"वो कहते हैं, हम इस शहर की मौत हैं
हम कहते हैं, हमसे है इस शहर की जिंदगी
वो कहते हैं, हम कूड़ा-कतवार हैं
हम कहते हैं, ये उनकी दी सौगात है
वो कहते हैं, हम फैलाते हैं बीमारी
हम कहते हैं, हम ही तो करें तीमारदारी
वो कहते हैं झुग्गियाँ, जरायम के हैं अड्डे
हम पूछते हैं, कौन पालता है गुंडे?
वो कहते हैं, इनको शहर-बदर करो अभी
हम कहते हैं, नहीं! हम रहेंगे यहीं।"
ये गीत दिल्ली की जानी-मानी और प्रतिबद्ध नुक्कड़ नाटक संस्था 'जन नाट्य मंच' के मार्च 2000 में तैयार किए नाटक 'हम झुग्गी वाले हैं' से लिया गया है। नाटक में उस अभिजात मानसिकता की परत दर परत उघाड़ी गई है जो झुग्गियों में रहने वाले श्रमजीवी वर्ग को दागदार, बदबूदार और गुंडागर्दी का अवतार मानती है। यह नाटक इसी मानसिकता के विरोध में खड़े होकर हाशिए के समाज की पक्षधर आवाज बनते हुए उनकी जीवन-परिस्थितियों, उनके संघर्ष-समस्याओं को उठाने के साथ उनके लिए सुकून भरा आसमान और सम्मान की जमीन खोजने की बात करता है। आठवें दशक से आरंभ हुई नुक्कड़ नाटकों की यात्रा आज चार दशकों का इतिहास रच चुकी है। जनता के बीच जनता की बात रखने वाले नुक्कड़ नाटकों ने आजादी के बाद वंचित और पीड़ित वर्ग की आवाज को स्वर दिया है जिसे तमाम सत्ता प्रतिष्ठानों ने लगातार हाशिए पर ढकेलने की कोशिश की।
आजादी के बाद भारत में लोकतंत्र की स्थापना के साथ, संविधन के माध्यम से जनता के लोकतांत्रिक-जनवादी अधिकारों को सुरक्षित रखने तथा जनवादी मूल्यों के संरक्षण के सरकारी प्रयास किए गए। देश की आम जनता को यह आश्वासन मिला कि अब शोषण और असमानता पर आधारित व्यवस्था का अंत हो जाएगा और प्रत्येक मनुष्य चाहे वह किसी जाति, धर्म, रंग, नस्ल या फिर संप्रदाय को मानने वाला क्यों न हो अपनी सामाजिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक और आर्थिक मुक्ति को पा सकेगा। आम जनता के लिए आजादी के यही मायने थे। ये वही लक्ष्य थे जिनके लिए उसने ब्रिटिश शासन की दमनकारी नीतियों से लोहा लिया था। आजादी के बरस दर बरस बीतने के बाद भी यह लड़ाई समाप्त नहीं हुई है। अभी भी देश की जनता को एक ऐसे सामाजिक-राजनीतिक वातावरण की प्रतीक्षा है जहाँ अन्याय, शोषण और असमानता न हो और उसके जनवादी अधिकारों का हनन न हो।
जनता के इसी अनुभव को अभिव्यक्त करने और उसके मानवीय अधिकारों को बचाए रखने के विचार से ही जन-आंदोलन के सांस्कृतिक हथियार के रूप में नुक्कड़ नाटकों की शुरुआत हुई, जिसका उद्देश्य था सत्ता की जनविरोधी नीतियों और समाज में प्रचलित जनविरोधी जड़ सामंती मूल्यों का विरोध करते हुए जन-प्रतिरोध को मुखर करना। आपातकाल में शासन की तानाशाही प्रवृत्ति के विरोध से लेकर वर्तमान पूँजीवादी, नव-साम्राज्यवादी व्यवस्था द्वारा जनता के शोषण और