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लेख

पिछली सदियों में भारत में शिक्षा और विज्ञान-शिक्षा पर कुछ बातें

लाल्टू


भारत में ब्रिटिश राज के दौरान बड़े सांस्कृतिक बदलाव आए। आज मुल्क में जो समस्याएँ दिखती हैं, उनमें से कई सीधे-सीधे ब्रिटिश राज का परिणाम हैं। मसलन भाषा की समस्या ही लें। अंग्रेज न होते तो अंग्रेजी का वर्चस्व न होता। अगर हर समस्या का इतना सीधा संबंध अंग्रेजी राज से दिखता तो इतिहासकारों और दीगर मानव-विज्ञानियों का काम आसान हो जाता। पर समस्याओं की जड़ें इतनी साफ होती नहीं, जितनी कि हमें लगती हैं। अगर अंग्रेजी के वर्चस्व को ही लें, आजादी के सत्तर साल बाद भी यह बना हुआ है तो इसे हम कैसे समझें। कहने को लोग अक्सर कह देते हैं कि हम 300 सालों तक अंग्रेजों के गुलाम रहे। पर 1757 के पहले तक ईस्ट इंडिया कंपनी की हैसियत महज एक व्यापारी संस्था की थी। छोटे व्यापार केंद्रों में स्थापित सत्ता को अक्सर देश पर राज कहा दिया जाता है। औपचारिक रूप से भारत 1858 में, यानी आजादी के 89 साल पहले ही ब्रिटिश राज का हिस्सा बना। पर सांस्कृतिक प्रभाव, खास तौर पर शिक्षा के क्षेत्र में उनके प्रभाव को 19वीं सदी की शुरुआत से देखा जा सकता है।

1947 में जब देश आजाद हुआ तो साक्षरता की दर 12% थी। यानी कि 88% लोग अंग्रेजी तो क्या भारतीय भाषाएँ भी लिख-पढ़ नहीं सकते थे। गांधी ने लंदन की 1931 की गोलमेज कान्फ्रेंस में यह दावा किया कि ब्रिटिश राज के पहले भारत में साक्षरता की दर बेहतर थी, और राज की शिक्षा से जुड़ी प्रशासनिक नीतियों से निरक्षरता बढ़ गई। कइयों ने इसे तथ्य मानकर इस दावे को एक प्रतिकथा के रूप में रखने की कोशिश की है, जो उपनिवेश-काल की, अक्सर ईसाई विश्व-दृष्टि कहलाती, यूरोपी आधुनिकता और प्रबोधन को श्रेष्ठ साबित करती उस कथा की काट है, जिसके मुताबिक भारत में व्यापक बौद्धिक पिछड़ापन था और यूरोपियों के आने से देश को आधुनिक ज्ञान का फायदा मिला। इस प्रतिकथा के मुताबिक भारत में अपनी स्थितियों के साथ मेल खाता ज्ञान-विज्ञान काफी विकसित था और इससे समाज में स्थिरता और शांति का माहौल था, जिसे यूरोपी आधुनिकता ने तबाह कर दिया। इस राष्ट्रवादी प्रतिकथा, जिसके प्रवक्ताओं में दक्षिणपंथियों से भी ज्यादा उत्तर-आधुनिक वाम चिंतक शामिल हैं, के अनुसार हमारे सामाजिक विकारों (जातिप्रथा आदि) की जिम्मेदारी काफी हद तक ब्रिटिश प्रशासकों पर जाती है। कुछ को तो लगता है कि यह जिम्मेदारी पूरी तरह से उन्हीं की है। खासतौर से मैकॉले की नीति पर आधारित आधुनिक शिक्षा-व्यवस्था से हमारी मानसिक गुलामी का सीधा संबंध माना जाता है। यह बात और भी गंभीर हो जाती है, जब हम विज्ञान-शिक्षा को देखते हैं। आज जिसे हम विज्ञान कहते हैं, वह पूरी तरह से यूरोप से आई ज्ञान-मीमांसा है। इसलिए आधुनिक विज्ञान की सभी समस्याओं को अक्सर यूरोपी आधुनिकता की समस्याएँ मान लिया जाता है। इसमें तो कोई शक है ही नहीं कि अगर हमारी सोच में यूरोकेंद्रिता है, वह सबसे ज्यादा विज्ञान शिक्षा में दिखती है। ज्ञान पाने के अन्य उपायों की तरह विज्ञान की भी अपनी सीमाएँ हैं। औपनिवेशिक आधुनिकता से रची मीमांसा की अपनी विश्व-दृष्टि है, जो इसमें शामिल हर सीखने वाले के जेहन में समा जाती है। औपनिवेशिक प्रशासकों के लिए यह यूरोकेंद्रिता ऐसा औजार थी, जिससे वे अभूतपूर्व शोषण पर आधारित अपने शासन को सही ठहरा सकें।

इस आलेख में हमारी कोशिश यह कहने की है कि यूरोकेंद्रिक नरेटिव या कथा के बरक्स जो प्रतिकथा तैयार हो, वह भारतकेंद्रिक या उससे भी ज्यादा ब्राह्मणवाद-केंद्रिक राष्ट्रवाद के संकीर्ण साँचे में गढ़ी न जाए, बल्कि वह एक मानव-केंद्रिक सार्वभौमिक कथा होनी चाहिए। इसको समझने के लिए हम पिछली कुछ सदियों के भारतीय इतिहास और खास तौर पर विज्ञान शिक्षा हुए बुनियादी बदलावों की पड़ताल करेंगे।

क्या उपनिवेश काल में स्थापित या आज की विज्ञान शिक्षा में हम महज यूरोकेंद्रिता ही देख पाते हैं या इसकी कुछ और भी खासियत हैं? इस सवाल का जवाब ढूँढ़ने पर हम देखेंगे कि विज्ञान शिक्षा के विकास में इस बात की भी निर्णायक भूमिका रही कि भारत में उपनिवेश काल के पहले और उस दौरान मौजूद अलग-अलग सत्ताओं का यूरोपी आधुनिकता और साम्राज्यवाद के साथ कैसा समझौता या विरोध रहा। आम तौर पर शिक्षा के संदर्भ में यूरोपी उपनिवेशवाद की दो परस्पर विरोधी आलोचनाएँ मिलती हैं। एक तो यह कि उपनिवेशों के प्रशासन और शोषण को पुख्ता बनाने के लिए पहले के ढाँचे को तोड़ कर नई यूरोकेंद्रिक तालीम का इंतजाम किया गया, जिसके तहत न केवल पढ़ाने के तरीके बल्कि विषयों में भी भारी बदलाव किया गया। इसके विरोध में दूसरा विचार यह है कि ब्रिटिश शासकों ने पहले से मौजूद धर्म और परंपराओं पर आधारित सामाजिक वर्ग-सत्ताओं को जस का जस रखने का निर्णय लिया। इससे भारतीय समाजों के संपन्न वर्गों और उपनिवेश शासकों के बीच समझौते का रास्ता खुला। पहली प्रस्तावना दो 'सभ्यताओं' के बीच सीधे टक्कर की है। इसमें यह मान्यता निहित है कि पाँच हजार साल से भी पुरानी 'एक' सभ्यता यहाँ मौजूद थी और स्वाभाविक है कि उसके अपने ज्ञान के ढाँचों को आधुनिक यूरोपी ज्ञान-व्यस्थाएँ हटाती हैं तो जम कर विरोध होगा। दूसरी ओर यह कि औपनिवेशिक प्रशासकों और भारत की तत्कालीन शासक श्रेणियों और संपन्न वर्गों के बीच समझौता होता रहा। सच्चाई इन दोनों के बीच कहीं होगी, पर जाहिर है कि ये दो प्रवृत्तियाँ परस्पर विरोधी हैं।

इसके पहले कि हम सीधे विज्ञान शिक्षा पर बात करें, हमें इतिहास को खुले दिमाग से समझने की कोशिश करनी होगी। जिस भारतीयता या भारतीय राष्ट्रीयता को आज शाश्वत सी धारणा मान लिया जता है, आजादी के वक्त भी इसकी बुनियाद कोई खास मजबूत नहीं थी। आजादी मिलते ही तीन बड़े टुकड़े तो हुए ही, साथ में कम से कम तीस और दीगर मुल्कों के बनने की संभावना भी थी। कम से कम दो बड़े राज्यों के बारे में, यानी काश्मीर और हैदराबाद, हर कोई जानता है कि वे न तो पाकिस्तान और न ही हिंदुस्तान में शामिल होना चाहते थे। दूसरे कई ऐसे राज्य थे, आजादी के वक्त भी जिनका शासन रंग-बिरंगे राजाओं महाराजाओं के हाथ था। इस शासन में शिक्षा का इदारा भी शामिल था। इसलिए यह सवाल वाजिब है कि सचमुच बर्तानवी शिक्षा का असर किस हद तक था। यह तो है कि बौद्धिकों का बड़ा वर्ग इससे प्रभावित था और उन्होंने 'राष्ट्र-राज्य (नेशन स्टेट)' की आधुनिक धारणा को जेहन में डाल लिया था; और यह भी कि धार्मिक अस्मिता पर आधारित राष्ट्रों की धारणा पनप रही थी। यह ब्रिटिश शिक्षा से बना बुद्धिजीवी वर्ग ही था, जिन्होंने दो राष्ट्र के सिद्धांत को बढ़ाया और आखिरकार उसे अंजाम देने में सफल भी हुआ। पर औपनिवेशिक शिक्षा का प्रभाव सचमुच इतना व्यापक नहीं था, जितना अक्सर कहा या माना जाता था। जाहिर है कि इससे साक्षरता तो खास बढ़ी नहीं, क्योंकि आजादी के वक्त यह महज 12% ही थी। विज्ञान की साक्षरता तो इससे भी कम रही होगी। राष्ट्रवादियों का दावा है कि उपनिवेश काल के पहले साक्षरता अधिक थी; जब आजादी के वक्त की दर को देखते हैं तो इस दावे का मतलब यह होता है कि ब्रिटिश शिक्षा का ऐसा व्यापक प्रभाव था कि उससे देशी शिक्षा व्यवस्था को समूल नाश हो गया।

जहाँ तक राजनैतिक सत्ता का सवाल है, औपचारिक रूप से भारत केवल नब्बे साल तक ही ब्रिटिश साम्राज्य का हिस्सा रहा। पर कुछ इलाकों में अंग्रेजों का प्रभाव इसके कम से कम आधी सदी पहले से ही दिखने लगा था। कहा जा सकता है कि 1757 में बंगाल में पलासी का युद्ध जीतना और नवाब सिराजउद्दौला के शासन का अंत एक महत्वपूर्ण मोड़ है। बक्सर की 1764 की लड़ाई के बाद ही ईस्ट इंडिया कंपनी को दीवानी का हक मिला। उस के बाद कंपनी ने लगातार गंगा के तटीय क्षेत्रों से चलते हुए दिल्ली तक अपना प्रभाव-क्षेत्र बढ़ाया। उनके दूसरे केंद्र मद्रास में भी उनकी हैसियत खास नहीं थी। लगातार कई जंगों में उलझे अंग्रेज मद्रास प्रेसिडेंसी हाथ से खो भी बैठे थे और 1749 में समझौते के बाद उन्हें यह क्षेत्र वापस मिला। यानी किसी भी तरह भारत में अंग्रेजी राज को 200 साल से अधिक नहीं माना जा सकता।

