कुछ लेखक ऐसे होते होंगे जो अपनी रचनाओं के बारे में सोचते नहीं। मैं उनमें से नहीं हूँ। बिना किसी तात्कालिक कारण के भी, जो लिख चुका हूँ, उसके बारे में जब-तब सोचता रहता हूँ क्योंकि विश्वास करता हूँ कि इससे आगे जो लिखूँगा उसके लिए पटिया साफ़ हो सकेगी। फिर जब किसी पुस्तक की भूमिका लिखनी पड़ती है तब उसके बारे में और सोचना पड़ता है। उसे भी हितकर ही मानता हूँ क्योंकि उस चिन्तन के सहारे लेखक उस रचना से थोड़ी दूर हट जाता है, उसे कुछ तटस्थ होकर देख लेता है और उस निस्संगता को थोड़ा और पुष्ट कर लेता है जो रचना पूरी हो जाने के बाद उसके प्रति हो जानी चाहिए - इदं सरस्वत्यै इदं न मम।
लेकिन ‘अज्ञेय की सम्पूर्ण कहानियाँ’ नामक संग्रह अपने सम्मुख देखकर ही थोड़ा आतंकित हो जाता हूँ। ‘सम्पूर्ण’ क्या होता है? यह ठीक है कि अब तक जितनी कहानियाँ लिखी हैं वे सभी इस संग्रह में हैं, इसलिए इसे सम्पूर्ण कहना सही है। लेकिन क्या मैंने यह स्वीकार कर लिया है? स्वयं अपने भीतर स्वीकार कर लिया और पाठकों के सम्मुख स्वीकारने को तैयार हूँ कि अब और कहानियाँ लिखने की रुचि या सम्भावना नहीं है।
लेकिन आतंक इसके कारण इतना नहीं है। सम्पूर्ण विशेषण के साथ चीज़ को बाहर से और तटस्थ भाव से देखने की जो अतिरिक्त ज़िम्मेदारी आ जाती है, असल कारण वह है। उसके साथ मूल्यांकन की और आत्म-परीक्षण की एक बाध्यता आती है जिसके औचित्य को कोई भले ही स्वीकार कर ले, उसे सुखद तो नहीं मानता।
यों तो मैंने यह स्वीकार कर लिया है कि कहानी लिखना मैंने छोड़ दिया है या कहानी मुझसे छूट गयी है। पिछले पन्द्रह-बीस वर्षों में मैंने कोई कहानी लिखी भी नहीं है। इस दूरी से अपनी कहानियों के प्रति ही नहीं, उन कहानियों के लेखक के प्रति भी एक अपेक्षया निर्वैयक्तिक भाव मेरे मन में है। उसके बूते पर शायद ऐसा भी दावा कर सकता कि उनका सही आलोचनात्मक मूल्यांकन भी कर सकता हूँ। पर वैसा मूल्यांकन शायद यहाँ अभीष्ट नहीं है और भूमिकाएँ उसके लिए होती भी नहीं। मेरी समझ में भूमिका का पहला और प्रमुख उद्देश्य यही होता है कि सम्प्रेषण और संवाद के लिए अनुकूल स्थिति उत्पन्न कर सके। मैंने हमेशा माना है कि रचनाका पहला धर्म अभिव्यक्ति नहीं, सम्प्रेषण है। इस नाते प्रत्येक रचना स्वयं अपने लिए वह स्थिति उत्पन्न करती है जिसमें सम्प्रेषण हो और अगर नहीं करती तो असफल होती है। इसलिए कहानियाँ या प्रत्येक कहानी तो अपना काम स्वयं करेगी ही अथवा नहीं करेगी तो असफल होगी, लेकिन उस प्रक्रिया के भलीभाँति सम्पन्न होने के लिए अनुकूल वातावरण के निर्माण में भूमिका का योग हो सकता है। सम्प्रेषण की स्थिति बनाने में रचनाकार सचेत अथवा अवचेतन भाव से कुछ दूरी की स्थापना कर लेता है जिस पर से सम्प्रेषण की प्रक्रिया सम्पन्न होगी, बल्कि यह कह सकते हैं कि वे दो दूरियाँ निर्धारित कर लेता है जो इस प्रक्रिया के निष्पादन के लिए आवश्यक हैं : वस्तु से दूरी और पाठक से दूरी। पहली दूरी का सम्बन्ध यथार्थ के निरूपण और प्रतिष्ठापन से है; दूसरी दूरी संवाद की अवस्था और सम्बन्ध को निर्धारित करती है। पहली दूरी का निर्णय तो अन्तिम रूप से रचना में ही हो चुका होता है; दूसरी दूरी को ही भूमिका द्वारा प्राप्त या निरूपित किया जा सकता है। वैसे यह स्पष्ट होना चाहिए की पाठक के साथ संवाद की सही स्थिाति बन जाने पर पहली दूरी का रूप थोड़ा तो बदल ही जाएगा; क्योंकि लेखक स्वयं जो देख चुका है उसे वह कैसे दर्शा रहा है इसके स्पष्टीकरण में दूसरी दूरी के निरूपण का भी योग होगा।
यथार्थ से दूरी, यथार्थ से रचनाकार के सम्बन्ध के बारे में विस्तार से कुछ कहना चाहता हूँ और वही भूमिका का मुख्य भाग होगा। उससे पहले पाठक से दूरी को एक साथ ही निर्धारित करते हुए भी और उसका अतिक्रमण करने के लिए सेतु बनाते हुए भी यह कहना चाहता हूँ कि जैसे मेरे कहानी-लेखन को मेरे सम्पूर्ण रचना-कर्म के सन्दर्भ में ही देखा जा सकता है और देखना चाहिए, उसी प्रकार मैंने कहानी लिखना क्यों छोड़ दिया इस प्रश्न का उत्तर भी सम्पूर्ण रचना-कर्म के सन्दर्भ में ही खोजना चाहिए।
मेरे लिए रचना-कर्म हमेशा अर्थवत्ता की खोज से जुड़ा रहा है। और यही खोज मुझे कहानी से दूर ले गयी है क्योंकि कहानी को मैंने उसके लिए नाकाफ़ी पाया। मैं जानता हूँ कि इतने संक्षिप्त रूप से कही हुई बात नहीं भी समझी जा सकती। वर्तमान समय में ऐसी चर्चाएँ और समीक्षाएँ होती हैं कि उनमें जल्दी ही कुछ पद रूढ़ हो जाते हैं, इतनी जल्दी एक चालू मुहावरा बन जाता है जिसके बारे में सोचने की लोग या तो ज़रूरत नहीं महसूस करते या उसकी तकलीफ नहीं गँवारा करते। अर्थ, अर्थवत्ता, खोज इत्यादि सभी शब्द इस तरह के अवमूल्यन अथवा पूर्वग्रह के शिकार हो चुके हैं। ‘राहों का अन्वेषण’ अथवा ‘प्रयोग’ तो इससे एक पीढ़ी पहले ही मलीदा जा चुका है! फिर भी मैं कहना चाहूँगा कि अन्वेषी रहा हूँ और अब भी हूँ, खोज के लिए किसी भी रास्ते को मैंने केवल पूर्वग्रह के कारण त्याज्य नहीं माना है। अर्थवत्ता में एक तरफ़ वस्तु की सही और मजबूत पकड़ पर और दूसरी तरफ़ उसके सही सम्प्रेषण पर मेरा समान बल रहा है। यानी खोज निरन्तर यथार्थ की व्याप्ति और गहराई को समझने और सम्प्रेषण प्रक्रिया को अधिक समर्थ बनाने की रही है। जो रास्ता इस खोज में मुझे और आगे ले जाता नहीं जान पड़ा है, चाहे इसलिए कि वह रास्ता ठीक नहीं है, चाहे इसलिए कि मेरे लिए वह दुर्गम है, उसे छोड़कर मैंने अपनी यात्रा के लिए दूसरा पथ बनाना शुरू कर दिया है और पथ बनाते हुए भी अपने पाठक अथवा समाज को साथ लिये चलने या लिये रहने का प्रयत्न करता रहा हूँ क्योंकि असल बात तो समाज को ही साथ ले चलने की है, सम्प्रेषण की है, स्वयं कहीं पहुँच जाने-भर की नहीं; अभिव्यक्ति मात्र की नहीं।
यथार्थ की खोज-सार्थक यथार्थ की खोज-की अपनी यात्रा में अपने पाठक को साथ ले जाना चाहता हूँ, इस अर्थ में नहीं कि जो पथ मैं पार कर चुका उसे पाठक के साथ दुबारा नापूँ; इस अर्थ में कि एक मानचित्र के साथ पाठक को वह पूरा परिदृश्य दिखा दूँ जिसमें से होती हुई मेरी यात्रा गुजरी। यह शायद मेरी कहानियों को ही नहीं, कहानी मात्र को और आज की कहानी-सम्बन्धी चर्चा को एक परिप्रेक्ष्य दे सकेगा, जो मेरी समझ में सही प्ररिप्रेक्ष्य होगा और जो यथार्थ का यथार्थ अर्थ करने में भी सहायक होगा।
कहानी की सम्यक् परिभाषा का प्रयत्न न करते हुए मोटे तौर पर कहा जा सकता है कि कहानी एक क्षण का चित्र प्रस्तुत करती है। ‘क्षण’ का अर्थ हम चाहे एक छोटा काल-खंड लगा लें, एक अल्पकालिक स्थिति, एक घटना, प्रभावी डायलॉग, एक मनोदशा, एक दृष्टि, एक बाहृा या आभ्यन्तर झाँकी, समझ का एक आकस्मिक उन्मेष, संत्रास, तनाव, प्रतिक्रिया, प्रक्रिया... इसी प्रकार ‘चित्र’ का अर्थ वर्णन, निरूपण, रेखांकन, सम्पुंजन, सूचन, संकेतन, अभिव्यंजन, रंजन, प्रतीकन, द्योतन, आलोकन, रूपायन, जो चाहें लगा लें या इनके विभिन्न जोड़-मेल। बल्कि और भी ‘महीन मुंशी’ तबीयत के हों तो हम ‘प्रस्तुत करने’ के अर्थ को लेकर भी काफ़ी छान-बीन कर सकते हैं। उस सबके लिए न अटक कर कहें कि कहानी क्षण का चित्र है; और क्षण क्या है इसकी पहचान निरन्तर गड़बड़ रही है या संदिग्ध होती जा रही है। और इससे भी विलक्षण बात यह है कि जब हम ‘क्षण’ की बात कहते हैं तो सिर्फ काल के सम्बन्ध में कुछ नहीं कह रहे हैं, बल्कि दिक् और काल की परस्पर-भेदक और परस्पर-भिन्न अवस्थिति के बारे में कुछ कह रहे हैं।
शेक्सपियर के एक चरित्र को ही लगा था कि ‘काल की चूल उखड़ी हुई है’ – The Time is out ofjoint; और शेक्सपियर की शती (और उसकी दैशिक अवस्था) तो अपेक्षया स्थिर, मूल्यों के मामले में आश्वस्त और भविष्य के प्रति आशा-भरी थी! आज तो सचमुच टाइम ‘आउट आफ़ जॉएंट’ है; न केवल सभी कुछ सन्दिग्ध है बल्कि हमारा यह भरोसा भी दिन-प्रतिदिन उठता जाता है कि कुछ भी हम असन्दिग्ध रूप से जान सकेंगे और अनेक कारणों के अलावा एक इस कारण से भी कि जानकारी हासिल करने के (या जानकारी को विकृत करके जबरन वह विकृति ही स्वीकार कराने के) साधन लगातार ऐसे लोगों के दृढ़तर नियन्त्रण में चले जा रहे हैं जिन पर हमारा नियन्त्रण लगातार कमज़ोरतर होता जा रहा है। यहाँ तक कि स्वयं हम कहाँ खड़े हैं और जिस युग अथवा काल-खंड में जी रहे हैं वह वास्तव में क्या है, उससे हमारा रिश्ता क्या अथवा कैसा है? यही पहचानना हमारे लिए दिन-प्रतिदिन कठिनतर होता जा रहा है। थोड़ी-सी अतिरंजना करते हुए यहाँ तक कहा जा सकता है कि हम कब कहाँ हैं, इतना ही नहीं, हम हैं भी, इस पर भी हमारा प्रत्यय लड़खड़ा सकता है।
अगर काल की चूल उखड़ी हुई है तो यथार्थ का क्या होता है? ‘यथार्थ की पकड़’ हमें कैसी होती है? कहानी में, और कहानी की आलोचना में, लगातार ‘यथार्थ की पकड़’ की जो चर्चा है, उस पकड़ या पहचान के बारे में जो दावे हैं, उनका क्या होता है? स्वयं कहानी का क्या होता है, जो इस पहले से ही चूल उखड़े-हुए काल के भी केवल एक विखंडित अंश का चित्र है। (और चित्र फिर काल में एक रचना है-यानी काल इसका एक आयाम है।)
अवश्य ही कहानी भी ‘आउट ऑफ़ जॉएंट’ होगी। आज है भी। और इसमें एक तर्क-संगति भी है, युक्ति-युक्तता है, सन्दर्भ-युक्तता भी है। कुछ लोग इसे स्पष्टतया और बहुत-से लोग परिमाणतः स्वीकार करते भी जान पड़ते हैं। लेकिन कहानी के सम्बन्ध में मेरे लिए जो प्रश्न उठते हैं, कहानी-सम्बन्धी इस सारी चर्चा से उनका उत्तर नहीं मिलता। बल्कि उन उत्तरों की खोज भी उस चर्चा में नज़र नहीं आती और कभी-कभी तो ऐसा भी लगता है कि आलोचना करने और सिद्धान्त प्रतिस्थापित करने वाले के मन में ये प्रश्न उठे ही नहीं हैं।
यों तो हमारे लिए सबसे पहली समस्या ‘यथार्थ’ शब्द को लेकर उठ खड़ी होती है। इसे हम अर्थवैज्ञानिक समस्या कहकार कहानी की आलोचना के सन्दर्भ में टाल भी सकते हैं, लेकिन बुनियादी भाषिक प्रश्नों को टालकर आलोचना आगे बढ़ कैसे सकती हैं-सार्थक कैसे हो सकती है?
