जियो, मेरे...
जियो, मेरे आज़ाद देश की शानदार इमारतो
जिन की साहिबी टोपनुमा छतों पर गौरव ध्वज फहराता है
लेकिन जिन के शौचालयों में व्यवस्था नहीं है
कि निवृत्त हो कर हाथ धो सकें!
(पुरखे तो हाथ धोते थे न? आज़ादी से ही हाथ धो लेंगे, तो कैसा?)
जियो, मेरे आज़ाद देश के शानदार शासको
जिन की साहिबी भेजे वाली देसी खोपड़ियों पर
चिट्टी दूधिया टोपियाँ फब दिखाती हैं,
जिन के बाथरूम की सन्दली, अँगूरी, चम्पई, फ़ाख़्तई
रंग की बेसिनी, नहानी, चौकी तक ही तहज़ीब
सब में दिखता है अंग्रेज़ी रईसी ठाठ
लेकिन सफ़ाई का काग़ज़ रखने की कंजूस बनिए की तमीज़...
जियो, मेरे आज़ाद देश के सांस्कृतिक प्रतिनिधियो
जो विदेश जा कर विदेशी-नंग देखने के लिए पैसे दे कर
टिकट खरीदते हो
पर जो घर लौट कर देसी नंग ढकने के लिए
ख़ज़ाने में पैसा नहीं पाते,
और अपनी जेब में-पर जो देश का प्रतिनिधि हो वह
जेब में हाथ डाले भी
तो क्या ज़रूरी है कि जेब अपनी हो;
जियो, मेरे आज़ाद देश के रोशन-जमीर लोक-नेताओ :
जिन की मर्यादा वह हाथी का पैर है जिस में
सब की मर्यादा समा जाती है-
जैसे धरती में सीता समा गयी थी!
एक थे वह राम जिन्हें विभीषण की खोज में जाना पड़ा,
जा कर जलानी पड़ी लंका :
एक है यह राम-राज्य, बजे जहाँ अविराम
विराट् रूप विभीषण का डंका!
राम का क्या काम यहाँ? अजी राम का नाम लो!
चाम, जाम, दाम, ताम-झाम, काम-कितनी
धर्मनिरपेक्ष तुकें अभी बाक़ी हैं!
जो सधे साध लो, साधो-
नहीं तो बने रहो मिट्टी के माधो...
1975
चले चलो, ऊधो
अब चले चलो, ऊधो!
इहाँ न मिलिहैं माधो!
अच्छा है इस वृन्दावन-नन्दग्राम-मथुरा में मरना-
और उधर, वहाँ दूर द्वारका पार फिर उभरना
दम साधो
और गहरे गमीर में कूदो।
चले चलो, ऊधो!
हाइडेलबर्ग
मई, 1975
विदा का क्षण
नहीं! विदा का क्षण
समझ में नहीं आता।
कहने के लिए बोल नहीं मिलते।
और बोल नहीं हैं तो
कैसे कहूँ कि सोच कुछ सकता हूँ?
केवल एक अन्धी काली घुमड़न
जो बरस कर सरसा सकती है
सब डुबा सकती है
या जो बहिया बन कर सब समेटती हुई
पीछे एक मरु-बंजर भर
छोड़ जा सकती है।
नहीं, विदा का क्षण
समझ में नहीं आता, नहीं आता।
1975
वीणा
पहले उस ने कहा देखो-देखो आकाश वह प्रकाश का सागर अछोर
और मैं ने देखा तिरते पंछी फैलाये डैने मानो नावें
पसारे पाल जातीं दूर अजाने किनारे की ओर
फिर उस ने कहा देखो-देखो वह विस्तार
हरियाली का और मैं ने देखा धूप में चमकते
पत्ते और गहरी छायाएँ असंख्य पतंगों-झींगुरों की झनकार
और मर्मर और गुंजार से सिहरी और छिपते
सरसराते सोते और अटकते झरते सुदूर प्रपात
फिर उस ने कहा देखो-देखो पर देखो तो सही ज़रा
ये ठट्ठ के ठट्ठ लोग और मैं ने उन्हें देखा
मानो बहिया उमड़ती आ रही और उन की आँखों में ठहरा
दुःख और भूख और लालसा और घृणा और करुणा और व्यथा अनकही
पर फिर एकाएक उस का तना फुसफुसाता स्वर
और घना हो कर बोला पर क्या
तुम ने भीतर भी देखा अन्धकार में टटोला और मेरा
जी डोल गया एक झुरझुरी मुझे कँपाती रही और मैं डूब गया
पर तब फिर उस ने कहा मगर वह तो है वह सागर प्रकाश का
और वह फैला अछोर और एक विस्तार हरियाली का
और वह बिछा था चारों ओर और लोग और
लोग थे ठट्ठ के ठट्ठ लेते हिलोर
और उन के बीच उन से घिरा मैं विभोर उन के बीच उन के बीच...
1975
तुम्हारे गण
तुम्हारा घाम नया अंकुर हरियाता है
तुम्हारा जल पनपाता है
तुम्हारा मृग चौकड़ियाँ भरता आता है
चर जाता है।
तुम्हारा कवि जो देख रहा है मुग्ध
गाता है, गाता है!
हँसती रहने देना जब आवे दिन
तब देह बुझे या टूटे, इन आँखों को
हँसती रहने देना।
हाथों ने बहुत अनर्थ किये
पग ठौर-कुठौर चले,
मन के आगे भी खोटे लक्ष्य रहे
वाणी ने (जाने-अनजाने) सौ झूठ कहे
पर आँखों ने हार दुःख अवसान
मृत्यु का अन्धकार भी देखा तो
सच-सच देखा।
इस पार उन्हें जब आवे दिन-
ले जावे पर उस पार
उन्हें फिर भी आलोक-कथा
सच्ची कहने देना : अपलक
हँसती रहने देना!
जब आवे दिन
सितम्बर, 1975
बर्फ़ की तहों के नीचे
बर्फ़ की तहों के बहुत नीचे से सुना मैं ने
उस ने कहा : यहीं गहरे में
अदृश्य गरमाई है
तभी सभी कुछ पिघलता जाता है
देखो न, यह मैं बहा!
मेरी भी, मेरी भी शिलित अस्ति के भीतर कहीं
तुम ने मुझे लगातार पिघलाया है।
पर यह जो गलना है
तपे धातु का उबलना है
मैं ने इसे झुलसते हुए सहा
पर कब, कहाँ कहा!
हाइडेलबर्ग
30 जनवरी, 1976
मथो
यह अन्तर मन
यह बाहर मन
यह बीच कलह की
-नहीं, जड़ नहीं!-मथानी।
मथो, मथो, ओ मनो मथो
इस होने के सागर को
जो बँट चला आज
देवों-असुरों के बीच!
अब लो निकाल जो निकले
गागर-भर!
आवे जब तर तै कर लेना
क्या निकला यह?
अमृत? हलाहल?
हाइडेलबर्ग (स्वप्न में)
31 जनवरी, 1976
उत्सव-पिंगला1
लहरीला पिघला सोना
झरने पर तिपहर की धूप
मुगा रेशम के लच्छे
डाल बादाम की फूलों-लदी
बसन्ती बयार में।
पारदर्श पलकें।
और आँखें? सब-कुछ
उन में कहा जाता है-
वे कुछ नहीं बतातीं।
‘आत्मा की खिड़कियाँ।’
घर में जब शहर बसा
कौन-सी दीवार के पार
झलकेगा कैसा रहस्य?
झटक कर सिर वह हिलाती है
और उग आता है
पटसन की बदली में
रँगा-पुता पन्नी का चाँद।
उत्सव मनाओ! बह जाओ!
लहरीला पिघला सोना...
