नाता-रिश्ता
(1)
तुम सतत चिरन्तन छिने जाते हुए
क्षण का सुख हो-
(इसी में उस सुख की अलौकिकता है) :
भाषा की पकड़ में से फिसलती जाती हुई
भावना का अर्थ-
(वही तो अर्थ सनातन है) :
वह सोने की कनी जो उस अंजलि-भर रेत में थी जो
धो कर अलग करने में-
मुट्ठियों से फिसल कर नदी में बह गयी-
(उसी अकाल, अकूल नदी में जिस में से फिर
अंजिल भरेगी और फिर सोने की कनी फिसल कर बह जाएगी।)
तुम सदा से वह गान हो जिस की ठेक-भर गाने से रह गयी।
मेरी वह फूस की मड़िया जिस का छप्पर तो
हवा के झोंकों के लिए रह गया
पर दीवारें सब बेमौसम की वर्षा में बह गयीं...
यही सब हमारा नाता-रिश्ता है-इसी में मैं हूँ
और तुम हो : और इतनी कही बात है जो बार-बार कही गयी
और हर बार कही जाने में कही जाने से रह गयी।
(2)
तो यों, इस लिए
यहीं अकेले में
बिना शब्दों के
मेरे इस हठी गीत को जागने दो, गूँजने दो
मौन में लय हो जाने दो :
यहीं जहाँ कोई देखता-सुनता नहीं
केवल मरु का रेत-लदा झोंका
डँसता है और फिर एक किरकिरी
हँसी हँसता बढ़ जाता है-
यहीं जहाँ रवि तपता है
और अपनी ही तपन से जनी धूल-कनी की
यवनिका में झपता है-
यहाँ जहाँ सब कुछ दीखता है
पर सब रंग सोख लिये गये हैं
इस लिए हर कोई सीखता है कि
सब कुछ अन्धा है।
जहाँ सब कुछ साँय-साँय गूँजता है
और निरे शोर में संयत स्वर धोखे से
लड़खड़ा कर झड़ जाता है।
(3)
यहीं, यहीं और अभी
इस सधे सन्धि-क्षण में
इस नये जनमे, नये जागे,
अपूर्व, अद्वितीय-अभागे
मेरे पुण्यगीत को अपने
अन्तःशून्य में ही तन्मय हो जाने दो-
यों अपने को पाने दो!
(4)
वहीं, वैसे ही अपने को पा ले, नहीं तो
और मैं ने कब, कहाँ तुम्हें पाया है?
हाँ-बातों के बीच की चुप्पियों में
हँसी में उलझ कर अनसुनी हो गयी आहों में
भीड़ों में भटकी हुई अनाथ आँखों में
तीर्थों की पगडंडियों में
बरसों पहले गुज़रे हुए यात्रियों की
दाल-बाटी की बची-बुझी राखों में!
(5)
उस राख का पाथेय ले कर मैं चलता हूँ-
उस मौन की भाषा में मैं गाता हूँ :
उस अलक्षित, अपरिमेय निमिष में
मैं तुम्हारे पास जाता हूँ, पर
मैं, जो होने में ही अपने को छलता हूँ-
यों अपने अस्तित्व में तुम्हें पाता हूँ!
1965
जो रचा नहीं
दिया सो दिया
उस का गर्व क्या, उसे याद भी फिर किया नहीं।
पर अब क्या करूँ कि पास और कुछ बचा नहीं
सिवा बस दर्द के
जो मुझ से बड़ा है-इतना बड़ा है कि पचा नहीं-
बल्कि मुझ से अँचा नहीं-इसे कहाँ धरूँ
जिसे देनेवाला भी मैं कौन हूँ
क्यों कि वह तो एक सच है
जिसे मैं तो क्या रचता-जो मुझी में अभी पूरा रचा नहीं।
नयी दिल्ली
जनवरी, 1965
अंगार
एक दिन रुक जाएगी जो लय
उसे अब और क्या सुनना!
व्यतिक्रम ही नियम हो तो
उस की आग में से
बार-बार, बार-बार
मुझे अपने फूल हैं चुनना।
चिता मेरी है : दुःख मेरा नहीं।
तुम्हारा भी बने क्यों, जिसे मैं ने किया है प्यार
तुम कहीं रोना नहीं, मत
कभी सिर धुनना।
टूटता है जो उसे भी, हाँ, कहो संसार
पर जो टूट को भी टेक दे, ले धार, सहार
उस अनन्त, उदार को कैसे सकोगे भूल-
उसे, जिस को वह चिता की आग है,
होगी, हुताशन-जिसे कुछ भी, कभी,
कुछ से नहीं सकता मार-वही लो,
वही रक्खो साज-सँवार-वह, कभी न बुझने वाला
प्यार का अंगार।
नयी दिल्ली
मार्च, 1965 (फाल्गुन शुक्ला सप्तमी, सं. 2022)
युद्ध-विराम
नहीं, अभी कुछ नहीं बदला है।
अब भी ये रौंदे हुए खेत
हमारी अवरुद्ध जिजीविषा के सहमे हुए साक्षी हैं;
अब भी ये दलदल में फँसी हुई मौत की मशीनें
उन के अमानवी लोभ के कुंठित, अशमित प्रेत :
अब भी हमारे देवदारु-वनों की छाँहों में
पहाड़ी खोहों में चट्टानों की ओट में
वनैली खूँखार आँखें घात में बैठी हैं :
अब भी दूर अध-दिखती ऊँचाइयों पर
जमें हैं गिद्ध प्रतीक्षा के बोझ से
गरदनें झुकाये हुए।
नहीं, अभी कुछ नहीं बदला है :
इन अनोखी रंगशाला में
नाटक का अन्तराल मानो
समय है सिनेमा का :
कितनी रील?
कितनी क़िस्तें?
कितनी मोहलत?
कितनी देर जलते गाँवों की चिरायँध के बदले
तम्बाकू के धुएँ का सहारा?
कितनी देर चाय और वाह-वाही की
चिकनी सहलाहट में रुकेगा कारवाँ हमारा?
नहीं, अभी कुछ नहीं बदला है :
हिम-चोटियों पर छाये हुए बादल केवल परदा हैं-
विराम है, पर वहाँ राम नहीं है :
सिंचाई की नहरों के टूटे हुए कगारों पर
बाँस की टट्टियाँ, धोखे की हैं :
भूख को मिटाने के मानवी दायित्व का स्वीकार नहीं,
मिटाने की भूख की लोलुप फुफकार ही उन के पार है।
बन्दूक के कुन्दे से हल के हत्थे की छुअन
हमें अब भी अधिक चिकनी लगती,
संगीन की धार से हल के फाल की चमक
अब भी अधिक शीतल,
और हम मान लेते कि उधर भी
मानव मानव था और है,
उधर भी बच्चे किलकते और नारियाँ दुलराती हैं,
उधर भी मेहनत की सूखी रोटी की बरकत
लूट की बोरियों से अधिक है-
पर अभी कुछ नहीं बदला है
क्यों कि उधर का निज़ाम
अभी उधर के किसान को नहीं देता
आज़ादी आत्मनिर्णय
आराम ईमानदारी का अधिकार!
नहीं, अभी कुछ नहीं बदला है :
कुछ नहीं रुका है।
अब भी हमारी धरती पर
बैर की जलती पगडंडियाँ दिख जाती हैं,
अब भी हमारे आकाश पर
धुएँ की रेखाएँ अन्धी
चुनौती लिख जाती हैं :
अभी कुछ नहीं चुका है।
देश के जन-जन का
यह स्नेह और विश्वास
जो हमें बताता है
कि हम भारत के लाल हैं-
वही हमें यह भी याद दिलाता है
कि हमीं इस पुण्य-भू के
क्षिति-सीमान्त के धीर, दृढ़व्रती दिक्पाल हैं।
हमें बल दो, देशवासियो,
क्यों कि तुम बल हो :
तेज दो, जो तेजस् हो,
ओज दो, जो ओजस् हो,
क्षमा दो, सहिष्णुता दो, तप दो
हमें ज्योति दो, देशवासियो,
हमें कर्म-कौशल दो :
क्यों कि अभी कुछ नहीं बदला है...
नयी दिल्ली
13 सितम्बर, 1965
पक्षधर
इनसान है कि जनमता है
और विरोध के वातावरण में आ गिरता है :
उस की पहली साँस संघर्ष का पैंतरा है
उस की पहली चीख़ एक एक युद्ध का नारा है
जिसे वह जीवन-भर लड़ेगा।
हमारा जन्म लेना ही पक्षधर बनना है
जीना ही क्रमशः यह जानना है
कि युद्ध ठनना है
और अपनी पक्षधरता में
हमें पग-पग पर पहचानना है
कि अब से हमें हर क्षण में, हर वार में, हर क्षति में,
हर दुःख-दर्द, जय-पराजय, गति-प्रतिगति में
स्वयं अपनी नियति बन अपने को जनना है।
ईश्वर एक बार का कल्पक
और सनातन क्रान्ता है :
माँ-एक बार की जननी
और आजीवन ममता है :
पर उनकी कल्पना, कृपा और करुणा से
हम में यह क्षमता है
कि अपनी व्यथा और अपने संघर्ष में
अपने को अनुक्षण जनते चलें,
अपने संसार को अनुक्षण बदलते चलें,
अनुक्षण अपने को परिक्रान्त करते हुए
अपनी नयी नियति बनते चलें।
पक्षधर और चिरन्तन,
हमें लड़ना है
निरन्तर आमरण अविराम-
पर सर्वदा जीवन के लिए :
अपनी हर साँस के साथ
पनपते इस विश्वास के साथ
कि हर दूसरे की हर साँस को
हम दिला सकेंगे और अधिक सहजता
अनाकुल उन्मुक्ति, और गहरा उल्लास।
अपनी पहली साँस और चीख़ के साथ
हम जिस जीवन के पक्षधर बने अनजाने ही,
आज हो कर सयाने उसे हम बरते हैं :
उस के पक्षधर हैं हम-इतने घने
कि उसी जीने और जिलाने के लिए
स्वेच्छा से मरते हैं!
नयी दिल्ली
सितम्बर, 1965
अन्धकार में जागनेवाले
रात के घुप अँधरे में जो एकाएक जागता है
और दूर सागर की घुरघुराहट-जैसी चुप
सुनता है
वह निपट अकेला होता है।
अन्धकार में जागनेवाले सभी अकेले होते हैं।
पर जो यों ही सहमी हुई रात में
थके सहमे सियार की हकलाती हुआँ-हुआँ-सी
हवाई हमले के भोंपू की आवाज़ से
एकाएक जगा दिया जाता है
वह और भी अकेला होता है :
और जब वह घर से बाहर निकल कर
सागर की घुरघुराहट-जैसे चुप
घनी रात के घुप अँधेरे में घिर जाता है
तब वह अकेले के साथ मामूली भी हो जाता है।
घुप रात के चुप सन्नाटे में अकेलापन
और मामूलियत : इसे अचानक जगाया गया
हर आदमी अपनी नियति पहचानता है।
वही हम हैं : घुप अँधेरे में
सरसराहटें सुनते हुए अकेले
और मामूली। न होते अकेले
तो डरते।
न होते मामूली तो घबराते।
पर अकेले होने और साथ ही मामूली होने में
एकाएक अँधेरा हमारी मुट्ठी में आ जाता है
और वह अनपहचानी सुरसुराहट
एक सन्देश बन जाती है
जिसे हर मामूली अकेला
अकेलेपन और मामूलियत की सैकड़ों सदियों से जानता है :
कि वह एक बच जाता है :
वही अनश्वर है।
मामूली और अकेला : उस घुप अँधेरे में
मेरे भीतर से सैकड़ों घुसपैठिये
आग लगाते हुए गुज़र जाते हैं-
पर उसी में
मैं उन सब की ज़िन्दगी जीता हूँ
जिन्होंने दुश्मन के टैंक तोड़े
जिन्होंने बममार विमान गिराये
जिन्होंने राहों में बिछाई गयी विस्फोटक
सुरंगें समेटीं, जो गिरे और प्रतीक्षा में रह कर भी उठाये नहीं गये,
पथरा गये,
जो खेत रहे,
जिन्होंने वीर कर्मों के लिए सम्मान पाया-
और मैं उन सब की ज़िन्दगी जीता हूँ
जिन के नामहीन, स्वरहीन, अप्रत्याशित, अतर्कित भी
आत्म-त्याग ने इन वीरों को
अपने जाज्वल्यमान कर्मों का
अवसर दिया।
और यों इन नामहीनों की ज़िन्दगी जीता हुआ मैं
वहीं लौट आता हूँ जहाँ मैं होता हूँ जब मैं जागता हूँ-
मामूली और अकेला
मैं अँधेरे के घुप में एक प्रकाश से घिर जाता हूँ-
मैं, जो नींव की ईंट हूँ :
सुरसुराते चुप में एक अलौकिक संगीत से गूँज
उठता हूँ मैं जो सधा हुआ तार हूँ :
मैं, मामूली, अकेला, दुर्दम, अनश्वर-
मैं, जो हम सब हूँ।
तब हम ठिठुरे सियार की रिरियाती पुकार
एक स्पष्ट, तेज़, आश्वस्त, गूँजती और गुँजाती हुई
एकसार आवाज़ बन जाती है
मेरा अकेलापन एक समूह में विलय हो जाता है
जिस के हर सदस्य का एक बँधा हुआ कर्तव्य है
जिसे वह दृढ़ता से कर रहा है क्यों कि वह उस के
जीवन की बुनियाद है,
और मेरी मामूलियत एक सामर्थ्य, एक गौरव,
एक संकल्प में बदल जाती है
जिस में मैं करोड़ों का साथी हूँ :
रात फिर भी होगी या हो सकती है
पर मैं जानता हूँ कि भोर होगा
और उस में हम सब
संकल्प में बँधे, सामर्थ्य से भरे और एक गौरव से
घिरे हुए हम सब
अपने उन कामों में जमे होंगे
जिन से हम जीते हैं
जिस से हमारा देश पलता है
जिस से हमारा राष्ट्र अपना रूप लेता है-
वयस्क, स्वाधीन, सबल, प्रतिभा-मंडित, अमर-
और हमारी तरह अकेला-क्यों कि अद्वितीय...
इस से क्या कि सवेरे हम में से एक
साइकल ले कर दिन-भर के लिए, कलम घिसने जाएगा
और एक दूसरा झाबा ले कर तरकारी बेचने
और एक तीसरा झल्ली ले कर ढुलाई करने-
मिट्टी की, या दूसरों के खरीदे फल-मेवे और कपड़ों की-
और एक चौथा मोटर में बैठता हुआ चपरासी से फाइलें
उठवाएगा-एक कोई बीमार बच्चे को सहलाता हुआ आश्वासन
देगा-‘देखो, सका तो ज़रूर ले आऊँगा’-
और एक कोई आश्वासन की असारता जानता हुआ भी
मुसकरा कर कहेगा- ‘हाँ, ज़रूर, भूलना मत!’
इस से क्या कि एक की कमर झुकी होगी
और एक उमंग से गा रहा होगा-‘मोसे गंगा के पार...’
और एक के चश्मे का काँच टूटा होगा-
और एक के बस्ते में स्कूल की किताबें आधी से
अधिक फटी हुई होंगी?
एक के कुरते की कुहनियाँ छिदी होंगी,
एक के निकर में बटनों का स्थान एक आलपीन
ने लिया होगा, एक के हाथ की पोटली में गये दिन के सवेरे के
रोट का टुकड़ा होगा,
और एक की जेब में सिगरेट की महकती डिबिया
और लासे की मीठी टिकियाँ
जिस से वह दिन-भर मुँह से लचकीले बुलबुले निकाला करेगा
और फिर वापस खींच लिया करेगा,
एक ने गालों से गये दिन की नक़ली रंगत नये दिन की
नक़ली बालाई से उतारी होगी,
और एक ने चेहरे पर उबटन की जगह पसीने-सनी धूल की
लीकों को हथेली की पुश्त से और लम्बा कर लिया होगा,
और एक हाथों पर बूट-पॉलिश की महक और
रंगत की लिखत
दिन-भर के लिए आशा का पट्टा होगी?
इस सब से क्या उस सब से क्या
किसी सब से क्या जब कि अकेलेपन में
एक व्याप्त मामूलीपन का स्पन्दन है
और वह व्याप्त मामूलीपन एक डोर है
जिस में हम सबहर अकेली रात के अँधेरे में
हर सम्बन्ध और सामर्थ्य और गौरव की लड़ी में बँधे हैं-
हम, हम, हम, हम, भारतवासी?
नयी दिल्ली
28 सितम्बर, 1965
तुम्हें नहीं तो किसे और
तुम्हें नहीं तो किसे और
मैं दूँ अपने को (जो भी मैं हूँ?)
तुम-जिस ने तोड़ा है
मेरे हर झूठे सपने को-
जिस ने बेपनाह मुझे झँझोड़ा है
जाग-जाग कर तकने को
आग-सी नंगी, निर्ममत्व
औ’ दुस्सह सच्चाई को-
सदा आँच में तपने को-
तुम, ओ एक, निःसंग, अकेले,
मानव, तुम को-मेरे भाई को!
नयी दिल्ली
2 अक्टूबर, 1965
पेरियार1
बकरी के बच्चे की मिमियाहट पर तिरता
वह चम्पे का फूल
काँपता गिरता पल-भर घिरता
है कगार की ओट
भँवर की किरण-गर्भ
कलसी में :
अर्द्धमंडली खींच
निकल कर बह जाता है।
और घाट की सँकरी सीढ़ी पर
घुटने पर टेक गगरिया
खड़ी बहुरिया
थिर पलकों को एकाएक झुका,
कर ओट भँवरती धूमिल बिजली को,
फिर उठा बोझ
1. केरल की एक नदी, इसी के किनारे कालडि में शंकराचार्य का जन्म हुआ था।
चढ़ने लगती है।
ओ साँस! समय जो कुछ लावे
सब सह जाता है :
दिन, पल, छिन-इनकी झाँझर में जीवन
कहा-अनकहा रह जाता है।
बहू हो गयी ओझल :
नदी पार के दोपहरी सन्नाटे ने फिर
बढ़ कर इस कछार की कौली भर ली :
वेणी आँचल से रेती पर
झरती बूँदों की लहर-डोर थामे, ओ मन!
तू बढ़ता कहाँ जाएगा?
कालडि (केरल)
30 दिसम्बर, 1965
हम नदी के साथ-साथ
हम नदी के साथ-साथ
सागर की ओर गये
पर नदी सागर में मिली
हम छोर रहे : नारियल के खड़े तने हमें
लहरों से अलगाते रहे
बालू के ढूहों से जहाँ-तहाँ चिपटे
रंग-बिरंग तृण-फूल-शूल
हमारा मन उलझाते रहे
नदी की नाव
न जाने कब खुल गयी
नदी ही सागर में घुल गयी
हमारी ही गाँठ ने खुली
दीठ न धुली
हम फिर, लौट कर फिर गली-गली
अपनी पुरानी अस्ति की टोह में भरमाते रहे।
थेसालोनिकी (ग्रीस)
10 मई, 1966
स्वप्न
धुएँ का कोला शोर :
भाप के अग्निगर्भ बादल :
बिना ठोस भूतल की रपटन में उगते, बढ़ते, फूलते
अन्तहीन कुकुरमुत्ते,
न-कुछ की फाँक से झाँक-झाँक, झुक कर
झपटने को बढ़ रहे भीमकाय कुत्ते।
अग्नि-गर्भ फैल कर सब लील लेता है।
केवल एक तेज़-एक दीप्ति :
न उस का, न सपने का कहीं कोई ओर-छोर :
बिना चौंके पाता हूँ कि जाग गया हूँ।
भोर...
थेसालोनिकी (ग्रीस)
11 मई, 1966
यात्री
प्रबुद्ध ने कहा : मन्दिरों में न जा, न जा।
वे हिन्दू हों, बौद्ध हों, जैन हों
मुस्लिम हों, मसीही हों, और हों,
देवता उन में जो विराजें
परुष हों, पुरुष हों, मधुर हों, करुण हों,
कराल हों, स्त्रैण हों,
अमूर्त्त हों (या धूर्त्त हों)
किसी की आरती न कर, किसी के लिए रूप-थालों में
धूप-दीप-नैवेद्य, कुछ न सजा-
न धन, न मन (नाम-रूप सब तन के)
न जुटा पाथेय कुछ-
मन्दिरों में न जा, न जा!
बोधिसत्त्व ने कहा : तीर्थों को खोज चला है,
चलता जा माँग कि यात्रा लम्बी हो;
पथ ही जैसा-तैसा पाथेय जुटाता चले;
परिग्रह के पत्ते ज्यों झरते त्यों ज्ञान के बीज तू पाता चले,
माँग कि यात्रान्त न हो;
पथ पर ही भीतर से पकता
तू बाहर से सहज गलता जा।
आज बोधि का धीमा स्वर सुना :
तीर्थों में न भी हो पानी
-या मन्दिरों में श्रद्धा, या देवता में सत्ता-
पर यात्रा में एक बात तो तूने पहचानी :
कि तीर्थों को तेरी ही तितीर्षा गढ़ती रही।
मन्दिरों में कहाँ कुछ होता है?
तेरी ही गति वहाँ पूजा पर चढ़ती रही,
वही है मन्दिर का ऐश्वर्य, वही श्रद्धा की भी,
मूर्ति की भी अर्थवत्ता।
पग-पग पर तीर्थ हैं,
मन्दिर भी बहुतेरे हैं;
तू जितनी करे परिकम्मा, जितने लगा फेरे
मन्दिर से, तीर्थ से, यात्रा से,
हर पग से, हर साँस से
कुछ मिलेगा, अवश्य मिलेगा,
पर उतना ही जितने का तू है अपने भीतर से दानी!
थेसालोनिकी (ग्रीस)
11 मई, 1966
फोकिस में औदिपौस
राही, चौराहों पर बचना!
राहें यहाँ मिली हैं, बढ़ कर अलग-अलग हो जाएँगी
जिस की जो मंज़िल हो आगे-पीछे पाएँगी
पर इन चौराहों पर औचक एक झुटपुटे में
अनपहचाने पितर कभी मिल जाते हैं :
उन की ललकारों से आदिम रुद्र-भाव जग जाते हैं,
कभी पुरानी सन्धि-वाणियाँ
और पुराने मानस की धुँधली घाटी की अन्ध गुफा को
एकाएक गुँजा जाती हैं;
काली आदिम सत्ताएँ नागिन-सी
कुचले सीस उठाती हैं-
राही शापों की गुंजलक में बँध जाता है :
फिर जिस पाप-कर्म से वह आजीवन भागा था,
वह एकाएक अनिच्छुक हाथों से सध जाता है।
राही, चौराहों से बचना!
वहाँ ठूँठ पेड़ों की ओट
घात बैठ रहती हैं जीर्ण रूढ़ियाँ
हवा में मँडराते संचित अनिष्ट, उन्माद, भ्रान्तियाँ-
जो सब, जो सब
राही के पद-रव से ही बल पा,
सहसा कस आती हैं
बिछे, तने, झूले फन्दों-सी बेपनाह!
राही, चौराहों पर बचना।
आराख़ोबा-देल्फ़ी
13 मई, 1966
प्रस्थान से पहले
हमेशा प्रस्थान से पहले का
वह डरावना क्षण
जिसमें सब कुछ थम जाता है
और रुकने में रीता हो जाता है :
गाड़ियाँ, बातें, इशारे
आँखों की टकराहटें,
साँस : समय की फाँस अटक जाती है
(जीवन के गले में)
हमेशा, हमेशा, हमेशा...।
और हमेशा विदाई के पहले का
वह और भी डरावना क्षण
जिस में सारे अपनापे सुन्न हो जाते हैं
एक परायेपन की
चट्टान के नीचे :
प्यार की मींड़दार पुकारें
सम उक्तियों में गूँज जाने वाली
गुँथी उँगलियों, विषम, घनी साँसों की यादें,
कनखियाँ, सहलाहटें, कनबतियाँ,
अस्पर्श चुम्बन, अनकही आपस में जानी प्रतीक्षाएँ,
खुली आँखों की वापियों में और गहरे
सहसा खुल जानेवाले
पिघली चिनगारी को ओट रखते द्वार-
खिलने-सिमटने की चढ़ती-उतरती लहरें,
कँपकँपियाँ, हल्के दुलार...
काल की गाँस कर देती है
अपने को अपना ही अजनबी-
हमेशा, हमेशा, हमेशा...