उत्पीड़न के विरुद्ध नुक्कड़ नाटकों ने लगातार आवाज उठाई है। जनवाद पर हो रहे हमले की प्रतिक्रिया में नुक्कड़ नाटककारों और रंगकर्मियों ने जनता का पक्ष लेकर उनके संघर्ष में सच्ची भागीदारी की है। इन नाटकों ने साम्प्रदायिकता, जातिवाद, सामंतवाद, वैश्विक आतंकवाद, युद्धेन्माद तथा बाजारवादी पूँजीवाद जैसी व्यापक समस्याओं से लेकर आम जनता के रोजमर्रा के जीवन से जुड़ी महँगाई, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, अशिक्षा, दहेज, अवैज्ञानिक दृष्टिकोण और स्त्री-समानता जैसे विषयों को लगातार उठाया है।
इतना सब होने के बावजूद हिंदी के नुक्कड़ नाटकों की स्थिति साहित्य में गौण करार दी गई विधओं से भी कमतर है। नाटक के इतिहास में जो नाटक गंभीर विमर्शों का हिस्सा रहे वे सभी प्रोसीनियम का हिस्सा रहे। सामान्यतः साहित्यिक विमर्शों में नुक्कड़ नाटक और उसके पाठ को यथोचित मान्यता मिली ही नहीं। मान्यतारहित ये नाटक ऐसे अनाम खाद्य की श्रेणी में रहे जैसे स्थान-स्थान भटकते हुए एक झोले में इकट्ठा किए अन्न को किसी अस्थायी चूल्हे पर चढ़ा दिया हो। साहित्य की विधिवत पाकशाला के मेन्यू में नुक्कड़ नाटक कभी शामिल ही नहीं किए गए।
आठवें दशक की शुरुआत में जब राजनैतिक नुक्कड़ नाटक सामने आए तो इनके प्रति नकारात्मक रवैया रखते हुए इन्हें 'गटर थियेटर' की संज्ञा दी गई। इन प्रस्तुतियों को सौंदर्यशास्त्रीय नजरिए से भौंडी और अधकचरी, कलाहीन, नाट्यानुशासन से परे और फूहड़ तक बताया गया। इस नए नाटक को प्रचारबाजी का नाटक कहकर उपेक्षित किया गया। इस उपेक्षा को चुनौती की तरह स्वीकार करने वाले पंजाबी के जाने-माने नुक्कड़ नाटककार गुरुशरण सिंह ने मंच के सौंदर्यशास्त्र के मुताबिक कुछ नुक्कड़ नाटकों को हेर-फेर कर मंचीय बनाने की जरूरत पर बल दिया लेकिन प्रचारबाजी के आरोप पर साफ कहा ''प्रोसीनियम थियेटर वाले भी कहते हैं कि नुक्कड़ नाटक भी कोई नाटक है, सिर्फ प्रचारबाजी है। दरअसल उनके पास जनता से जुड़ने वाली विषय-वस्तु तो होती नहीं अतः अपनी कमजोरियों को छुपाने के लिए वे भी तरह-तरह के तर्क ढूँढ़ने लगते हैं।''
दरअसल साहित्य में जनवादी चेतना के आरंभ से ही इसे प्रचारात्मक कहकर साहित्य की श्रेणी से अपदस्थ करने की कोशिशें लगातार चलती रही हैं। चूँकि नुक्कड़ नाटक भी जनवादी चेतना और मूल्यों के लिए मार्ग प्रशस्त कर रहा था तो वह भी इन हमलों से बच न सका। इस विधा को साहित्यिक सौंदर्यात्मक प्रतिमानों से रहित करार दिया जाने लगा। नुक्कड़ नाटक के उदय के उस समय को याद करते हुए असगर वजाहत ने लिखा है ''1971 के आसपास जब मैंने दिल्ली में नाटक लिखने-देखने शुरू किए तो विशुद्ध संभ्रांत नाटक का युग था। 