हाइडेलबर्ग
1 फ़रवरी, 1976
1. यूरोप और अमेरिका के कैथोलिक समाज में वसन्तकालीन उपवास (लैंट) से पहले एक उत्सव मनाया जाता है जिस में लोग चेहरे पहन कर या यों ही सज-धज कर जुलूस निकालते और रंगरलियाँ मनाते हैं। इसे कार्निवाल या कभी-कभी केवल ‘उत्सव’ (फ़ेस्ट, फ़ाशिंग) भी कहते हैं। उत्सव-दिवस के जुलूस की एक पिंगलकेशी युवती इस कविता की निमित्त थी।
होमो हाइडेलबर्गेसिस1
यहाँ जो खोपड़ी मिली थी
मेरी तो नहीं ही थी,
निश्चय ही मेरे किसी पूर्वज की भी नहीं थी।
हम क्या थे, कौन हैं
यह हम पाँच महीने
पाँच बरस, पचीस बरस बाद ही
निश्चयपूर्वक नहीं कह सकते-
पर हम कौन क्या नहीं थे
यह हम पाँच लाख साल बाद भी
ध्रुव जानते हैं।
हाइडेलबर्ग
3 फ़रवरी, 1976
चुप-चाप नदी
चुप-चाप सरकती है नदी,
चुप-चाप झरती है बरफ़
नदी के जल में
गल जाती है।
लटकी हैं छायाएँ
1. हाइडेलबर्ग के निकट प्राक्कालीन मानव की अस्थियाँ पायी गयीं तो इस विशिष्ट मानव उपजाति की ‘हाइडेलबर्गीय मानव’ (होमो हाइडेलबर्गेसिस) का नाम दिया गया। इन्हीं पुराखंडों में पायी गयी खोपड़ी इस कविता का आधार है।
निष्कम्प
पानी में।
और एक मेरे भीतर नदी है स्मृतियों की
जो निरन्तर टकराती है मेरी दुरन्त वासनाओं की चट्टानों से
जिस नदी की जिन चट्टानों से जिस टकराहट से
कोई शब्द नहीं होता
और जिस के प्रवाह में
बरफ़ की लड़ी की छाया-सा लटका हूँ मैं।
हाइडेलबर्ग
फरवरी, 1976
वसन्त आया तो है
वसन्त आया तो है
पर बहुत दबे-पाँव
यहाँ शहर में
हम ने उस की पहचान खो दी है
उसने हमें चौंकाया नहीं।
पर घाटी की दुःखी कठैठी ढाल पर
कई सूखी नामहीन बूटियाँ रहीं
जिन्हें उसने भुलाया नहीं।
सब एकाएक एक ही लहर में
लहलहा उठीं
स्वयंवरा वधुओं-सी!
वर तो नीरव रहा
वधुओं की सखियाँ गा उठीं।
हाइडेलबर्ग
फरवरी, 1976
झाँकी
ओझल होती-सी मुड़-भर कर
सब कह गयी तुम्हारी छाया।
मुझ को ही सोच-भरे यों खड़े-खड़े
जो मुझ में उमड़ा वह
कहना नहीं आया।
सम्भावनाएँ अब आप ही सोचिए
कितनी सम्भावनाएँ हैं
-कि मैं आप पर हँसूँ
और आप मुझे पागल करार दे दें;
-या कि आप मुझ पर हँसें
और आप ही मुझे पागल करार दे दें;
-या आप को कोई बताये कि मुझे पागल करार दिया गया
और आप केवल हँस दें...
-याकि
हँसी की बात जाने दीजिए
मैं गाली दूँ और आप-
लेकिन बात दोहराने से लाभ?
आप समझ तो गये न कि मैं कहना क्या चाहता हूँ?
क्यों कि पागल
न तो आप हैं
न मैं;
बात केवल करार दिये जाने की है-
या, हाँ, कभी गिरफ़्तार किये जाने की है।
तो क्या किया जाए?
हाँ, हँसा तो जाए-
हँसना कब-कब नसीब होता है?
पर कौन पहले हँसे?
किबला, आप!
किबला, आप!
मार्च, 1976
नाच
एक तनी हुई रस्सी है जिस पर मैं नाचता हूँ।
जिस तनी हुई रस्सी पर मैं नाचता हूँ
वह दो खम्भों के बीच है।
रस्सी पर मैं जो नाचता हूँ
वह एक खम्भे से दूसरे खम्भे तक का नाच है।
दो खम्भों के बीच जिस तनी हुई रस्सी पर मैं नाचता हूँ
उस पर तीखी रोशनी पड़ती है
जिस में लोग मेरा नाच देखते हैं।
न मुझे देखते हैं जो नाचता है
न रस्सी को जिस पर मैं नाचता हूँ
न खम्भों को जिस पर रस्सी तनी है
न रोशनी को ही जिस में नाच दीखता है :
लोग सिर्फ़ नाच देखते हैं।
पर मैं तो नाचता हूँ
जो जिन खम्भों के बीच है
जिस पर जो रोशनी पड़ती है
उस रोशनी में उन खम्भों के बीच उस रस्सी पर
असल में मैं नाचता नहीं हूँ।
मैं केवल उस खम्भे से इस खम्भे तक दौड़ता हूँ
कि इस या उस खम्भे से रस्सी खोल दूँ
कि तनाव चुके और ढील में मुझे छुट्टी हो जाय-
पर तनाव ढीलता नहीं
और मैं इस खम्भे से उस खम्भे तक दौड़ता हूँ
पर तनाव वैसा बना ही रहता है
सब कुछ वैसा ही बना रहता है।
और वही मेरा नाच है जिसे सब देखते हैं
मुझे नहीं रस्सी को नहीं
खम्भे नहीं
रोशनी नहीं
तनाव भी नहीं देखते हैं-नाच!
मार्च, 1976
अब भी यही सच है
अब भी यही सच है
कि अभी एक गीत मुझे और लिखना है।
अभी उस के बोल नहीं हैं मेरे पास
पर एकाएक कभी लगता है
कि मेरे भीतर कुछ जगता है
और जैसे किवाड़ खटखटाता है
और उस के साथ यह विश्वास
पक्का हो आता है
कि वह ज़रूर-ज़रूर लिख जाएगा...
क्यों कि वह जो है न, वह धुनी है और समर्थ है
और वह बन्दी नहीं रहेगा। किवाड़
चाहे खोलेगा, खुलवाएगा, तोड़ेगा,
पर तभी चैन लेगा जब पार
खुला दृश्य दिख जाएगा।
वह धुनी है, समर्थ है
केवल डेढ़ बित्ते का नहीं है
समूचे मेरे साथ तदाकार है
दुर्निवार है और वह बोलेगा-
वह बुक्का फाड़ कर बुलवाएगा...
एक गीत और जो छाती फाड़ कर उमड़े
तब तक चाहे जितना घुमड़े
अब भी यही सच है...
हाइडेलबर्ग
मार्च, 1976
सीमान्त पर1
चेहर हो गये हैं यन्त्र सभ्य।
मँजे चमकते हैं
बोल कर छिपाते हैं।
पर हाथ अभी वनैले हैं
उन के गट्टे
चुप भी सच सब बताते हैं।
बस कभी-परम दुर्लभ!-
आँसू : वे ही बचे हैं जो कभी गाते हैं।
बर्लिन
मार्च, 1976
1. जर्मन प्रवास में लिखी गयी यह कविता पूर्वी और पश्चिमी बर्लिन को अलग करने वाले अस्त्र-सज्जित ‘आधुनिक’ सीमान्त के एक ठिये पर लिखी गयी थी जहाँ सीमान्त पार करने वालों की पड़ताल और तलाशी आदि की व्यवस्था है।
क्लाइस्ट की समाधि पर1
एक ढंग है जीने का
एक मरने का
और एक
ये दोनों किनारे पार करने का।
समस्या बीच में है।
जिजीविषा। एक धन।
एक नदी।
एक असाध्य रोग। एक खेल।
एक लम्बा नशा जिसमें
एक किनारा दो में बँटता है,
दो किनारे एक में मिलते हैं।
समस्या बीच में है। अलग फूटती है-
मिल जाती है।
फूटती है, मिल जाती है
बहलाती है।
यों, यों, यों ही
तू सम्पूर्ण मेरा है, मेरे जीवन,
तू सम्पूर्ण मेरा है, मेरे मरण!
हाइडेलबर्ग
अप्रैल, 1976
ना जाने केहि भेस
खेतों में मद और मूसलों की
1. बर्लिन के एक उद्यान के छोर पर क्लाइस्ट की कब्र उसी स्थान के निकट बनी है जहाँ उसने आत्महत्या की थी। समाधि-लेख क्लाइस्ट की ही दो पंक्तियों का है जिन का आशय है, ‘अब ओ अमरत्व, तू सम्पूर्ण मेरा है।’ प्रस्तुत कविता की अन्तिम दो पंक्तियों का सन्दर्भ यही है, उस के अलावा भी क्लाइस्ट के दुःखमय जीवन और उस की आत्महत्या के प्रसंगों के संकेत हैं।
दोहरी मार से त्रस्त-ध्वस्त
बिछे थे यादव-वीर।
सूर्य अस्त, चन्द्र अस्त,
वनों के महावृक्षों के बीच बढ़ा
-गुफा में फैलते सीरे-सा!-
पसरा था अन्धकार!
और मैं था कि सजग, सावधान,
सधे पाँव, तान धनुष, बाण चढ़ा
खोजता था मृग कृष्णसार!
सुना तभी स्वर शर सन्धान कर
छोड़ दिया बाण!
लक्ष्य-सिद्ध!
यों मुझे मिले वह
खुला गिरा मोर-पंख का किरीट,
वैजयन्ती-माल स्रस्त,
छुटी पड़ी बाँसुरी,
मलिनाते पैरों के सूक्ष्म घाव से निकल रेंग रहा
सृपी शुभ्र, आयु-शेष :
आह, मुझे इस भेस मिले
नारायण : मेरे ही बाण से विद्ध!
