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आलोचना

सक्रिय जनपक्षधरता : स्वयं प्रकाश की कहानियाँ

राजीव कुमार


नई कहानी एवं साठोत्तरी कहानी आंदोलनों की रचनात्मक सफलता ने एक के बाद एक ताबड़तोड़ कहानी आंदोलनों का सिलसिला चला दिया। नई कहानी अथवा साठोत्तरी कहानी के सरोकार एवं विषय-वस्तु पर चाहे जितनी आलोचनात्मक (निंदात्मक) बहस कर लें, यह स्वीकार करना पड़ेगा कि अतीत एवं पूर्ववर्तियों की रचना एवं आलोचना की उनको तर्कपूर्ण समझ थी। कुछ ठोस मुद्दों पर उन्होंने अपने को पृथक किया एवं उन मुद्दों पर उन्होंने अभिव्यक्तियाँ भी दी। विषय-वस्तु एवं परिवेश को उन्होंने अपने मानदंड पर सीमित किया एवं अपनी तय सीमा के अंदर रचनात्मक ऊर्जा से भरपूर कहानियाँ लिखीं। लेकिन आगे चलकर परिपाटी निर्माण की मानसिकता से आवेशित होकर जो विभिन्न कहानी-आंदोलन चलाए गए उन आंदोलनों में रचनात्मक ऊष्मा तो न थी, हाँ, वैचारिकी जरूर थी। इन आंदोलनों की वैचारिकी एवं रचनात्मकता में तारतम्यता नहीं बन पाई और तमाम समर्थन-लेखों, अपील एवं रोटोरिक के बावजूद कहानी का परिदृश्य उदास-सा हो गया। कहानियाँ अपने आंदोलनों के स्लोगन, निर्देश के भार को सह न सकीं और दबाव से चटखने लगीं। उसका सारा जीवन-रस रीस गया। सूखी असंपृक्त रचनाओं में दरार ही दरार नजर आने लगी। हिंदी कहानी को सूखेपन के इस अपवाद से जिन कहानीकारों ने निकाला उनमें स्वयं प्रकाश प्रमुख है। स्वयं प्रकाश की रचनात्मकता के बारे में विशेष रूप से रेखांकित करने योग्य बात यह है कि उन्होंने हमेशा जनवादी-प्रगतिशील मूल्यों के प्रति अपनी आस्था को ही नहीं बनाए रखा, बल्कि उन मूल्यों पर केंद्रित कहानियाँ भी लिखीं, बावजूद इसके उनकी कहानियों में वैचारिकी एवं रचनात्मकता का संतुलन बना रहा।

स्वयं प्रकाश की कहानियों में संतुलन का दूसरा आयाम जीवन-जगत के प्रति उनके दृष्टिकोण के स्तर पर दिखाई देता है। हम देखें कि साठोत्तरी कहानी के दौर में जबकि स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ी सारी उम्मीदें खंडित हो चुकी थीं, 62 के चीन के युद्ध के बाद बहुत पस्ती का आलम था, तब हिंदी की कहानियों में भी जीवन-जगत के प्रति भी खीज, ऊब, अवसाद का माहौल बन गया था। हताशा का यह आलम था कि प्रेम एवं दांपत्य के अति निकट रागात्मक संबंधों में भी अजनबीयत आ गई थी। बाद के अन्य कथा आंदोलनों ने कहानी की धारा को जीवन की ओर लौटा लाने की घोषणा की पर रचनात्मक स्तर पर इसे साधा नहीं जा सका। स्वीकार करना होगा कि वैचारिक स्तर पर इनमें पुख्तापन है, लेकिन वहाँ यथार्थ का स्वरूप वास्तविक की बजाय सृजित होने के कारण बहुधा कहानियों में चमत्कार वृत्ति का समावेश होने लगा। चीजें अतर्कपूर्ण होने लगीं। पुष्टि के लिए अनजान लोक के शिल्प उतारे जाने लगे। यहाँ तक की जनवादी कहानी आंदोलन की अनेक कहानियाँ गढ़ी गई होने का अहसास देने लगी। ''मजदूरों के जीवन, उनकी समस्याओं और परिवेश की जानकारी के बिना कुछ लेखक एक बार फिर 'स्टीरियो टाइप' मजदूरों को कहानी में लाने लगे। किसान-जीवन का क ख ग न जानने वालों ने भूमिहीन किसानों पर लिखते-लिखते कलम तोड़ दी।'' 1

