गत पोस्टिंग नहीं होती तो क्या ख़ुद वे भी कभी समझ पाते फ़ौजी होने के अर्थ उसके सम्पूर्ण विस्तार और आयामों में।
राष्ट्रीय राइफल्स 14 के बेस कैम्प बूशन में बनी अपनी लकड़ी की ख़ूबसूरत कॉटेज से बाहर निकलते हुए सोच रहे हैं मेज़र सन्दीप। नज़रें, फिर फूलों, पत्थरों और सेब-अखरोट के पेड़ों से होती हुई सामने के बोर्ड पर अटक जाती हैं जिस पर कुछ दिशा-निर्देश कमांडिंग अफ़सर कर्नल केदार आप्टे ने लिखित रूप से टँगवा रखे हैं, जिससे हर कम्पनी कमांडर और हर जवान नियमित रूप से पढ़ सके। बड़े सख़्त और अनुशासन-प्रिय हैं कर्नल केदार आप्टे। चौथी पोस्टिंग है उनकी कश्मीर में। कहते हैं कि कश्मीर में मिलिटेंसी को कंट्रोल करने में कर्नल आप्टे जैसे ज़िम्मेदार अफ़सरों का बहुत बड़ा योगदान है।
लकड़ी के बने बोर्ड पर चिपकाए हुए दिशा -निर्देश बड़े दिलचस्प लगते हैं मेज़र सन्दीप को। तल्लीन हो पढ़ने लगते हैं वे। सबसे ऊपर लिखा है - Co's cornerÐ उसके नीचे दिये गये हैं कई तरह के निर्देश।
वाह! क्या बात है। यह कश्मीर है या गुरुकुल। लड़कियों से बात की भी मनाही? यह तो सरासर अन्याय है जवानों के साथ। मन-ही-मन चुटकी ली सन्दीप ने और फिर दाद दी कर्नल केदार आप्टे को। वाह गुरु! हर आदेश लिखित रूप में जिससे कोई ‘मालूम नहीं था’ की आड़ नहीं ले सके।
वे दूसरा Co's corner पढ़ने लगे, वह भी उतना ही दिलचस्प था।
कम्पनी कमांडर को गाँव के प्रत्येक घर के सदस्यों की पूरी जानकारी होनी चाहिए। हर घर में कितने सदस्य हैं और वे क्या काम करते हैं। वो तो होनी ही चाहिए... मन-ही-मन मुस्कराए मेज़र सन्दीप और आगे पढ़ने लगे।
- एक्टिव/किल्ड/सरेंडर्ड/मिसिंग मिलिटेंट और उनके भाई-बहन और क़रीबी रिश्तेदारों की भी पूरी जानकारी रखें।
- पूरे गाँव का स्केच मैप अपने दिमाग़ में रखे। नये-नये रास्तों पर चलें। एक ही रास्ते पर चलने से मिलिटेंट आप पर कभी भी आक्रमण कर सकता है। गाँव से होकर जाने के बजाय खेत, जंगल और नदी के रास्ते जाएँ।
- हम लड़ाई पैरों से नहीं (मिलिटेंट के पीछे भागकर) वरन दिमाग़ से लड़ते हैं।
दिमाग़ को तो आर्मी ने कंडीशंड कर दिया है। आर्मी वही सोचती है जो उससे सत्ता सोचवाती है... अपने आप से बतियाते हुए आगे बढ़ते हैं मेज़र कि नम्बर एक और निर्देश पर पड़ती है।
चार तरह की ख़बर
वाह! ख़बरों को भी वर्गीकृत कर दिया। बड़े मनोयोग से पढ़ने लगते हैं वे।
Actionable Information - यानी मिलिटेंट इस घर में उस जगह बैठे हैं या आनेवाले हैं। ऐसी ख़बर बहुत कम मिलती है। इसपर तुरन्त एक्शन करना होता हैं।
Recent Information - यानी मिलिटेंट कल उस घर में आये थे। वहाँ ठहरे थे। इन उन लोगों से इनके सम्बन्ध हैं।
मैं अपनी कम्पनी से recent information की उम्मीद रखता हूँ।
Background Information - जब से मिलिटेंसी शुरू हुई है। किन-किन लोगों ने उन्हें सहायता की। किन-किन परिवारों से मिलिटेंट निकले।
जेनरल इनफॉर्मेशन - गाँव में कहाँ क्या बन रहा है। नये रास्ते, नये मकान कौन बनवा रहा है।
Co's Corner
- श्रीनगर से जम्मू जाने के लिए कोई भी जवान सिविल वेहिकल से न जाए। एक बार आठ जवान टाटा सूमों से जा रहे थे। किसी टिप्पर ने टक्कर दी, जिससे गाड़ी दुर्घटनाग्रस्त हुई और पाँच जवान शहीद हो गये। पता चला कि वह टिप्पर मिलिटेंट ने भेजा था। आपको जल्दी हो तो आप मुझे कहें मैं आपको बाई एयर भिजवा दूँगा।
जीओ मेरे सी.ओ. आपके इन निर्देशों को सलाम। शायद इसी कारण आपकी पोस्टिंग के दौरान कैजुअल्टी कम-से-कम हुई। शायद मैं भी ज़िन्दा बच जाऊँ। मन-ही-मन फिर पीठ ठोकी उसने सी.ओ. की। वह दाईं ओर मुड़ा। यहाँ भी निर्देश थे, जवानों के लिए। वह पढ़ने लगा।
कमान अधिकारी के आदेश :
- प्रत्येक जवान को एक दोस्त बनाना चाहिए।
- लड़ाई दिमाग़ से लड़ें न कि पैरों से।
- ऑपरेशन एक शिकारी की तरह करें ना कि एक चौकीदार की तरह।
- Co's Corner नियमित रूप से पढ़ें और उसका पालन करें।
- HHTI, Search Light, PNVD, NI SIGHT तथा अपने इलाके की जानकारी से अपनी ताक़त को मिलिटेंट की ताक़त से ज़्यादा रखें।
- Field craft/ Battle craft का प्रयोग करें।
- ऑपरेशन पर जाने से पहले ब्रिफिंग वापसी पर डीब्रिफिंग और ऑपरेशन का अभ्यास करें।
- बॉडी सिस्टम अपनाएँ।
सन्दीप को अच्छा लग रहा था। बूशन बेस कैम्प में घूमना। कुछ दिन पहले ही आया है वह यहाँ, चार्ली कम्पनी का कम्पनी कमांडर बनकर। यूँ पोस्टिंग उसकी गुंड गाँव में है। पर बीच -बीच में रिपोर्टिंग के लिए आना पड़ता है उसे हेड र्क्वाटर बूशन में जो राष्ट्रीय राइफल्स 14 का आधार कैम्प है।
अफ़सरों और जवानों को लिखित रूप से सम्बोधित इन निर्देशों को पढ़ते-पढ़ते कई बार वह झाँक चुका है कमांडिग ऑफ़िसर कर्नल आप्टे के कक्ष में। बाहर लाल बत्ती जल रही है यानी उसे हरी बत्ती के जलने तक प्रतीक्षा करनी है।
घूमते-घूमते वे मुख्य द्वार तक पहुँचे। उन्होंने देखा, आर्मी के कई कन्वॉय निकल रहे हैं। चूँकि अभी यहाँ वे नये-नये थे। पीस पोस्टिंग से एकदम अलग होती है फ़ील्ड पोस्टिंग, इस कारण समझ नहीं पाए वे कि आर्मी की गाड़ियों का यह काफिला नियमित पेट्रोलिंग के निमित्त है या किसी विशेष ऑपरेशन के तहत। तभी उन्होंने देखा कैप्टन आनन्द को, जो राँची पोस्टिंग के दौरान उनके साथ थे। उन्होंने पूछा... क्या कोई ऑपरेशन?
‘‘नहीं सर, ऑपरेशन पर तो हम छिपकर जाते हैं जिससे कि हरामियों को सुराख भी नहीं मिल सके, यह तो दिखाने के लिए है क्योंकि कई बार शेर को दहाड़ना पड़ता है जिससे गीदड़ दुबका रहे।’’
बहुत ख़ूब! यहाँ तो सबकी बेल्ट कसी हुई है।
सन्दीप मुस्कराए और आगे बढ़ने लगे।
बूशन कैम्प के भीतर दो छोटे-छोटे मन्दिर बने हुए थे। बाहर छोटा-सा मेटल का बोर्ड चमक रहा था, जिस पर काले पत्थरों से लिखा हुआ था - सर्वधर्म स्थल। उस पर आर-आर का इम्बेलम - वीरता और दृढ़ता।
विचारों की झील में फिर तैरने लगे मेज़र सन्दीप। अभी तक राँची और मथुरा पोस्टिंग ही देखी थी उन्होंने और संयोग से दोनों ही पीस पोस्टिंग थी, इस कारण वहाँ का माहौल यहाँ से एकदम अलग था। वहाँ का इम्बेलम भी था ‘वीरता और विवेक’। यहाँ विवेक की जगह दृढ़ता ने ले ली थी। शायद इसलिए कि आतंकवाद से निपटने के लिए विवेक नहीं, दृढ़ता चाहिए। पर क्यों? क्या वीरता, विवेक और दृढ़ता तीनों एक साथ नहीं चल सकते? प्रश्न फिर किसी कीड़े-सा उनके दिमाग़ में टँगा। मन्दिर देखकर भी उन्हें सुखद आश्चर्य हुआ। यूँ भी उसने देखा था आर्मी वाले सबसे अधिक ईश्वर भक्त और नियतिवादी होते हैं। शायद इसलिए कि हर पल उनका जीवन सलीब पर टँगा होता है। जीवन के इन ख़तरों को ईश्वरीय अस्तिकता और नियतिवाद के सहारे ही झेला जा सकता है। उसने देखा था, हर ऑपरेशन के पूर्व ‘जय बजरंग बली’ जैसे उद्घोष। फ़ौजी ईश्वर भक्त ही नहीं होता वरन बहुत हद तक उन सभी आस्थाओं - ईश्वर, भाग्य, पुनर्जन्म, ग्रहों की शान्ति, स्वप्न, चमत्कार आदि में विश्वास करता है जो भारतीयता के नाम से जानी जाती हैं। उसे याद आया, एक बार जब वह अपने दोस्त के साथ गैंगटॉक घूमने गया था तो उसने गैंगटोक की सुप्रसिद्ध झांगु लेक से ज़्यादा बाबा के मन्दिर का नाम सुना था। मन्दिर पहुँचकर और उस मन्दिर निर्माण के पीछे की हक़ीकत जान वह हैरत में पड़ गया था। वह मन्दिर 23वीं पंजाब रेजीमेंट के फ़ौजी सिपाही हरभजन सिंह की याद में बना था। किसी फ़ौजी जवान की स्मृति में फ़ौजियों द्वारा बनाया गया देश में इकलौता मन्दिर। जितना अद्भुत मन्दिर उससे ज़्यादा अद्भुत इसके निर्माण की कहानी। क़िस्सा कोताह यह कि 4 अक्टूबर 1968 के दिन सिपाही हरभजन सिंह रसद लेकर बटालियन मुख्यालय से नाथुला बार्डर के क़रीब डेंग चुकता जा रहे थे कि एक पहाड़ी नदी के तेज़ बहाव में डूब गये। उनका शव बरामद नहीं हुआ। कुछ दिनों बाद वे अपने साथियों के स्वप्न में प्रकट हुए और उनसे कहा कि वे उनकी स्मृति में वहीं मन्दिर बनवा दें तो उनकी आत्मा को शान्ति मिल जाएगी। मन्दिर बनवा दिया गया। उसके बाद वे अपने साथियों को स्वप्न में दिखना बन्द हो गये। हर टुकड़ी, रेज़िमेंट, ब्रिगेड... जिन्हें नाथुला बोर्डर पर तैनात किया जाता है, अपनी सलामती के लिए बाबा हरभजन सिंह से मन्नत माँगते हैं। मन्दिर के बाहर मन्नत माँगते शब्द मुद्रित थे। फ़ौजी आज भी मानते हैं कि उनकी मृत्यु नहीं हुई कि वे उनके साथ हैं। आज भी हर महीने उनकी तनख़्वाह उनकी पत्नी के पास पहुँचा दी जाती है। हर जीवित फ़ौजी की तरह उनकी भी पदोन्नति होती है। उन्हें घर जाने की छुट्टी मिलती है। ट्रेन की आरक्षित बर्थ पर उनकी वर्दी घर आती-जाती रहती है। हर साल उनकी पुण्यतिथि के दिन जीप का स्टियरिंग अपने आप हिलने लगता है। फ़ौजियों का विश्वास है कि बाबा इसे चला रहे हैं।
उसने देखा, भीतर आरती गायी जा रही है। वर्दी में जवान, धोती-कुर्ते में सैनिक पुजारी थे। उसे ध्यान आया मुख्य द्वार के सबसे ऊपर उसने देखा था, लिखा हुआ - कर्म ही धर्म। सचमुच धर्म इस देश की आत्मा है। चाहे डॉक्टर हो, फ़ौजी हो या धुर दक्षिण बिहार का आदिवासी। धर्म और ईश्वर की सबको ज़रूरत पड़ती है। क्योंकि धार्मिक आस्था और नियतिवाद आदमी को कुछ हद तक भयमुक्त, बेफ़िक्र और स्थितियों के प्रति स्वीकृत भाव पैदा कर मन को स्थिरता दे देता है। अब बाहरी उत्पात को तो फ़ौजी सँभाल ले पर उस भटकाव, बेचैनी और फड़फड़ाहट का क्या करे वह जो उसके भीतर के आसमान में निरन्तर होती रहती है। आम फ़ौजी की आन्तरिक आकाश गंगा को स्थिर रखने के लिए चाहिए कोई भगवान, कोई आस्था, कोई मन्त्र, कोई बोधिवृक्ष।
विचार जाल में क़ैद परिन्दों की तरह इस तेज़ी से फड़फड़ा रहे थे कि वह हैरान था। कश्मीर की सुन्दरता जहाँ झड़ते फूलों की पंखुड़ियों की तरह ज़िस्म पर बरसती है वहीं ऋषि कश्यप की यह भूमि बाध्य करती है सोचने के लिए भी। चिन्तन के लिए भी। उसने सोचा और मुड़ गया अपने कमांडिंग अधिकारी कर्नल केदार आप्टे के चेम्बर की तरफ़। कर्नल के चेम्बर के बाहर अभी भी लाल बत्ती जल रही थी। हो चुकी आज मुलाक़ात, उसने मुँह बनाया और क़दम वापस मोड़े। अंगरक्षक को साथ में ले फ़ौजी गाड़ी में बैठ वह वापस गुड गाँव की ओर जहाँ उसकी पोस्टिंग थी। उसकी कम्पनी थी, चार्ली कम्पनी जिसका था वह कम्पनी कमांडर।
जैसे ही घुसा वह कैम्पस के बाहर के खुले अहाते में, उसके आश्चर्य का ठिकाना न रहा सामने उसका छोटा भाई सिद्धार्थ, उकताया, थका -
‘‘अरे तू! तू कब आया? और इस प्रकार बिना सूचना के? यहाँ कश्मीर में बिना सूचना के आना अपराध है।’’ बोलते-बोलते लिपट गया वह भाई से।
‘‘सूचना देता कैसे? यहाँ तो मोबाइल भी नहीं चलता। पर पहले मुझे अन्दर तो घुसा। घंटे भर से खड़ा हूँ बाहर। बोर हो गया हूँ पीठ पर घास के गट्ठर लादे इन कश्मीरी औरतों को देखते देखते।’’ हँस दिया मेज़र ‘‘चल अब कुछ अच्छा दिखाता हूँ।’’
‘‘अजीब बन्दे हैं तेरे भी। मैं विश्वास दिला-दिला कर थक गया कि मैं मेज़र सन्दीप का छोटा भाई हूँ लेकिन सुनते ही नहीं। एक ही रट, हमें ऑर्डर नहीं। भीतर एंट्री तो मेज़र साहब के आने पर ही मिलेगी। बाप रे! इतनी सिक्यूरिटी! इन्हें क्या हर बन्दा मिलिटेंट ही नज़र आता है।’’
फिर मुस्कराया मेज़र। भाई का नया-नया जन्मा आश्चर्य, उसे अपने प्रारम्भिक दिनों की याद दिला रहा था। बड़े-से लोहे के दरवाज़े के आगे पड़ी क़रीब 15 फुट लम्बी लकड़ी की भारी -भरकम आड़ी पड़ी बाड़ ऊपर उठायी गयी। वे और भाई अन्दर घुसे। बाहर के दरवाज़े पर तैनात गार्ड से भाई का परिचय करवाने ही लगा था सन्दीप कि तभी पीछे से सुना उसने - अजहर साहब, देखिए, कितनी मीठी हैं ये चेरियाँ। ख़ास आपके लिए ही लाया हूँ इन्हें।’’ हलके पठान सूट में लिपटा कोई कद्दावर स्थानीय कश्मीरी दुकानदार था। हाथ में चेरी का पैकेट। मनुहार कर रहा था सन्दीप से उन्हें ख़रीदने के लिए।
बिना विशेष बात किये सन्दीप ने फटाफट पैकेट लिए उसके हाथ से, और सौ का एक नोट थमा उसे आनन-फानन में चलता किया।
सबकुछ बड़ा रहस्यमय लग रहा था सिद्धार्थ को। यह सन्दीप अजहर कैसे बन गया? बात क्या है? क्या पहचान भी बदल देती है आर्मी?
