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संस्मरण

संपादन में नया प्रतिमान रचने वाले - रवींद्र कालिया

चित्रा मुद्गल


चार जनवरी की चढ़ती दोपहर : सुबह के नियमित कामों से निबटकर जब मैंने घर के किसी भी कोने में पड़े रहने वाले मोबाइल फोन की सुध ली तो मिस्ड कॉल देखकर मैंने एस.एम.एस. पर नजर डाली। अनेक संदेशों के बीच ममता का नाम देख उसके भेजे संदेश पर निगाह पड़ी। संदेश पढ़कर जी धक्क से रह गया। 'गंगाराम, इमरजेंसी, नो होप।'

अस्पताल जाने से चिढ़ थी रवींद्र कालियाजी को। अपनी छोटी-मोटी शारीरिक व्याधियों का इलाज वे स्वयं कर लिया करते थे। होम्योपैथिक दवाइयाँ खाने से मैं स्वयं बचती रही हूँ। चाहे गले की परेशानी हो या सूखी खाँसी थी या लिखते-लिखते कंधों के दर्द की। अनेकों परिचित होम्योपैथिक डॉक्टरों में से जो सबसे पहले नाम याद आता वह रवींद्र कालिया का होता। धैर्य के साथ वे अस्वस्थता के सारे लक्षण जानना चाहते और टेलीफोन रख देते यह कहकर कि आधे घंटे बाद मैं तुम्हें फोन कर दवा लिखवा दूँगा। ठीक आधे घंटे बाद फोन आ जाता और वे मुझे दवाइयाँ लिख लेने के लिए कहते। कौन-सी देशी चल सकती है, कौन-सी जर्मनी की।

अवध चेताते। नीम हकीम खतरे जान। अच्छा डॉक्टर बना रखा है कालिया को। मगर यह बात अवध भी जानते थे। उनकी दवाइयों ने मुझे कष्टों से मुक्ति दी है। ममता ने बताया था। दवाइयाँ रवि को खूब याद रहती हैं। मगर वे लक्षणों के अनुसार होम्यौपैथ के पोथे खोल बिना अध्ययन किए दवा नहीं बताते तुम्हें।

एक समय रवींद्र कालिया को ज्योतिष के अध्ययन का शौक चर्राया। डूब गए ज्योतिष पढ़ने में। पूछा एक बार तुम्हारी जन्मतिथि क्या है चित्रा! जन्मतिथि मैंने बता दी। बोले यह नहीं, असली वाली बताओ। असली वाली ही बता रही हूँ। बोले, जब तुम्हारी मित्र ममता अपनी असली जन्मतिथि नहीं बताती तो तुम कैसे अपनी जन्मतिथि सही बता सकती हो! खूब हँसे सुनकर अवध और मैं। अवध ने कहा, दरअसल वह सआल्ला खुद अपनी असली जन्मतिथि गलत लिखता है। ममता की जन्मतिथि एकदम सही है। ममता झूठ नहीं बोलती। जाने कैसे फँस गई इस घनचक्कर के चक्कर में...।

ज्योतिष में उनकी दिलचस्पी हुई कैसे, पूछे बिना नहीं रह पाई तो जवाब मिला लिखने पढ़ने का धंधा मंदा चल रहा है इन दिनों। रायल्टी देने को प्रकाशक तैयार नहीं। न हुआ तो प्रेस बंद करके ज्योतिषाचार्य का बोर्ड लटका गुजर-बसर की सोच ली जाएगी। ममता आचार्यत्व की पराकाष्ठा पर पहुँच ही गई है। कोई छात्र नाराजगी जताने माथे पर पत्थर फेंक देता है तो वह अखबारों की सुर्खियाँ बन जाती है। गलती से पत्थर कहीं आँख से जा लगता तो परिणाम सोचकर मैं सिहर उठता हूँ।