1973-74 के आसपास नुक्कड़ नाटक लिखना और खेलना अपराध नहीं तो असभ्य काम तो माना ही जाता था। नाटक के चंद मसीहा थे और वे 'सुरुचि संपन्न' दर्शकों के लिए नाटक करते थे। एकाध अपवाद भी थे तो वे गिनती में शामिल न थे। कुल मिलाकर कहें तो यह अल्काज़ी, मोहन राकेश या इसी तरह के दूसरे रंगकर्मियों का जमाना था।'' दूसरी ओर जनवादी नुक्कड़ नाटकों के लक्ष्य, अंतर्वस्तु और रूप के बिंदु पर सर्वेश्वर जी का नजरिया एकदम साफ था ''क्योंकि गटर वालों के लिए नाटक लिखने में उनके साथ बैठना पड़ेगा, उनकी बोली में बोलना पड़ेगा, उनके भद्दे, कुरूप अंदाजों और मुहावरों को अपनाना पड़ेगा और अक्सर कपड़े गंदे करने पड़ेंगे। जनवादी नाटक सपफेदपोश बनकर नहीं विचर सकता। जो लोग यह फरमाते हैं कि नाटक को गटर में ले जाना गलत है वे अभिजात संस्कृति के पोषकों के षड्यंत्र का शिकार हो रहे हैं।''
नुक्कड़ नाटक के सौंदर्यशास्त्र को लेकर शुरुआती बहसों से लेकर आज तक उठे सवालों के बीच कई मंडलियाँ जनता की तात्कालिक समस्याओं को कलात्मक रूप से जनता के बीच रखते हुए निरंतर इस बात को सिद्ध कर रही हैं कि ये नाटक कलाविहीन और परिश्रमविहीन नहीं हैं बल्कि ये नाटक एक नए तरह के अनुशासन की माँग करते हैं। इसी नए अनुशासन को लेकर कितनी ही नुक्कड़ नाटक मंडलियाँ समय-समय पर सक्रिय रही हैं। 'अभिव्यक्ति नाट्य मंच' कोटा, राजस्थान,'अभियान' हरियाणा, 'अमृतसर कला केंद्र' पंजाब, 'अरुणोदय' आंध्रप्रदेश, 'आह्वान' मुंबई, 'इप्टा' आगरा, उरई, 'कलाजत्था' इंदौर, मध्य प्रदेश, 'जन नाट्य मंच' दिल्ली, 'जन नाट्य मंडली' आंध्र प्रदेश, 'जनम नाचा थियेटर' रायपुर, 'दस्ता' इलाहाबाद, 'दिशा' मुंबई, 'निशांत नाट्य मंच' दिल्ली, 'प्रेरणा' पटना, 'बिहार राज्य जनवादी सांस्कृतिक मोर्चा' बिहार, 'संचेतना' बिहार, 'सफदर स्मृति कानपुर, 'समुदाय जत्था' कानपुर, 'हरियाणा ज्ञान-विज्ञान समिति' आदि। इनके द्वारा खेले गए नाटकों में से कई जनता द्वारा और साहित्यिक जगत द्वारा काफी सराहे गए। 'जनता पागल हो गई है', 'कुकड़ूँ कूँ', 'घुसपैठिये', 'गटक चूरमा'; शिवराम, 'सबसे सस्ता गोश्त'; असगर वजाहत, 'गिरगिट', 'हरिजन दहन', 'राजा की रसोई'; रमेश उपाध्याय, 'जंगीराम की हवेली', 'हड़ताल'; गुरुशरण सिंह, 'मुझे बोलने दो'; राजेश कुमार, 'नई बिरादरी', 'सबका दुश्मन'; स्वयं प्रकाश, 'मशीन', 'औरत', 'राजा का बाजा', 'हल्ला बोल', 'हिंसा परमो धर्मः' आदि; जन नाट्य मंच, दिल्ली, 'टुकड़ा नहीं पूरी रोटी लेंगे' और 'अंग्रेजी की गुलामी हमें मंजूर नहीं'; निशांत नाट्य मंच, दिल्ली, 'बुशक्यांओ!!!'; सुधन्वा देशपांडे आदि चर्चित और लोकप्रिय नुक्कड़ नाटक रहे हैं। इनसे एक बात तो साफ होती है कि नुक्कड़ नाटक ने लगातार एक सार्थक हस्तक्षेप के चलते एक भिन्न कलारूप में अपनी विशिष्ट पहचान दर्ज कराई है। ये अलग बात है कि व्यावहारिक दृष्टि से इसका सौंदर्यशास्त्र जितना स्पष्ट होता जा रहा है इसकी सैद्धांतिकी पर काम की बहुत गुंजाइशें अभी बाकी हैं।