लगभग यही दौर था जब स्वयं प्रकाश हिंदी कहानी में सक्रिय हुए थे, लेकिन कहानी में उनका जोर रूढ़ि निर्माण या पालन में नहीं था। वे ऐसे कहानीकारों में अग्रिम हैं जिनकी कहानियों के पीछे पुख्ता वैचारिक आधार होने के बावजूद कहानी कला का क्षरण नहीं होता। यद्यपि कतिपय आलोचकों ने उनकी सीमा को भी रेखांकित किया है। स्वयं प्रकाश की एक महत्वपूर्ण कहानी 'संहारकर्ता' के संदर्भ में शंभु गुप्त का मत है कि ''...यह एक असफल कहानी कही जा सकती है। जैसे स्वयं प्रकाश इसे सँभाल नहीं पाते। यह उनके हाथ से लगातार निकलती चली जाती है, रास्ते में लाने के चक्कर में लंबी होती चली जाती है। अंततः वह नहीं सँभलती और बीच रास्ते में छोड़ दी गई और समाप्ति कर दी गई।"2

यहाँ शंभु गुप्त के मत का सम्मान करते हुए कहना चाहूँगा कि 'संहारकर्ता' एक अलग स्तर एवं सरोकार की कहानी है। जनपक्ष धारा के अंदर यह आत्मसमीक्षा की कहानी है। इस कहानी की विशिष्टता यह है कि मजदूर आंदोलन के प्रति रोमानी भावावेश यहाँ नहीं है और न ही विचारधारा के प्रति अतिरिक्त कट्टरता। दूसरी ओर उसकी उपेक्षा भी नहीं है। यह कहानी एक तरीके से खुद के अंदर झाँकने की प्रक्रिया है। कहानी उन संदर्भों को तलाशती है कि आखिर क्या कारण है कि जनपक्षधर आंदोलनों को अपेक्षित सफलता नहीं मिल सकी। प्रश्न है कि उद्देश्य सर्वसमावेशी था एवं संघर्ष का जज्बा भी तो कमी कहाँ रह गई। जाहिर है कि मार्ग में कुछ विचलन आ गया था। अन्यत्र स्वयं प्रकाश ने इस संदर्भ में लिखा है, ''...एक तरह से यह मेरी ही कहानी है। जब मैं डाक-तार विभाग में था, यूनियन का सक्रिय कार्यकर्ता था और दो साल राजस्थान प्रदेश संगठन का सचिव भी रहा था। यह देखकर तब भी दुख होता था और अब और ज्यादा होता है कि हमारा ट्रेड यूनियन आंदोलन, जो देश की राजनीति की दशा बदल सकता था, अंततः अर्थवाद में फँसकर समाप्त हो गया।"3 स्वयं प्रकाश की इन्हीं चिंताओं की अभिव्यक्ति है यह कहानी।