यथार्थ - यथा + अर्थ। जो अर्थ है उसको यथावत् प्रस्तुत करना (देखना, पहचानना, सम्प्रेषित करना आदि), अथवा जो यथा-स्थिति है उसकी अर्थवान् प्रस्तुति अथवा उसके अर्थ की प्रस्तुति। अब ‘यथा’ और ‘अर्थ’ दोनों पक्षों को लेकर बहुत-से प्रश्न उभर आते हैं। यथा-स्थिति की पहचान कैसे होती है? कौन करता है? अर्थ हम कैसे जानते हैं? क्या घटनाओं के अपने अर्थ होते हैं, या हम उन्हें अर्थ दे देते हैं? अगर हम उन्हें अर्थ दे देते हैं, तो यह ‘हम’ कौन है? -कहानीकार या आलोचक या पाठक? हर हालत में क्या एक विषयी (सब्जेक्ट) वहाँ प्रस्तुत नहीं है? और क्या अर्थ का निरूपण इसलिए विषयी-सापेक्ष या सब्जेक्टिव नहीं है? और अगर ऐसा है तो क्या जहाँ से हम यथार्थ की चर्चा आरम्भ करने चलते हैं-कि वह कुछ विषयी-निरपेक्ष और आब्जेक्टिव होता है - वहाँ से हट नहीं गये हैं? फिर अगर अर्थ ‘बाहर से’ दिया गया है-चाहे किसी के भी द्वारा-तो उसका इस प्रकार से दिया गया होना ही क्या उसे यथार्थ से हटाकर अलग नहीं कर देता है? क्या वह अर्थ वस्तु-स्थिति का या उसमें न होकर एक आरोपण नहीं सिद्ध हो जाता है?
स्वयं घटनाओं का क्या कोई अर्थ होता है? क्या घटना मात्र मूलतः और स्वाभाविकतः अर्थहीन या कि अर्थ-निरपेक्ष नहीं होती? (कार्य-कारण-सम्बन्ध की बात अलग है; लेकिन कहानी अथवा आख्यान-साहित्य में जब हम अर्थ की चर्चा करते हैं तो हमारा तात्पर्य कार्य-कारण-सम्बन्ध से नहीं होता। और यह बात तो है ही कि हमारे अनुभव में कार्य-कारण सम्बन्ध उलटकर आते हैं यानी ‘भोगा हुआ यथार्थ’ में परिणाम पहले घटित होते हैं और कारण बाद में।)
और अगर घटनाएँ मूलतः निरर्थक नहीं होतीं, उनमें अर्थ होता है, तब क्या हमने यथार्थवाद की वृत्ति को ही छोड़कर आदर्शवाद, आईडियलिस्ट अथवा आध्यात्मिक प्रतिज्ञा नहीं स्वीकार कर ली है?
मैं जानता हूँ कि इस भाषिक समस्या के मूल में शब्दार्थ और तत्त्वार्थ-सम्बन्धी चिन्तन की एक कमी है जिसके कारण बहुत-कुछ हमारी शिक्षा की स्थिति में हैं। सोचने का काम अंग्रेजी में होता है, फ़तवे देने का या मूल्यों-सम्बन्धी अवधारणाएँ घोषित करने का काम हिन्दी में। यथार्थ और यथार्थवाद की चर्चा के पीछे अंग्रेज़ी के शब्द रिएलिटी और रिएलिज़्म हैं। यह नहीं कि अंग्रेज़ी में भी इन शब्दों के साथ अर्थ-सम्बन्धी समस्याएँ नहीं जुड़ी हुई हैं, लेकिन अंग्रेज़ी से शब्द लेकर उनके हिन्दी पर्याय प्रचारित करते समय हम मूल शब्दों के साथ जुड़ी हुई समस्याओं का आयात नहीं करते, इन कष्टकर अवयवों को वहीं पीछे यानी अंग्रेज़ी में ही छोड़ आते हैं। उससे एक तो सोचने की लाचारी से छुटकारा मिल जाता है, दूसरे एक (भले ही निराधार) आश्वस्त भाव भी हम में आ जाता है : अंग्रेजी आलोचना में अगर ये शब्द प्रतिष्ठित हैं तो अवश्य ही उनकी प्रतिष्ठा का तर्कसम्मत आधार भी होगा। हिन्दी में उन्हें लेते हुए हमें कोई आशंका नहीं होनी चाहिए।
अंग्रेज़ी से आये हुए शब्द रिएलिटी और रिएलिज़्म के साथ-साथ उनकी इन सत्ताओं के गुण भी हमारे बीच आ गये हैं। यथार्थ, यथार्थवाद, यथार्थवादी, सामाजिक यथार्थवाद, समाजवादी यथार्थवाद... लम्बी परम्परा है। लेकिन अंग्रेज़ी शब्द के हिन्दी पर्याय गढ़ते हुए हम अंग्रेज़ी की जो समस्याएँ पीछे छोड़ आये थे, उनके बारे में चेत जाने पर क्या उनका निराकरण हम सहज ही कर सकते हैं? ‘यथार्थ’ और ‘यथार्थवादी’ को छोड़कर यदि हम ‘वस्तु’, ‘वास्तविक’ ‘वास्तविकतावादी’ आदि शब्दावली अपना लें, तो भी क्या अर्थ-सम्बन्धी जो प्रश्न उठते हैं उनका निरसन हो जाता है? ‘तथ्य’ तो हो सकते हैं : और उन्हें (यद्यपि वह भी एक हद तक ही) विषयी-निरपेक्ष माना जा सकता है, घटना के तथ्य भी हो सकते हैं और घटना का तथ्यमूलक प्रस्तुतीकरण भी किया जा सकता है। लेकिन यथार्थवाद अथवा वास्तविकतावाद क्या केवल एक तथ्यवाद ही है? क्या शुद्ध घटना (इवेंट, हैपनिंग, एक्चुएलिटी), घटना का वैसा तथ्य-मूलक रूप जो अच्छी ‘सच्ची’ अखबारी रिपोर्ट में मिल सकता है, और कहानी अथवा साहित्य की घटना (हमारे सन्दर्भ की रिएलिटी, अर्थात् विषयी की दृष्टि से देखी और सम्प्रेष्य बनाकर प्रस्तुत की गयी घटना), एक ही है या हो सकती है या बुनियादी तौर पर उनका स्वभाव अलग-अलग होता है? क्या ईमानदार रिपोर्टर और निष्ठावान् कहानी-रचयिता के लिए यथार्थ का रूप, अर्थ और सन्दर्भ मूलतः अलग-अलग नहीं है? रचना-प्रक्रिया और सम्प्रेषण-प्रक्रिया वस्तु का कैसे और कैसा रूपान्तरण करती हैं?
मैं समझता हूँ कि कहानी, उपन्यास-बल्कि साहित्य-मात्र के सन्दर्भ में यथार्थ की चर्चा इन प्रश्नों का सामना करने की चुनौती देती है। मैंने नहीं देखा कि हिन्दी में कहानी-उपन्यास की चर्चा में आलोचकों, अध्यापकों अथवा स्वयं रचनाकारों ने भी इनसे उलझने और इन्हें सुलझाने का विधिवत् प्रयत्न किया है। कहानीकारों की उक्ति में तो जहाँ-तहाँ इन समस्याओं की अन्तश्चेतन पहचान के संकेत मिल भी जाते हैं, अध्यापकों तथा आलोचकों ने तो इन्हें अभी तक छुआ ही नहीं है।
यथार्थ की पकड़ की इस शब्द-बहुल चर्चा में, जो पिछले दस-पन्द्रह वर्षों की एक विशेषता रही है, लोग प्रायः दो चीज़ें मानकर चलते जान पड़ते हैं जो दोनों ही प्रश्नाधीन हैं। पहली यह कि ‘यथार्थ’ ‘बाहर’ होता है, सतह पर होता है। दूसरी यह कि यथार्थ इकहरा या एक-स्तरीय होता है। जो दीखता नहीं है, या थोड़ा और आगे बढ़कर कह लें कि जो ऐंन्द्रिय चेतना द्वारा ग्राह्य नहीं है वह यथार्थ नहीं है-यह एक नये प्रकार का अन्धापन है जिसे यथार्थ-बोध का नाम दिया जा रहा है। एक दूसरे प्रकार की संकीर्णता यह है कि ये एन्द्रिय अनुभव भी-और हमारे सारे राग-बन्ध और अनुभव भी-वास्तव में वे या वैसे नहीं हैं जैसा हम उन्हें अनुभव कर रहे हैं, बल्कि केवल कुछ बुनियादी सम्बन्धों पर खड़ी की गयी निर्मिति है और ये बुनियादी सम्बन्ध किसी भी मानवीय उद्यम में निहित शोषक और शोषित के सम्बन्ध हैं। यानी यथार्थ वास्तव में एक अमूर्त प्रक्रिया ही है; मूर्त्त जो कुछ है वह केवल उस पर खड़ा किया गया एक ढाँचा है। अगर बुनियादी यथार्थ अमूर्त है, तो यह दावा कैसे प्रमाणित किया जा सकता है कि केवल एक अमूर्तन ही यथार्थ अथवा सत्य या सात्त्विक है और दूसरे सब अमूर्तन और मिथ्या? अगर यथार्थ अनेक स्तरीय होते हैं तो केवल एक स्तर को देखने और बाकी सबको अनदेखा करने में कौन-सी बहादुरी या विशेष प्रतिभा है?