हँस दिया सन्दीप। तुम कश्मीर की जमीं पर हो और कश्यप मुनि के नाम पर बने इस कश्मीर का मतलब मेरे अनुसार है करिश्मा। अभी तो जाने क्या-क्या देखोगे तुम। मुझे भी यहाँ आकर पहली बार हिन्दुस्तानी होने का मतलब और आउटसाइडर होने का एहसास एक साथ हुआ।
आउटसाइडर? क्या मतलब? अविश्वास से फिर देखा सिद्धार्थ ने सन्दीप की ओर।
चल पहले अन्दर अपने क्वार्टर में। तुझे भी भूख लगी होगी। बनवाते हैं प्याज़ के पकौड़े और चाय। कश्मीर की बात तो नहीं चाहते हुए भी यहाँ होती ही रहेगी, पहले बता घर में सब कैसे हैं। माँ की तबीयत कैसी है?
अखरोट और सेब के पेड़ों से घिरा भाई का सिंगल बेड वाला कॉटेजनुमा क्वार्टर। पहली नज़र में बड़ा रमणीय लगा सिद्धार्थ को। पृष्ठभूमि में पसरा हिमालय। मुग्ध हो होकर देखता रहा वह आसपास को। जीता रहा भाई के साथ गुज़रे वक़्त को। भाई बहलाता रहा उसे कश्मीर में, यहाँ की वादियों और घाटियों में, पर सिद्धार्थ मरा जा रहा था, उस रहस्य को पूरे विस्तार से जानने में जिसने भाई को मेज़र सन्दीप से अजहर साहब बना डाला था। फिर पूछा उसने - भाई, पहले यह बताओ कि वह चेरीवाला तुम्हें अजहर साहब क्यों कह रहा था। जाने क्या हुआ कि मैं चुप्पी मार गया वरन मेरे मुँह से तो शायद निकल ही जाता कि यह मियाँ नहीं, सन्दीप है।
फिर टालना चाहा सन्दीप ने उसे, ‘‘अरे भाई, अपना काम आसान करने के लिए और क्या। भाई, यह कश्मीर है यहाँ पाँव रखते ही लोगों के भीतर सरसराहट होने लगती है। किसी के भीतर नेहरू बहने लगते हैं तो किसी के भीतर शेख अब्दुल्ला तो किसी के भीतर महाराज हरीसिंह। तो किसी के भीतर श्यामा प्रसाद मुखर्जी। बड़े-बड़े लोगों की बड़ी-बड़ी गलतियाँ! इन्हीं को भुगत रहा है आज कश्मीर का छोटा -छोटा आदमी।’’
‘‘टालो मत भैया, तुम नहीं बताओगे तो मैं तुम्हारे साथियों से, जवानों से पूछूँगा पर जानकर मैं हर सूरत में रहूँगा।’’
‘‘अच्छा!’’ गहरे से देखा सन्दीप ने और साफ़ पढ़ा सिद्धार्थ के चेहरे पर पुती उस इबारत को जहाँ डर, आशंका, जिज्ञासा और ख़ौफ़ के मिले-जुले भाव थे। शब्द-शब्द को सावधानी से उठाते हुए कहने लगा, ‘‘सन्दीप, देखो सुरक्षा की दृष्टि से ज़रूरी है कि यहाँ के स्थानीय लोग जैसे फलवाले, सब्ज़ीवाले, राशनवाला, केसर-चेरी बेचनेवाले यहाँ तक कि शॉल-कालीन बेचनेवाले भी मुझे मुसलमान यानी मोहम्मद अजहर समझें, हिन्दू नहीं। क्योंकि हमें गाँव के चप्पे-चप्पे की जानकारी रखनी होती है। कौन आया? कौन गया? कौन किससे मिलता है, किस घर से आतंकवादी निकला? किसके तार जुड़े हैं आतंकियों से। किस घर में कितने लोग हैं? कौन क्या करता है? किसकी अन्दरूनी हालत कैसी है? किसके यहाँ नया पैसा आया? नया बच्चा आया? तो इसके लिए ज़रूरी है कि हम इनके बीच पानी के बीच मछली की तरह घुल-मिल जाएँ। अब यहाँ के ज़बरदस्त एंटी-हिन्दू वातावरण में यह कैसे सम्भव है। यह तो माशा अल्लाह तभी सम्भव है जब हम हिन्दू न दिखें।’’
ध्यान से देखा सिद्धार्थ ने, सन्दीप ने हलकी-सी बकरा दाढ़ी बढ़ा ली थी और उसकी बोली-ठानी में भी बदलाव दिख रहा था। बात-बात पर अँग्रेजी की दुम लगानेवाला सन्दीप अब बात -बात पर माशा अल्लाह, इंशा अल्लाह, सुभान अल्लाह कहने लगा था।
गहरी साँस छोड़ते हुए कहा सिद्धार्थ ने - तुम तो कह रहे थे कि अब कश्मीर में हालात काबू में आ रहे हैं।
जम्हाइयाँ लेते हुए जबाब दिया सन्दीप ने - नो डाउट, पहले से स्थिति काफ़ी सुधरी है। 1992-1993 में तो श्रीनगर एक मुर्दा शहर लगता था। था भी वह आतंकवाद का बूम पीरियड। एक जीता-जागता क़ब्रिस्तान। आये दिन बम विस्फोट। ख़ून-खराबा। मुठभेड़। शाम घिरते ही श्रीनगर भूतहा शहर बन जाता। रेस्तराँ बन्द। सिनेमाघर बन्द। दहशत के मारे लोग घरों में बन्द। लड़कियाँ बुर्कें में बन्द। दहशतगर्दों ने तब एक फ़तवा जारी किया था - बुर्का या एसिड। तब हर मिलिटेंट एक हीरो था। भगत सिंह था। उन दिनों यहाँ हर मस्जिद से बम फूटता था। खुले आम नारे लगते थे - अल्लाह हो अकबर। हिन्दुस्तानी कुत्ते वापस जाओ। कश्मीर की मंडी रावलपिंडी। उबल रहा था श्रीनगर उन दिनों। हर नुक्कड़ पर मिलिटेंट और हर मस्तिष्क में घृणा थी। तब हर गली और नुक्कड़ पर मुजाहिदीन घात लगाकर बैठे होते थे कि कब आर्मी गुज़रे और वे फायर करे। दिन में चार-चार विस्फोट होते। तब लोग खुले आम कहते थे कि कश्मीर में हिन्दुस्तान के साथ-साथ पाकिस्तान की करेंसी भी चलनी चाहिए। है आज किसी में यह कहने की हिम्मत! तुम इसी से अन्दाज लगा लो, कि तब पूरे सीजन में कोई भी सैलानी नहीं आता था। ...उदास खड़े रहते थे ये शिकारे, ये बारजे। जगह -जगह पाकिस्तानी झंडे लगे रहते। दीवारों पर जगह-जगह लिखा मिलता, ‘ला इलाहा इलल्लाह। आज़ादी का मतलब है - ला इलाहा इलल्लाह। आज देखो श्रीनगर कितना दौड़ रहा है। कितने सैलानी आ रहे हैं। कितने नये होटल, नये भोजनालय यहाँ तक कि वैष्णव भोजनालय और शराब की दुकानें तक खुल गयी हैं। वह उबलता ख़ौफ़नाक समय अब घाटी में कभी नहीं आएगा।
पर वह समय भी आया क्यों?
क्या? हैरान था सन्दीप। क्या तुम कश्मीर का इतिहास नहीं जानते?
जानता हूँ, पर शायद तुम लोगों जितना नहीं।
सोच में पड़ गया सन्दीप। कहाँ से शुरू करें? इस अनेक परतों वाली कश्मीर समस्या को ख़ुद वह भी क्या समझ पाया है पूरी तरह से? आँखें पीछे घूम गयीं शायद हालात इतने भी गम्भीर नहीं हुए होते यदि सही नीयत, संवेदना और सावधानी के साथ क़दम उठाए गये होते।
कुछ देर मौन। चेहरे पर पीड़ा उभरी। आँखें पीछे घूमीं। धीरे-धीरे कहने लगे वे - नृत्यों, गीतों और ग़ज़लों से गूँज उठने वाली यह घाटी 87-88 तक ऐसी नहीं थी। तब तक झेलम झेलम थी। इनसानी ख़ून से लाल नहीं हुई थी। और न ही तब आज की तरह चप्पे-चप्पे पर बुलेटप्रूफ जैकेट पहने सीने को तीन-तीन ईंच आगे बढ़ाए जवान तैनात थे। तब हवा खुलकर बहती थी यहाँ। उन्हीं दिनों जे.के.एल.एफ के कुछ टपोरीनुमा कच्चे आतंकवादियों ने गृह मन्त्री मुफ़्ती मोहम्मद सईद की जवान पुत्री डॉ. रुबैया का अपहरण कर लिया। रुबैया के बदले उन्होंने अपने पाँच खूँखार आतंकवादियों को रिहा करने की माँग की। हाँ, यह वाक़या 13 सितम्बर 1989 का था। यहीं से शुरुआत हुई अपराध, अपहरण और ख़ून-खराबे के नये दौर की। इनसानी चीख़ों की। घाटी में होने वाला यह पहला अपहरण था और कश्मीर की सूफी मानसिकता वाला अवाम भी इस तरह एक जवान लड़की के अपहरण के पक्ष में नहीं था। चौतरफ़ा इसकी निन्दा भी होने लगी थी और इसकी सम्भावना नहीं के बराबर थी कि उग्रवादी सचमुच उसे नुकसान पहुँचा सकते हैं क्योंकि उन पर भी ज़बरर्दस्त दबाव था कि इस कांड से निकलने का कोई इज़्ज़तदार तरीक़ा वे निकाल लें। पर इस देश का दुर्भाग्य कि भारत सरकार ने चूहे जितनी भी हिम्मत नहीं दिखायी। सुरक्षा सलाहकारों ने, भारतीय आर्मी ने यहाँ तक कि स्थानीय पुलिस ने भी भारत सरकार को भरोसा दिलाया कि वे उग्रवादियों की शर्त न मानें क्योंकि यदि वे उग्रवादियों के आगे झुक गये तो आनेवाले समय में उग्रवाद कितनों की गर्दन दबोचेगा इसकी कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था। लेकिन जनाब तब किसको फ़िक्र थी कश्मीर की या भारतीय जवानों की। गृहमन्त्री को चिन्ता थी तो सिर्फ़ अपनी लाड़ली की। सुरक्षाकमियों, फ़ौज और पुलिस सभी की सलाह को धत्ता बताए हुए नकारा सरकार झुक गयी। इन टपोरीनुमा उग्रवादियों के सामने। टेक दिये घुटने। छोड़ दो बिटिया को, हम छोड़ देंगे तुम्हारे पाँच-पाँच खूँखार उग्रवादियों को।
सरकार क्या झुकी, फिजाँ ही बदल गयी घाटी की। आतंकवाद अब लहरों पर सवार था। और उनका मनोबल आसमान पर। ख़बर जंगली आग की तरह फैली कि जरा-सा सर्कस थोड़ी-सी धमकी और पाँच-पाँच आतंकवादी वापस। श्रीनगर की सारी आबादी उतर आयी सड़कों पर जश्न मनाने और देखते ही देखते शान्त समुन्दर में बवंडर पैदा हो गया। घाटी की दीवारें आज़ादी की माँग से रँग गयी। दीवारों पर कुरान की आयतें लिखी जाने लगी। लोगों से जिहाद में शामिल होने की अपील की जाने लगी। हरे झंडे फहराए जाने लगे। हर दिन हज़ारों नये मुजहिद्दीन पैदा होने लगे, जिन्हें लगता कि आज़ादी कन्धे पर बैठा कबूतर है, बस हाथ भर बढ़ाने की देर है। तो हाथ बढ़ाए जाने लगे। ज़्यादा उत्साही आतंकियों ने छापामार लड़ाई शुरू कर दी। कश्मीरी डोगरों और पंडितो को चुन चुन कर घाटी में क्रूरता से मारा जाने लगा। हज़ारों की तादाद में लोग सड़कों पर उतर आये। खुले आम सड़क पर खुली नफ़रत फैलायी जाने लगी। जंग और रंग लाए इसलिए इसमें मजहब का रंग भी डाल दिया गया। देखते-देखते घाटी सुलग उठी। कश्मीरी पंडित और डोगरों को घाटी छोड़ने की धमकी दी जाने लगी। कर्फ़्यू का माहौल शुरू हो गया। सिवाय बम विस्फोटों, वारदातों और गोलियों की आवाज़ों के घाटी में कोई गतिविधि ही नहीं रही। आये दिन बेक़सूर लोगों की मौतों से आम कश्मीरी अवाम का भरोसा दिल्ली की सरकार से उठ गया। इससे अलगवादवाद और आतंकवाद को बढ़ावा मिला। उन दिनों हमारे जवान और अफ़सर बहुत शहीद हुए। चलो मेरे साथ कल तुम्हें दिखाऊँगा शहीदों के स्मारक। बोलते -बोलते भावुक हो गये सन्दीप।
‘‘मुझे तो लगता है, ऊपरी-ऊपरी है यह शान्ति। अंडरकरंट में अभी भी दबी हुई चिनगारियाँ हैं। आग कभी भी भड़क सकती है।’’
सिद्धार्थ पर अख़बारी ख़बरों का असर था। सप्ताह भर पूर्व ही पढ़ा था उसने सोपोर में हुई एक मुठभेड़ के बारे में जिसमें आर्मी के एक कैप्टन शहीद हो गये थे।
‘‘नहीं, ऐसी बात नहीं है। अब लोग थक गये हैं, ऊब गये हैं मिलिटेंसी से और सबसे बड़ी बात तो यही कि अब वे भी समझ रहे हैं कि उनका इस्तेमाल हो रहा है। तुम्हें एक घटना बताता हूँ। घटना हमारे सीनियर कर्नल आप्टे के साथ हुई थी। वे बताते हैं कि तब श्रीनगर की सड़कों पर दो से अधिक लोग बात करते तक नज़र नहीं आते थे। श्रीनगर का स्टेडियम क़ब्रिस्तान नज़र आता थीं। पूरे सप्ताह तब सोनमर्ग और गुलमर्ग पर दो बसें नहीं जाती थीं। जबकि आज हर रोज़ 200 बसें गुज़रती हैं। तो उन्हीं दिनों, कर्नल आप्टे ने एक होटल वाले से पूछा... तुम्हारा गुज़ारा कैसे होता है, बिना सैलानियों के, तो उसने हवा में मुट्ठी लहराते हुए कहा था - हम आज़ादी खाते, आज़ादी पहनते और आज़ादी ओढ़ते हैं। तो यह जज्बा था उनका। पर आज का कश्मीरी युवक सत्य जान चुका है। वह अब इस लिजलिजी भावुकता से निकल चुका है, क्योंकि उसकी पीढ़ी ने उसका काफ़ी बड़ा मूल्य चुकाया है। अब तो हालत यह है कि जेहादियों को गाँववाले अपने गाँव में दफनाने तक से भी इनकार कर देते हैं जबकि पहले लोग इनका जुलूस निकालते थे। आज कश्मीरी युवक हिन्दू-मुसलमान के अपने अंडरग्राउंड अँधेरे से निकलकर अपने सैलानियों का स्वागत कर रहा है। देखो आज बस-टैक्सी में जगह नहीं मिलती।’’
सिद्धार्थ ने फिर कुरेदा उसे - तो फिर तुम्हें अपना नाम बदलने की, मुसलमान दिखने की ज़रूरत क्यों पड़ी?