'संहारकर्ता' उन विरोधाभासों को सामने लाती है जिनके कारण ऐसे आंदोलनों की गति सुस्त हो गई। इस कहानी के कई स्तर हैं। दुखद एवं विडंबना भरी स्थिति यह है कि हमारा सिस्टम इस तरह का है कि छोटा से छोटा काम बिना सिफारिश के नहीं होता। हर जगह सत्ता या मैनेजमेंट इस तरह का चलन बनाकर प्रतिरोध को शिथिल करता है। आम वर्कर को यूनियन लीडर के मार्फत अपना काम करवाना पड़ता है। बिटवीन द लाइंस देखें तो यह मैनेजमेंट की हमेशा से काइयाँ रणनीति रही है। वह यूनियन लीडर को इस तरह छोटे-छोटे झमेले में फँसाए रखता है, दूसरी ओर इन छोटी माँगों को मानकर उनमें सत्ता का अहंकार भरता है और उनके साथ एक किस्म का रिद्म बनाता है। यह कहना सही नहीं होगा कि यूनियन एवं मैनेजमेंट का अनिवार्य संबंध है या हर यूनियन लीडर ऐसे झाँसे में आ ही जाता है, पर जब ऐसा होता है, संघर्ष की धार कुंद होने लगती है। इस प्रक्रिया के द्वारा सत्ता या मैनेजमेंट बड़े प्रश्न को पीछे धकेल देता है तथा तत्कालिक किस्म के लेन-देन एवं समझौते की शैली को विकसित करके आमूल-चूल बदलाव से अपने को बचाता है। जरूरतों की तत्कालिकता आंदोलनों से बड़े प्रश्न छीन लेती है। जरूरतों की प्रवृत्ति तीव्र एवं तत्कालिक होती है, जबकि बड़े बदलाव के लिए लंबे संघष्र एवं त्याग की जरूरत होती है। नेतृत्व की जिम्मेदारी है कि संघर्ष में शामिल लोगों में आश्वस्ति का भाव भरे। कई बार चीजें उल्टी दिशा में चल पड़ती हैं। 'संहारकर्ता' में शीर्ष पर जोशी जी बैठे हैं जो वैसे तो गांधी प्रवृत्ति के सद्चरित्र व्यक्ति हैं। लेकिन उनमें अलग किस्म का नशा है। वे तत्कालिक अर्थवादी-समझौतावादी हैं। वे संघर्ष में नहीं तुरंत के समाधान में विश्वास रखते हैं। मैनेजमेंट से उनका संबंध लयपूर्ण है और वर्करों के छोटे-मोटे काम करवाते रहते हैं, इससे दोहरा रसूख बना रहता है मजदूर में भी, मैनेजमेंट में भी। इस प्रकार से उनकी सत्ता अक्षुण्ण है। दूसरी ओर सेवाराम उर्फ सत्यकांत है, जो अपने आलोचनात्मक दृष्टिकोण एवं ओजस्वी वक्तृत्व क्षमता के कारण फैक्ट्री से शुरू कर प्रांतीय संयुक्त सचिव तक पहुँचता है। मजदूरों की स्थिति से वह विचलित भी होता है, ''...हर बार वह यह देखकर तड़प उठता कि अपनी मेहनत की रोटी खाने वाले ये लोग अपने हक की बात के लिए, अपनी जायज माँग के लिए भी कैसे अपने ही साथ वाले एक कर्मचारी की भी चमचागिरी करने लगते हैं। क्यों?'' 4 लेकिन यूनियद पद पाने और पदक्रम में आगे बढ़ने के साथ वह आत्ममुग्ध होता जाता है। जय-जयकार, फूलमाला-गुलाल-जिंदाबाद का उस पर मारक असर होता है। जब उससे कहा जाता है 'सुझाव कॉमरेड के अच्छे हैं, लेकिन प्रैक्टिकल नहीं हैं।' तो इसका वह प्रतिरोध नहीं करता। धीरे-धीरे सत्यकांत भी तत्कालिता के रंग में रँगने लगता है। इस प्रक्रिया से आंदोलन भोथरा होता जाता है। स्थिति निश्चित रूप से प्रतिकूल है, परंतु स्थिति की विडंबना कहानीकार की आस्था को नहीं डिगाती। सामूहिकता, आमजन की संघर्षशीलता एवं विवेक में स्वयं प्रकाश की आस्था बनी रहती है। उम्मीद की किरण एवं भविष्य के लिए दृष्टि वहीं से मिलती है। सूर्यकांत के विपथ होने का इहलाम कंपनी के कर्मचारी ही कराते हैं।