कंपनी ने स्थानीय राजाओं पर दबाव डालते हुए अपना शोषण कायम करने की नीतियाँ लागू करवाईं। 1850 तक शैक्षणिक और सांस्कृतिक प्रभाव बंगाल और मद्रास में, वह भी अधिकतर समुद्र तट के पास के कोलकाता और चेन्नई शहरों में ही सीमित था। बहुत सारा पश्चिमी प्रभाव टुकड़ों में बसे डेन, फ्रांसीसी और पुर्तगाली जैसे गैर-ब्रिटिश यूरोपियों से भी आया। ईस्ट इंडिया कंपनी के बढ़ते आर्थिक-राजनैतिक प्रभाव के विरोध में 1857 में जनयुद्ध हुआ। इसे आजादी की पहला लड़ाई कहने पर ऐसा भ्रम होता है जैसे आज के भारत जैसा कोई देश तब भी था, और उस सारे देश पर फैले औपनिवेशेक शासन के खिलाफ कोई विद्रोह हुआ था। मुख्य रूप से हिंदी-क्षेत्र में सीमित इस लड़ाई का स्वरूप जनयुद्ध का था, हालाँकि विद्रोहियों में अधिकतर स्थानीय राजाओं के प्रति समर्पित थे। यह सही है कि इस लड़ाई ने एक सर्वभारतीय चेतना को जन्म दिया, हालाँकि कई 'भारतीय' (आज के अर्थ में) ताकतें इस लड़ाई में अंग्रेजों के साथ थीं।

इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि जैसे 'ईसाई' पश्चिम में यूरोप के सभी इलाकों में विचारों का लेन-देन हो रहा था, वैसे ही अठारहवीं सदी में भारतीय उपमहाद्वीप के भिन्न इलाकों के बौद्धिकों में भी वैचारिक विमर्श होता था। शास्त्रार्थ या विमर्श के और तरीकों से उपमहाद्वीप के आर-पार विचार फैल रहे थे। पर स्थानीय अस्मिता का अहसास गहरा था। जिसे आम तौर से भारतीय विज्ञान कहा जाता है, उसके स्थानीय विविध रूप थे और उनका विकास एक दूसरे से स्वच्छंद हो रहा था। साहित्यिक कृतियाँ और मिथकों तक में विविधता की भरमार थी। उपमहाद्वीप के एक हिस्से में बड़ी तादाद में लोगों के साथ क्या गुजर रही है, अक्सर और इलाके के लोगों को इसकी कोई खबर नहीं होती थी। जैसे दीवानी हक मिलने के तीन सालों के अंदर ही कंपनी की नीतियों से बंगाल में भयंकर अकाल आया और करीब एक तिहाई जनता भूख से मर गई। बंगाल और बिहार को छोड़कर किसी भारतीय भाषा के साहित्य या लोकगीतों में इसका कोई जिक्र तक नहीं आता। यानी सर्वभारतीय चेतना नहीं के बराबर थी। यह पूछना जरूरी है कि तीन सालों में कंपनी पहले से कहीं ज्यादा ऐसी जालिम व्यवस्था लागू करने में कैसे सफल हो गई, जबकि तब तक यूरोप की औद्योगिक क्रांति का कोई लाभ उन्हें नहीं मिला होगा; रेलगाड़ी को आने में अभी सौ साल और थे; नदियों पर आवाजाही बहुत उन्नत न थी। उनके पास बारूद और बंदूकें थी, पर वे नवाब सिराजउद्दौला की सेना से कोई बहुत ज्यादा आगे के न थे। नील की खेती का पूरा प्रसार भी अभी हुआ न था। एक ही निष्कर्ष निकलता है कि पहले से ही शोषण की भयंकर व्यवस्था मौजूद थी, जिसे साम्राज्यवादी कंपनी के क्रूर पूँजीवाद ने और बदतर बना दिया था। पहले की व्यवस्था में धन देश में ही रहता था और अकाल जैसी स्थिति में राजा उदारता दिखलाते लोगों में अनाज बाँट सकते थे, कंपनी सारी कमाई इकट्ठा कर ब्रिटेन भेज रही थी। सवाल उठता है कि कुछेक गोरे ऐसा भयंकर शोषण कर पाने में सफल कैसे हुए। अगर इसमें स्थानीय समाज के ताकतवर वर्गों की बड़ी भागीदारी थी, तो शिक्षा में भी कोई बड़ा बदलाव उनकी भागीदारी के साथ ही संभव हुआ होगा।

इसके बावजूद कि 1920-30 के दशक में कोलकाता में उच्चतम स्तर का वैज्ञानिक शोध हो रहा था, जब 1947 में सत्ता बदली, आधुनिक विज्ञान और तक्नोलोजी जैसे क्षेत्रों में भारतीय उपमहाद्वीप वाकई यूरोप से काफी पीछे था।। तब से आज तक जंग के शस्त्र, स्टीमबोट, रेलगाड़ी और हवाई जहाज जैसे जल-थल-नभ पर आवागमन के साधन, मारक बीमारियों के लिए दवाइयाँ - इनके आधार पर दुनिया ताकतवर और कमजोर मुल्कों में बँटी हुई है। हालाँकि आज हम यह मानते हैं कि पिछली सदियों में हुई कई वैज्ञानिक खोजों के पीछे के बुनियादी सिद्धांत भारत और चीन जैसे पूर्वी देशों से आए थे, यूरोपी नई तक्नोलोजी में कुछ भी पूर्वी देशों में से नहीं आई थीं।

कई लोग यह गैरऐतिहासिक तर्क रखते हैं कि उपनिवेश काल के पहले के भारत में मौजूद शिक्षा व्यवस्था में संभावनाएँ थीं कि यहाँ भी देर-सबेर आधुनिक विज्ञान और तक्नोलोजी पनप ही जाते, पर औपनिवेशिक शासन के अत्याचारों की वजह से वह स्वाभाविक विकास बिगड़ गया। कुछ ही सदियों पहले तक तक्नोलोजी में सबसे आगे रह चुका मुल्क चीन भी 19वीं सदी तक पिछड़ चुका था। जापान ने 19वीं सदी में अपने पिछड़ेपन को पहचाना और अधुनिकीकरण के लिए पुरजोर कोशिशें शुरू कर दी थीं। चीनियों को अपनी पुरानी सभ्यता पर गर्व था और उन्होंने आधुनिकता को नकारने की कोशिश में सौ साल में ही यूरोपी ताकतों के सामने घुटने टेक दिए। इस स्थिति में बदलाव चीन में साम्यवादी क्रांति के होने और बाद में सामंती वर्गों को उखाड़ने के कठिन सालों के बाद ही हुआ। भारत में घटनाक्रम ऐसा नहीं था और जाति की जटिल शृंखलाओं का पूरा फायदा उठाते हुए सामंती वर्ग ने सत्ता पर पूरी पकड़ बनाए रखी। यह भूलना नहीं चाहिए कि उत्तर-उपनिवेशकालीन (पोस्ट कोलोनियल) विमर्श का अधिकांश इसी वर्ग के बौद्धिकों की देन है। जो थोड़े चिंतक दूसरे वर्गों से आते भी हैं, उन पर भी सामंती मूल्यों का वर्चस्व पूरी तरह से हावी है। अरब देशों में भी इस बात से काफी तकलीफ है कि मध्य काल के बाद वैज्ञानिक तरक्की में उनकी भागीदारी खत्म हो गई। पर वे इससे उबर चुके हैं और उन्होंने अपनी असफलता के लिए अपनी ही सामाजिक-राजनैतिक स्थितियों को दोषी ठहराया है। भारतीय टिप्पणीकार, खास तौर पर दक्षिणपंथी और गैर मार्क्सवादी वाम का उपनिवेश काल की शिक्षा पर यही कहना आम है कि यहाँ मौजूद शिक्षा के उम्दा ढाँचों को औपनिवेशिक शासन ने तबाह कर दिया।

ब्रिटेन की संसद में भारत में नई शिक्षा व्यवस्था शुरू करने पर बहस 1830 के बाद के दशक में हुई। इससे यह पता चलता है कि अन्य क्षेत्रों में यूरोपी प्रभाव जितना भी गहरा रहा हो, शिक्षा में एक सदी से ज्यादा ऐसा नहीं रहा होगा और वह भी शुरुआती पचासेक सालों में वह प्रभाव कोलकाता और चेन्नई जैसे शहरों के आस पास ही अधिक था। अधिकतर इलाकों में बीसवीं सदी की शुरुआत तक अंग्रेजों की पहुँच बहुत ही सीमित स्तर तक थी। आजादी के बाद सत्तर साल गुजर चुके हैं और साधनों की भरमार जैसी अब है, इसका छोटा हिस्सा भी ब्रिटिश प्रशासकों के पास नहीं था। सोचने की बात है कि उत्तर-उपनिवेशवादी चिंतन कितना प्रासंगिक है! आखिर कंपनी के पास कितने लोग थे कि उसने सदियों से रचा तालीम का ढाँचा उखाड़ फेंका। 1830 के पहले प्रशासनिक उपायों से शिक्षा पर अंग्रेजी प्रभाव शून्य के बराबर था। तो फिर यूरोपी प्रभाव कहाँ से आया? यह यूरोपी प्रभाव आधुनिक यूरोपी दिमाग से नहीं, बल्कि भारतीय बुद्धिजीवियों की कोशिशों से आया। औपनिवेशिक प्रशासन का प्रभावी हस्तक्षेप 1850 के बाद ही दिखता है।

बंगाल और मद्रास प्रेसिडेंसी (कुछ हद तक बंबई प्रेसिडेंसी) के अलावा जिन इलाकों में अंग्रेजों का प्रशासनिक प्रभाव भी सीमित था, वहाँ भी शिक्षा पर उनका प्रभाव 1858 के बाद बढ़ता चला, जब समूचा उपमहाद्वीप औपचारिक तौर पर ब्रिटिश साम्राज्य के अंतर्गत आ गया। जब 1857 में अंग्रेजों के बढ़ते आर्थिक-राजनैतिक प्रभाव के खिलाफ जनयुद्ध हुआ, शिक्षा में उनके प्रभाव का विरोध करने की कोई गुंजाइश नहीं थी।

सच यह है कि यूरोपी ताकतों द्वारा उपनिवेश बनाए कई दीगर मुल्कों की तरह, भारत में भी वर्ग, जाति और लिंग पर आधारित सत्ता और सामाजिकता के मजबूत ढाँचे थे। जातिप्रथा की शुरुआत पर या कि समय के साथ इसमें क्या बदलाव आए, या इसकी उपयोगिता आदि ऐसी बातों पर बहस होती रहती है, पर इसके होने पर कोई विवाद नहीं है। जब तक अंग्रेजों ने अपना शासन फैलाया, अधिकतर किसान और खेत मजूर निचली जातियों के थे या उनमें से धर्म बदल कर हुए मुसलमान थे और जमीनों के मालिक जो ऊँची जाति के थे, उनके साथ अछूत सा व्यवहार करते थे।

राम पुनियानी ने हाल के एक लेख में इसे यूँ बखाना है -

जाति प्रथा कि नींव बहुत पुरानी है और अछूत मानने की प्रथा जाति प्रथा के साथ ही आई। आर्य काले रंग के अनार्यों और अनासों (जिनकी नाक न थी) से खुद को श्रेष्ठ मानते थे। चूँकि अनार्य लिंग की पूजा करते थे, उनको अमानुष (ऋग्वेद 22.9) माना गया। ऋग्वेद और मनु स्मृति में कई ऐसे श्लोक हैं जिनमें नीची जाति के लोगों को ऊँची जाति के लोगों के पास आने से मना किया गया है। उन्हें गाँव के बाहर रहने को कहा गया। इससे यह नहीं कहा जा सकता कि ऋगवेद के समय तक जातिप्रथा पूरी तरह आ चुकी थी, पर समाज को चार वर्णों में बाँटा जा चुका था और मनु स्मृति के आने तक यह कठोर ढाँचा बन चुका था।