‘‘देखो, मेरी बात थोड़ी अलग है। मेरी जिस इलाके में पोस्टिंग है, पहाड़ी इलाका है वह गुंड गाँव श्रीनगर से चालीस कि.मी. दूर। किसी आदिम गाँव-सा पसरा, ऊँघता जहाँ लोग अभी भी सौ साल पुरानी दुनिया में रहते हैं। गारे, लकड़ी और सीमेंट से बने छोटे-छोटे घर और खस्ताहाल दुकानें। यहाँ भोजन कम और बच्चे ज़्यादा पैदा होते हैं। इसलिए यहाँ अशिक्षा और ग़रीबी दोनों ही बहुत हैं। यह वह कश्मीर है जो भूख और युद्ध दोनों का ही मारा है। इस कारण यहाँ लोग वर्तमान में कम और अधकचरे इतिहास, मिथक और कुरान में ज़्यादा रहते हैं। इनकी दुनिया में न टी.वी. है, न रेडियो है, न गीत है, संगीत है और न ही क्रिकेट है। मेरा एक मुस्लिम दोस्त मुझे बता रहा था कि वह जब अपने घर जाता है तो क्रिकेट भी टी.वी. पर चुपके-चुपके देखता है। उसके घर में टीवी तो है पर क्रिकेट देखने की मनाही है क्योंकि इस प्रकार का आमोद-प्रमोद इस्लाम के ख़िलाफ़ है। अब तुम्हीं सोचो, जो गाना नहीं सुनेगा, नाचेगा नहीं, थिरकेगा नहीं, वह तो अपराधी ही न बनेगा। और तो और, इनके लिए देश और राष्ट्र का भी कोई कन्सेप्ट नहीं है, वहाँ सभी या तो इस्लामिक हैं या ग़ैर- इस्लामिक। यहाँ बच्चे जब से होश सँभालते हैं, उन्हें घर में, मदरसे में एक ही पाठ पढ़ाया जाता है - इस्लाम की राह पर चलो, सच्चे जेहादी बनो। तो ऐसे सभी गाँव आतंकवाद के लिए बहुत ही उर्वर इलाक़े हैं क्योंकि यहाँ जिहादी होना न सिर्फ़ परिवार के लिए समृद्ध और ख़ुशहाल होना है, वरन हीनता के मारे ग़रीब और बेरोजगार युवकों के लिए रोबदार होना, प्रतिष्ठित होना और अपनी ही नज़रों में ऊपर उठ जाना भी होता है। ज़ाहिर है ऐसे युवक बहुत जल्दी ही शिकार हो जाते हैं पैसों के, सस्ती लोकप्रियता के और जब तक वे समझ पाते हैं कि जिस ‘इस्लाम ख़तरे में है’ का डर दिखाकर उन्हें आतंकवाद के जाल में फँसाया गया था, वह धोखा था, वे आतंकवाद के अजगर में बुरी तरह जकड़े जा चुके होते हैं।
‘‘तो तुम्हारा मतलब है, यह कहानी कभी ख़त्म नहीं होगी क्योंकि ग़रीबी और अशिक्षा की कोख से उपजे आतंकवाद का सामना तो फ़ौजियों की बन्दूक़ों से हो नहीं सकता है।’’
सन्दीप ख़ुश हुआ सिद्धार्थ के जवाब को सुनकर उसे समझाने का मौक़ा मिला। गौरवान्वित होकर वह बताने लगा।
‘‘इसलिए तो हमने सुदूर इलाकों में स्कूल खुलवाए, कॉलेज खुलवाए, मुफ़्त चिकित्सा केन्द्र खुलवाए, मोबाइल एम्बुलेंस चलवाई, और एक वातावरण तैयार किया इससे इतना तो हुआ कि लोकल मिलिटेंसी का हमने बहुत कुछ सफ़ाया कर डाला। आधे से अधिक मिलिटेंट तो मारे जा चुके है। कुछ पाकिस्तान भाग गये और वहीं शरण ले ली। कुछ ने आत्मसमर्पण कर डाला। अब यहाँ जो हैं वह फॉरेन मिलिटेंसी है। अधिकतर पाकिस्तान, अफगानिस्तान, इजिप्ट, यमन और बंग्लादेश से आये हुए हैं, और ये ही लोकल युवकों को जिहाद के नाम पर भड़काते हैं। भोलेभाले कश्मीरी युवक जो वर्तमान के सत्य को स्वीकार कर चुके होते हैं, वापस इनके भड़काने में आ जाते हैं।’’
अन्दर बैठे-बैठे घुटन हो रही थी सिद्धार्थ को। बहुत समय बाद ख़ाली समय मिला था। मन कर रहा था उसका चीड़ के वनों में घूमने का और पहाड़ी चश्मों को देखने का। भाई की बात की बीच में ही काटते हुए कहा उसने, ‘‘भाई, किसी से गाड़ी माँग लो, चलो निकलते हैं ड्राइव पर। खाना भी बाहर ही खा लेंगे।’’
परेशानी में सन्दीप। माथे पर उभरी तीन सिलवटें। कैसे समझाए भाई को कि वह चाहे तो भी बाहर नहीं निकल सकता। कितना संवेदनशील इलाका है यह गुंड गाँव। यहाँ की हवा में ही घुला हुआ है शक़, दहशत, नफ़रत और ख़ौफ़। मुलायम-मुलायम शब्दों में समझाते हुए कहा उसने, ‘‘देखो मेरा बिना बॉडी गार्ड और फ़ौजी जीप के सिविल ड्रेस में निकलना ख़तरे से ख़ाली नहीं। फिर मुझे इसके लिए इजाज़त भी नहीं मिलेगी। आते-आते यदि अँधेरा घिर गया तो हम फँस सकते हैं। देखो, सारा आतंकवाद अँधेरे में ही रेंगता है। इस पार से उस पार। एक गाँव से दूसरे गाँव। कुछ संवेदनशील इलाक़ों, जिनमें गुंड गाँव भी है, में ऐसा घोषित कर दिया गया है। यहाँ नागरिकों को रात के समय बाहर घूमने की इजाज़त नहीं है। यदि निकलना ही पड़ जाए तो हाथ में टॉर्च या दीपक होना चाहिए नहीं तो आर्मी आपको गोली मार सकती है, क्योंकि अँधेरे में मिलिटेंट ही बाहर निकलता है। और तो और, टैक्सी वाले ख़ुद भी ऐसे इलाकों में जाने से मना कर देते हैं। यहाँ हम अकेले बाहर नहीं निकलते हैं, हमें इसकी इजाज़त भी नहीं है। अब यदि मुझे भी अपनी यूनिट के अलावा किसी दूसरी यूनिट की टेरिटरी में जाना पड़ जाए तो मैं बिना ख़बर दिये वहाँ नहीं जाऊँगा, नहीं तो सम्भव है कि मुझे भी मिलिटेंट समझकर मार दिया जाए क्योंकि मिलिटेंट भी कई बार स्थिति को कन्फ़्यूज्ड बनाए रखने के लिए आर्मी की वर्दी पहन लेते हैं। इसलिए जब भी आर्मी का कोई कन्वॉय निकलता है तो सबको ख़बर रहती है। मान लो चालीस कन्वायॅ हमारे निकल रहे हैं तो कोई बड़ी बात नहीं कि इकतालीसवाँ कन्वायॅ मिलिटेंट का भी लग जाए, इसलिए क़दम-क़दम पर चौकसी बरती जाती है।
‘‘बाप रे! यह कश्मीर है या कारागार। फिर भाई के प्रति सहानुभूति की एक लहर उठी भीतर। कितना मना किया था घरवालों ने पर जनाब पर भूत सवार था देश सेवा का। क्या मिला उसे? गिनी-चुनी तनख़्वाह और सिर पर हर पल लटकती ख़तरे की तलवार।
भीतर काफ़ी कुछ दरक गया। कहाँ फँस गया भाई।’’
रात।
सोने गया सिद्धार्थ तो देखा भाई के बगल में माशूका की तरह लेटी है एके 47। मन पर फिर पट्टियाँ बँध गयी।
चिहुंक उठा वह। बाप-दादाओं ने शक्ल तक नहीं देखी एके 47 की, और ये जनाब बगल में लेटाए सो रहे हैं। तभी उसने ग़ौर किया कि कैम्प के बाहर भी नीम अँधेरा है, हालाँकि कमरे के भीतर हलकी रोशनी की ट्यूब लाइट जल रही थी। उसने फिर कुरेदा भाई को।
‘‘यह क्या? बाहर नीम अँधेरा और भीतर एके 47?’’ हँस पड़ा सन्दीप।
‘‘जैसे यहाँ जग -जगह कुदरती सुन्दरता बिखरी पड़ी है न। कहीं गुलाब, कहीं चिनार, कहीं चीड़, कहीं दूधिया बादल कहीं चश्मे तो कहीं झेलम वैसे ही यहाँ जगह-जगह कहीं हिंसा, कहीं नफ़रत कहीं शक तो कहीं ख़ून-खराबा और नफ़रत की बारूद बिछी हुई है। पता नहीं कब विस्फोट हो जाए। अभी पिछले सप्ताह की ही एक घटना बताता हूँ। जरा-सी चूक हो गयी होती तो हम सबके चिथड़े हो चुके होते। हम सभी कैम्प में बैठे हुए थे। हलके मूड में थे कि तभी इंटरसेप्ट पर मैसेज आया - ‘कबूतर बैठे हुए हैं।’
यानी कुछ होने वाला है।
हम ऑफ़िसर्स में से एक उठा और खिड़की के पास तक गया साफ़-साफ़ सुनने के लिए, कि तभी दूसरा मैसेज आया - ‘एक कबूतर उड़ रहा है। उड़ा दूँ?’ तुरन्त वहाँ से दूसरा मैसेज आता है - ‘रुको।’
हम चौकन्ने हो गये। समझ गये कि हमला हम पर ही होने वाला है। आनन-फानन में हमारी कम्पनी ने फ्रीक्वेंसी से लोकेशन का पता लगाया। पता लगा, मिलिटेंट बस तीन किलोमीटर की दूरी पर ही हैं और हमले की योजना बना रहे हैं। थोड़ी ही ऊँचाई पर मिलिटेंट था। पकड़ा भी गया, लेकिन उसने चालाकी से ग्रिनेड पास के ही डस्टबिन में डाल दिया। इस कारण हम पकड़ कर भी उसे मिलिटेंट प्रूव नहीं कर सके। उसे सज़ा मिली, मिलिटेंट के समर्थक के रूप में। तो बरख़ुरदार यहाँ चौकसी है तो जीवन है नहीं तो हर क़दम पर बिछी है मौत।
एकाएक सन्दीप ने महसूस किया कि इस प्रकार खुलकर उसे सिद्धार्थ से नहीं कहना चाहिए था, सिद्धार्थ चिन्तित था, सहमा हुआ था। तनावग्रस्त था। भाई के लिए। लेकिन वह भी क्या करता। सिद्धार्थ को नहीं बताने का मतलब होता उसे लेकर बाहर घूमना जो ज़्यादा ख़तरनाक सिद्ध हो सकता था। सत्य सदैव सुन्दर होता है, उसने फिर ख़ुद को दिलासा दी और भाई को हलका करने की गरज से फिर कहने लगा - चिन्ता करने की कोई बात नहीं है, क्योंकि स्थिति अब काफ़ी नियन्त्रण में है, बस हमें सदैव सतर्क, सावधान एवं सख़्त अनुशासन में रहने की हिदायत दी जाती है क्योंकि यहाँ कोई नहीं कह सकता है कि कब क्या हो जाए। र्क्वाटर के बाहर यह जो अँधेरा है न यह भी इसी सतर्कता और सावधानी का परिणाम है। तुमने तो अभी नहीं देखा है हम लोगों का बेस कैम्प बूशन। कल दिखाऊँगा। एकदम क़िले की तरह। ज़बरदस्त सुरक्षा। कड़ी निगरानी। चारों तरफ़ कँटीले तारों की घेराबन्दी। चारों तरफ़ एके 47 लिए सन्तरी। पर इसके बावजूद बेस कैम्प पर फ़ियादीन का हमला हो चुका है। घनी रात के अँधेरे में रेंगते हुए घुस आये थे साले। अब जो मरने-मिटने पर तुला हो उससे निपटना मुश्किल। तो उसके बाद से कमरे में चाहे बत्ती जले पर बाहर खुले में अँधेरा कर दिया जाता है। जिससे यहाँ की गतिविधियों का पता न चले। सन्दीप अब कतराने लगा था यहाँ कि स्थितियों के बारे में विस्तार से बताने से। इस कारण बात के रुख़ को बदलते हुए कहा उसने - अब छोड़ ये गोला-बारूद की बातें मैं। सिर्फ़ अपनी ही कहे जा रहा हूँ। तू बता कैसी चल रही है तेरी कम्पनी। कम्पनी का धन्धा-पानी।’’
‘‘बता दूँगा, बस एक बात बता दे, तू तो सिग्नल में था। टेक्नीकल लाइन में था, इंजीनियर था फिर तुम्हें फ़ौज ने हाथों में एके 47 क्यों पकड़ा दी? क्या यह धोखा नहीं?’’
‘‘नहीं, यह धोखा नहीं है। यह हमारे अनुबन्ध की शर्त के अनुसार ही हुआ है। यहाँ हर ऑफ़िसर इन्फेन्ट्री ऑफ़िसर। (गन उठानेवाला) हो जाता है, क्यों? इसे समझने के लिए पहले तुम्हें राष्ट्रीय राइफल्स की हिस्ट्री जाननी होगी। ढीले-ढाले शब्दों में बस इतना समझ लो कि मुझे इंडियन आर्मी ने यहाँ कश्मीर में यानी राष्ट्रीय राइफल्स में डेपूट किया है। राष्ट्रीय राइफल्स सीधी होम मिनिस्ट्री के अन्तर्गत आती है। यह विशेष रूप से जम्मू और कश्मीर के लिए बनाई गयी थी। 1990 में इसकी स्थापना हुई, कश्मीर के आतंकवाद से मुस्तैदी से निपटने के लिए। यहाँ की कमज़ोर एवं अविश्वसनीय स्थानीय पुलिस की पूरक के रूप में। इसका इम्बलेम भी अलग है इंडियन आर्मी के इम्बलेम से। हमारा इम्बलेम है, दो क्रास करती एके 47 और हमारा मोटो है, ‘वीरता और दृढ़ता’। जबकि जब मैं इंडियन आर्मी में था, तो हमारा मोटो था ‘वीरता और विवेक’। आर.आर (राष्ट्रीय राइफल्स) इकलौती ऐसी रेजीमेंट है जहाँ फ़ौजी किसी भी अनुशासन में हो - चाहे ई.एम.ई. से हो चाहे सिग्नल से हो - उसे आर.आर. बैनर के अन्तर्गत आतंकवाद से लड़ना ही होगा।
‘‘लेकिन यह कैसे सम्भव है? एक बन्दा तू अपने को ही ले जो सिग्नल में है, वह कैसे एकाएक एके 47 लेकर आतंकवादियों से भिड़ सकता है?’’
हवा में ठंडक बढ़ने लगी थी। दरवाज़ा बन्द किया सन्दीप ने। भाई के पाँवों पर मोटी-सी रजाई डाली और लेटे-लेटे कहने लगा, देख, यूँ तो हमें वेपन ट्रेनिंग पहले से ही मिल चुकी होती है पर यहाँ पोस्टिंग होने के तुरन्त बाद हमें महीने भर बहुत ही सख़्त और रिगरस फ्री इंडक्शन कोर्स कोर्प्स बैटल स्कूल में करवाया जाता है। जँभाई लेते-लेते सन्दीप ने कहा, अब बस भी कर गोला बारूद की बातें। सुना अपने हाल।
सिद्धार्थ ने आई.आई.एम., कोलकाता से एम.बी.ए. किया था। लगे हाथों उसे देश की सबसे बड़ी कम्पनी इंडिया यूनीलीवर ने भारी-भरकम पैकेज देकर लपक लिया था। और साल बीतते न बीतते उसे ए.एस.एम. यानी एरिया सेल्स मैनेजर बना दिया गया था।
सिद्धार्थ को इस बात का बड़ा फ़ख्र था कि वह एक ऐसी कम्पनी का ए.एस.एम. है जो एफ.एम.सी.जी. (फास्ट मूविंग कंज्यूमर गुड्स) में सबका बाप है। देश में अस्सी प्रतिशत इंडिया लीवर का मार्केट शेयर है।
इसलिए नाक फुलाते हुए गर्वीले स्वर में कहा उसने, मेरी कम्पनी का क्या पूछते हो भाई, देश की कोई भी दुकान बिना हमारे प्रोडक्ट के चल ही नहीं सकती। अकेला मैं अड़तीस करोड़ का सेल्स हैंडिल करता हूँ।
‘‘बाप रे! अड़तीस करोड़? कैसे एचीव कर पाते हो इतना भारी-भरकम सेल्स टारगेट?’’ आँखें बाहर निकल आयीं सन्दीप की।
‘‘मैं इस टारगेट को टुकड़े-टुकड़े में अपने सेल्स ऑफ़िसर को बाँट देता हूँ।’’
‘‘किस आधार पर?’’
‘‘उनके पूर्व इतिहास के आधार पर।’’
‘‘कोई समस्या नहीं आती इतने बड़े टारगेट को पकड़ने में?’’