1983 में प्रकाशित नाट्य समीक्षक नेमिचंद जैन के लेख 'Street Theatre Showcased' में 'संगीत नाटक अकादमी' और 'मध्य प्रदेश रंगमंडल' के संयुक्त तत्वावधन में बी.बी. कारंत द्वारा भोपाल में आयोजित दस दिन के नुक्कड़ नाटक महोत्सव और कार्यशाला का जिक्र किया गया है जिसके दौरान रंगकर्मियों, रंगसमीक्षकों, नाटककारों, साहित्यकारों के बीच रही चर्चा में नुक्कड़ नाटक के सौंदर्यशास्त्रीय पहलुओं पर विचार हुआ... "is the street theatre yet another form of theatrical expression or is it merely a communication or propaganda method, ...Should it strive only for instantaneous communication by being direct,even simplistic, or should it also aim at being artistic: ...is there, or should there be, any specific aesthetics of street theatre?" लेख में नेमि जी ने लिखा है कि चर्चा में इस विषय पर कोई अंतिम निष्कर्ष नहीं निकला फिर भी इस बात पर सहमति बनी कि नुक्कड़ नाटक फुललेंथ प्ले का विकल्प तो नहीं है पर संवेदनशीलता, कल्पनाप्रधानता और संजीदगी के चलते ये नाटक एक ऐसा रास्ता बना सकते हैं जो प्रासंगिक भी हों और कलात्मक भी।
जब कभी नुक्कड़ नाटक के सौंदर्यशास्त्र की बात उठती है तो यह भी गौरतलब है कि ये नाटक एक खास दर्शक वर्ग के लिए सीमित होकर प्रेक्षागृहों में बँधकर रह गए अभिजनवादी रंगमंच के विरोध में भी आया था। इस रंगमंच के विरुद्ध नुक्कड़ नाटकों ने एक सांस्कृतिक चुनौती पेश की थी। अभिजनवादी रंगकर्म के सौंदर्यशास्त्रीय पक्ष 'कला कला के लिए' से परे इन नाटकों ने 'कला समाज के लिए' सिद्धांत के विकास में अपना अभूतपूर्व योगदान दिया। इसीसे आगे चलकर नुक्कड़ नाटक अपने स्वतंत्र सौंदर्यशास्त्र को निर्मित करने की दिशा में गतिशील हुआ। इसने कला को राजनैतिक-सामाजिक सरोकारों से युक्त माना। जनसाधारण के जीवन को आधार बनाकर शोषण के विरुद्ध इन नाटकों ने बिना किसी रंगमंचीय तामझाम के रचनात्मक और जरूरी लड़ाई लड़ी। साहित्य की यथार्थवादी धारा, प्रगतिशील लेखक संघ और भारतीय जन नाट्य संघ के संस्कारों से पोषित और समसामयिक राजनीतिक-सामाजिक परिदृश्य से संचालित होकर इन नाटकों ने अपनी अलग पहचान बनाई है।
साहित्य की शुद्धतावादी अवधारणा के चलते इन नाटकों का विरोध इस अवधारणा के प्रधान सौंदर्यशास्त्रीय पहलू - राजनीतिक चेतना के कारण साहित्य के कलात्मक आनंद में व्यवधन पड़ने के लिए हुआ। समाधान खोजते और जनता को रास्ता दिखाते इन राजनीतिक रूप से सचेत और जनप्रतिबद्ध नाटकों को कोरे उपदेशवादी नाटक भी कहा गया। बाद तक भी नुक्कड़ नाटक के संदर्भ में कला के मुद्दे पर चली