पहली ईसाई सदी तक अछूत मानने की प्रथा जाति प्रथा का अंग बन चुकी थी। दूसरी-तीसरी ईसाई सदियों में लिखे गए मनु स्मृति में अत्याचारी जातियों द्वारा उत्पीड़ित जातियों के साथ किए जाने वाले जघन्य व्यवहारों के नियम दर्ज किए गए। ग्यारहवीं सदी के बाद मुसलमान शासकों के आक्रमण और यूरोपी हमले सोलहवीं-सत्रहवीं सदी में शुरू हुए।

एक वक्त के बाद जातिप्रथा जन्म पर आधारित हो गई। इस प्रथा के मुताबिक विवाह और सामाजिक संबंध तय किए गए। वक्त के साथ जाति का वर्गीकरण लगातार कठोर होता गया। शूद्रों को समाज की मुख्यधारा से निकाल दिया गया और ऊँची जाति के लोगों पर रोक लगा दी गई कि वे उनके साथ खाना नहीं खा सकते और उनसे वैवाहिक संबंध नहीं बना सकते। शुद्धता और अशुद्ध की धारणाओं को कड़ाई से लागू किया गया ताकि जाति की दीवारें टिकी रहें। मनु के मानव धर्मशास्त्र में इसी सामाजिक भेदभाव को नियमों में बाँधा गया।

ऐतिहासिक लेखन के अलावा साहित्यिक और अन्य सूत्रों से भी प्रमाण मिलते हैं। कई भारतीय भाषाओं के साहित्य के इतिहास में भक्तिकाल का युग आता है, उस दौरान जातिगत भेदभाव और उसके खिलाफ आह्वान के अनगिनत संदर्भ आते हैं। सभी भाषाओं में आधुनिक काल के साहित्य में भी तीखेपन के साथ जाति आधारित सत्ता संरचनाओं का जिक्र आता है। ऐसा आम तौर पर माना जाता है कि ईसा के 500 साल पहले आर्यों ने श्रम के सार्थक विभाजन के लिए चार वर्ण बनाए। पर ईसाई पहली सदी की शुरुआत तक यह प्रथा बिगड़ कर जन्म आधारित व्यवस्था में बदल गई। यूरोपियों के आने तक यह कई जाति-वर्गों की जटिल व्यवस्था बन गई थी, जिसमें अति-शूद्र सबसे नीचे आते थे।

बंगाल में 17वीं सदी तक मुस्लिम नवाब, हिंदू राजाओं और दीगर संपन्न वर्गों के शासकों में साफ मिलीभगत थी और जातिगत भेदभाव आम बात थी। बाउल जैसे लोक आधारित आंदोलनों समेत और कई सुधारवादी कोशिशों के बावजूद संपन्न जातियों/वर्गों की मेहनतकश वर्गों के प्रति संवेदनाहीनता बदली नहीं। आम जन के लिए वही गहरी संवेदनाहीनता आज तक बनी हुई है और यह हमें यूरोपियों से नहीं मिली है, बल्कि यह हमारी अपनी विरासत है। अंधराष्ट्रवादी ही यह मानते हैं कि यूरोपियों के आने के पहले जातिगत भेदभाव नहीं था।

उपनिवेश काल के पहले भारत में शिक्षा व्यवस्था ब्राह्मणवादी सत्ता-संरचना के मुताबिक चल रही थी, जिसमें यह तय था कि किसे कितना पढ़ने दिया जाएगा। यहाँ की जमीं पर उपजे चार्वाक जैसे आंदोलनों के प्रतिरोध कुचल दिए ही गए थे, बाहर से बराबरी का संदेश लिए आए इस्लाम जैसी संस्कृतिबहुल मान्यताओं वाले धर्म भी ब्राह्मणवादी वर्चस्व का विरोध न कर पाए और वे भी भेदभाव को मानने वाले अत्याचारी समाज बन गए। आज तक ´नीची' जाति के मुसलमानों को जातिगत भेदभाव सहना पड़ता है और यह मदरसाओं में भी दिखता है।

लिंग आधारित भेदभाव आम था और आज भी हर जगह है। उपनिवेश काल के पहले की स्थिति पर प्रामाणिक संदर्भों का उल्लेख करते हुए नवानी और जैन लिखते हैं -

"उपनिवेश पूर्व भारत में अठारहवीं सदी के अंत तक लोगों को औपचारिक शिक्षा देने में राज्य की विशेष भूमिका न थी। धार्मिक शिक्षा के लिए पुरोहित वर्ग ने संस्थाएँ बनाई थीं और वे उनकी देखभाल करते थे। सरकारी नौकर, व्यापारी, महाजन और संपन्न जमींदारों के समूह अपनी जरूरत मुताबिक संस्थाएँ चलाते थे। अधिकांश लोग परिवार में और पारिवारिक पेशों में लग कर अनौपचारिक रूप से शिक्षा पाते थे। इसलिए समाज बच्चों और किशोरों को सामाजिकता कैसे सिखाए और उन्हें क्या पाठ पढ़ाए, इसमें भिन्नता थी। यह इस पर निर्भर करता था कि इन संस्थाओं की समाज में जाति या लिंग के नजरिए से क्या स्थिति थी। चार किस्म की औपचारिक शिक्षा-संस्थाएँ थीं - हिंदुओं की पाठशालाएँ, मुसलमानों के मदरसे, फारसी शालाएँ, और भारतीय भाषाओं में पढ़ाने वाली शालाएँ।

ऊपरी स्तर पर संस्कृत शिक्षा टोलों में होती थी। मदरसों से नीचे के स्तर पर मक्तब होते थे। यह स्वाभाविक था कि जातिप्रथा की जटिल संरचना पर आधारित समाज आधुनिकता की केंद्रीय 'प्रबोधन' की सोच से टकराता और ऐसा ही हुआ।

यूरोकेंद्रिक शिक्षा संस्थाओं के खिलाफ शुरुआती विरोध के बाद अपनी सत्ता बनाए रखने के लिए ब्राह्मणवादी संरचना ने समझौते का रवैया अपनाया। विरोध और समझौते की प्रक्रियाएँ साथ-साथ चलती रहीं। शुरू में ज्यादातर विरोध था, बाद में ज्यादातर समझौता था। आज कुछेक बचे-खुचे विरोध को छोड़ कर हर ओर समझौता ही दिखता है। इस नजरिए से देखने पर विज्ञान-शिक्षा की पाठचर्या शिक्षा में महज यूरोकेंद्रिक वर्चस्व की आलोचना नहीं रह जाती। आधुनिक विज्ञान की सार्वभौमिकता का दावा और इसे बिल्कुल नकारना दोनों प्रवृत्तियों पर शक करना लाजिम हो जाता है। आधुनिक विज्ञान शिक्षा में जो चल रहा है वह तो यूरोकेंद्रिक है ही। उत्तरआधुनिक आलोचना इसे बिल्कुल नकारने की माँग करती है - विडंबना यह कि यह माँग आधुनिक यूरोप से उधार ली गई भाषा, मुहावरों और औजारों के जरिए आती है। परंपरावादी दक्षिणपंथी भी इसे बिल्कुल नकारने की माँग करते हैं। बीच के रास्ते में वे हैं जो आधुनिकता की केंद्रीय 'प्रबोधन' की सोच को मानते हैं पर पश्चिमी मुल्कों की साम्राज्यवादी प्रवृत्तियों का विरोध करते हैं।

हालाँकि उपनिवेश काल के दौरान आई आधुनिक विज्ञान शिक्षा में ज्ञान पाने के ढाँचे में देशी मान्यताओं को जगह नहीं दी गई, संपन्न वर्गों ने इसके मुताबिक खुद को ढाल लिया और इसमें रम गए। इस नई व्यवस्था को ऐसी स्वीकृति मिली कि पश्चिमी संपन्न वर्गों ने भी आधुनिक विज्ञान शिक्षा के प्रति ऐसी स्वीकृति नहीं दिखलाई थी। यह अंध स्वीकृति आजादी के सत्तर सालों बाद आज भी चल रही है। इसका एक परिणाम यह है कि सार्वभौमिक पाठचर्या थोपी जाती है, जिसमें स्थानीय स्थितियों के प्रति संवेदना नहीं दिखती। दूसरे परिणामों में अध्यापकों के प्रशिक्षण को यांत्रिक तरीके से लिया जाना और पढ़ाने के पुराने पड़ गए घिसेपिटे तरीकों को लागू करते रहना आदि हैं। इस समझौतापरस्ती का एक बड़ा परिणाम विज्ञान शिक्षा के लिए अंग्रेजी को जरूरी मान लेना है। इसकी वजह से अधिकतर लोगों के लिए विज्ञान जादू सा बनकर रह गया है। एक ओर ब्राह्मणवादी संपन्न वर्ग ने विदेशी भाषा में सीखना मान लिया, दूसरी ओर देशी भाषाओं में विज्ञान शिक्षा के लिए ऐसी जटिल कृत्रिम शब्दावली रची गई कि अधिकतर लोगों के लिए आधुनिक विज्ञान में औपचारिक ज्ञान ले पाना असंभव हो गया। अंग्रेजी का इस्तेमाल बहुसंख्यक लोगों को गुलाम बनाए रखने के लिए भी किया गया। इसके विरोध में कई विकल्प सामने आए हैं।

शुरुआती स्तर पर मातृभाषा को शिक्षा का माध्यम बनाना, तकनीकी शब्दावली में बोलचाल के लफ्जों को डालने की माँग और छात्र को शिक्षा की प्रक्रिया में भागीदार बनाना (निर्मितिवाद) आज भी एक जद्दोजहद है।

उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में सुधारकों को यह समझ थी कि ब्राह्मणवादी वर्चस्व आधुनिकता के साथ पूरी टक्कर ले सकता है। अगर संस्कृत को शिक्षा का माध्यम बनाया जाता तो इस टकराव में ब्राह्मणवादी पलड़ा भारी पड़ता। इसलिए उन्होंने शुरू से ही संस्कृत की पैरवी नहीं की। फारसी और अरबी भाषाएँ देश के अधिकतर हिस्सों में जड़ जमा नहीं पाई थीं। वैसे भी ये दोनों भाषाएँ आम लोगों के लिए उतनी ही पराई होतीं जितनी कि संस्कृत थी। इन्हें विदेशी भाषाएँ भी माना जाता था। ब्राह्मणवादी संपन्न वर्ग ने आम लोगों के दिलों में मुसलमानों की संस्कृति को विदेशी करार कर ही दिया था, हालाँकि तब तक देश में मुसलमानों की कई पीढ़ियाँ बस चुकी थीं। 1857 के जनयुद्ध में हिंदू और मुसलमान इकट्ठे बहादुरशाह जफर के झंडे तले अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने वाले थे। इन भाषाओं में विज्ञान मे हो रही खोजों का बयान करने लायक स्रोत सामग्री भी उपलब्ध न थी। अंग्रेजी से ब्रिटिश शासकों तो फायदा था ही। उनकी चिंता आम लोगों को शिक्षित करने की नहीं थी। उनका मकसद साफ था कि किरानियों और बिचौलियों की एक दलाल जमात तैयार की जाए, जिससे प्रशासन में सुविधा हो।

गैरऐतिहासिक नजरिए से यह पूछा जा सकता है कि अगर उपनिवेश से पहले लोकतांत्रिक माहौल बेहतर होता और शास्त्रीय भाषाओं में साक्षरता अधिक होती तो या बोलचाल की भाषाओं में पहले का सारा ज्ञान उपलब्ध होता तो क्या हुआ होता। पर इतिहास बदला नहीं जा सकता, और यह मानना कि निरपेक्ष रूप से ज्ञान सबके लिए उपलब्ध था, सच्चाई को झुठलाना है।