अपने माथे को सहलाते हुए कहा सिद्धार्थ ने, ‘‘हाँ, समस्या तो आती ही है। इन दिनों थोड़ी और बढ़ गयी है। दरअसल हमारे सबसे बड़े कंप्टटीटर हैं छोटे-छोटे खुदरा बिक्रेता। उनकी लागत हमसे बहुत कम आती है। उनकी न तो विज्ञापन लागत, न वितरण लागत, न रिसर्च कोस्ट, न इंवेंटरी कोस्ट। वे होते भी लोकल हैं। वहीं बनाया तेल, साबुन और वहीं बेच दिया। अब सोचो, हमारा फाइन एंड लवली बनता है हरिद्वार एवं गौहाटी में और हम उसे बिक्री करते हैं धुर कश्मीर तक, आन्ध्र प्रदेश के छोटे-छोटे गाँवों तक तो हमारी वितरण लागत सोचो कितनी बढ़ जाती है। इसलिए कोकाकोला की ही तरह हमारा भी लक्ष्य है भारत के आख़िरी गाँव की आख़िरी दुकान तक पहुँचना। इसलिए ज़रूरी है गाँवों के सारे छोटे-छोटे खुदरा निर्माताओं एवं विक्रेताओं का सफाया करना। देश की क़रीब एक करोड़ दुकानों तक हमारी पहुँच है। 26 हज़ार दुकान तो मैं अकेला हैंडिल करता हूँ। हमारा टारगेट इस फिगर को और फैलाना है, इतना कि धरती के किसी भी टुकड़े पर, किसी भी गाँव के आख़िरी छोर पर भी यदि कोई मोदी की भी दुकान हो तो वहाँ भी हमारा ब्राइट या लाइफ़मैन या फ़ाइन एंड लवली का पाउच झूलता दिखे।’’
‘‘पर तुम पहुँचोंगे कैसे, आख़िरी गाँव की आख़िरी दुकान तक।’’
फिर गर्वीली मुस्कान बिखरेते हुए कहा सिद्धार्थ ने।
‘‘इसके लिए हम समय-समय पर कई योजनाएँ निकालते हैं। हर तीसरे महीने हमारा विज्ञापन बदलता है, यह एक तरीक़ा है। विज्ञापन पर हम ख़ूब खर्च करते हैं क्योंकि हमारा विश्वास है कि जो दिखता है, वही बिकता है। इसलिए तुम देखो हर दुकान पर हमारा माल पहली क़तार में दिखता है। लेकिन हमारी सबसे सफल योजना है महाशक्ति माँ योजना, जिसके अन्तर्गत हम गाँव की ही किसी पढ़ी-लिखी असरदार महिला को पकड़ते हैं, उसे मासिक वेतन और कमीशन के आधार पर नियुक्त करते हैं। उसका काम होता है घर-घर जाकर हमारे उत्पाद के छोटे-छोटे पाउचों को नगण्य मूल्य या फ्री में ही वितरित करना। एक बार ग्राहक यदि हमारे साबुन के चमत्कार और चमक का आदी हो जाए तो स्थानीय साबुन ख़ुद ही दुम दबाकर भाग जाते हैं।
‘‘वाह गुरु! छोटे-छोटे मेहनती स्वावलम्बी और स्वाभिमानी घरेलू निर्माताओं का सफाया कर अपनी कम्पनी को मालामाल करना... बड़े अच्छे मिशन के लिए समर्पित कर रखी है तुमने अपनी ज़िन्दगी!’’
एक कसक के समय सन्दीप बड़बड़ाया। सिद्धार्थ उठकर बाथरूम की ओर मुड़ गया था, इस कारण पूरी तरह सुन नहीं पाया सन्दीप को।
‘‘कुछ कहा?’’
‘‘नहीं, कुछ नहीं। बस यही कहा कि तुम्हारी सारी थकान तो सेल्स टारगेट पूरा हो जाने पर मिट जाती होगी।’’
‘‘हाँ, जैसे तुम लोगों की सारी थकान। आतंकी को ढेर कर मिट जाती है।’’
सन्दीप हँसा।
सिद्धार्थ हँसा।
फिर दोनों साथ-साथ हँसे। बातचीत का रुख़ फिर बदला।
दोनों घर की घरवालों की दीन-दुनिया की बातों में मशगूल हो गये। बतियाते-बतियाते जाने कब आँख लग गयी सन्दीप की। सिद्धार्थ भी सोने की कोशिश करने लगा पर जाने कहाँ से एक मच्छर घुस आया था कमरे में और ठीक उसके कान के पास गुंजन करने लगा था। सिद्धार्थ ने हलके से भाई को हिलाया कि पूछ ले कि आलआउट कहाँ रखा हुआ है। पर यह क्या? जैसे ही उसने भाई को हिलाया, बुरी तरह सहम गया वह, नींद से झटका खाए भाई का हाथ सीधा एके 47 पर। अरे, अरे, चला मत देना। माई गॉड... भाई, क्या रात में स्वप्न में भी तुम्हें मिलिटेंट ही दिखते हैं? नींद में भी पीछा नहीं छोड़ते वे तुम्हारा?
झेंप गये सन्दीप। सचमुच क्या होता जा रहा है उन्हें। किस प्रकार बदलता जा रहा है व्यक्तित्व उनका। जिन आँखों में सुन्दर सुहाने स्वप्न भरे रहते थे, जिस मस्तिष्क में सबके लिए अच्छे विचार भरे रहते थे, कितना शंकालु हो गया है वह मस्तिष्क और कितनी ख़ूनी हो गयी हैं वे आँखें कि स्वप्न में भी यह खयाल पीछा नहीं छोड़ता कि उन्हें मार गिराना है किसी को उसके पूर्व कि कोई मार गिराए उन्हें। उफ़! यह कश्मीर तो उन्हें इनसान भी नहीं रहने देगा। सोख लेगा ज़िन्दगी के सारे सौन्दर्य और संवेदन को। नहीं सोने देगा एक मीठी स्वाभाविक नींद! जाने किस मनहूस रात ईश्वर ने रचा धरती के इस टुकड़े को... जितना सुन्दर उतना घातक! जितने पेड़ उतनी क़ब्रें!
हर घर के पीछे एक जवान क़ब्र!
कितने दिन हो गये उन्हें, किसी अच्छी किताब से गुज़रते हुए। उफ़! कश्मीर क्या आये, स्वप्न सौन्दर्य, काव्य, संगीत सब अच्छी चीज़ें छूटती जा रही हैं हाथ से, सब पर छाता जा रहा है आतंकवाद।
फिर झिंझोड़ा सिद्धार्थ ने, कहाँ खो गये? क्या सोच रहे हो?
क्या हुआ?
‘‘कुछ नहीं।’’
‘‘हुआ तो कुछ ज़रूर है। तुम मुझे स्वाभाविक नहीं लग रहे। क्या चल रहा है तुम्हारे भीतर।
गहरे से देखा सन्दीप ने सिद्धार्थ को। कितनी अच्छी तरह से पढ़ लेता है वह उसका चेहरा। शायद उसे समझता भी है औरों से अधिक।
नहीं चाहते हुए भी भीतर अटके शब्द निकल आये बाहर।
‘‘यही कि हम लोग यहाँ चाहकर भी स्वाभाविक जीवन नहीं जी सकते। हर दिन कुछ न कुछ ऐसा घट ही जाता है कि आतंकवाद हमारी चेतना और मानसिकता का हिस्सा बनता जाता है। पिछले सप्ताह ही घटी एक घटना। ख़बर मिली कि पहारन गाँव में मिलिटेंट पहाड़ पर चढ़ने की तैयारी में हैं। मैं, कैप्टन अमरीक सिंह, मेज़र कुलवन्त और दस जवानों के साथ उस पहाड़ी पर पहुँचा। हमने अपनी-अपनी पोजीशन ली, जगह का घेराव किया। एच.एच.टी.आई. को सेट किया, उसे ऑन मोड में रखा। मतलब कहीं कोई चूक नहीं थी। पर ऐसे मौक़ों पर वीरता और पराक्रम का नहीं, वरन पोजीशन का बहुत महत्त्व होता है। हमने पोजीशन नीचे की ली क्योंकि ख़बर थी कि वे ऊपर चढ़ने की तैयारी में हैं। इसलिए हमारा सारा ध्यान नीचे की तरफ़ था। लेकिन हरामजादे ऊपर थे। पहाड़ों पर ऊपरवाला हमेशा फ़ायदे की पोजीशन में रहता है तो भी हमने एक आतंकी को ढेर कर डाला और दूसरे को अधमरा। हम थोड़े बेफिक्र होकर ऊपर बढ़ने लगे कि तभी दूसरे आतंकी ने मरते-मरते भी फ़ायर कर डाला और गोली कैप्टन अमरीक को लगी। लमहे भर की चूक एक ईंच इधर-उधर और वे उस पार। शहीद। तिरंगे में लिपटाकर उसके शव को मैं ही पहुँचाने गया था उनके घर।’’
बोलते-बोलते फिर संजीदा हो गये सन्दीप। आँखें फिर घूरने लगी - एके 47 को।
कमरे की खिड़की से देखा उन्होंने खिला हुआ चाँद। धरती पर सोई चाँदनी। छिटके हुए तारे। सौन्दर्य कहीं भी हो पुलक जगाता है। मेज़र पुलकित हुए। झाँकने लगे अपने भीतर। आज भाई से मिलकर बहुत दिनों बाद उन्हें अपने इनसान होने की प्रतीती हुई। याद आया बचपन का वह माऊथ आर्गेन... कितना बजाया करते थे वे उसे। काश! एक बार फिर होंठों से लगा पाते उसे... बड़े क्या हुए, ज़िन्दगी निकल गयी हाथों से।
अपने खयालों से जाने कब तक खेलते रहे सन्दीप कि तभी भाई ने फिर झंझोड़ा उन्हें। अच्छा, यह बताओ भाई, यदि आर्मी ज्वाइन करते वक़्त तुम्हें पता होता कि इस प्रकार तुम्हें गन उठाकर हर पल आतंकियों को मौत के घाट उतारना पड़ेगा तो भी क्या तुम ज्वाइन करते आर्मी?
गहरे सोच में डूब गये मेज़र। क्या जवाब दें? चेहरे पर धूप-छाँव। भीतर डूबने लगे। क्या सचमुच ख़ून की होली खेलने के लिए ज्वाइन की उन्होंने आर्मी? क्या पता होता कि उन्हें आर. आर. में डेपुट किया जाएगा तो आते वे आर्मी में?
शायद हाँ। शायद नहीं।
आँखें फिर घूमीं पीछे।
अठारह साल की स्वप्न देखने की उम्र? क्या सोच पाती इतना?
समझ पाती तब, जो समझ रहे हैं वे आज। जो हो रहा है क्या उसके बीज अतीत में ही नहीं पड़ चुके थे? वर्तमान क्या है? अतीत की तार्किक परिणति। नहीं?
शायद हाँ... पर ज़िन्दगी की सुन्दरता भी इसी में है कि रहस्य पर से समय पूर्व पर्दा न उठे।
सिद्धार्थ ने फिर कोंचा उसे - जवाब दो भाई।
सन्दीप ने पलटकर रेड़ मारी - कई सवाल ऐसे होते हैं भाई कि जिनका जवाब ज़िन्दगी में कभी नहीं मिलता। अब तुम्हीं बताओ यदि तुम्हें पता होता कि अपनी कम्पनी के फ़ायदे के लिए तुम्हें अपने ही देश के छोटे-छोटे निर्माताओं, खुदरा विक्रेताओं, स्थानीय व्यापारियों और घरेलू उद्योग-धन्धों का सफ़ाया करना होगा, उनके पेट पर लात मारनी होगी तो क्या तू ज्वाइन करता यह कम्पनी? भाई, मुझे तो लगता है कि हम सभी कहीं-न-कहीं अनचाहे, अनजाने फँसे हुए लोग हैं। दरअसल, जब तक हम समझ पाते हैं उन रास्तों को, जान पाते हैं अपने ‘स्व’ के भाव को, अपने स्वभाव को, प्रकृति को, जीवन बहुत आगे बढ़ चुका होता है। ज़िन्दगी के ढेर सारे परिन्दे उड़ चुके होते हैं। घिसते-घिसते हम इतना घिस चुके होते हैं ज़िन्दगी की रगड़ में कि हमारे पास न इतनी ऊर्जा बचती है और न ही ऐसा सपना कि हम एक ज़िन्दगी से निकलकर दूसरी ज़िन्दगी में चले जाएँ। हमारे पास न लौट जाने का विकल्प बचता है न रास्ते बदलने का। हम बस ज़िन्दगी के स्रष्टा नहीं, ज़िन्दगी की कठपुतलियाँ भर रह जाते हैं।
‘‘हम आर्मी वाले राजनेताओं के हाथों की कठपुतलियाँ हैं तो तुम बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के हाथों की, फ़र्क़ क्या है?’’
‘‘क्या-क्या?’’ जैसे बिजली छू गयी हो! आहत सिद्धार्थ! इतना कठोर सत्य उसकी उस नौकरी के लिए जिसे पाकर वह फूला नहीं समाया था, जाने कितनों को पछाड़कर उसने प्रवेश पाया था आई.आई.एम. कोलकाता में? वह देश का क्रिमी लेयर और यह उसका काम? इस नज़रिये से तो उसने कभी सोचा ही न था?
‘‘क्या दुबारा सोचना होगा उसे अपने बारे में?’’
लेकिन वह इतनी जल्दी हार माननेवालों में से न था। अपने बचे-खुचे दम के साथ फिर उसने पलटवार करना चाहा।
तुम्हारी शिकायत है कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की नज़र सिर्फ़ फ़ायदे पर रहती है। पर एक सचाई यह भी है भाई कि प्रोफ़िट सबसे ज़बरदस्त फ़ोर्स है। यदि प्रोफ़िट मोटिव नहीं रहे तो लोग इतनी दौड़-धूप क्यों करें? भारत में ही देखो न, जबसे ग्लोबल इकॉनॉमी हुई है, इंडिया कितनी उन्नति कर रहा है। जी.डी.पी. को देखो, सेंसेक्स को देखो।
तो यह भी देखो कि इस देश में अभी भी 223 करोड़ लोग भूखे सोते हैं। बाल श्रमिक बढ़ रहे हैं। गाँव उजड़ रहे हैं। आदिवासी विस्थापित हो रहे हैं। कन्या भ्रूणहत्याएँ बढ़ रही हैं। करोड़ों लोगों की प्रति व्यक्ति आय महज़ 20 रुपये प्रतिदिन है। यदि ख़ुशहाली होती तो माओवादी नहीं बढ़ते। भूखा आदमी ही उठाता है गन।
सिद्धार्थ ने हारकर अन्त में तुरुप का कार्ड फेंका।
‘‘लेकिन मैं तुम्हारी तरह भारत सरकार के किसी अनुबन्ध से नहीं बँधा हूँ, जब भी चाहूँ मैं, त्यागपत्र दे सकता हूँ।’’
‘‘तो फिर क्यों तू अपनी विलक्षण प्रतिभा को सुन्दरियों को गोरापन देने के भ्रम में जाया कर रहा है?’’ सन्दीप की नज़र उसके हाथ में रखे महँगे ब्लैकबेरी मोबाइल पर थी जो श्रीनगर में निष्क्रिय हो गया था।
‘‘क्या?’’ जम गया सिद्धार्थ। फिर गहरा देखा भाई को। यह भाई बोल रहा है या बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के प्रति उसकी वितृष्णा? या कोई कुंठा? नहीं, कुंठा का शिकार तो हो नहीं सकता है उसका भाई। अच्छी तरह जानता है वह। तो क्या फ़ौज के कठोर जीवन ने बना दिया है भाई को इतना कठोर कि चाबुक-दर-चाबुक वार किया जा रहा है उस पर। न वह फ़ौज का बन पाया है और न ही भाई रह पाया है। क्या इसीलिए बन गया है वह इतना कठोर!
गीला सन्नाटा।
जमे-से बैठे रहे दोनों भाई जैसे दोनों दो हाड़-मांस के इनसान नहीं, बर्फ़ के दो टुकड़े हों।
सन्दीप को भी लगा कि अनायास ही चाकू चला दिया उसने भाई पर। ऐसा नंग-धड़ंग बड़बोलापन। बहुत कड़वा कह गया वह! भारत के सबसे प्रतिष्ठित संस्थान से एम.बी.ए.! इतना हाई पैकेज! देश का क्रीमी लेयर! और किस प्रकार शून्य कर डाला उसने भाई को। जबकि वह जानता है कि भाई अमानवीय नहीं, पर उसकी सोच की धुरी को ही उलटा दिया गया है। भोग पर आधारित विकास की सोच ने उसे एक ऐसी तिलिस्मी दुनिया में पहुँचा दिया है जहाँ करुणा, संवेदना, इनसानी एहसास और कोमल भावनाएँ सब माया है। सत्य है सिर्फ़ आमदनी का उठता हुआ ग्राफ़। पर वह भी क्या करे?
जाने क्यों उसे लगता है कि ये सारे प्रतिष्ठान देश की ज़रूरत के अनुसार नहीं, वरन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की ज़रूरत के अनुसार डिजाइन किये गये हैं। जाने क्यों उसे लगता है कि आज नैतिकता किसी भी प्रोफ़ेशन में नहीं रह गयी है। पिछले दशकों में यदि किसी चीज़ को देश निकाला मिला है तो वह है नैतिकता। भाई की सारी काबिलियत, प्रतिभा और हुनर जाया हो रहा है मरे हुए चूहे को बेचने के कौशल में और कश्मीर की युवा पीढ़ी का हुनर जाया हो रहा है बन्दूक के घोड़े को दबाने में।
पर क्या कश्मीर सम्पूर्ण भारत है? नहीं, फिर क्यों इतनी कड़ुवाहट और नकारात्मकता भरती जा रही है उसके भीतर? क्या कश्मीर पोस्टिंग का साइड इफेक्ट है यह? नहीं, वह निकालेगा कोई राह इस भटकी हुई दुनिया के बीच!
