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कविता

कितनी रातों की मैंने

महादेवी वर्मा


कितनी रातों की मैंने
नहलाई है अँधियारी,
धो डाली है संध्या के
पीले सेंदुर से लाली;

नभ के धुँधले कर डाले
अपलक चमकीले तारे,
इन आहों पर तैरा कर
रजनीकर पार उतारे !

वह गई क्षितिज की रेखा
मिलती है कहीं न हेरे,
भूला सा मत्त समीरण
पागल सा देता फे रे!

अपने उस पर सोने से
लिखकर कुछ प्रेम कहानी,
सहते हैं रोते बादल
तूफानों की मनमानी !

इन बूँदों के दर्पण में
करुणा क्या झाँक रही है ?
क्या सागर की धड़कन में
लहरें बढ़ आँक रहीं हैं ?

पीड़ा मेरे मानस से
भीगे पट सी लिपटी है,
डूबी सी यह निश्वासें
ओठों में आ सिमटीं हैं।

मुझ में विक्षिप्त झकोरे !
उन्माद मिला दो अपना,
हाँ नाच उठे जिसको छू
मेरा नन्हा सा सपना !!

पीड़ा टकराकर फूटे
घूमे विश्राम विकल सा;
तम बढ़े मिटा डाले सब
जीवन काँपे दलदल सा !

फिर भी इस पार न आवे
जो मेरा नाविक निर्मम,
सपनों से बाँध डुबाना
मेरा छोटा सा जीवन !
  
(नीहार से)
 


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