मैकॉले के बारे में लंबे समय तक यह सही सोचा गया है कि उसने भारतीयों को मानसिक रूप से गुलाम बनाने की सोची थी। पर नागरिक शिक्षा की समिति के सामने उसका बयान यह था कि संस्कृत और अरबी साहित्य का अध्ययन ही नहीं, बल्कि आधुनिक विज्ञान की शिक्षा जरूरी थी। और इसके लिए उसने अंग्रेजी भाषा को उचित माध्यम बतलाया।

उसने भावुक होकर तर्क रखा कि अरबी और संस्कृत साहित्य के अलावा 'पढ़े लिखे देशी' को मिल्टन की कविता, लॉक का अध्यात्म और न्यूटन की भौतिकी की समझ भी होनी चाहिए। उसने पूछा कि अगर 'हमारे (अंग्रेजों के) पूर्वजों ने तूसीदिडीस और अफलातून की ग्रीक भाषा को नकारा होता, अगर वे अपने द्वीप-देश की पुरानी बोलियों में ही उलझे रहते, अगर विश्वविद्यलयों में आंग्ल-रोमन कथाएँ और नॉरमन फ्रांसीसी रोमांस ही पढ़ाया गया होता - तो क्या इंग्लैंड वहाँ पहुँचता जहाँ वह है? हमारी पुरानी बोलियों के बोलने वालों के साथ ग्रीक और लातिन का जो संबंध बना, वैसा ही भारत के लोगों के साथ हमारी अपनी भाषा का है।'

उसका तर्क था कि चूँकि पढ़े-लिखे रूसी पश्चिमी यूरोप की भाषाओं को सीख पाए, इसीलिए उन्नीसवीं सदी तक रूस एक पिछड़े हुए मुल्क से हटकर आधुनिक यूरोपी देश बन पाया था।

मैकॉले ने पूरे विश्वास के साथ यह मत रखा कि 'चाहे हम अपने अदब में निहित सार को देखें, या जिस स्थिति में यह देश (भारत) है, हम देख सकते हैं कि सभी विदेशी भाषाओं में अंग्रेजी ही हमारी देशी प्रजा के लिए सबसे उचित होगी। '

बदकिस्मती यह है कि अंग्रेजों द्वारा सत्ता दे देने के के सत्तर सालों बाद, आज के भारत के संपन्न वर्गों को उसके शब्द पहले से कहीं ज्यादा सही लगेंगे। खास तौर पर जब उत्तर औपनिवेशिक लेखन का अधिकतर अंग्रेजी में है! फिर भी विडंबना यह कि उस अंग्रेज की पूजा का आंदोलन छेड़ने वाले कुछेक दलित बुद्धिजीवियों को छोड़कर मैकॉले को हमेशा भारतीयों के खिलाफ षड्यंत्रकारी के रूप में याद किया जाता है।

मैकॉले के खिलाफ सबसे मजबूत तर्क धरमपाल के हैं, जिसने ब्रिटिश प्रभाव के दिखने के पहले मौजूद शिक्षा व्यवस्थाओं को उजागर करने का दावा किया। उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में शासकीय लेखागार में ब्रिटिश खोजियों द्वार तैयार दस्तावेजों के आधार पर धरमपाल ने 1931 में लंदन के चैथम हाउस में गांधी के कहे उस बयान को जान दे दी, जिसमें उन्होंने दावा किया था कि ब्रिटिश प्रशासन के तले भारत में निरक्षरता बढ़ी है, क्योंकि जिस आधुनिक शिक्षा का जो सूत्रपात प्रशासन ने किया था वह भारत के लिए सही नहीं थी और आर्थिक कारणों से वह अव्यावहारिक थी।

धरमपाल ने इस बात को पूरब-पश्चिम संघर्ष की तरह देखा और उसने मार्क्स पर भी आक्षेप लगाया कि वह अधीरता से भारत के पश्चिमीकरण का इंतजार कर रहा था। सही है कि मार्क्स अधीर था, पर पश्चिमीकरण के लिए नहीं, बल्कि और दीगर मुल्कों की तरह भारत के समाजवाद की ओर अग्रसर होने के लिए अधीर था।

बहरहाल बाहरी प्रभाव तो आना ही था, पर उसे लाने में भारतीयों की भूमिका बड़ी थी। सिर्फ मैकॉले को इसका दोषी मानना गलत है। खास तौर पर जो विज्ञान शिक्षा उन्नीसवीं सदी के अंत तक पनपी, उसमें भागीदारी पूरी तरह से देशी संपन्न वर्गों की ही थी।

विज्ञान क्या है ?

आखिर विज्ञान क्या है? क्या इसमें ऐसे तत्व हैं कि वह जिनका समाज में वर्चस्व है, उसके अधीन हो? यह पारंपरिक धारणा कि विज्ञान प्रकृति को समझने जानने की, सामाजिक मूल्यों के प्रति उदासीन मानवीय कोशिश है, अब खारिज हो चुकी है। बेहतर धारणा यह है कि यह ज्ञान पाने का ऐसा तरीका है जो हमें ऐसी मान्यताओं तक ले जाता है, जिन्हें तर्क और प्रयोगों के आधार पर सत्यापित किया जा सके। अंग्रेजी में इन्हें जस्टीफाइड ट्रू बिलीफ्स कहा जाता है। इस तरह विज्ञान ज्ञान पाने के दूसरे सभी तरीकों से अलग और अनोखा तरीका है।

आखिर इसमें ऐसी क्या विशेषताएँ हैं कि इसे अनोखा माना जाए? हम जानते हैं कि विज्ञान की नींव positivist empiricism यानी प्रत्यक्ष प्रमाणों पर आधारित है। व्यवहार में हम विज्ञान में अधिकतर induction यानी उपपादन और reductionist modeling यानी जटिल विषय को टुकड़ों में बाँटकर समझने की कोशिश करते हैं, पर इस सरलीकृत विवरण से विज्ञान के बारे में सब कुछ नहीं कहा जा सकता। विज्ञान में दुहराने पर बार-बार एक जैसे अवलोकनों को प्रत्यक्ष देख पाने की (verifiable reproducibility of observations), मापने में राशियों पर नियंत्रण यानी कौन सी राशि नियत हो और कौन सी घट-बढ़ रही हो (controllability), इसको नियंत्रण करने की, और सैद्धांतिक प्रस्तावनाओं को गलत साबित कर पाने की स्थितियों की कल्पना (falsifiability) की माँग जरूरी होती है। कुल मिला कर विज्ञान ज्ञान और सत्य तक पहुँचने का reductionist या अपचयन का तरीका ही नहीं है, यह justified true beliefs तक पहुँचने का सर्वांगीण तरीका है, जिसके लिए शुरुआती चरणों में अपचयन किया जाता है। कइयों को विज्ञान की तर्क प्रत्यक्षता आधारित नींव पर गहरा संशय है। स्त्रीवादी और पर्यावरणवादी चिंतकों ने कहा है कि प्रत्यक्षता की वजह से विज्ञान बुनियादी तौर पर ज्ञान पाने का हिंसक तरीका है। इसमें कोई शक नहीं है कि ऊपर लिखी कठोर विशिष्टताओं की वजह से, जो समाज विज्ञान और मानविकी की तुलना में ज्यादा कठोरता से विज्ञान में लागू होते हैं, विज्ञान ज्ञान का एक ऐसा क्षेत्र है जहाँ पिछड़े समूहों को सफलता कम मिली है। सामाजिक बराबरी तक पहुँचने के लिए जरूरी जिस तत्व का विज्ञान में अभाव है, वह भावनात्मकता है। ज्ञान पाने के किसी और तरीके कि तुलना में विज्ञान में इस बात पर अधिक जोर दिया जाता है कि अवलोकन करने वाले की सीमाओं को समझा जाए, उन्हें दर्ज किया जाए और उनके प्रभाव को आखिरी निष्कर्षों से बाहर निकाला जाए। मापन में अनिश्चितताओं को अधिकतम निश्चितता के साथ दर्ज करने की जैसी माँग विज्ञान में है, ऐसी और कहीं नहीं है।

जब भावनात्मकता का इस्तेमाल बराबरी और छूटे हुओं को शामिल करने के लिए हो, तो यह अच्छी बात है। पर चुने हुए लोगों का बहिष्कार गलत किस्म की भावनात्मकता है। जब निष्कासन सामाजिक रूप ले ले, तो वह एक सामूहिक बीमारी बन जाती है। उन्नीसवीं सदी की शुरुआत तक भारत में शिक्षा से निष्कासन का स्तर यूरोप की तुलना में अधिक था। जब विज्ञान शिक्षा में निष्कासन होता है, तो वह नाइजेल क्रूक के इस कथन का सबसे गहन रूप होता है, 'जो अंदर हैं उन्हें यह जताया जाता है कि बाहर वालों से तुम्हारी कितनी दूरी है...', क्योंकि विज्ञान में इनसान के सबसे कुदरती गुणों का शायद किसी भी और मीमांसा से अधिक इस्तेमाल होता है। ऐसा निष्कासन हिंसा है। अतीत में या आज विज्ञान शिक्षा में जो भी चल रहा है, कहीं तो कोई ढाँचागत खामी रह गई है कि अवलोकनों से अमूर्त्त सोच तक के इस मंथन से बहुसंख्यक ज्ञानार्थियों को वंचित रहना पड़ा है।

विज्ञान और तक्नोलोजी :

अक्सर विज्ञान और तक्नोलोजी का विकास समांतर में हुआ है, हालाँकि यह कतई जरूरी नहीं कि ऐसा समांतर विकास हो और न ही हमेशा ऐसा होता है। पर उन्नीसवीं सदी तक यूरोप और भारत में तक्नोलोजी में विकास का ऐसा बड़ा अंतर हो चुका था कि नई तक्नोलोजी के साथ आ रहे विज्ञान की उपमहाद्वीप में कोई जड़ें पहले से मौजूद नहीं थीं। यूरोप में उच्च शिक्षा संस्थाओं में बड़ी प्रयोगशालाएँ आम हो गई थीं। उपमहाद्वीप में ऐसा कुछ भी नहीं था। आधुनिक विज्ञान में सिद्धातों और प्रयोगों को साथ-साथ देखा जाना जाता है, यह यूरोप में हो चुका था। भारत में ये दो अलग बातें थीं। हाथों से काम करना निचली जातियों के लिए था। इसलिए अगर बाहरी प्रभाव न होता तो उपनिवेश काल में भारत में विज्ञान का जैसा विकास हुआ, उससे बेहतर कुछ होने की संभावना नहीं थी। मीमांसा के आधुनिक तरीकों के साथ समझौता करते और उसे अपनाते जो विकास हुआ, वह सीखने का ऐसा ढाँचा था, जिसमें अधिकतर लोगों को मौका नहीं दिया गया और जिसमें साधारण तौर पर भावनात्मकता की कोई जगह नहीं थी।

उपनिवेशकालीन भारत में आधुनिक विज्ञान की शुरुआत :

एक ओर यह सही है कि आधुनिक विज्ञान भारत में एक ही विकल्प ले कर आया, जो यूरोकेंद्रिक है; पर साथ ही यह भी सही है कि जिस भी स्वरूप में वह पहुँचा, उसका एक कारण संपन्न वर्गों में उभरती सर्वभारतीय चेतना थी। आधुनिकता को अक्सर ईसाई विश्व-दृष्टि कह दिया जाता है, पर यूरोप में ईसाई धर्म के आने के पहले ही ग्रीको-रोमन मीमांसा और अध्यात्म जड़ें जमा चुके थे। यूरोप के कुछ हिस्सों में ईसाई धर्म का आना और वहाँ अंधकार युग कहलाती अवधि की शुरुआत तकरीबन एक ही समय हुए। आधुनिकता का आना तत्कालीन ईसाई विश्व-दृष्टि के खिलाफ विद्रोह था। अब हम यह भी जानते हैं कि विज्ञान और गणित के कई तथ्य भारत समेत पूरब को देशों से अरब विद्वानों के जरिए यूरोप पहुँचे थे।

