चावल के दाने
बीनती,
चिड़िया शुक्रिया,
इस प्यारी सुबह के लिए
गाय के थन से मुँह लगाए बछिया,
शुक्रिया मुझमें ममत्व भरने के लिए,
छत पर काँव काँव करते, कौए शुक्रिया,
इंतजार रहेगा मेहमान का !
जाले में झूलती मकड़ी,
शुक्रिया इस ताने बाने के लिए,
इसे हटाकर होगी मेरे दिन की शुरुआत,
और पुनः बनाने की कोशिश में तुम्हारे दिन की भी,
कतार में चुन लिए जाने के लिए लेबर चौक के मजदूरों,
भाई शुक्रिया,
दास प्रथा की याद दिलाने के लिए,
कुछ नहीं कर सकता कोई,
तुम्हारे लिए,
सिवाय टूटी फूटी कविता के,
मेरे अभिमान को तोड़ने के लिए शुक्रिया,
मंदिर में दिया जल उठा है,
धूप की महक से संसार भर गया है,
बटोर लिए गए हैं सोने चाँदी के सिक्के,
वस्त्र, धन धान्य, !
शुक्रिया कहते कहते मैंने
भारीपन सा महसूस किया,
जैसे दाँत निकालने के लिए सुन्न कर दिया हो किसी ने,
मेरा मुँह...
सुन्न होने के बाद सुबह भी शायद बदल जाती है दोपहर में...
निकाल दी जाती है, जब वक्त की अक्ल दाढ़,
तो शाम हो जाती है,
दर्द भुलाने के लिए निगल ली जाती है जब अफीम,
या देशी दारू की बोतल,
या मुट्ठी भर दवाएँ,
तो साँप की केंचुली सी उतरती बोझिल रात हो जाती है।