अन्यत्र मैंने यथार्थ की पहेली को एक दूसरे रूप में रखा है। ‘‘अगर हम यथार्थ के ‘भीतर’ हैं तो उसे ‘देखते’ कैसे हैं? अगर हम उसके ‘बाहर’ हैं तो वह ‘यथार्थ’ कैसे है?’’ मैं जानता हूँ कि समस्या का यह निरूपण एक सर्जक की समस्या का निरूपण है। यानी यह पहेली ‘वास्तविकता’ के अर्थ में ‘यथार्थ’ के बारे में नहीं है। सम्प्रेष्य रचना के रूप में यथार्थ की पहचान के बारे में है। लेकिन यहाँ वही तो प्रयोजनीय है-यथार्थ सत्ता के बारे में दार्शनिक अथवा पारमार्थिक प्रश्न उठाना हमें अभीष्ट नहीं है।
मैं मानता हूँ कि यथार्थ इकहरा या सपाट अथवा एक-स्तरीय नहीं होता। यह भी कहा जा सकता है कि कला के क्षेत्र में एक विशेष अर्थ में यथार्थ ‘अर्थहीन’ होता है, हमेशा अर्थहीन होता है : क्योंकि जिसे हम वस्तु-यथार्थ या विषयी-निरपेक्ष यथार्थ या आब्जेक्टिव रिएलिटी कहते हैं या कह सकते हैं, उसमें फिर अर्थवत्ता का प्रश्न ही कैसे और कहाँ उठता है जबकि अर्थ अनिवार्यतः अर्थ की पहचान करने वाले के, विषयी के, साथ बँधा है? केवल सब्जेक्टिव यथार्थ में ही अर्थवत्ता का प्रश्न उठ सकता है। विषयीगत यथार्थ ही कला का यथार्थ होता है और उसी में अर्थ हो सकता है। और इसलिए अर्थ की खोज हो सकती है। निःसन्देह वस्तु-जगत् के तथ्यों की, परिवेश की स्थिति और क्रिया-व्यापारों की, सामाजिक सम्बन्धों की पकड़ या समझ विषयी की जैसी होगी, जीवन-मात्र से उसका जैसा सम्बन्ध होगा, उससे वह विषयीगत यथार्थ भी प्रभावित होगा। उसी पर उसके साथ पाए हुए अर्थ की मूल्यवत्ता निर्भर करेगी। लेकिन कला-वस्तु से परिवेश के सम्बन्ध का यह दूसरा वृत्त है। पहले और दूसरे वृत्त के बीच स्वयं कलाकार खड़ा है।
मैंने कहा है कि यथार्थ हमेशा अर्थहीन होता है। मैंने जो कुछ कहा उसमें यह भी निहित है कि इसके बावजूद कलाकार को अर्थ की खोज रहती है। इस निहितार्थ को आज के सब साहित्यकार स्वीकार नहीं करेंगे, ऐसा मैं जानता हूँ। किन्तु मेरे लिए रचना-कर्म हमेशा अर्थवत्ता की खोज से जुड़ा रहा है। साहित्यकार के नाते मुझे अर्थहीन यथार्थ की तलाश नहीं रहती है और न है। आब्जेक्टिव संसार में अवश्य ही ऐसा यथार्थ है जिसमें अर्थवत्ता की खोज स्वयं निरर्थक है, यह मैं जानता हूँ। उस अर्थातीत संसार से आगे बढ़कर ही हम एक अर्थवान् जगत् की खोज में जाते हैं; और उस जगत् के निर्माण में स्वयं हमारा भी योग होता है। कोई चाहे तो यह कह सकता है कि जो सब्जेक्टिव है वह तो आत्यन्तिक रूप से अर्थहीन है; और यह कहकर बाहरी और भीतरी दोनों क्षेत्रों में एक अर्थहीन, एब्सर्ड संसार के निर्माण में प्रवृत्त हो सकता है। वैसे लोग भी हैं-वैसे साहित्यकार भी हैं। मैं वैसा नहीं मानता, वैसे निर्माण में मेरी रुचि नहीं है। मानव की मेरी परिकल्पना में वह अनिवार्यतया अर्थवत्ता का खोजी और स्रष्टा है और यही उसके मानवत्व की पहचान है। अगर वह एब्सर्ड को प्रस्तुत करता भी है तो वह भी अर्थवत्ता की खोज की ही यन्त्रणा दिखाने के लिए : अर्थवत्ता की खोज जिजीविषा का एक पहलू है और अर्थ या अर्थ की चाह को अन्तिम रूप से खो देना जीवन की चाह ही खो देना है।
अब तक जो कुछ कहा गया है उसका आशय यह नहीं कि विषयी-सापेक्ष अथवा सब्जेक्टिव यथार्थ एक उच्चतर कोटि है और विषयी-निरपेक्ष अथवा आब्जेक्टिव यथार्थ उससे नीचे है। ऐसा उच्चावच-क्रम स्थापित करना अभीष्ट नहीं है। लेकिन इससे उलटा तर्क भी सही नहीं है-यह कहने का कोई कारण नहीं है कि विषयी-निरपेक्ष यथार्थ विषयी-सापेक्ष यथार्थ से उच्चतर कोटि का होता है। जब तक अस्मिता है-कोई भी मैं ‘मैं’ है-दूसरे शब्दों में जब तक जीवन है, तब तक माना ही नहीं जा सकता-कोई मान नहीं सकता-कि मेरे ‘बाहर’ जो जीवन है वह उच्चतर अथवा श्रेष्ठतर है। इतना ही माना जा सकता है (और इतना मानना भी चाहिए) कि वह हीनतर भी नहीं है। वह केवल अलग है। कला के क्षेत्र में तो यह भी कहा जा सकता है कि विषयी-निरपेक्ष यथार्थ वहाँ कुछ होता ही नहीं। कला का सत्य होने के लिए ‘यथार्थ’ की भी प्रस्तुति में विषयी द्वारा उसके स्वायत्त किये गये होने की झलक मिलनी चाहिए। कला में यथार्थ हमेशा संवेदना से छनकर आता है और उसमें यह दीखना भी चाहिए कि वह संवेदना से छनकर आया है। कला के यथार्थ में विषयी द्वारा उसके स्वायत्त किये गये होने की गूँज होती है। इस गूँज के सहारे ही हम यथार्थ के निरे बयान से रचना की अलग पहचान करते हैं, क्योंकि हम परख करते हैं कि वह केवल बाहर का यथार्थ है या कि रचनाकार ने उसे आत्मसात् करके ही लिखा है। मेरे लिए रचना का यही इष्ट या कह लिया जाए आदर्श रहा है। उसमें वस्तु-सत्य का, बाहरी यथार्थ का खरापन भी होना चाहिए और साथ ही आत्म-सम्बोध की, आभ्यन्तर यथार्थ की अर्थवत्ता भी होनी चाहिए।
विचारशील पाठक पहचानेंगे कि यह पहले कही गयी बात की दूसरे तरीके से पुष्टि ही है। साहित्य वर्तमान की पहचान भी करता है और उसे अर्थवत्ता के बृहत्तर आयाम से जोड़ता भी है। लेकिन यहाँ फिर इकहरा समीकरण करना खतरनाक होगा। क्योंकि न तो वर्तमान की पहचान का सम्बन्ध केवल बाहरी यथार्थ से है और न बृहत्तर आयाम का सम्बन्ध केवल आभ्यन्तर यथार्थ से-और न इसका उलटा ही । यथार्थ की, बाहरी और बाहर की पहचान और अर्थवत्ता की खोज की अविराम परस्परता और परस्पर-भेदकता को अनदेखा करना साहित्य की समझ को इकहरा और छिछला कर देना होगा।
सभी साहित्य पुराना पड़ता है। लेकिन फिर उसमें से कुछ नया हो जाता है। जब साहित्य पुराना पड़ने लगता है तब जो काल की दृष्टि से अधिक निकट होता है वही अधिक तेज़ी से पुराना पड़ता हुआ अधिक दूर जान पड़ता है। उसी को लेकर हमें अधिक आश्चर्य या असमंजस होता है कि ‘अभी कल तक यह हमें नया कैसे लग रहा था?’ इस प्रक्रिया को समझना बहुत कठिन नहीं है। कालान्तर में जो साहित्य फिर नया हो जाता है या ऐसा हो जाता है मानो पुराना पड़ा ही नहीं था उसे हम ‘कालजित् साहित्य’ कहते हैं। पर वास्तव में परिवर्तन का कारण जितना उसमें होता है, उतना ही हम में भी होता है। बदले हुए हम फिर एक ऐसे ठौर पर आ जाते हैं जहाँ वह साहित्य हमारे लिए एक नयी अर्थवत्ता पा लेता है क्योंकि हम उसमें नयी अर्थवत्ता देखने लगते हैं।
साहित्य में जो ‘नयी’ विधाएँ हैं - उपन्यास या कहानी - उनमें यह क्रिया अधिक तेज़ी से होती है। जो ‘पुरानी’ विधाएँ हैं - काव्य या नाटक - उनमें यह क्रिया अपेक्षाकृत धीरे होती है। फिर प्रवृत्ति को ध्यान में रखें तो लक्ष्य कर सकते हैं कि किसी भी विधा में जो रचना-समूह अपने ही काल के यथार्थ के चित्रण पर अधिक बल देता है (और भाषा का मुहावरा और ‘तेवर’ कालिक यथार्थ का एक महत्त्वपूर्ण पहलू है), वह अपेक्षया जल्दी पुराना पड़ जाता है क्योंकि कालिक यथार्थ जल्दी बदल जाता है, उसका पुराना पड़ना हम अधिक तीव्रता और स्पष्टता के साथ देख सकते हैं, इसलिए उससे बँधे साहित्य का पुराना पड़ना भी अधिक लक्ष्य होता है।
इसीलिए कहानी सबसे जल्दी पुरानी पड़ती है। फिर कहानियों में वे या वैसी कहानियाँ और भी जल्दी पुरानी पड़ती हैं जो अपने समय के समाज के बाह्य यथार्थ से बँधी होती हैं। ऐसी कहानियाँ जब तक नयी होती हैं तब तक सबसे नयी दीखती हैं; उनकी तात्कालिक सम्पृक्ति और रैलेवैंस सबसे अधिक जान पड़ती है; पर जब वे नयेपन से हटती हैं या नवतर के समान्तर आती हैं तब उतनी ही त्वरा से उनका नयापन धुँधला या झूठा पड़ जाता है, उनकी ‘प्रासंगिकता’ प्रश्नाधीन हो जाती है।
इस कथन की जाँच किसी भी देश के साहित्य को लेकर की जा सकती है कहीं भी काव्य उतनी जल्दी पुराना नहीं पड़ता; सर्वत्र कहानी ही सबसे जल्दी ‘डेटेड’ हो गयी होगी-और कहानी में वे कहानियाँ और अधिक या और जल्दी जो कि अपने समय के समाज-जीवन और उसके लोकाचारों-मुहावरों से बँधी होंगी।
पर जो कहानियाँ इतनी जल्दी पुरानी नहीं पड़तीं, या जो एक बार ‘डेटेड’ होकर फिर नयी प्रासंगिकता पा जाती हैं, पा गयी हैं, उनमें क्या खास बात होती है?