एथेंस (ग्रीस)
17 मई, 1966
विदा के चौराहे पर : अनुचिन्तन
यह एक और घर
पीछे छूट गया,
एक और भ्रम
जो जब तक था मीठा था
टूट गया।
कोई अपना नहीं कि
केवल सब अपने हैं :
हैं बीच-बीच में अन्तराल
जिन में हैं झीने जाल
मिलानेवाले कुछ, कुछ दूरी और दिखानेवाले
पर सच में सब सपने हैं।
पथ लम्बा है : मानो तो वही मधुर है
या मत मानो तो भी वह सच्चा है।
यों सच्चे हैं भ्रम भी, सपने भी
सच्चे हैं अजनबी-और अपने भी।
देश-देश की रंग-रंग की मिट्टी है :
हर दिक् का अपना-अपना है आलोक-स्रोत
दिक्काल-जाल के पार विशद निरवधि सूने में
फहराता पाल चेतना की, बढ़ता जाता है प्राण-पोत।
हैं घाट? स्वयं मैं क्या हूँ? है बाट? देखता हूँ मैं ही।
पतवार? वही जो एकरूप है सब से-
इयत्ता का विराट्।
यों घर-जो पीछे छूटा था-
वह दूर पार फिर बनता है
यों भ्रम-यों सपना-यों चित्-सत्य
लीक-लीक पथ के डोरों से
नया जाल फिर तनता है
बुकुरेस्त (रोमानिया), बेओग्राद (यूगोस्लाविया)
23 मई, 1966
कालेमेग्दान1
इधर परकोटे और भीतरी दीवार के बीच
लम्बी खाई में ढंग से सँवरे हुए
पिछले महायुद्ध के हथियारों के ढूह :
रुँडे टैंक, टुंडी तोपें, नकचपटे गोला-फेंक-
1. सावा और दोनाउ (डैन्यूब) के संगम पर प्राचीन दुर्ग, जिस के भीतर अब अस्त्र-संग्रहालय भी है।
सब की पपोटे-रहित अन्धी आँखें
ताक रहीं आकाश।
उधर परकोटे और दीवार के बीच टीले पर
बेढंगे झंखाड़ों से अधढँके
मठ और गिरजाघर के खँडहर
चौकठ-रहित खिड़कियों से उमड़ता अँधियारा
मनुष्यों को मानो खोजता हो धरती पर...
ईश्वर रे, मेरे बेचारे,
तेरे कौन रहे अधिक हत्यारे?
बेओग्राद (यूगोस्लाविया)
24 मई, 1966
ज्योतिषी से1
उस के दो लघु नयन-तारकों की झपकी ने
मुझ को-अच्छे-भले सयाने को!-पल भर में
कर दिया अन्धा
मेरा सीधा, सरल, रसभरा जीवन
एकाएक उलझ कर
बन गया गोरख-धन्धा
और ज्योतिषी! तुम अपने मैले-चीकट
पोथी-पत्रे फैला कर,
पोंगा पंडित! मुझे पढ़ाते हो पट्टी, रख दोगे
इतने बड़े गगन के सारे तारों के
रहस्य समझा कर?
ल्युब्लयाना (यूगोस्लाविया)
30 मई, 1966
1. स्लोवीनी कवि प्रेशेरन् (1800-1949) की एक कविता पर आधारित।
कितनी नावों में कितनी बार
कितनी दूरियों से कितनी बार
कितनी डममग नावों में बैठ कर
मैं तुम्हारी ओर आया हूँ
ओ मेरी छोटी-सी ज्योति!
कभी कुहासे में तुम्हें न देखता भी
पर कुहासे की ही छोटी-सी रुपहली झलमल में
पहचानता हुआ तुम्हारा ही प्रभा-मंडल।
कितनी बार मैं,
धीरे, आश्वस्त, अक्लान्त-
ओ मेरे अनबुझे सत्य! कितनी बार...
और कितनी बार कितने जगमग जहाज़
मुझे खींच कर ले गये हैं कितनी दूर
किन पराये देशों की बेदर्द हवाओं में
जहाँ नंगे अँधेरों को और भी उघाड़ता रहता है
एक नंगा, तीखा, निर्मम प्रकाश-
जिस में कोई प्रभा-मंडल नहीं बनते
केवल चौंधियाते हैं तथ्य, तथ्य-तथ्य-
सत्य नहीं, अन्तहीन सच्चाइयाँ...
कितनी बार मुझे खिन्न, विकल, संत्रस्त-कितनी बार!
ल्यूब्लयाना (यूगोस्लाविया)
30 मई, 1966
गति मनुष्य की
कहाँ!
न झीलों से न सागर से,
नदी-नालों, पर्वत-कछारों से,
न वसन्ती फूलों से, न पावस की फुहारों से
भरेगी यह-यह जो न हृदय है, न मन
न आत्मा, न संवेदन,
न ही मूल स्तर की जिजीविषा-
पर ये सब हैं जिस के मुँह
ऐसी पंचमुखी गागर
मेरे समूचे अस्तित्व की-
जड़ी हुई मेरी आँखों के तारों से
पड़ी हुई मेरे ही पथ में
मुझ से ठुकरायी जाने को
जहाँ-तहाँ, जहाँ-तहाँ...
प्यासी है, प्यासी है गागर यह
मानव के प्यार की
जिस का न पाना पर्याप्त है,
न देना यथेष्ट है,
पर जिस की दर्द की अतर्कित पहचान
पाना है, देना है, समाना है...
ओ मेरे क्रूर देवता, पुरुष,
ओ नर, अकेले, समूहगत,
ओ न-कुछ, विराट् में रूपायमान!
मुझे दे वही पहचान
उसी अन्तहीन खड्गधार का सही सन्धान मुझे
जिस से परिणय ही
हो सकती है परिणति उस पात्र की।
मेरे हर सुख में,
हर दर्द में, हर यत्न, हर हार में
हर साहस, हर आघात के हर प्रतिकार में
धड़के, नारायण! मेरी वेदना
जो गति है मनुष्य मात्र की!
ब्लेद (यूगोस्लाविया)
1 जून, 1966
काँच के पीछे मछलियाँ
उधर उस काँच के पीछे पानी में
ये जो कई मछलियाँ
बे-आवाज खिसलती हैं
उन में से किसी एक को
अभी हमीं में से कोई खा जाएगा
जल्दी से पैसे चुकाएगा
चला जाएगा।
फिर इधर इस काँच के पीछे कोई दूसरा आएगा
पैसे खनकाएगा
रुपये की परचियाँ खिसलाएगा,
बिना किसी जल्दी के समेटेगा, जेब में सरकाएगा
दाम देगा नहीं, वसूलेगा
और फिर हम सब को-एक-एक को-एक साथ
और बड़े इत्मीनान से धीरे-धीरे खाएगा
खाता चला जाएगा,
वैसी ही बे-झपक आँखों से ताकता हुआ
जैसी कि ताकती हुई ये मछलियाँ
स्वयं खायी जाती हैं।
ज़िन्दगी के रेस्तराँ में यही आपसदारी है
रिश्ता-नाता है-कि कौन किस को खाता है!
ल्युब्लयाना (यूगोस्लाविया)
1 जून, 1966
हेमन्त का गीत
भर ली गयी हैं पुआलें खलिहानों में :
तोड़ लिये गये हैं सब सेब : सूनी हैं डालें।
उतर चुके अंगूर-गुच्छे के गुच्छे,
हो चुके पहली पेराई के मेले :
लाल हो कर काली भी पड़ गयीं बगीचों में कतारें :
सूख चली बेलें।
झील की कोखों से जहाँ झाँकते थे
धूप से सोना-मढ़े भाप के छल्ले
वहाँ अब मँडराता है घना नीला कुहरा
मनहूस, बाँझ सन्नाटे को करता और गहरा।...
अनदेखे लाद ले गया है अपनी झोली में
काल की गली छानता हुआ कबाड़ी
न जाने कितने दिन, कितने क्षण,
कितनी अन्तहीन अनकही और अधूरी कही बातें,
कितने संकेत, कितने स्पर्श-हर्ष,
उमंगें-अकुलाहटें सिहरनों में घुलता और साँसों से नापी हुई रातें,
ठिठकनें-आहटें;
कितने कल्पना की आग में रूपायित किये हुए सपने,
कितना माल, जो पड़ा था तो मानो रद्दी था,
पर अब उस के हाथ चला गया तो सन्देह होता है
कहीं हम ठगे तो नहीं गये?
क्यों कि नहीं तो कहाँ है वह प्यार, कहाँ हो तुम,
ओ मेरे अपने,
कहाँ हैं वे हम, जिन का निरन्तर अपने को भूलना ही
जीना और होना था-
जहाँ अपने को राख-सा फूँक कर उड़ाते जाना।
दोनों को पाना था?
(भर ली गयी हैं पुआलें खलिहानों में :
तोड़ लिये गये सब सेब : सूनी हैं डालें :)
रूपायित सपने तो गये भी (आख़िर सपने थे, हम गये जाग),
पर क्या हुई वह रूपकल्पी आग?
(उतर चुके अंगूर-गुच्छे के गुच्छे, हो चुके पेराई के मेले।
काली पड़ गयी क़तारें : लाल हो कर सूख भी चलीं बेलें।)
रूपकल्पी आग!
(तोड़ लिये गये हैं सब सेब, सूनी हैं डालें...)
आधी रात राख में कभी सुलग जाती हैं केवल सपने की परछाइयाँ।
(खलिहानों में भर ली गयी हैं पुआलें...)
पड़ाव : थके पैर : क्या भूख? नहीं। शीत? नहीं।
तो कुछ तो कहो? कुछ नहीं, आँखों की दीठ मुझे घेरे रहे,
कुछ और नहीं चाहिए-उसी में गरमाई है
तृप्ति है, सहलाहट है, उनींदा है जो नींद से भी मीठा है...
दूर-दूर, छुईमुई-से पर कितने तुम मेरे रहे...
भोर : चोरी से नहीं अनजाने, अचानक
मैं ने तुम्हें झरने पर देखा।
आह! ऐसे घुलते हैं तार सोने के,
ऐसे मँजता है कुन्दन!
ऐसे, मानो ओस के प्रभा-मंडल से घिरा हुआ
पार की धूप में चमक उठता है
सवेरे का फूल!
अरे ओ दीठ पवन, मत कँपा इस वल्ली को
नयी धूप से विकसने दे-
छोटी-छोटी लहरों को
मूँगे की-सी झाँई देते
पाँवों की छाँव में मेरा मन बसने दे।
(झील की कोखों से जहाँ झाँकते थे
भाप के सोना-मढ़े छल्ले
वहाँ अब मँडराता है घना नीला कुहरा...)
हिम-शिखर की तलहटी में निर्जन झुरमुट,
बीच में तिरछी किरणों-बुना आसन :
आस-पास साँस रोके-सा झुटपुट।
एक लय है ऊपर, पत्तियों के मर्मर की,
एक लय भीतर, घनी तीव्रतर साँसों की-
कैसा है यह संगीत जो पहले कभी सुना नहीं!
सुनो! नहीं अभी नहीं-सुना तो
सब दूसरा हो जाएगा!
तो दूसरा ही हो-वरंच दूसरा तो हो चुका!-
क्या अभी वही हो तुम? क्या वहीं हूँ-क्या हूँ भी मैं?
यों-क्या जाने क्या हम से बना, क्या बना नहीं,
किरणों का आसन सिमट गया,
सिहरन बची रही पीछे झुटपुटे ने झुरमुट से
न जाने क्या कही या नहीं कही।
पर हिम-शिखर हमारे साथ आया
बल्कि चाँदनी का एक मौर लाया
जो उस ने तुम्हारे गले डाल दिया
और जिसे मैं ताका किया, ताका किया
भोर तक : जिसे छूने बढ़ी मेरी उँगलियाँ तो सकुचीं,
फिर रोमावली के साथ बह आयीं
भुजा से तुम्हारी उँगलियों के छोर तक-
फिर गुँथे हाथ और गूँजा संगीत वही
फिर एक बार-दुर्निवार...
(काली पड़ गयी कतारें : लाल हो कर सूख भी चलीं बेलें।
उतर चुके अंगूर-गुच्छे के गुच्छे-हो चुके पेराई के मेले।)
आग के कितने रूप बसे हैं मेरे मन में!
एक आग जो पकाती है
एक जो मीठा घाम है,
एक जो आँखों में सुलगती है
एक जो झुलसाती है एक जो साक्षी है
एक जो सहलाती है, अदृश्य बल देती है, जो न हो तो हम
रीते हैं, एक जो उलटे धौंकनी को चलाती है, जिसे हम हर साँस
के साथ पीते हैं, एक जिस की सोंधी खुदबुद बताती है
कि सपने जहाँ हैं, हैं,
पर एक धरती है जिस पर हम टिके हैं, चलते हैं, जीते हैं...
आग के कितने-कितने रूप!
ये सभी हम ने जलायी थीं
साथ-साथ सब में हम जले थे,
साथ-साथ, सोचा था कि ऐसा होगा,
चाहा था कि ऐसा हो,
-पर क्या चाहा था?
कि एक मीठी सिगड़ी हो हमारे हाथों में
या कि एक जलता टीका हो हमारे माथों पर?
(झील की कोखों में जमता है घना नीला कुहरा
मनहूस, बाँझ सन्नाटे को करता और गहरा...)
हमारे मिले हाथों के सम्पुट में
हम ने देखा जीवन को पनपते,
कन्धे से कन्धा जोड़, हाथ गहे
हम ने सहा ओठों पर अन्तिम साँसों को कँपते-
आग का साक्ष्य? कितने साक्ष्य!
हमारा निजी अनुभव का साक्ष्य
जीवन-मरण का!
(उतर चुके अँगूर-गुच्छे के गुच्छे,
तोड़ लिये गये हैं सब सेब, सूनी हैं डालें...
हो चुके पहली पेराई के मेले
लाल हो कर काली भी पड़ गयी बगीचों की क़तारें :
उतर चुके अँगूर : सूख गयीं बेलें।)
काली पड़ गयी आग। धुँधली पड़ गयी साख
उस की और हमारी!
थक जाती है याद भी ढोते, उड़ाते, परत पर परत राख
जब तक कि मिले कहीं सुलगती चिनगारी।
झील की कोख से उमड़ कर फैल जाता है कुहरा
मनहूस, बाँझ सन्नाटा होता जाता है और, और गहरा!
सूख चुकी घासें, नुच चुके पेड़-पात,
नंगी हो चट्टानें भी धुन्ध में दुबक गयीं।
और अब कहाँ है प्रकाश, या आकाश?
वही मनहूसियत उस पर भी पुत गयी।
रात, रात, रात, रात,
ठिठुरन-संवत्सर के मरने की कालिमा
सब कुछ ढँक गयी...
ब्लेद (यूगोस्लाविया)
23 जून, 1966
यह इतनी बड़ी अनजानी दुनिया
यह इतनी बड़ी अनजानी दुनिया है
कि होती जाती है,
यह छोटा-सा जाना हुआ क्षण है
कि हो कर नहीं देता;
यह मैं हूँ
कि जिस में अविराम भीड़ें रूप लेती
उमड़ती आती हैं, यह भीड़ है
कि उस में मैं बराबर मिटता हुआ
डूबता जाता हूँ;
ये पहचानें हैं
जिन से मैं अपने को जोड़ नहीं पाता
ये अजनबियतें हैं
जिन्हें मैं छोड़ नहीं पाता।
मेरे भीतर एक सपना है
जिसे मैं देखता हूँ कि जो मुझे देखता है, मैं नहीं जान पाता।
यानी कि सपना हमारा है या मैं सपने का
इतना भी नहीं पहचान पाता।
और यह बाहर जो ठोस है
(जो मेरे बाहर है या कि जिस के मैं बाहर हूँ?)
मुझे ऐसा निश्चय है कि वह है, है;
जिसे कहने लगूँ तो यह कह आता है
कि ऐसा है कि मुझे निश्चय है!
मास्को
7 जून, 1966
स्मारक
ओ बीच की पीढ़ी के लोगो,
तुम युवतर पीढ़ी से कहते हो :
तुम घृणा की धुन्ध में जनमे थे
तुम आज भी घृणा करो।
गली-गली, नुक्कड़-चौराहे
बचे खड़े खँडहरों
या कि युद्ध के बाद रचे स्मारक-स्तूपों को देख-देख
फिर याद करो वह घृणा धुन्ध
कालिमा-वही घृणा फिर हृदय धरो!
पर जिस तुम से पहले की पीढ़ी ने
उन्हें जना क्या उन से, ओ बिचौलियो! यह पूछा था
वे क्या मरे घृणा में?
खँडहर होंगे ढूह घृणा के
और घृणा के स्मारक होंगे नये तुम्हारे थम्भ,
चोर गुम्बद, मीनारें,
पर वे जो मरे
घृणा में नहीं, प्यार में मरे!
जिस मिट्टी को दाब रहे हैं ये स्मारक सदर्प,
चप्पा-चप्पा उस का, कनी-कनी साक्षी है
उस अनन्य एकान्त प्यार का
जो कि घृणा से उपजे हर संकट को काट गया!
तुम जो खुद उन के नाम के बल पर जीते हो,
क्या वह बल घृणा को ही देना चाहते हो-
उन के नाम का बल, उन का बल,
जिन्होंने अपने प्राण
घृणा को नहीं, प्यार को दिये,
स्मारकों को नहीं, मिट्टी को दिये,
मोल आँकने वालों को नहीं, मूल्यों को दिये...
ये स्मारक-नये-पुराने ढूह-नहीं,
वह मिट्टी ही है पूज्य :
प्यार की मिट्टी जिस से सरजन होता है
मूल्यों का पीढ़ी-दर-पीढ़ी!
वोल्गोग्राद (स्तालिनग्राद)
19 जून, 1966
जिस में मैं तिरता हूँ
कुछ है जिस में मैं तिरता हूँ।
जब कि आस-पास न जाने क्या-क्या झिरता है
जिसे देख-देख मैं ही मानो कनी-कनी किरता हूँ।
ये जो डूब रहे हैं धीरे-धीरे यादों के खँडहर हैं।
अब मैं नहीं जानता किधर द्वार हैं
किधर आँगन, खिड़कियाँ, झरोखे;
पर ये सब मेरे ही बनाये हुए घर हैं।
इतना तो अब भी है कि चाहूँ तो पहचान लूँ
कि कौन इन में बसते थे,
(मैं ने ही तो बसाये थे, मेरे इशारे पर हँसते थे),
पर उन के चेहरों और मेरी चाहों के बीच
आह, कितने पुराने, अन्धे, पर आज भी अथाह डर हैं!
डूबते हैं, डूब जाने दो।
चेहरों और घरों के साथ
खाइयों और डरों को भी
लय पाने दो।
यह जो नदी है, यों तो मेरी अनजानी है
इतनी-भर देखी है कि पहचानूँ, बहुत पुरानी है।
डूबे, सब डूब जाए, तब एक जो बुल्ला उठेगा,
उभर कर फूटेगा, और उस की रंगीनी का रहेगा-
क्या? कुछ नहीं!-
तभी तो मेरा यह बचा हुआ भरम टूटेगा
यह सँचा हुआ, पर सच में सत्त्वहीन
अहम् ढहेगा, ढहेगा।
नयी दिल्ली
24 जून, 1966
मन बहुत सोचता है
मन बहुत सोचता है कि उदास न हो
पर उदासी के बिना रहा कैसे जाय?
शहर के दूर के तनाव-दबाव कोई सह भी ले,
पर यह अपने ही रचे एकान्त का दबाव सहा कैसे जाय!
नील आकाश, तैरते-से मेघ के टुकड़े,
खुली घासों में दौड़तीं मेघ-छायाएँ,
पहाड़ी नदी : पारदर्श पानी,
धूप-धुले तल के रंगारंग पत्थर,
सब देख बहुत गहरे कहीं जो उठे,
वह कहूँ भी तो सुनने को कोई पास न हो-
इसी पर जो जी में उठे वह कहा कैसे जाय!
मन बहुत सोचता है कि उदास न हो, न हो,
पर उदासी के बिना रहा कैसे जाय!
जुलाई, 1966
नशे में सपना
नशे में सपना देखता मैं
सपने में देखता हूँ
नशे में सपना देखनेवाले को
सपने में देखता हुआ
नशे में डगमग सागर की उमड़न।
इतने गहरे नशों में
इतने गहरे सपनों में
इतने गहरे नशे में।
सागर इतना गहरा, विराट्।
देखने वाला मैं इतना छिछला, अकिंचन।
इतना बहुत नशा इतने बहुत सपने
इतना बहुत सागर इतना कम मैं।
नयी दिल्ली
मार्च, 1967
विदाई का गीत
यह जाने का छिन आया
पर कोई उदास गीत
अभी गाना ना।
चाहना जो चाहना
पर उलाहना मन में ओ मीत!
कभी लाना ना!
वह दूर, दूर सुनो, कहीं लहर
लाती है और भी दूर, दूर, दूरतर का स्वर,
उसमें हाँ, मोह नहीं,
पर कहीं विछोह नहीं,
वह गुरुतर सच युगातीत
रे भुलाना ना!
नहीं भोर-संझा उमगते-निमगते
सूरज, चाँद, तारे, नहीं वहाँ
उझकते-झिझकते डगमग किनारे;
वहाँ एक अन्तःस्थ आलोक
अविराम रहता पुकारे;
यही ज्योति-कवच है हमारा निजी सच,
सार जो हम ने पाया गढ़ा, चमकाया, लुटाया :
उस की सुप्रीत छाया से बाहर, ओ मीत,
अब जाना ना!
कोई उदास गीत, ओ मीत!
अभी गाना ना!
नयी दिल्ली
1967
आज़ादी के बीस बरस
चलो, ठीक है कि आज़ादी के बीस बरस से
तुम्हें कुछ नहीं मिला,
पर तुम्हारे बीस बरस से आज़ादी को
(या तुम से बीस बरस की आज़ादी को)
क्या मिला?
उन्नीस नंगे शब्द?
अठारह लचर आन्दोलन?
सत्रह फटीचर कवि?
सोलह लुंजी-हाँ, कह लो, कलाएँ-
(पर चोरी, चापलूसी, सेंध मारना, जुआखोरी,
लल्लोपत्तो और लबारियत ये सब पारम्परिक कलाएँ थीं
आज़ादी के बीस बरस क्यों, बीस पीढ़ी पहले की!)
पन्द्रह...बारह...दस...यों पाँच, चार और तीन
और दो और एक और फिर इनक़लाबी सुन्न
जिस की गिड्डुली में बँधे तुम
अपने को सिद्ध, पीर, औलिया जान बैठे हो!
क्या हर तिकठी ढोने वाला हर डोम
हर जल्लाद का हर पिट्ठू
सिर्फ ढुलाई के मिस मसीहा हो जाता है?
ओ मेरे मसीहा, हाय मेरे मसीहा!
आज़ादी के बीस बरस निकल गये
और तुम्हें कुछ नहीं मिला-
एक कमबख़्त कम से कम पहचाना जा सकने वाला
जटियल सलीब भी नहीं :
जब कि इतने-इतने मन्दिरों और रथों से इतनी-इतनी काठ-मूर्तियाँ
तोड़ी-उखाड़ी जा कर रोज़ बिक रही हैं इतने अच्छे दामों!
हाय मेरे मसीहा!
बिना सलीब के तुम्हें कोई पहचाने भी तो कैसे
और जो तुम्हें नहीं पहचाने
उस की आज़ादी क्या?
पहचान तो तुम्हें, फ़क़त तुम्हें, हुई-
आज़ादी की भी और अपनी भी!
आज़ादी के बीस बरस से
बीस बरस की आज़ादी से
तुम्हें कुछ नहीं मिला :
मिली सिर्फ आज़ादी!
नयी दिल्ली
23 अप्रैल, 1968
देहरी पर
मन्दिर तुम्हारा है
देवता हैं किस के?
प्रणति तुम्हारी है
फूल झरे किस के?
नहीं, नहीं, मैं झरा, मैं झुका,
मैं ही तो मन्दिर हूँ,
ओ देवता! तुम्हारा।
वहाँ, भीतर, पीठिका पर टिके
प्रसाद से भरे तुम्हारे हाथ
और मैं यहाँ देहरी के बाहर ही
सारा रीत गया।
नयी दिल्ली
1 मई, 1968
कहीं राह चलते-चलते
कहीं रहा चलते-चलते
चुक जाएगा
दिन। सहसा झुक आएगी साँझ घनेरी।
घुल जाएँगे रूप धुँधलके में
मृदु : पीड़ाएँ-क्षण-भर-रुक जाएँगी, करती
अपने होने पर सन्देह।
एक स्तब्धता से मैं जाऊँगा घिर।
और साँझ फिर
मेरी पहले की पहचानी होगी :
पल-भर उस के भुज-बन्ध में सिहर
चूम लूँगा मैं उसे उनाबी ओठों पर भरपूर।
कहीं राह चलते-चलते
-है मुझे ज्ञात-
दिन चुक जाएगा।
नयी दिल्ली
7 मई, 1968
कच्चा अनार, बच्चा बुलबुल
अनार कच्चा था
पर बुलबुल भी शायद बच्चा था
रोज़ फिर-फिर आता
टुक्! टुक्! दो-चार चोंच मार जाता।
और एक दिन मेरे तकते-तकते
चोट खा कर अनार डाल से टूट गया।
अपनी ही सोच पर सकते में आ कर
मैं पूछ बैठा : क्या वह जानता है कि वह गिर गया?
कच्चा अनार : गिर कर फूट गया?
दाने बिखर गये।
छाल पर डाल से दो-एक और मुरझे पँखुड़े भी झर गये।
लारेंस कहता है कि हाँ, मुझे दिल का टूटना ही पसन्द है
कि उस की फाँक में भोर के विविध रंग झाँक सकेंः
मैं नहीं जानता।
रंग झाँकेंगे। तो क्या?
किस के लिए?
इतना पहचानता हूँ
कि जब तक गिर कर फूट कर
बिखरेगा नहीं तब तक भोर-रंगों का खरा सौन्दर्य
निखरेगा नहीं।
किस के लिए?