अप्रैल, 1976
सड़क के किनारे गुलाब
बेमंज़िल सड़क के किनारे
एकाएक गुलाब की झाड़ी।
व्याख्या नहीं, सफाई नहीं-निपट गुलाब।
बेमंजिल शनिवारी सैरगाड़ी में मैं।
कोई अर्थ नहीं, सम्बन्ध नहीं-निपट मैं।
कितनी निर्व्याज, अजटिल
होती हैं स्थितियाँ जिन में
प्यार जन्म लेता है!
हाइडेलबर्ग
मई, 1976
महावृक्ष के नीचे
(पहला वाचन)
जंगल में खड़े हो?
महारूख के बराबर
थोड़ी देर खड़े रहो
महारूख ले लेगा तुम्हारी नाप।
लेने दो।
उसे वह देगा तुम्हारे मन पर छाप।
देने दो।
जंगल में चले हो?
चलो चलते रहो।
महारूख के साथ अपना नाता बदलते रहो।
उस का आयाम उस का है, बहुत बड़ा है।
पर वह वहाँ खड़ा है।
और तुम चलते हो चलते हुए भी भले हो।
वह महारूख है
अकेला है, वन में है।
तुम महारूख के नीचे-अकेले हो, वन तुम में है।
ग्रोस पेर्टहोल्ज़ (आस्ट्रिया)
15 मई, 1976
महावृक्ष के नीचे
(दूसरा वाचन)
वन में महावृक्ष के नीचे खड़े
मैं ने सुनी अपने दिल की धड़कन।
फिर मैं चल पड़ा।
पेड़ वहीं धारा की कोहनी से घिरा
रह गया खड़ा।
जीवन : वह धनी है, धुनी है
अपने अनुपात गढ़ता है।
हम : हमारे बीच जो गुनी है
उन्हें अर्थवती शोभा से मढ़ता है।
ग्रोस पेर्टहोल्ज (आस्ट्रिया)
15 मई, 1976
वन मिथक
महावन में बिखरे हैं जाति-धन पुराण।
सीमा-शिखरों के गढ़ उन्हें मढ़ते रहे हैं
ऐश्वर्य से और अभी पेड़ हैं
स्वयं ध्वस्त गौरव-अस्त।
फिर भी, फिर भी
नगर-घिरी वन-सीमा के ऊपर
मँडराते रहते हैं
आदिम प्राण...
मई, 1976
शरद विलायती
आया है शरद विलायती क्या बना है!
रंगीन फतुही काली जुर्राबें,
हवा में खुनकी मिज़ाज में तुनकी
दिल में चाहे जाती धूप की कसक
पर चाल में विजेता की ठसक
हम जान गये
यह सब सुनहली शराबें
पीने का बहाना है!
फिर भी मियाँ शरद,
हम तुम्हें मान गये!
मई, 1976
तीसरा चरण
(ह्योएल्डर्लिन के प्रति)
फूली डालों के चामर से सहलाये हुए
नदी के अदृश्य गति
गहराते पवित्र पानी को
फिर भँवराते जा रहे हैं
नये जवानों के शोर-भरे जल-खेल।
कोई दूसरा ही किनारा
उजलाते होंगे
अवहेलित लीला-हंस!
फलेंगे तो अलूचे, फूलेंगे तो सूरजमुखी,
पर वह सब अनत, कवि!
यहाँ इस फेंटे हुए मेले में
यहाँ क्या सुनोगे अब? ‘खनकती ऋतु-पंखियाँ’1
या कि काल का अपने को गुँजाता सन्नाटा?
ट्यूबिंगेन
मई, 1976
सभी से मैं ने विदा ले ली
सभी से मैं ने विदा ले ली :
घर से, नदी के हरे कूल से,
1. जर्मन कवि ह्योएल्डर्लिन की एक अत्यन्त प्रसिद्ध और लोकप्रिय कविता है हाल्फ़्टेस डेस ले बैंस (जीवन का उत्तरार्द्ध)। इस में कवि शरदकालीन झील में किलोल करते हंस को सम्बोधन कर के अपने अतीत जीवन का उदास स्मरण करता है। (जर्मन कविता का ‘अज्ञेय’ कृत अनुवाद ‘नया प्रतीक’ के जर्मन साहित्य अंक में छपा है, एक अनुवाद संग्रह में भी छप रहा है।) ऋतु-सूचक चरखी की पंखियों की खनक कवि को काल की गति का स्मरण दिलाती है। प्रस्तुत कविता में ह्योएल्डर्लिन की ही शब्दावली का प्रयोग हुआ है; यों पूरी कविता जर्मन कवि की उक्ति पर एक टिप्पणी ही है। वह कविता ट्यूबिंगेन में नेकार नदी पर उसी स्थल के निकट लिखी गयी थी जहाँ ह्योएल्डर्लिन ने अपने पिछले दिन बिताये थे।
इठलाती पगडंडी से
पीले वसन्त के फूलों से
पुल के नीचे खेलती
डाल की छायाओं के जाल से।
ब से मैं ने विदा ले ली :
एक उसी के सामने
मुँह खोला भी, पर
बोल नहीं निकले।
हम न घरों में मरते हैं न घाटों-अखियारों में
न नदी-नालों में
न झरते फूलों में
न लहराती छायाओं में
न डाल से छनती प्रकाश की सिहरनों में
इन सब से बिछुड़ते हुए हम
उनमें बस जाते हैं।
और उन में जीते रहते हैं
जैसे कि वे हम में रस जाते हैं
औ हमें सहते हैं।
एक मानव ही-हर उसमें जिस पर हमें ममता होती है
हम लगातार मरते हैं,
हर वह लगातार
हम में मरता है,
उस दोहरे मरण की पहचान को ही
कभी विदा, कभी जीवन-व्यापार
और कभी प्यार हम कहते हैं।
हाइडेलबर्ग
मई, 1976
जाड़ों में
लोग बहुत पास आ गये हैं।
पेड़ दूर हटते हुए
कुहासे में खो गये हैं
और पंछी (जो ऋत्विक् हैं)
चुप लगा गये हैं।
बर्लिन
जून, 1976
साल-दल-साल
पार साल बरसात में
ऊपर से नीचे तक चीरती
उस पर बिजली गिरी थी
पार साल बाँजों से फाँद कर
वनाग्नि नीचे से ऊपर तक
उस की डालें झुलसा गयी थीं।
इस साल वर्षा में
उसकी डालों से
काही झूल आयी है।
वनखंडी मानो पिछली घटनाएँ
सब भूल गयी।
आज उस की फुनगी पर
बैठा है पहाड़ी काक :
रुक-रुक करता गुहार।
कल उसे काट ले जाएँगे
लकड़हारों के कुल्हाड़े, बसूले, आरे।
अगले बरस फिर
कहीं किसी गाँठ में
दरार से एक नयी कोंपल
फूट आएगी जिस पर मँडराएगी
उतरेगी पिद्दी-सी फूलचुही :
प्यार से ज़िद्द करती गाएगी!
बिनसर
सितम्बर, 1976
शरद तो आया
हाँ, शरद आया
ऊपर खुली नीली झील-
तिरते बादलों के पाल।
हरे हरसिंगार।
तिनकों से ढले दो-चार
ओस-आँसू-कन।
खिली उजली धूप
नीचे सिहर आया ताल।
शरद तो आया :
मदिर आलोक फल लाया :
नहीं पर इस बार
दीखे हृदय-रंजन
युगल खंजन!
नन्दा
शरद की धुन्ध बढ़ आयी है
गलियारों में
उजले पाँवड़े पसारती।
चीड़ की पत्तियाँ।
तमिया गयी हैं
छोरों पर-
(बस, आग की फुनगी-सी पीतिमा कोरों पर)-
डालें मुड़-मुड़ कर
ऊपर को जाती-सी
हवा के झोंके साथ
मंडल बनाती-सी
चीड़ : दीप-लक्ष्मी
निर्जन में नन्दा की
आरती उतारती!
झर गयी दुनिया
झर गयी है दुनिया मैं हूँ
झर गया मैं तुम हो
झर गये तुम प्रश्न है
झर गया है प्रश्न युद्ध है
झर गया युद्ध जीवन है
वही दुनिया है, मैं हूँ, तुम हो, प्रश्न है, युद्ध है
कविता है। उस से अच्छा लगता है
यों तुम्हें पीछे छोड़ जाना
बँधी हुई भावना निबाहते
संकल्प की स्वतन्त्रता का बहाना।
अकेले श्रम साहस कर
रचना में खोना विनय से लोकालय में रम जाना।
अच्छा लगता है
फिर बाहर छोड़ दुनिया को
थके-माँदे घर आना।
प्रतीक्षा में, पहचान में, आस्था में
अपने को पाना।
धावे पहाड़ी की ढाल पर लाल फूला है
बुरूँस, ललकारता;
हर पगडंडी के किनारे कली खिली है
अनार की; और यहाँ
अपने ही आँगन में
अनजान मुस्करा रही है यह कांचनार।
दिल तो दिया-दिलाया एक ही विधाता ने :
धावे मगर उस पर बोले हज़ार!