मानव-समाज केवल किसी एक युग का समाज नहीं है, देश-काल की रंगत लाने वाले लोकाचारों-मुहावरों और यहाँ तक कि सम्बन्धों के विषयगत या बाहरी यथार्थ के सभी उपकरणों के नीचे, परे, गहरे में मानव-समाज की एक दूसरी पहचान मिल सकती है जो युगातीत है, जो समाज की पहचान से बढ़कर मानव की पहचान है, जिसका यथार्थ सामाजिक यथार्थ भर न होकर मानवीय यथार्थ है। हमारी धारणा है कि पड़ताल करने पर हम पाएँगे कि जो कहानियाँ जल्दी पुरानी नहीं होती हैं, या जो पुरानी होकर भी नयी बनी रही हैं अथवा नयी हो गयी हैं, उनमें रचनाकार की दृष्टि सामाजिक यथार्थ की परिधि में न बँधी रह कर मानवीय यथार्थ पर केन्द्रित रही होगी। उनका आग्रह ‘विषयगत’ यथार्थ का न रहकर उस यथार्थ का रहा होगा जो विषयी और विषयी के आपसी व्यवहार में लक्षित या व्यंजित होता है और वहीं से फैल कर सामाजिक रूप लेता है। यानी सामाजिक होकर भी ‘अन्तर-विषयी’ बना रहता हैः जो इण्टर सब्जेक्टिव होता है, आब्जेक्टिव नहीं होता।
एक तरफ़ हम एक क्षण का चित्र प्रस्तुत कर रहे हों या प्रस्तुतीकरण के लिए जुगो रहो हों यानी कहानी लिख या रच रहे हों और दूसरी तरफ़ हमारी दृष्टि अन्तर-विषयी यथार्थ पर साग्रह टिकी हो, तब रचनाकार के नाते हमारी कठिनाइयाँ बढ़ जाती हैं। बाह्य यथार्थ को देखना और प्रस्तुत करना कम कठिन है : वह समस्या केवल पर्याप्त तन्त्र-कौशल की है। आर्थिक सम्बन्धों और तनावों के आधार पर ही उस बाह्य यथार्थ को निरूपित करना भी कम कठिन है : वह समस्या पर्याप्त शिक्षा-दीक्षा की है। उसे पक्षधर-भाव से उपयोज्य बनाना भी कम कठिन है : समस्या सामाजिक-राजनीतिक जोड़-तोड़ और समझदारी की है। पर अन्तर-विषयी वस्तु को पकड़ने के लिए एक साथ ही एकाधिक विषयी के आभ्यन्तर संसार में प्रवेश करना और वह भी साथ-साथ स्वयं विषयी बने रहते और अपना वैसा होने की पहचान बनाये रखते हुए-और वह फिर अपनी विषयी दृष्टि के कारण दूसरे विषयियों की विषयिता को धुँधला होने दिए बिना-यह न तन्त्र पर अधिकार की समस्या है, न शिक्षा की, न राजनीतिक समझदारी की। यहाँ प्रश्न मानवीय संवेदना का है। कहने को तो कह दिया जा सकता कि वह संवेदना या तो है, या नहीं है : यानी लेखक या तो रचनाकार है या नहीं है। और ‘‘जो नहीं है उसका ग़म क्या?’’ पर मैं मानना चाहता हूँ (मानना ‘स्वीकार करना’ और ‘विश्वास करना’ दोनों ही अर्थों में) कि संवेदन में भी वृद्धि हो सकती है-विस्तार, गहराई और सघनता, सभी आयामों में।
यदि मानवीय संवेदन पर बल देना ठीक है तो मेरे सामने यहाँ एक और प्रश्न उठ खड़ा होता है। मेरे लिए यह मानना असम्भव हो जाता है कि ‘कविदृष्टि’ कहानी-लेखन में बाधक होती है। या कवि कवि होने के नाते ही घटिया कहानी-लेखक होता है। बल्कि यही मानना अधिक संगत दीखता है कि कहानीकार के अन्य गुणों से सम्पन्न व्यक्ति में कवि-दृष्टि भी होने पर वह अधिक महत्त्वपूर्ण कहानी-लेखक हो सकता है। अधिक महत्त्वपूर्ण : भले ही तात्कालिक दृष्टि से अधिक सफल या प्रभावी नहीं। और अधिक टिकाऊ-कालजयित्व की दीर्घतर अर्हता लिये हुए।
लेकिन पिछली एक पीढ़ी से कहानी-सम्बन्धी सारी चर्चाएँ इसी बात के आस-पास घूमती रही हैं। कवि न होना, कवि-दृष्टि न रखना, कहानीकार का सबसे बड़ा गुण माना और सिद्ध किया जाता है : कहानीकार द्वारा भी और कहानी की अलग-अलग प्रवृत्तियों के पैरोकारों के द्वारा भी। मुझे यह बात ज़रा भी बेतुकी नहीं लगती कि भारत के महान कहानीकारों की गणना में पहला नाम रवीन्द्रनाथ ठाकुर का हो। यह भी मुझे ज़रा भी अप्रत्याशित नहीं लगता कि हिन्दी में भी अपने समकालीनों में - और युवतर लेखकों में भी - जिनकी कहानियाँ हम दोबारा पढ़ते हैं और रुचि से पढ़ सकते हैं वे भी कवि हैं। कवि भी हैं और कहानीकार से पहले कवि-रूप में पहचाने जाते हैं। निःसन्देह कवीतर कहानी-लेखकों की कहानियाँ भी मुझे कई बार बड़ी मार्मिक, और अधिक ‘सफल’ भी, जान पड़ी हैं। पर एक बार पढ़ चुकने पर दोबारा सहज प्रवृत्ति से उनको पढ़ते जाने की सम्भावना कम दिखी है। क्या पढ़ी हुई कहानी को दोबारा पढ़ने की सहज प्रवृत्ति का होना इस बात का प्रमाण नहीं है कि उस कहानी की भीतरी दुनिया में टिकाऊपन के कोई तत्व हैं? या उसने यथार्थ के एकाधिक स्तरों के संकेत दिये हैं जो सब स्तर पहले ही वाचन में उद्घाटित नहीं हो गये हैं? निःसन्देह ये कहानियाँ भी डेटेड होंगी। रवीन्द्रनाथ ठाकुर की कहानियाँ भी बहुत डेटेड लगती हैं पर जहाँ एक साथ ही कालग्रस्त और कालजित् का साक्षात्कार होता है वहाँ, क्या यह भी नहीं दिख जाता कि जो डेटेड हुआ है वह बहिरंग है, तन्त्र, भाषा, शब्दावली, मुहावरे, सामाजिकता आदि का है और जो अब भी मर्म को छूता है या दोबारा आमन्त्रित करता है वह अन्तरंग है, मानवीय संवेदना में बद्धमूल है और उसी को उद्वेलित करता है?
एक पीढ़ी से हिन्दी कहानीकार-समाज का रुझान काव्यतत्त्व-विरोधी रहा है। उसका ऐतिहासिक कारण तो है ही कि कहानी में नयेपन का आन्दोलन कविता में उसके आन्दोलन के बाद, समान्तर, अनुक्रिया और प्रतिक्रिया के रूप में आया। पर इतना भर होता तो वह कोई चिन्ता की बात नहीं थी। लेकिन आन्दोलन के बढ़ते हुए चरणों ने धीरे-धीरे यह भी स्पष्ट कर दिया है कि उसके चिन्तन में युक्त्याभास बढ़ता गया है। तन्त्र की, कसाव की दृष्टि से कहानी ने निःसन्देह प्रगति की है। आज का अच्छा कहानीकार अधिक कुशल है, अधिक सतर्क शिल्पी है, उसकी भाषा अधिक पैनी और सधी हुई है। लेकिन यथार्थ और यथार्थ की पकड़ के सम्बन्ध में जैसे-जैसे दावे किये गये हैं वे हास्यास्पद तक हो गये हैं। कहानीकार ने क्या कर दिया है, या कहानी क्या करती है, दावे इसको लेकर हैं; जबकि विचार वास्तव में इस दृष्टि से होना चाहिए कि कहानी में क्या हो गया है और कहानीकार को क्या हो रहा है? शायद पूरी सच्चाई यह नहीं है कि कहानी यथार्थ को अधिक निकट से या मजबूती से पकड़ने लगी है या कहानीकार यथार्थ के निकट आ गया है, उसे अधिक अच्छी तरह से देख रहा है या अधिक निर्मम होकर पकड़ रहा है। शायद यही अधिक सच है और लक्ष्य होना चाहिए कि यथार्थ बदलता रहा है। और केवल बाहर का यथार्थ नहीं बदला है, आभ्यन्तर यथार्थ भी बदला है। कहानीकार दूसरे ढंग से देखता है और लिखता है तो इसलिए कि वह इस दूसरे ढंग से ही देख और लिख सकता है। इसलिए नहीं कि देखने-लिखने के दो-तीन ढंग आजमाकर उसने उनमें से उत्तम ढंग का वरण किया है। क्योंकि आभ्यन्तर यथार्थ बदलता है, इसलिए चीज़ों से लेखक का सम्बन्ध भी बदला है। यह बदलाव उसकी श्रेष्ठता सिद्ध नहीं करता; न अपने-आप में यही सिद्ध करता है कि वह पहले के लेखकों की अपेक्षा ज्यादा सच्चाई के ज़्यादा निकट आया है। केवल यही कि यह सच्चाई दूसरी और उससे प्रतिकृत होने वाली विषयिता भी दूसरी है। अगर आज की कहानी में लड़का माँ-बाप के बारे में ‘बेबाक ढंग से’ सोचता है या अपने सोच को शब्द-बद्ध करता है, तो इससे यह सिद्ध नहीं होता कि आज का कहानी-लेखक पहले के कहानी-लेखक की अपेक्षा यथार्थ के निकटतर है; इतना ही दर्शाता है कि आज के लड़के का अपने माँ-बाप के प्रति और तरह का भाव होता है। और अगर आज आप सतह को ही (चाहे जितनी भी बारीकी से) देखते हैं, उसे सपाट और निःसंग, भाव-रहित ढंग से प्रस्तुत कर देते हैं, तो क्या यह जरूरी तौर पर यथार्थ के साथ अधिक प्रौढ़ सम्बन्ध का लक्षण है, या कि यह भी हो सकता है कि गहरे झाँकने का आतंक है क्योंकि आभ्यन्तर जगत् राग-तत्त्व को जो चुनौती देगा ‘जी का जंजाल’ बन जाएगा? यहाँ तक कहा जा सकता है कि अगर पहले की भावाभिव्यंजना में ‘रोमानियत’ मिलती थी और आज उसे तरक कर दिया गया है तो यह भी हो सकता है कि पहले का ‘यथार्थ’ ही रोमानियत-युक्त था जैसा कि आज का नहीं है। यह कोई नहीं कह सकता कि आदर्शवादी कभी होते ही नहीं थे या कि समाज में मूल्यों की (किन्हीं भी मूल्यों की) प्रतिष्ठा ही नहीं होती थी। यह तो आज के व्यापक मोह-भंग और मूल्यहीनता के बावजूद अब भी नहीं कहा जा सकता! तब फिर वैसे समाजों में आदर्शवादी को देखना-दर्शाना, उन मूल्यों को प्रतिष्ठित या कार्यप्रेरक स्थिति में दिखाना ‘यथार्थ की पकड़’ का ही रूप होगा-चाहे वे मूल्य या आदर्श कालान्तर में झूठे भी सिद्ध हो गये हों, उनका स्थान दूसरी मूल्यदृष्टियों ने ले लिया हो।
यह बात तो तब भी टिकेगी अगर यथार्थ सचमुच इकहरा ही होता हो। और यह मैं पहले ही कह आया हूँ कि वह वैसा कभी नहीं होता और उसकी एक ही तह या सतह को देखना ही उसे अयथार्थ कर देना है। यथार्थ बहुस्तरीय, जटिल और गुथीला भी है, इसके अनुरूप उसका बहुविधि दर्शन, साक्षात्कार, निदर्शन और निर्वचन भी सम्भव है। हमारी धारणा है कि ठीक यहीं कहानी में भी कवि का योग हो सकता है। कवि-दृष्टि ही कदाचित् ऐसा साक्षात्कार कर सकती है- कवि-दृष्टि से देखा गया यथार्थ अधिक गहरे अर्थ में ‘प्रत्यक्ष’ होता है।
मगर इस सबके बावजूद, कहानी और उसकी चर्चा में आज का रुझान काव्य-तत्त्व-विरोधी है। कहा नहीं जा सकता कि यह प्रवृत्ति बदल जाएगी या कब बदलेगी? किन्तु मेरी धारणा है कि अगर इसका प्रभुत्व स्थायी बना रहा तो कहानी-साहित्य दुर्बलतर ही होगा। सतह की चमक और बुनावट को पकड़ने और प्रतिबिम्बित करने की उसकी दक्षता बढ़ती जाएगी, पर आभ्यन्तर वस्तु की पहचान छूटती जाएगी और उस पहचान को दूसरे तक पहुँचाने की क्षमता भी मिटती जाएगी।-और मैं कह चुका हूँ कि सम्प्रेषण का तत्त्व बुनियादी तत्त्व है। अभी तक काव्य ही है जो सारे ताम-झाम को भेदकर सीधे यथार्थ की आग से तमतमाई हुई कोर तक पहुँच सकता है। ताम-झाम भी यथार्थ है अवश्य, पर हमारा सरोकार केवल उससे क्यों हो या उसे प्राथमिकता क्यों दें?
