उन दिनों जब देश में एक नई तरह का बँटवारा हो रहा था
	काला और काला और सफेद और सफेद हो रहा था
	एक तरफ लोग खाने और पीने को जीवन का अंतिम उद्देश्य मान रहे थे
	दूसरी तरफ भूख से तड़पते लोगों की तादाद बढ़ रही थी
	उदारीकरण की शुरुआत में जब निजी संपत्ति और ऊँची इमारतों के निर्माता
	राष्ट्र निर्माता का सम्मान पा रहे थे
	दूसरी तरफ गरीब जहाँ भी सर छुपाते वहाँ से खदेड़ दिए जाते थे
	देश के एक बड़े और ताकतवर अखबार ने तय किया
	कि उसके पहले पन्ने पर सिर्फ उनकी खबर छपेगी जो खाते और पीते हैं
	ऐसी स्वादिष्ट खबरें जो सुबह की चाय को बदजायका न करें
	इस तरह अखबार के मुखपृष्ठ पर
	कारों जूतों कपड़ों कंप्यूटरों मोबाइलों फैशन परेडों डीलरों डिजाइनरों
	मीडियाशाहों शराबपतियों चुटकी बजाकर अमीर बननेवालों ने प्रवेश किया
	एक उद्योगपति ने फरमाया बहुत हुआ गरीबी का रोना-धोना
	आइए अब हम अमीरी बढाएँ
	देश एक विराट मेज की तरह फैला हुआ था जिस पर
	एक अंतहीन कॉकटेल पार्टी जारी थी
	समाज में जो कुछ दुर्दशा में था
	उसे अखबार के भीतरी पन्नों पर फेंक दिया गया
	रोग शोक दुर्घटना बाढ़ अकाल भुखमरी बढ़ते विकलांग खून के धब्बे
	अखबारी कूड़ेदान में डाल दिए गए
	किसान आत्महत्या करते थे भीतरी पन्नों के किसी कोने पर
	आदिवासियों के घर उजाड़े जाते थे किसी हाशिए पर
	ऐसे ही जश्नी माहौल के बीच एक दिन
	अखबार के बूढ़े मालिक ने अपनी कोठी में आखिरी साँस ली
	जिसकी बीमारी की सूचना अखबार बहुत दिनों से दाबे था
	उसके बेटों को भी बूढ़े मालिक का जाना बहुत नहीं अखरा
	क्योंकि उसकी पूँजी की तरह उसके विचार भी पुराने हो चुके थे
	और फिर एक युग का अंत एक नए युग का आरंभ भी होता है
	अगर संकट था तो सिर्फ यही कि मृत्यु की खबर कैसी कहाँ पर छापी जाये
	आखिर तय हुआ कि मालिक का स्वर्गवास पहले पन्ने की सुर्खी होगी
	ग्राहक की सुबह की चाय कसैली करने के सिवा चारा कोई और नहीं था
	इस तरह एक दिन खुशी की सब खबरें भीतर के पन्नों पर पहुँच गईं
	कपड़े जूते घड़ियाँ मोबाइल फैशन परेड सब हाशियों पर चले गए
	अखबार शोक से भर गया
	नए युग की आवारा पूँजी ने अपनी परिपाटी को तोड़ दिया
	और एक दिन के लिए पूँजी और मुनाफे पर मौत की जीत हुई।