धूप-सनी छाया खिड़की के आगे वह झुकी
डाल-सी : पत्तों के बीच
ढले ताँबे के सेब
धूप में लिखे गये-से
डोले; फिर वह धूप-सनी छाया
चौखट के आगे से
सरक गयी।
चौंध लगी सीधी आँखों में।
देहरी मेरी आँखों ने मुझे सहलाया है
जैसे शिशु अँगुलियाँ
हिलगे शशे को कौतुक से
मेरे हाथ तेरे हाथ खेले हैं
जैसे पर्वती सोतों के
आलोक के बुलबुलों-बसे पानी से
रोमांचित होते मेरे ओठों ने
तुझे चूमा है सिहरी श्रद्धा से
तेरी देह देहरी है जिस के पार
एक समाधिस्थ सन्नाटा है
ओ मेरे देवदारु अशोक
मेरे ओठ मेरे हाथ
मेरी आँखें
और तू...
तुम तक कहीं मेरा स्वर
पहुँच जाय अचानक
तुम एक
कहीं तुम
पकड़ जाओ औचक-
कहीं बात झर जाय
मगर कहाँ! क्यों व्यर्थ
हृदय यों मर जाय!
पिछले वसन्त के फूल
झरते-झरते
पिछले वसन्त के फूल
डालियों पर उमगाते गये
फलों के नाना-विध आश्वासन :
कहाँ, कहाँ, पर चली गयीं
पिछले जाड़ों की हिम-पंखड़ियाँ?
हट जाओ तुम
चलने से पहले
जान लेना चाहते हो कि हम
जाना कहाँ चाहते हैं।
और तुम
चलने देने से पहले
पूछ रहे हो क्या हमें
तुम्हारा
और तुम्हारा मात्र
नेतृत्व स्वीकार है?
और तुम हमारे चलने का मार्ग बताने का
आश्वासन देते हुए
हम से प्रतिज्ञा चाहते हो
कि हम रास्ते भर
तुम्हारे दुश्मनों को मारते चलेंगे।
तुम में से किसी को हमारे कहीं पहुँचने में
या हमारे चलने में या हमारी टाँगें होने
या हमारे जीने में भी
कोई दिलचस्पी नहीं है :
उस में तुम्हारा कोई न्यास नहीं है।
तुम्हारी गरज़ महज़
इतनी है कि जब हम चलें तो
तुम्हारे झंडे ले कर
और कहीं पहुँचें तो वहाँपहले से
(और हमारे अनुमोदन के दावे के साथ)
तुम्हारा आसन जमा हुआ हो।
तुम्हारी गरज़ हमारी गरज़ नहीं है
तुम्हारे झंडे हमारे झंडे नहीं हैं।
तुम्हारी ताक़त हमारी ताक़त नहीं है बल्कि
हमें निर्वीर्य करने में लगी है।
हमें अपनी राह चलना है।
अपनी मंज़िल पहुँचना है
हमें चलते-चलते वह मंज़िल बनानी है
और तुम सब से उसकी रक्षा की
व्यवस्था भी हमें चलते-चलते करनी है।
हम न पिट्ठू हैं न पक्षधर हैं
हम हम हैं और हमें
सफ़ाई चाहिए, साफ़ हवा चाहिए
और आत्म-सम्मान चाहिए जिस की लीक
हम डाल रहे हैं :
हमारी ज़मीन से हट जाओ।
आतंक ऊपर साँय-साँय
बाहर कुछ सरक रहा
दबे पाँव : अन्धकार में
आँखों के अँगारे वह हिले-
वहाँ-क्या उतरा वह?
रोंए सिहर रहे,
ठिठुरा तन : भीतर कहीं
धुकधुकी-वह-वह-क्सा पसरा वह?
बढ़ता धीरे-धीरे पथराया मन
साँस रुकी-हौसला
दरक रहा : वे आते होंगे-
ले जाएँगे...
कुछ-क्या-कोई-किसे-कौन?...
क्या करोगे?
खोली को तो, चलो
सोने से मढ़ लो,
पर सुअर तो सुअर रहेगा-
उस का क्या करोगे?
या फिर उसे भी मार के
उस की (सोने की) प्रतिमा गढ़ लो :
सजा-सँवार के
बिठा दो अन्दर।
खोली? अरे, कन्दरा, गुफा-मन्दर!
पाँव पूजो औतार के!
बौद्धिक बुलाए गये हमें
कोई नहीं पहचानता था।
हमारे चेहरों पर श्रद्धा थी।
हम सब को भीतर बुला लिया गया।
हमारे चेहरों पर श्रद्धा थी
हम सब को भीतर बुला लिया गया।
उस के चेहरे पर कुछ नहीं था।
उस ने हम सब पर एक नज़र डाली।
हमारे चेहरों पर कुछ नहीं था।
उस ने इशारे से कहा इन सब के चेहरे
उतार लो।
हमारे चेहरे उतार लिये गये।
उस ने इशारे से कहा
इन सब को सम्मान बाँटो :
हम सब को सिरोपे दिये गये
जिन के नीचे नये
चेहरे भी टँके थे
उस ने नमस्कार का इशारा किया
हम विदा कर के
बाहर निकाल दिये गये
बाहर हमें सब पहचानते हैं :
जानते हैं हमारे चेहरों पर नये चेहरे हैं।
जिन पर श्रद्धा थी
वे चेहरे भीतर
उतार लिये गये थे : सुना है
उन का निर्यात होगा।
विदेशों में श्रद्धावान् चेहरों की
बड़ी माँग है।
वहाँ पिछले तीन सौ बरस से
उन की पैदावार बन्द है।
और निर्यात बढ़ता है
तो हमारी प्रतिष्ठा बढ़ती है।
प्रतीक्षा-गीत हर किसी के भीतर
एक गीत सोता है
जो इसी का प्रतीक्षमान होता है
कि कोई उसे छू कर जगा दे
जमी परतें पिघला दे
और एक धार बहा दे।
पर ओ मेरे प्रतीक्षित मीत
प्रतीक्षा स्वयं भी तो है एक गीत
जिसे मैं ने बार-बार जाग कर गाया है
जब-जब तुम ने मुझे जगाया है।
उसी को तो मैं आज भी गाता हूँ
क्यों कि चौंक-चौंक कर रोज़
तुम्हें नया पहचानता हूँ-
यद्यपि सदा से ठीक वैसा ही जानता हूँ।
हाइडेलबर्ग
1976
जरा व्याध
मैं पाप नहीं लाया ढो कर
वन से बाहर
भी पग-पग पर
खाता ठोकर
मैं प्रश्न-भरा अकुलाया
बस-आप आया।
साथ में-अर्थ लाया
अव्यर्थ अर्थ की परतें।
मैं-जरा व्याध-
मार नारायण को ले आया
वैश्वानर नर!
निर्जर...
मैं पुण्य-भ्रष्ट हो कर
भी पाप नहीं लाया ढो कर...
हाइडेलबर्ग
1976
पेड़ों की क़तार के पार
पेड़ों के तनों की क़तार के पार
जहाँ धूप के चकत्ते हैं
वहाँ
तुम भी हो सकती थीं
या कि मैं सोच सकता था
कि तुम हो सकती हो
(वहाँ चमक जो है पीली-सुनहली
थरथराती!)
पर अब नहीं सोच सकता :
जानता हूँ :
वहाँ बस, शरद के
पियराते
पत्ते हैं।
बिनसर
1978
पत्ता एक झरा
सारे इस सुनहले चँदोवे से
पत्ता कुल एक झरा
पर उसी की अकिंचन
झरन के
हर कँपने में
मैं कितनी बार मरा!
बिनसर
1978
कहने की बातें
सुनो!
कुछ बातें ऐसी हैं
जो कहने की नहीं हैं
क्यों कि वास्तव में
कहने की तो वही हैं
पर कहना उन्हें इतिहास में बाँधना है
जो अतीत में है
जब कि बातें वे
बीतती नहीं हैं : जब कि कहना ही
बीत जाता है
सहना भर रह जाता है
और समय का सोता
रीत जाता है।
भैंस की पीठ पर
भैंस की पीठ पर
चार-पाँच बच्चे
भोले गोपाल से
भगवान् जैसे सच्चे
भैंस पर सवार
चार पाँच बच्चे
उतरे ज़मीन पर
एक हुआ कोइरी
एक भुइँहार
एक ठाकुर, एक कायथ, पाँचवाँ चमार
एक को पड़ा जूता
दूसरे को झाँपड़
उभरे ददोरे
दो को प्यादे ले गये
करते निहोरे
कीचड़ में भैंस
खड़ी पगुराय
किस की तो भैंस
किस की तलैया?
बच्चे तो बापों के
मालिक कौन पापों के?
