भिखारी की पुरानी मैली
	थाली में पसरा अँधेरा
	अँधेरे में खनक रहे
	एक-एक रुपये के सिक्के,
	खुन-खुन करती कुछ
	चवन्नियाँ और अठन्नियाँ...
	अपनी तो खत्म है
	तुम्हारी बन जाए दुनिया!
	यही दुआ है,
	बिना दुआओं के भी कहीं
	कुछ हुआ है?
	 
	हमारा ‘लाइफटाइम अचीवमेंट’
	हमारे साथ है
	हमें चिंता की क्या बात है!
	माँगकर खा लिया सो गए
	फुटपाथ पर बिछाकर
	सड़ी हुई ‘ब्रांडेड’ पन्नियाँ
	और पेज-थ्री के बासी-रद्दी अखबार।
	 
	जितने दिनों तक कोई कार
	नहीं चढ़ रही इस शरीर पर
	उतने ही दिनों तक बंधन है शरीर का
	और सिर्फ उतने ही दिनों तक
	है मेरे लिए यह दुनिया!
	और तभी तक ये अठन्नियाँ-चवन्नियाँ...