यह आवश्यक तो नहीं है कि साहित्य की एक विधा का तर्क दूसरी विधाओं पर भी लागू हो ही। लेकिन जहाँ तक कहानी का सम्बन्ध है, उसे उपन्यास से जोड़ते हुए यह प्रश्न उठना असंगत नहीं होगा कि आधुनिक युग के महत्त्वपूर्ण उपन्यासकार ‘यथार्थ’ के ‘वाद’ से परे क्यों हटे? यों तो यह प्रवृत्ति उपन्यास के समान्तर आधुनिक नाटकों में भी देखी जा सकती है और सर्वत्र यही पहचानना और स्वीकार करना होगा कि यथार्थ को अधिक प्रत्यक्ष करने के लिए-उसे मजबूती से पकड़ने और गहराई से सम्प्रेषित करने के लिए ही-क्या उपन्यासकार और क्या नाटककार यथार्थवादी प्रस्तुतीकरण को छोड़ते हुए काव्यात्मकता की ओर गये हैं। यथार्थ को प्रत्यक्ष करने के लिए ही उन्होंने यथार्थवाद को छोड़ा है। क्योंकि वाद सतह को पकड़ता है, बुनावट से उलझता है और इस प्रकार अपनी दृष्टि की सीमा बाँध लेता है। तब प्रत्यक्षदर्शी और प्रत्यक्ष-सम्प्रेषी कवि गहराई में उतरने का जोखिम उठाता है। निःसन्देह उपन्यास में एक सम्प्रदाय ऐसा भी है जो कि सतह पर बहुत अधिक बल देता है और ऐसे पदों के बहिष्कार का आग्रह करता है जिनमें काव्यमयता की बू भी हो। यह सम्प्रदाय ऐसे विशेषणों को भी त्याज्य समझता है जिनमें उपन्यासकार के भावों का आरोप अथवा संकेत भी हो। क्योंकि इस सम्प्रदाय का लेखक सिद्धान्ततः यह प्रयत्न करता है कि उसके द्वारा प्रस्तुत किया गया वृत्तान्त उसके मनोभावों के स्पर्श से यथासम्भव अछूता रहे और कथा तथा पाठक के बीच में न आए। लेकिन बारीकी से देखने पर स्पष्ट हो जाएगा कि यह भी एक शिल्पगत आग्रह ही है। वृत्तान्त और पाठकों के बीच में न आना, जिससे कि पाठक पर वृत्तान्त की ही प्रतिक्रिया हो, लेखक के भाविक पूर्वग्रह की नहीं-यह समस्या शिल्प की है, ‘विषयी-निरपेक्ष यथार्थ’ की नहीं। क्योंकि वृत्तान्त से पहले ही कथा-सामग्री के चयन में, घटना-क्रम के निर्धारण में, उस क्रम में एक काल-बिन्दु के चयन में, उपन्यास की संरचना में, उसकी संहति की परिकल्पना में, सर्वत्र लेखक की विषयिता अपना काम कर चुकी है। वस्तु पहले ही विषयी की संवेदना में से छन चुकी है, उसके बाद भावाग्रही विशेषणों से बचना पाठक को न केवल मुक्त करना नहीं है बल्कि उसको सम्पूर्णतः अपने द्वारा पहले से चुनी हुई वस्तु से बाँधकर रखना है। ‘‘हमने जो सोचा या भोगा उसका हम कहीं कोई संकेत नहीं दे रहे हैं, केवल जितना हमारी खिड़की में से हम दिखने देंगे उतना दिखाया जा रहा है।’’ यह ऊपरी भाव-निरपेक्षता किसी तरह भी विषयी-निरपेक्ष नहीं है, इसकी और व्याख्या अनावश्यक है।
यथार्थ को प्रत्यक्ष करने के लिए ही हमारे युग के महत्त्वपूर्ण उपन्यासकारों ने यथार्थवाद को छोड़ा। जैसे कि महत्त्वपूर्ण नाटककारों ने भी यथार्थवाद को छोड़ा। यथार्थ को पकड़ने के लिए ‘यथार्थवादी’ दृष्टि का परित्याग और कवि-दृष्टि (आग्रह हो तो कह लीजिए कि नयी या परिमार्जित कवि-दृष्टि) का पुनः अंगीकार-कह सकते हैं कि आधुनिक साहित्य तथा आधुनिक कला के क्षेत्र में यही सबसे महत्त्वपूर्ण मोड़ रहा है। प्रबल ऐतिहासिक आग्रह हो तो चाहे बीच की सीढ़ी का भी उल्लेख कर दें : ‘यथार्थवादी’ दृष्टि के बाद ‘आधुनिकतावादी’ दृष्टि आयी, फिर उस आग्रह से मुक्ति हुई और कवि-दृष्टि की सम्भावनाओं की ओर फिर ध्यान गया। क्योंकि यह मोड़ केवल कहानी-उपन्यास में आया हो, ऐसा नहीं है : स्वयं काव्य के क्षेत्र में भी कवि-दृष्टि का आग्रह एक नये रूप में आया है जिसमें यथार्थवादिता की असमर्थता और अपर्याप्तता की पहचान एक महत्त्वपूर्ण घटक है। काल की प्रतीति से सम्बद्ध समस्याओं की नयी पहचान ने भी इस परिवर्तन में योग दिया है, इस पक्ष की चर्चा अत्यन्त विस्तार से की है, उसे यहाँ दोहराऊँगा नहीं। आरम्भ में मैंने दिक् और काल की परस्पर-भेदकता और परस्पर-भिन्नता की बात कही थी; अब मैं एक तत्त्व और जोड़कर कह सकता हूँ कि दिक्, काल और चित् इन तीनों के परस्पर-संघात और परस्पर-बद्धता की नयी पहचान हमें सत्ता अथवा अस्ति की एक दूसरी पहचान तक ले जाती है जिसके लिए अब तक के प्रचलित अर्थ में ‘यथार्थ’ बहुत छोटा पड़ जाता है।
सतर्क पाठक ने भाँप लिया होगा कि उपर्युक्त तर्क-परिपाटी में लेखक अपना पक्ष-समर्थन करता रहा है। इस बात को छिपाना अभीष्ट भी नहीं था। पक्ष-समर्थन गलत भी नहीं है; और भूमिकाएँ आखिर होती भी और किसलिए हैं? पर वास्तव में वह समर्थन उतना मेरे निजी हित की सिद्धि के लिए नहीं है, क्योंकि अब तो कहानियाँ मैं लिखता नहीं। मेरा हित उससे परोक्ष ही होगा। उस समर्थन से यदि पाठक का यथार्थ-बोध अधिक व्यापक हो सके और मेरी तथा दूसरे कहानीकारों की कहानियाँ पढ़ते समय पाठक मानवीय संवेदन के व्यापक क्षितिजों पर भी अपनी दृष्टि टिकाए रह सके, तो मुझे सन्तोष होगा। उसी में मेरी यह आशा भी बनी रहेगी कि कहानी के बीते कल की ये कहानियाँ, कहानी के आगामी कल भी पढ़ी जा सकेंगी, पढ़ी जाएँगी, और पाठक को कभी दोबारा भी आमन्त्रित कर सकेंगी।
यह संग्रह (‘छोड़ा हुआ रास्ता’) दो खंडों में छप रहा है। कहानियों में संख्या दोनों में लगभग बराबर है, यद्यपि लेखन-काल की दृष्टि से पहले भाग की अवधि छोटी है और दूसरे की लम्बी। जिन पाठकों की मुझ पर इतनी कृपा है कि वे मेरी कहानियाँ ही नहीं, अन्य रचनाएँ भी पढ़ते हैं और मेरे लिए यह सुखद सन्तोष का विषय रहा है कि मेरे पाठक मेरी सभी विधाओं की रचनाएँ पढ़ते रहे हैं, वे आसानी से पहचान लेंगे कि जिस काल में कहानियाँ लिखना धीरे-धीरे कम होता गया है उस काल में दूसरी विधाओं के साथ उलझता रहा हूँ। यद्यपि कहानियों के आस्वादन अथवा मूल्यांकन के लिए इस बात का कोई खास महत्त्व नहीं है।
कहानियों की और इस संग्रह की भूमिका यहाँ समाप्त होती है। पाठक कहानियों की देहरी पर पहुँच गया है। अब स्वयं हट जाने से पहले केवल एक बात मैं दोहरा देना चाहता हूँ जिसका रूप तो चुनौती-सा दीखता है पर सार आमन्त्रण का है :
‘कहानी पर प्रत्यय रखो, लेखक पर नहीं!’
