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लघुकथाएँ

प्रतिनिधि

दीपक मशाल


'सुरजादेवी जिंदाबाद' 'जिंदाबाद जिंदाबाद'

'बलवंत भइया जिंदाबाद' 'जिंदाबाद जिंदाबाद'

जयघोषों के बीच, चेलों-चपाटों से घिरे मुख्य अतिथि और समारोह की अध्यक्षा मंच पर जाकर आसीन हो गए। उस गाँवनुमा कस्बे में कुछ दिन पहले ही आए शहरी परदेसी ने अपनी जानकारी बढ़ाने हेतु अपने करीब वाले सज्जन से पूछा

- भाईसाब, ये कार्यक्रम की अध्यक्षा, सुरजादेवी तो आप लोगों की नगर पंचायत अध्यक्षा हैं ना?

- जी भाई सही पहचाना आपने...

- तो फिर ये इनके साथ बलवंत भइया कौन हैं, जिनको लोग सुरजादेवी से भी अधिक मान दे रहे हैं?

- इन्हें नहीं जानते आप? अरे ये नगर पंचायत अध्यक्ष प्रतिनिधि हैं, सुरजादेवी के घरवाले।

- प्रतिनिधि! लेकिन जब पंचायत अध्यक्षा खुद ही मंच पर उपस्थित हैं तो प्रतिनिधि का क्या काम?

- भाई असल में भाभी तो नाम की अध्यक्षा हैं, काम तो सब बलवंत भाई को ही देखना होता है, अच्छा भी तो नहीं लगता कि घर में आदमियों के होते हुए कोई औरत इतने बड़े फैसले ले। फिर ये तो हमारे संस्कार कहते हैं कि पराई औरत के गले में माला नहीं डाली जाती, इसलिए जनता का सम्मान स्वीकारने के लिए भइया को मजबूरन हर जगह मुख्य अतिथि बनना पड़ता है। अब जरा सुनने तो दो भइया जी क्या कहते हैं...


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