किसी के लिए नहीं।
ज्यों-ज्यों समझता हूँ,
तेरे साथ, ओ बच्चा बुलबुल,
एक नये सम्बन्ध में बझता हूँ।
नयी दिल्ली
13 मई, 1968
ध्रुपद : शं...
शं...
शायद कोई आएगा
मैं तो स्तब्ध सपने-से में
तानपूरा साधता हुआ बैठा हूँ :
गायक आएगा तब आएगा।
आने से पहले साज़ साधना
क्या बहाना नहीं है?
जब वह अभी आया नहीं है,
आएगा तो क्या गाएगा
यह मेरा जाना नहीं है?
पर वह आएगा
यह सोच भी तो मेरे रोम उमगाती है :
यही आस्था मेरी कल्पना जगाती है
मेरी उँगलियों को कँपाती है :
मैं नहीं गाता, गीत मुझ में गाया जाता है,
जिस के साथ मैं नहीं साधता तानपूरा, मेरे हाथों
वह सधाया जाता है।
शं...
एक सन्नाटा। एक गूँज...
ज्वार नहीं आया। अभी नहीं आया; आएगा।
पर तट की हर सीपी ने उस का स्वर गुना है,
हर शंख में उस का स्वर भरा है :
उसी का तार मेरी हर शिरा है,
नहीं मेरे रोम-रोम ने सुना है,
सुना है, सुना है, सुना है..
नयी दिल्ली (मोईनुद्दीन डागर स्मृति समारोह)
13 मई, 1968
कहाँ से उठे प्यार की बात
कहाँ से उठे प्यार की बात
जब कदम-कदम पर कोई
असमंजस में डाल दे?
जैसे शहर की त्रस्त क्षिति-रेखा पर रात
धुँधलके के सागर से
एक तारा उछाल दे?
आता है यही : उसी तारे-सा कंटकित
तर्कातीत, निःसंशय
अकारण, निराधार पर निर्भय
एक शब्द-रहित चकित आशीर्वाद।
नयी दिल्ली
16 मई, 1968
बही जाती है
ठठाती हँसियों के दौर मैं ने जाने हैं
कहकहे-मैं ने सहे हैं।
पर सार्वजनिक हँसियों के बीच
अकेली अलक्षित चुप्पियाँ
और सब की चुप के बीच
औचक अकेली सुनहली मुस्कानें
ये कुछ और हैं :
न जानी जाती हैं, न सही जाती हैं :
न मिल जाएँ तो कही जाती हैं :
जैसे असाढ़ की पहली बरसात,
शरद के नील पर बादल की रुई का पहला उजला गाला,
या उस गाले में लिपटा चमक का नगीना,
उस में बसी मालती की गन्ध।
कौन, कब, कैसे भला बताता है इन की बात?
मुँद जाती हैं आँखें, रुँधता है गला,
सिहरता है गात
अनुभूति ही मानो भीतर से भीतर को
बही जाती है, बही जाती है, बही जाती है...
नयी दिल्ली
17 मई, 1968
रात : चौंध
रात एकाएक टूटी मेरी नींद
और सामने आयी एक बात
कि तुम्हारे जिस प्यार में मैं खोया रहा हूँ,
जिस लम्बी, मीठी नशीली धुन्ध में
मैं सब भूल कर सोया रहा हूँ,
उस की भीत जो है
वह नहीं है रति :
वह मूलतः है पुरुष के प्रति
नारी की करुणा।
अगाध, अबाध करुणा,
फिर भी-राग नहीं, करुणा।
नहीं, नहीं, नहीं!
ओ रात!
प्रात का और कुछ भी सच हो
पर इस से तो अच्छा है
जागते ही जागते
आग की एक ही धधक में
जल कर मरना!
नयी दिल्ली
18 मई, 1968
मोड़ पर का गीत
यह गीत है जो मरेगा नहीं।
इस में कहीं कोई दावा नहीं,
न मेरे बारे में, न तुम्हारे बारे में;
दावा है तो एक सम्बन्ध के बारे में
जो दोनों के बीच है, पर जिस के बीच होने
या होने का भी कोई दिखावा नहीं।
यह क्षण : न जाने कब चला जाएगा
या क्या जाने : न भी जाए।
पर हम : यह हम मान लें
कि यह जाना हुआ है कि चले जाएँगे :
क्या जाने, जाने से पहले
यह भी जान लें
कि कब जाएँगे।
जाना और जीना
जीना और जाना :
न यह गहरी बात है कि इन में होड़ है
न यही कि इन में तोड़ है :
गहरी बात यह कि दोनों के बीच
एक क्षण है कहीं, एक मोड़ है
जिस पर एक स्वयंसिद्ध जोड़ है, और वहीं,
उस पर ही गाना है
यह गीत जो मरेगा नहीं।
नयी दिल्ली
22 मई, 1968
जिस मन्दिर में मैं गया नहीं
जिस मन्दिर में मैं गया नहीं
उस की देहरी से
भीतर चिकनी गच पर
देख और पैरों की छाप
चला जाता है मन
उस ओर
जिधर जाना होता है।
ओ तुम सब! जिन की है पहुँच दूर तक
(जिस की जितनी)
मुझे किसी से हिर्स नहीं।
पैरों की छाप तुम्हारे
हर पग की मुझ पर पड़ती है :
मैं पहुँचूँ या नहीं, तुम्हारे पैरों से ही नपता-नपता
कभी जान लूँगा मैं अपनी नाप
और उस ओर नहीं, उस तक जा लूँगा :
जहाँ भी हूँ, उस का प्रसाद पा लूँगा।
नयी दिल्ली
23 मई, 1968
होते हैं क्षण
होते हैं क्षण : जो देश-काल-मुक्त हो जाते हैं।
होते हैं : पर ऐसे क्षण हम कब दुहराते हैं?
या क्या हम लाते हैं?
उन का होना, जीना, भोगा जाना
है स्वैर-सिद्ध, सब स्वतःपूर्त।
-हम इसी लिए तो गाते हैं।
नयी दिल्ली
25 मई, 1968
दिया हुआ; न पाया हुआ
एक का अनकहा संकल्प था
कि मुझे मार-मार कर दुम्बा बना देगा
दूसरे की ऐलानिया डींग थी कि मुझे बना लेगा
मार-मार कर हकीम :
पर मैं हूँ कि कुछ न बना-
न हकीम, न दुम्बा,
मार खाते-खाते-करूँ तसलीम-
बन गया एक अजूबा
जिसे और नामों की कमी में
कहते हैं इनसान।
इनसान नाक, मुँह, आँख, कान,
कलेजा, और सब से अजब बात
यह कि खोपड़ी के भीतर
भेजा। अब मैं चाहूँ
(हाँ, एक तो यह कि अब मैं सिर्फ़ कराह नहीं, चाह भी सकता हूँ)
तो बैठ कर अपनी देह के ददोरे सहला सकता हूँ
या कुढ़, या किसी को कोस, या धर कर
झँझोड़ भी सकता हूँ :
या नारे लगा सकता हूँ
या सिनेमाई प्रणय-गीत गा सकता हूँ :
या सोच सकता हूँ
कि जो हुआ वह क्यों हुआ या जो होना चाहिए वह कैसे हो;
मैं चाहूँ तो कुछ कर सकता हूँ :
चाहूँ तो इसी आनन्द में मगन हो जा सकता हूँ
कि मेरे आगे एकाएक कितने रास्ते खुल गये हैं-
(मार से क्या मेरे बखिये-टाँके खुल गये हैं या कि मेरे पुराने पाप धुल गये हैं?)
चाहूँ तो बिना कुछ किये
खुशी से मर सकता हूँ।
सब से पहले तो यह बात
कि मैं अवध्य नहीं हूँ।
कोई भी हवा मुझे उखाड़ सकती है
कोई भी दाँव मुझे पछाड़ सकता है,
किसी भी खाई में मैं गिर सकता हूँ
किसी भी जाल में फँस, दलदल में धँस,
कुंज मे रम या गली-कूचे में बिलम सकता हूँ,
किसी भी ठोकर से औंधे मुँह गिर सकता हूँ।
अवध्य नहीं हूँ : एक दिन गच्चा खाऊँगा
और मारा जाऊँगा :
(नहीं, होगा वह फिर भी बेमौत : शहादत का रुतबा नहीं पाऊँगा)
न मेला जुड़वाऊँगा, न ही बनूँगा किसी स्मारक-समिति के
लिए चन्दा-उगाही का वसीला,
या नगरपालिका के लिए नयी चुंगी का हीला।
तो क्यों न यहीं से हो शुरुआत?
दूसरे यह कि मुझ में
जीतने की कामना और संकल्प तो है
पर जीतने का गुर मुझे अभी नहीं मिला।
जीतना कैसे होता है यह मैं नहीं जानता।
और हारना मैं कभी नहीं चाहता, बिलकुल नहीं चाहता,
पर हारना चाहिए कैसे यह मैं जानता हूँ,
हारने का शील तो मुझे बपौती-ददौती में मिला है।
तो हार मानी नहीं जाती
और जीत पानी नहीं आती :
क्यों न थोड़ी देर जम कर
हो जाय इसी की बात?
लेकिन क्या बात?
यही कि रोज़ मार खाता हूँ, पर मार से कुछ बनता नहीं,
क्यों कि मुझे मार खानी नहीं आती?
आता क्या है?
और मुझे कुछ आता नहीं तो किसी का जाता क्या है?
मैं जहाँ जो हूँ, उस स्थिति के लिए यह सब ‘दिया हुआ’ है।
जो करना होगा, उस की यह प्रतिज्ञा है।
और जो दिया हुआ है, उस पर जमना क्या,
थमना क्या?
जिस चट्टान से कूद पड़े वह चट्टान भी हुई तो अब
उस का सहारा क्या?
(हालाँकि वह चट्टान थी नहीं, धारा में डोलता हुआ
एक थम्भ-भर था)
‘दिया हुआ है’ इसी से तो छूट गया-
चट्टान से नाता टूट गया।
सौ बात की बात यह कि किसी अनजाने सागर के ऊपर
अधर में हूँ :
और यह बात भी रूपक है :
और मुझे झक है कि
कहूँगा खरी, रूखी, सब की पहचान में
आने वाली बेलाग बात;
सौटंच खरी, भले ही कच्ची धात।
यानी तीसरी यह बात
कि न मेरे पैरों के नीचे कोई पक्की भीत है
न मेरे साथ खड़ा कोई पक्का मीत है;
कि मैं एक दिन मरूँगा या मारा जाऊँगा-
कि नन्ही-सी जान हूँ;
कि मैं बहुत कम जानता हूँ और बहुत कुछ
बेवजह मानता हूँ,
सिवा इसके कि यही नहीं मान पाता
कि मुझे कुछ नहीं आता,
कि ईश्वर-पुत्र हूँ, पर बड़े बाप का बेटा होने का
न लोभ करता हूँ, न लाभ उठा सकता हूँ :
कि मानव-पुत्र हूँ, पर प्रजातन्त्र में इस दावे पर
हर दूसरा मानव-पुत्र हँसेगा कि क्या बकता हूँ!-
उफ़्! कितने हैं कि सब समझते हैं
इस लिए किसी को कुछ समझते नहीं।-
मैं वध्य हूँ, अकेला हूँ, बेसहारा हूँ :
इनसान हूँ।
यानी जहाँ से चलोगे वहीं आ अटकोगे।
जो चक्कर खींचोगे उसी के भीतर खुद भटकोगे।
बचाव के लिए जो-जो दीवार उठाओगे उसी पर
सिर पटकोगे।
मैं, तुम, यह, वह, हम सब, सारा जहान :
थेली का हर चट्टा, हर बट्टा-हर इनसान।
लेकिन यह सभी कुछ तो ‘दिया हुआ’ है
पहले से तय किया हुआ है :
इसे दुहराना क्या, और इसी का रोना है
तो गाना क्या?
भाई मेरे, हमदम, मेरे हकीम, या निहायत हलीम मेरे गधे-
ईश्वर-पुत्र, मानव-पुत्र,
आओ, अगर यह तुम से सधे
तो इस ‘दिये हुए’ के सिर पर चढ़ कर ही
अपना नारा वरेंगे
जो अभी ‘पाया हुआ’ नहीं है :
कि हम करेंगे या नहीं
करेंगे और मरेंगे :
जाते-जाते भी मार खाते-खाते भी
कर गुज़रेंगे :
करेंगे क्यों कि मरेंगे।
नयी दिल्ली : 24 अप्रैल, 1968
ग्वालियार : 29 मई, 1968
आश्वस्ति
थोड़ी और दूर :
आकृतियाँ धुँधली हो कर सब समान ही जावेंगी
थोड़ा और
सभी रेखाएँ धुल कर परिदृश्य एक हो जावेंगी।
कुछ दिन जाने दो बीत :
दुःख सब धारों में बँट-बँट कर
धरती में रम जाएगा।
फिर थोड़े दिन और :
दुःख हो अनपहचानी औषधि बन अँखुआएगा।
और फिर
यह सब का सब शृंखलित
एक लम्बा सपना बन जाएगा
वह सपना मीठा होगा।
उस में इन दर्दों की यादें भी
एक अनोखा सुख देंगी।
दुःख-सुख सब मिल कर रस बन जावेगा।
तब-हाँ, तब, उस रस में-
या कह लो सुख में, दुःख में, सपने में,
उस मिट्टी में-उस धारा में-
हम फिर अपने होंगे।
ओ प्यार! कहो, है इतना धीरज,
चलो साथ
यों : बिना आशा-आकांक्षा
गहे हाथ?
(पर क्यों? इतना भी क्यों?)
यह कहा-सुना, कहना-सुनना ही सब झूठा हो जाने दो बस, रहो, रहो, रहो...)
नयी दिल्ली
30 मई, 1986
प्रार्थना का एक प्रकार
कितने पक्षियों की मिली-जुली चहचहाट में से
अलग गूँज जाती हुई एक पुकार :
मुखड़ों-मुखौटों की कितनी घनी भीड़ों में
सहसा उभर आता एक अलग चेहरा :
रूपों, वासनाओं, उमंगों, भावों, बेबसियों का
उमड़ता एक ज्वार
जिस में निथरती है एक माँग, एक नाम-
क्या यह भी है
प्रार्थना का एक प्रकार?
नयी दिल्ली
5 जून, 1968
फिर भोर एकाएक
‘भई, आज हम बहुत उदास हैं।’
‘क्यों? भूल गये या क्या सूख गये
आनन्द के वे सारे सोते
जो तुम्हारे इतनी पास हैं?’
‘हैं, तो, पर दीखें कैसे, जब तक
आँखों में तारा-रज का अंजन न हो?’
‘आँखें तुम्हारी तो स्वयं धारक हैं-
उन के बारे में ऐसा मत कहो!’
‘सोते हैं तो सोते क्यों हैं? उमड़ते क्यों नहीं
कि हम अंजुरी भर सकें?
चलो, न भी बुझे प्यास, न सही :
ओठ तो तर कर सकें?
‘भई, एक बार धीरज से देखो तो :
उस से दीठ धुल जाएगी।
सोता है सोया नहीं, झरना है, झरता है :
देखो भर : अभी एक फुहार आएगी-
बुझ ही नहीं, भूल भी जाएगी प्यास-’
‘हम नहीं, हम नहीं; हम हैं, हम रहेंगे उदास!’
यों बात (कुछ कही, कुछ अनकही)
रात बड़ी देर तक चलती रही,
चाँदनी अलक्षित उपेक्षित ढलती रही।
उदासी भी, मानो पाँसे की तरह खेली जाती रही-
कभी इधर, कभी उधर : हम तुम दोनों को
एक महीन जाल में उलझाती रही
जिस से हम परस्पर एक-दूसरे को छुड़ाते रहे :
हारते रहे : पर जीत का आभास हर बार पाते रहे।
फिर भोर एकाएक ठगे-से हम आगे-
तुम अपने हम अपने घर भागे।
नयी दिल्ली
10 जून, 1968
जो औचक कहा गया
मैं ने जो नहीं कहा
वह मेरा अपना रहा
रहस्य रहा :
अपनी इस निधि, अपने संयम पर
मैं ने बार-बार अभिमान किया।
पर आज हार की तीक्ष्ण धार
है साल रही : मेरा रहस्य
उतना ही रक्षित है
उतना-भर मेरा रहा
कि जितना किसी अरक्षित क्षण में
तुम ने मुझ से कहला लिया!
जो औचक कहा गया, वह बचा रहा,
जो जतन सँजोया, चला गया।
यह क्या मैं तुम से, या जीवन से
या अपने से छला गया?
नयी दिल्ली
28 जून, 1968
देना-पाना
दो? हाँ, दो,
बड़ा सुख है देना!
देने में अस्ति का भवन नींव तक हिल जाएगा-
पर गिरेगा नहीं,
और फिर बोध यह लाएगा
कि देना नहीं है निःस्व होना
और वह बोध
तुम्हें फिर स्वतन्त्रतर बनाएगा।
लो? हाँ, लो।
सौभाग्य है पाना!
उस की आँधी से रोम-रोम
एक नयी सिहरन से भर जाएगा।
पाने में जीना भी कुछ खोना
या निःस्व होना तो नहीं
पर है कहीं ऊना हो जाना :
पाना : अस्मिता का टूट जाना।
वह उन्मोचन-यह सोच लो-
वह क्या झिल पाएगा?
नयी दिल्ली
29 जून, 1968
अस्ति की नियति
फूल से
पंखुड़ी तो झरेगी ही
पर यह क्यों कहो
कि याद तो मरेगी ही?
फूल का बने रहना भी याद है
जिस में एक नयी दुनिया आबाद है :
पंखुड़ियों की, फूलों की, बीजों की।
यह एक दूसरी पहचान है चीज़ों की।
न सही फूल, या पंखुड़ी,
या यादें, या हम :
व्यक्ति की अस्ति की नियति तो
अपने को पूरा करेगी ही!
नयी दिल्ली
29 जून, 1968
चितवन
क्या दिया था तुम्हारी एक चितवन ने उस एक रात
जो फिर इतनी रातों ने मुझे सही-सही समझाया नहीं?
क्या कह गयी थी बहकी अलक की ओट तुम्हारी मुस्कान एक बात
जिस का अर्थ फिर किसी प्रात की किसी भी खुली हँसी ने
बताया नहीं?
इधर मैं निःस्व हुआ, पर अभी चुभन यह सालती है
कि मैं ने तुम्हें कुछ दिया नहीं,
बार-बार हम मिले, हँसे, हम ने बातें कीं,
फिर भी यह सच है कि हम ने कुछ किया नहीं।
उधर तुम से अजस्र जो मिला, सब बटोरता रहा,
पर इसी लुब्ध भाव से कि मैं ने कुछ पाया नहीं!
दुहरा दो, दुहरा दो, तुम्हीं बता दो
उस चितवन ने क्या कहा था
जिस में तुम ही तुम थे, संसार भी डूब गया था
और मैं भी नहीं रहा था...
नयी दिल्ली
30 जून, 1968
साँझ-सबेरे
रोज़ सवेरे मैं थोड़ा-सा अतीत में जी लेता हूँ-
क्यों कि रोज़ शाम को मैं थोड़ा-सा भविष्य में मर जाता हूँ।
नयी दिल्ली
जून, 1968
अहं राष्ट्री संगमनी जनानाम्
सवेरे आये बाम्हन
जो जैसे ही जागे कि नहाये
नहाते ही भूख से कुनमुनाये
भूख लगते ही सब को देने लगे
दान और श्रद्धा का उपदेश।
जो अघा कर खा कर घर आ कर (या लाये जा कर)
चैन से लेंगे डकार।
नहीं, जो डकार भी नहीं लेंगे।
(वामन ने तीन डग में त्रिलोक नाप लिया था,
ऊँचे-पूरे बाम्हन की एक ही डकार से,
मच गया कहीं ब्रह्मांड में हाहाकार?)
दोपहरे आये जाट :
जिन के मचलते ही ख़ुदा को ले जावें चोर।
(क्या इसी तरह राज्य में निभती है धर्म-निरपेक्षता?)
बाकी रहे हम-सीनाज़ोर।
सेपहर पधारे कायस्थ :
राज्य की काया में बरसों से बसे हुए
हर मामला फँसाने के काम में बेतरह फँसे हुए।
कायथ : जो भला तो किसी का करेंगे कैसे,
पर बुरा नहीं करेंगे, इस के मिलेंगे कितने पैसे?
साँझ में आये बनिये और अहीर :
कोई अंटी में खोंसते नावाँ, काढ़ते हुए खीसें,
कोई लाठी में चुपड़ते तेल,
कोई हाँकते भैंस, कोई आँकते भैंस वाले का मोल,
कोई जो खुल कर दूध में पानी मिलाता
क्यों कि डीपोवाले को मस्का लगाता है,
कोई जिसे छाती पर मूँग दलना भाता है,
कोई जिसे सिर्फ़ ख़ून पीना आता है,
अपने-अपने काम का अपना-अपना तरीक़ा होता है।
राज में रहने, समाज में जीने, राजनीति में जमने का
एक सलीका होता है।
मौलाना रोज़े से थे : आये नहीं।
सरदारजी तैश में थे : किसी ने मनाये नहीं।
मसीही आयें तो, पर करेंगे क्या,
जब हिन्दी ही कोई पढ़ाये नहीं?
रात में भी कोई आये, घुप अँधेरे में :
कौन, यह बता नहीं गये।
पूछने पर कुछ लजा या सकपका गये
मानो जान लूँगा तो-
तो न जाने क्या ठान लूँगा-
उन्हें कुछ भी मान लूँगा-चोर, दुश्मन, आवारे,
बनजारे, घसियारे-
संक्षेप में-खुले में मुँह न दिखा सकने वाले बेचारे।
सहमे हुए सब, कि उन की जान लूँ न लूँ
इनसानियत ज़रूर नकार दूँगा।
यों सब आ गये। मेला जुट गया।
यही मैं नहीं जान पाया कि इस पचमेल भीड़ में
वह एक समाज कहाँ छूट गया?
और जिस में पहचाना था देश का चेहरा
वह आईना कहाँ लुट गया?
जाट रे जाट तेरे सिर पर खाट
परजातन्तर की!
खैर, यह बोझ तो जैसे-तैसे ढो लिया जाएगा-
कभी खाट ऊपर तो कभी जाट ऊपर,
यों बोझा न मान, उसे बेचने से पहले
उस पर थोड़ा सो लिया जाएगा।
(बाद में तो घोड़ा बेच कर सोते हैं।
पर वह नसीब इस जन नाम गधे को मिला कब!)
देस रे देस तेरे सिर पर कोल्हू।
इस का भार तू कैसे ढोएगा
जिसे पेरेंगे जाट, बाम्हन, बनिया, तेली, खत्री,
मौलवी, कायथ, मसीही, जाटव, सरदार, भूमिहार, अहीर
और वे सारे घेरे के बाहर के बेचारे
जो नहीं पहचानते अपनी तक़दीर :
तू किस-किस को रोएगा?
कब बनेगा तो राष्ट्र
कब तू अपनी नियति को पकड़ पा कर
तकिया लगा कर सोएगा?
नयी दिल्ली
जून, 1968
आवश्यक
जितना कह देना आवश्यक था
कह दिया गया : कुछ और बताना
और बोलना-अब आवश्यक नहीं रहा।
आवश्यक अब केवल होगा चुप रह जाना
अपने को लेना सँभाल
सम्प्रेषण के अर्पित, निभृत क्षणों में।
अब जो कुछ उच्चारित होगा, कहा जाएगा,
सब होगा पल्लवन, प्रस्फुटन
इसी द्विदल अंकुर का।
बीनते हुए बिखरा-निखरा सोना
फल-भरे शरद का
हम क्या कभी सोचते हैं : ‘वसन्त आवश्यक था?’
नयी दिल्ली
1 जुलाई, 1968
एक दिन
ठीक है, कभी तो कहीं तो चला जाऊँगा
पर अभी कहीं जाना नहीं चाहता।
अभी नभ के समुद्र में
शरद के मेघों की मछलियाँ किलोलती हैं
मधुमाली के झूमरों में
कलियाँ पलकें अधखोलती हैं
अभी मेहँदी की गन्ध-लहरें
पथरीले मन-कगारों की दरारें टटोलती हैं
अभी, एकाएक, मैं तुम्हें छूना, पाना,
तुम्हारी ओर हाथ बढ़ाना नहीं चाहता
पर अभी तुम्हारी स्निग्ध छाँह से
अपने को हटाना नहीं चाहता!
ठीक है, कभी तो कहीं तो चला जाऊँगा
पर अभी कहीं जाना नहीं चाहता।
शब्द सूझते हैं जो गहराइयाँ टोहते हैं
पर छन्दों में बँधते नहीं,
बिम्ब उभरते हैं जो मुझे ही मोहते हैं,
मुझ से सधते नहीं,
एक दिन-होगा!-तुम्हारे लिए लिख दूँगा
प्यार का अनूठा गीत,
पर अभी मैं मौन में निहाल हूँ-
गाना-गुनगुनाना नहीं चाहता!
क्या करूँ : इतना कुछ है जो छिपाना नहीं चाहता
पर अभी बताना नहीं चाहता।
ठीक है, कभी तो कहीं तो चला जाऊँगा
पर अभी कहीं जाना नहीं चाहता, नहीं चाहता!
गुरदासपुर
12 जुलाई, 1968
जाना-अजाना
मैं मरा नहीं हूँ,
मैं नहीं मरूँगा,
इतना मैं जानता हूँ,
पर इस अकेला कर देने वाले विश्वास को ले कर
मैं क्या करूँगा,
यह मैं नहीं जानता।
क्यों तुम ने यह विश्वास दिया?