नींद आ रही थी उसे, फिर भी नींद को परे सरकाकर वह जुट गया भाई के जख़्मों पर मलहम-पट्टी करने में। बातें करता रहा उससे मुलायम मुलायम स्वरों में। इधर-उधर की, बेसिर-पैर की।
और देखते-देखते हलका-सा मनमुटाव, जो दोनों के बीच हो गया था, एक दुर्बल लहर की तरह विलीन हुआ। फिर हवाएँ चलने लगी। फूल मुस्कराने लगे। भाई फिर भाई बन गये। और सुबह तक दोनों ने नींद, मुस्कराहट और सपनों का एक पूरा दौर साथ -साथ पूरा किया।
सुबह।
कमांडिंग अफ़सर कर्नल आप्टे ने तुरन्त बुलाया सन्दीप को, बेस कैम्प बूशन में। सिद्धार्थ को साथ लेकर पहुँचे सन्दीप अपने बेस कैम्प बूशन में। सिद्धार्थ को उसकी कॉटेज दिखायी। पहली नज़र में बूशन कैम्प बड़ा मनभावन लगा सिद्धार्थ को। गाढ़े लाल और गाढ़े हरे रंगों से रँगा हुआ गोलाकर मुख्य द्वार। सबसे ऊपर अर्र्द्ध वृत्ताकार में लिखा हुआ - कर्म ही धर्म। दरवाज़े के पहले ठीक गुंड गाँव के आर्मी कैम्प की तरह यहाँ भी बड़ी-सी लकड़ी की अर्गला। स्टैंड पर आड़ी टिकाई हुई। वह तभी उठेगी जब आप ‘प्लीज़ शो योर आइडेंटिटी कार्ड’ का फन्दा पार कर लेंगे।’ दाईं तरफ़ छोटा-सा ऑफ़िस (मुख्य द्वार के बाहर) जिसमें एके 47 हाथों में लिये कई कमांडनुमा गार्ड। मुख्य दरवाज़े के बाहर सड़क पर छोटा-सा होर्डिंग, जिस पर दो चुस्त कमांडो और नीचे लिखा हुआ, ‘दि स्टोर्मी ट्रूप्स’।
थोड़ा आगे की तरफ़ फिर एक बोर्ड जिस पर लिखा हुआ था, ‘क़दम से क़दम मिलाओ, कश्मीर को जन्नत बनाओ।’ मुख्य द्वार पर ज़बरदस्त नाकेबन्दी। हर तरफ़ एके 47 से लैस जवान। जब तक अन्दर से आदेश नहीं मिल जाता, परिन्दा भी पर नहीं फैला सकता।
मुख्य दरवाज़े के ऊपर राष्ट्रीय राइफल्स का इम्बलेम, दो एके 47, एक दूसरे को काटती हुई, ऊपर अशोक चक्र। बीच में लिखा हुआ, ‘14 राष्ट्रीय राइफल्स आपका स्वागत करता है।’ उसके ऊपर लिखा हुआ, ‘वीरता और दृढ़ता।’ उसके ऊपर अंकित, ‘कर्म ही धर्म।’
बुशन कैम्प के भीतर घुसते हुए मन फिर खिल उठा। बाईं तरफ़ फूलों का सुन्दर संसार। तरह-तरह के फूल महकते गुलाबों की क्यारियाँ। कहीं सूरजमुखी, कहीं जवाफूल तो कहीं रातरानी। सुन्दर ख़ूबसूरत गमले। कालीन-सी बिछी ताज़ा कटी घास। उसकी लय ताल में बहते जगह-जगह गहरे लाल कत्थई रंगों के मिले-जुले खम्भे। गोल-गोल घुमावदार रास्ते। बीच-बीच में मोती-सी आब लिये चिकने सफ़ेद पत्थरों की कतार। और तभी सिद्धार्थ की नज़र पड़ी एक और बोर्ड पर, जिस पर लिखा हुआ था - ‘उँगली ट्रिगर पर, सिर्फ़ कॉन्टेक्ट होने पर’ यानी वीरता और दृढ़ता के साथ-साथ व्यर्थ के ख़ून-खराबे से बचने की चेतावनी भी।
कुछ क़दम आगे बढ़ने पर देखा उसने - छोटे-छोटे कॉटेजनुमा घर, गुड़ियों के घर से, आर्मी के ऑफिसर्स के लिए। साथ-साथ एक क़तार में छोटे-छोटे ऑफ़िस। रिक्रिएशन रूम, कम्प्यूटर रूम। पीआरआई ऑफ़िस, टीएनटी ऑफ़िस। रेक्रिएशन रूम में देखा, एक मिलिटेंट की तस्वीर। तस्वीर के ऊपर लिखा था - वांटेड। ख़ूबसूरत। बढ़ी हुई दाढ़ी। नीचे लिखा था - अहमद रशीद, जिसने घाटी में कई घातक विस्फोटों को अंजाम दिया था।
अपनी कॉटेज में घुसा तो चहक गया सिद्धार्थ - सेब और अखरोट के पेड़ों पर ढेरों ढेर, ख़ूबसूरत चिड़ियाँ, जिनकी चहचहाहट वातावरण को जीवन ताज़गी और उमंग से भर रही थी। उन लम्हों में कैम्प में इतनी शान्ति, सुकून और सम्पूर्णता थी कि यह कल्पना तक कर पाना मुश्किल था सिद्धार्थ के लिए कि इसी श्रीनगर की घाटियों और वादियों में हर क्षण हिंसा, अशान्ति, ख़ून-खराबा और नफ़रत फैलाने की साजिश भी रची जा सकती है। वह भूल चुका था, युद्ध को, अशान्ति को, एके 47 को। फूलों, हिमालयी हवाओं और गुनगुनी धूप की मौज़ में तरंगित हो आगे बढ़ रहा था कि क़दम फिर ठिठक गये। सामने, पी.आर.आई. ऑफ़िस के बाहर लिखे थे जवानों के लिए कुछ महत्त्वपूर्ण निर्देश। वह पढ़ने लगा।
थलसेनाध्यक्ष के दस महत्त्वपूर्ण निर्देश :
- बलात्कार नहीं।
- छेड़छाड़ या दुर्व्यवहार नहीं।
- किसी को भी शारीरिक उत्पीड़न नहीं।
- हथियार या पोस्ट का नुकसान नहीं हो, अन्यथा सेना की बदनामी होगी।
- आम जनता के झगड़ों में न पड़े।
- नागरिकों की मदद के लिए हमेशा तैयार रहें।
- संचार का माध्यम जैसे टेलीफोन, रेडियो, दैनिक आदि का इस्तेमाल अपने ऑपरेशन के फ़ायदे के लिए करना चाहिए।
- व्यक्तिगत अधिकारों को बढ़ावा एवं इज़्ज़त देनी चाहिए।
- केवल ईश्वर से डरना चाहिए। धर्म के रास्ते पर चलना और ख़ुश होकर देश की रक्षा का आनन्द लेना हमारा कर्तव्य है।
वाऊ! सुपर्ब! मन ही मन चुटकी ली सिद्धार्थ ने। यही अन्तर है फ़ौज और पुलिस में। सच है कि कोई भी व्यक्ति आम आदमी के साथ कैसा सुलूक करता है, यह बहुत कुछ निर्भर करता है, उस मानसिकता और व्यक्तित्व पर जो उसके वरिष्ठ अफ़सर उसकी तैयार करते हैं। कितने मानवीयता से भरे हैं ये निर्देश! सत्य तो यह है कि यदि कश्मीर में फ़ौज स्थिति को इतना कुछ नियन्त्रित कर पायी तो इसका बहुत कुछ श्रेय कर्नल केदार आप्टे जैसे कमांडिंग अफ़सरों को ही है जिन्होंने अनुशासन और शराफ़त दोनों को अपने फ़ौजियों में साधा है।
बस जरा-सा रिस्क एलीमेंट कम हो तो उसे कोई गिला नहीं भाई के फ़ौजी होने से। पहली बार उसे भाई के इस दावे में दम लगा कि उसकी अपेक्षा उसके भाई का जीवन कहीं बड़े और वृहत्तर लक्ष्य को समर्पित है।
मन की तरंग में आगे बढ़ रहा था कि नज़र पड़ी एक और कॉटेज पर। बाहर लिखा था, ड्यूटी रूम। जिसकी बाहरी दीवार पर एक पेपर कटिंग चिपकायी हुई थी। शायद कमान अधिकारी ने फ़ौजियों का मनोबल बढ़ाने के लिए चिपकायी थी यह कटिंग। उसमें ज़िक्र था कि कंगन गाँव में पुलिस की मुठभेड़ में मारे गये मिलिटेंट को दफ़नाने के लिए गाँववालों ने ज़मीन देने से इनकार कर दिया था। जबकि एक समय ऐसा भी था कि जब इसी गाँव में कोई मिलिटेंड पुलिस मुठभेड़ में मारा जाता तो गाँव वाले रैली निकालते कि यह हमारे लिए शहीद हुआ। गाँव की बूढ़ियाँ उसके शव से लिपट जातीं थीं।
क्या यह लोगों की मानसिकता का बदलाव है या आर्मी का डर? क्योंकि आर्मी मिलिटेंट से सहानुभूति रखनेवालों पर कड़ी नज़र रखती है। सामने बहती सिन्धु नदी की तरह बहने लगी विचारों की नदी। उसे एक ईरानी कहानी याद आयी जिसमें एक बाप अपने बाग़ी बेटे की लाश लिये दर-ब-दर भटकता रहा पर किसी ने भी तानाशाह के डर के मारे उसे दफ़नाने की इजाज़त नहीं दी।
उफ़! कब तक टकराते रहेंगे विरोधी सत्य, रँगी रहेगी ख़ून से यह दुनिया!
बुशन कैम्प का अहाता जितना लुभावना था उतना ही रोमांचित करने वाला भी था। एक अलग ही दुनिया थी वह जो क़दम-क़दम पर यह एहसास कराती थी कि वह एक ऐसी भूमि के टुकड़े पर खड़ा है जहाँ हिन्दुस्तानी होना सबसे अधिक ख़तरनाक है। नागरिक जीवन जीनेवालों के लिए यह सचमुच एक अलग तरह का अनुभव था, डर और गौरव की मिली जुली अनुभूति से भरपूर।
थोड़ा और आगे बढ़ा सिद्धार्थ तो फिर एक दिशा निर्देश। क्या यहाँ सबकुछ दीवारों पर ही लिखकर टाँग दिया जाता है? कोई बाहरी व्यक्ति पढ़ ले तो? फिर खयाल आया उसे कि वह आर्मी का बेस कैम्प है जहाँ सिवाय अफ़सरों के निजी पारिवारिक सदस्यों के परिन्दा भी नहीं घुस सकता है, और निजी सदस्यों को भी बहुत ही कम समय दो या तीन दिन तक ही ठहरने की इजाज़त मिलती थी। वे दिशा निर्देश भी काफ़ी महत्त्वपूर्ण और रोचक थे। वह पढ़ने लगा -
- एचएचटीआई को हमेशा रेडी मोड में रखें, अन्यथा जबतक इसे रेडी मोड में आप लाएँगे दो-तीन मिनट निकल चुके होंगे, तब तक मिलिटेंट क़रीब आ चुके होंगे। इसलिए रेडी मोड में रखें जिससे दूर तक नज़र रखी जा सके और फ़ायर किया जा सके।
- एक एड हॉक (कामचलाऊ) योजना हमेशा अपने दिमाग़ में रखें जिससे कभी अचानक त्वरित एक्शन लेना पड़े तो आप ले सकें।
- कन्वॉय में सबसे पहले वह चढ़े जिसे सबसे बाद में उतरना हो और सबसे बाद में वह जिसे सबसे पहले उतरना हो।
- गाड़ी को हमेशा कन्वॉय लाइट पर चलाएँ जिससे दूर से गाड़ी नज़र न आए।
- रात को फुसफुसाकर बात करें क्योंकि अँधेरे में आवाज़ दूर तक जाती है। पंजों के बल चलें जिससे घात में बैठे मिलिटेंट को कोई आवाज़ न सुनाई पड़े। खाँसी या छींक आये तो मुँह में दबाकर रखें।
- जवान अपने साथ छोटी-सी टार्च हमेशा रखें - चाहे दिन हो या रात। यहाँ कश्मीर में अपना सिर्फ़ एक मकसद हैं - मिलिटेंट को मार गिराना।
तत्लीन हो पढ़ रहा था सिद्धार्थ कि तभी पीछे से सन्दीप ने धौल जमाया - अरे, यह क्या? क्यों पढ़ रहे हो इन्हें, ये सिर्फ़ आर्मी वालों के लिए हैं। सिविलियन्स को मनाही है इन्हें पढ़ने की। एकदम गोपनीय दिशा-निर्देश।
तो फिर इन्हें बाहर खुले में क्यों टाँग रखा है?
- जनाब, ये तो हम फ़ौजियों और जवानों की तरह खुले में ही रहेंगे हाँ, आप ग़लत जगह खड़े हैं, चलिए आप अपने कमरे में और बन्द हो जाइए... बोलते-बोलते अपने ही बात पर हँस पड़ा सन्दीप।
-हाँ, हाँ बन्द हो जाऊँगा, मुझे दिलचस्पी नहीं, बच्चों की तरह वरिष्ठों से उँगली पकड़वाने में। बस इतना बता दें यह एच.एच.टी.आई. है क्या बला।
- बताना क्या है, तुझे दिखा ही दूँगा, बस अभी थोड़ी जल्दी में हूँ। इसलिए इतना भर समझ ले कि यह एक प्रकार का बेशक़ीमती कैमरा होता है जो हर यूनिट के पास एक ही होता है। इससे काली रात के काजल अँधेरे में भी कई किलोमीटर दूर तक देखा जा सकता है। हाँ भाई, एकदम-साफ़, सफाचट।
पर एक चीज़ मैं समझ नहीं पाया, जगह-जगह इन्हें चिपकाया क्यों गया है?
इसलिए कि हर जवान उठते-बैठते, सुबह-शाम जब-जब समय मिले पढ़े क्योंकि यहाँ हमारा उद्देश्य सिर्फ़ मिलिटेंट को मार गिराना ही नहीं, वरन कश्मीरियों और आर्मी के बीच सद्भाव भी क़ायम करना है। क्या बताएँ इतनी चौकसी सतर्कता, नैतिक पाठ, सावधानी और उपदेश के बावजूद कई बार हमारे जवान ऐसी-ऐसी हरक़त कर बैठते हैं कि हमारी वर्षों की मेहनत पर पानी फिर जाता है। अभी महीने भर पूर्व ही घटी एक घटना। घटना राजौर गाँव की है। हमें ख़बर मिली कि मिलिटेंट नीचे उतरे हैं। एक तो ह्यूमन राइट्स वालों ने वैसे ही हमारा जीना हराम कर रखा है। अरे मत पूछो, जरा- सी चूक हुई नहीं कि सीधा मामला ठोंक दिया जाता है। इस कारण हमें फूँक-फूँक कर क़दम रखना होता है। तो हम रात भर घेरा डाले बैठे रहे। ह्यूमन राइट्स के चलते हम रात को किसी घर की तलाशी नहीं ले सकते। तो पूरी रात हमने ठंड में ठिठुरते गुज़ार दी। सुबह होते ही हमने सर्च अभियान शुरू किया। गाँव के एक घर ने आनाकानी दिखाई। हमारे जवान वैसे भी अकड़े हुए थे। ठंड में अकड़े हमारे जवान का दिमाग़ भी अकड़ा हुआ था। तैश में आकर हमारे जवान ने राइफल दिखायी। बस अब तो घर में रोना-पीटना मच गया। मैं बाहर खड़ा था, रोना-पीटना सुन मैं तुरन्त अन्दर घुसा। मैंने घर के मुखिया को सॉरी कहा, उससे हाथ मिलाया। बच्चों को प्यार किया, उन्हें टॉफी दी, फिर मुखिया को बेहद विनम्र स्वर में कहा कि यह हमारी ड्यूटी है, हमें ख़बर मिली है मिलिटेंट के छिपे होने की। मुखिया राजी हो गया, पूरी विनम्रता और तमीज के साथ हमने घर का कोना-कोना छान मारा। मजे की बात कि मेरे जरा-सी विनम्रता से बात करने मात्र से घर के मुखिया का तो क्या औरतों का भी डर निकल गया। तो बार-बार समझाने के बावजूद हमारे जवान चूक कर जाते हैं और बनी-बनायी बात बिगड़ जाती है। हमें कश्मीरियों को हमेशा यह विश्वास दिलाना होता है कि आर्मी क्रूर नहीं है। उसके भी हृदय हैं कि वह कश्मीरियों की मित्र है, दुश्मन नहीं। वह उनकी सेवा के लिए है, रुतबे के लिए नहीं।
पीछे के रास्ते से होते हुए दोनों अपने कॉटेज की तरफ़ बढ़ रहे थे कि फिर ठिठक गया सिद्धार्थ। उसने देखा फिर एक ख़ूबसूरत सा चबूतरा। दोनों तरफ़ छोटी-छोटी सीढ़ियाँ। हर सीढ़ी पर ख़ूबसूरत गमले। दोनों सीढ़ियों के बीच बने छोटे-से चबूतरे पर तिरंगा, जिसे दो जवान सेल्यूट मार बड़े कायदे से समेट कर ले जा रहे थे।
‘‘यह क्या?’’ उसने पूछा।
‘‘हर यूनिट का अपना तिरंगा होता है जिसे हर शाम छह बजे उतार लिया जाता है और सुबह छह बजे फिर फहरा दिया जाता है।’’
‘‘क्या इसका मतलब है, रात आर्मी के भरोसे।’’ मन-ही-मन सोचा सिद्धार्थ ने। सन्दीप से पूछ नहीं पाया वह, क्योंकि सन्दीप थोड़ा आगे निकल अपने किसी साथी से बातचीत में मशगूल था।
तीन घंटे बीत गये।
घर और बचपन की गलियों में घूमते-झाँकते।
सिद्धार्थ ने देखा कि एक फोन आने के बाद से ही भाई उद्विग्न-सा अपने कमरे में चक्कर काट रहा था।
सन्दीप ने देखा, घूमकर आने के बाद से ही भाई दिल्ली में होनेवाली आगामी मिटिंग के लिए रिपोर्ट तैयार कर रहा था जहाँ किसी पंच सितारा होटल में कम्पनी के सारे चीफ़ एक्जीक्यूटिव और मैनेजर्स जमा होने वाले थे। इस डिस्कशन के लिए कि कम्पनी अपने सबसे कमाऊ ब्रांड ‘फाइन एंड लवली’ को नयी साज-सज्जा के साथ किस आकर्षक ढंग से लांच करे जिससे अधिक से अधिक लड़कियाँ उसकी ओर आकर्षित हो सके।
‘‘क्या बात है भाई, कुछ परेशान नज़र आ रहे हो।’’ आख़िर सिद्धार्थ ने ही चुप्पी तोड़ी।
‘‘परेशान नहीं हूँ, बस चिन्तित हूँ कि तुम्हें इस प्रकार अकेले छोड़कर जाना पड़ रहा है मुझे। दरअसल, मुझे कुछ निहायत ज़रूरी काम के लिए कर्नल आप्टे ने अपनी यूनिट में अभी तुरन्त आने को कहा है। आधे घंटे में ही जीप अपनेवाली है मेरी। मैं रात को तो नहीं ही आ पाऊँगा। यदि कल सुबह तक भी न आ सकूँ तो चिन्ता मत करना, मैंने कैप्टन महेश कुलकर्णी को कह दिया है वह तुम्हें छुड़वा देगा एयरपोर्ट तक।
सिद्धार्थ का मन मचला, वह भी चले भाई के साथ। देखे कैसे देखा जाता है एच.एच.टी.आई. से अँधेरे में। घने जंगलों में। बच्चे की तरह मचलते हुए कहा उसने, मैं भी चलूँ भाई तुम्हारे साथ?