स्मरण करने की कोशिश करती हूँ, रवींद्र कालिया से मेरी पहली मुलाकात कब हुई थी। रवींद्र कालिया से मेरी पहली मुलाकात टाइम्स ऑफ इंडिया की बिल्डिंग में हुई थी थर्ड फ्लोर पर। करीब 51-52 साल पहले। उस समय वे 'धर्मयुग' में थे। मैं अवध से मिलने गई थी, तो अवध ने ही बताया कि 'वो देखो कालिया तुम्हें कैसे उचक-उचक कर देख रहा है। बहुत डायनेमिक कथाकार है। मैं तुम्हें उससे मिलवाऊँगा' लेकिन उस दिन शायद उनसे मुलाकात नहीं हो पाई। मैंने पत्र-पत्रिकाओं में उनके चित्र देखे थे और मन-ही-मन उन चित्रों से उनका मिलान करने लगी थी।

कह सकती हूँ कि रवींद्र और ममता कालिया के साथ हमारी 51-52 साल पुरानी पारिवारिक प्रगाढ़ता रही है। वह दौर अलग था। पत्रकारिता में धर्मयुग स्कूल का डंका बजता था। इस स्कूल ने बड़े-बड़े सितारा पत्रकार और संपादक दिए। चाहे वे कन्हैयालाल नंदन हों, विश्वनाथ सचदेव हों, गणेश मंत्री हों, उदयन शर्मा हों, एसपी सिंह हों या रवींद्र कालिया। नई कहानी आंदोलन में जिस तरह मोहन राकेश, कमलेश्वर और राजेंद्र यादव की तिकड़ी थी, उसी तरह साठोत्तरी पीढ़ी में ज्ञानरंजन, काशीनाथ सिंह और रवींद्र कालिया की तिकड़ी रही। इन तीनों में ज्ञानरंजन सबसे अच्छे कहानीकार और संपादक हुए, उन्होंने 'पहल' जैसी पत्रिका निकाली, काशीनाथ सिंह बड़े कहानीकार और संस्मरणकार रहे तो रवींद्र कालिया अच्छे कहानीकार के साथ-साथ स्टार संपादक हुए। 'धर्मयुग' छोड़ने के बाद वे इलाहाबाद चले गए और 'वर्तमान साहित्य' का कहानी महाविशेषांक निकालकर अपनी क्षमता का लोहा मनवा लिया। उनके संपादन की अपनी शैली थी। इसकी झलक उनके द्वारा संपादित पत्रिकाओं 'वर्तमान साहित्य', 'वागर्थ', 'नया ज्ञानोदय' और 'गंगा-यमुना' साप्ताहिक में देखी जा सकती है।

इन तमाम पत्रिकाओं की शुरुआत चाहे जिसने की, लेकिन रवींद्र कालिया ने अपने संपादन में इन सभी पत्रिकाओं को नया जीवन दे दिया। अपने संपादकत्व में उन्होंने नई से नई कथा पीढ़ी को स्टार का रुतबा दिया लेकिन वरिष्ठ रचनाकारों को भी पर्याप्त सम्मान के साथ इन पत्रिकाओं से जोड़े रखा। उन्होंने नई पीढ़ी को पैदा ही नहीं किया, बल्कि पुरानी पीढ़ी को भी स्टार बनाया। जब वे दिल्ली 'नया ज्ञानोदय' के संपादक बनकर आए तो पत्रिका में नई पीढ़ी की प्रतिभा का विस्फोट साफ-साफ दिखा और उन्होंने उसे बहुत जतन से सँजोया। अपने संपादन में उन्होंने अपनी निजी विचारधारा और प्रतिबद्धता को आड़े नहीं आने दिया और न ही नई पीढ़ी के लिए किसी तरह का बाड़ा बनाया। 'खुदा सही सलामत है' के रचनाकार ने अपने रचनाकार की स्वायत्तता को बरकरार रखते हुए नए लोगों को पूरी स्वतंत्रता दी। उन्होंने अपने समकालीन संपादकों की तरह संपादन में किसी तरह के फार्मूले नहीं अपनाए न ऐसी कोई बाध्यता उत्पन्न की कि ऐसा लिखो तभी हमारे यहाँ छपने में सुविधा होगी।