क्यों उस का साझा किया?
तुम भी
जो मरे नहीं,
मरोगे नहीं;
तुम अब करोगे क्या-
क्या तुम जानते हो?
गुरदासपुर
13 जुलाई, 1968
घेरे
परिचितियाँ
घेरे-घेरे-घेरे
अँधेरे गहनतम निविडतम एकान्त
-आलोक निर्भ्रान्त!
नयी दिल्ली
15 जुलाई, 1968
दास-व्यापारी
हम आये हैं
दूर के व्यापारी
माल बेचने के लिए आये हैं :
माल : जीवित, गन्धित, स्पन्दित
छटपटाती शिखाएँ रूप की
तृषा की ईर्षा की, वासना की, हँसी की, हिंसा की
और एक शब्दातीत दर्द की, घृणा की :
मानवता के चरम अपमान की!
चरम जिजीविषा की!
माल : किन्हीं की माताएँ, बहुएँ, बेटिएँ, बहनें :
किन्हीं पीछे छूट गयों की, लुट गयों की,
जो बिकेंगी, क्यों कि बेची जाने को तो लायी गयी हैं
यहाँ की हो कर रहने,
यही सहने अपना हो जाना किन्हीं और की माताएँ, बहुएँ,
बेटिएँ, बहनें!
जो रौंदी गयीं, रौंदी जाएँगी
और यों मरेंगी नहीं, टिकेंगी।
हमारा तो व्यापार है :
घर हमारा सागर पार है।
आप का माल : हमारा मोल :
फिर आप का संसार है
हमारा तो बेड़ा तैयार है।
हम फिर आएँगे
पर इन्हें नहीं पहचानेंगे
नया माल लाएँगे, नया सोना उगाहेंगे!
और आप भी ऐसा ही चाहेंगे
आप भी तो पिछला इतिहास नहीं मानेंगे!
दो ही तो सच्चाइयाँ हैं
एक ठोस पार्थिव, शरीर-मांसल रूप की;
एक द्रव, वायवी, आत्मिक वासना की धधक की।
बाकी आगे मृषा की, आत्म-सम्मोहन की
असंख्य खाइयाँ हैं!
इतिहास! इधर इति, उधर हास!
फिर क्यों उसे ले कर इतना त्रास?
क्या दास ही बिकते हैं,
इतिहास नहीं बिकता?
बोली लगाइए-माल ले जाइए
दाम चुकाइए
हमें चलता कीजिए
फिर रंगरलियाँ मनाइए
पीढ़ियाँ पैदा कीजिए
और पीढ़ियों का इतिहास रचवाइए!
हम फिर आएँगे :
हमारा व्यापार है।
आप तो मालिक हैं :
आप पर हमारा दारोमदार है।
नयी दिल्ली
जुलाई, 1968
दिति-कन्या को
थोड़ी देर खुली-खुली
आँखें मिलीं
बिजलियों से दौड़े संकेत
सदियों की, संस्कारों की
नींवे हिलीं
अभिप्रेत हुए प्रेत
न देहें हिलीं-डुलीं
न कोई बोला,
गुँथ गयीं दो दुरन्त
जिजीविषाएँ
फिर पलटीं तुरन्त :
सहजता पर
हम लौटे आये।
कौंध में
मैं ने पहचाना
मेरे भीतर जो असुर है
रुँधा, छटपटाता
प्रबल, पर भोला।
क्या ठीक उसी क्षण
तुम ने भी
ओ दिति-कन्या
अपने मन की
धधकती गुहा का
द्वार खोला?
अपने को माना?
नयी दिल्ली
20 जुलाई, 1968
तुम्हें क्या
तुम्हें क्या
अगर मैं देता हूँ अपना यह गीत
उस बाघिन को
जो हर रात दबे पाँव आती है
आस-पास फेरा लगाती है
और मुझे सोते सूँघ जाती है
वह नींद, जिस में मैं देखता हूँ सपने
जिन में ही उभरते हैं सब अपने
छन्द तुक ताल बिम्ब
मौतों की भट्ठियों में तपाये हुए,
त्रास की नदियों के बहाव में बुझाये हुए;
मिलते हैं मुझे शब्द आग में नहाये हुए।
और तो और यही मैं कैसे मानूँ
कि तुम्हीं को वधू, राजकुमारी,
अगर पहले यह न पहचानूँ
कि वही बाघिन है मेरी असली माँ?
कि मैं उसी का बच्चा हूँ?
अनाथ वनैला...
देता हूँ उसे
वासना में डूबे, अपने लहू में सने,
सारे बचकाने मोह और भ्रम अपने-
गीत, मनसूबे, सपने
इसी में सच्चा हूँ :
अकेला...
तुम्हें क्या, तुम्हें क्या, तुम्हें क्या...
नयी दिल्ली
21 जुलाई, 1968
वेध्य
पहले
मैं तुम्हें बताऊँगा अपनी देह का प्रत्येक मर्मस्थल
फिर मैं अपने दहन की आग पर तपा कर
तैयार करूँगा एक धारदार चमकीली कटार
जो मैं तुम्हें दूँगा :
फिर मैं
अपने दक्ष हाथों से तुम्हें दिखाऊँगा
करना वह कुशल, निष्कम्प, अचूक वार
जो मर्म को बेध जाय :
मुझे आह भरने तो क्या
गिरने का भी अवसर न दे :
मैं वह भी न कह पाऊँ
जो कहने की यह भूमिका है-
अवाक् खड़ा रह जाऊँ
जब तक कोई मुझे
भूमिसात् न कर दे।
नहीं तो और क्या है प्यार
सिवा यों अपनी ही हार का अमोघ दाँव किसी को सिखाने के-
किसी के आगे
चरम रूप से वेध्य हो जाने के?
नयी दिल्ली
29 जुलाई, 1968
प्यार
प्यार एक यज्ञ का चरण
जिस में मैं वेध्य हूँ।
प्यार एक अचूक वरण
कि किस के द्वारा
मैं मर्म में वेध्य हूँ।
नयी दिल्ली
29 जुलाई, 1968
जनपथ × राजपथ
राष्ट्रीय राजमार्ग के बीचो-बीच बैठ
पछाहीं भैंस
जुगाली कर रही है :
तेज़ दौड़ती मोटरें, लारियाँ,
पास आते सकपका जाती हैं,
भैंस की आँखों की स्थिर चितवन के आगे
मानो इंजनों की बोलती बन्द हो जाती है।
भैंस राष्ट्रीय पशु नहीं है।
राष्ट्रीय राजमार्ग, प्रादेशिक पशु :
योजना आयोग वाले करें तो क्या करें?
बिचारे उगाते हैं
आयातित रासायिनक खाद से
अन्तर्राष्ट्रीय करमकल्ले।
नयी दिल्ली
11 अगस्त, 1968
लौटते हैं जो वे प्रजापति हैं
झुलसते आकाश के
बादलों को जला कर
शून्य में भी रिक्तता का
एक जमुहाता विवर बना कर
जब वे चले जाएँगे,
तब अन्त में एक दिन
रासायनिक साँपिनें पछाड़ खा कर
धरती पर गिरेंगी,
विषैले धुएँ की गुंजलकें खुल जाएँगी,
धैर्यवान् लहरों में
उन के अहंकारों के
विषव्रण धुल जाएँगे,
तब वे आएँगे
वे दूसरे : दुर्दम
चूहों की तरह नहीं
तिलचट्टों की तरह नहीं
घर लौटते विजेता मनुष्यों की तरह दुरन्त :
वे जिन्होंने
धरती में विश्वास नहीं खोया,
जिन्होंने जीवन में आस्था नहीं खोयी,
जिन के घर
उन पहलों ने नष्ट किये,
महासागर में डुबोये,
पर जिन्होंने अपनी जिजीविषा
घृणा के परनाले में नहीं डुबोयी
उन की डोंगियाँ
फिर इन तरंगों पर तिरेंगी।
अगाध असीम महासागर में
झुके हुए तालों की ओट में
प्रवाल-कीटों का गढ़ा हुआ
एक छेदों-भर छल्ला :
वसुन्धरा की नाभि,
आद्य मातृका की योनि।
ऐसी ही उपेक्षा में तो
बार-बार, बार-बार, बार-बार
अजर अजस्र शृंखला में
जनमेगा पनपेगा
ऐल मनु अजति, अधर्ष,
अविधीत, आत्मतन्त्र।
लौटते हैं दीन निःस्व नंगे जो
वे मानव पितर प्रजापति हैं।
उन्हें कभी कोई विष
डँस नहीं सकता।
नयी दिल्ली
14 अगस्त, 1968
भूत
तुम्हें अपनी धनी हवेली में
भूतों का डर सता रहा है।
मुझे अपने झोंपड़े में
यह डर खा रहा है
कि मैं कब भूत हो जाऊँगा।
सिकन्दरा-आगरा
14 अगस्त, 1968
पत्थर का घोड़ा
आन-बान मोर-पेंच,
धनुष-बाण,
यानी वीर-सूरमा भी कभी
रहा होगा।
अब तो टूटी समाधि के सामने
साबुत खड़ा है
सिर्फ़ पत्थर का घोड़ा।
और भीतर के छटपटाते प्राण!
पहचान
सच-सच बता,
जो कुछ हमें याद है
उसमें कितनी है परम्परा
और कितना बस अर्से से पड़ा
रास्ते का रोड़ा?
सिकन्दरा-आगरा
15 अगस्त, 1968
क्यों कि मैं
क्यों कि मैं
यह नहीं कह सकता
कि मुझे उस आदमी से कुछ नहीं है
जिस की आँखों के आगे
उस की लम्बी भूख से बढ़ी हुई तिल्ली
एक गहरी मटमैली पीली झिल्ली-सी छा गयी है,
और जिसे इस लिए चाँदनी से कुछ नहीं है,
इस लिए
मैं नहीं कह सकता
कि मुझे चाँदनी से कुछ नहीं है।
क्यों कि मैं, उसे जानता हूँ
जिस ने पेड़ के पत्ते खाये हैं,
और जो उस की जड़ की
लकड़ी भी खा सकता है
क्यों कि उसे जीवन की प्यास है;
क्यों कि वह मुझे प्यारा है
इस लिए मैं पेड़ की जड़ को या लकड़ी को
अनदेखा नहीं करता
बल्कि पत्ती को
प्यार भर करता हूँ और करूँगा।
क्यों कि जिस ने कोड़ा खाया है
वह मेरा भाई है
क्यों कि यों उस की मार से मैं भी तिलमिला उठा हूँ,
इस लिए मैं उस के साथ नहीं चीखा-चिल्लाया हूँ :
मैं उस कोड़े को छीन कर तोड़ दूँगा।
मैं इनसान हूँ और इनसान वह अपमान नहीं सहता।
क्यों कि जो कोड़ा मारने उठाएगा।
वह रोगी है,
आत्मघाती है,
इस लिए उसे सँभालने, सुधारने,
राह पर लाने,
ख़ुद अपने से बचाने की
जवाबदेही मुझ पर आती है।
मैं उस का पड़ोसी हूँ :
उस के साथ नहीं रहता।
ग्वालियर
15 अगस्त, 1968
तू-फू1 को : बाहर सौ वर्ष बाद
पुराने कवि को
मुहरें मिलती थीं
या जायदाद मनचाही
या झोंपड़ी के आगे राजा का हाथी बँधवाने का
सन्दिग्ध गौरव,
या यश,
प्रशंसा,
दो बीड़े पान,
कंकण, मुरैठा,
वाहवाही।
या जिसे कुछ नहीं मिलता था
उस की सान्त्वना थी
बहुत-सी सन्तान
भरा-पुरा खानदान
हम तुम, दोस्त, नये कवि बेचारे :
प्रजातन्त्र में पाते हैं
प्रजापत्य विरोधी नारे :
दो या तीन बच्चे बस!
यह कि हम ने ईजाद किया
यही एक नया रस?
ग्वालियर
15 अगस्त, 1968
सपना
जागता हूँ
तो जानता हूँ
1. तू-फू, चीनी कवि, सन् 713-790
कि मेरे पास एक सपना है :
सोता हूँ
तो नींद में
वही एक सपना
कभी नहीं आता।
तुम्हें
मैं किसी तरह छोड़ नहीं सकता :
यों अपने से
मुक्ति नहीं पाता।
ग्वालियर
16 अगस्त, 1968
मैत्री
मैं ने तब पूछा था :
और रसों में, क्या,
मैत्री-भाव का भी कोई रस है?
और आज तुम ने कहा :
कितना उदास है
यह बरसों बाद मिलना!
प्यार तो हमारा ज्यों का त्यों है,
पर क्या इस नये दर्द का भी कोई नाम है?
ग्वालियर
16 अगस्त, 1968
उन्होंने घर बनाये
उन्होंने घर बनाये
और आगे बढ़ गये
जहाँ वे और घर बनाएँगे।
हम ने वे घर बसाये
और उन्हीं में जम गये :
वहीं नस्ल बढ़ाएँगे
और मर जाएँगे।
इस से आगे
कहानी किधर चलेगी?
खँडहरों पर क्या वे झंडे फहराएँगे
या कुदाल चलाएँगे,
या मिट्टी पर हमीं प्रेत बन मँडराएँगे
जब कि वे उस का गारा सान
साँचों में नयी ईंटें जमाएँगे?
एक बिन्दु तक
कहानी हम बनाते हैं।
जिस से आगे
कहानी हमें बनाती है :
उस बिन्दु की सही पहचान
क्या हमें आती है?
ग्वालियर
16 अगस्त, 1968
ड्योढ़ी पर तेल
ड्योढ़ी पर तेल चुआने के लिए
लुटिया तो मँगनी भी मिल जाएगी;
उत्सव के लिए जो मंगली-घड़ी चाहिए
वह क्या इसी लिलार-रेखा पर आएगी?
ग्वालियार
18 अगस्त, 1968
पहली बार जब शराब...
पहली बार
जब दिन-दोपहर में शराब पी थी
तब हमजोलियों से ठिठोलियाँ करते
सोचा था :
कितने ख़तरनाक होते होंगे वे लोग
जो रात में अकेले बैठ कर पीते होंगे?
आज चाँदनी रात में
पहाड़ी काठघर में अकेला बैठा
ठिठुरी उँगलियों में ओस-नम प्याला घुमाते हुए
सोचता हूँ :
इस प्याले में चाँद की छाया है
चीड़ों की सिहरन
झर चुके फूलों की अनभूली महक
बीते बसन्तों की चिड़ियों की चहक है;
इस को-और इस के साथ अपनी (अब जैसी भी है)
किस्मत को सराहिए :
और कोई हमप्याला भला
अपने को क्यों चाहिए?
ग्वालियर
18 अगस्त, 1968
तं तु देशं न पश्यामि
देश-देश में बन्धु होंगे
पर बहुएँ नहीं होंगी
(राम की साखी के बावजूद);
किसी देश में बहू मिल जाएगी
जहाँ बन्धु कोई नहीं होगा।
किसी की जगह
कोई नहीं लेता :
यह तर्क भी
दर्शन की जगह नहीं लेगा,
क्यों नहीं मैं ही
अपनी जगह दूसरा
व्यक्तित्व खोज लेता?
नयी दिल्ली
अगस्त, 1968
तो क्या
रात में
शहर की सूनी सड़कों पर
अनमने भटको-
तो क्या?
किसी भी आते-जाते
भाव की या किसी याद की ओट सिमटे
चेहरे पर अटको-
तो क्या?
किसी को सिटकारी दो,
किसी को दिखा कर
आह भरी, मटको;
यानी समाज की, समाज की
दिनौंधी आँख सिपाही की
आँख में कंकड-काँटे-सा खटको-
तो क्या?
यों बार-बार बेनतीजा
कभी गर्म, कभी सर्द,
हर सूरत बेपानी,
शीशे-से चटको-
तो क्या?
तो क्या?
इस सब से क्या?
लौट कर उसी द्वार
जहाँ से आत्म-निर्वासित
निकले थे, कब से
करते ख़ुद अपना ही तिरस्कार,
उसी घिसी देहरी पर
फिर सिर पटको-
तो क्या?
ग्वालियर
3 सितम्बर, 1968
केले का पेड़
उधर से आये सेठ जी
इधर से संन्यासी
एक ने कही, एक ने मानी-
(दोनों ठहरे ज्ञानी)
दोनों ने पहचानी
सच्ची सीख, पुरानी :
दोनों के काम की,
दोनों की मनचीती-
जै सियाराम की!
सीख सच्ची, सनातन
सौटंच, सत्यानासी।
कि मानुस हो तो ऐसा...
जैसा केले का पेड़
जिस का सब कुछ काम आ जाए।
(मुख्यतया खाने के!)
फल खाओ, फूल खाओ,
धौद खाओ, मोचा खाओ;
डंठल खाओ, जड़ खाओ,
पत्ते-पत्ते का पत्तल परोसो
जिस पर पकवान सजाओ :
(यों पत्ते भी डाँगर तो खाएँगे-गो माता की जै हो, जै हो!)
यों, मानो बात तै हो :
इधर गये सेठ, उधर गये संन्यासी।
रह गया बिचारा भारतवासी।
ओ केले के पेड़, क्यों नहीं भगवान् ने तुझे रीढ़ दी
कि कभी तो तू अपने भी काम आता-
चाहे तुझे कोई न भी खाता-
न सेठ, न संन्यासी, न डाँगर-पशु-
चाहे तुझे बाँध कर तुझ पर न भी भँसाता
हर असमय मृत आशा-शिशु?
तू एक बार तन कर खड़ा तो होता
मेरे लुजलुज भारतवासी!
ग्वालियर
6 सितम्बर, 1968
एक दिन
एक दिन
अजनबियों के बीच
एक अजनबी आ कर
मुझे साथ ले जाएगा।
-जिन अजनबियों के बीच
मैं ने जीवन-भर बिताया है,
जिस अजनबी से
मेरी बड़ी पुरानी पहचान है।
कौन है, क्या है वह, कहाँ से आया है
जो ऐसे में मुझे रखता है
परिचिति के घेरे में आलोक से विभोर?
जिस के ही साथ मैं चलता हूँ
जिस की ही ओर?
जिस का ही आश्रित, मानो जिस की सन्तान?
उसी परिचित के घेरे में
तुम्हें आमन्त्रित करता हूँ,
वरता हूँ :
आओगे?
मेरे मेहमान-एक दिन?
ग्वालियर
6-7 सितम्बर, 1968
देश की कहानी : दादी की ज़बानी
पहले यह देश बड़ा सुन्दर था।
हर जगह मनोरम थी।
एक-एक सुन्दर स्थल चुन कर
हिन्दुओं ने तीर्थ बनाये
जहाँ घनी बसाई हुई
गली-गली, नाके-नुक्कड़
गन्दगी फैला दी।
फिर और एक-एक सुन्दर जगह खोज
मुसलमानों ने मज़ार बनाये :
बसे शहर उजाड़
जिधर देखो खँडहरों की क़तार लगा दी।
फिर और एक-एक सुन्दर जगह छीन
अँगरेज़ों ने छावनियाँ डाल लीं
हिमालय की, बस, पूजा होती रही,
पर्वती सब देसवालिये हो गये।
जब धर्म-निरपेक्ष, जाति-निरपेक्ष
भारतीय लोकतन्त्र हुआ है :
अब बची सुन्दर जगहों को
स्मारक संग्रहालय बनाया जा रहा है।
पहले विदेशी के लिए हर सुन्दर जगह
‘आदिम संस्कृति की क्रीड़ाभूमि’ थी,
अब स्वदेशी के लिए हर सुन्दर जगह
‘नयी संस्कृति का यादी अजायबघर’ है।
पहले हर जगह मनोरम थी
यह देश बड़ा सुन्दर था :
अब हर जगह किसी की यादी है :
अब भी यह देश बड़ा सुन्दर है।
नयी दिल्ली
9 सितम्बर, 1968
उँगलियाँ बुनती हैं
उँगलियाँ बुनती हैं लगातार
रंग-बिरंगे ऊनों से हाथ, पैर,
छातियाँ, पेट दौड़ते हुए घुटने,
मटकते हुए कूल्हे :
उँगलियाँ बुनती हैं
काले डोरे से चकत्ता दिल का-
सफ़ेद, सफ़ेद धागे से
आँखों के सूने पपोटे।
उँगलियाँ बुनती हैं
लगातार बेलाग भूखें, प्यासें,
हरकतें, कार्रवाइयाँ,
हंगामे, नामकरण, शादियाँ-सगाइयाँ
आयोजन, उत्सव-समारोह, खटराग कारनामे।
उँगलियाँ बुनती हैं
सिर्फ घुटे हुए दिल,
सिर्फ़ मरी हुई आँखें।
उँगलियाँ बुनती हैं...
नयी दिल्ली
27-28 सितम्बर, 1968
गूँजेगी आवाज़
गूँजेगी आवाज़
पर सुनाई नहीं देगी।
हाथ उठेंगे, टटोलेंगे,
पर पकड़ाई नहीं पावेंगे।
लहकेगी आग, आग, आग
पर दिखाई नहीं देगी।
जल जाएँगे नगर, समाज, सरकारें,
अरमान, कृतित्व, आकांक्षाएँ :
नहीं मरेगा, विश्वास :
छूट जाएँगी रासें, पतवारें, कुंजियाँ, हत्थे,
नहीं निकलेगी गले की फाँस।
टूट जाएगी मानवता
नहीं चुकेगी कमबख्त मानव की साँस-
धौंकनी जो सुलगाती रहेगी
दबी हुई चिनगारियाँ।
घुटन और धुएँ को
कँपाएगी लहर :
गूँजेगी आवाज़
पर सुनाई नहीं देगी...
नयी दिल्ली
28 सितम्बर, 1968
प्रेमोपनिषद्
वह जो पंछी
खाता नहीं, ताकता है,
पहरे पर एकटक जागता है-
होगा, होगा जब।
मैं वह पंछी हूँ
जो फल खाता है
क्यों कि फल, डाल, तरु, मूल,
तुम्हीं हो सब।
पर एक जागता है, ताकता है-
कौन?
मैं हूँ, जागरूक, पहरेदार।
पक्षी और डाल, तरु और फूल,
सभी मैं देखता हूँ
तुम्हारा होकर।
मुक्त करे तुम्हें, मौन
वही तो होगा
मेरा प्यार।
नयी दिल्ली
सितम्बर, 1968
रात में
तुम्हारी आँखों से
सपना देखा। वहाँ।
अपनी आँखों से
जाग गये। यहाँ।
झील। पहाड़ी पर मन्दिर
कुहरे में उभरा हुआ।
धूप के फूल जहाँ-तहाँ
जैसे गेहूँ में पोस्ते।
और वह एक (किरण) कली
कलश को छूती हुई चलती है।
जागरण।
एक चौंकी हुई झपकी।
एक आह
टूटी हुई सर्द।
एक सहमा हुआ सन्नाटा
और दर्द
और दर्द
और दर्द...
धीरे-उफ़ कितनी धीरे
यह रात ढलती है...
नयी दिल्ली
शरत्पूर्णिमा, 6 अक्टूबर, 1968
ओ तुम
ओ तुम सुन्दरम रूप!-
पर कैसे यह जाना जाय
कि रूप तुम्हारा है
और मेरा ही नहीं है?
ओ तुम मधुरतम भाव!
पर कैसे यह माना जाय
कि वह तुम्हारा है
कुछ मेरा ही नहीं है?
ओ तुम निविडतम मोह।
पर-
...मेरा ही तो मोह!
ओ तुम-पर मैं किसे पुकार रहा हूँ?
नयी दिल्ली
7 अक्टूबर, 1968
कौन-सा सच है
दिन के उजाले में
अनेकों नाम सब के समाज में
हँसी-हँसी सहज
पुकारना
रात के सहमे अँधेरे में
अपने ही सामने अकेला एक नाम
बड़े कष्ट से, अनिच्छा से
सकारना।
कौन-सा सच है?
सब की जीत की खोज कर लायी हुई खुशी में
अपनी हार को
नकारना या कि यह : कि एक ही विकल्प है
हार को लब्धि मान
अपने मिटने पर ही अपने को वारना?
कसौली (हिमाचल)
23 अक्टूबर, 1968
औपन्यासिक
मैं ने कहा : अपनी मनःस्थिति
मैं बता नहीं सकता। पर अगर
अपने को उपन्यास का चरित्र बताता, तो इस समय अपने को
एक शराबखाने में दिखाता, अकेले बैठ कर
पीते हुए-इस कोशिश में कि सोचने की ताक़त
किसी तरह जड़ हो जाए।
कौन या कब अकेले बैठ कर शराब पीता है?
जो या जब अपने को अच्छा नहीं लगता-अपने को
सह नहीं सकता।
उस ने कहा : हूँ! कोई बात है भला? शराबखाना भी
(यह नहीं कि मुझे इस का कोई तजुरबा है, पर)
कोई बैठने की जगह होगी-वह भी अकेले?
मैं वैसे में अपने पात्र को
नदी किनारे बैठाती-अकेले उदास बैठ कर कुढ़ने के लिए।
मैं ने कहा : शराबखाना
न सही बैठने के लायक जगह! पर अपने शहर में
ऐसा नदी का किनारा कहाँ मिलेगा जो
बैठने लायक हो-उदासी में अकेले
बैठ कर अपने पर कुढ़ने लायक?