सन्दीप आधा सत्य छिपा गया था। ख़बर मिली थी कि प्रांग पहाड़ पर दो-तीन मिलिटेंट नीचे उतरने की तैयारी में हैं। कमांडिंग ऑफ़िसर कर्नल आप्टे ने इस टू -डेज़ ऑपरेशन की सारी ज़िम्मेदारी मेज़र सन्दीप पर डाल दी थी। अपने नेतृत्व में होनेवाला उनका यह पहला ऑपरेशन था, इस कारण उत्तेजना, थ्रिल, डर, खौफ़ और आशंका से वह इतना भरा हुआ था कि दिमाग़ को एकाग्र नहीं कर पा रहा था। कमांडिंग अफ़सर कर्नल आप्टे के शब्द दिमाग़ में हथौड़े की तरह बज रहे थे - आपके दिमाग़ में नक्शा एकदम साफ़ होना चाहिए। चप्पे-चप्पे की जानकारी होनी चाहिए। आपको दिन में जाकर लोकेशन देख लेनी होगी। सोचने लगा, सन्दीप लोकेशन देखने के लिए किसे साथ लेना उचित होगा कि तभी सिद्धार्थ ने फिर झकझोरा - कहाँ खो जाते हो? क्या सभी फ़ौजी ऐसे ही होते हैं, बात करते-करते खो जाना, मैं भी चलूँ?
‘‘अरे नहीं, तुम्हें साथ ले जाने की अनुमति नहीं मिलेगी। ख़ुद मैं अपनी टीम के साथ निकलूँगा, हाँ, सम्भव है कि जाते वक़्त तुमसे नहीं मिल सकूँ।’’ मन ही मन खयाल आया, कौन जाने ऑपरेशन के दौरान ही... पर ऊपर से स्वयं को नियन्त्रित करते हुए भाई को गले से लगाया। एक मिनट ठहर। हड़बड़ी में भी उसने अपनी अटैची से एक सुन्दर डिब्बी निकाली, उसमें से एक जोड़ी ख़ूबसूरत कफलिंक की निकाली और भेंट की भाई को, जिसे उसने भाई के लिए मथुरा पोस्टिंग के दौरान ख़रीदी थी।
भाई से विदा ले वह अल्फा कम्पनी के कैप्टन प्रशान्त हल्गिन के साथ निकल गया लोकेशन देखने।
चप्पे-चप्पे की जानकारी हासिल करने के बाद जय माँ काली, जय बजरंग बली के उद्घोष के साथ ऑपरेशन शौर्य के लिए मेज़र सन्दीप की अगुआई में 72 घंटे की खाद्य-सामग्री, सूखे मेवे, शक्कर पाडे, ढेकुआ आदि के साथ सभी निकले। तीन कम्पनियों के कमांडिंग अफ़सर और जवान साथ-साथ बुलेटप्रूफ जैकेट और बुलेटप्रूफ कैप से लैस। साढ़े चार घंटों की रगड़ाई के बाद तीन अलग-अलग ग्रुपों में रात के नीम अँधेरे में सभी जवानों और अफ़सरों ने प्राग पहाड़ के नियत स्थान पर अपनी-अपनी पोजीशन ली। एक साथ निकलने से गोपनीयता भंग हो सकती थी इस कारण मेज़र सन्दीप ने सभी को अलग-अलग दिशाओं से अलग-अलग आने का निर्देश दिया था। किसी भी ऑपरेशन के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण होता है सरप्राइज को क़ायम रखना... सोच रहे थे सन्दीप। हर क़दम पर धुकधुकी। गेंद की तरह टप्पे खाता दिल। कई ऑपरेशन में जा चुके थे अब तक। पर आज लगाम ख़ुद उनके हाथों में थी। सूत्रधार स्वयं थे। इस कारण फूँक-फूँक कर क़दम रख रहे थे। सारी चेतना कानों और आँखों पर टँगी हुई थी। क्या आ रही है कोई आवाज़? ध्वनि की दूरी के सम्बन्ध में कोई चूक न हो जाए। नहीं, कोई आवाज़ नहीं आ रही थी। एच.एच.टी.आई. ऑन मोड में थी। उसके आई ग्लास से फिर निरीक्षण किया उन्होंने। दूर-दूर तक आतंकी तो क्या कोई परिन्दा तक नज़र नहीं आ रहा था। उन्होंने फिर घड़ी देखी - 12 बजकर 56 मिनट। दिमाग़ में आया, ख़बर ग़लत भी हो सकती है। बहुत बार हुआ है ऐसा। ख़बर सही तो ठीक, और यदि उलटी हो तो वार उलटा भी पड़ जाता है। आज तक वे और उनकी यूनिट याद करती है मेज़र राठौर और उनकी टीम की दर्दनाक शहादत को। उन्हें ख़बर मिली थी कि ब्रेवो पहाड़ पर एक मिलिटेंट नीचे उतरने की तैयारी में है। मेज़र राठौर और चार्ली कम्पनी के कम्पनी कमांडर कैप्टन बलवीर सिंह छह जवानों के साथ निकल पड़े ब्रेवो पहाड़ी की तरफ़ - बहुत हैं आठ फ़ौजी एक हरामी के लिए। अँधेर में रेंगते हुए जैसे ही वे पहुँचे, पहाड़ पर, ख़ुद ही घेर लिये गये। एक की जगह बारह मिलिटेंट, अत्याधुनिक हत्यारों से लैंस। अक्टूबर-नवम्बर में मकई के खेत बढ़ जाते हैं, उसी के पीछे छिपकर बैठे थे हरामज़ादे। कमीनों ने घेर लिया। घास-फूस की तरह काट डाला और बोरे में भरकर हेडर्क्वाटर बूशन कैम्प के बाहर फेंक गये थे।
मन फिर गमगीन हुआ, काश! कोई रोक पाता दोनों ओर से बहते नफ़रत के इस सैलाब को।
दिमाग़ को फिर ठकठकाया उन्होंने, अभी मौक़ा यह सब सोचने का नहीं।
फिर नज़र पड़ी घड़ी पर, 2 बजकर 35 मिनट।
वे ढीले पड़ने लगे।
निर्णय लिया गया कि हर ग्रुप से दो सोएँगे, तीन जागेंगे। बारी-बारी से। सन्दीप और उसके साथी घुटनों के बीच मैगजीन लगी लोडेड एके 47 के साथ पेड़ के तने से टेक लगाकर, थोड़ी-सी पीकर यूँ सो गये कि पेड़ में पेड़ हो गये।
रात! काश वह ऐसे ही सोता रहता और रात कभी न बीतती।
पर उँघती-रेंगती रात बीती।
सुबह सन्दीप ने सेकंड-इन-कमांड कर्नल बक्षी को ख़बर भेजी तो वहाँ से ऑर्डर मिला - नीचे उतर जाओ। नीचे सर्च करो।
तीन घंटों की पैदल रगड़ाई के बाद वे नीचे उतरे। पूरे दिन खोज जारी रही। चप्पा-चप्पा खोजा। पत्ता-पत्ता छान मारा। बिल्ली की तरह घात लगाए बैठे रहे, इन्तज़ार करते रहे चूहों के आने का। चूहे नहीं आये। फिर सम्पर्क किया कर्नल बक्शी से। फिर ऑर्डर मिला - ऊपर जाओ। ऊपर सर्च करो।
कॉटेज में अकेला सिद्धार्थ। मन उचाट। लगा भाई के साथ-साथ थोड़ा वह भी चला गया है। क्या कर रहा होगा भाई इस समय? मन में भयावह खयाल आने लगे तो ध्यान बँटाने के लिए लैपटॉप खोलकर बैठ गया। थोड़ी देर मेल चेक करता रहा, फिर ‘वन मिनिट मैनेजर’ किताब को उलटा-पुलटा, पर मन जमा नहीं, भीतर घुटन होने लगी, थोड़ा बाहर घूम आये, उसने सोचा, पर मुश्किल थी कि बुशन कैम्प से बाहर अकेले निकलने की इजाज़त नहीं थी, किसी लोडेड पिस्तौल वाले की हिफाजत के साए में बाहर निकलता उसे अटपटा लगता पर कमरे में रहना भी दुश्वार, बुरे खयाल पीछा ही नहीं छोड़ते, आख़िर वह मुख्य द्वार तक आया और दरवाज़े पर खड़े जवान से अनुरोध किया कि वह बाहर जाना चाहता है। जवान ने विनम्रतापूर्वक उसके साथ दूसरे बन्दूकधारी जवान को भेज दिया।
सामने लहराती बलखाती सिन्धु नदी। किनारे-किनारे चलने लगा वह। तपोवन-सा सुरम्य वातावरण। थोड़ा ही आगे बढ़ा कि सारी लय-ताल गड़बड़ा गयी। धाँय धाँय। घने जंगलों में सी.आर.पी.एफ. वाले प्रैक्टिस फायरिंग कर रहे थे। बड़ा मौजूँ दृश्य था। बीच में आतंकी का पुतला और उसी को लक्ष्य कर गोली दागना। मज़े के लिए उसने भी अनुरोध किया। सी.आर.पी.एफ. वालों ने उसे भी दिला दी बन्दूक। गोली दागने के लिए। भारी-भरकम बन्दूक, उसके भार को सँभालना ही मुश्किल था, दूसरे जवान के कन्धे पर बन्दूक रख किसी प्रकार घोड़े दबाने की रस्म भर पूरी कि तो बन्दूक आतंकी के बुत के बगल में निकल गयी। थोड़ी देर खड़े रहकर वह फायरिंग की आवाज़ों को सुनता रहा और कल्पना करता रहा कि युद्ध के दौरान कैसा दृश्य और कैसी आवाज़ें आती रहती होंगी।
थोड़ा आगे निकलकर फिर पूछा उसने, बाज़ार कितनी दूर होगा?
‘‘क़रीब तीन किलोमीटर दूर होगा...।’’
‘‘क्या तुम चल पाओगे?’’
