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कविता

हुए कंगाल

ओमप्रकाश सिंह


महँगा आटा, महँगा चावल
महँगी सब्जी-दाल
महँगाई के हाथों फँसकर
आज हुए कंगाल।

फुटपाथों से नींद उड़ गई
महँगे महल-दुमहले
चूल्हा,पानी, बिजली, सड़कें
सबकी बल्ले-बल्ले
अस्पताल की दवा विषभरी
खड़ा दुआरे काल।

भ्रष्टाचार शीर्ष पर बैठा
खोले नई दुकानें
जाति, धर्म, भाषा के नेता
लल्लू, पुंजू, काने
चीरहरण कर रहा दुशासन
पांडु पीटते गाल।

घूम रहे हैं लोकतंत्र के
लोभी, ढोंगी, लुच्चे
नोच रहे ये जिंदा लाशें
स्यार, भेड़िए, कुत्ते
घायल नाव भँवर में नाचे
हवा खोलती पाल।

नशाखोर के पाँव सड़क पर
रोज जिंदगी कुचलें
लूट, मार, व्यभिचार खुशी से
सिंहासन पर झूलें
घर की ड्योढ़ी पर लटकी है
नई दुल्हन की खाल।

 


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