उस ने कहा : अब मैं क्या करूँ अगर अपनी नदी का
ऐसा हाल हो गया है? पर कहीं तो ऐसी नदी
ज़रूर होगी?
मैं ने कहा : सो तो है-यानी होगी। तो मैं
अपने उपन्यास का शराबखाना
क्या तुम्हारे उपन्यास की नदी के किनारे
नहीं ले जा सकता?
उस ने कहा : हुँ! यह कैसे हो सकता है?
मैं ने कहा : ऐसा पूछती हो, तो तुम उपन्यासकार भी
कैसे बन सकती हो?
उस ने कहा : न सही-हम नहीं बनते उपन्यासकार।
पर वैसी नदी होगी
तो तुम्हारे शराबखाने की ज़रूरत क्या होगी, और उसे
नदी के किनारे तुम ले जा कर ही क्या करोगे?
मैं ने ज़िद कर के कहा : ज़रूर ले जाऊँगा! अब देखो, मैं
उपन्यास ही लिखता हूँ और उसमें
नदी किनारे शराबखाना बनाता हूँ!
उस ने भी ज़िद कर के कहा : वह
बनेगा ही नहीं! और बन भी गया तो वहाँ तुम अकेले बैठ कर
शराब नहीं पी सकोगे!
मैं ने कहा : क्यों नहीं? शराबखाने में अकेले
शराब पीने पर मनाही होगी?
उस ने कहा : मेरी नदी के किनारे तुम को
अकेले बैठने कौन देगा, यह भी सोचा है?
तब मैं ने कहा : नदी के किनारे तुम मुझे अकेला
नहीं होने दोगी, तो शराब पीना ही कोई
क्यों चाहेगा, यह भी कभी सोचा है?
इस पर हम दोनों हँस पड़े। वह
उपन्यास वाली नदी और कहीं हो न हो,
इसी हँसी में सदा बहती है,
और वहाँ शराबखाने की कोई ज़रूरत नहीं है।
नयी दिल्ली
अक्टूबर, 1968
कुछ फूल : कुछ कलियाँ
डाल पर कुछ फूल थे
कुछ कलियाँ थीं!
फूल जिसे देने थे दिये :
तुष्ट हुआ कि उसने उन्हें
कबरी में खोंस लिया!
कलियाँ
कुछ देर मेरे हाथ रहीं
फिर अगर गुच्छे को मैं ने पानी में रख दिया
तो वह अतर्कित उपेक्षा ही थी :
कोई मोह नहीं।
शाम को लौट कर आ गया।
कबरी के फूल
जिसे दिये थे
उसी के माथे पर सूख गये
जैसे कि मेरा मन
मुरझा गया।
कलियाँ-उन का ध्यान भी न आया होता
पर वे तो उपेक्षा के पानी में
खिल आयी हैं!
यहीं की यहीं!
फूल : मन : कलियाँ :
सब अपने-अपने ढंग से
उत्तरदायी हैं।
फूल
मुरझाएगा :
वही तो नियति है :
होने का फल है।
पर उसी की अमोघ बाध्यता का तो बल हैजो कली को खिलाएगा, खिलाएगा।
जो मुझे
जहाँ मारेगा वहाँ मरने से बचाएगा
जो फिर तुम्हारे निकट लाएगा।
क्यों? नहीं?
नयी दिल्ली
अक्टूबर 1968
कन्हाई ने प्यार किया
कन्हाई ने प्यार किया कितनी गोपियों को कितनी बार।
पर उड़ेलते रहे अपना सारा दुलार
उस के रूप पर जिसे कभी पाया नहीं-
जो कभी हाथ आया नहीं।
कभी किसी प्रेयसी में उसी को पा लिया होता-
तो दुबारा किसी को प्यार क्यों किया होता?
कवि ने गीत लिखे नये-नये बार-बार,
पर उसी एक विषय को देता रहा विस्तार
जिसे कभी पूरा पकड़ पाया नहीं-
जो कभी किसी गीत में समाया नहीं।
किसी एक गीत में वह अँट गया दिखता
तो कवि दूसरा गीत ही क्यों लिखता?
नयी दिल्ली
अक्टूबर, 1968
फूल की स्मरण-प्रतिभा
यह देने का अहंकार छोड़ो।
कहीं है प्यार की पहचान
तो उसे यों कहो :
‘मधुर, यह देखो
फूल। इसे तोड़ो;
घुमा-कर फिर देखो,
फिर हाथ से गिर जाने दो :
हवा पर तिर जाने दो-
(हुआ करे सुनहली) धूल।’
फूल की स्मरण-प्रतिभा ही बचती है।
तुम नहीं। न तुम्हारा दान।
नयी दिल्ली
नवम्बर, 1968
छिलके
छिलके के भीतर छिलके के
भीतर छिलका।
क्रम अविच्छिन्न।
तो क्या?
यह कैसे है सिद्ध
कि भीतरतम है, होगा ही,
बाहर से भिन्न?
मैं अनन्य एकाएक
जैसे प्यार।
नयी दिल्ली
नवम्बर, 1968
काल की गदा
काल की गदा एक दिन
मुझ पर गिरेगी।
गदा मुझे नहीं नाएगी :
पर उस के गिरने की नीरव छोटी-सी ध्वनि
क्या काल को सुहाएगी?
नयी दिल्ली
नवम्बर, 1968
देहरी पर
मैं जगा : जागते ही मुझे लगा
कि मैं ने एक सपना देखा था।
सपने का कुछ भी याद न आया
सिवा इस के कि ऐसा मुझे लगा
कि मैं अभी-अभी सपना देखता ही जगा।
है, एक सपना है, मैं ने अपने आप से कहा,
जिस की याद की देहरी पर मैं खड़ा हूँ;
यही घूम-घूम कर मेरी चेतना में गूँजता रहा
कि एक सपना है जिस की याद की देहरी पर मैं खड़ा हूँ।
यों फिर सोया और फिर जगा फिर सोया
एक अन्तहीन क्रम में : मानो संकल्प छिन गया हो अपना,
अनवरत इसी खोज में बेबस, खोया
कि याद कर लूँ अपना भूला-अनभूला सपना।
स्वतःप्रमाण है मेरा प्रत्यय कि याद अभी लौट आएगी :
उस मेरे सपने की जो मैं ने ज़रूर-ज़रूर देखा-
और जिस की मैं याद की बस देहरी पर ही खड़ा हूँ-
तीखी गहरी अनमिट छवि आँक जाएगी।
नहीं है कोई अन्त; न कोई पूरा जाग जाना
न कोई ऐसी याद कि फिर कभी नहीं भूलेगा;
पर ध्रुव, स्वतःप्रमाण है मेरा प्रत्यय कि मैं देहरी पर हूँ
उस सपने की जो मैं ने देखा है, और जिस की छवि
अभी जी उठेगी, देहरी पर साक्षात्, अभी मुझे छू लेगी...
सरादवो (यूगोस्लाविया)
25 दिसम्बर, 1968
हथौड़ा अभी रहने दो
हथौड़ा अभी रहने दो
अभी तो हन भी हम ने नहीं बनाया।
धरा की अन्ध कन्दराओं में से
अभी तो कच्चा धातु भी हम ने नहीं पाया।
और फिर वह ज्वाला कहाँ जली है
जिस में लोहा तपाया-गलाया जाएगा-
जिस में मैल जलाया जाएगा?
आग, आग, सब से पहले आग!
उसी में से बीनी जाएँगी अस्थियाँ;
धातु जो जलाया और बुझाया जाएगा
बल्कि जिस से ही हन बनाया जाएगा-
जिस का ही तो वह हथौड़ा होगा
जिस की ही मार हथियार को
सही रूप देगी, तीखी धार देगी।
हथौड़ा अभी रहने दो :
आओ, हमारे साथ वह आग जलाओ
जिस में से हम फिर अपनी अस्थियाँ बीन कर लाएँगे,
तभी हम वह अस्त्र बना पाएँगे जिस के सहारे
हम अपना स्वत्व-बल्कि अपने को पाएँगे।
आग-आग-आग दहने दो :
हथौड़ा अभी रहने दो!
क्रुशेवच् (यूगोस्लाविया)
26 दिसम्बर, 1968
देखा है कभी
(1)
मैं ने देखी हैं झील में डोलती हुई
कमल-कलियाँ जब कि जल-तल पर थिरक उठती हैं
छोटी-छोटी लहरियाँ।
ऐसे ही जाती है वह, हर डग से
थरथराती हुई मेरे जग को :
घासों की तरल ओस-बूँदें तक को कर बेसुध
चूम लेती हैं उस के चपल पैरों की तलियाँ।
पर तुम ने-नहीं, तुम ने नहीं, उस ने!-देखा है कभी
कि कैसे पर्वती बरसात में
बिजली से बार-बार चौंकायी हुई रात में
तीखी बौछार की हर गिरती बूँद से भेंटने को
सारे पावस को ही अपने में समेटने को
ललकता है उसी झील का वही जल-
हर बूँद की प्रति-बूँद, आकुल, पागल,
जैसे मेरा दिल? जैसे मेरा दिल...
प्राहा (चैकोस्लोवाकिया)
31 दिसम्बर, 1968
मरण के द्वार पर
(1)
ज्योति के
भीतर ज्योति के
भीतर ज्योति।
प्यार है वह-वह सत्
और तत् तदसि एवं-एतत्।
(2)
कहीं एक है वह जिस का है
यह। पर इस से
मेरा क्या नाता
जब कि इस से भी
कुछ नहीं आता-जाता
कि मैं भी हूँ या नहीं?
(3)
कृतं स्मर मृतान्
स्मर क्रतो स्मर।
-हाँ, वह मरण के द्वार पर।
मगर वहाँ जाना कहाँ
इस मारग पर चरण धर?
नयी दिल्ली
दिसम्बर, 1969
सपने में
सपने में अनजानी की
पलकें मुझ पर झुकीं
गाल मेरे पुलकाती सरक गयीं
गीली अलकें
मेरे चेहरे को
लौट-लौट सहला
मुझ को सिहरा कर निकल गयीं।
मैं जाग गया
जागा हूँ
उस अनपहचानी के
अनुराग पगा :
वह कौन? कहाँ?
अनजानी :
अन्धकार को ताक रहा मैं
आँखें फाड़े
ठगा-ठगा!
महावृक्ष के नीचे
जनवरी, 1969
सपने में-जागते में
सपने के भीतर
सपने में अपने
सीढ़ियों पर
बैठा हुआ होता हूँ
धूप में।
-देखने को सपने
जागते मे
जागता भागता हूँ
अँधेरी गुफा में
खोजता हुआ दरार
चौड़ाने को।
झाँकने को पार।
-जागने को?
बर्कले (कैलिफ़ोर्निया)
25 जनवरी, 1969
दोनों सच हैं
वे सब बातें
झूठ भी हो सकती थीं।
लेकिन यों तो
सच भी हो सकती थीं।
बात यह है कि अनुभूतियाँ
बातें नहीं हैं
और असल में विचार भी
शब्दों के फन्दे में आते नहीं हैं।
अपनी-अपनी जगह
दोनों सच हैं
या होंगे;
पर सच क्या है, यह सवाल
हम भरसक उठाते नहीं हैं
और टकरा जायँ तो
पतियाते नहीं हैं।
जनवरी, 1969
भले आये
राम जी भले आये-ऐसे ही
आँधी की ओट में
चले आये बिन बुलाये।
आये, पधारो।
सिर-आँखों पर।
वन्दना सकारो।
ऐसे ही एक दिन
डोलता हुआ आ धमकूँगा मैं
तुम्हारे दरबार में :
औचक क्या ले सकोगे
अपनी करुणा के पसार में?
जनवरी, 1969
छातियों के बीच
उस ने वहाँ अपनी नाक गड़ाते हुए
हुमक कर कहा
और दुहराता रहा-
(दुलार पढ़ा हुआ नहीं भी था-पर क्या बात भी पढ़ी हुई नहीं थी?)-
‘हाँ, यहाँ, तुम्हारी छातियों के बीच
मेरा घर है! यहाँ! यहाँ!’
और चेहरे से उन्हें धीरे-धीरे सहलाता रहा।
और उस ने कहा, ‘हाँ, हाँ,
ऐसे ही फिर; हाँ, फिर कहो!
हाँ, आओ, मैं यहाँ तुम्हें छिपा लूँगी-
तुम सदा यों ही रहो!’
छातियाँ तब नहीं जानती थीं-
जो कि नाक भी तब नहीं मानती थी-
कि तभी से वह वहाँ घर बनाने लगी
जिस में फिर वह बन्दी हो कर छटपटाने लगा।
छातियों के बीच और कुछ नहीं, इस रहस्य का घर है।
माथा क्यों वहाँ टिका है?
क्यों कि नहीं तो नाक जाने का डर है।
बर्कले (कैलिफ़ोर्निया)
1 फरवरी, 1969
अभागे, गा
मरता है?
जिस का पता नहीं
उस से डरता है?
-गा! जीता है?
आस-पास सब कुछ इतना भरा-पुरा है
और बीच में तू रीता है?
-गा!
दुःख से स्वर टूटता है?
छन्द सधता नहीं,
धीरज छूटता है?
-गा!
याकि सुख से ही बोलती बन्द है?
रोम सिहरे हैं, मन निःस्पन्द है?
-फिर भी गा!
अभागे, गा!
बर्कले (कैलिफ़ोर्निया)
10 फरवरी, 1969
क्यों
क्यों यह मेरी ज़िन्दगी
फूटे हुए पीपे के तेल-सी
बूँद-बूँद अनदेखी चुई
काल की मिट्टी में रच गयी?
क्यों वह तुम्हारी हँसी
घास की पत्ती पर टँकी ओस-सी
चमकने-चमकने को हुई
कि अनुभव के ताप में उड़ गयी?
क्यों, जब प्यार नहीं रहा
तो याद मन में फँसी रह गयी?
ज्योनार हो चुकी, मेहमान चले गये,
बस पकवानों की गन्ध सारे घर में बसी रह गयी...
क्यों यह मेरा सवाल अपनी कोंच से
मुझे तड़पाता है रात-भर, रात भर
जैसे टाँड़ में अखबारें की गड्डी में छिपा चूहा
करता रहे कुतर-कुतर, खुसर-फुसर?
बर्कले (कैलिफ़ोर्निया)
16 फरवरी, 1969
पाठ-भेद
एक जगत् रूपायित प्रत्यक्ष
एक कल्पना सम्भाव्य।
एक दुनिया सतत मुखर
एक एकान्त निःस्वर
एक अविराम गति, उमंग
एक अचल, निस्तरंग।
दो पाठ एक ही काव्य।
बर्कले (कैलिफ़ोर्निया)
फ़रवरी, 1969
देर तक हवा में
देर तक हवा में
अलूचों की पंखुरियों को
तिरछी झरते
देखा किया हूँ।
नहीं जानता कि तब
अतीत में कि भविष्य में
कि निरे वर्तमान के
क्षण में जिया हूँ।
भले ही उस बीच बहुत-सी
यादों को उमड़ते
आशाओं को मरते
और हाँ, गहरे में कहीं एक
नयी टीस से अपने को सिहरते
अनजाने पर लगातार
पहचाना किया हूँ।
यों न जानते हुए जीना
क्या सही है?
पर क्या पूछने की एकमात्र
बात यही है?
और मैं ने यह जो होने, जीने,
झरने, सिहरने की
बात कही है,
उस सब में क्या सच वही नहीं है
जो नहीं है?
बर्कले (कैलिफ़ोर्निया)
9 मार्च, 1969
धार पर सँतार दो
चलो खोल दो नाव
चुपचाप
जिधर बहती है
बहने दो।
नहीं, मुझे सागर से
कभी डर नहीं लगा।
नहीं, मुझ में आँधियों का
आतंक नहीं जगा।
नाव तो तिर सकती है
मेरे बिना भी;
मैं बिना नाव भी
डूब सकूँगा।
मुझे रहने दो
अगर मैं छोड़ पतवार
निस्सीम पारावार
तकता हूँ;
खोल दो नाव
जिधर बहती है
बहने दो।
यहाँ भी मुझे
अन्धकार के पार
लहर ले आयी थी;
चूम ली मैं ने मिट्टी किनारे की
सुनहली रज
पलकों को छुआयी थी;
अब-ओठों पर जीभ से सहलाता हूँ
खार उस पानी का
मन को बहलाता हूँ
मधुर होगा मेरा अनजाना भी
अन्त इस कहानी का।
रोको मत
तुम्हीं बयार बन पाल भरो,
तुम्हीं पहुँचे फड़फड़ाओ,
लटों में छन अंग-अंग सिहरो;
और तुम्हीं धार पर सँतार दो चलो,
मुझे सारा सागर
सहने दो।
खोल दो नाव,
जिधर बहती है
बहने दो।
बर्कले (कैलिफ़ोर्निया)
13 मार्च, 1969
घर छोड़े
हाँ, बहुत दिन हो गये
घर छोड़े।
अच्छा था
मन का अवसन्न रहना
भीतर-भीतर जलना
किसी से न कहना
पर अब बहुत ठुकरा लिये
परायी गलियों के
अनजान रोड़े।
यह नहीं कि अब याद आने लगे
चेहरे किन्हीं ऐसे अपनों के,
या कि बुलाने लगे
मेहमान ऐसे कोई सपनों के।
कभी उभर भी आती हैं
कसकें पुरानी,
यह थोड़े ही कि नैन कभी
पसीजे नहीं?
सुख जो छूट गये पर छीजे नहीं
सिहरा भी जाते हैं तन को
जब-तब थोड़े-थोड़े।
सोचता हूँ, कैसा हो
अगर इस सहलाती अजनबी
बसन्त बयार के बदले
वही अपना झुलसाता अन्धड़ फिर
अंग-अंग को मरोड़े;
यह दुलराती फुहार नहीं
वह मौसमी थपेड़ा दुर्निवार
देह को झँझोड़े;
ये नपी-तुली रोज़मर्रा
सहूलतें न भी मिलें,
आये दिन संकट मँडराये,
फिर झिले कि न झिले;
पर भोर हो, सूरज निकले, तो ऐसे
जैसे बंजर-बियाबान की
पपड़ायी मिट्टी को
नया अंकुर फोड़े!
नहीं जानता कब कौन संजोग
ये डगमग पग
फिर इधर मोड़े-या न मोड़े?-
पर हाँ, मानता हूँ कि
जब-तब पहचानता हूँ कि
बहुत दिन हो गये
घर छोड़े।
बर्कले (कैलिफ़ोर्निया)
17 मार्च, 1969
मैं ने ही पुकारा था
ठीक है
मैं ने ही तेरा नाम ले कर पुकारा था
पर मैं ने यह कब कहा था
कि यों आ कर
मेरे दिल में जल?
मेरे हर उद्यम में उघाड़ दे
मेरा छल,
मेरे हर समाधान में
उछाला कर सौ-सौ सवाल
अनुपल?
नाम : नाम का एक तरह का सहारा था।
मैं थका-हारा था
पर नहीं था किसी का गुलाम।
पर तूने तो आते ही फूँक दिया घर-बार
हिये के भीतर भी जगा दिया नया हाहाकार ओ मेरे राम!
बर्कले (कैलिफ़ोर्निया)
17 मार्च, 1969
याद
याद : सिहरन : उड़ती सारसों की जोड़ी।
याद : उमस : एकाएक घिरे बादल में
कौंध जगमगा गयी।
सारसों की ओट बादल,
बादल में सारसों की जोड़ी ओझल,
याद की ओट याद की ओट याद।
केवल नभ की गहराई बढ़ गयी थोड़ी।
कैसे कहूँ कि किस की याद आयी?
चाहे तड़पा गयी?
काबूकी प्रेक्षागृह में (सैन फ्रांसिस्को)
21 मार्च, 1969
गाड़ी चल पड़ी
पैर उठा और दबा
धीमी हुई गाड़ी और रुक गयी।
इंजन घरघराता रहा।
मैं मुड़ा, एक लम्बी दीठ-भर
मेरी आँखों ने उस की
आँखों को थाहा।
कुछ कहा नहीं, न कुछ चाहा।
फिर पैर, हाथ, तन
पहले-से सध आये,
दीठ की खोज चुक गयी।
और गाड़ी चल पड़ी
मील पर मील पर मील।
मन थरथराता रहा।
काल के सवालों का
नहीं है मेरे पास कोई जवाब,
जो उसे- या किसी को-दे सकूँ।
इतना ही कि ऐसी अतर्कित चुप्पियों में
मिल जाती हैं जब-तब छोटी-छोटी अमरताएँ
जिस में साँस ले सकूँ।
बर्कले (कैलिफ़ोर्निया)
22 मार्च, 1969
बालू घड़ी
तुम मेरी एक निजी घड़ी
जिस में मैं ओक भर-भर
समय पूरता हूँ
और वह बालू हो कर रीत जाता है।
जिस बालू को मैं फिर बटोरता हूँ।
किस के पैरों की छाप है
इस बालू पर जिसे ताकते-ताकते
मेरा सारा चेतन जीवन बीत जाता है?
और मैं फिर अपने को पाने के लिए तुम्हें अगोरता हूँ।
बर्कले (कैलिफ़ोर्निया)
28 मार्च, 1969
अलस
भोर
अगर थोड़ा और अलसाया रहे,
मन पर
छाया रहे
थोड़ी देर और
यह तन्द्रालस चिकना कोहरा;
कली
थोड़ी देर और
डाल पर अटकी रहे,
ओस की बूँद
दूब पर टटकी रहे;
और मेरी चेतना अकेन्द्रित भटकी रहे,
इस सपने में जो मैं ने गढ़ा है
और फिर अधखुली आँखों से
तुम्हारी मुँदी पलकों पर पढ़ा है
तो-तो किसी का क्या जाए?
कुछ नहीं।
चलो, इस बात पर
अब उठा जाए।
बर्कले (कैलिफ़ोर्निया)
29 मार्च, 1969
मों मार्त्र
उधार के समय में
खरीदे हुए प्यार पर
चुरायी हुई मुस्कानें।
चलती-फिरती पपड़ायी सूरतें,
इश्तहारी नंगी सूरतें :
एक में दूसरी
और क्या पहचानें?
बर्कले (कैलिफ़ोर्निया)
29 मार्च, 1969
मन दुम्मट-सा
मन
दुम्मट-सा गिरता है
सूने में अँधेरे में;
न जाने कितनी गहरी है
भीत
मेरी उदासी की
ओ मीत!
गिरता है गिरता है
कहीं नहीं थिरता है धीरज;
नीचे ही सही
राह भी होती
उतरने की, तो
गिरता, डूब जाता
फिर शायद उतराता...
पर नहीं; मन
गिरता है और गिरता ही जाता है,
न थाह पाता है न फिरता है,
बस, सहमता ताकता है
कि मनोगर्त का अँधेरा ही बढ़ कर लोक लेता है।
देखो! कहीं वही तो नहीं,
अब स्वयं मेरे भीतर से झाँकता है?
उफ़, गिरता है, गिरता है
मन...
बर्कले (कैलिफ़ोर्निया)
अप्रैल, 1961
कैसा है यह ज़माना
कैसा है यह ज़माना
कि लोग
इसे भी प्यार की कविता
मानेंगे!
पर कैसा है यह ज़माना
कि हमीं
ऐसी ही कविता में
अपना प्यार
पहचानेंगे।
बर्कले (कैलिफ़ोर्निया)
अप्रैल, 1969
कौन-सी लाचारी
कौन-सी लाचारी से नाल पर,
खिली यह कली
फूलदान में-
मूल से कटी हुई?
वही क्या हम में नहीं हैं
जो काल के डंठल पर,
खिल रहे हैं
अनादि कूल से कटे?
बर्कले (कैलिफ़ोर्निया)
मई, 1969
सागर-मुद्रा-1
आकाश
बदलाया
धूमायित
भवें कसता हुआ
झुक आया।
सागर सिहरा
सिमटा
अपनी ही सत्ता के भार से
सत्त्वमान
प्रतिच्छायित
भीतर को खिच आया।
फिर सूरज निकला
रुपहली मेघ-जाली से छनती हुई
धूप-किरनें
लहरियों पर मचलती हुई बिछलती हुई
इठलायीं।
तब फिर
वह मानो सिमट गयी
अपने भीतर को : दीठ खोयी-सी
सत्ता निजता भूली, सोयी-सी
लून लदी भीजी बयार से
मेरी आँखें कसमसायीं,
मैं ने हाथ उठाया-कि मेरे अनजाने
उस के केशों के धूप-मँजे सोने का
गीला जाल
मेरे चारों ओर
सहसा कस आया।
मांटैरे (कैलिफ़ोर्निया)
मई, 1969
सागर-मुद्रा-2
सागर की लहरों के बीच से वह
बाँहें बढ़ाये हुए
मेरी ओर दौड़ती हुई आती हुई
पुकारती हुई बोली :
‘तुम-तुम सागर क्यों नहीं हो?’
मेरी आँखों में जो प्रश्न उभर आया,
अपनी फहरती लटों के बीच से वह
पलकें उठाये हुए
उसे न नकारती हुई पर अपने उत्तर से
मानो मुझे फिर से ललकारती हुई
अपने में सिमटती हुई बोली :
‘देखो न, सागर बड़ा है, चौड़ा है,
जहाँ तक दीठ जाती है फैला है,
मुझे घेरता है, धरता है, सहता है, धारता है, भरता है,
लहरों से सहलाता है, दुलराता है, झुमाता है, झुलाता है
और फिर भी निर्बन्ध मुक्त रखता है, मुक्त करता है-
मुक्त, मुक्त, मुक्त करता है!’