चर्चाओं में राजनीति को लेकर बहस की जाती रही। नुक्कड़ नाटक राजनीति और कलात्मकता के बिंदु पर एक बातचीत जावेद मलिक, मलयश्री हाशमी, रति बार्थिलोम्यू, रजनी मजूमदार, बृजेश शर्मा और सुधन्वा देशपांडे के बीच हुई। इसमें वैचारिक हस्तक्षेप करते हुए बृजेश ने कहा था ''असल में सौंदर्यशास्त्र का सवाल राजनीतिक समझ का भी सवाल है। किसी व्यक्ति के नुक्कड़ नाटक करने के दो या तीन प्राथमिक कारण हैं, अपनी राजनीति को जनता के बीच ले जाना प्रमुख चीज है। यह भी कि जनता के साथ संवाद करते हुए उनकी उन सौंदर्यशास्त्रीय मान्यताओं को बदलना जो अन्य माध्यमों से बनी हैं। नुक्कड़ नाटक करते हुए ये काम भी रंगकर्मियों की राजनीतिक चेतना का हिस्सा है। मेरे अनुसार सौंदर्यशास्त्र की अवधारणा को आप राजनीति से अलग नहीं कर सकते, ये दोनों एक-दूसरे से जुड़ी हैं।'' इसलिए नुक्कड़ नाटक के सौंदर्यशास्त्रीय पहलू के संदर्भ में यह मानना न्यायोचित न होगा कि राजनीतिक प्रेरणा कलात्मक नहीं होती हैं। बहुत पहले सौंदर्यशास्त्र के इन सवालों से उलझते हुए मुक्तिबोध ने लिखा था कि कलाकार ''राजनीतिक कौशल प्राप्त करने राजनीति में नहीं जाता वरन मानव-जीवन के एक क्षेत्र में भीगने, रस लेने, ज्ञान प्राप्त करने और उसे उत्तमतर बनाने और उचित दिशा में परिवर्तन करने के लिए वहाँ जाता है। इस विशेष अर्थ में उसके लिए राजनीतिक आदर्श कलात्मक ही हैं।''
रंगमंचीय अभिजात्य के समानांतर सौंदर्य के नए प्रतिमानों की खोज में निकले नुक्कड़ नाटकों ने कला को लेकर बहस चलाई है। कई सवाल उठाए हैं - कला क्या केवल रूपगत ढाँचा है? या सच्ची कला प्रतिबद्ध होती है? कला की सत्ता क्या निरपेक्ष सत्ता है? या कला समाज, राजनीति, अर्थजगत और नई दुनिया रचने की क्षमता सापेक्ष है? नुक्कड़ नाट्यकर्मियों के जागृत सौंदर्यबोध ने इस नए नाट्य रूप की कमजोरियों की उपेक्षा नहीं की है, बल्कि इस कला-माध्यम की कमियों-सीमाओं को जानकर वे आगे बढ़ते रहे हैं। यही कारण है कि आज के कई नुक्कड़ नाटक कला की कसौटी पर प्रशंसित होते हैं। तात्कालिक घटनाओं और मुद्दों पर आधारित रहने के बावजूद वे कलाहीन नहीं हैं। नुक्कड़ नाटकों की रचना और प्रस्तुति दोनों ही आधारों पर कलात्मकता नाटककारों और रंगकर्मियों की दृष्टि में एक बेहद जरूरी आयाम है। आज ये नहीं कहा जा सकता कि चार-पाँच लोगों द्वारा किसी तात्कालिक घटना की तुरत प्रतिक्रिया में बिना किसी स्क्रिप्ट और बिना किसी कलात्मक तैयारी के जनता को भाषण शैली में किया गया संबोधन नुक्कड़ नाटक है। आज नुक्कड़ नाट्यकर्मी सचेत और सावधान तरीके से नाटक रच रहे हैं और खेल रहे हैं। प्रयोगों को लेकर भी वे सावधान हैं। चाहे गीत हों, लोकधुनों का इस्तेमाल, बारहमासा का प्रयोग, कविताएँ, कोरियोग्राफी के तहत ब्लॉकिंग और मूवमेंट, मौन रचना, दृश्य-बंध की नई युक्तियाँ, चुटीले संवाद, सफल रूपक योजना, छोटे-छोटे कई क्लाइमेक्स, द्वंद्वों से जुड़ी अंतर्वस्तु जैसे कई प्रयोग हिंदी क्षेत्र के नुक्कड़ नाट्यकर्मियों द्वारा किए जा रहे हैं।