कीचड़ हमार है
हम हैं बिहार के
नाचो ता-थैया!
पटना
मई, 1979
उसके चेहरे पर इतिहास
उस के चेहरे पर
कई इतिहास लिखे थे
जिन की भाषा
मेरी जानी नहीं थी।
इतनी बात मैं ने पहचानी थी
मगर फिर भी
मैं उन्हें अपने इतिहास की नाप से
नाप रहा था।
आह! पन्नों की नाप से
कहीं पढ़ लिये जा सकते
तो
नये या मनमाने भी गढ़ लिये जा सकते
इतिहास...
देखा उसे जिस ही क्षण मैं ने
पास-
उसी क्षण जाना
कि कितना व्यर्थ है मेरा प्रयास...
नयी दिल्ली
1979
उस के पैरों में बिवाइयाँ
उस के पैरों में बिवाइयाँ थीं
उस के खेत में
सूखे की फटन
और उस की आँखें
दोनों को जोड़ती थीं।
उस के पैरों की फटन में
मैं ने मोम गला कर भरी
उस की ज़मीन में
मैं अपना हृदय गला कर भरता हूँ,
भरता आया हूँ
पर जानता हूँ कि उसे पानी चाहिए
जो मैं ला नहीं सकता।
मेरे हृदय का गलना
उस के किस काम का?
तब क्या वह मेरा पाखंड है?
यह मेरा प्रश्न
मेरे पैरों की फटन है
और मेरी ज़मीन भी...
नयी दिल्ली
1979
मुलाक़ात
तुम्हारी पलकों के पीछे
रह-रह सुलगते अंगार हैं...
माना
आग के परदों के पीछे
वहाँ प्रकाश के और संसार हैं
मगर
परदा उठाओ मत-
उस प्रकाश के पीछे फिर
राख के अम्बार हैं!
आग को न छेड़ो-
सुलगना भी सुन्दर है
दबी भी
आग देर तक तपाती रहेगी...
(आग को
छुआ नहीं था न, इस की हसरत
दिनों तक सहलाती रहेगी)
लो-हो गयी मुलाकात :
अब तुम्हारी राह उधर
मेरी इधर :
न हुई सही बात-
पर यह तो जान लिया
कि जलते तो जा रहे हैं अविराम-
और यों चलते ही जा रहे हैं
नातमाम...
नयी दिल्ली
1979
परती का गीत
सब खेतों में
लीकें पड़ी हुई हैं
(डाल गये हैं लोग)
जिन्हें गोड़ता है समाज।
उन लीकों की पूजा होती है।
मैं अनदेखा
सहज
अनपुजी परती तोड़ रहा हूँ
ऐसे कामों का अपना ही सुख है :
वह सुख अपनी रचना है
और वही है उस का पुरस्कार।
उस का भी साझा करने को
मैं तो प्रस्तुत-
उसे बँटाने वाला ही दुर्लभ है! उस को भी तो
लीक छोड़ कर आना होगा
(यदि वह सुख
उस का पहचाना होगा)
पर तब उस के आगे भी
बिछी हुई होगी वैसी ही परती।
बहुत कड़ी यह बहुत बड़ी है धरती।
मैं गाता भी हूँ। उस के हित
मेरे गाने से वह एकाकी भी बल पाता है।
किन्तु अकेला नहीं। दूसरे सब भी।
उन के भीतर भी परती है
उस पर भी एक प्रतीक्षा-शिलित अहल्या
सोती है
जिस को मेरे भीतर का राम
जगाता है।
मैं गाता हूँ! मैं गाता हूँ!
नयी दिल्ली
9 अगस्त, 1979
सागर के किनारे
भीतर ही भीतर
तुम्हें पुकारता हूँ
बाहर पुकार नहीं सकता :
बन जाता है वही मेरा व्रत
जिस का मन्त्रित पाश
मैं उतार नहीं सकता!
सागर के किनारे खड़ा मैं
अपनी छोटी-सी नाव सँतारता हूँ!
पर लहर के साथ वह
लौट आती है। मैं जानता हूँ
कि सागर में नीचे कहीं
एक खींच होती है
जिस में पड़ कर फिर
नहीं होता लौट कर आना।
पर वह नाव को नहीं, नहीं, नहीं
मिलती-मैं मानता हूँ
कि डूब कर ही
होता है उसे पाना!
अभी मैं किनारे खड़ा
नाव सँतारता हूँ
साहस बटोरता हूँ
और दम साध
उस खींच को अगोरता हूँ-
आये, आये वह तन्मय क्षण
जब ओ छिपे स्रोत! तू मुझे धर ले-
मैं पाऊँ कि मैं अपने को वारता हूँ :
तारता हूँ...
नयी दिल्ली
10 अगस्त, 1979
खुल तो गया द्वार
खुल तो गया
द्वार
खुल तो गया!
फट गया शिलित अन्धकार
हुआ ज्योति-सायक पार!
नमस्कार, देवता! नमस्कार!
परस तेरा उदास
मिल तो गया
तार
मिल तो गया।
खुल तो गया
द्वार
खुल तो गया!
नयी दिल्ली
22 अगस्त, 1979
कहो राम, कबीर
न कहीं से
न कहीं को
पुल
न किसी का
न किसी पे
दिल
न कहीं गेह
न कहीं द्वार
सके जो खुल
न कहीं नेह
न नया नीर
पड़े जो ढुल...
यहाँ गर्द-गुबार
न कहीं गाँव
न रूख
न तनिक छाँव
न ठौर
यहाँ धुन्ध
यहाँ ग़ैर सभी
गुमनाम
यहाँ गुमराह
सभी पैर
यहाँ अन्ध
यहाँ-न-कहीं-यहाँ दूर...
कहो राम,
कबीर!
अक्टूबर, 1979
नदी की बाँक पर छाया
नदी की बाँक पर
छाया
सरकती है
कहीं भीतर
पुरानी भीत
धीरज की
दरकती है
कहीं फिर वध्य होता हूँ...
दर्द से कोई
नहीं है ओट
जीवन को
व्यर्थ है यों
बाँधना मन को
पुरानी लेखनी
जो आँकती है
आँक जाने दो
किन्हीं सूने पपोटों को
अँधेरे विवर में
चुप झाँक जाने दो
पढ़ी जाती नहीं लिपि
दर्द ही
फिर-फिर उमड़ता है
अँधेरे में बाढ़
लेती
मुझे घेरे में
दिया तुम को गया
मेरी ही इयत्ता से
बनी ओ घनी छाया
दर्द फिर मुझ को
अकेला
यहाँ लाया-
नदी की बाँक पर
छाया...
नयी दिल्ली
8 नवम्बर, 1979
डरौना
चिथड़े-चिथड़े
टँगा डरौना
खेत में
ढलते दिन की
लम्बी छाया
छुई-
कि बदला
जीते प्रेत में।
घिरी साँझ
मैं गिरा
अँधेरी खोह-
यादें-
लपका
बटमारों का एक गिरोह!
शरण वह
प्रेत डरौना
चिथड़े-चिथड़े।
नयी दिल्ली
8 नवम्बर, 1979
नृतत्त्व संग्रहालय में
तब-
इतिहास नहीं था जब-
जिन की ये हड्डियाँ हैं
वे जीवित थे।
जो आज हैं
सिकुड़े जर्जर कंकाल,
रीढ़, भुजा, कूल्हे, कपाल-
मगर आह, यह एक पंजे में अटका
उजले धातु का छल्ला!
पुरातत्त्व? तत्त्व यह
कि धूल है सब-
क्या वह, क्या हम
सभी कुछ है सम-
अब भी नहीं है इतिहास,
केवल क्रम, विक्रमन-
मगर वह-वह पुराने खरे धातु की चमक
और यह-यह भीतर की खरी सनातन
सुलगन!
परती तोड़ने वालों का गीत
हम ने देवताओं की
धरती को
सींचा लहू से
कुक्कुटों, बकरों, भैंसों के;
हम ने प्रभुओं की
परती को
सींचा अपने लहू से
और अपने बच्चों के।
उस धरती पर
उस परती पर
अब पलते हैं उन प्रभुओं के
कुक्कुट, बकरे, भैंसे
जिन की खुशी में चढ़ाते हैं वे
उन देवताओं के चरणों पर
फूल, हमारे लाये
हमारे उगाये।
न हमें पशुओं-सा मरना मिला,
न हमें प्रभुओं-सा जीना,
न मिला देवताओं-सा अमरता में
सोम-रस पीना!
हम उन तीनों को
जिलाते रहे, मिलाते रहे,
वह बड़ा वृत्त बनाते रहे
जिस की धुरी से हम
लौट-लौट आते रहे...
भुवनेश्वर-पुरी
1 जनवरी, 1980
मेरे देश की आँखें
नहीं, ये मेरे देश की आँखें नहीं हैं
पुते गालों के ऊपर
नक़ली भँवों के नीचे
छाया प्यार के छलावे बिछाती
मुकुर से उठायी हुई
मुस्कान मुस्कुराती
ये आँखें-
नहीं, ये मेरे देश की नहीं हैं...