मार्च, 1975 -‘अज्ञेय’
दो
मैं नहीं जानता कि और लेखकों के बारे में भी यह बात सच है या नहीं। अनुमान ही है कि सबके नहीं तो उनके बारे में तो ज़रूर सच होनी चाहिए जो यत्किंचित् भी आत्मचेता हैं - लेकिन अपनी कहूँ तो, अक्सर अपने से पूछता रहता हूँ कि जिस भी विधा में लिखता हूँ क्यों लिखता हूँ? इसमें यह तो निहित है ही कि यदि किसी विधा को छोड़ देता हूँ-और असफल होकर भी नहीं!-तो यह भी अपने से पूछता ही हूँ कि वह विधा क्यों अग्राह्य हो गयी है या अपर्याप्त जान पड़ने लगी है या तृप्ति नहीं देती? ज़रूरी नहीं है कि लेखक ऐसे प्रश्नों का जो उत्तर दे-स्वयं अपने को भी दे, वह बिलकुल सही ही हो; पर लेखक के हेत्वाभास भी उसके रचना-कर्म पर अपने ढंग से प्रकाश डालने वाले होते हैं। ‘कहानी पर भरोसा रखो, कहानीकार पर नहीं’ वाली लारेंस की बात मैं मानता हूँ और कई बार दुहरा चुका हूँ; पर जिस पर हम भरोसा नहीं रखते उससे कुछ जानकारी भी नहीं प्राप्त कर सकते, ऐसा मेरा कहना नहीं है। लारेंस का भी नहीं रहा होगा-नहीं तो वह इतनी बात भी क्यों कहता!
कहानी लिखना मैंने धीरे-धीरे क्यों छोड़ दिया, यह कुतूहल मेरे पाठक को होगा ही; मैंने भी अपने-आपसे पूछा ही है। लिखना एक ‘अनिवार्यता’ होती है, इसलिए यों तो इतना ‘कारण’ काफ़ी है कि जब अनिवार्यता नहीं अनुभव की तो नहीं लिखा पर इस बात की सच्चाई का आधार इसकी स्पष्टता नहीं, अस्पष्टता है। यह वैसा ‘सच’ है जो हमें कुछ नहीं बताता। थोड़ी और स्पष्ट बात यह होगी कि मेरी जिज्ञासा और दिलचस्पी आदर्शपरक रचना से बढ़ती हुई क्रमशः यथार्थोन्मुख होती गयी-और भी स्पष्ट यह कि जिस यथार्थ की ओर मैं अधिकाधिक बढ़ा, वह ‘बाह्य’ या ‘भौतिक’ या ‘सामाजिक’ यथार्थ से पहले आभ्यन्तर, मानस अथवा मनौवैज्ञानिक यथार्थ था। अधिक स्पष्ट होने के साथ-साथ ऐसा भी नहीं है कि यह बात कम सत्य हो गयी होगी। पर मनोवैज्ञानिक यथार्थ की कहानी से कोई असामंजस्य तो नहीं है और इस बात के प्रमाण के लिए मेरी ही कहानियों से उदाहरण लिए जा सकते हैं फिर कहानी से विमुख होते जाने का कारण यह क्यों हुआ?
फिर अनुमान करता हूँ कि मनोवैज्ञानिक यथार्थ की ओर उन्मुख होने पर कहानी विधा का यथेष्ट न जान पड़ना भी स्वाभाविक है। क्या यह कह सकता हूँ कि और भी जो लोग इस पथ पर अग्रसर हुए, उन्हें भी कहानी नाक़ाफ़ी जान पड़ी, उन्होंने भी उपन्यास में सम्भावनाएँ अधिक देखीं? फिर उपन्यास उनके सफल हुए हों या असफल या फिर उन्होंने एक ही उपन्यास लिखकर (या लिखते-लिखते ही!) पाया हो कि मनोवैज्ञानिक यथार्थ का सम्पूर्ण चित्र खींचना चाहें तो एक भी उपन्यास पूरा नहीं किया जा सकता बल्कि एक ही चरित्र का भी पूरा मनश्चित्र नहीं प्रस्तुत किया जा सकता! जो हो; इस बात का मैंने स्पष्ट और तीव्र अनुभव किया कि कहानी का व्यास काफ़ी नहीं है। यह भी सम्भाव्य है कि अगर मैं केवल एक विधा का लेखक होता तो कदाचित् इस परिणाम पर न पहुँचता या इस सन्देह के बाद इसके निराकरण के दूसरे रास्ते भी खोजता। पर यह एक रोचक समीकरण हो सकता है कि जहाँ मैं कहानी को अपर्याप्त पाकर उपन्यास को अधिक आकर्षक पा रहा था, ठीक वहीं मैं कविता में लघु से लघुतर आकाश को एक श्लाघ्य और कमनीय लक्ष्य के रूप में ग्रहण कर रहा था। कहानी इसलिए नकाफ़ी थी कि उसमें मनोजगत् की - मनोवैज्ञानिक यथार्थ की - कोई एक गाँठ, एक सन्धि, एक दरार तो एकाएक तीखे प्रकाश से आलोकित कर दी जा सकती थी, पर मनोदेश का कोई नक्शा नहीं प्रस्तुत किया जा सकता था और मनोवैज्ञानिक यथार्थ अनिवार्यतः गहरे जाने वाले को भी विस्तीर्ण मनोभूमि की याद दिलाता जाता है। दूसरी ओर कविता में लघुतम आकार की सघनता ठीक इसीलिए काम्य थी कि सौन्दर्य-प्रत्यभिज्ञा के तनाव के क्षण को यथा-सम्भव अक्षुण्ण रूप में प्रस्तुत और सम्प्रेषित किया जा सके। कहानी में भी एक आलोकित सन्धि-स्थल के आस-पास के प्रदेश की छायालोकित झाँकी दिखाई जा सकती या दिखने दी जा सकती है पर अधिक दिखने से उसका फ़ोकस बिखर जाता है। इसके विपरीत कविता के सघन स्वर की पीठिका में जितने भी स्वरों की अनुगूँज सुनाई दे सके, मुख्य स्वर को समृद्धतर बनाती है, जैसे सितार के तारों की झंकार स्वर की पूरक ही होती है... या कि रूपक बदलकर कहें कि ढाका के कारीगर की तरह जितनी तंग अँगूठी में से जितनी बड़ी शाल पार निकाल दी जा सके, उतना ही प्रभाव बढ़ता है...
मैंने पहले ही स्पष्ट कर दिया कि ये मेरे अनुमान हैं; यह भी मान लिया कि प्रत्यवलोकन में इस तरह के तर्क केवल हेत्वाभास भी हो सकते हैं। सोचने की बातें दूसरी भी हैं। एक तो यही कि जो कहानियाँ सामने आयी हैं (क्योंकि प्रकाशित कहानियों से पहले भी कई कहानियाँ लिखीं; उपन्यासों से-और पहली कहानियों से भी! पहले उपन्यास भी लिखा, जो न छपा न छपेगा!) उनमें पहली खेप की कहानियों में एक स्पष्ट आदर्शोन्मुख स्वर है, वे एक क्रान्तिकारी द्वारा लिखी गयी क्रान्ति-समर्थक कहानियाँ हैं। आज तो ऐसे क्रान्तिकारी और क्रान्तिवादी बहुत मिलेंगे जो आदर्शवादिता को गाली समझेंगे, फिर अपनी स्थिति और अपने वाद की सीमा में मूल्यों के प्रति अपने लगाव की व्याख्या वे जो भी करते हों! पर उस समय के क्रान्तिकारी आदर्शवादी थे, आदर्शवादी होते थे, और आदर्शवादी होना गौरव की बात समझते थे। अगर उस काल के आदर्शवाद में एक रोमानी भोलापन भी झलकता है तो वह वास्तविक स्थिति का ही प्रतिबिम्ब है। आतंकवादी आन्दोलन में एक रोमानी भोलापन था, उसके आदर्शवादी क्रान्तिकारियों में भी एक रोमानी भोलापन था और उनमें से कोई भी तब रोमानियत या भोलेपन के आरोप पर लज्जित न होता। वे भी नहीं, जिन्होंने अनन्तर रोमानियत विरोधी मोह-भंग की मुद्राएँ अपनायीं। चन्द्रशेखर आज़ाद को यशपाल ने गावदी सा दिखाया है; पर आतंकवादी आन्दोलन के ज़माने में यशपाल भी ‘देवि स्वतन्त्रते’ को सम्बोधन करके बड़े भावुक गद्यगीत लिखा करते थे। बल्कि स्वतन्त्रता के लिए जिस तरह की निष्ठा आज़ाद में थी, वह भावुकता के लिए ज़रा-सी भी गुंजाइश नहीं छोड़ती थी। साँस लेने के मामले में भावुकता कोई अर्थ नहीं रखती।
तो... मैं क्रान्तिकारी दल का सदस्य था और जेल में था और युवक तो था ही - कालेज से ही तो सीधा जेल में आ गया था! पहली खेप की कहानियाँ क्रान्तिकारी जीवन की हैं, क्रान्ति-समर्थन की हैं - और क्रान्तिकारियों की मनोरचना और उनकी कर्म-प्रेरणाओं के बारे में उभरती शंकाओं की हैं। बन्दी जीवन ने कैसे कुछ को तपाया निखारा तो कुछ को तोड़ा भी, इसका बढ़ता हुआ अनुभव उस प्रारम्भिक आदर्शवादी जोश को अनुभव का ठंडापन और सन्तुलन न देता यह असम्भव था और सन्तुलन वाञ्छित भी क्यों नहीं था? बन्दी-जीवन जहाँ संचय का काल था, वहाँ कारागार मेरा ‘दूसरा विश्वविद्यालय’ भी था। पढ़ने की काफ़ी सुविधाएँ थीं और उनका मैंने पूरा लाभ भी उठाया - पहले साहित्य और विज्ञान का विद्यार्थी रहा था तो यहाँ उन विधाओं का भी परिचय प्राप्त किया जो, क्रान्तिकर्मी के लिए अधिक उपयोगी होतीं - इतिहास, अर्थशास्त्र, राजनीति... मनोविज्ञान, मनोविश्लेषण और दर्शन का साहित्य भी इन दिनों पढ़ा; चार-चार वर्ष जेल में और वर्ष-भर नज़रबन्दी में बिताकर जब मुक्त हुआ तब यह नहीं कि क्रान्ति का उत्साह ठंडा पड़ चुका था, पर आतंकवाद और गुप्त आन्दोलन अवश्य पीछे छूट गये थे और हिंसा की उपयोगिता पर अनेक प्रश्नचिह्न लग चुके थे।
पुराने गुप्त-कर्मी आतंकवादी का खुले समाज में एक ‘जाने हुए’ व्यक्ति के रूप में जीने का, समाज से मिलने वाले सम्मान के बीच उस समाज के और उस सम्मान के खोखलेपन का अनुभव करने का यह युग कहानियों की दूसरी खेप का युग है। इसमें भी संख्या की दृष्टि से काफ़ी कहानियाँ रहीं; इन कहानियों का स्वर भी बहुधा काफ़ी तीखा रहा, पर इनका आक्रोश व्यंग्यमिश्रित है। क्रान्तिकारिता का पहला दौर सर्वत्र हास्य-रहित, ‘ह्यूमरलेस’ होता है; हास्य का प्रकटन वयस्कता का लक्षण होता है। (मानवीयता का भी होता है - एकान्त हास्य-रहित क्रान्ति कार्यदक्ष तो हो सकती है पर अमानवीय भी होती है, यह संसार में कहीं भी देखा जा सकता है।)