शुरुआती यूरोपी खोजी और व्यापारी विक्टोरिया के जमाने की रूढ़िवादी सोच लिए आए थे, पर साथ ही प्रबोधन के मूल्यों का प्रवेश भी होता रहा, जिस पर अधिकतर उत्तरआधुनिक टिप्पणियों में चिंता प्रकट होती है। संतुलित सोच से देखें तो हम पाएँगे कि ऐसा नहीं कि कोई एक बात ही ठीक हो। कई तरह की घटनाएँ साथ-साथ चल रही थीं। विदेशी शासकों की उपनिवेश के लोगों के समाज और उनकी संस्कृतियों के प्रति एकांगी सोच और उसके खिलाफ उभर रहे प्रतिरोध से एक सर्वभारतीय सोच पैदा हो रही थी। उन्नीसवीं सदी से पहले इस सोच का स्वरूप ढीलाढाला था, जैसे कि यूरोप में एक आम सर्वमहादेशीय सोच रही है। जैसे यूरोपी विद्वानों को ग्रीक और लातिन भाषाओं में पारंगत होना पड़ता था, वैसे ही हमारे उपमहाद्वीप में बौद्धिकों को संस्कृत, अरबी और फारसी में महारत हासिल करनी पड़ती थी। जैसे आधुनिक यूरोपी भाषाएँ - अंग्रेजी, फ्रांसीसी, जर्मन परिवार की भाषाएँ (बाद में रूसी और दीगर और जुबानें) विकसित हुईं, हमारे यहाँ उत्तर में ब्रज, अवधी, पंजाबी और खड़ी बोली (हिंदवी, हिंदी, उर्दू, हिंदुस्तानी) और पूरब में बांग्ला (और अखमिया और ओड़िया) और दक्षिण में कई भाषाएँ विकसित हो रही थीं। इन भाषाओं में ज्ञान का प्रसार भी हो रहा था। इन सभी भाषाओं से अलग दक्षिण की भाषा तमिल संस्कृत से भी पुरानी है। इस भाषा में अपना काव्यशास्त्र, शास्त्रार्थ और औषध जैसे व्यावहारिक विषयों का ज्ञान-भंडार था। नई भाषाओं में शास्त्रीय रचनाओं को फिर से लिखा गया। कई भाषाओं में रामायण, महाभारत और उपनिषद लिखे गए। इसके पहले कि शास्त्रीय भाषाओं (संस्कृत, अरबी और फारसी) में इकट्ठे ज्ञान को पूरी तरह नई भाषाओं में रूपांतरित किया जाता, यूरोपी लोग प्रबोधन और आधुनिक खयालों और आधुनिक विज्ञान और तक्नोलोजी के साथ आ गए। जैसे जैसे ब्रिटिश शासन पंजे फैलाता चला और एक उन्नत मीमांसा का भय गहराता चला, धीरे-धीरे एक सर्वभारतीय चेतना का जन्म हुआ, जो पहले कभी नहीं थी।

यह सोचा जा सकता है कि उपनिवेश काल के पहले विज्ञान की जो निधि मौजूद थी, वह धीरे-धीरे अपने बंधनों को तोड़कर और आखिरकार लोगों तक उनकी अपनी भाषाओं में पहुँच जाती, पर कई लोगों के अकथ प्रायस के बावजूद ऐसा नहीं हुआ। उपनिवेश काल में भारतीय विज्ञान पर समीक्षाएँ अक्सर इस बात पर जोर देती हैं कि यूरोपी लोगों को आने के पहले यहाँ बौद्धिक शून्य नहीं था। यह सही है, पर इसका खास औचित्य नहीं रह जाता जब हम देखते हैं कि जो भी ज्ञान उपलब्ध था, वह सीमित लोगों के लिए खुले गुरुकुलों में प्रवेश पाने वालों के लिए ही था। जैसे जैसे ज्ञान विधाओं में केंद्रित होता रहा, न केवल जाति के आधार पर बहुसंख्यों को इससे वंचित रखा गया, लिंग आधारित भेदभाव पूरी तरह से लागू था। इसके बावजूद कि अतीत में मैत्रेयी, गार्गी और लीलावती जैसी कई स्त्री विद्वानों का जिक्र मिलता है, यह भेदभाव पूरी तरह से लागू था। अक्सर यह दावा किया जाता है कि उपनिवेशकाल से पहले भारत में प्रारंभिक स्तर की शिक्षा में निरपेक्ष प्रवेश था। जो आँकड़े मिलते हैं, उनसे यह दिखता है कि प्रारंभिक स्तर में विविधता अधिक थी, पर यह साफ नहीं है कि समाज इसकी अनुमति देता था या नहीं। मसलन, बंगाल में हिंदुओं के लिए पाठशालाएँ और मुसलमानों के लिए मदरसे थे। अध्यापकों (गाँव की शाला में आम तौर पर एक अध्यापक होता था) में और छात्रों में सामाजिक विविधता इस बात पर निर्भर थी कि वह पाठशाला है या मदरसा। यह सही है कि बच्चों में बहिष्कार इतना कठोर नहीं था, हालाँकि सबसे निचली जातियों, अतिशूद्र और शूद्रों का बहिष्कार था।

यही स्थिति कमोबेश देश के दूसरे प्रांतों में भी थी। प्रारंभिक शिक्षा में धर्मग्रंथों (मुसलमानो के लिए हदीस) में से काव्य रटने और पहाड़ा सीखने के अलावा कुछ खास नहीं था। उन्नीसवीं सदी के आखिर तक अधिकतर गाँव की शालाओं में कागज तक नहीं होता था। स्लेट भी कम ही होते थे और बच्चे रेत पर लकीरें खींच कर पढ़ते थे।

इसमें कोई शक नहीं है कि विज्ञान की जैसी संस्थाएँ आज हैं या जैसी उपनिवेश काल और उसके बाद के पिछले डेढ़ सौ साल में विकसित हुईं, ऐसी उपनिवेश काल के पहले नहीं थीं। उपनिवेश काल के पहले पेशे के साथ जुड़े जो सामाजिक समूह मौजूद थे, वे आधुनिक संस्थानों से बिल्कुल अलग थे। इसमें कोई अचंभे की बात नहीं है। इसे कोई विचारधारा की तरह भी नहीं लेना चाहिए। पश्चिमी मुल्कों में भी आधुनिक काल की शुरुआत से जो संस्थान बने हैं, उनमें और पहले के संस्थानों में बहुत फर्क है। भारत में, प्रारंभिक स्तर पर बर्तानवी शिक्षा लागू किए जाने के बाद विज्ञान में संस्थागत बढ़त होने लगी। आधुनिक संस्थानों की शुरुआत को एशियटिक सोसाएटी के गठन से माना जा सकता है। इसका उद्घाटन बंगाल में 1784 में हुआ, बाद में 1851 में यह अपने वर्तमान स्वरूप में गढ़ी गई। इसी की पहल से ग्रेट ट्रिगोनोमेट्रिक सर्वे ऑफ इंडिया (1802), जीओलोजिकल सर्वे ऑफ इंडिया (1851) और बोटानिकल सर्वे ऑफ इंडिया (1890) हुए। सन् 1857 में बंबई, कलकत्ता, मद्रास और 1858 में दिल्ली विश्वविद्यालय की नींव पड़ी और पंजाब (लाहौर) विश्वविद्यालय 1878 में वजूद में आया। इन सभी विश्वविद्यालयों में शुरुआत में विज्ञान की शिक्षा नहीं दी जाती थी।

ये संस्थान जब वजूद में आए तब ब्रिटिश प्रशासन कंपनी प्रशासित क्षेत्रों को साम्राज्य में औपचारिक रूप से शामिल कर आगे बढ़ रहा था। जहाँ पहले मिली जीतों में उनकी धूर्तता और सांगठनिक कौशल दिखलाई देते थे, अब उनके पास सैनिक ताकत और तक्नोलोजी भी अधिक होने से वे सचमुच अधिक ताकतवर हो चुके थे। 1857 के जनयुद्ध को जीतने के बाद उनकी संख्या भी बढ़ गई थी। दुनिया भर में आवागमन और सूचना का प्रसार तेजी से बढ़ रहा था। बेशक औपनिवेशिक प्रशासकों के लिए शिक्षा बेहतर तक्नोलोजी और सांगठनिक कौशल आदि जैसे ही एक और औजार थी और उसे प्रजा को गुलाम रखने के मकसद से ही जमाना था। पर तक्नोलोजी में हो रहे द्रुत बदलावों के मद्देनजर यह समझ बननी ही थी कि भारतीय उपमहाद्वीप जैसे विशाल भूखंड के प्रशासन के लिए विज्ञान और तक्नोलोजी में प्रशिक्षित बड़े कर्मीदल की जरूरत थी। विश्वविद्यालयों में पढ़ाने वाले लोग हमेशा औपनिवेशिक शासकों की बात मानें, यह जरूरी नहीं था। शिक्षा का स्वरूप ही ऐसा है कि जिस किसी भी स्तर पर यह मिले, इसमें अराजकता के बीज मौजूद रहते हैं, जो शासन की चाह मुताबिक प्रजा को फिट करने के उद्देश्य के बिल्कुल विपरीत ही काम करते हैं। औपनिवेशिक और साम्राज्यवादी शोषण ही नहीं, आधुनिकता की आलोचना के जरिए भी आधुनिक मूल्य यहाँ पहुँच रहे थे। गैर ब्रिटिश यूरोपी और अमेरिकी धर्मप्रचारक और अध्येता भी शोध और ज्ञान बढ़ाने के लिए उपमहाद्वीप में आ रहे थे। पूरब के प्रति रूढ़िवादी सोच रखने वालों के साथ ही अराजकतावादी भी आ रहे थे। कुछ तो यहीं की जमीन पर पैदा हुए थे। इनमें से हेनरी लुइस विवियन डेरोजियो था, जिसने मैकॉले के ब्रिटिश संसद में भारत में नई शिक्षा व्यवस्था पर दिए भाषण के पहले ही अपनी छोटी जिंदगी में ही (1809-31) बंगाल के बुद्धिजीवियों में तहलका मचा दिया था। जिन राज्यों में महाराजाओं का शासन था, जहाँ शिक्षा और दूसरे सामाजिक मसलों पर अंग्रेजों का प्रभाव नहीं के बराबर था, आधुनिक खयाल जोरों से आ रहे थे। उन्नीसवीं सदी के दूसरे दशक में आज के महाराष्ट्र में ईस्ट इंडिया कंपनी का प्रभाव बढ़ने के तुरंत बाद के सालों में ज्योतिबा और सावित्री फुले ने पुणे में लड़कियों के लिए अपना स्कूल खोला था। यह सब जानते हैं कि रूढ़िवादी ब्राह्मणों ने इसकी आलोचना हिंसक ढंग से की थी। उस समय तक देश के इस हिस्से में ब्रिटिश प्रभाव नहीं के बराबर था।

ब्रिटिश शासकों के साथ समझौता कर सामाजिक-राजनैतिक सत्ताक्रम में अपनी स्थिति और सुविधाओं को मजबूत करते हुए भी ब्राह्मणवादी संपन्नवर्गों ने अधुनिकता के मुक्तिकामी पक्षों की जम कर विरोधिता की। रूढ़िवादी ब्राह्मणों ने फुले पर यह आक्षेप लगाया था कि वह ईसाई धर्मप्रचारकों के हित में काम कर रहा है।

