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कविता

बीस साल

मंगलेश डबराल


बीस साल बाद एक दिन
पता चलता है मैं बीस साल से यहाँ जमा हुआ हूँ
आता-जाता हुआ या कुछ देर रुककर
किसी चमत्कार की प्रतीक्षा करता हुआ
सुबह खिड़की खोलता हूँ किसी उम्मीद में
सामने एक जैसे मकानों की कतार है
उनमें एक जैसे लोग रहते हैं
एक जैसा जीवन बिताते हुए
कोई जाता है तो उसकी जगह वैसा ही
एक और आदमी रहने आ जाता है
दोस्तों के चेहरे भी नहीं बदले
वे उसी तरह सख्त हैं उनकी संवेदनाएँ वैसी ही अस्तव्यस्त
कोई हँसता है तो वही पुरानी हँसी

मेरे भीतर ऐसी भावनाओं का एक भंडार है
जिन्हें समझ पाना कठिन है
जिन्हें प्रकट करने पर शायद एक जंगल की आवाज सुनाई दे
यह मालूम करना भी मुश्किल है कि इस संसार में
क्या-क्या काम मैं कर सकता हूँ
बच्चे बड़े हो रहे हैं मेरे सामने
और अपने आप
उनका अपना उल्लास है अपनी ऊँचाई
वे भी मेरे बारे में ज्यादा नहीं जानते
वे सिर्फ देखते हैं कि मैं नाराज हूँ
और काँप रहा हूँ और मेरा चेहरा बिगड़ गया है
और आँखें निस्तेज हैं
जिनसे कभी प्रेम बरसता था

मैं कहना चाहता हूँ
यह सब कितनी बड़ी मूर्खता है और मैं इसमें
बीस साल से कैद हूँ
झल्लाया हुआ खिड़की के बाहर निगाह डालता हूँ
एक युवक एक युवती कोई बीस साल के
हँसते हुए दूर तक दौड़ते जाते हैं
उन्हें देखता हो जाता हूँ चुप।


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