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कविता

डाल्टनगंज के मुसलमान

विशाल श्रीवास्तव


कोई बड़ा शहर नहीं है डाल्टनगंज
बिल्कुल आम कस्बों जैसी जगह
जहाँ बूढ़े अलग-अलग किस्मों से खाँसकर
जिंदगी का क़ाफिया और तवाजुन सँभालते हैं
और लड़के करते हैं ताजा भीगी मसों के जोश में
हर दुनियावी मसले को तोलने की कोशिश
 
छतों के बराबर सटे छज्जों में
यहाँ भी कच्चा और आदिम प्रेम पनपता है
यहाँ भी कबूतर हैं
सुस्ताए प्रेम को संवाद की ऊर्जा बख्शते
 
डाल्टनगंज के जीवन में इस तरह कुछ भी नया नहीं है
यहाँ भी कभी-कभी
समय काटने के लिए लोग रस्मी तौर पर 
अच्छे और पुराने इतिहास को याद कर लेते हैं।
 
इन सारी बासी और ठहरी चीजों के जमाव के बावजूद
डाल्टनगंज के बारे में जानने लगे हैं लोग
अखबार आने लगा है डाल्टनगंज में
डाल्टनगंज में आने लगी हैं खबरें
आखिरकार लोग जान गए हैं
पास के कस्बों में मारे जा रहे हैं लोग
 
डाल्टनगंज का मुसलमान
सहमकर उठता है अजान के लिए
अपनी घबराहट में
बंदगी की तरतीब और अदायगी के सलीकों में
अकसर कर बैठता है गलतियाँ
 
डाल्टनगंज के मुसलमान
सपने में देखते हैं कबीर
जो समय की खुरदरी स्लेट पर 
कोई आसान शब्द लिखना चाहते हैं
 
तुम मदरसे क्यों नहीं गए कबीर
तुमने लिखना क्यों नहीं सीखा कबीर
हर कोई बुदबुदाता है अपने सपनों में बार–बार
 
कस्बे के सुनसान कोनों में
डाल्टनगंज के मुसलमान
सहमी और काँपती हुई आवाज में
खुशहाली की कोई परंपरागत दुआ पढ़ते हैं
 
डाल्टनगंज के आसमान से
अचानक और चुपचाप
अलिफ गिरता है।
 

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