आमजन अथवा निम्नवर्ग से मिलती उम्मीद की यह किरण स्वयं प्रकाश के विपुल रचना-संसार से कोई अलहदा बानगी नहीं है, बल्कि उनकी पूरी रचना-प्रक्रिया का अंग है। 'नीलकांत का सफर' भी ऐसे ही असर एवं सरोकार की कहानी है। इस कहानी में नीलकांत एक ट्रेन के ठसाठस भरे थर्ड क्लास के डब्बे में यात्रा कर रहे हैं। ट्रेन में ऐसे मध्यवर्गीय यात्री भी हैं जो पूरी बर्थ को घेरकर लेटे हुए हैं जबकि अन्य यात्रिायों को पाँव रखने भर की भी जगह नहीं मिल पा रही है। भीड़ के कारण गर्मी बढ़ गई है। खिड़कियाँ भी बंद हैं। नीलकांत खिड़की खोलने का प्रयास करते हैं तो नहीं खुलती। ऊपर की सीट पर आराम से बैठा दढ़ियल खिड़की तोड़ने की हुंकार भरता है पर सीट छोड़कर मदद को नहीं आता। वहीं एक मजदूर अपनी गेंती के सहारे खिड़की खोल देता है। परिचित संदर्भ एवं सामान्य-सी लगने वाली इस घटना में स्वयं प्रकाश पूरी तरह पूँजीवादी सभ्यता, सत्ता, मध्यवर्गीय समाज एवं मेहनतकश वर्ग के चाल-चरित्र के मेटाफर को पिरो देते हैं। आमजन दुखी है पर मध्यवर्गीय समाज अपनी लोलुपता में डूबा हुआ है। दूसरी ओर सत्ता इन सबसे गाफिल है, उसके अपने प्रपंच हैं, ''...वे लोग तो चाहते थे कि नीलकांत प्रदूषण के बारे में सोचें, जातियों के तुलनात्मक विवेचन पर सोचें, परामनोविज्ञान और आधुनिक प्रेतविद्या के बारे में सोचें, स्वीडन के मुक्त यौन और अमेरिका की स्वतंत्र पत्रकारिता के बारे में सोचें, सोचें की शास्त्री जी मरे या उनकी हत्या हुई... पर ये तो अपनी दुर्दशा के लिए दोषी कौन है? इस पर सोचने लगे। गजब हो गया।''5 इन सबके बीच उम्मीद सिर्फ मेहनतकश वर्ग से है।

स्वयं प्रकाश के लंबे रचनात्मक अवदान से गुजरते हुए उन्हें हम खुले दिमाग के सुलझे रचनाकार के रूप में पाते हैं। यथार्थ के प्रति न तो वे घोर निराशावादी रुख अपनाते हैं और न ही जनवाद के प्रति अतिरिक्त आवेशित होकर विचार सरणी का कथात्मक रूपांतरण करते हैं। इस संतुलित दृष्टिकोण एवं स्पष्ट आलोचनात्मक रुख के कारण ही वे परवर्ती कथा-आंदोलनों की जड़ता से निकलकर अपनी वैचारिक पक्षधरता को अक्षुण्ण रखते कहानी की ऊष्मा बनाए रखते हैं।