मैं जवाब के लिए कुछ शब्द जुटा सकूँ-
सँवार सकूँ,
या वह न बने तो
राग-बन्धों का ही न्यौछावर लुटा सकूँ-
इस से पहले ही वह फिर
हँसती हुई मुड़ती हुई दोलती हुई उड़ती हुई
सागर की लहरों के बीच पहुँच गयी।
मांटैरे (कैलिफ़ोर्निया)
मई, 1969
सागर-मुद्रा-3
रेती में
चार टूटी पर सँवारी हुई सीपियाँ,
एक ढहा हुआ
बालू का घरहरा
खारे पानी से मँजी हुई चैली का दंड
जिस पर
नारंगी के छिलके की
कतरन का फरहरा।
जहाँ-तहाँ बच्चों की पैरछाप की कैरियाँ।
खाली बोतलें दो अदद,
दफ्ती की तश्तरियाँ-फकत तीन;
कुछ टुकड़े रोटी के,
पनीर के, कुछ टमाटर के छिलके,
गुड़-मुड़ी काग़ज़
बालू में अध-दबी पन्नी
कुछ रुपहली, कुछ रंगीन,
जहाँ-तहाँ आस-पास
काग़ज़ के कुचले हुए गिलास।
बार-बार हम आते हैं
और रेती में लिख जाते हैं
अपने सुख-चैन की कहानी :
प्यार में दिये हुए वचन,
या निहोरे पर किये हुए सैर के इरादे।
बार-बार रेती पर
हँसियाँ, किलकारियाँ,
कुनबे, फुरसत,
उत्सव-जयन्तियाँ, सगाइयाँ।
दोस्तियाँ-यारियाँ, दुनियादारियाँ।
बार-बार रेती को
साँचे में भरते हैं;
रेती में अपना निजी
कचरा मिलाते हैं,
छाप छोड़ चले जाते हैं।
जिसे बार-बार
सागर धोता है,
आँधी माजती है,
लहरें लीपती हैं, सूरज सुखाता है,
समीरण सँवार कर
कहीं बह जाता है।
और फिर सागर रह जाता है।
तरंग-अंगुलियों पर गिनता
मानव के अद्भुत उद्यम, सनकी सपने,
स्वैरचारिणी चिन्ता।
मांटैरे (कैलिफ़ोर्निया)
मई, 1969
सागर-मुद्रा-4
सागर पर
उदास एक छाया घिरती रही
मेरे मन में वही एक प्यास तिरती रही
लहर पर लहर पर लहर :
कहीं राह कोई दीखी नहीं,
बीत गया पहर,
फिर दीठ नहीं ठहर गयी
जहाँ गाँठ थी। जो खोलनी ही तो
हम ने चाही नहीं, सीखी नहीं।
छा गया अँधेरा फिर : जल थिर, समीर थिर;
ललक, जो धुँधला गयी थी, चिनगियाँ विकिरती रहीं...
मांटैरे (कैलिफ़ोर्निया)
मई, 1969
सागर-मुद्रा-5
कुहरा उमड़ आया
हम उस में खो गये
सागर अनदेखा
गरजता रहा।
फिर हम उमड़े
सागर अनसुना
बरजता रहा,
कुहरा हम में खो गया।
सब कुछ हम में खो गया,
हम भी
हम में खो गये।
सागर कुहरा हम
कुहरा सागर
शं...
मांटैरे (कैलिफ़ोर्निया)
मई, 1969
सागर-मुद्रा-6
सागर के किनारे
हम सीपियाँ-पत्थर बटोरते रहे,
सागर उन्हें बार-बार
लहर से डुलाता रहा, धोता रहा।
फिर एक बड़ी तरंग आयी
सीपियाँ कुछ तोड़ गयी,
कुछ रेत में दबा गयी,
पत्थर पछाड़ के साथ बह गये।
हम अपने गीले पहुँचे निचोड़ते रह गये,
मन रोता रहा।
फिर, देर के बाद हम ने कहा : पर रोना क्यों?
हम ने क्या सागर को इतना कुछ नहीं दिया?
भोर, साँझ, सूरज-चाँद के उदय-अस्त,
शुक्र तारे की थिर और स्वाती की कँपती जगमगाहट,
दूर की बिजली की चदरीली चाँदनी,
उमस, उदासियाँ, धुन्ध,
लहरों में से सनसनाती जाती आँधी...
काजल-पुती रात में नाव के साथ-साथ
सारे संसार की डगमगाहट :
यह सब क्या हम ने नहीं दिया?
लम्बी यात्रा में
गाँव-घर की यादें,
सरसों का फूलना,
हिरनों की कूद, छिन चपल छिन अधर में टँकी-सी,
चीलों की उड़ान, चिरौटों, कौओं की ढिठाइयाँ,
सारसों की ध्यान-मुद्रा, बदलाये ताल के सीसे पर अँकी-सी,
वन-तुलसी की तीखी गन्ध,
ताजे लीपे आँगनों में गोयठों पर
देर तक गरमाये गये दूध की धुईंली बास,
जेठ की गोधूली की घुटन में कोयल की कूक,
मेड़ों पर चली जाती छायाएँ
खेतों से लौटती भटकती हुई तानें
गोचर में खंजनों की दौड़,
पीपल-तले छोटे दिवले की
मनौती-सी ही डरी-सहमी लौ-
ये सब भी क्या हम ने नहीं दीं?
जो भी पाया, दिया :
देखा, दिया :
आशाएँ, अहंकार, विनतियाँ, बड़बोलियाँ,
ईर्ष्याएँ, प्यार दर्द, भूलें, अकुलाहटें,
सभी तो दिये :
जो भोगा, दिया; जो नहीं भोगा, वह भी दिया;
जो सँजोया, दिया,
जो खोया, दिया।
इतना ही तो बाक़ी था कि वह सकें :
जो बताया वह भी दिया?
कि अपने को देख सकें
अपने से अलग हो कर
अपनी इयत्ता माप सकें
...और सह सकें?
मांटैरे (कैलिफ़ोर्निया)
मई, 1969
सागर-मुद्रा-7
वहाँ एक चट्टान है
सागर उमड़ कर उस से टकराता है
पछाड़ खाता है
लौट जाता है
फिर नया ज्वार भरता है
सागर फिर आता है।
नहीं कहीं अन्त है
न कोई समाधान है
न जीत है न हार है
केवल परस्पर के तनावों का
एक अविराम व्यापार है
और इस में
हमें एक भव्यता का बोध है
एक तृप्ति है, अहं की तुष्टि है, विस्तार है :
विराट् सौन्दर्य की पहचान है।
और यहाँ
यह तुम हो
यह मेरी वासना है
आवेग निर्व्यतिरेक
निरन्तराल...
खोज का एक अन्तहीन संग्राम :
यही क्या प्यार है?
मांटैरे (कैलिफ़ोर्निया)
मई, 1969
सागर-मुद्रा-8
यों मत छोड़ दो मुझे, सागर,
कहीं मुझे तोड़ दो, सागर,
कहीं मुझे तोड़ दो!
मेरी दीठ को और मेरे हिये को,
मेरी वासना को और मेरे मन को,
मेरे कर्म को और मेरे मर्म को,
मेरे चाहे को और मेरे जिये को
मुझ को और मुझ को और मुझ को
कहीं मुझ से जोड़ दो!
यों मत छोड़ दो मुझे, सागर,
यों मत छोड़ दो।
बर्कले (कैलिफ़ोर्निया)
10 मई, 1969
सागर-मुद्रा-9
क्षितिज जहाँ उद्भिज है
एक छाया-नाव
सरकती चली जाती है परिभाषा की रेखा-सी।
और फिर क्षिति और सागर मिल जाते हैं
शब्दों से परे एक नाद में :
संवेदन से परे एक संवाद में।
कहाँ, कौन किस से अलग है, जब कि मैं
पूछता हुआ भी, प्रश्न में खो जाता हूँ,
गगन की उदधि की चेतना की इकाई में?
मांटैरे (कैलिफ़ोर्निया)
मई, 1969
सागर-मुद्रा-10
हाँ,
लेकिन तुम्हारा अविराम आन्दोलन
शान्ति है, ध्रुव आस्था है,
सनातन की ललकार है;
जब कि धरती की एकरूप निश्चलता
जड़ता में
उस सब का निरन्तर हाहाकार है।
जो मर जाएगा,
जो बिना कुछ पाये, बिना जाने
अपने को बिना पहचाने
बिखर जाएगा!
मांटैरे (कैलिफ़ोर्निया)
मई, 1969
सागर-मुद्रा-11
सोच की नावों पर
चले गये हम दूर कहीं;
किनारे के दिये
झलमलाने लगे।
फिर, वहाँ कहीं, खुले समुद्र में
हम जागे। तो दूर नहीं
थी दूर उतनी : चले ही अलग-अलग
हम आये थे। लाये थे
अलग-अलग माँगें।
तब, वहाँ, सुनहली तरंगों पर
हकोले हम खाने लगे।
ओह, एक ही समुद्र पर
एक ही समीर से सिहरते
कौन एक राग ही
हमारे हिये गाने लगे!
मांटैरे (कैलिफ़ोर्निया)
मई, 1969
सं. 8 बर्कले (कैलिफ़ोर्निया)
अक्टूबर, 1969
सागर-मुद्रा-12
लहर पर लहर पर लहर पर लहर :
सागर, क्या तुम जानते हो कि तुम
क्या कहना चहाते हो?
टकराहट, टकराहट, टकराहट :
पर तुम
तुम से नहीं टकराते;
कुछ ही तुम से टकराता है
और टूट जाता है जिसे तुम ने नहीं
तोड़ा।
सागर
पर पक्षी ऊपर ही ऊपर उड़ जाते हैं,
सागर
पर मछलियाँ नीचे ही नीचे तैरती हैं,
नावें, जहाज़
पर वे सतह को ही चीरते हुए चले जाते हैं-
वह भी घाट से घाट तक।
सागर
देश और देश और देश, लहराता देश;
काल और काल और काल, उमड़ता काल
कहाँ है तुम्हारी पहचान, सागर, कहाँ?
जहाँ धरा और आकाश मिलते हैं
जहाँ देश और काल
जहाँ सागर तल की मछली छटपटा कर उछल कर
वायु माँगती है
जहाँ आकाश का पक्षी सनसनाता गिर कर
नीर को चीरता है
जहाँ नौका पतवार खो कर पलट कर तल की ओर
डूबने लगती है,
वहाँ तब, देश और काल और अस्ति के उस
त्रितय सन्निपात की धार पर
तुम्हारी पहचान कौंधती है
और लय हो जाती है
कि तुम प्राण हो
कि तुम अन्न हो
कि तुम मृत्यु हो
कि तुम होते हो तो खो जाते हो, क्यों कि हम खोते हैं तो होते हैं।
लहर पर लहर पर लहर पर लहर :
सागर, तुम कुछ कहना नहीं चाहते
तुम होना चाहते हो...
हर लहर
टकरायी और टूट गयी
लहर पर लहर पर लहर-
अन्त नहीं, अन्त नहीं, अन्त नहीं...
चट्टान
सहती रही, रहती रही
फिर ढही तो
निःशेष-निःशेष-निःशेष...
लहर पर लहर पर लहर...
लहर पर लहर पर लहर,
कहाँ है वह संगीत
जिस के लिए प्रजापति की वीणा काँपी
वह अमृत
जिस के लिए सुरों-असुरों ने तुझे मथा?
चुक गयी क्या
पुराण की रूप-कथा :
तू क्या सदा से केवल भाप से जमता हुआ जल का कोष रहा,
तू क्या अग्नि की, रत्नों की, सुखों की,
प्रकाश के रहस्यों की खनि, देवत्व की योनि,
कभी न था, न था?
लहर पर लहर पर लहर पर लहर...
रात होगी
जब तूफ़ान तुझे मथेगा
जब ऊपर और नीचे
ठोस और तरल और वायव
आग और पानी
बनने और मिटने के भेद लय हो जाएँगे :
तो क्या हुआ? वही तो अस्ति है!
तूफ़ान ने मुझे भी मथा है और वह लय
मैं ने भी पहचानी है।
छोटी ही है, पर, सागर,
मेरी भी एक कहानी है...
सागर को प्रेम करना
मरण की प्रच्छन्न कामना है!
तो क्या?
मरण अनिवार्य है :
प्रेम
स्वच्छन्द वरण है :
प्रच्छन्न ही सही, सागर, मुझे कोई लज्जा नहीं-
न अपने रहस्य की न अपनी स्वच्छन्दता की :
आ तू, दोनों का साझा कर :
लहर पर लहर पर लहर पर लहर...
फरवरी, 1957
सागर-मुद्रा-13
ओ सागर
ओ मेरी धमनियों की आग,
मेरे लहू के स्पन्दित राज-रोग,
सागर
ओ महाकाल
ओ जीवन
दिग्विहीन आगम,
प्रत्यागम निरायाम,
द्वारहीन
निर्गमन,
सागर, ओ जीवन-लय, ओ स्पन्द!
ओ सदा सुने जाते मौन,
ओ कभी न सुने गये विराट् विस्फोट
निःशेष :
ओ मेघ, ओ ज्वार, ओ बीज,
ओ विदाध, ओ रावण, ओ कीट-दंश!
ओ रविचुम्बी गरुड़, ओ हारिल,
ओ आँगन के नृत्य-रत मयूर!
ओ अहल्या के राम,
ओ सागर!
लहर पर लहर पर लहर पर लहर...
फरवरी, 1971
सागर-मुद्रा-14
सागर, ओ आदिम रस जिस में समस्त रूपाकार
अपने को रचते हैं,
जिस में जीवन आकार लेता है, बढ़ता है, बदलता है,
ओ सागर, काल-धाराओं के संगम,
काल-वाष्प के उत्स, काल-मेघ के लीलाकाश,
काल-विस्फोट की प्रयोग-भूमि,
सागर, ओ जीव-द्रव, वज्रवक्ष,
ओ शिलित स्राव, ओ मार्दव
आदिम जीवन कर्दम,
ओ आलोक-कमल!
ओ सागर, ओ अंकुर के स्फुरण, विकसने के उन्मेष,
फूलने के प्रतिफल
ओ मरने के कारण, मृत्यु के काल,
बीज के बीज,
चयित विकिरण, आन्दोलन अचंचल,
सागर, ओ!
ओ सागर, आदिम रस...
फरवरी, 1971
एक दिन यह राह
एक दिन यह राह पकड़ूँगा
सदा यह जानता था। पर
अभी कल भी मुझे सूझा नहीं था
कि वह दिन
आज होगा!
बर्कले (कैलिफ़ोर्निया)
जून, 1969
मुझे आज हँसना चाहिए
एक दिन मैं
राह के किनारे मरा पड़ा पाया जाऊँगा
तब मुड़-मुड़ कर साधिकार लोग पूछेंगे :
हमें पहले क्यों नहीं बताया गया
कि इस में जान है?
पर तब देर हो चुकी होगी।
तब मैं हँस न सकूँगा।
इस बात को ले कर
मुझे आज हँसना चाहिए।
इतिहास का काम
इतने से सध जाएगा कि
एक था जो-था
अब नहीं है-पाया गया।
पर जो मैं जिया, जो मैं जिया,
जो रोया-हँसा
जो मैं ने पाया, जो किया,
उस का क्या होगा?
उस के लिए भी है एक नाम :
‘आया-गया’
इस नाम को ले कर
मुझे आज हँसना चाहिए
मेरे जैसे करोड़ों हैं
जिन से इतिहास का काम
इसी तरह सधता है :
कि थे-नहीं हैं।
उन का सुख-दुःख, पाना-खोना
अर्थ नहीं रखता, केवल होना
-या अन्ततः न होना।
वे नहीं जानते इतिहास, या अर्थ;
वे हँसते हैं। और लेते हैं
भगवान् का नाम।
इस बात को ले कर
मुझे आज हँसना चाहिए।
इसी लिए तो
जिस का इतिहास होता है
उन के देवता हँसते हुए नहीं होते :
कैसे हँस सकते?
और जिनके देवता हँसते हुए होते हैं
उन का इतिहास नहीं होता :
कैसे हो सकता
इसी बात को ले कर
मुझे आज हँसना चाहिए...
नयी दिल्ली
अगस्त, 1969
रह गये
सब अपनी-अपनी
कह गये :
हम
रह गये।
ज़बान है
पर कहाँ है बोल
जो तह को पा सके?
आवाज़ है
पर कहाँ है बल
जो सही जगह पहुँचा सके?
दिल है
पर कहाँ है जिगरा
जो सच की मार खा सके?
यों सब जो आये
कुछ न कुछ
कह गये :
हम अचकचाये रह गये।
नयी दिल्ली
अगस्त, 1969
जन्म-शती
उसे मरे
बरस हो गये हैं।
दस-या बारह, अठारह, उन्नीस-
या हो सकता है बीस?-
मेरे जीवन-काल की बात है-
अभी तो तुझे कल जैसी याद है।
कैसे मरे?
कुछ का ख़याल है कि मरे नहीं, किसी ने मारा।
कुछ कहते हैं, लम्बी बीमारी थी।
कुछ कि मामला डॉक्टरों ने बिगाड़ा।
कुछ कि अजी, डॉक्टरों की शह थी।
राजनीति में क्या नहीं चलता?
कुछ सयाने-कि भावी कभी नहीं टलता।
मौत आती है तो मरते हैं; रहता नहीं चारा।
कुछ और फ़रमाते हैं : अब छोड़ो जो मर गया।
जो ज़िन्दा हैं उनकी सोचो; वह तो तर गया।
मर जाने के बाद
किस ने क्या किया था कौन जानता है?
कोई श्रद्धा से कहता है, बड़े काम किये;
कोई अवज्ञा से-कौन मानता है!
कोई सुझाता है : मौका ऐसा था कि बन गये नेता
आज होते तो कोई ध्यान नहीं देता।
कोई इतिहास-पुरुष कहता है, कोई पाखंडी, कोई अवतार।
कोई अन्धों के देश का काना सरदार।
लगा ही रहता है वाद-विवाद।
पर एक बात तो मानी हुई है-
ऐतिहासिक तथ्य है, सब को ज्ञात है-
कि उन्हें जनमे ठीक सौ बरस होने आते हैं।
और इस लिए हम उन की जन्म-शती मनाते हैं।
इस में हम सब साथ हैं।
नयी दिल्ली
29 सितम्बर 1969
कविता की बात
नहीं, मैं अपनी बात नहीं कहता।
यह नहीं कि वह मुझे कहनी नहीं है
पर वह जिसे भी कही जाएगी
अनकहे कही जाएगी
और जब तक उसे और उसे मात्र कह न पाएगी
अनकही रह जाएगी।
तुम से मैं कहता हूँ
तुम्हारी ही बात
जैसा कि तुम सुन कर ही जानोगे :
सुनते ही बार-बार पहलू-दर-पहलू, कटाव-दर-कटाव
तुम्हारे ही लाख-लाख प्रतिबिम्बों में कही जाती
लाख-लाख स्वर-धाराओं में अविराम बही आती
तुम्हारी ही बात पहचानोगे।
या फिर पाओगे
कि वह तुम्हारी से भी आगे
सब की बात है-ऐसी सब की
कि किसी की नहीं है,
कहीं की नहीं है, कभी की नहीं है
पर अपने और अपने-आप में स्वायत्त, स्वतःप्रमाण होने के नाते
ठीक यहीं की है और ठीक अब की है।
कविता तो
ऐसी ही बात होती है।
नहीं तो लयबद्ध बहुत-सी ख़ुराफ़ात होती है।
ऐसी ही बात
दिल फोड़ कर रहस्य से आती है
भीतर का जलता प्रकाश बाहर लाती है :
स्वयं फिर नहीं दीखती, और सब-कुछ दिखाती है,
उसी सब में कहीं
कवि को भी साथ ले कर
लय हो जाती है।
नयी दिल्ली
सितम्बर, 1969
नदी का बहना
देर तक देखा हम ने
नदी का बहना।
पर नहीं आया हमें
कुछ भी कहना।
फिर उठे हम, मुड़े चलने को;
तब नैन मिले,
हुए मानो जलने को;
एक को जो कहना था
दूसरे ने सुन लिया :
‘किसी भविष्य में नहीं, पिया!
न ही अतीत में कहीं,
तुम अनन्त काल तक इसी
वर्तमान में रहना!’
नयी दिल्ली
सितम्बर, 1969
बेल-सी वह मेरे भीतर
बेल-सी वह मेरे भीतर उगी है, बढ़ती है।
उस की कलियाँ हैं मेरी आँखें,
कोंपलें मेरी अँगुलियों में अँकुराती हैं;
फूल-अरे, यह दिल में क्या खिलता है!
साँस उस की पँखुड़ियाँ सहलाती हैं।
बाँहें उसी के वलय में बँध कसमसाती हैं।
बेल-सी वह मेरे भीतर उगी है, बढ़ती है,
जितना मैं चुकता जाता हूँ,
वह मुझे ऐश्वर्य से मढ़ती है!
बर्कले (कैलिफ़ोर्निया)
16 अक्टूबर, 1969
देलोस1 से एक नाव
दाड़िम की ओट हो जा, लड़की!
भोर-किरणों की ओट
देलोस की ओर से
एक नाव आ रही है!
क्या जाने, भोर-पंछियों के शोर के साथ
खित्तारे के स्वर भी उमड़ते हुए आने लगें!
मैं ने तो इसी लिए अंजीर की ओट ली है
और वंशी बजा रहा हूँ :
दाड़िम की ओट हो जा, लड़की!
और सुन, तुझे बुला रहा हूँ!
अक्टूबर, 1969
1. देलोस : एजियन सागर (पूर्वी भूमध्य सागर) के किवलदीस (साइक्लैंडीज़द्वीप-समूह का सब से छोटा द्वीप। अपोलो का जन्म यहीं हुआ था, यहीं उस की पूजा का प्रधान केन्द्र था।
कहाँ
मन्दिर में मैं ने एक बिलौटा देखा :
चपल थीं उस की आँखें
और विस्मय-भरी
उस की चितवन;
और उस का रोमिल स्पर्श
न्यौतता था
सिहरते अनजान खेलों के लिए
जिस का आश्वासन था उस के
लोचीले बिजली-भरे तन में!
बाहर यह एक अजनबी नारी है :
आँखों में स्तम्भित, निषेधता अँधेरा,
बदन पर एक दूरी का ठंडा ओष!
भद्रे, तुम ने मेरा बिलौटा
कहाँ छिपा दिया?
अक्टूबर, 1969
देखता-अगर देखता
प्रेक्षागृह की मुँडेर पर बैठ मैं ने
उसे बाहर रंगपीठ की ओर जाते हुए देखा था,
यद्यपि वह नटी नहीं थी,
और नाटक-मंडली अपना खेल दिखा कर
कब की चली जा चुकी थी :
मंडली के आर्फ़िउस की वंशी
वहाँ फिर सुनाई नहीं देगी।
और अगर मैं घाटी के छोर पर बैठ कर देखता
तो मैं उसे बार-बार तलेटी की ओर जाते हुए देखा करता,
यद्यपि वह न सूरमा थी
न सेना ही पिछलगू,
और वीरों की टोलियाँ कब की घाटी से
उतर करखाड़ी के पार चली जा चुकी हैं :
जहाँ से लौटती हुई कारिंथोस के विजेता की हुं
कार ही गूँज अब घाटी को नहीं थरथराएगी।
पर अगर मैं जालिपा के इस उजाड़ वन के किनारे बैठ
उसे ताका करता
जिस में अब न पुजारियों की सीठी पदचाप है
न तीर्थयात्रियों की बेकल चहल-पहल
तो इस की बल खाती पगडंडियों पर
वह न दीखती :
और मैं जानता रहता कि वहाँ
और उस से आगे, अधिक घने कुंजों में
और उस से आगे, जहाँ छिपे सोते का पानी वापी में सँचता है-
सर्वत्र एक अँधियारा सन्नाटा है,
जालिपा की सैकड़ों वर्षों से मरोड़ी हुई डालें हैं
और मेरी एकटक आँखें जिन में
उस की अनुपस्थिति सनसनाती है!
अक्टूबर, 1969
जो तू सागर से बनी थी1
जो तू सागर से बनी थी
(जलजा की प्रिया की परछाईं)!
एक दिन शान्त, सोहनी, सुहासिनी,
1. रूप और प्रेम की देवी अफ्रोदाइती सागर-फेन से सहज उद्भूत हुई थी। कीप्रस (साइप्रस) में उसका मुख्य मन्दिर था, इस लिए वह कीप्रिस भी कहलाती थी। ग्रीक सागर-देवता पोसेइदोन् (वरुण) वज्र-त्रिशूल धारण करता है; आँधियाँ-बिजलियाँ उसी के अधीन हैं।
धूप-सुनहली, चाँदनी-रुपहली,
नाविक की मनमोहिनी-
एक दिन वरुण की बाज-लदी कोहनी,
आधी विनाशिनी!
अक्टूबर, 1969
मिरिना1 की ताँतिन
यह मेरा ताना
यह मेरा बाना
गहरे में छिला कर
मैं ने फूल का नाम चुन लिया
उसी पर...बदल-बदल रंगों को...बूटी बुनी।...