ऐसा माना जाता है कि उपनिवेश काल के पहले भारत में औषधियों और चिकित्सा का ज्ञान लोगों में आम था। उपनिवेश काल के पहले आयुर्वेद, यूनानी और दीगर चिकित्सा के तरीके भारत में मौजूद थे। उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में पश्चिम में चिकित्सा-विज्ञान काफी पिछड़ा हुआ था। पर यह समझना जरूरी है कि पिछड़ा होते हुए भी पश्चिमी चिकित्सा-विज्ञान आधुनिक विज्ञान की कठोर माँगों पर खरा उतरने की पूरी तैयारी में था। भारत के अपने चिकित्सा के तरीके या तो ठोस वैज्ञानिक स्वरूप खो चुके थे या उनमें यह कभी रहा ही नहीं। आधुनिक चिकित्सा आज भी देश के अधिकांश लोगों को नहीं मिल पाती है। आजादी के वक्त जब अधिकतर लोग पारंपरिक दवाएँ लेते थे, जीवन की औसत आयु 47 साल थी। आज यह 70 साल तक पहुँच गई है। यह आधुनिक चिकित्सा से ही संभव हुआ है। चरक और सुश्रूत जैसे महान संहिता रचयिताओं के बावजूद भारतीय समाज में वैद्यों को जाति व्यवस्था में निचला दरजा ही मिला। जब ब्राह्मण भी चिकित्सा के शोध का काम करते तो उन्हें अक्सर जाति से निकाल दिया जाता। ऐसा ही एक समुदाय गुप्तशर्मा कहलाया, जहाँ शर्मा ब्राह्मण और गुप्त गोपनीयता के लिए है।

भारत में पश्चिमी चिकित्सा का आगाज पुर्तगालियों ने कर दिया था। ईस्ट इंडिया कंपनी नें 1664 में मद्रास में पहला अस्पताल खोला। 1835 में मद्रास और कोलकोता में पहले दो मेडिकल कॉलेज खोले गए। पूरी 19वीं सदी के दौरान औपनिवेशिक संस्थानों में शोध को प्राथमिकता नहीं दी गई थी। शोध की माँग बढ़ती राष्ट्रवादी चेतना सा आई। राजा महेंद्रलाल सरकार ने, जो स्वयं प्रशिक्षित डॉक्टर थे, चंदा इकट्ठा कर कोलकाता में इंडियन असोसिएशन फॉर द कल्टिवेशन ऑफ साइंस (IACS) की नींव डाली। उन्नीसवीं सदी के आखिर तक कोई आधा दर्जन वैज्ञानिक संस्थाएँ काम कर रही थीं। इनमें एशियटिक सोसाएटी ऑफ बांबे (1804), कोलकाता की एग्रिकल्चरल ऐंड हॉर्टिकल्चरल सोसाएटी ऑफ इंडिया (1820) और बॉंबे नैचरल हिस्ट्री सोसाएटी (1883) शामिल हैं।

चिकित्सा के अलावा ज्योतिर्विज्ञान एक और क्षेत्र है, जिसमें प्राचीन भारत के मनीषियों की काबिलियत थी।

पर कुछेक काबिल लोगों को छोड़कर यह ज्ञान लोगों को ठगने वाली हस्तविद्या में डूब चुका था और आज तक वहीं है। सवाई मानसिंह का जंतर मंतर और दूसरे इलाकों जैसे केरल के विशेष शिक्षा केंद्रों में शोध का कोई खास काम नहीं हो रहा था। भिन्न विधाओं में संबंध खोते जा रहे थे। सच यह है कि यूरोप से ज्योतिर्विज्ञान-विशारद आकर खगोलीय घटनाओं का अवलोकन करते थे, जैसे 1868 में मद्रास राज्य (आज आंध्र प्रदेश) के गुंटूर में फ्रांसीसी ज्योतिर्विज्ञानी पिएर जेन्सेन ने अपने अवलोकनों के आधार पर सूरज में हीलियम की मौजूदगी ढूँढ़ निकाली। 1870 में मद्रास में पहली आधुनिक बेधशाला खोली गई, पर ज्योतिर्विज्ञान में शोध आरंभ होने में अभी कई साल और लगने थे। कंपनी ज्योतिर्विज्ञान, भूगोल और समुद्री या नदियों की जानकारी का फायदा उठाना चाहती थी। पर शोधकर्ताओं के (पहले यूरोपी और बाद में हिंदुस्तानी भी) अपने मकसद थे, जिनमें से कुछ तो निश्चित रूप से कंपनी के हितों से नहीं जुड़े थे और उनसे विज्ञान का विकास हो रहा था। हैदराबाद राज्य ने अपनी निजामिया बेधशाला 1908 में खोली, पर विडंबना यह थी कि शहर हैदराबाद की सीमाओं के बाहर ज्ञान तो क्या साक्षरता तक बहुत कम थी। हार्तोग के पूछने पर गांधी ने भी इस बात को माना था, पर उसने इसका दोष इस पर मढ़ा कि हैदराबाद का शासक मुसलमान था, जबकि सच यह है कि तेलंगाना और निजाम के अधीन और इलाकों में हिंदू जमींदार ही क्रूरता के साथ राज कर रहे थे।

नई संस्थाओं ने जमीं, मौसम, वनज और जंतुओं पर ज्ञान इकट्ठा किया - यह बौद्धिक खोज भी थी और साथ ही इसका फायदा औपनिवेशिक प्रशासकों को भी मिला कि वे संसाधनों का अधिक प्रभावी ढंग से शोषण कर सकें।

इतिहास से हटकर यह कहा जा सकता है कि औपनिवेशिक शासकों ने अगर कॉलेज विश्वविद्यालय नहीं भी खोले होते तो भी देर-सबेर उपमहाद्वीप में स्वाभाविक प्रक्रियाओं से ये आ ही जाते। आखिर पश्चिम में उनका स्वाभाविक विकास हुआ था। पर पश्चिम में उन्नीसवीं सदी के बहुत पहले ही उच्चशिक्षा संस्थान बन चुके थे, हमारे उपमहाद्वीप में कई सदियों तक कोई खास बदलाव इस दिशा में नहीं दिख रहा था। यह भूलना नहीं चाहिए कि उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में बंगाल के कई बुद्धिजीवी इस बात से परेशान थे कि ब्रिटिश शासक प्रबोधन के मुक्तिकामी खयालों को भारत में नहीं आने देंगे। डेरोजियो और उसे 'यंग बंगाल' से राजा राममोहन राय तक सबने भारतीय समाज को बदलने के लिए बेचैनी प्रकट की। कई उत्तरआधुनिक रचनाकारों ने राममोहन राय के प्रति नापसंदगी जाहिर की है, पर उनका क्वेकर ईसाई बनना और उसी आस्था के साथ इंग्लैंड के ब्रिस्टल शहर में आखिरी समय तक जीना यह साबित करता है कि वे उपनिवेशवादियों के साथ समझौता करने वाले नहीं थे। डेरोजियो आक्रोश भरा नाजुकमिजाज युवा था और वह इतनी जल्दी गुजर गया कि उसके अराजक विचारों के प्रति शक की कोई गुंजाइश नहीं बचती।

कंपनी शासित इलाकों में शुरुआती दौर में हिंदू समाज के ऊँची जाति के परेशान सुधारकों ने ही सरकार की मदद लिए बिना ही संस्थान खोले। कोलकाता का हिंदू कॉलेज इनमें से एक था। इस कॉलेज में शुरू में पाठचर्या में रूसो और वोल्टेयर के लेख पढ़ाए जाते थे, पर उन्नीसवीं सदी के बीच तक इतिहास, भूगोल, ज्योतिर्विज्ञान, रसायन और अन्य विज्ञान विषय पढ़ाए जाने लगे। कॉलेज के प्रबंधक कोलकाता के भद्रलोक वर्ग से थे। ये खुले आम भेदभाव करते थे और इन्हें डेरोजियो के उग्र खयाल पसंद नहीं थे। परंपरावादियों को प्राचीन संस्कारों को सिखाने की पड़ी थी और इसी खयाल से 1824 में संस्कृत कॉलेज की स्थापना हुई। राजा राममोहन राय और उनके साथियों को यह वैज्ञानिक सोच के खिलाफ लगा। आमतौर पर ब्राह्मणवादी व्यवस्था को छोड़ा नहीं गया। अधिकतर संस्थानों में आधुनिक विज्ञान के अलावा संस्कृत और शास्त्रों की पढ़ाई चलती रही।

दिल्ली कॉलेज और उर्दू में आधुनिक ज्ञान :

इस संदर्भ में दिल्ली कॉलेज का उल्लेख रोचक है। 1692 में गाजीउद्दीन खान द्वारा प्रतिष्ठित (आज जाकिर हुसैन दिल्ली कॉलेज कहलाते) इस संस्थान में पढ़ाई उर्दू-फारसी में होती थी। यहाँ काम कर रहे विद्वानों ने सौ से भी अधिक पश्चिमी किताबों का उर्दू में अनुवाद किया। पर दिल्ली और आसपास के इलाकों में आम बोले जाने वाली उर्दू जुबान जाग रहे हिंदू राष्ट्रवादियों को स्वीकार नहीं थी। ओरिएंटल यानी प्राच्य अध्ययन विभाग के विद्वानों की कड़ी मेहनत से तैयार की गई ये सारी किताबें बेकार हो गईं। उर्दू में काम करने वाले इन राष्ट्रवादियों में मास्टर रामचंदर जैसे कई हिंदू विद्वान भी थे। रामचंदर ने डिफरेंशल कैलकुलस की समकालीन यूरोपी किताब का अनुवाद किया था। चूँकि उन लोगों के काम में तत्कालीन हिंदू समाज में प्रचलित अंधविश्वासों की आलोचना भी होती थी, इसलिए उन्हें खारिज कर दिया गया। यह गौर करने की बात है कि 1858 तक दिल्ली और उत्तरी इलाकों पर अंग्रेजों का सांस्कृतिक प्रभाव बहुत ही कम था।

उन्नीसवीं सदी के अंत तक कई (दस-बीस) स्कूल कॉलेज देश के विभिन्न इलाकों में खुल गए। इसके समांतर संपन्न हिंदुओं में अतीत के गौरव को ढूँढ़ने की प्रवृत्ति भी बढ़ती रही। जैसे जैसे ब्रिटिश प्रशासन के खिलाफ सर्वभारतीय चेतना फैलती रही, ऊँची जाति के लोगों में ब्राह्मणवादी संस्कार बढ़ते चले। बौद्धिकों के कुछ हिस्सों में जाति की कुप्रथा के खिलाफ वेदांतिक आंदोलन भी बढ़ रहा था। इसी से बंगाल में ब्राह्मो समाज और उत्तर में आर्य समाज बना। इनमें से बराबरी पर ज्यादा जोर देने वाला ब्राह्मो समाज जल्दी ही कमजोर पड़ गया, आर्य समाज आज भी मुख्यतः ब्राह्मणवादी संस्कारों के साथ मौजूद है। इसका एक छोटा हिस्सा आज भी बराबरी आधारित समाज के लिए संघर्ष करता है। वेदांतिक आंदोलन में अलग-अलग विचार आए, जिनमें विवेकानंद, ऑरोविंदो आदि अलग रंगों के व्यक्तित्व प्रमुख हैं।