हँस पड़ा फ़ौजी - सर, आप अपनी सोचिए, हमारी तो आदत है दिन में 10 -10 किलोमीटर तक चलने की।
काफ़ी दूर तक कभी सूखे पत्तों की चिरमिट-चिरमिर के साथ तो कभी कल-कल बहती नदी की धारा के साथ तो कभी जीवन जगाती हवाओं के साथ आगे बढ़ता रहा सिद्धार्थ, कि एकाएक पाँव ठिठक गये, सारी हरियाली, जादुई फिजाँ के सारे सुख पर जैसे ब्रेक लग गया। किसी के बिलबिलाने की आवाज़, कलेजा फाड़ कर आती रोने की आवाज़। साथ ही गोलियों की आवाज़। दो क़दम आगे बढ़ा तो दिल दहल गया। जीवन आस्था की धज्जियाँ उड़ाता भयानक दृश्य। दो-तीन फ़ौजी मिलकर सार्वजनिक रूप से पीट रहे थे किसी स्थानीय युवक को। साथ ही साथ फ़ौजियों के मुँह से निकलती धाराप्रवाह गाली। फ़ौजी बिना गाली के बात नहीं करते, यह तो सुना था पर ऐसी गालियाँ... माँ-बहन के अंग विशेष ही नहीं। उससे भी आगे... साला मूतता कम, हिलाता ज़्यादा है, ले मज़ा, धोखा देने का... फिर दनादन। बास्टर्ड। ...ज़िन्दगी भर भूल जाएगा हिलाना... इतनी भयंकर पिटाई देख चक्कर आने लगा सिद्धार्थ को। पिटते-पिटते युवक के ख़ून बहने लगा था, कई जगहों से। उफ़! सिद्धार्थ ने मुँह घुमा लिया। थोड़ी ही दूरी पर एक खुबानी बेचनेवाली थी, आस-पास कई खस्ताहाल दुकान वाले थे, सभी वीतरागी भाव से देख रहे थे इस पिटाई को।
सिद्धार्थ खुबानी ख़रीदने लगा। थोड़ी ही देर बाद आ पहुँचा उसका फ़ौजी साथी। क्यों पीट रहे थे इतनी बेरहमी से? पूछा सिद्धार्थ ने।
जवान हँस पड़ा। साहब जी, हैवानियत से निपटने के लिए हैवानियत ज़रूरी हो जाती है। इसीलिए शायद फ़ौजियों को मदिरा-मांस खिला-खिलाकर राक्षस बना दिया जाता है जिससे निपट सकें वे हैवानियत से। अब आप सिर्फ़ इसकी पिटाई देख रहे हैं पर यह क्यों हो रही है आप सोच भी नहीं सकते। ये जनाब मुखबिर थे। प्रायः सभी ऑपरेशन मुखबिर की ख़बरों पर ही होते हैं। पर इस मुखबिर ने फ़ौज को धोखा दिया। इसने कहा कि ब्रेवो पहाड़ी पर दो मिलिटेंट हैं, पर निकले आठ मिलिटेंट। मिलिटेंटों को भी बन्दे ने बता दिया, वे भी इन्तज़ार कर रहे थे हमारी फ़ौज का। इसलिए इसको खुले आम पीटा जा रहा है कि बाक़ी सभी ख़बरिये समझ लें कि झूठी ख़बर देने का अंजाम क्या होता है। जी, मिलिटेंट की सही ख़बर देने वाले को एक लाख रुपये तक की बख़्शीश मिल जाती है। सर जी, आतंकवादियों की ही तरह फ़ौज को भी अपनी तरह की दहशत फैलाकर रखनी होती है नहीं तो आप और हम चल नहीं सकते इन सड़कों पर।
‘‘तो क्या सारे मिलिटेंट इसी प्रकार ख़बरियों द्वारा ही पकड़े जाते हैं?” - आधी हैरानी और आधी जिज्ञासा से भरकर पूछा सिद्धार्थ ने।
साहब बड़े जिज्ञासु हैं। सोचने लगा जवान। बताए न बताए। आर्मी कोड में सिविलयन्स से फ़ौज सम्बन्धी बातें करने की सख़्त मनाही है। पर ये तो मेज़र सन्दीप के सगे भाई हैं। फिर मैं कोई गुप्त ख़बर तो दे नहीं रहा। मैं तो वही बताने जा रहे हूँ, जो ओपेन सिक्रेट हैं, हर आतंकी जानता है जिन्हें।
मिनट दो मिनट की धूप-छाँव के बाद आया जवाब - साहब जी, तीन तरीक़ों से हम करते हैं आतंकी का सफ़ाया। पहला तो यह कि हम किसी भी ऐसे लड़के को जो ख़ुद या जिसका परिवार मिलिटेंट द्वारा सताया हुआ हो, को मिलिटेंट (झूठा मिलिटेंट) बनने को प्रेरित करते हैं। उसके हाँ भरने पर हम उसको थोड़ी ट्रेनिंग भी देते हैं। हमारी नॉलेज में ही वह मिलिटेंट के किसी ग्रुप को ज्वाइन कर लेता है और उनके साथ रहने भी लगता है। वह पाकिस्तान भी जाता है, लौट कर भी आता है। कुछ समय बाद वह ख़ुद ऑपरेशन को अंजाम देता है। उस समय वह हमें बता देता है। बस, मौक़ा पाकर हम ऑपरेशन में सभी आतंकियों को ढेर कर देते हैं। उसे अच्छा इनाम देते हैं या आर्मी ज्वाइन करने का ऑफर दे देते हैं।
दूसरा तरीक़ा है - काल ट्रैकिंग। फोन को समानान्तर सुनना।
तीसरा होता है - सिम क्लोनिंग। इसमें हम मिलिटेंट के डुप्लीकेट सिम कार्ड बनवा लेते हैं। मज़ा लेते हुए कहने लगा वह - जब नया-नया मोबाइल आया था कश्मीर में तो ढेरों मिलिटेंट ढेर हो गये थे। काल ट्रैकिंग द्वारा उनके ठिकानों का पता लगाकर ढेर कर देते थे हम उन्हें। लेकिन ये सब डबल-एजेंड वेपन्स हैं यानी दोहरी धारवाले हथियार। ख़बर ग़लत निकल जाए तो पासा उलटा भी पड़ सकता है। हम भी धोखा खाकर आतंकवादियों के हत्थे चढ़ सकते हैं।
पीले पत्तों वाले ढेरों पेड़। बीच-बीच में चीड़, देवदार, सेब और अखरोट के पेड़। कहीं-कहीं ऊँचाई से गिरते झरने। हर मौसम में सुन्दर दिखता श्रीनगर। जी भर अपने भीतर सोख लेना चाहता था सिद्धार्थ श्रीनगर की इस सुन्दरता को। भीतर प्रार्थना उठने लगी - बनी रहे यह सुन्दरता। चेरी के पैकेट को खोल चेरी खायी उसने, फ़ौजी जवान को भी खिलायी। थोड़ी देर चलने के बाद जवान फिर बताने लगा उसे, अपने फ़ौजी जीवन के बेशक़ीमती अनुभव – सर जी, सबसे महत्त्वपूर्ण होती है इंटेलिजेंस ब्यूरो की ख़बरें। ये ख़बरे ग़लत हो ही नहीं सकती हैं। क्योंकि इंटेलिजेंस ब्यूरो सेटलाइट से देखते हैं। एक वाकया सुनाता हूँ, सर जी। हाँ जी, मैं ख़ुद भी शामिल था उस ऑपरेशन में।
‘‘आप ख़ुद थे!’’ विश्वास नहीं कर पा रहा था सिद्धार्थ। सिर से पैर तक फिर मुआयना किया उसने जवान का।
हँस पड़ा जवान। दूधिया हँसी, ‘‘सर जी, यहाँ आर.आर.पोस्टिंग में हर ऑफ़िसर इंफेंट्री ऑफिसर होता है, और हर जवान को किसी भी ऑपरेशन में भेजा जा सकता है। हाँ तो साहब जी, क़रीब डेढ़ साल पहले की घटना है, तब हमारे कमांडिंग अफ़सर थे कर्नल बत्रा। उनको ख़बर मिली कि तेरह आतंकी बॉर्डर पार करके आ रहे हैं। शाम पाँच बजे तक नारायण नाग पहुँचने वाले हैं। उसी के आधार पर बत्रा साहब ने अपनी यूनिट को तीन भागों में बाँटा और सबको अलग-अलग, अपनी-अपनी जगह पहुँचने का आदेश दिया। अलग-अलग इसलिए कि किसी को शक न हो कि हम किसी बड़े ऑपरेशन के लिए जा रहे हैं। गोपनीयता ऐसे ऑपरेशन में सबसे अहम होती है। हम सौ जवान और बारह अफ़सर चलकर महानिश पहाड़ पर पहुँचे। शाम हो चुकी थी, हमने सचमुच देखा, 13 आतंकी छोकरे पहाड़ पर चढ़ रहे थे। हम उन्हें देखते रहे। थोड़ी देर बाद वे आराम करने के लिए एक चट्टान पर बैठे कि तभी हमने फायरिंग शुरू कर दी। साहब जी, ऑपरेशन में सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण यह होता है कि पहली फायरिंग किसने की। शुरुआती दो-एक मिनट में जो सँभल गया, जानो वही जीत गया। हाँ तो साहब जी, जैसे ही उन्होंने फायरिंग की आवाज़ सुनी वे चट्टान के अन्दर घुस गये। फिर दोनों तरफ़ से चलती रही फायरिंग। पूरे सात दिनों तक चला वह ऑपरेशन। रात-रात चलती रही फायरिंग। बहुत अनुभवी कमांडिंग अफ़सर थे कर्नल बत्रा। उन्होंने हमें मिलिटेंट के पास जाने से रोके रखा नहीं तो एकाध कैजुअल्टी ज़रूर ही होती, इतने बड़े ऑपरेशन में। सात दिनों तक हम डेरा डाले रहे। न नहाना न धोना। बस, खाना-पीना नीचे से आता रहा। हमने रॉकेट लांचर मार-मार कर उस चट्टान को ही गिरा दिया। जी, हम उनसे सिर्फ़ 200 मीटर की दूरी पर थे। हमारे हर ग्रुप से तीन सोते, दो जागते। जी, हम उनसे सिर्फ़ 200 मीटर की दूरी पर थे। बाद के दिनों में हमने फ्लेम थ्रोअर भी फेंका!’’
‘‘क्या होता है यह फ्लेम थ्रोअर?’’
‘‘यह जब लक्ष्य पर लगता है तो उससे आग निकलती है। तो सर जी, इस प्रकार हमने पूरी चट्टान को ही गिरा दिया और जब आख़िरी चौबीस घंटों तक उधर से एक भी गोली की आवाज़ नहीं आयी तो हम समझ गये कि या तो वे मर गये हैं या उनके हथियार ख़त्म हो गये हैं।
क्या बताऊँ साहब जी, जब पास पहुँचे तो देखा सब के सब अठारह से तीस तक के युवक थे। गोरे-चिट्टे। पाकिस्तानी। अधिकतर जींस-टॉप में थे। इक्के-दुक्के ने पठान सूट भी डाला हुआ था। सबके शरीर आग से बुरी तरह झुलसे हुए थे। उनके पास से हमें एके 47 और एक सेटलाइट फोन भी बरामद हुआ। उन शवों के साथ फोटो खिंचवायी। मीडिया को बुलाया, उन्हें दिखाया और फिर सब शवों को पुलिस के हवाले कर दिया।
जवान बोलता जा रहा था, सिद्धार्थ की आँखें चौड़ी और दुनिया बड़ी होती जा रही थी। अज्ञात भय उसे अजगर की तरह जकड़ता जा रहा था - बाप रे! कैसी जोखिमों से भरी दुनिया में रहता है उसका भाई।
क्वार्टर में लौटते ही सिद्धार्थ फिर चिन्तित!
अभी तक नहीं लौटा भाई!
लैंड लाइन से कई बार फोन लगाया, बार-बार यही जवाब - साहब नहीं लौटे बाहर से।
आख़िर बेकाबू होते अपने मन को फिर मरोड़ा उसने अपनी मंजन, तेल और साबुन की दुनिया में।
इस क्वार्टर के सेल्स टारगेट एचीव नहीं कर पाये थे सिद्धार्थ, इस कारण सपनों में भी सुन्दरियाँ नहीं, सेल्स ही दिखता है उन्हें। यही सोचते रहते हैं कि कैसे बढ़ाया जाए सेल्स। कैसे फैलाया जाए अपना नेटवर्क? कैसे पहुँचे देश के कोने-कोने में, कोकाकोला की तरह? जब भी ख़ाली समय मिलता है कंज़्यूमर साइकॉलोजी की पुस्तक पढ़ते रहते हैं। सोचते रहते हैं उपभोक्ताओं के मनोविज्ञान पर। अद्भुत है, इस देश के उपभोक्ता भी, एक समय था कि गाँवों में उनका ब्रैंड ‘लाइफ़मैन’ ही बन चुका था साबुन का पर्याय। दशकों तक राज किया इसने गाँवों में। जाने क्या सूझी प्रबन्धकों को कि उन्होंने बदल डाला रंग लाईफ़मैन का। लाल रंग से बदल डाला इसे हल्के गुलाबीनुमा लाल रंग में। बस तभी से पिट गया साबुन। बाद में रिसर्च रिपोर्ट आयी कि गाँव के गावड़े इसे ‘लाईफ़मैन’ के नाम से नहीं, वरन इसके रंग से पहचानते थे। वे इसे लाल साबुन कहते थे। नयी सजधज के साथ लाइफ़मैन आया तो लोगों ने इसे नकली लाल साबुन समझा और नाता तोड़ लिया इससे।
उसे सभी लोकप्रिय ब्रांड से सम्बन्धित एक प्रेजेंटेशन तैयार करना है। ‘लाइफ़मैन’ से फिसलते हुए ध्यान गया कम्पनी के सबसे बिकाऊ ब्रांड ‘फाइन एंड लवली’ पर। ताज्जुब सबसे ज़्यादा खपत इसकी दक्षिण भारत में। एक सर्वे करवाई थी प्रबन्धकों ने पिछले दिनों। लिया गया था उसमें साक्षात्कार हर वर्ग की महिलाओं से। एक कमरे में पूछा जा रहा था उनसे क्यों लगाती हैं वे ‘फाइन एंड लवली’ और दूसरे कमरे में प्रबन्धकों के साथ वह भी क्लोज सर्किट पर देख सुन रहा था। उसे ताज्जुब हुआ, अधिकांश महिलाओं ने कहा कि वे इसलिए इस्तेमाल करती हैं, ‘फाइन एंड लवली’, क्योंकि सुन्दरता आत्मविश्वास बढ़ाती है।
उसी रात उसने अपने घर काम करनेवाली बाई से भी पूछा था - क्या वह जानती है क्या है ‘फाइन एंड लवली’। ताज्जुब। तपाक से जवाब दिया बाई ने, ‘कि बोलछेन, आमि व्यवहार ओ करी। ना सब समय ना, शुदू पूजार समय।’ (क्या बोलते हैं, मैं तो ‘फाइन एंड लवली’ लगाती भी हूँ, नहीं हर दिन नहीं, सिर्फ़ दुर्गा पूजा के समय)।
जियो! मेरे ब्रांड! एक समय आएगा जब सारे ब्रांड इसी प्रकार लोकप्रिय हो जाएँगे... तल्लीन हो वह अपनी रिपोर्ट में डूब गया था। पन्द्रह-बीस मिनट गुज़रे कि वह चौंक गया। किसी के बड़बड़ाने की आवाज़ आ रही थी। एकाएक बड़बड़ाना थोड़ा तेज़ हो गया। क्या टी.वी. खुला छूट गया? वह उठा। टी.वी. चेक किया उसने। नहीं, टी.वी. बन्द था। फिर कौन? तभी बाथरूम से भाई का अर्दली निकला। ध्यान से देखा उसने, दीन -दुनिया से बेख़बर अर्दली अपने आप ही बड़बड़ाता चला जा रहा था। अपनी बड़बड़ाहट में वह किसी को कोस रहा था, बद्दुआ दे रहा था किसी को। हे भगवान, कैसी पागल दुनिया है यह! अर्दली तक चैन से नहीं बैठते देता।
उसने चेष्टा की फिर लैपटॉप में डूब जाने कि पर उसकी श्रवेन्द्रियों का एक टुकड़ा वहीं अटका रहा, उसी अर्दली के इर्द-गिर्द। झुँझलाकर फिर सम्पर्क किया, उसने भाई से। फिर लगाया फोन यूनिट में। फिर वही जवाब - साहब बाहर हैं, अभी नहीं लौटे। कब लौटेंगे? लौटने पर आपको बता दिया जाएगा। कट।
रात फिर लगाया फोन, वही जवाब, पर इस बार उम्मीद की एक लाइन और जड़ दी यूनिट वाले ने। सुबह तक आने की सम्भावना है।
राम-राम कर बिताई रात सिद्धार्थ ने। किसी प्रकार बजा सुबह का छह। फिर लगाया फोन तो लाइन डेड। आशंका से काँप गया सिद्धार्थ। याद आया, भाई ने ही बताया था उसे कि जब भी कोई एनकाउंटर होता है हम वी.एस.एन.एल. के सारे कनेक्शन ऑफ कर देते हैं जिससे कि मिलिटेंट एक-दूसरे से सम्पर्क नहीं कर सकें। हे भगवान तो क्या भाई किसी ऑपरेशन में...? किससे पूछें? भाई के अर्दली से पूछा तो उसने अजीब-सा ही सुझाव दिया, ‘आजकल’ चैनल लगा लीजिए, यदि कोई ब्लास्ट या एनकाउंटर हुआ होगा तो पता चल जाएगा।
दम साधे सभी देवी-देवताओं की गुहार करने लगा वह। हे भगवान, भाई को सकुशल देखकर जाऊँ। आठ बजे के क़रीब वह बाहर निकला कि पूछताछ करें, आसपास के अफ़सरों से कि तभी उसने देखा कि कर्नल आप्टे अपने चेम्बर की ओर बढ़ रहे हैं। लपककर वह उनके पीछे हो लिया।
‘‘गुड मार्निंग सर।’’
‘‘गुड मार्निंग! क्या आप मेज़र सन्दीप के भाई हैं?’’
उसे ताज्जुब हुआ तो कर्नल साहब को ख़बर है, उसके यहाँ आने की। (शायद बिना कर्नल की इजाज़त के उसे रखा भी नहीं जा सकता हो।) उसने छूटते ही पूछा, ‘‘सर, सन्दीप कल सुबह से जो गया कि अभी तक नहीं लौटा है। मुझे शाम की फ्लाइट से जाना है। क्या जाने से पहले हो सकती है उससे मुलाक़ात?’’
अचरच के साथ देखा कर्नल ने उसे और कहा, ‘‘क्या आपको पता नहीं, मेज़र सन्दीप ऑपरेशन पर गये हैं। दो रात से पहले तो आने का सवाल ही नहीं, ज़्यादा वक़्त भी लग सकता है।’’
‘‘क्या?’’