तनाव से झुर्रियाँ पड़ी कोरों की दरार से
शरीर छोड़ती घृणा से सिकुड़ी पुतलियाँ-
नहीं, ये मेरे देश की आँखें नहीं हैं...
वन डालियों के बीच से
चौंकी अनपहचानी
कभी झाँकती हैं
वे आँखें,
मेरे देश की आँखें;
खेतों के पार
मेड़ की लीक धारे
क्षिति-रेखा को खोजती
सूनी कभी ताकती हैं
वे आँखें...
उसने
झुकी कमर सीधी की
माथे से पसीना पोंछा
डलिया हाथ से छोड़ी
और उड़ी धूल के बादल के
बीच में से झलमलाते
जाड़ों की अमावस में से
मैले चाँद-चेहरे सकुचाते
में टँकी थकी पलकें
उठायीं-
और कितने काल-सागरों के पार तैर आयीं
मेरे देश की आँखें...
पुरी-कोणार्क
2 जनवरी, 1980
बाँहों में लो
आँखें मिली रहें
मुझे बाँहों में लो
यह जो घिर आया है
घना मौन
छूटे नहीं
काँप कर जुड़ गया है
तना तार
टूटे नहीं
यह जो लहक उठा
घाम, पिया
इस से मुझे छाँहों में लो!
आँखें यों अपलक मिली रहें
पर मुझे बाँहों में लो!
नयी दिल्ली
जनवरी, 1980
वसन्त : राजस्थानी शैली
सरसों फूली पीली लीकें
हरियाली में।
अरे! मोड़ पर
यह मानो वसन्त की लाली
उमँग चली जाती है।
फ़रवरी, 1980
रात-भर
तू तो सपने में
झलक दिखा कर
चला गया :
मैं
रात-रात भर
यादों को सहलाता
बल खाता पड़ा रहा!
भीमताल
16 फरवरी, 1980
मैं ने जाना, यही हवा
चला जा रहा था मैं
मन ने तभी सुझाया :
जिस बालू पर पग धरते
तुम चले जा रहे-यही रेत है काल।
(कहना था क्या उसे यही! मैं छोड़ रहा हूँ छाप काल पर?)
तभी हवा का झोंका आया
सारे पग-चिह्नों को मिटा गया।
मैं ने जाना यही हवा है काल :
समय की लिखत अहं की छाप
मिटाती जाती है...
कितनों-कितनों के
कितने पग-चिह्न
रेत में मिले हुए हैं
कितने अहं : और आने वालो के पग-तल
क्या उन को छूते हैं?
उठते हैं तिलमिला लड़खड़ाते हैं?
एक-एक क्षण में शत-शत युग :
और सहस्रों युग का सूखा जंगल
यह मरु : और उसे
सहलाती-सी ही
हवा काल की
कितने इतिहास मिटा जाती है!
मन, मरु हो गया पार!
हवा री, पाटी की यह लिखत मिटा दे।
भीमताल-काठगोदाम (गौला नदी पर)
18 फ़रवरी, 1980
पीली पत्ती : चौथी स्थिति
सरसराती पत्ती ने डाल से
मुक्ति तो माँगी थी
पर यह नहीं सोचा था
कि उस की माँग मान ली जाएगी।
यह मुक्ति क्या जाने मृत्यु हो
भरे वसन्त में-यह सोच
वह पीली पड़ गयी
और अन्त में थरथराती
झड़ गयी...
लखनऊ
7 मार्च, 1981
मैं ने पूछा क्या कर रही हो
मैं ने पूछा,
यह क्या बना रही हो?
उसने आँखों से कहा
धुआँ पोंछते हुए कहा :
मुझे क्या बनाना है! सब-कुछ
अपने आप बनता है
मैं ने तो यही जाना है।
कह लो मुझे भगवान ने यही दिया है।
मेरी सहानुभूति में हठ था :
मैं ने कहा : कुछ तो बना रही हो
या जाने दो, न सही-बना नहीं रही-
क्या कर रही हो?
वह बोली : देख तो रहे हो छीलती हूँ
नमक छिड़कती हूँ मसलती हूँ
निचोड़ती हूँ
कोड़ती हूँ
कसती हूँ
फोड़ती हूँ
फेंटती हूँ महीन बिनारती हूँ
मसालों से सँवारती हूँ
देगची में पटती हूँ
बना कुछ नहीं रही
बनता जो है-यही सही है-
अपने आप बनता है
पर जो कर रही हूँ-
एक भारी पेंदे
मगर छोटे मुँह की
देगची में सब कुछ झोंक रही हूँ
दबा कर अँटा रही हूँ
सीझने दे रही हूँ।
मैं कुछ करती भी नहीं-
मैं काम सलटती हूँ।
मैं जो परोसूँगी
जिन के आगे परोसूँगी
उन्हें क्या पता है
कि मैं ने अपने साथ क्या किया है!
नयी दिल्ली
मार्च, 1980
धूसर वसन्त
वसन्त आया है
पतियाया-सा सभी पर छाया है
हर जगह रंग लाया है
पर यह देख कर कि कीकर भी पियराया है
मेरा मन एकाएक डबडबा आया है।
नहीं, इस बार, मेरे मीत!
नहीं उमड़ेगी धार
मैं नहीं गा सकूँगा गीत
इस बार, बस, घुमड़ेगा प्यार
और चुप में रिस जाएगा
बहेगी नहीं बयार न सिहराएगी
इस बार चिनचिनाती आँधी आएगी
घुटूँगा मैं और फूले भी बबूल को
धूसर कर जाएगी
धूल, धूल, धूल...
नयी दिल्ली
मार्च 1980
हम जिये
लौटे तो लौट चले
पाँव-पाँव, मन को यहीं
इसी देहरी पर छोड़ चले
जीवन भर उड़ा किये
ले सपना-‘वह अपना है’,
उसी की छाँव तले
उस को ही सौंप दिये
पांख आज।
तड़पे।
फिर कौंध-सी में
जाना, यह लाज
भी उसी से है-
यह भी उसी को दी।
रह गयी चौंध एक
जिस में सब सिमट गया!
वही बस साथ लिये,
हार दाँव,
हम जैसा भी
जिये जिये!
नयी दिल्ली
6 अप्रैल, 1980
पंडिज्जी
अरे भैया, पंडिज्जी ने पोथी बन्द कर दी है।
पंडिज्जी ने चश्मा उतार लिया है
पंडिज्जी ने आँखें मूँद ली हैं
पंडिज्जी चुप-से हो गये हैं।
भैया, इस समय पंडिज्जी
फ़कत आदमी हैं।
नयी दिल्ली
अप्रैल, 1980
कल दिखी आग
दीखने को तो
कल दिखी थी आग
पर क्या जाने उस के करने थे फेरे
या उस में झोंकना था सुहाग!
चिह्न तो सब दिखाता है
पर दुजिब्भा है विधाता-
उस का लिखा पढ़ा तो सब जाता है
पर समझ में कुछ नहीं आता।
-और सपना सुन
बताता है सयाना
जजमान हैं बड़भाग
जिसे कल दिखी थी आग...
नयी दिल्ली
अप्रैल, 1980
भाषा : माध्यम
एक अहंकार है जिस में मैं रहता हूँ
जिस में (और जिसे!) मैं कहता हूँ
कि यह मेरा अनुभव है
जो मेरा है, मेरा भोगा है, मेरा जिया है :
और एक इस सच का स्वीकार है
कि यह जो ज्ञान भी है
इस की पहचान अभी
माध्यम एक मुहावरा है जो तुम्हारा दिया है!
नयी दिल्ली
8 मई, 1980
भाषा : पहचान
एक भिखारी ने
दूसरे भिखारी को सूचना दी :
उस द्वार जाओ, वहाँ भिक्षा ज़रूर मिलेगी।
बड़े काम की चीज़ है भाषा : उस के सहारे
एक से दूसरे तक जानकारी पहुँचाई जा सकती है।
वह सामाजिक उपकरण है।
पर नहीं। उस से भी बड़ी बात है यह
कि भाषा है तो एक भिखारी जानता है कि वह दूसरे से जुड़ा है
क्यों कि वह उस जानकारी को
साझा करने की स्थिति में है।
वह मानवीय उपलब्धि है।
हम सभी भिखारी हैं।
भाषा की शक्ति यह नहीं कि उस के सहारे
सम्प्रेषण होता है :
शक्ति इसमें है कि उस के सहारे
पहचान का यह सम्बन्ध बनता है जिस में
सम्प्रेषण सार्थक होता है।
आज ऐसा हुआ है
बहुत दिनों के बाद
आज ऐसा हुआ है
कि उस एक मेरे जाने हुए
आलोक ने मुझे छुआ है।
यह तो जानता रहा हूँ
कि जीवन एक आवारा गर्म झोंके पर
उड़ता हआ भुआ है
पर यह कि इस उड़ने का भी सहारा
किसी की दुआ है-
मानूँ, तुम्हारे सामने भी, बेचारा
अभिमान छोड़ कर मान लूँ
कि सच बहुत दिनों के बाद
आज ऐसा हुआ है...