पीछे मुड़कर देखती हूँ तो याद आता है कि ममता को मैंने तस्वीरों से बाहर कब देखा था लेकिन जब देखा तो बहुत गहरे महसूस किया कि रवींद्र ममता की पहली मोहब्बत थे और आखिरी भी। ये दोनों जैसे एक-दूसरे के लिए बने थे लेकिन मैं यह नहीं कह सकती कि खिलंदड़े, मनमौजी और साहित्य में खलबलियों को निर्मित करने वाले रवींद्र की पहली मोहब्बत भी ममता ही थीं। मुझे एक शाम याद आती है माहिम के घर की। जब भी हम लोग ममता और रवींद्र कालिया के घर जाते तो ममता कभी भी हमें बिना खाना खिलाए नहीं आने देती थीं। जब मैं अवध उनके घर पहुँचे तो उसी समय रमेश उपाध्याय भी आ गए। ममता ने रसोई में देखा तो थोड़ी-सी अरबी रखी हुई थी। लोग इतने थे कि उतनी अरबी से काम नहीं चल सकता था। हम लोगों ने कहा कि चलकर बाजार से थोड़ी और अरबी ले आएँ। सब लोग बाजार जाने को तैयार थे, लेकिन रवींद्र कालिया टस से मस न हुए। बोले - यह ममता की टेरिटेरी है और मैं उसमें हस्तक्षेप नहीं करता।

खैर, ममता ने उस दिन उतनी ही अरबी से सबके लिए रसेदार सब्जी बनाई। मुझे याद नहीं कि इतनी स्वादिष्ट सब्जी फिर मैंने खाई। ममता वैसे भी पाककला में निष्णात हैं। इससे भी ज्यादा मुझे ममता का रवींद्र कालिया को मनुहार कर-करके खिलाना याद आता है। खाने के बाद हम लोगों का पान खाने का प्रोग्राम बना। अवध और रमेश उपाध्याय पान खाने नीचे उतरने लगे तो मैंने कहा कि मैं भी चलती हूँ तो रवींद्र कालिया ने यह कहकर मुझे रोक लिया कि यहाँ अकेले बैठे हुए मैं किसका चेहरा देखूँगा। यह उनके खिलंदड़ेपन और मजाकिया स्वभाव को बताता है।

ममता और रवींद्र कालिया की जिंदादिली यारबाशी और अपनत्व देखकर यही लगा कि ये दोनों 'मेड फार ईच अदर' हैं। हालाँकि साहित्य में ममता मेरी पहली पसंद रही हैं - 'बेघर', 'दौड़' और 'नरक-दर-नरक' लिखने वाली शानदार लेखिका - लेकिन रवींद्र का अपना आभामंडल था। वैसा यारबाश और संपादन में नया प्रतिमान रचनेवाला संपादक अब दूसरा शायद ही होगा। उनका संपादन विवादास्पद भी काफी रहा लेकिन मुझे लगता है कि विवाद और प्रपंचों में रहने की उनकी प्रवृत्ति कहीं-न-कहीं साहित्य को केंद्र में लाने की उदारता से जुड़ी थी। अपने संपादन में वे कैसे किसी लेखक को स्टार बना देते थे, इसका उदाहरण वर्तमान साहित्य का महाविशेषांक है। इसमें उन्हें सबसे अच्छी कहानी कृष्णा सोबती की 'ऐ लड़की' लगी थी। इस कहानी के छपने से पहले ही उन्होंने बड़े-बड़े लेखकों से उस पर समीक्षात्मक लेख लिखवा लिए थे। उसी अंक में एक-से-एक शानदार कहानियाँ थी, लेकिन 'ऐ लड़की' को जिस तरह उछाला गया, वह अद्भुत था। इस पर उनके साथ हमारी काफी बहस भी हुई।