पर यह जो उभरता आता है
मुझे चौंकाता है :
यह तो किसी दूसरे ताँती ने आ कर
किसी दूसरे करघे पर बुन दिया!
कौन है वह निर्मोही गुनी!
अक्टूबर, 1969
समाधि-लेख
मैं बहुत ऊपर उठा था, पर गिरा।
नीचे अन्धकार है-बहुत गहरा
पर बन्धु! बढ़ चुके तो बढ़ जाओ, रुको मत :
मेरे पास-या लोक में ही-कोई अधिक नहीं ठहरा!
अक्टूबर, 1969
1. मिरिना : भूमध्य सागर के पूर्वी तट की एक प्राचीन नगरी थी।
नरक की समस्या
नरक? खैर, और तो जो है सो है,
जैसे जिये, उस से वहाँ कोई खास कष्ट नहीं होगा।
पर एक बात है : जिस से-जिस से यहाँ बचना चाहा
वह-वह भी वहीं होगा!
अक्टूबर, 1969
जीवन-यात्रा
अधोलोक1 में? चलो, वहीं जाना होगा तो वहीं सही।
जितनी तेज़ चलेंगे, यह राह बचेगी उतनी थोड़ी।
जो विलमते, पड़ाव करते पैदल जाएँगे जाएँ-
हम-तुम क्यों न कर लें सवारी के लिए घोड़ी?
अक्टूबर, 1969
कस्तालिया2 का झरना
चिनारों की ओट से
सुरसुराता सरकता
झरने का पानी।
अरे जा! चुप नहीं रहा जाता तो
चाहे जिस से कह दे, जा,
सारी कहानी।
पतझर ने कब की ढँक दी है
धरा की गोद-सी वह ढाल जहाँ
हम ने की थी मनमानी
अक्टूबर, 1969
1. ग्रीक विश्वास के अनुसार पाताल-लोक या अधोलोक प्रेत-लोक था; मृत्यु के बाद ‘छायाएँ’ यहीं वास करती थीं।
2. कस्तालिया : पार्नासस पर्वत की दक्षिणी उपत्यका में देल्फी के निकट एक झरना, जो अपोलो और कला-देवताओं का तीर्थ माना जाता था
आरियोन1
कितनी धुनें मैं ने सुनी हैं
कितने बजैयों से
और गीत मैं ने सुने हैं
कितने गवैयों से
जिन से कुंजबेलों की पत्तियाँ कँपने लगीं,
या कि बन-झरने की लहरें ठिठक गयीं?
यही एक तान कभी नहीं सुनी
ऐसा गान कभी
सुनने में नहीं आया-
ऐसा तुम ने क्या गाया
कवि, यह गीत पहले क्यों नहीं सुनाया
जिस से कि मेरी आँखें झँपने लगीं,
मेरी क्वारी जाँघें फड़क गयीं?
अक्टूबर, 1969
प्रतिद्वन्द्वी कवि से
बन्धु! तेजपात की दो डालें पाने के लिए
तुम इतने उतावले होगे?
दाफ़ूनी2 को बावले प्रार्थी से बचाने के लिए
देवता ने उस की छरहरी देहलता को
तेजपात की झाड़ी में बदल दिया था :
1. ई.पू. सातवीं शती के खित्तारा-वादक महाकवि आरियोन के वादन से पशु-पक्षी, जल-जन्तु तक मुग्ध हो जाते थे।
2. दाफ़ूनी : तेजपात; अपोलो का प्रिय वृक्ष होने के नाते चक्रवर्ती कवि को इस के पत्तों का किरीट पहनाया जाता था।
अब तेजपात की डाली को
तुम्हारी आतुरता के संकट से छुड़ाने के लिए
उस ने कहीं दाफ़ूनी में बदल दिया...तो?
हम...हमारा तो क्या, हमारा गाँव
एक रूपसी युवती से सम्पन्नतर हो जाएगा...
पर तुम क्या करोगे?
बाला-तुम्हें भला उस की दरकार क्या?
या उसे तुम से सरोकार क्या?
और डाल तेजपात की-
तेज ही न रहा तो क्या बात पात की!
अक्टूबर, 1969
विषय : प्यार
यहाँ हेलास1 के द्वीपों में
हम अपनी बहुओं को प्यार करते हैं
और चाहते हैं कि वे
जैसी हैं उस से कुछ दूसरी होतीं।
वहाँ गिब्त2 में
वे वेश्याओं को प्यार नहीं करते
पर चाहते हैं कि वे
जैसी हैं वैसी ही रहें,
वैसी ही रहें!
अक्टूबर, 1969
1. हेलास : ग्रीक द्वीप-समूह
2. गिब्त : ईजिप्ट, मिस्र
अलस्योनी1
अपने सेईख के लिए पुकार मत कर, अलस्योनी!
तेरी पुकार से सागर की लहरें थम जाएँगी
और तब? सूरज उगेगा, तारे चमकेंगे,
कर्णधार अपने पथ पहचानते रहेंगे-
पर कितने द्वीपों में कितनी विरहिनियाँ सहम जाएँगी!
सागर कुछ रखता नहीं :
कुछ बदल देता है,
कुछ बाँट-बिखेर देता है,
और कुछ (सदा उपेक्षा से नहीं,
कभी करुणा से भी)
किनारे की सिकता को फेर देता है।
कहाँ है सेईख? उसी का स्वर तो
हवाओं में गाता था!
कितनी चट्टानों की कितनी खोहों-कन्दराओं से
कितनी स्वर-लहरियाँ उपजाता था!
तुम उसे न पुकारो, अलस्योनी,
हवाएँ ही उसे टेरेंगी, खोज लाएँगी
हर कन्दरा में गुहारेंगी
सागर की हर कोख को बुहारेंगी
और जब पाएँगी घेरेंगी
और भोर की लजीली ललाई में
तुम एक पहुँचा जाएँगी!
पुकार मत करो, अलस्योनी!
सागर की लहरें ठिठक जाएँगी
1. इयोलस की कन्या अलस्योनी के पति के सेईख के तूफान में डूब जाने पर अलस्योनी ने समुद्र में कूद कर प्राण दे दिये। देवताओं ने करुणावश दोनों को जलपक्षी बना दिया। इन पक्षियों की मिलन-ऋतु में सागर पर निर्वात सन्नाटा छा जाता है।
और तुम्हारी-सी अनगिन विरहिनियाँ
राह देखती थक जाएँगी
कि यह कैसी हुई अनहोनी
भोर में पुकार मत करो, अलस्योनी!
अक्टूबर, 1969
शहतूत
वापी में तूने
कुचले हुए शहतूत क्यों फेंके, लड़की?
क्या तूने चुराये-
पराये शहतूत यहाँ खाये हैं?
क्यों नहीं बताती?
अच्छा, अगर नहीं भी खाये
तो आँख क्यों नहीं मिलाती?
और तूने यह गाल पर क्या लगाया?
ओह, तो क्या शहतूत इसी लिए चुराये-
सच नहीं खाये?
शहतूत तो ज़रूर चुराये, अब आँख न चुरा!
नहीं तो देख, शहतूत के रस की रंगत से
मेरे ओठ सँवला जाएँगे
तो लोग चोरी मुझे लगाएँगे
और कहेंगे कि तुझे भी चोरी के गुर मैं ने सिखाये हैं!
तब, लड़की, हम किसे बताएँगे!
कैसे समझाएँगे?
अच्छा, आ, वापी की जगत पर बैठ कर यही सोचें।
लड़की, तू क्यों नहीं आती?
अक्टूबर, 1969
दो जोड़ी आँखें
म्निमोसिनी1, मुझे नींद दे!
क्यों रात-भर
दो जोड़ी आँखें मुझे सताती हैं!
एक जोड़ी
पूरे चेहरे में जड़ी हैं
पर कितनी बर्फीली ठंडी
है उसकी चितवन!
और दूसरी
सुलगती है, दिपती है
पर कोई चेहरा
उस के पीछे रूप नहीं लेता
रात-भर। रात-भर
दो जोड़ी आँखें मुझे सताती हैं।
अक्टूबर, 1969
डगर पर
नागरों की नगरी2 में
देवताओं में होड़ होती होगी।
मेरे ग्राम का कोई नाम नहीं,
तेरे का होगा, मुझे उस से काम नहीं।
यह मेरा घोड़ा है, लदा है माल-
1. म्निमोसिनी : स्मृति की देवी
2. एथिनाइ (एथेंस) के विषय में कथा है कि पौसेइदोन और एथीना में होड़ लगी कि नयी नगरी का नाम किस पर हो। देवताओं ने सुझाया जो नगरी को श्रेष्ठतर उपहार दे उसी के नाम पर नगरी का नाम रखा जाए। पौसेइदोन ने त्रिशूल फेंका, जिससे घोड़ा प्रकट हुआ : एथीना ने अपना भाला पटका, जिस से जालिपा (जैतून) का वृक्ष उत्पन्न हुआ। देवताओं ने निर्णय सुनाया : घोड़ा तो युद्ध का प्रतीक है; जालिपा शान्ति और समृद्धि का, इसलिए देवी जीती; नगरी का नाम एथिनाइ पड़ा।
जालिपा की डाल, फल :
चखोगी-लोगी?
या कि घोड़े की दुलकी देखोगी-
ओलिम्पिया1 चलोगी?
अक्टूबर, 1969
सोया नींद में को, जागा सपने में को
सोया था मैं नींद में को
एकाएक सपने में को
गया जाग :
सपना आग का
लपलपाती ग्रसती
हँसती
समाधि की विभोर आग।
फिसलता हुआ
धीरे-धीरे गिरा फिर
सुते हुए, ठंडे
जागने में को।
आग शान्त, रक्षित,
सँजोयी हुई-
और भी कई आगों के साथ
सोयी हुई।
पहले भी तो
जागा हूँ
1. ओलिम्पिया : यहाँ के प्रसिद्ध खेलों के विजेता मल्ल को जालिपा की डाल का किरीट दिया जाता था।
ऐसे, सपने में को :
जलते हुए समाधिस्थ
अपने में को;
फिसल कर गिरने को
जागने की नींद में को;
आगें सब सुँती हुई, ठंडी,
सोई हुई,
और भी पुरानी कई आगों के
साथ ही सँजोयी हुई-
खोयी हुई!
नयी दिल्ली
अक्टूबर, 1969
जीवन-मर्म
झरना : झरता पत्ता
हरी डाल से अट गया।
बर्कले (कैलिफ़ोर्निया)
27 अक्टूबर, 1969
फूल हर बार आते हैं
फूल हर बार आते हैं,
ठीक है, हम अन्ततः नहीं आते;
पर हर बार
वसन्त के साथ
वहाँ पहाड़ पर हिम गलता है
और यहाँ नदी भरती है
अमराई बौराती है
और कोयलें कूकती हैं
बयार गरमाती है
और वनगन्ध सब के लिए बिखराती है।
हम नहीं आएँगे,
तो भी, जब हैं,
तब क्यों नहीं गाएँगे
या गाते हुए ही गीत की
कड़ी नहीं दोहराएँगे?
बर्कले (कैलिफ़ोर्निया)
27 अक्टूबर, 1969
बड़े शहर का एक साक्षात्कार
अधर में लटका हुआ
भारी ठोस कन्था।
कसैले भूरे कोहरे में
झिपती-दिपती
प्रकाश की अनगिन थिगलियाँ।
कि कोहरे को थर्राती हुई
एक भर्राती हुई आवाज़ बोली :
उस कन्थे की एक थिगली
मेरा घर है। जानते हो न?
उस में मेरी घरवाली है।
अगर मैं इतनी पिए हुए न होता
तो पहचान देता।
मानते हो न?
मैं ने कहना चाहा : किसे?
घर को, या घरवाली को?
पर कह न सका : चुपचाप ही
उस के भाग्य को सराहा
जो भुला देता है
और याद रखता है भूल गये होने को :
जो, यों, सस्ते में दोहरा सुख लेता है!
लेकिन यह अपने-आप ही
रह न सका; बोला :
पर पिये न होता
तो घर को पहचान देता
मगर अपने-आप को ही नहीं पहचान पाता।
मैं हूँ, मैं कौन हूँ, मैं मैं हूँ,
यही कैसे जान पाता?
फिर क्या होता?
तुम्हीं कहो, फिर क्या होता?
उसे रट लग जाएगी-
वह तो झोंक में है, मेरी शामत आएगी!-
यह सोच कर मैं ने कहा :
नहीं दोस्त! तुम सब पहचानते हो,
तब भी पहचानते;
भला अपना घर न जानते?
नशे की खुशी में उस ने दोहराया,
हाँ, सब पहचानता हूँ!
घर को, घरवाली को,
हर थिगली को-खूब जानता हूँ!
फिर एकाएक उसे क्रोध हो आया :
नहीं, तुम कुछ नहीं जानते!
उस कन्थे में सत्ताईस सौ थिगलियाँ हैं-
सत्ताईस सौ दरबे हैं-
हर थिगली में एक घर है, एक घरवाली है-
सत्ताईस सौ कुनबे हैं!-
कोई कैसे पहचान देगा?
तुम झूठे हो, तुम कभी नहीं पहचानते!
उन सत्ताईस सौ थिगलियों में कौन-सी
मेरा घर है,
कोई कैसे जान सकता?
मैं भी कैसे पहचान सकता?
होश में भी पहचान सकता तो पहले पीता क्यों?
बताओ, मैं पीता क्यों?
कोहरे को थर्राती हुई
भर्राती हुई आवाज़ :
अधर में लटका हुआ
एक सवाल
और एक कन्था
दोनों झिरझिरे, दिपते-झिपते।
क्या सवालों की थिगलियों के पीछे भी
जलती हुई बत्तियाँ हैं
या सिर्फ़ अधर से लटकन?
बर्कले (कैलिफ़ोर्निया)
29 अक्टूबर, 1969
नदी का पुल-1
ऐसा क्यों हो
कि मेरे नीचे सदा खाई हो
जिस में मैं जहाँ भी पैर टेकना चाहूँ
भँवर उठें, क्रुद्ध;
कि मैं किनारों को मिलाऊँ
पर जिन के आवागमन के लिए राह बनाऊँ
उन के द्वारा निरन्तर
दोनों ओर से रौंदा जाऊँ?
जब कि दोनों को अलगाने वाली
नदी
निरन्तर बहती जाए, अनवरुद्ध?
बर्कले (कैलिफ़ोर्निया)
29 अक्टूबर, 1969
नदी का पुल-2
इस लिए
कि मैं कोई नहीं हूँ
मैं उपकरण हूँ
जिन के काम आया हूँ
उन्हीं का बनाया हूँ
नदी से ही उन का
सीधा नाता है।
वही उन की सच्चाई है
जो मेरे लिए खाई है।
बर्कले (कैलिफ़ोर्निया)
30 अक्टूबर, 1969
काल-स्थिति-1
जिस अतीत को मैं भूल गया हूँ वह
अतीत नहीं है क्यों कि वह
वर्तमान अतीत नहीं है।
जिस भविष्य से मुझे कोई अपेक्षा नहीं वह
भविष्य नहीं है क्यों कि वह
वर्तमान भविष्य नहीं है।
स्मृतिहीन, अपेक्षाहीन वर्तमान-
ऐसा वर्तमान क्या वर्तमान है?
वही क्या है?
बर्कले (कैलिफ़ोर्निया)
31 अक्टूबर, 1969
काल-स्थिति-2
लेकिन हम जिन की अपेक्षाएँ
अतीत पर केन्द्रित हो गयी हैं
और भविष्य ही जिन की मुख्य स्मृति हो गयी है
क्यों कि हम न जाने कब से भविष्य में जी रहे हैं-
हमारा क्या
क्या इसलिए हमरा वर्तमान
वही नहीं है जो नहीं है?
बर्कले (कैलिफ़ोर्निया)
31 अक्टूबर, 1969
गजर
गजर
बजता है
और स्वर की समकेन्द्र लहरियाँ
फैल जाती हैं
काल के अछोर क्षितिजों तक।
तुम :
जिस पर मेरी टकराहट :
इस वर्तमान की अनुभूति से
फैलाता हुआ हमारे भाग का वृत्त
अतीत और भविष्यत्
काल के अछोर क्षितिजों तक।
बर्कले (कैलिफ़ोर्निया)
31 अक्टूबर, 1969
कातिक की रात
घनी रात के सपने
अपने से दुहराने को
मुझे अकेले
न जगा!
कृत्तिकाओं के
ओस-नमे चमकने को
तकने
मुझे अकेले
न जगा!
तकिये का दूर छोर
टोहने
इतनी भोर में
मुझे अकेले
न जगा!
सोया हूँ? मूर्छित हूँ!
पर अन्धे कोहरे में
बिछोहने
न जगा, न जगा, न जगा!
बर्कले (कैलिफ़ोर्निया)
नवम्बर, 1969
काँपती है
पहाड़ नहीं काँपता,
न पेड़, न तराई;
काँपती है ढाल पर के घर से
नीचे झील पर झरी
दिये की लौ की
नन्ही परछाईं।
बर्कले (कैलिफ़ोर्निया)
नवम्बर, 1969
लक्षण
नदी में
मछलियाँ उछलती हैं :
क्षितिज पर उमड़ रहे होंगे
बादलों के साये।
क्या तुम्हारे चौके में
आटा नहीं उछलता
कि यह प्रवासी
लौट आये?
बर्कले (कैलिफ़ोर्निया)
नवम्बर, 1969
ग्रीष्म की रात
कोयल ने टेरा : कुहू!
कि पपीहे ने पलटा : कहाँ?
कसैली आँखें : मटमैला सवेरा।
बर्कले (कैलिफ़ोर्निया)
नवम्बर, 1969
कोहरे में भूज
कोहरे में नम, सिहरा
खड़ा इकहरा
उजला तन
भूज का।
बहुत सालती रहती है क्या
परदेशी की याद, यक्षिणी?
बर्कले (कैलिफ़ोर्निया)
दिसम्बर, 1969
एक सन्नाटा बुनता हूँ
पहले मैं सन्नाटा बुनता हूँ।
उसी के लिए स्वर-तार चुनता हूँ।
ताना : ताना मज़बूत चाहिए : कहाँ से मिलेगा?
पर कोई है जो उसे बदल देगा,
जो उसे रसों में बोर कर रंजित करेगा, तभी तो वह खिलेगा।
मैं एक गाढ़े का तार उठाता हूँ :
मैं तो मरण से बँधा हूँ; पर किसी के-और इसी तार के सहारे
काल से पार पाता हूँ।
फिर बाना : पर रंग क्या मेरी पसन्द के हैं?
अभिप्राय भी क्या मेरे छन्द के हैं?
पाता हूँ कि मेरा मन ही तो गिर्री है, डोरा है;
इधर से उधर, उधर से इधर; हाथ मेरा काम करता है
नक्शा किसी और का उभरता है।
यों बुन जाता है जाल सन्नाटे का
और मुझ में कुछ है कि उस से घिर जाता हूँ।
सच मानिए, मैं नहीं है वह
क्यों कि मैं जब पहचानता हूँ तब
अपने को उस जाल के बाहर पाता हूँ।
फिर कुछ बँधता है जो मैं न हूँ पर मेरा है,
वही कल्पक है।
जिस का कहा भीतर कहीं सुनता हूँ :
‘तो तू क्या कवि है? क्यों और शब्द जोड़ना चाहता है?
कविता तो यह रखी है।’
हाँ तो। वही मेरी सखी है, मेरी सगी है।
जिस के लिए फिर
दूसरा सन्नाटा बुनता हूँ।
नीमाड़ : चैत
(1)
पेड़ अपनी-अपनी छाया को
आतप से
ओट देते
चुप-चाप खड़े हैं।
तपती हवा
उन के पत्ते झराती जाती है।
(2)
छाया को
झरते पत्ते
नहीं ढँकते,
पत्तों को ही
छाया छा लेती है।
तारे
तारे, तू तारा देख।
काश कि मैं तुझे देखूँ
तारों की हजारहा आँखों से।
खिसक गयी है धूप
पैताने से धीरे-धीरे
खिसक गयी है धूप।
सिरहाने रखे हैं
पीले गुलाब।
क्या नहीं तुम्हें भी
दीखा इन का जोड़-
दर्द तुम में भी उभरा?
खुले में खड़ा पेड़
भूल कर
सवेरे
देहात की सैर करने गया था
वहाँ मैं ने देखा
खुले में खड़ा
पेड़।
और लौट कर
मैं ने घरवाली को डाँटा है,
बच्ची को पीटा है :
दफ्तर पहुँच कर बॉस पर कुढ़ूँगा
और बड़े बॉस को
भिचे दाँतों के बीच से सिसकारती गाली दूँगा।
क्यों मेरी अकल मारी गयी थी कि मैं
देहात में देखने गया
खुले में खड़ा पेड़?
तुम सोये
तुम सोये
नींद में
अधमुँदे हाथ
सहसा हुए
कँपने को
कँपने में
और जकड़े
मानो किसी
अपने को
पकड़े
कौन दीखा
सपने में
कहाँ खोये
तुम किस के साथ
अधमुँदे हाथ
नींद में
तुम सोये।
मेज़ के आर-पार
मेज़ के आर-पार
आमने-सामने हम बैठे हैं
हमारी आँखों में
लिहाज है
हमारी बातों में
निहोरे
हमारे (अलग-अलग)
विचारों में
एक-दूसरे को कष्ट न पहुँचाने की
अकथित व्यग्रता।
अभी बैरा के आने पर सूची में
मैं खोजने लगूँगा कोई ऐसी चीज़ जो तुम्हें रुचती हो,
और तुम मँगाओगी कोई ऐसी जो तुम्हारे जाने
मुझे पसन्द है।
हमारे बीच
और मेज़ के ऊपर
सब कुछ ठीक है, ठीक-ठाक है;
नहीं है तो एक
मेज़ के नीचे
एक के पैर पर दूसरे का निर्मम दबाव
एक की हथेली में दूसरे की निर्दयी चिकोटी।
हाँ, दोस्त
हाँ, दोस्त,
तुम ने पहाड़ की पगडंडी चुनी
और मैं ने सागर की लहर।
पहाड़ की पगडंडी :
सँकरी, पथरीली,
ढाँटी,पर स्पष्ट लक्ष्य की ओर जाती हुई :
मातबर और भरोसेदार
पगडंडी जो एक दिन निश्चय तुम्हें
पड़ाव पर पहुँचा देगी।
सागर की लहर
विशाल, चिकनी,
सपाट
पर बिछलती फिसलती हमेशा अज्ञात अदृश्य को टेरती हुई,
बेभरोस और आवारा...
लहर जो न कभी कहीं पहुँचेगी न पहुँचाएगी
न पहुँचने देगी, जो डुबोएगी नहीं तो वहीं
लौटा लाएगी
जहाँ से चले थे, सिवा इस के
कि वह वहीं तब तक नहीं रह गया होगा।
ठीक है, दोस्त
मैं ने लहर चुनी
तुम ने पगडंडी :
तुम
अपनी राह पर
सुख से तो हो?
जानते तो हो कि कहाँ हो?
मैं-मैं मानता हूँ कि इतना ही बहुत है कि अभी
जानता हूँ कि आशीर्वाद में हूँ-जियो, मेरे दोस्त,
जियो, जियो, जियो...
जुलाई, 1970
कई नगर थे जो हमें
कई नगर थे
जो हमें देखने थे।
जिन के बारे में पहले पुस्तकों में पढ़ कर
उन्हें परिचित बना लिया था
और फिर अखबारों में पढ़ कर
जिन से फिर अनजान हो गये थे।
पर वे सब शहर-
सुन्दर, मनोरम, पहचाने
पराये, आतंक-भरे
रात की उड़ान में
अनदेखे पार हो गये।
कहाँ हैं वे नगर? वे हैं भी?
हवाई अड्डों से निकलते यात्रियों के चेहरों में
उन की छायाएँ हैं :
यह : जिस के टोप और अखबार के बीच में भवें दीखती हैं-
इस की आँखों में एक नगर की मुर्दा आबादी है;
यह-जो अनिच्छुक धीरे हाथों से
अपना झोला
दिखाने के लिए खोल रहा है,
उस की उँगलियों के गट्टों में
और एक नगर के खँडहर हैं।
और यह-जिस की आँखें
सब की आँखों से टकराती हैं, पर जिस की दीठ
किसी से मिलती नहीं, उस का चेहरा
और एक क़िलेबन्द शहर का पहरे-घिरा परकोटा है।
नगर वे हैं, पर हम
अपनी रात की उड़ान में
सब पार कर आये हैं
एक जगमग अड्डे से
और एक जगमग अड्डे तक।
4 अक्टूबर, 1970
कोई हैं जो
कोई हैं
जो अतीत में जीते हैं :
भाग्यवान् हैं वे, क्यों कि उन्हें कभी कुछ नहीं होगा।
कोई हैं
जो भविष्य में जीते हैं :
भाग्वान् हैं वे, क्यों कि वे आगे देखते ही चुक जाएँगे।
कोई हैं जो-
पर जो इस खोज में, इस प्रतीक्षा में हैं
कि वर्तमान हो जाए-
वे कहाँ हैं, किस में जीते हैं?
वर्तमान-निरन्तर होता हुआ
क्या वह अपने को पाता है?
या कि घूमता ही जाता है?