यह संभव है कि जो पश्चिमी या आधुनिक खयालों का विरोध कर रहे थे, उन्हें आधुनिक विज्ञान भी औपनिवेशिक औजार दिखा होगा, पर जहाँ तक उस समय के लिए उचित शिक्षा का सवाल है, उनके पास कोई सार्थक विकल्प नहीं था। औपनिवेशिक शिक्षा-व्यवस्था की शुरुआत विज्ञान के बिना ही हुई, पर कुछ दशकों में ही कॉलेज विश्वविद्यालयों में विज्ञान पढ़ाया जा रहा था। शुरुआत के पचास सालों बाद में ही इन विश्वविद्यालयों में भारतीय प्रोफेसर आ गए थे, और अध्यापन और शोध जोश के साथ चल पड़ा था। बीसवीं सदी की शुरुआत में कोलकाता में दुनिया का श्रेष्ठ वैज्ञानिक शोध किया जा रहा था। इनमें रसायनविद प्रफुल्ल चंद्र राय, भौतिकी और वनस्पतिशास्त्र के विद्वान जगदीश चंद्र बोस और कुछ समय बाद सत्येंद्र नाथ बोस, मेघनाद साहा और चंद्रशेखर वेंकट रमन और कृष्णन जैसे दिग्गज थे। रमन IACS में काम करते थे और उसी काम पर उन्हें नोबेल पुरस्कार मिला था। ये सभी राष्ट्रवादी वैज्ञानिक थे और इनका राष्ट्रवादी क्रांतिकारियों के साथ संबंध था। इनमें से कई विज्ञान के लोकतांत्रीकरण के लिए काम कर रहे थे। उनके काम से लोगों में वैज्ञानिक चेतना फैलने में मदद जरूर मिली। रुचि राम साहनी जैसे कई लाहौर और कोलकाता में वैज्ञानिक चेतना के प्रसार के लिए काम कर रहे थे और कई साइंस क्लब बने। दुख की बात यह है कि इस प्रक्रिया में शामिल लोग अधिकतर ऊँची जातियों से ही थे और निचली जातियों को दरकिनार ही रखा गया था। शहरों की सीमाओं के पार शिक्षा हमेशा जैसी पिछड़ी हुई थी। जैसे जैसे संपन्न वर्गों में यह समझ बढ़ी कि उन्हें अपने संसाधनों को कहीं और निवेश करने में फायदा है, गाँव की शालाओं और उनके अध्यापकों को मिलता सहयोग खत्म होता गया। इससे गाँवों में शिक्षा खत्म होती चली। उत्तरआधुनिक आलोचक इसे औपनिवेशिक शासन का ही बुरा प्रभाव मानते हैं, पर सच यह है कि साम्राज्यवादी साँचे में पनपता पूँजीवाद सामंती संपन्न वर्गों को आकर्षित कर रहा था और पहले से मौजूद संवेदनहीनता और ज्यादा बढ़ती रही।

इस प्रसंग में ज्योतिबा और सावित्री फुले और उनकी सत्य शोधक सभा का काम महत्वपूर्ण दिखता है। दलितों के लिए खुल रहे नए रास्तों में से ही बीसवीं सदी का महान व्यक्तित्व आंबेडकर निकला था। आम पीड़ाओं और अवमाननाओं के बावजूद उसने सफलता प्राप्त की और बंबई के एल्फिंस्टन कॉलेज में दाखिला लेने वाला अपने समय का वह अकेला दलित युवा था। यह इसके बावजूद हुआ कि औपनिवेशिक शासकों ने यह समझौता तय किया था कि वे मौजूद सामाजिक रीतियों का विरोध नहीं करेंगे। इस मान्यता से हटकर कुछ होने की वजह कुछ तो प्रबोधन का प्रभाव और कुछ सुधारवादी आंदोलन थे।

उत्तर में जहाँ संपन्न मुसलमानों ने शायरी, कला और नाजुक इल्मों का माहौल बनाए रखा था, उनके अभिजात जनों ने औपनिवेशिक सत्ता के गलियारों में खुलते दरवाजों का फायदा उठाने में ढील दिखलाई, जबकि ऊँची जाति के हिंदुओं ने इसमें तेजी से हिस्सा लिया। बंगाल में ज्यादातर मुसलमान निचली जातियों से धर्म बदलकर आए थे और वे ज्यादातर किसान थे। नवाबों के पतन के बाद छोटे से संपन्न मुस्लिम वर्ग के पास ताकत न रह गई थी। ब्राह्मणों, वैद्यों और कायस्थों ने शहर के स्कूलों और कॉलेजों का अच्छा फायदा उठाया। ब्राह्मणवादी वर्चस्व गहरा जमा था और बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय जैसे हिंदू लेखकों की पहल से, जो ब्रिटिश प्रशासन में कार्यरत था, बांग्ला भाषा का शुद्धीकरण (संस्कृतीकरण) शुरू हुआ। यह इतनी दूर तक चला कि बाद में रवींद्रनाथ ठाकुर को इस प्रक्रिया को पलट कर काफी हद तक भाषा को सरल बनाना पड़ा।

बंकिम चंद्र के 'आनंदमठ' (1882)' से मुसलमान बुद्धिजीवी नाराज हो गए और इस उपन्यास ने सांप्रदायिक भेद के बीज बोए जिसका अंग्रेजों ने पूरा फायदा उठाया। यह समझना जरूरी है कि बंकिम चंद्र के लेखन काल तक ब्रिटिश शिक्षा व्यवस्था की जड़ें जमी नहीं थी।

आधुनिक ज्ञान की और विधाओं की तरह विज्ञान की ओर भी मुसलमानों की तुलना में ऊँची जाति के हिंदू अधिक आकर्षित हुए। उन्नीसवीं सदी के आखिरी सालों में बंगाल में स्थिति काफी खराब थी। कॉलेज से बीए की डिग्री लेने वालों में हिंदुओं की संख्या मुसलमानों की 25 गुना थी। उत्तरी और पश्चिमी प्रांतों में स्थिति अलग थी और मुसलमान अधिक ग्रैजुएट कर रहे थे।

सन् 1858 के बाद भारत के आम लोगों तक विज्ञान ले जाने की कई गंभीर कोशिशें हुई थीं। 1864 में सर सैयद अहमद ने दिल्ली कॉलेज की तर्ज पर अलीगढ़ साइंटिफिक सोसाएटी की स्थापना की। यह संस्था भी अंग्रेजी किताबों का उर्दू अनुवाद कर रही थी। सैयद अहमद भी बंकिम चंद्र की तरह सरकारी नौकर था, पर उसने ज्ञान के लोकतंत्रीकरण के लिए काम किया। उसने खुद धार्मिक किताबें और ब्रिटिश प्रशासन की आलोचना करती किताबें लिखीं। शिक्षा में उसकी गंभीर रुचि थी और उसने मुरादाबाद और गाजीपुर में स्कूल खोले। अलीगढ़ साइंटिफिक सोसाएटी ने उर्दू और अंग्रेजी में एक द्विभाषी पत्रिका भी निकाली। सर सैयद ने वैज्ञानिक और तकनीकी शिक्षा पर जोर डाला और उसे भारत में आधुनिक विज्ञान शिक्षा के क्षेत्र में अग्रणी माना जाना चाहिए। कई उसे क्रांतिकारी मानते हैं जिसने भारतीयों को आधुनिक विज्ञान से वंचित रखने के औपनिवेशिक शासकों के षड्यंत्र के खिलाफ काम किया। उसके अपने शब्दों में उसने "युगों तक मुल्क की तरक्की को रोकते अज्ञान की रात और अँधेरे को हटाकर सभ्यता की भोर" के लिए वह संस्था बनाई। इस कथन में 'युगों से' पर गौर करना चाहिए। एक ओर तो वह अंग्रेजी शिक्षा के खिलाफ काम कर रहा था, वहीं दूसरी ओर वह यह समझौता भी कर रहा था कि आम भारतीयों को आधुनिक यूरोपी ज्ञान मिले। विज्ञान संबंधी विषयों पर आम व्याख्यानों के आयोजन के अलावा, सोसायटी ने भूगोल, मौसम, विज्ञान, बिजली, अल्जबरा, ज्यामिति, कैलकुलस, जल प्रवाह और खेती-बाड़ी जैसे समकालीन विषयों पर ढेर सारी किताबें प्रकाशित कीं। सर सैयद को गहरा विश्वास था कि 'यूरोपी विज्ञान' उर्दू और दूसरी भारतीय भाषाओं में पढ़ा जा सकता है।

लाहौर, कोलकाता और दूसरे शहरों से ही ऐसी ही और संस्थाएँ काम कर रही थीं। जाहिर है कि अलीगढ़ साइंटिफिक सोसाएटी और बिहार साइंटिफिक सोसाएटी जैसी यह संस्थाएँ भारतीय समाज को बुनियादी तौर पर बदलने की कोशिश कर रही थीं। आज आम बन चुका मुहावरा वैज्ञानिक सोच ही इन संस्थाओं का लक्ष्य था। रूढ़िवादी समाज का कोप इन पर पड़ा, पर ये अपना काम करती रहीं। बदकिस्मती से अधिकतर हिंदू राष्ट्रवादी उर्दू भाषा को शिक्षा का माध्यम मानने को तैयार नहीं थे और आधुनिक हिंदी अभी अपने शैशव में ही थी। इस वजह से उत्तर भारत में स्थानीय भाषाओं में शिक्षा आगे नहीं बढ़ पाई। बांग्ला में आधुनिक मुहावरा रचा जा चुका था, पर चूँकि बंकिमचंद्र और सहयोगियों की कोशिश से बड़े पैमाने पर संस्कृतीकरण हुआ था और निचली जातियों और मुसलमानों को अलग थलग रखा गया था, विज्ञान शिक्षा संपन्न वर्गों तक ही सीमित रह गई थी।

कोलकाता में 1855 में चिकित्सा की डिग्री पाने के बाद डा. महेंद्रलाल सरकार ने आधुनिक विज्ञान के शोध के लिए संस्था बनाने की मुहिम छेड़ी। कोलकाता जर्नल ऑफ मेडिसिन के अगस्त 1869 के अंक में उसने एक आलेख लिखा, जिसका शीर्षक था, 'भारतवासियों द्वारा विज्ञान के विकास के लिए राष्ट्रीय संस्थान बनाने की जरूरत'। इसमें उसने लिखा, "हमें ऐसा संस्थान चाहिए जो रॉयल सोसाएटी ऑफ लंदन और ब्रिटिश असोसिएशन फॉर द अडवांसमेंट ऑफ साइंस के कार्यजगत और उद्देश्यों को अपना सके। ...जो आम लोगों की पढ़ाई के लिए होगा और हमारी इच्छा है कि उस संस्थान का प्रबंधन और नियंत्रण पूरी तरह भारतवासियों के हाथ हो।" 1876 में उसने इंडियन असोसिएशन फॉर द कल्टिवेशन ऑफ शाइंस (IACS) की नींव डाली। सरकार ने भारतीय महाराजाओं और दानवीरों से धन इकट्ठा किया। इस संस्थान में प्रफुल्ल चंद्र राय और जगदीश चंद्र बोस जैसे प्रसिद्ध वैज्ञानिकों के व्याख्यान आयोजित किए गए। यहीं सर सी वी रमन और उसके छात्र कृष्णन ने वह खोज की जिसे 'रमन इफेक्ट' नाम से जाना गया और जिस पर उसे नोबेल पुरस्कार मिला।

अलीगढ़ और बिहार साइंटिफिक सोसाएटी की तरह ही हिंदू रूढ़िवादियों ने यह कहकर कि संस्था पारंपरिक हिंदू सीखों के खिलाफ है, IACS का भी विरोध किया। विरोधियों में ऐसे भी लोग थे जिनका मानना था कि अमूर्त विज्ञान आधुनिक तक्नोलोजी में पिछड़े हुए भारत जैसे देश के लिए बेकार था।