कभी-कभी, जब तीस के दशक के क्रान्तिकारी और साठ-सत्तर के दशक के ‘भूतपूर्व क्रान्तिकारी’ (‘स्वतन्त्रता-सेनानी’ - ‘फ्रीडम-फ़ाइटर’!) को देखता हूँ बल्कि यों कहूँ कि एक की दूसरे में परिणति को देखता हूँ तो बड़ी ग्लानि होती है। अवश्य ही परिणति की यह यात्रा भी कहानी-उपन्यास की सामग्री है, अवश्य ही इस विघटित मानसिकता का विश्लेषण और उद्घाटन अपना महत्त्व रखता है और ‘मनौवैज्ञानिक यथार्थ’ के चितेरे के लिए एक बड़ी चुनौती है। मैं जानता हूँ कि यह काम मैंने नहीं किया या नगण्य मात्रा में ही किया है। क्यों? ऐसा नहीं है कि अपने से यह प्रश्न मैंने न पूछा हो। ज़रूरी नहीं है कि इसका उत्तर पाठक समाज को दिया जाए और न यही ज़रूरी है कि अगर कुछ उत्तर दें तो वह उसे स्वीकार्य भी हो। पर जिन लोगों के साथ मैंने काम किया है उनका नंग उघाड़ना मुझे एक अश्लील कर्म लगा है। ‘अश्लील’ विशेषण से बात कुछ दिग्भ्रष्ट हो सकती है, ग़लत भी समझी जा सकती है; कह लें कि वह व्रत-भंग लगता है-लायल्टी नाम का एक व्रत होता है न, जिसके अवशेष आज के राजनैतिक जीवन में दिया लेकर खोजने पड़ेंगे! यह आपत्ति हो सकती है कि यह ‘असाहित्यिक मूल्य’ है और कितनों को सबसे अधिक प्रसन्नता इसी बात की होगी कि ‘अज्ञेय’ साहित्यिक सन्दर्भ में एक असाहित्यिक मूल्य की दुहाई दे रहा है! पर जब पहले स्वीकार कर चुका हूँ कि आरम्भ की कहानियों में क्रान्ति को आगे बढ़ाने का लक्ष्य था, जो कि मानता हूँ - साहित्यिकेतर लक्ष्य है, तब यहाँ यह मानने में कोई संकोच नहीं है कि अब कुछ खास चीज़ें न लिखने का कारण भी उतना ही असाहित्यिक है - भूतपूर्व सहयोगियों के प्रति एक कर्त्तव्य का बोध। यह भी जोड़ सकता हूँ कि जिस तरह की क्रान्ति का स्वप्न उस आदर्शवादी युग में देखता था, उसके लक्ष्य अभी प्राप्त नहीं हुए हैं; उस समय के साधन अनुपयोगी मानकर भी उन लक्ष्यों को ग़लत नहीं मानता और यह एक नेगेटिव आदर्शवाद ही सही कि ऐसा कुछ लिखना नहीं चाहता जिससे उन लक्ष्यों की प्राप्ति में कोई बाधा हो या विलम्ब हो। यों अपने भूतपूर्व सहयोगियों को लाञ्छित किये बिना क्रान्तिकारी आन्दोलन की आदर्शच्युति, क्रान्ति-कर्मियों के पतन का चित्रण कर सकता हूँ, किया भी है, भविष्य में प्रकाश्य (पहले की लिखी) कुछ रचनाओं में है भी। (इस पक्ष के एक पूरे उपन्यास की पांडुलिपि जिनके पास सुरक्षा के लिए रखी थी उनसे पुलिस के हाथों लग गयी थी और फिर उसका उद्धार नहीं हो सका।)
तीसरी खेप की कहानियाँ सैनिक जीवन से और उन प्रदेशों के जीवन, समाज अथवा इतिहास से, जिनमें सैनिक जीवन बिताया, घनिष्ठ रूप से सम्बद्ध हैं। सन् 30 का क्रान्तिकारी महायुद्ध का सैनिक कैसे हो गया यह प्रश्न तब भी उठा था जब मैं सेना में गया था; मैंने तभी उत्तर भी दिया था जो मेरे सेना छोड़ने के बाद छपा भी (प्रतीक 4 : हेमन्त, 1947)। वह ब्यौरा यहाँ दोहराना अनावश्यक जान पड़ता है। संक्षेप में यही कि मैं युद्ध का समर्थक न था, न हूँ; पर यह तर्क मुझे ग्राह्य नहीं लगता था कि भारत क्योंकि पराधीन है इसलिए शत्रु से उसकी रक्षा हमारा काम नहीं है। न यही मनोवृत्ति मैं किसी भी काम के बारे में अपना सका हूँ कि ‘यह बुरा अथवा गन्दा काम है, इसलिए मैं नहीं करूँगा - पर आवश्यक है इसलिए तुम मेरे लिए कर दो!’ आज भी मैं नहीं मानता कि विगत महायुद्ध में यदि जापान की विजय हुई होती और भारत उनके हाथ चला गया होता तो हमारे लिए अच्छा हुआ होता या हमें इससे जल्दी या इससे अच्छी आज़ादी मिली होती इसके बावजूद कि जो आज़ादी मिली वह अभी तक वैसी सम्पूर्णता नहीं पा सकी जैसी मैं चाहता हूँ।
इसके बाद कहानियों का एक और समूह है जिसे चौथी खेप भी कहा जा सकता है : ये कहानियाँ भारत-विभाजन के विभ्राट और उससे जुड़ी हुई मनःस्थितियों की कहानियाँ हैं। एक बार फिर ये कहानियाँ आहत मानवीय संवेदन की और मानव-मूल्यों के आग्रह की कहानियाँ हैं और मैं अभी तक आश्वस्त हूँ कि जिन मूल्यों पर मैंने बल दिया था, जिनके घर्षण के विरुद्ध आक्रोश व्यक्त करना चाहा था, वे सही मूल्य थे और उनकी प्रतिष्ठा आज भी हमें उन्नततर बना सकती है। निःसन्देह मेरा यह मानवतावाद फिर एक प्रकार का आदर्शवाद है, जिसके लिए मैं लज्जित नहीं हूँ न दीन होने का कोई कारण देखता हूँ। आज का फ़ैशन मूल्यों का अस्तित्व भी मानने का नहीं है; पर मेरी समझ में यह कहना कि आज हम एक सम्पूर्णतः मूल्य-विरहित समाज में जीते हैं, उतना ही बड़ा पाखण्ड है, जितना यह मानना कि हमारे समाज में सब शाश्वत मूल्य प्रतिष्ठित हैं। उतना ही बड़ा पाखण्ड; अगर प्रतिकूल दिशा का तो कह लीजिए प्रति-पाखण्ड। मैं नहीं मानता कि मानव-समाज मूल्यों के बिना जी सकता है, अस्तित्व रख सकता है। जिस समाज में मूल्य नहीं हैं वह समाज नहीं है; मानव-समाज होना दूर की बात। मूल्य मानव की रचना हैं और मूल्य-रचना ही उसका मानवत्व है। मूल्य बदलते अवश्य हैं; एक मूल्य-समूह निर्जीव हो जाता है और उसके बदले एक-दूसरे समूह की प्राण-प्रतिष्ठा होती है-कभी ऐसा भी होता है कि कोई समाज जड़ मूल्यों से चिपटना चाहता है और नये मूल्यों के समर्थकों को कुछ उखाड़-पछाड़ भी करनी पड़ती है। पर मूल्य-संक्रमण के युग भी मूल्य-हीनता के युग नहीं होते। कभी-कभी अल्प अवधि की मूल्य-हीनता दिख सकती है। उदाहरण के लिए युद्धान्त के काल में (देश-विभाजन का काल भी एक उदाहरण था) पर ऐसा काल फिर पशुत्व की विजय का भी काल होता है, उसके दौरान मानवता कलुष के एक बोझ के नीचे दबी हुई होती है - एक तरह से ‘स्थगित’ होती है...
इसके बाद मेरा कहानियाँ लिखना बहुत कम हो गया। क्या इसलिए कि दूसरी विधाओं की ओर अधिक ध्यान देने लगा? या इसलिए कि अब तक का अशान्त घुमन्तू जीवन एक स्थिरतर रूप लेने लगा था! मेरे उत्तर काम के न होंगे। इतना कह सकता हूँ कि देश-विभाजन वाले समूह को छोड़कर, अब तक की कहानियों में न्यूनाधिक मात्रा में आत्मकथा-मूलक वस्तु भी रही थी। कोई कहानी ‘आत्म-कथा’ नहीं थी पर अपने जीवनानुभवों का उपयोग उनके लिए अवश्य किया गया था। इसके बाद की (इनी-गिनी) कहानियों में मैं इससे दूर हट गया, जैसे कि उपन्यास में भी इससे दूर हट गया। शुद्ध सिद्धान्त की दृष्टि से देखूँ तो यह मानना संगत लगता है कि वास्तव में कहानीकार/उपन्यासकार तभी बना-क्योंकि सिद्धान्ततः तो इस प्रकार उबरने को ही रचनाकार होना मानता हूँ - भोक्तृत्व से उबरकर कर्तृत्व प्राप्त करना! पर इस सैद्धान्तिक आग्रह को पाठक पर थोपना नहीं चाहता, यही कहकर सन्तोष कर लेता हूँ कि इस स्थिति पर पहुँचना मुझे अच्छा ही लगा। अगर कथाकार होने के योग्य होते न होते मैं कहानी के प्रति उदासीन भी हो गया तो क्या हुआ! मेरी तो तरक्की ही हुई। पाठक का हर्ज़ होने का सवाल ही नहीं उठा, क्योंकि जब तक मैं उस मंज़िल पर पहुँचा तक तक कहानीकारों की कोई कमी नहीं रही थी और कहानी की पत्रिकाएँ भी अनेक निकलने लगी थीं।
सच कहूँ तो उदासीनता में इस बात ने भी योग दिया। कहानीकारों और कहानी-पत्रिकाओं की बहुतायत ने प्रतियोगिता और अहमहमिका का जो वातावरण प्रस्तुत कर दिया उसमें कहानियाँ लिखता भी तो सीधे संग्रह छापने तक के लिए रोक रखता और कहानियों को जोड़-जोड़ कर ही रखना हो तो लम्बी-कथा-रचना का आकर्षण और बढ़ जाता है! इस प्रतियोगी भाव ने कुल मिलाकर कहानी का काफ़ी अहित किया है। शिल्प की सफ़ाई और भाषा की कसावट जहाँ-तहाँ कुछ बढ़ी है तो उसके साथ इतने झूठे ‘सिद्धान्त’ और बोदे दावे भी सामने आये हैं कि पाठक की तो बात क्या, स्वयं कहानी-लेखक भी चकरा गया है!