नयी दिल्ली
8 मई, 1980
आये नचनिये
कैसे बनठनिये आये नचनिये!
‘पाय लागी, पाधा,
राम-राम, बनिये!
हम आये नचनिये!’
‘नाचोगे?’ ‘काहे नहीं नाचेंगे?
जब तक नचायेंगे!’
‘जब तक?-अच्छा तो,
जब तक तुम गिनोगे,
जब तक ये बाँचेंगे!’
‘ऐसा, तो देखें कहाँ तक!’
‘देखो, जब तक, जहाँ तक!
हमारा क्या, हम तो नचनिया हैं
नाचेंगे भोर से रात तक
और सोम से जुम्मे रात तक
फागुन से असाढ़ तक
और सूखे से बाढ़ तक
चँदोवे से कनात तक
घर से हवालात तक
कानपुर से दानपुर
रामपुर से धामपुर
सोलन से सुल्तानपुर
दीरबा कलाँ से देवबन्द
चाहचन्द से रायसमन्द।
एटा से कोटा, बड़ौत से बरपेटा
गया से गुवाहाटी
बरौनी से राँगामाटी।
लहरतारा से लोहानीपुर
बऊबाजार से मऊरानीपुर,
पिपरिया से सिमरिया
झाँसी से झूँसी और झाझर से झरिया।
छिली ईं से नरही
और बारह टोंटी से तत्ता पानी
तीन मूरती से पँच बँगलिया
कसेरठ से खड़ा घोड़ा
खेखड़े से खखौदा,
पीलीभीत से लालबाग
और मेरठ से अलमोड़ा।
चौड़े रास्त से नाटी इमली
तंजाऊर से तिरुट्टानी
भोगाँव से बलिया।
तुम गिने जाव, वह बाँचे जाएँ
तो ठीक है, हम हू नाचे जाएँ!
बड़ी दूर से आये हैं
हम न ठाकुर न बनिये
हम हैं नचनिये!!’
नयी दिल्ली
11 मई, 1980
न सही, याद
न सही, याद न करो मुझे
जिओ मेरी ही याद में-
तुम्हारा याद का समय तो
यों भी होगा-बाद में...
इतना ही है कि जो दिन, सोचा था,
बीतेंगे गीत के मधुर नाद में
वे झरते जाते हैं
एक विरस अवसाद में :
पर यही सही : मेरा दिन तो चुकने को है
मेरे क्षितिजों पर गुज़रता काफ़िला रुकने को है।
पर भोर-वह कल भी होगा : तभी कर लेना याद-
अंगार-स्याहपोश न हो, सुलगे तब भी-मेरे बाद!
नयी दिल्ली
मई, 1980
ख़ून
किसी को भुला ले
तुम्हारी भंगिमा
किसी की ममता जगा ले
तुम्हारे यह आयोजन
(उसी को मोहने का तो)
फिर भी तुम्हारे चेहरे पर
वह लुनाई नहीं आएगी
जो उस के चेहरे पर है जो
तुम्हारे लिए ये खीरे के टुकड़े
तश्तरी में लायी है
जो तुम्हारी आँखों की मद-भी हिर्स को
अपनी कुतूहल-भरी आँखों से देखती है।
उस के बाद का ख़ून तुम्हारे बाप ने चूसा है
उस के बाप के बाप का
तुम्हारे बाप के बाप ने,
और यों सदियों से होता चला आया है।
हो सकता है तुम्हारे बाप ने
अभी तुम्हें यह नहीं बताया है
और निश्चय ही रूप-रक्षा के नुस्ख़ों वाली तुम्हारी
रंगीली पत्रिका ने यह तुम्हें नहीं पढ़ाया है
बात यह है कि वह खून देती हुई भी
अपने ख़ून पर पली है
और तुम अनजानते भी
उस के ख़ून पर...
टप्पे
अमराई महक उठी
हिय की गहराई में
पहचानें लहक उठीं!
तितली के पंख खुले
यादों के देवल के
उढ़के दो द्वार खुले
प्यार के तरीके
प्यार के तरीके तो और भी होते हैं
पर मेरे सपने में मेरा हाथ
चुपचाप
तुम्हारे हाथ को सहलाता रहा
सपने की रात भर...
नयी दिल्ली
जून, 1980
रात सावन की
रात सावन की
कोयल भी बोली
पपीहा भी बोला
मैं ने नहीं सुनी
तुम्हारी कोयल की पुकार
तुम ने पहचानी क्या
मेरे पपीहे की गुहार?
रात सावन की
मन भावन की
पिय आवन की
कुहू-कुहू
मैं कहाँ-तुम कहाँ-पी कहाँ!
नयी दिल्ली
जून, 1980
सहारे
उमसती साँझ
हिना की गन्ध
किसी की याद
कैसे-कैसे प्राणलेवा
सहारे हैं
जीने के!
नयी दिल्ली
जून, 1980
स्वर-शर
तुम्हारे स्वर की गूँज
भरे रहे आकाश
स्वचेतन :
पर मेरा मन-
वह पहले ही है फ़कीर
अनिकेतन।
खग हो कर भी
वह नीरव तिरता है नभ से
गूँज भरे, वर दो-ऐसा कुछ तुम कर दो-
वह यों-स्वर-शर से बिंधा सदा विचरे!
भुवनेश्वर-दिल्ली
16 जून, 1980
उमस
रात उजलायी,
अँधेरे से कँटीले हो
सभी आकार उग आये।
सिहर कर पंछी पुकारे।
इधर लेकिन अबोली चुप
तुम्हारी व्यथा में मेरी व्यथा डूबी।
नयी दिल्ली
19 जून, 1980
आज मैं ने
आज मैं ने पर्वत को नयी आँखों से देखा।
आज मैं ने नदी को नयी आँखों से देखा।
आज मैं ने पेड़ को नयी आँखों से देखा।
आज मैं ने पर्वत पेड़ नदी निर्झर चिड़िया को
नयी आँखों से देखते हुए
देखा कि मैं ने उन्हें तुम्हारी आँखों से देखा है।
यों मैं ने देखा कि मैं कुछ नहीं हूँ।
(हाँ, मैं ने यह भी देखा कि तुम भी कुछ नहीं हो।)
मैं ने देखा कि हर होने के साथ
एक न-होना बँधा है
और उस का स्वीकार ही बार-बार,
हमें हमारे होने की ओर लौटा लाता है
उस होने को एक प्रभा-मंडल से मँढ़ता हुआ।
आज मैं ने अपने प्यार को
जो कुछ है और जो नहीं है उस सब के बीच
प्यार के एक विशिष्ट आसन पर प्रतिष्ठित देखा।
(तुम्हारी आँखों से देखा।)
आज मैं ने तुम्हारा
एक आमूल नये प्यार से अभिषेक किया
जिस में मेरा, तुम्हारा और स्वयं प्यार का
न होना भी है वैसा ही अशेष प्रभा-मंडित
आज मैं ने तुम्हें
प्यार किया, प्यार किया, प्यार किया...
धुँधली चाँदनी दिन छिपे
मलिना गये थे रूप
उन को चाँदनी नहला गयी।
थक गयी थी याद संकुल लोक में
उमड़ती धुन्ध फिर सहला गयी।
बोझ से दब घुट रही थी भावना, पर
प्रकृति यों बहला गयी।
फिर, सलोने, माँग तेरी
कसमसाती चेतना पर
छा गयी।
कदम्ब-कालिन्दी
(पहला वाचन)
टेर वंशी की
यमुना के पार
अपने-आप झुक आयी
कदम की डार।
द्वार पर भर, गहर,
ठिठकी राधिका के नैन
झरे कँप कर
दो चमकते फूल।
फिर-वही सूना अँधेरा
कदम सहमा
घुप कालिन्दी कूल!
कदम्ब-कालिन्दी
(दूसरा वाचन)
अलस कालिन्दी-कि काँपी
टेरी वंशी की
नदी के पार।
कौन दूभर भार अपने-आप
झुक आयी कदम की डार
धरा पर बरबस झरे दो फूल।
द्वार थोड़ा हिले-
झरे, झपके राधिका के नैन
अलक्षित टूट कर
दो गिरे तारक बूँद
फिर-उसी बहती नदी का
वही सूना कूल!-
पार-धीरज-भरी
फिर वह रही वंशी टेर!
कुछ तो टूटे
मिलना हो तो कुछ तो टूटे
कुछ टूटे तो मिलना हो
कहने का था, कहा नहीं
चुप ही कहने में क्षम हो
इस उलझन को कैसे समझें
जब समझें तब उलझन हो
बिना दिये जो दिया उसे तुम
बिना छुए बिखरा दो-लो!