बहुत दिन हो गए थे ममता और रविजी से बातचीत हुए। हाल-चाल जानने के लिए अवध ने इलाहाबाद फोन लगाया। कुशलक्षेम के उपरांत पूछा। 'तुमने 'आवाँ' पढ़ा? कहाँ, मुझे 'आवाँ' की प्रति चाहिए। फौरन भिजवाओ।' अवध ने 'आवाँ' की प्रति भेजते हुए छोटी सी चिट्ठी लिखी।' प्रिय रवि, तुम्हें तुम्हारी दीदी का उपन्यास भेज रहा हूँ, पढ़कर बताना।'

कुछ दिनोंपरांत एक लिफाफा आया। लिफाफे में लखनऊ से प्रकाशित होने वाले 'हिंदुस्तान' के स्थानीय संस्करण में प्रकाशित होने वाले कॉलम 'इन दिनों' की कतरन थी जिसमें रवींद्र कालिया ने लिखा था - 'मैं इस शताब्दी की आखिरी किताब लिखना चाहता हूँ।' वह किताब थी 'गालिब छुटी शराब'। उसी में उन्होंने लिखा था 'इन दिनों मैं चित्रा का उपन्यास 'आवाँ' पढ़ रहा हूँ। यह भी बंबई के ट्रेड-यूनियनों और सांप्रदायिकता पर है। दत्ता सामंत की मौत तक। अच्छा लग रहा है और लगता है कि यह हिंदी का महत्वपूर्ण उपन्यास होगा।' 'इन दिनों' वह क्या लिख-पढ़ रहे हैं की प्रस्तुति की थी प्रवीण ने।

कॉलम की कतरन के साथ हाशिए की खाली जगह पर एक छोटी-सी चिट्ठी उन्होंने अपने हाथ से लिखी थी - 'प्रिय जीजाजी, आपका पत्र एवं दीदी का उपन्यास 'आवाँ' मिला। आपके आदेशानुसार पढ़ रहा हूँ। प्रमाण-पत्र संलग्न है।' आपका साला, रवींद्र कालिया। (27.10.1999 इलाहाबाद)

बहुत प्रकट नहीं करते थे न ऊपरी तौर पर जताते थे लेकिन अपने दोनों बेटों से उन्हें बेहद प्यार था। इंदौर में पढ़ाई पूरी होने पर बड़े बेटे अनु की नियुक्ति जब अहमदाबाद की एक बहुत बड़ी कंपनी में बड़े पद पर हुई तो अकसर वे टिकट के आरक्षण को लेकर अवध को फोन कर पी.एन.आर. नंबर नोट करा, चिंतित स्वर में याद दिलाते रहते कि रेलवे बोर्ड में तुम्हारे मित्र महेंद्र कुमार मिश्राजी हैं - अनु का टिकट कन्फर्म हो जाना चाहिए। मनु को मैं दूर नौकरी करने नहीं भेजूँगा। उसे अपने पास ही रखूँगा। मनु मेरा प्रेस सँभालेगा।

जैसा कि मैंने कहा कि हमारे पाँच दशक से पारिवारिक रिश्ते थे। उन दिनों हम मुंबई में प्रताप नगर की एक खोली में रहते थे। उस खोली को मैंने जिस तरह सजाया था उसे देखकर रवींद्र अकसर कहा करते कि यह सुपर चाल का सुपर कमरा है। बच्चों से उन्हें बहुत प्यार था। हमारे बच्चे अकसर उनका इंतजार करते। मेरे बेटे गुड्डू की उन्होंने बहुत तस्वीरें खीचीं। जब भी गुड्डू रोता ये उसे गोद में उठाकर ले जाते, खिलाते-पिलाते और तस्वीरें खिंचाते। रवींद्र काफी समय से बीमार थे, लेकिन उनकी जिंदादिली देखकर लगता नहीं था कि वे इतनी जल्दी चले जाएँगे। कठिन-से-कठिन बीमारियों को झटका देने में वे उस्ताद थे, लेकिन सब इतनी जल्दी घट गया कि अभी तक यकीन नहीं हो रहा।

अब जब भी ममता का फोन आता है तो सोचती हूँ कि उसके हाथ से फोन झटककर यह कहने वाला कोई नहीं होगा कि मैं रवींद्र कालिया बोल रहा हूँ चित्रा।


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