‘‘क्या बहुत ख़तरा है? मुँह से हठात निकल पड़ा।’’
‘‘ख़तरा तो नो डाउट ज़रूर है। और सबसे अधिक उसे ही है, क्योंकि मैं तो तब जाऊँगा जब ऑपरेशन पूरा हो चुका होगा। इस बीच जो कुछ होगा, उसे ही झेलना होगा।’’
वे बोलते जा रहे थे और सिद्धार्थ की यातना का स्वाद भी लेते जा रहे थे। डर की ठंडी उफनती लहर उसके भीतर उतरती जा रही थी। आये दिन की मुठभेड़ और एनकाउंटर से संवेदनहीन हुए कर्नल को शायद यह भी खयाल नहीं रहा कि उनका जवाब सिद्धार्थ के सामने तोप के गोले की तरह फटा। वे आगे बढ़ गये, सुन्न सिद्धार्थ वहीं सीढ़ियों पर अधमरे-से बैठ गये। भीतर बहने लगीं प्राथनाएँ... हे भगवान, भाई को सकुशल देख निकलूँ यहाँ से। भगवान, आगे और कुछ न सुनना पड़े।
सीढ़ियों पर बैठे-बैठे सिद्धार्थ बुशन कैम्प की गतिविधियों को देखते रहे। यूनिफार्म से लकदक ऑफ़िसर चुस्त चाल से आ-जा रहे थे। फ़ौजी कुत्ते बाहर लॉन में घूम रहे थे। चिकने, काले, सुडौल। उसे ध्यान आया, भाई ने बताया था कि बड़ी कठोर ट्रेनिंग होती है। इन फ़ौजी कुत्तों की भी बाकायदा क्लास लगती है। इन्हें ब्रह्मचारी ही रखा जाता है, जिससे उनकी सम्पूर्ण उर्जा का उपयोग हो सके। एकाएक उसकी नज़र अहाते के भीतर घुसती एम्बुलेंस पर पड़ी। कहीं सन्दीप तो नहीं? दूर खड़ी एम्बुलेंस नुकीली चोंच मार उसका मांस नोचने लगी। वह लहूलुहान हुआ। वहीं जम गया... उसे लगा जैसे सदियों से वह वहीं बैठा हुआ देख रहा है एम्बुलेंस को आते हुए। सन्दीप को स्ट्रेचर पर लेटे हुए। सामने से कोई फ़ौजी गुज़रा। उसने उसे रोककर पूछा, भाई, यह एम्बुलेंस क्यों आयी है? विनम्रता से जवाब दिया फ़ौजी ने, साहब जी, पास के ही गाँव में हम लोगों ने आज फ्री मेडिकल कैम्प खोला है। मुफ़्त दवाइयाँ बाँटी है। वहीं से आ रही है यह एम्बुलेंस।
उसके हाथ जुड़े... लाख-लाख शुक्रिया परवरदिगार। तू सचमुच है। उससे थोड़ी ही दूर पर कुछ फ़ौजी बतिया रहे थे। वह सुनने लगा, उसी दिन जम्मू में कोई एनकाउंटर हुआ था। उसमें बीएसएफ का कोई जवान शहीद हो गया था। अब कितनी भी चौकसी रखो, गेंद बराबर हैंड ग्रिनेड तो कोई भी कहीं भी छुपाकर कहीं भी फेंक ही सकता है। उससे और सुना नहीं गया। लगा ख़ून सिर चढ़कर बोलने लगा है। ख़ुद को सँभालने और अपने भीतर के डर से उबरने के लिए वह पीछे की तरफ़ निकल गया और पीछे लगी सीमेंट की पट्टी पर बैठ गया। अभी तक उसने जाने कितनी बार ऐसी मुठभेड़ों और ऑपरेशन के बारे में पढ़ा था, पर वे उसके ‘मैं’ का हिस्सा नहीं बनी थीं। वे उसकी निजी ज़िन्दगी की सरहदों के बाहर थी। लेकिन आज पहली बार फ़ौजी कैम्प, कश्मीर का दहशत भरा वातावरण, मृत फोन और भाई से संवादहीनता के मिले-जुले कॉकटेल ने उसके होश उड़ा दिये थे। विचलित, अस्थिर और तनावग्रस्त वह वहीं बैठा रहा जाने कब तक। खाने और नाश्ते का समय भी निकल गया पर वह बैठा रहा। बीच में एक बार उठा वह, और भाई के दिये मोबाइल से फोन पर अपनी आज शाम की फ्लाइट कैंसिल करवाई।
शाम छह बजे के क़रीब अपने सर्च अभियान-कम-ऑपरेशन को समाप्त घोषित कर हेडक्वार्टर बूशन की ओर निकले सन्दीप। इस बेमतलब के ऑपरेशन और व्यर्थ की भाग-दौड़ और कभी ऊपर तो कभी नीचे की दो दिनों और दो रातों की कवायद ने मन में खरोंचें डाल दी थीं। पहले भी ऐसा कई बार हो चुका था। आधी परती ख़बरों पर ही दौड़ा दिया पूरी टीम को। दरअसल, सी.ओ. चाहते ही यही हैं कि सदैव दौड़ते रहें उनके मातहत। सन्दीप अब मुरझाने लगा था। वर्दी का नशा भी अब धीरे -धीरे हलका पड़ने लगा था। भाई के साथ जी भर रह नहीं सका, इसका मलाल अलग था। एक समय था कि सिद्धार्थ परछाई की तरह चिपका रहता था उनसे। उफ़! बड़े क्या हुए कि ज़िन्दगी ही जैसे हाथों से छूट गयी। विचारों के सैलाब में फिर बहने लगे सन्दीप, इतना बॉसिज़्म नहीं होता तो सबसे आदर्श संस्था होती भारतीय फ़ौज। चाहे पीस पोस्टिंग हो या फील्ड पोस्टिंग, हर जगह बॉसिज़्म। अपनी तरह का। किसने बनाया आर्मी का यह सामन्ती चरित्र! अँग्रेजों के जमाने के बने सामन्ती नियम कायदे, चले आ रहे हैं आज भी धड़ल्ले से।
वक़्त की धुन्ध को चीरते हुए फिर उन्हीं राहों पर चल पड़े सन्दीप, जहाँ से कभी निकले थे। याद आने लगी, राँची पोस्टिंग के दौरान हुई वह घटना - वह अपमान, अपने बॉस के हाथों, जिसे आज तक भूल नहीं सके वे। उन दिनों इस नयी दुनिया के नये-नये खिड़की- झरोखे खुल रहे थे। उन्हीं ताज़ा तरोजा दिनों में जाना था उसने कि हर फ़ौजी के लिए एक वार्षिक गोपनीय रिपोर्ट (एनुएल कांफिडेंशिएल रिपोर्ट) बनायी जाती है जिसके आधार पर अफ़सर की भविष्य में पदोन्नति होती है। इस एनुएल कांफिडेंशियल रिपोर्ट यानी ए.सी.आर. में उसके कार्य, चरित्र, व्यवहार सब पर टिप्पणी लिखी रहती है, जो उसके यूनिट के कमांडिंग अफ़सर द्वारा लिखी जाती है। यानी उसका पूरा भविष्य माँ-बाप, भाग्य विधाता सभी वह कमांडिंग अफ़सर। वह ख़ुश तो दुनिया ख़ुश। इसीलिए हर अफ़सर अपने वरिष्ठ के ज़बरदस्त दबाब में रहता है। इसलिए सन्तुलन बनाए रखने के लिए हर वरिष्ठ अपने कनिष्ठ को भी उतने ही दबाव में रखता है।
उन दिनों उसका सी.ओ. था मणिपुर का आई.एस.चनम। नुकीला, रोबदार, घमंडी और अपनी ओर खींचता चेहरा। इतना दबदबा, आतंक और इस क़दर धँसा हुआ था वह उसकी चेतना में कि रात स्वप्न में भी उसे प्रेयसी के बजाय कर्नल चनम का चेहरा दिखता था। उन्हीं दिनों उसके संवेदनशील मन ने इस सत्य का उद्घाटन किया था कि अपने श्रेष्ठ कायदे -क़ानून, टेबल मैनर्स, डिगनिटी और महिलाओं के साथ बेइन्तहा इज़्ज़त से पेश आनेवाली आर्मी अपने मातहत अफ़सर और जवानों के साथ कितनी सामन्त और कठोर है।
छोटी-सी एक घटना पर इतनी मारक और हैरान कर देने वाली कि उनके प्रभाव से आज तक उबर नहीं पाया है वह।
आँखें फिर पीछे घूम गयीं। कैसे लांसनायक जयदेव सिंह गिड़गिड़ाया था उसने समक्ष, छुट्टियों के लिए। पिता बेहद बीमार थे उसके। और पाशविक प्रवृति के कर्नल सी.ओ. ने ख़ारिज कर दी थी उसकी छुट्टी की अपील को।
उसने आश्वस्त किया जयदेव सिंह को - जैसे भी हो मैं तुम्हें छुट्टी दिलवा कर रहूँगा और मन बनाया, कर्नल चनम से सामना करने का।
पर इसी बीच फिर घट गयी एक घटना, जिसने सी.ओ. की पाशविक व्यक्तित्व की कई परतों को एक साथ उजागर कर दिया।
सी.ओ. को हेड ऑफ़िस से आर्डर मिला था कि इस बात का अध्ययन किया जाए कि नये बने अफ़सर आर्मी के नेतृत्व के बारे में क्या सोचते हैं? किस प्रकार सोचते हैं? सन्दीप को भी अपने कमेंट लिखने के लिए कहा गया।
आज भी याद कर सकता है सन्दीप क्या लिखा था उसने अपने आलेख में। नेता के रूप में उसे जो सी.ओ. मिला था और उससे उसे जो अनुभव मिले थे उसी आधार पर उसने सच-सच लिख दिया था। उसने स्पष्ट लिखा था कि आर्मी के नेता अफ़सर के भीतर जो भी सुन्दर, शिव और मानवीय है, उसे उजागर करने की बजाय उसे कुचलने में ही अपना योगदान दे रहे हैं। जबकि नेता को एक अच्छे माली की तरह होना चाहिए जो दे सके अपना योगदान मनुष्यत्व के पौधे को सींचने में। उसने लिखा था, नेता अपनी टीम का वैचारिक कप्तान होता है। नये विचारों, नयी सृजनात्मकता और नये प्रयोगों को जन्म देना उसका नैतिक कर्तव्य होना चाहिए पर दुर्भाग्य से आर्मी के हर सीनियर को तेजस्वी अफ़सर नहीं, लद्धड़-लक्कड़ ढीकरा चाहिए, जो टनटनाता रहे नेता की ताल पर, जो प्रश्न न करे, सिर्फ़ अनुकरण करे, जबकि गीता के इस देश में प्रश्नों और संवादों की एक स्वस्थ परम्परा रही है। स्वयं गीता भी क्या है? कुछ प्रश्न, कुछ जिज्ञासाएँ। आर्मी के नेता को यदि किन्हीं तीन शब्दों से चिढ़े है तो वे हैं ‘क्यों’, ‘क्या’ और ‘कैसे’।
और अन्त में उसने भावुक होकर लिखा था - मैं आया था आर्मी में, उच्च उद्देश्यों के लिए, बेहतर जीवन की तलाश के लिए, पर यहाँ आकर तो लगता है मैंने ख़ुद को ही खो दिया है। न मेरी आत्मा मेरे पास है और न ही मेरी आवाज़। मुझे डर है कि अन्त तक शायद ही बचे मेरा सपना और बचे इतना हौसला कि मैं बुन सकूँ नयी दुनिया और नये सपनों को।
आज भी याद आ रहा था सन्दीप को, कर्नल चनम का तिलमिलाता चेहरा और फड़कते मूँछ के कोने। जैसे ही वह घुसा उसके चेम्बर में, कैसे बाज की तरह झपट पड़ा था वह उस पर और कैसे गलियों से सम्पन्न आवाज़ में आग उगल रहा था - बास्टर्ड, किस पर लिखा है तुमने यह निबन्ध? सी.ओ. की आँखों की हिंस्र जलन देख सहम गया था वह। भीतर कीड़ा कुलबुलाया, कह दे जनाब आप पर। पिकासों की सुप्रसिद्ध पेंटिंग ‘गुएर्निका’ को देख जार ने पूछा था, किसने बनायी यह पेंटिंग? बेधड़क हो जवाब दिया था पिकासो ने - जनाब आपने। पर वह ऐसा नहीं कह सका। शब्द गले की दहलीज पर आकर छूट गये। वह कलाकार था, वह फ़ौजी है। अपने को भरसक संयत कर जवाब दिया उसने - सर, मैंने किसी व्यक्ति विशेष पर नहीं लिखा, मैंने तो सिर्फ़ यह कहना चाहा था कि नेतृत्व कैसा होना चाहिए। सी.ओ. चनम सिगरेट का धुआँ छोड़ता रहा, उसे घूरता रहा, जैसे पंजे में फँसी बिल्ली घूरती है चूहे को। पूरे पन्द्रह मिनट बाद अपनी घूमने वाली कुर्सी को फिर उसकी तरफ़ घुमाते हुए फिर पूछा उसने - तू सोच, शायद तुझे याद आ जाए कि किस पर लिखा है तूने? उसकी आँखों से फूटती हिंसक चिनगारियों और मक्कारी को अनदेखा कर फिर विनम्र शब्दों में जबाब दिया उसने - सर, जब मैंने किसी पर लिखा ही नहीं तो याद कैसे आएगा? अपनी गोल-गोल गुलटी आँखों से वह उसे घूरता रहा, उसकी यातना का स्वाद लेता रहा, अपना काम करता रहा। बस हर पन्द्रह मिनट बाद लहरा-लहरा कर उससे पूछता रहा, ‘‘आया याद?’’
डेढ़ घंटे तक उसके चेम्बर में हाज़िरी देने के बाद ही निकल पाया वह बाहर।
दूसरे दिन उसने अपनी हैसियत से लांसनायक जयदेव सिंह की दस दिनों की छुट्टी मंजूर कर दी थी। तब कितना समझाया था उसे उसके मित्र कैप्टन प्रवीण शर्मा ने - जयदेव का तो भला होने से रहा, उलटा सी.ओ. तेरे पर चढ़ जाएगा। लगा देगा तेरी छुट्टियों पर कर्फ़्यू।
‘कूल-कूल’ उसने आपसे किया। फिर आश्वस्त किया था उसने ख़ुद को - यू आर नॉट इनफिरियर टू एनीबडी एल्स इन दि वर्ल्ड एकसेप्ट गॉड (तुम दुनिया में सिवाय ईश्वर के किसी से कम नहीं हो।)
‘‘कितना आदर्शवादी था वह उन दिनों, सन्दीप मन ही मन मुस्कराया, और उतना ही ज़िद्दी भी। पीछा नहीं छोड़ा था उसने भी सी.ओ. चनम का। फिर सामना किया उसने सी.ओ. का। खड़ा रहा उसके चेम्बर में। पूरे पन्द्रह मिनट बाद गर्दन उठाई सी.ओ. ने और बेरुखी से कहा - अभी मैं फ्री नहीं हूँ, दो घंटे बाद आना। दो घंटे वह घूमता रहा बाहर, निरर्थक, निरुद्देश्य। जैसे ही बीते दो घंटे, उसने फिर ख़ुद को ठकठकाया, बच्चू होशियार कच्चा नहीं बनने का। भीतर के सारे साहस को इकट्टा कर वह फिर तैयार सी.ओ. का सामना के लिए। एक उड़ती नज़र डाली सी.ओ. ने उस पर। उसकी बदहवासी और परेशानी का स्वाद लिया और चूइंग गम चुभलाते हुए कहा, रात दस बजे बाद आना। वह ग्यारह बजे पहुँचा, फिर पन्द्रह मिनट तक खिड़की से दिखते टुकड़े भर आसमान में छितरे तारों को गिनता रहा। पन्द्रह मिनट बाद सी.ओ. ने मुंडी उठाई और कहा - कल सुबह आना।
ढीठ की तरह वह सुबह पहुँचा तो उसने छूटते ही कहा, ‘‘तुमने जयदेव को दस दिनों की छुट्टियाँ क्यों दी?’’
‘‘स,र जम्मू जाएगा तो आने-जाने में ही लग जाएँगे चार दिन।’’ भरसक विनम्र हो जवाब दिया उसने।’’
सी.ओ. ने खा जाने वाली नज़र उस पर फेंकी। सन्दीप को लगा कि कमरे की दीवारें एकाएक इतनी गरम हो उठी हैं कि वह झुलस जाएगा। आज भी याद कर सकता है सन्दीप कि कितने आत्मबल से तब सन्दीप ने स्वयं को उस घृणित तिलचट्टे के सामने सिकुड़ने, बिखरने और कच्चा पड़ जाने से रोका था।
और तभी सी.ओ. ने ग़ुस्से में फुँफकारते हुए रजिस्टर उछाल कर उसके सामने फेंक दिया था।
सन्दीप को लगा कि रजिस्टर नहीं उसके होने का उसके वजूद को उछालकर फेंक दिया है उसके सामने।
क्या उठाए वह रजिस्टर?
नहीं, सन्दीप ने रजिस्टर नहीं उठाया और बिना एक भी शब्द बोले निकल गये कमरे से बाहर।
बाद में सी.ओ. ने जयदेव को सात दिनों की छुट्टी दी।
विचारों की आँधियाँ फिर चलने लगीं। पीस पोस्टिंग हो या फ़ील्ड पोस्टिंग, मथुरा हो, राँची हो या कश्मीर हो, हुक्म बजाने और बजवाने का कारोबार चलता रहता है। हर सीनियर अपने सीनियर से दबता और जूनियर को दबाता है। उसे याद आया एक चुटकुला। एक बार इंटरनेशनल प्रतियोगिता थी कि कौन कम से कम मूल्य पर कबूतरों का निर्यात कर पाता है। इस प्रतियोगिता में भारत बाजी मार गया। इंग्लैंड, अमेरिका, जापान जैसे सभी विकसित देश हैरान। इस मूल्य पर तो लागत ही नहीं निकलती, कैसे कर पाएगा भारत इन मूल्यों पर निर्यात। बाद में निर्यात अधिकारी ने राज खोला, ‘‘भाई, ये भारतीय कबूतर हैं, दुनिया के किसी भी देश में ऐसे कबूतर नहीं हैं। हमें पैकिंग की ज़रूरत ही नहीं है। हम इन्हें बड़ी -सी खुली टोकरी में बस बैठा देंगे। तो क्या ये उड़ेंगे नहीं? नहीं भाई, जब ऊपर वाला उड़ता है तो नीचे वाला इसकी टाँग पकड़े रहता है। इस कारण न कोई उड़ता है, न उड़ पाता है।’’
एकाएक वह रास्ते में ही ठहाका मार कर हँस पड़ा, यही हाल मेरी फ़ौज का। मेरे देश का। न उड़ो न उड़ने दो।
आसपास के लोग उसे देखने लगे, तो वह झेंप गया।
उफ़! वह भी कहाँ खो गया उसने फिर गर्दन को झटका दिया और सोचने लगा सिद्धार्थ के बारे में। उसने मोबाइल से उससे सम्पर्क करना चाहा, पर वीक टॉवर, या मौसम की गड़बड़, सम्पर्क होते -होते टूट रहा था।