नुक्कड़ नाट्यकर्मियों ने इसके रचना और प्रस्तुति पक्ष को लेकर कई बारीकियों को भी नजरअंदाज नहीं किया है। मसलन इन नाटकों ''की प्रस्तुति भौंडी और अधकचरी न हो''; जनम, उत्तरार्द्ध का जनवादी नाटक विशेषांक निकालने वाले सव्यसाची का कथन ''समाज का संपूर्ण विश्लेषण करना नुक्कड़ नाटक के लिए खतरनाक है'' या फिर सुधन्वा देशपांडे की बात '' नारेबाजी का नाटक मूढ़ता का नाटक है जबकि राजनैतिक प्रतिबद्धता का नाटक इसके विपरीत हलचल पैदा करने वाला जटिल, मुश्किल रंगकर्म है।''
इसी क्रम में एक सवाल हिंदी नाटक-लेखन के संदर्भ में उठाया जाना बेहद जरूरी है। अक्सर कहा जाता है कि हिंदी में मौलिक नाटकों का अभाव है। इस बात को बहुत सारे लोगों ने अलग तरीके से कहा भी है - ''हिंदी रंगमंच अनुवादजीवी है''; (रमेशचंद्र शाह),''मैं समझती हूँ कि भारतीय भाषाओं के अनुवाद जितने परस्पर विपरीत हों, वे रंगमंच के विकास में सहायक होंगे। किंतु मूल भाषा में नाटक रचना की जो माँग है उसे भी बरकरार रहना चाहिए''; (मृणाल पांडे), त्रिपुरारि शर्मा ने इस बात को और भी स्पष्ट शब्दों में कहा है, ''अभी तो हिंदी में नाटक हो रहे हैं, किंतु हिंदी का नाटक होना चाहिए। केवल भाषा ही हिंदी की नहीं होनी चाहिए, बल्कि पूरा परिवेश - मेरा मतलब है कि पूरा वातावरण भी हिंदी का होना चाहिए।'' इन कथनों के साथ नुक्कड़ नाटक लेखन को देखा जाए आज कई नाटक हमारे पास, हमारे अपने परिवेश की समस्याओं से जूझते हुए, हमारी भाषा में उपलब्ध हैं। 'उत्तरार्द्ध' का 'जनवादी नाटक विशेषांक'; (संपा. सव्यसाची), (1983), 1983 में ही चंद्रेश के संपादन में 'नुक्कड़ नाटक संग्रह', तपन बनर्जी का 'जैसे हम लोग'; (1985), असगर वजाहत के नुक्कड़ नाटकों का संग्रह 'सबसे सस्ता गोश्त'; (1990), 'जन नाट्य मंच', दिल्ली का 'चौक-चौक पर गली-गली में' भाग 1 और 2; (1990), निशांत नाट्य मंच, दिल्ली का 'अब न सहेंगे जोर किसी का'; (1992), मालमसिंह चंद्रवंशी का 'प्रजातंत्र सड़क पर'; (1995), शिवराम के दो संग्रह 'जनता पागल हो गई है' और 'घुसपैठिए'; (2001), 'जनता के बीच : जनता की बात'; संपा. प्रज्ञा, (2008), शिवराम के मृत्यु से पूर्व प्रकाशित दो संग्रह - 'पुनर्नव' और 'गटक चूरमा'; (2009)। इसके अतिरिक्त 'उद्भावना', 'कथन', 'अभिव्यक्ति', 'नुक्कड़ जनम संवाद' जैसी कई लघु पत्रिकाओं में समय-समय पर हिंदी के नुक्कड़ नाटक सामने आ रहे हैं। यही नहीं देश भर के विश्वविद्यालयों व महाविद्यालयों में निरंतर जागरूक छात्रों द्वारा नुक्कड़ नाटक सृजित व खेले जा रहे हैं। अकेले दिल्ली विश्वविद्यालय के अनेक महाविद्यालयों में नुक्कड़ नाटक के प्रति अभिरुचि निरंतर बढ़ी है। दिल्ली विश्वविद्यालय के किरोड़ीमल कॉलेज की नाट्य संस्था 'प्लेयर्स' ने शिक्षा पद्धति की खामियों और निजीकरण, उदारीकरण के कसते शिकंजे के खिलापफ 'कभी सोचा है', सेंसरशिप पर आधारित 'क्यों न देखें' तथा हाल ही में खाप पंचायतों पर आधारित 'ड्योढ़ी के पार' लिखा और प्रदर्शित किया, जिसके गीत राजेश कुमार ने लिखे और नाटक को निर्देशित भी किया। मिरांडा हाउस कॉलेज की नाट्य संस्था अनुकृति द्वारा खेला गया नाटक 'अब तो बोल' स्त्री के मान-अपमान और उसके संघर्ष की बात कहता है। विस्थापन की समस्या पर हिंदू कॉलेज की नाट्य संस्था 'इब्तदा' ने 'कहाँ जाएँगे भैया' तथा महाराजा अग्रसेन कॉलेज द्वारा किन्नरों की समस्याओं पर आधारित नाटक 'तीसरा सच' जैसे नाटक प्रस्तुत किए हैं। ये सभी नाटक अपनी प्रस्तुतियों और अंतर्वस्तु में अद्भुत रहे हैं। ऊपर दिए गए सभी उदाहरण इस बात को प्रमाणित करते हैं कि नुक्कड़ नाटक आज हमारे समय की एक सशक्त विधा है जिसमें निरंतर नए प्रयोग और नया सृजन हो रहा है। वास्तव में ये विश्वविद्यालय और महाविद्यालय वे स्थान हैं जहाँ पर देश का युवा दिल ध्ड़कता है जहाँ देश की राजनीति, दुनिया के हालात और उनमें मनुष्य के अस्तित्व और अधिकारों को लेकर युवाओं के मध्य बहस-मुबाहिसा चलता है। ये वास्तव में सृजन की नर्सरियाँ हैं, जिनसे संभव है कि आने वाले समय कुछ और सफदर निकलें।
मेरा मानना है कि जब भी नुक्कड़ नाटक के सौंदर्यशास्त्र पर बात की जाए तो एक बात को अनदेखा न किया जाए कि ये नाटक प्रतिरोध और विकल्प की राजनीति से प्रेरित और सृजित होते हैं। आज तक इनका मूल स्वरूप सत्ता पक्ष की हाँ में हाँ मिलाने का नहीं रहा है। ये नाटक मूलतः जनपक्षी व आंदोलनधर्मी रहे हैं इसलिए इनका सौंदर्यशास्त्र भी इन्हीं आधारों पर निर्मित होगा। यहाँ सवाल पारंपरिक मंचीय नाटकों के विरोध का नहीं है बल्कि एक जीवंत विध के शास्त्रीय आस्वादन मात्रा का है। ये नाटक एक तथ्य को रेखाकिंत करते हैं कि नुक्कड़ नाटक एक जनसंसद है जहाँ पर जनता सांसद भी है और मतदाता भी। वह देखती है कि देश और दुनिया में जो गैर-बराबरी और अन्याय की व्यवस्था चलती है, उससे लड़ने के औजार व विकल्प कहाँ हैं।
संदर्भ
1 . नुक्कड़ जनम संवाद
2 . पाटिलीप्रभा जन नाटक विशेषांक
3 . नटरंग अर्द्धशती विशेषांक
4 . अब न सहेंगे जोर किसी का : निशांत नाट्य मंच
5 . नुक्कड़ नाटक : रचना और प्रस्तुति - प्रज्ञा
6 . From the wings: notes on indian theatre - nemichandra jain
7 . seagul theatre quarterly - Anjum katyal [editor]
8 . मुक्तिबोध रचनावली भाग : 5
9 . उत्तरार्द्ध - संपा. सव्यसाची