और मैं-कहाँ है वह पकड़ कि मैं अस्ति को झँझोड़ लूँ...
8 अक्टूबर, 1970
प्राचीन ग्रन्थागार में
हाँ, इसे मैं छू सकता हूँ-उस की लिखावट को :
उस को मैं छू नहीं सकता। वह लिख कर चला गया है।
यहाँ, पुस्तकालय के इस तिजोरी-बन्द धुँधले सन्नाटे में मैं
उस की लिपि की छुअन से रोमांचित हो सकता हूँ
वह-वह चला गया है।
उस के शिकरों ने
मार लिये हैं असंख्य तीतर, बटेर, मुनाल,
उस के घोड़ों ने रौंद ली हैं सैकड़ों फसलें, दुहाइयाँ, अस्मतें,
उस के कवच पर बरस चुके हैं सैकड़ों फूल,
सुन्दरियों के रूमाल, हार-गहने-
उस की बर्छियों पर टँक चुके हैं हिरन, सुअर, हलवाहे, बेगारी,
काफ़िर, विपक्षी सूरमा,
उस की छाती पर चमक चुके हैं जेहादों के सितारे, दंगलों के फ़ीते,
राजकृपाओं के तमगे;
धर्म-गुरुओं की असीसों के सलीब।
मार-काट, खून-खराबा, लूट-पाट करता हुआ
चिंघाड़ और दहाड़ के बीच वह चला गया है
इतिहास के आँगन के पार।
यहाँ, ऐतिहासिक संग्रहालय में, रह गयी है
उस की लिखावट
सनद करती हुई कि उस की उदार अनुकम्पा से ही
पुस्तकालय बना है, खड़ा है, चलता है
और सँभालता है उस की लिखावट
जिसे मैं छू सकता हूँ।
उसे ही मैं नहीं छू सकता :
वह चला गया है।
पर क्या इतिहास भी उसे नहीं छू सकता?
या कि क्या मैं उस के इतिहास को नहीं छू सकता?
पलट दो यह पन्ना; और यह
जिस पर उस की शबीह है; और यह
जो सूना है। और भी इतिहास
बनने को है, बन रहा है :
ग्रन्थागार से सड़क के दूसरी पार
दफ़्तर है अखबार का।
हम घूम आये शहर
गाड़ी ठहराने के लिए
जगह खोजते-खोजते
हम घूम आये शहर :
बीमे की क़िस्तें चुकाते
बीत गयी ज़िन्दगी।
अतीत से कट गये
चढ़ा कर फूल चन्दन।
अब जिस में जीते हैं
उस से मिले तो क्या मिले?
खीसें निपोरता किताबी अभिनन्दन?
घर की याद
क्या हुआ अगर किसी को घर की याद आती है
और वह उसे देश कह कर देशप्रेमी हो जाता है?
या कि उसे लोगों के चेहरों के साथ बाँध कर
निजी चेहरे हों तो (गीति-काव्यकार?)
या कि (जिस-तिस के हों तो)-चलो-मानववादी?
याद मुझे भी आती है : इस से क्या कि जिस को आती है
वह दूसरों की भाषा में घर नहीं है?
दृश्य : परिस्थितियाँ, ऋतुओं के स्वर, सौरभ, रंग;
गतियों के आकार-जैसे हिरन की कूद
या सारस की कुलाँच
या छायाओं के जाल-डोरों में से
किरण-पंछियों की सरकन?
क्या हुआ
अगर मेरी यादों की भूमि
वह (कल्पित) भूमि नहीं है जिसे भाव-भूमि कहते हैं, वरन्
वह है जिस पर भावना और कल्पना दोनों टिकते हैं :
गोचर अनुभवों की भूमि?
अगर मेरा घर
वैसा नहीं है जिसे सिर्फ़ सोचा जा सकता है, वरन्
वैसा है जिसे देखा, छुआ, सूँघा, या चखा जा सके?
चाहे सिर्फ़ मेरी आँखों से, मेरे स्पर्श, मेरी नासा,
मेरी जीभ से? क्या हुआ?
मुझे भी याद आती है
घर की, देश की, एकान्त अपने की
अपनी हर यात्रा में :
उस से अगर यात्रा रुकती नहीं
या यह यायावर क्षेत्र-संन्यास नहीं लेता
तो क्या हुआ?...
24 अक्टूबर, 1970
शिशिर का भोर
उतना-सा प्रकाश
कि अँधेरा दीखने लगे,
उतनी-सी वर्षा
कि सन्नाटा सुनाई दे जाए;
उतना-सा दर्द याद आए
कि भूल गया हूँ,
भूल गया हूँ
हाइडेलबर्ग
25 अक्टूबर, 1970
समाधि-लेख
एक समुद्र, एक हवा, एक नाव,
एक आकांक्षा, एक याद :
इन्हीं के लाये मैं यहाँ आया।
यानी तुम्हारे।
पर तुम कहाँ हो? कौन-से किनारे?
1970
मृत्युर्धावति पंचमः
क्या डर ही
बसा हुआ है सब में-
डर ही से भागता है
पाँचवाँ सवार?
और उन डरे हुओं के डर से
भाग रहे हैं सब
मानते हुए अपने को अशरण,
बे-सहार :
क्या कोई नहीं है द्वार
इस भय के पार?
इससे क्या नहीं है निस्तार?
या कि वह भय ही है
एक द्वार
उस तक जो
सब को दौड़ाता है
निर्विकार?
देखिए न मेरी कारगुज़ारी
अब देखिए न मेरी कारगुज़ारी
कि मैं मँगनी के घोड़े पर
सवारी कर
ठाकुर साहब के लिए उन की रियाया से लगान
और सेठ साहब के लिए पंसार-हट्टे की हर दूकान
से किराया
वसूल कर लाया हूँ
थैली वाले को थैली
तोड़े वाले को तोड़ा
-और घोड़े वाले को घोड़ा।
सब को सब का लौटा दिया
अब मेरे पास यह घमंड है
कि सारा समाज मेरा एहसानमन्द है।
दुस्साहसी हेमन्ती फूल
लोहे
और कंकरीट के जाल के बीच
पत्तियाँ रंग बदल रही हैं।
एक दुःसाहसी
हेमन्ती फूल खिला हुआ है।
मेरा युद्ध प्रकृति की सृष्टियों से नहीं
मानव की अपसृष्टियों से है।
शैतान
केवल शैतान से लड़ सकता है।
हम अपने अस्त्र चुन सकते हैं : अपना
शत्रु नहीं। वह हमें
चुना-चुनाया मिलता है।
हरा अन्धकार
रूपाकार
सब अन्धकार में हैं :
प्रकाश की सुरंग में
मैं उन्हें बेधता चला जाता हूँ,
उन्हें पकड़ नहीं पाता।
मेरी चेतना में इस की पहचान है
कि अन्धकार भी
एक चरम रूपाकार है,
सत्य का, यथार्थ का विस्तार है;
पर मेरे शब्द की इतनी समाई नहीं-
यह मेरी भाषा की हार है।
प्रकाश मेरे अग्रजों का है
कविता का है, परम्परा का है,
पोढ़ा है, खरा है :
अन्धकार मेरा है,
कच्चा है, हरा है।
बर्मिंगहम-लन्दन (रेल में)
14 नवम्बर, 1970
विदेश में कमरे
वहाँ विदेशों में
कई बार कई कमरे मैं ने छोड़े हैं
जिस में छोड़ते समय
लौट कर देखा है
कि सब कुछ
ज्यों-का-त्यों है न!-यानी
कि कहीं कोई छाप
बची तो नहीं रह गयी है
जो मेरी है
जिसे कि अगला कमरेदार
ग़ैर समझे!
किसी कमरे में
मैं ने अपना कुछ नहीं छोड़ा
सिवा कभी, कहीं, कुछ कूड़ा
जिसे मेरे हटते ही साफ कर दिया जाएगा
क्यों कि कमरे में फिर दूसरा
कमरेदार भर दिया जाएगा।
सभ्यता : गति है
कि हटते जाओ अपने-आप
और छोड़ो नहीं
ऐसी कोई छाप
कि दूसरों को अस्वस्तिकर हो;
थोड़ा कूड़ा-अधिक नहीं, इतना कि हटाने वाला
(और क्रमेण फिर हटने वाला) मान ले
कि सभ्यता नवीकरण है, प्रगति है।
और यहाँ, देस में मैं
रेल की पटरी के किनारे बैठा हूँ
और यहाँ लौट-लौट कर देखता हूँ
कि सब कुछ
ज्यों-का त्यों है न!
यानी कि हर चीज़ पर मेरी छाप बनी तो है न
जिस से कि मैं उसे अपना पहचानूँ!
यह मेरी बक्स है, यह मेरी बिस्तर,
यह मेरा झोला, मेरा हजामत का सामान,
मेरा सुई-धागा, मेरी कमीज़ से टूटा हआ बटन
यह मेरी कापी, जिस में यह मेरी लिखावट
और यह यह मेरा अपना नाम।
तो मैं हूँ, न!
यहाँ, देश में, मैं हूँ न!
नवम्बर, 1970
वह नकारता रहे
वे कहते गये हाँ, हाँ,
और फूल-हार
उन पर चढ़ते गये;
पाँवड़ों और वन्दनवारों की
सुरंग-सी में वे निर्द्वन्द्व
बढ़ते गये।
सुखी रहें वे
अपनी हाँ में।
लेकिन जिस का नकार
उस की नियति है
वह भी नकारता रहे
निर्द्वन्द्व, निरनुताप।
बार-बार-जब भी पूछा जाय!
वह हारता रहे,
टूटता हुआ
इतिहास की तिकठी पर
निर्विकार-
वह नकारता रहे।
बलि-पुरुष
ख़ून के धब्बों से
अँतराते हुए
पैरों के सम, निधड़क छापे।
भीड़ की आँखों में बरसती घृणा के
पार जाते हुए
उस के प्राण क्यों नहीं काँपे?
सभी पहचानते थे कि वह
निरीह है, अकेला है, अन्तर्मुखी है :
पर क्या जानते थे कि वह बलि मनोनीत है
इस ज्ञान में वह कितना सुखी है?
कभी-अब
कभी ऐसा था
कि वे वहाँ
ऊँचे खम्भों पर
अकेले थे।
हम यहाँ
ठट्ठ के ठट्ठ
बोलते थे
जैकारे।
अब ऐसा है
कि वहाँ
एक बड़े चबूतरे पर
भीड़ है
और हम यहाँ
ठट्ठ के ठट्ठ
अकेले हैं।
उन के घुड़सवार
उन के घुड़सवार
हम ने घोड़ों पर से उतार लिये।
हमारे युग में
घुड़सवारी का चलन नहीं रहा।
(घोड़ों का रातिब हमीं को खाने को मिलता रहा।)
उन की मूर्तियाँ गला दी गयीं :
धातु क्या हुआ,
पता नहीं। उस के तो पिये तो नहीं बने।
कहीं तोपें तो नहीं बनीं?
-यह पूछने के लिए
उन्हीं के द्वारे जाना पड़ेगा
जिन के पास अब घोड़े नहीं हैं :
वे अनुकूलित वायु में या विमानों में सफ़र करते हैं।
उन की भी मूर्तियाँ बनेंगी।
चौराहों पर जहाँ अब ध्यान देने के लिए
हरी-पीली-लाल बत्तियाँ हैं,
पैदलों द्वारा उपेक्षणीय भी कुछ होना चाहिए।
लेकिन हम :
हम जब हमारी सड़कों पर चलेंगे,
तब आँख उठा कर किस की ओर देखेंगे?
हीरो सिर के कन्धों तक ढँके हुए
वे कहते रहे कि पीठ नहीं दिखाएँगे-
और हम उन्हें सराहते रहे।
पर सब गिरने पर
उन के नकाब उलटे तो
उन के चेहरे नहीं थे।
जो पुल बनाएँगे
जो पुल बनाएँगे
वे अनिवार्यतः
पीछे रह जाएँगे।
सेनाएँ हो जाएँगी पार
मारे जाएँगे रावण
जयी होंगे राम;
जो निर्माता रहे
इतिहास में बन्दर कहलाएँगे।
बाबू ने कहा
बाबू ने कहा : विदेश जाना
तो और भी करना सो करना
गौ-मांस मत खाना।
अन्तिम पद निषेध का था,
स्वाभाविक था उस का मन से उतरना :
बाक़ी बापू की मान कर
करते रहे और सब करना।
नन्दा देवी
(1)
ऊपर तुम, नन्दा!
नीचे तरु-रेखा से
मिलती हरियाली पर
बिखरे रेवड को
दुलार से टेरती-सी
गड़रिये की बाँसुरी की तान :
और भी नीचे
कट गिरे वन की चिरी पट्टियों के बीच से
नये खनि-यन्त्र की
भट्ठी से उठे धुएँ का फन्दा।
नदी की घरेती-सी वत्सल कुहनी के मोड़ में
सिहरते-लहरते शिशु धान।
चलता ही जाता है यह
अन्तहीन, अन-सुलझ
गोरख-धन्धा!
दूर, ऊपर तुम, नन्दा!
बिनसर
सितम्बर, 1972
(2)
वहाँ दूर शहर में
बड़ी भारी सरकार है
कल की समृद्धि की योजना का
फैला कारोबार है,
और यहाँ
इस पर्वती गाँव में
छोटी-से-छोटी चीज़ की भी दरकार है,
आज की भूख-बेबसी की
बेमुरव्वत मार है।
कल के लिए हमें
नाज का वायदा है-
आज ठेकेदार को
हमारे पेड़ काट ले जाने दो;
कल हाकिम
भेड़ों के आयात की
योजना सुनाने आवेंगे-
आज बच्चों को
भूखा ही सो जाने दो।
जहाँ तक तक दीठ जाती है
फैली हैं नंगी तलैटियाँ-
एक-एक कर सूख गये हैं
नाले, नीले और सोते।
कुछ भूख, कुछ अज्ञान, कुछ लोभ में
अपनी सम्पदा हम रहे हैं खोते।
ज़िन्दगी में जो रहा नहीं
याद उस की
बिसूरते लोक-गीतों में
कहाँ तक रहेंगे सँजोते!
बिनसर
सितम्बर, 1972
(3)
तुम वहाँ हो
मन्दिर तुम्हारा
यहाँ है।
और हम-
हमारे हाथ, हमारी सुमिरनी-
यहाँ है-
और हमारा मन
वह कहाँ है?
बिनसर
सितम्बर, 1972
(4)
वह दूर
शिखर
यह सम्मुख
सरसी
वहाँ दल के दल बादल
यहाँ सिहरते
कमल
वह तुम। मैं
यह मैं। तुम
यह एक मेघ की बढ़ती लेखा
आप्त सकल अनुराग, व्यक्त;
वह हटती धुँधलाती क्षिति-रेखा :
सन्धि-सन्धि में बसा
विकल निःसीम विरह।
बिनसर
सितम्बर, 1972
(5)
समस्या
बूढ़ी हड्डियों की नहीं
बूढ़े स्नायु-जाल की है।
हड्डियाँ चटक जाएँ तो जाएँ
मगर चलते-चलते;
देह जब गिरे तो गिरे
अपनी गति से
भीतर ही भीतर गलते-गलते।
कैसे यह स्नायु-जाल उसे चलाता जाये
आयु के पल-पल ढलते-ढलते!
तुम्ही, पर तुम्हीं पर, तुम्हीं पर
टिके रहें थिर नयन-आत्मा के दिये-
अन्त तक जलते-जलते!
सितम्बर, 1972
(6)
नन्दा,
बीस-तीस-पचास वर्षों में
तुम्हारी वन-राजियों की लुगदी बना कर
हम उस पर
अखबार छाप चुके होंगे
तुम्हारे सन्नाटे को चींथ रहे होंगे
हमारे धुँधआते शक्तिमान ट्रक,
तुम्हारे झरने-सोते सूख चुके होंगे
और तुम्हारी नदियाँ
ला सकेंगी केवल शस्य-भक्षी बाढ़ें
या आँतों को उमेठने वाली बीमारियाँ,
तुम्हारा आकाश हो चुका होगा
हमारे अतिस्वन विमानों के
धूम-सूत्रों का गुंझर।
नन्दा, जल्दी ही-
बीस-तीस-पचास बरसों में
हम तुम्हारे नीचे एक मरु बिछा चुका होंगे
और तुम्हारे उस नदी-धौत सीढ़ी वाले मन्दिर में
जला करेगा एक मरु-दीप!
सितम्बर, 1972
(7)
पुआल के घेरदार घाघरे
झूल गये पेड़ों पर,
घास के गट्ठे लादे आती हैं
वन-कन्याएँ
पैर साधे मेड़ों पर।
चला चल डगर पर।
नन्दा को निहारते।
तुड़ चुके सेब, धान
गया खलिहानों में,
सुन पड़ती है
आस की गमक एक
गड़रिये की तानों में।
चला चल डगर पर
नन्दा को निहारते।
लौटती हुई बकरियाँ
मढ़ जाती हैं
कतकी धूप के ढलते सोने में।
एक सुख है सब बाँटने में
एक सुख सब जुगोने में,
जहाँ दोनों एक हो जाएँ
एक सुख है वहाँ होने में
चला चल डगर पर
नन्दा को निहारते।
बिनसर
सितम्बर, 1972
(8)
यह भी तो एक सुख है
(अपने ढंग का क्रियाशील)
कि चुप निहारा करूँ
तुम्हें धीरे-धीरे खुलते!
तुम्हारी भुजा को बादलों के उबटन से
तुम्हारे बदन को हिम-नवनीत से
तुम्हारे विशद वक्ष को
धूप की धाराओं से धुलते!
यह भी तो एक योग है
कि मैं चुपचाप सब कुछ भोगता हूँ
पाता हूँ सुखों को,
निसर्ग के अगोचर प्रसादों को,
गहरे आनन्दों को
अपनाता हूँ;
पर सब कुछ को बाँहों में
समेटने के प्रयास में
स्वयं दे दिया जाता हूँ!
सितम्बर, 1972
(9)
कितनी जल्दी
तुम उझकीं
झिझकीं
ओट हो गयीं, नन्दा!
उतने ही में बीन ले गयीं
धूप-कुन्दन की
अन्तिम कनिका।
देवदारु के तनों के बीच
फिर तन गयी
धुन्ध की झीनी यवनिका!
बिनसर
नवम्बर, 1972
(10)
सीधी जाती डगर थी
क्यों एकाएक दो में बँट गयी?
एक ओर पियराते पाकड़,
धूप, दूर गाँव की झलक,
खगों की सीटियाँ
बाँसुरी में न जाने किस सपनों की
दुनिया की ललक
दूसरी ओर बाँज की काई-लदी
बाँहों की घनी छाँह,
एक गीला ठिठुरता अँधेरा, दूर
चिहुँकता कहीं काँकड़,
प्रश्न उछालता लंगूर।
जहाँ भी दोराहा आता है
मैं दोनों पर चलता हूँ।
सभी जानते हैं कि यों
मैं चरम वरण को टालता
और अपने को छलता हूँ।
पर कोई यह तो बताये
कि क्या कवि
वही नहीं है जिसे पता है
कि मैं ही वह वनानल हूँ
जिस में मैं ही
अनुपल जलता हूँ!
ऐसा होगा तो
कि फिर मिल जाएँगी दोनों राहें।
कवि नहीं वरेगा,
कवि को घेर लेंगी
वरण की बाँहें।
पर कौन कहेगा कि कवि
तब भी कवि रहेगा।
-जब साधक के भीतर
प्रपात की धार-सा
एक ही गुंजार करता
अद्वैत बहेगा?
सितम्बर, 1972
(11)
कमल खिला
दो कुमुद मुँदे
नाल लहरायी
सिहरती झील
गहरायी कुहासा
घिर गया।
हंस ने डैने कुरेदे
ग्रीवा झुला पल-भर को
निहारा विलगता फिर तिर गया।
बिनसर
नवम्बर, 1972
(12)
ललछौंहे
पाँकड़ के नीचे से
गुज़रती डगर पर
तुम्हारी देह-धार लहर गयी
धूप की कूची ने सभी कुछ को
सुनहली प्रभा से घेर दिया।
देख-देख संसृति
एक पल-भर ठहर गयी।
फिर सूरज कहीं ढलक गया,
साँझ ने धुन्ध-धूसर हाथ
सारे चित्र पर फेर दिया।
इधर एक राग-भरी स्मरण-रेख,
उधर अनुराग की उदासी
मेरे अन्तस्तल में गहर गयी।
बिनसर
नवम्बर, 1972
(13)
यूथ से निकल कर
घनी वनराजियों का आश्रय छोड़ कर
गजराज पर्वत की ओर दौड़ा है :
पर्वत चढ़ेगा।
कोई प्रयोजन नहीं है पर्वत पर
पर गजराज पर्वत चढ़ेगा।
पिछड़ता हुआ यूथ
बिछुड़ता हुआ मुड़ता हुआ
जान गया है कि गजराज
मृत्यु की ओर जा रहा है :
शिखर की ओर दौड़ने की प्रेरणा
मृत्यु की पुकार है।
उधर की दुर्निवार
गजराज बढ़ेगा।
यह नहीं कि यूथ जानता है
यह नहीं कि गजराज पहचानता है
कि मृत्यु क्या है : एक कुछ चरम है
एक कुछ शिखर है
एक कुछ दुर्निवार है
एक कुछ नियति है।
शिखर पर क्या है, गजराज?
...मृत्यु क्या मृत्यु ही है शिखर पर?
मृत्यु शिखर पर ही क्यों है?
क्या यहाँ नहीं है, नहीं हो सकती?
कहाँ नहीं है, जो शिखर पर हो?
मृत्यु ही शिखर है कदाचित्?
किस का शिखर?
क्या शिखर की ओर
दुर्निवार जाना ही प्रमाण है
कि शिखर बस एक आयाम है-
किस का आयाम?
तो शिखर से आगे क्या है?
त्वादृङ् नो भूथान्नचिकेता प्रष्टा...
तो क्या मैं शिकार की ओर दौड़ा हूँ
या शिखर से आगे?
किस का शिखर?
महतः परमव्यक्तम्
शिखर से आगे क्या है, गजराज?
अव्यक्तात्तपुरुषः परः
पांडव हिमालय गये थे : पांडव-
पर युधिष्ठिर कहाँ गये थे?
शिखर से आगे क्या है?
त्वादृङ् नो भूयान्नचिकेता प्रष्टा...
शिखर से आगे क्या है?
क्या...क्या...? है, है...
सा काष्ठा सा परा गति...
यूथ से निकल कर गजराज...
बिनसर
नवम्बर, 1972
(14)
निचले
हर शिखर पर
देवल : ऊपर
निराकार तुम
केवल...
बिनसर
नवम्बर, 1972
(15)
रात में
मेरे भीतर सागर उमड़ा
और बोला : तुम कौन हो? तुम क्यों समझते हो
कि तुम हो?
देखो, मैं हूँ, मैं हूँ,
केवल मैं हूँ...
मैं खो गया सागर उमड़ता रहा
उस की उमड़न में दबा
मैं सो गया
सोता रहा
और सागर
होता रहा, होता रहा, होता रहा...
भोर में जब पहली किरण ने नन्दा का भाल छुआ,
तो नन्दा ने कहा : यह देखो, मैं हूँ :
मैं हूँ तो तुम्हारा माथा
कभी भी नीचा क्यों होगा?
तब किरण ने मुझे भी छुआ :
मैं हुआ।
बिनसर
नवम्बर, 1972
वन-झरने की धार
मुड़ी डगर
मैं ठिठक गया।
वन-झरने की धार
साल के पत्ते पर से
झरती रही।
मैं ने हाथ पसार
दिये, वह शीतलता चमकीली
मेरी अँजुरी भरती रही।
गिरती बिखरती
एक कल-कल
करती रही :
भूल गया मैं क्लान्ति, तृषा,
अवसाद; याद
बस एक
हर रोम में
सिहरती रही।
लोच-भरी एड़ियाँ-
लहरती
तुम्हारी चाल के संग-संग
मेरी चेतना
विहरती रही।
आह! धार वह वन-झरने की
भरती अँजुरी से
झरती रही।
और याद से सिहरती
मेरी मति
तुम्हारी लहरती गति के
साथ विचरती रही।
मैं ठिठक रहा
मुड़ गयी डगर
वन-झरने-सी तुम
मुझे भिंजाती
चली गयीं सो
चली गयीं...
1972
दिन तेरा
दिन तेरा
मैं दिन का
पल-छिन मेरे तू धारा
मैं तिनका भोर सवेरे
प्रकाश ने टेरा दिन तेरा
तू मेरा...
1972
धार पर
हाँ, हूँ तो, मैं धार पर हूँ
गिर सकता हूँ।
पर तुम-तुम पर्वत हो कि चट्टान हो
कि नदी हो कि सागर हो
(मैं धार पर हूँ)
तुम आँधी हो कि उजाला हो
कि गर्त्त हो कि तीखी शराब हो कि तपा मरुस्थल हो
(मैं धार पर हूँ)
कि तुम सपना हो कि कगार तोड़ती बाढ़ हो
कि तलवार कि भादों की भरन हो
कि व्रत का निशि-जागर हो-
(मैं धार पर हूँ)
कि तुम-तुम-तुम उन्माद हो
कि विधना की कृपा हो कि मरन हो कि प्यार हो
जो मैं धार पर हूँ...
1972