सर सैयद जैसों की तरह ही, सरकार और IACS का इतिहास भी यही दिखलाता है कि विज्ञान की शिक्षा और शोध को बढ़ावा देने में एक ओर तो अग्रेज शासकों के साथ संघर्ष चल रहा है, वहीं दूसरी ओर यह समझौता भी था कि भारत में यूरोपी आधुनिकता आ सके। इसमें कोई शक नहीं है कि विज्ञान शिक्षा को आधुनिक बनाने में राष्ट्रवादी गौरव था और बीसवीं सदी के राष्ट्रीय आजादी के आंदोलन में, जो बाद में पूरी तरह उपनिवेश विरोधी संघर्ष बन गया, इसके अवदान को हमें समझना चाहिए, पर इन कोशिशों में सुधारवाद के मुख्य प्रयास को हम झुठला नहीं सकते। ये सुधारक समाज में पिछड़ेपन और गैरबराबरी को लेकर अधिक परेशान थे और वे इसे हमारी यूरोपियों की गुलामी का कारण मानते थे, न कि पिछड़ेपन और गैरबराबरी का कारण अंग्रेजी शासन को। एक ब्रिटिश व्यक्ति के द्वारा बनाई भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने 1887 में अपने तीसरे सत्र में तकनीकी शिक्षा का सवाल उठाया और बाद में हर साल इस पर प्रस्ताव पारित किए। 1893 में पारित प्रस्ताव में सरकार से माँग रखी कि "भारत में वैज्ञानिक चिकित्सा के पेशे को बढ़ाया जाए और इसके लिए ...खास तौर पर देशी मेधावी छात्रों के लिए चिकित्सा और विज्ञान पर शोध के कार्य को उपलब्ध करवाया जाए।"

इन दिनों भारत की सबसे प्रतिष्ठित विज्ञान अध्ययन और शोध संस्था, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस, बेंगलूर, की नींव में भी संघर्ष और समझौते की अद्भुत कहानी है। देश में विज्ञान और नेतृत्व की काबिलियत बढ़ाने पर विवेकानंद की बातों से प्रेरित होकर जमशेदजी टाटा ने इस संस्था को बनाने का बीड़ा उठाया था।

उनकी बनाई समिति के आग्रह पर अंग्रेज वायसराय ने नोबेल विजेता विलियम रैमसे को इसमें जोड़ा। 1911 में मैसूर के महाराजा ने नींव डाली और यूरोपी प्रोफेसरों की निगरानी में संस्थान में काम शुरू हुआ। बाद में सी वी रमन इसके पहले भारतीय निर्देशक बने।

एक ओर संपन्न वर्ग नई शिक्षा को सत्ता और सम्मान के लिए अपनाता जा रहा था, दूसरी ओर औपनिवेशिक शासकों में हिंदुस्तानियों के प्रति नस्लवादी रवैया बढ़ता जा रहा था। इसका स्वरूप सरासर नफरत और दया के भाव के बीच अलग रूपों में दिखता था, जैसे कि रुडयार्ड किपलिंग के कथन 'गोरों का बोझ' से पता चलता है।

विज्ञान को लोकप्रिय बनाने की कोशिशों का बावजूद भारतीय छात्रों तक विज्ञान महज तथ्यों की जानकारी की तरह ही पहुँच रहा था और इसके प्रत्यक्षता या तर्कशीलता पीछे छूट गई थी। पश्चिमी मुल्कों से अलग यहाँ विज्ञान का सीखना और अध्यापन बेजान प्रशिक्षण बन कर रह गया, और वह बौद्धिक और सामाजिक बदलाव का औजार नहीं बन पाया।

भाषा का सवाल :

भाषा का सवाल काफी जटिल है। डार्विन के विकासवाद के सिद्धांत जैसे कुछेक विषयों का फारसी में अनुवाद किया गया था और कहा जाता है कि इस पर पंडितों ने संस्कृत में बहस भी की थी, पर आधुनिक भारतीय भाषाओं में आधुनिक विज्ञान पढ़ाने की कोशिश नहीं की जा रही थी। जाहिर है कि यूरोपी लोगों, औपनिवेशिक प्रशासकों या उदार दानवीरों के लिए विज्ञान पढ़ाने का आसान तरीका अंग्रेजी के जरिए ही था। प्रशासकों में ऐसे लोग थे जो मानते थे कि विज्ञान के जरिए स्थानीय लोगों को पता चल जाएगा कि यूरोपी नस्लें उनसे श्रेष्ठ हैं। साथ ही ऐसे लोग भी थे जो बस ज्ञान के प्रसार के लिए काम कर रहे थे। भारतीय भाषाओं में आधुनिक धारणाओं के लिए सही शब्दावली नहीं होने से स्थिति और बिगड़ी। इसलिए उपनिवेश काल में विज्ञान अंग्रेजी में ही पढ़ाया जाता था और अधिकतर कालेजों में ही पढ़ाया जाता था। आजादी के बाद जिस तरह पुरानी सभ्यताओं का दावा करते चीन जापान जैसे दूसरे मुल्कों में हुआ कि अपनी भाषा में संपूर्ण वैज्ञानिक ज्ञान तैयार किया जाए, ऐसा यहाँ नहीं हुआ। हालाँकि नए शासकों में यह अहसास तीखा था कि उद्योगों में तरक्की के लिए तुरंत कदम लिए जाने चाहिए और वैज्ञानिक और तकनीकी कर्मियों की संख्या बढ़ाने पर खूब जोर दिया जा रहा था, पर हिंदी जैसी भाषाओं में भौतिकी, रसायन या जीवविज्ञान जैसे विज्ञान के बुनियादी विषयों में उच्च शिक्षा के लिए उम्दा किताबें नहीं थीं। जब ये किताबें छप कर आईं तो वे कृत्रिम और जटिल संस्कृत शब्दावली में लिखी गई थीं। तकनीकी शब्दावली के लिए कृत्रिम संस्कृत शब्दावली थोपने की प्रवृत्ति बढ़ी। इससे ऐसी प्रहसन लायक स्थिति पैदा हो गई कि भारतीय भाषाओं में विज्ञान भारत के बच्चों के खिलाफ षड्यंत्र सा लगता है। इसकी वजह से नव-पूँजीवादियों द्वारा अंग्रेजी थोपना आसान हो गया है। चूँकि अंग्रेजी माध्यम में शिक्षा पहले निजी स्कूलों में ही दी जाती थी, इसलिए शिक्षा के निजीकरण में तेजी में भी कोई आश्चर्य नहीं है।

उपसंहार

उपनिवेश काल में विज्ञान शिक्षा पर उपलब्ध समीक्षाएँ भ्रामक हैं। कुछ समीक्षक दावा करते हैं कि इस शिक्षा की कोई जरूरत ही नहीं थी क्योंकि हमारी अपनी ज्ञान-मीमांसाएँ थीं। दूसरे कहते हैं कि भारत में आधुनिक विज्ञान के विकास में यूरोपियों का कोई प्रभाव नहीं है, यह उन राष्ट्रवादियों की कोशिशों से हुआ जो भारत को आधुनिक राष्ट्र में बदलना चाहते थे। निरपेक्ष होकर सोचा जाए तो ये दोनों दावे सरलीकरण लगते हैं। बदकिस्मती से हमारे वक्त में ऐसे अंध राष्ट्रवादी मौजूद हैं जो मानते हैं कि प्राचीन भारतीय चिंतन में आधुनिक विज्ञान मौजूद था। देश के सबसे उम्दा माने जाने वाले मेडिकल कॉलेज में एक औपचारिक अनुष्ठान में प्रधानमंत्री ने दावा किया कि प्लास्टिक सर्जरी में हुई तरक्की भारतीयों को हमेशा ही पता थी और इसी के बल पर गणेश देवता की छवि बनी है। आज के भारत की अधिकतर समस्याओं की जड़ औपनिवेशिक शासन में ढूँढ़ने की सरलीकृत कोशिशों से ही ऐसे अंधविश्वास पनपते हैं। ज्यादातर समझदार व्याख्या यह होगी कि हम उपनिवेश काल के पहले के भारतीय समाजों में मौजूद विसंगतियों को नकारें नहीं और इस बात को मानें कि कई मुक्तिकामी खयाल यूरोपी चिंतकों से भी हमें मिले या हम उनसे प्रेरित हुए। आजादी के सत्तर साल बाद हम इस बात को मानें कि आज की बदहाली के लिए अकेले उपनिवेशवादी शोषण पर ही सारी जिम्मेदारी नहीं डाली जा सकती, वैसे भी उसका प्रभाव देश के अधिकतर हिस्सों पर सौ साल से ज्यादा नहीं था।

सच यह है कि भ्रष्ट भारतीय नेतृत्व को, जिसमें सामंती सोच वाली विश्व-दृष्टि अपनाते बौद्धिक भी शामिल हैं, ही आज की बदहाली के लिए जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए। अगर हम विज्ञान अकादमियों पर ही सरसरी तौर पर नजर डालें तो यह बात साफ दिख जाती है। गैरबराबरी और शोषण के अनगिनत ढाँचों वाले इस देश में विज्ञान अकादमियों से अपेक्षा की जाती है कि बदलाव की प्रक्रियाओं का पुरजोर नेतृत्व उनसे मिले। उल्टे, ज्यादातर भारतीय वैज्ञानिक गैरबराबरी को खत्म करने के लिए उठाए कदमों के खिलाफ हैं। इन अकादमियों ने अपने सदस्यों में जाति या लिंग आधारित विषमता पर कभी कुछ नहीं कहा है। इन अकादमियों के कई सदस्य प्राचीन पोथियों के जटिल संस्कृत पाठों की मदद से ऊलजलूल खयालों को प्रतिष्ठित करने में ही अपना समय लगाते हैं ताकि यह सिद्ध किया जा सके कि अतीत के सभी महत्वपूर्ण विचार भारत से ही आए थे।

राष्ट्रवादी टिप्पणियों की यह दुखद सच्चाई है कि ये यूरोकेंद्रिता को एक और संकीर्णता से काटना चाहती हैं।

न केवल आज की समस्याएँ भौगोलिक रूप से वैश्विक हैं, वे इस अर्थ में भी वैश्विक हैं कि सारी मानवता आज विनाश के कगार पर है। हम धरती पर स्थायी जीवन के लिए जरूरी कई सीमाओं को पार कर चुके हैं या पार करने वाले हैं। वक्त आ गया है कि हम इस बात को समझें कि इनसान का दिमाग हर जगह एक सा काबिल है कि वह बराबरी पर आधारिक संतुलित जीवन के नए खयालात पैदा करे और उतना ही काबिल है कि वह गैरबराबरी और विनाश की ओर ले जाए। हमारे चारों ओर अत्याचार है परंपराओं की खामियों के हल इतिहास को तोड़ मरोड़ कर नहीं मिलने वाले हैं। यह बात किसी भी इनसानी फितरत जैसी ही शिक्षा पर भी एक सी लागू होती है। वक्त आ गया है कि हम छात्रों में रुचि पैदी करती प्रभावी विज्ञान शिक्षा को आगे बढ़ाने वाले बदलाव की ताकतों को मजबूत करें। परंपरा ने हमें रटना सिखाया है - यह विज्ञान सीखने या करने का तरीका नहीं है। हालाँकि कम से कम सुविधासंपन्न बच्चों के लिए पढ़ाने के तरीके में बदलाव आ रहे हैं, पर साथ ही विज्ञान शिक्षा को ज्ञान की और विधाओं से अलग करने की कोशिशें भी बढ़ी हैं। स्कूल में विज्ञान पढ़ना इंजीनियरिंग (अधिकतर आई टी) की नौकरी या डाक्टरी पढ़ने का माध्यम बन गया है। इससे इनसान महज मशीनी पुर्जा बनते जा रहा है। ये प्रक्रियाएँ वैश्विक नवसाम्राज्यवादी पूँजीवाद के साथ राष्ट्रीय बिचौलियों की जमात के समझौतों के साथ जुड़ी हैं। ये बातें गौरतलब हैं और ये हमें समाज की उन खामियों की ओर देखने को मजबूर करती हैं जो एक सदी के उपनिवेश काल से सदियों पहले से मौजूद हैं।

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