साहित्य साहित्य में से निकलता है; कहानी भी कहानी में से निकलती रही है। हर विधा के विकास का तर्क होता है, कहानी के विकास का भी है। पर यह नहीं है कि ‘हिन्दी साहित्य हिन्दी साहित्य में से ही निकलेगा’ या कि ‘हिन्दी कहानी हिन्दी कहानी में से निकलती आयी है।’ ‘क्योंकि हिन्दी का लेखक अधिकाधिक हिन्दीतर (विदेशी) साहित्य भी पढ़ता है, इसलिए जिस साहित्य में से साहित्य, जिन मिथ्या सिद्धान्तों, बोदे दावों, निराधार गर्वोक्तियों और निरी पैंतरेबाज़ियों के नमूने हमें इधर लगातार देखने को मिलते हैं, उनका एक मुख्य कारण यह भी है कि हिन्दी का लेखक अपनी भंगिमाओं और ‘तेवरों’ से हिन्दी पाठक को प्रभावित करने के अपने अभियान में उन विदेशी साहित्य-स्रोतों को छिपाता रहता है जिनसे वह प्रेरणा पाता रहा है। यही कारण है कि बहुत-सी ‘नयी-’ बातें, जो केवल शिल्प के विकास की बातें हैं और विकास के तर्क के अधीन होने के कारण जिनका आविर्भाव एक सहज परिणति मात्र है, न केवल नये-नये दावों का आधार बनती हैं वरंच शिल्प की आलोचनामूलक पहचान को कुन्द करती हैं। ऐसा न होता, तो यह भी न होता कि शिल्प की दृष्टि से जिन चुनौतियों की पहचान अन्य विकसिततर साहित्यों में दो-एक पीढ़ी पहले हो चुकी थी, और जिनका विश्लेषणात्मक निरूपण करके जिनका सामना करने की विधियाँ-युक्तियाँ भी निकाली जा चुकी थीं, उन्हें अभी तक न हिन्दी का लेखक पहचानता है, न हिन्दी का अध्यापक पढ़ा-समझा सकता है। फलतः जो चीज़ निरी एक शिल्पगत युक्ति है वह ‘नयी कहानी’, ‘जटिलतर सामाजिक वास्तविकता’ और एक ‘समान्तर दुनिया’ तक के बारे में कितनी बड़ी और थोथी अहंकारोक्तियों का निमित्त बनती है! समझ पर-पाठक की ही नहीं, अध्यापक तक की समझ पर! इसका कितना नकारात्मक प्रभाव पड़ता है, इसका तीखा आस्वाद मुझे तब मिला जब एक विश्वविद्यालय में आधुनिक युग की बदली हुई काल-प्रतीति और कथा-साहित्य में उसे लाने की विधियों की चर्चा करने पर हिन्दी के आचार्य महोदय ने (जो सभाध्यक्ष भी थे) मेरे व्याख्यान को ‘दार्शनिक विषय’ कहकर विभागीय प्रयोजनों की परिधि से बहिष्कृत कर दिया था! आचार्य चतुरसेन शास्त्री नये कहानीकारों को प्रायः यह सलाह दिया करते थे कि सिनेमा देखा करें; वह स्वयं तो कई बार कथानक भी वहीं से ‘उठा’ लिया करते थे, पर उस बात को अलग रखें तो उनकी सलाह इसलिए उपयोगी थी कि कहानी में ‘नये’ नाम का बहुत-सा सिने-माध्यम की युक्तियों पर ही आधारित है और कहानी पर यहाँ ‘कहानी’ में उपन्यास भी शामिल है। सिनेमाई शिल्पयुक्तियों का यह प्रभाव तभी से आरम्भ हो गया था जब से सिनेमा आरम्भ हुआ। सारे संसार की कहानी इस प्रभाव से बदली, विकसित हुई, नयी हुई ‘पर अन्यत्र कहानीकारों ने सिनेमा से प्राप्त सम्भावनाओं को सचेतन रूप से समझा, कुशलतापूर्वक अपनाया, और ईमानदारी से स्वीकार भी कर लिया। जबकि हिन्दी में अभी तक कहानीकार मानो यह चाह रहा है कि पचास बरस से काम में भी लायी जाती इन युक्तियों को ‘नयी’ हिन्दी कहानी में ‘प्रवर्तित’ करने का श्रेय वह केवल इसलिए ले ले कि मूलतः ये दूसरी विधा की थीं और दूसरी विधा से कहानी में पहले भी ली गयीं तो हिन्दीतर (विदेशी) कहानी में! कभी कहीं किसी ने इस बात की ओर इशारा कर भी दिया तो अध्यापक और आलोचक तुरन्त उस पर चढ़ बैठे कि यह तो रूपवादी आलोचना है और उन्हें केवल वस्तु से प्रयोजन है!
अन्त में केवल एक बात और कहना चाहूँगा - भले ही थोड़े विस्तार से। मेरी कहानियाँ नयी हैं या पुरानी, इस चर्चा में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं है। सभी साहित्य धीरे या जल्दी पुराना पड़ता है, कुछ पुराना पड़ कर फिर नया भी होता है, इस बारे में कुछ पहले भी कह चुका हूँ - (इस संग्रह के पहले भाग की भूमिका में)। नयी-पुरानी की काल-सापेक्ष चर्चा में कहानी को उसके काल की अन्य कहानियों के सन्दर्भ में देखना चाहिए। उस समय वह कितनी नयी या पुरानी, पारस्परिक या प्रयोगशील थी... इससे आगे इतना-भर जोड़ना काफी है कि मैंने प्रयोग किये तो शिल्प के भी किये, भाषा के भी किये, रूपाकार के भी किये, वस्तु-चयन के भी किये, काल की संरचना को लेकर भी किये (फिर ‘दार्शनिक विषय’!), लेकिन शब्द-मात्र की व्यंजकता और सूचकता की एकान्त उपेक्षा कभी नहीं की। इसे आप चाहें तो मेरे प्रयोगों की सीमा या परिधि भी मान सकते हैं और अत्यन्त अनुदार हों तो यह भी सोच सकते हैं कि भाषा के इकहरे प्रयोग के अलावा किसी तरह का भी प्रयोग निरा आभिजात्य है। पर मैंने हमेशा माना है, अब भी मानता हूँ कि सीधी सामान्य उक्ति, सीधा-सपाट बयान, अपने-आप में न साध्य है न सिद्ध; जहाँ सपाटबयानी कारगर होती है वहाँ हमेशा हम पहचान सकेंगे कि वह आलंकारिक सपाटबयानी है, इकहरी नहीं है बल्कि आभासित सपाटपन के सहारे एकाधिक स्तर पर अर्थ-सम्प्रेषण करती है या करने के उद्देश्य से अपनाई गयी है। मेरी छोटी-सी कहानी ‘साँप’ में कुछ को केवल ‘अतिरिक्त रोमानी तत्त्व’ मिला है; पर उन लोगों की बात छोड़ दें जो मानते हैं कि प्रेम कुछ होता ही नहीं, केवल सेक्स होता है, तो मैं पूछना चाहूँगा कि प्रिय को आदर्शीकृत करके देखनेवाले पहले प्यार में और उसके समान्तर सिर उठाना चाहनेवाली वासना में जो संघर्ष होता है उसका सम्प्रेषण इससे अच्छा और कैसे होता है? आप कह दें कि पहला प्यार होता ही नहीं, शुरू से केवल सेक्स की आक्रामक वासना होती है-कि लड़की को चाहा नहीं जाता, केवल फँसाया जाता है तो मैं बहस यहीं समाप्त मान लूँगा। इसी पर आप अपने को आधुनिक मान लेंगे तो मान लें, मैं आपको अभागा गिनूँगा। अपने पक्ष में आप बहुत-सी आधुनिक कहानियाँ पेश कर देंगे तो मैं कहूँगा, हाँ, अभागों की संख्या बढ़ती जा रही है।
दूसरी ओर ‘मेजर चौधरी की वापसी’ जैसी कहानी का भी उदाहरण दे सकता हूँ। इसे वैसा ‘अतिरिक्त रोमानी’ नहीं कहा गया पर एक प्रश्न उसे लेकर भी पूछना चाहता हूँ। यौन सम्भोग के सन्दर्भ में नामर्दी की कहानियाँ मिल जाएँगी। वैसी स्थिति में पुरुष की यन्त्रणा और ‘सन्त्रास’ का चित्र भी मिल जाएगा, (यह तो आज का सामाजिक यथार्थ है!) पर युद्ध में आहत होकर सन्तानोत्पत्ति के लिए असमर्थ हो गये युवा पति की मनोव्यथा का चित्र कहाँ है? (और मनोव्यथा केवल ‘अपना’ दर्द नहीं होती, अपने कारण दूसरे को मिलनेवाले दर्द की पहचान भी होती है, प्रेमी की संवेदना का यह विस्तार भी एक मूल्य है!) और कौन-सा दूसरा तर्ज़े-बयां उसके लिए अधिक उपयुक्त होता? निःसन्तान कुण्ठित नारी के चित्र भी हैं, पर क्यों ‘हीलीबोन की बत्तखें’ कम प्रभावी मानी जाएगी - केवल इस पर कि उसने उस कुंठा की उग्र प्रतिक्रिया को तिर्यक् रूप से दिखाया है जैसे कि कुंठाएँ अभिव्यक्त होती हैं?
अधिक कह गया। अपनी वकालत करना मुझे अभीष्ट नहीं था। केवल अपनी कहानियों को निमित्त बनाकर कथा, उसकी भाषा और उसके शिल्प, दोनों के विकास और पाठक की संवेदना की दीक्षा के बारे में कुछ कहना चाहता था। मेरी प्रस्तुत कहानियाँ बीस वर्ष या उससे अधिक पुरानी हैं; इन बीस वर्षों में विधा आगे न बढ़ी होती तो ही आश्चर्य की बात होती। मैं कहानी लिखता कहीं रहा पर सतर्क पाठक के नाते देखता-समझता रहा हूँ कि कहानी की प्रगति किधर है और उसके प्रेरक कारण क्या हैं। अब फिर कभी अगर कहानियाँ लिखूँगा तो निश्चय ही वे इन कहानियों से भिन्न होंगी और वह भिन्नता सकारण होगी और यह कहना आवश्यक नहीं होगा कि ये कहानियाँ किसी नये अर्थ में नयी हैं, क्योंकि वे विधा के विकास में से ही निकली हुई होंगी। पर सम्भाव्य अपनी जगह पर रहे; वे कहानियाँ जहाँ थीं वहीं रखकर पढ़ी जाएँ। अभी वे पाठ्य नहीं हुई हैं ऐसा मुझे लगता है। साधारण पाठक के लिए भी नहीं, कहानीकार के लिए भी नहीं। यों ग़लतफ़हमी किसे नहीं होती!
- ‘अज्ञेय’
(‘छोड़ा हुआ रास्ता’ - खंड : एक और दो से)