नयी दिल्ली
सितम्बर, 1980
वासन्ती
मेरी पोर-पोर
गहरी निद्रा में थी
जब तुमने मुझे जगाया।
हिमनिद्रा में जड़ित रीछ
हो एकाएक नया चौंकाया-यों मैं था।
पर अब! चेत गयी हैं सभी इन्द्रियाँ
एक अवश आज्ञप्ति उन्हें कर गयी सजग,
सम्पुजित; पूरा जाग गया हूँ
एक बसन्ती धूप-सने खग-रव में;
जान गया हूँ
उस पगले शिल्पी ईश्वर का क्रिया-कल्प!
फिर छुओ!
प्राण पा गयी है वह प्रस्तर प्रतिमा!
नयी दिल्ली
6 अक्टूबर, 1980
हाथ गहा
हाँ, तुम्हारा हाथ मैं ने गहा
तुम्हारे हाथ को मेरा हाथ
देर तक लिये रहा :
पर एकाएक मैं ने देखा कि उस मेरे हाथ के साथ
मैं ही तो नहीं रहा...
लखनऊ
14 नवम्बर, 1980
इतिहास-बोध
इन्हें अतीत भी दीखता है
और भवितव्य भी
इस में ये इतने खुश रहते हैं
कि इन्हें यह भी नहीं दीखता!
कि उन्हें सब कुछ दीखता है पर
वर्तमान नहीं दीखता!
दान्ते के लिए यह स्थिति
एक विशेष नरक था
पर ये इसे अपना इतिहास-बोध कहते हैं!
लखनऊ
14 नवम्बर, 1980
प्यार अकेले हो जाने का...
प्यार अकेले हो जाने का एक नाम है
यह तो बहुत लोग जानते हैं
पर प्यार अकेले छोड़ना भी होता है इसे
जो
वह कभी नहीं भूली
उसे जिसे मैं कभी नहीं भूला...
नयी दिल्ली
नवम्बर, 1980
अलाव
माघ : कोहरे में अंगार की सुलगन।
अलाव के ताव के घेरे के पार
सियार की आँखों की जलन
सन्नाटे में जब-तब चिनगी की चटकन
सब मुझे याद है : मैं थकता हूँ
पर चुकती नहीं मेरे भीतर की भटकन!
भोर : लाली
भोर। एक चुम्बन। लाल।
मूँद लीं आँखें। भर कर।
प्रिय-मुद्रित दृग
फिर-फिर मुद्रांकित हों-
क्यों खोलें?
आँखें खुलती हैं। दिन। धन्धे।
खटराग।
ऊसर जो हो जाएगा पार
वही लाली क्या फिर आएगी?
नयी दिल्ली
दिसम्बर, 1980
वासुदेव प्याला
यह वासुदेव प्याला
भरते ही कृष्ण का चरण-स्पर्श पा
रीत जाता है
और फिर भरता है
अनवरत : इसमें कुछ आश्चर्य नहीं है।
आश्चर्य यह है कि यह बाढ़
जिस के चरण छूती है
वह नहीं है डलिया में सोया
बाल-कृष्ण : वह छलिया
वह साँवलिया है जो
कालिय नाग के मणिपूर मस्तक पर
नाच रहा है।
उस नर्तमान चरण को छूता है जल
और उतर जाता है :
पानी उतर जाता है...
ओ रह : कृष्ण! तुम क्या
नाग के नथैया
और कालिन्दी के कन्हैया हो
या कि नाग के ही बचैया-
कि यह बाढ़ भी क्या इसी में धन्य है
कि नाग ही तुम्हारा शरण्य है?
नयी दिल्ली
16 दिसम्बर, 1980
स्वरस विनाशी
घड़े फूट जाते हैं
कीच में खड़े हम पाते हैं
कि अमृत और हलाहल
दोनों ही अमोघ हैं
दोनों को एक साथ भोगते हम
अमर और सतत मरणशील
सागर के साथ फिर-फिर
मथे जाते हैं
कालोऽयं समागतः
समागत है काल अब बुझ
जाएगा यह दीप।
यही क्या कहना
कि होता इस समय तू एक
समीप!
जो अकेला रहा भरता रहा
तेरी उपस्थिति के बोध से
अपना चरम एकान्त क्यों न वह
निबते समय भी मौन
आवाहे वही आलोक
धीरज का परम निर्भ्रान्त?
वही हो : उसी में यह जन
नसन को बाँहें समेटे
उसी में पाहुन समागत
अंक भेंटे जाएँ मिल
लय-ताल।
-समागत है काल।
नयी दिल्ली
मई, 1981
जा!
जा!
जाना है तो ऐसे जा :
या तो गाते-गाते
या फिर तम में जागे-जागे
सहसा पाते
वह जो गाना था, प्रकाश,
वह यह पाया-
यह-हाथ की पहुँच से, बस
तिनका-भर आगे!
हाथ बढ़ा और-
जा!
बिनसर
19 जून, 1981
मेघ एक भटका-सा
रीता घर सूना गलियारा
वन की तरु-राजि
बिसूर पियूर की
हवा की थकी साँस :
मेघ एक भटका-सा
दो बूँदें टपका जाता है।
ऐसे ही टुकड़ों में सहसा
गँठ जाते हैं महाकाव्य
व्याकुल प्रेत-व्यथा
सब-कुछ से सब-कुछ ही बिछुड़न की
एक आह हीरक में शिलीभूत!
बिनसर
19 जून, 1981
जरा व्याध
मर्माहत ही मिले मुझे
फिर जालिक के ही पाश काट
पानी को करते पापमुक्त
वह चले गये।
नर में ही बार-बार नारायण
मरते हैं। भरते हैं उस में
व्यथा बोध, उस का ही काम अधूरा है।
नारायण? उन का तो खाता सदा शुद्ध है, पूरा है।
दे चुके कर्मफल मुक्ति, पाप से भुक्ति,
स्वयं वह मुक्त हुए।
नारायण! नहीं! व्याध को ऐसे
मुक्तिबोध से मुक्त करो!
जिस ने जीवन में एक लक्ष्य ही जाना-
शर-सन्धान अनवरत-
उसे सन्धानी ही रहने दो!
न दो क्षमा! उस के बन्धन मत खोलो!
बँध हुआ ही वह कितना समीप है
कितना डूबा साँई की छाया में
रह-रह उठती है पुकार उस के भीतर से
शब्दहीन :
‘नारायण! नर के नारायण हे!’
मर्माहत ही मिले मुझे वह
मैं भी मर्मविद्ध यों बँधा रहूँ
कल्पान्तरतर-कल्पान्त
पुकारा करूँ नाम : नारायण हे!
बिनसर
11 जून, 1981
जरा व्याध
क्या यही है पुरुष की नियति
कि बार-बार लोभ-वश
-किन्तु जो जीवन-कर्म है (जो नियति है!)
उसे कैसे माना जाय लोभ?-
जाना मृग की टोह में
और मर्माहत कर आना
युग-युग के मृगांक को!
कौन शरविद्ध हुआ, कृष्ण?
तुम, मेरे नारायण, कि मैं,
नियति का अभागा आखेट, अहेरी मैं!
नहीं, नहीं, नहीं सहा जाता यह बोझ
क्षमा का! क्यों नहीं यह भी नियति है
कि व्याध का भी
तत्काल वध हो घातीवत्!
जरा तो देवघाती है!
कवि ने तो पक्षीघाती को भी दे दिया था शाप तुरत,
मानव था कवि, करुण था, क्रोधी था;
और तुम, नारायण मेरे,
दाता, जिसे सारा जग वन्दता है,
दे न सके अपनी अजस्र उदारता में मुझे
एक शाप तक!
यही है शाप क्या? कि अपराधी उपेक्षित हो,
दंड भी न पाये, पग-पग पर
रचे जाय अपने ही लिए आग तूस की
जला करे तिल-तिल-किन्तु देवता
तुमने तो क्षमा दी थी मुझे-यही क्या क्षमा है?
दिया है मैं ने अपने को वन को पंछियों को
मृगों को उरगों, पतंगों को!
डँसें मुझे मारें, नोचें,
फाड़ कर भक्ष लें!
देखो, वनचारियो,
बन्धुओ, निस्तारको, मेरे मोक्षदो!
यही देवहन्ता जरा व्याध आज
वध्य है तुम्हारा।
नहीं, नहीं, नहीं!
मेरा एक ही शरण्य है!
वही जिसे मैं ने शरविद्ध किया है!
कृष्ण, मैं ने मारा नहीं तुम्हें, मैं ने
अपने को बाँधा है तुम्हारे साथ-
और तुम मेरे साथ बँधे हो-
मेरे साथ! व्याध के!
यही क्या नियति है?
अगस्त, 1981