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कविता

आँसुओं की कविता

मंगलेश डबराल


पुराने जमाने में आँसुओं की बहुत कीमत थी। वे मोतियों के बराबर थे और उन्हें बहता देखकर सबके दिल काँप उठते थे। वे हरेक की आत्मा के मुताबिक कम या ज्यादा पारदर्शी होते थे और रोशनी को सात से ज्यादा रंगों में बाँट सकते थे।

बाद में आँखों को कष्ट न देने के लिए कुछ लोगों ने मोती खरीदे और उन्हें महँगे और स्थायी आँसुओं की तरह पेश करने लगे। इस तरह आँसुओं में विभाजन शुरू हुआ। असली आँसू धीरे-धीरे पृष्ठभूमि में चले गए। दूसरी तरफ मोतियों का कारोबार खूब फैल चुका है।

जो लोग अँधेरे में अकेले दीवार से माथा टिकाकर सचमुच रोते हैं उनकी आँखों से बहुत देर बाद बमुश्किल आँसूनुमा एक चीज निकलती है और उन्हीं के शरीर में गुम हो जाती है।


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