दरअसल स्वयं प्रकाश जीवन एवं समाज की गति को एकरेखीय आयाम में नहीं देखते। सकारात्मक पहल का एक कदम मंजिल की आश्वस्ति नहीं है। इसे स्वयं प्रकाश ने बार-बार रेखांकित किया है। संघर्ष के किसी बिंदु पर या जीवन के किसी मोड़ पर दिशा बदल सकती है। बीच में भी ठहराव, जड़ता, विचलन आकर प्रगतिशीलता की गति को संकटग्रस्त कर सकता है। 'संहारकर्ता' में ट्रेड यूनियन के संदर्भ में हमने ऊपर चर्चा की। एक अन्य कहानी 'अयाचित' में सामाजिक वर्जनाओं एवं रूढ़ियों के संदर्भ में इसे देखा जा सकता है। इस कहानी में अपने युवा दिनों में क्रांतिकारी रूप से जातिगत भेद को धता बताते हुए शादी करने वाले प्रेमी-प्रेमिका के सामने जब माता-पिता के दायित्व-निर्वाह का वक्त आता है तो वे बिलकुल नए रूप में अवतरित होते हैं। वे घोर पारंपरिक एवं रूढ़िग्रस्त रवैया अपना लेते हैं। दसवीं पास करते ही अपनी बेटी को उसकी मर्जी जाने बगैर ब्याह देते हैं। लड़की के सामने चयन का प्रश्न ही नहीं आता है। ऊपर से सरल-सी लगती यह कहानी व्यक्ति एवं समाज के जटिल संबंध की कहानी है। कहानी में दंपती की सामाजिक जड़ता की ओर जो वापसी है उसमें उनका अपना पोलापन तो है ही, सामाजिक रूढ़ियों की आक्रामकता भी है। अंतर्जातीय विवाह के कारण वे कुटुंब-बहिष्कृत हैं और कदाचित् समाज से भी। जीवन का एकाकीपन उन्हें तोड़ देता है। कहीं न कहीं वे समाज तलाश रहे हैं, पर विडंबना है कि यह तलाश उन्हें प्रतिगामी बनाती है। अपनी बेटी को रूढ़ियों के फ्रेमवर्क में कैद कर भविष्य के संघर्ष पर लगाम लगा रहे हैं। सामाजिक विकास की प्रक्रिया का सकारात्मक विकास द्वंद्व में होता है, परंतु यह दंपती पतनकारी शक्तियों को 'सेफरूट' दे रहा है। बावजूद इन सबके कहानी में सकारात्मकता का बीज भी है। ब्याही जा रही लड़की ने भले ही विडंबना को स्वीकार कर लिया है, पर उसकी प्रश्नवाचकता खत्म नहीं हुई है। इस बिंदु पर बिना किसी अतिरिक्त शोर के यह कहानी स्त्री-अस्मिता की कथा भी बन जाती है। इसके साथ ही यह कहानी मध्यवर्गीय समाज/व्यक्ति की परंपरा भीरुता एवं समझौतावादी चरित्र को सामने लाती है। इस वर्ग के व्यक्ति में क्रांतिकारी प्रवृत्तियाँ एक रोमान की तरह होती हैं जिसके प्रारंभिक आकर्षण के बाद वह तमाम तरह की परंपरा एवं वर्जनाओं को अपना कवच बना लेता है। इस कहानी के संदर्भ में शंभु गुप्त लिखते हैं, ''स्वयं प्रकाश दरअसल इस बात से क्षुब्ध हैं कि इन लोगों ने अपने जीवन में घटित इतनी बड़ी क्रांति, अपने इस शानदार कारनामे का अनुवर्तन नहीं किया।'' 6 शंभु गुप्त इस परिवर्तन को मूल्यगत ह्रास एवं समय-विशेष की खास परिघटना के रूप में रेखांकित करते हैं, ''यह प्रत्यावर्तन हमारे यहाँ आठवें दशक की एक ऐतिहासिक परिघटना के रूप में सामने आया, जब नवजागरण धर्मी मूल्य पीछे लौटने लगे। सामाजिक घटनाओं में ही नहीं, राजनीति अर्थव्यवस्था, शिक्षा, सामान्य शासन-व्यवस्था इत्यादि समस्त परिक्षेत्रों में यह अद्यःपतन सतह पर उभरा। स्वयं प्रकाश की यह कहानी बहुत ही नामालूम और शांत तरीके से इस परिघटना को इंगित करती है।''7

मध्यवर्गीय सोच एवं मानसिकता को लेकर स्वयं प्रकाश की कहानी 'मेरे और कोहरे के बीच' भी महत्वपूर्ण है। इस कहानी में देह शुचिता का प्रश्न बहस तत्व है। कहानी का खुद को प्रोग्रेसिव मानने वाला पति जिसका यह दावा है कि ''मैं एक खुले दिमाग का आदमी हूँ और लड़कियों के अतीत के बारे में 'चाहे वह जैसा भी हो रहा हो' मैं ज्यादा परवाह नहीं करता। बीवी के साथ भी मैंने यही किया।'' 8 इसी व्यक्ति को जब ये पता चलता है कि उसकी पत्नी जूली का शादी से पूर्व किसी अन्य व्यक्ति से देह संबंध बन चुका है तो वह बुरी तरह तिलमिला जाता है। उसके अंदर के दबे हुए सारे सामंती पुरुषवादी ढंग एवं कुंठा उभर आते हैं। लेकिन इस कहानी को स्वयं प्रकाश ने बड़ी खूबसूरती से एक बेहतर दिशा में मोड़ दिया है। उन्होंने मध्यवर्गीय दंभ एवं फरेब की पोल खोली है, लेकिन कहानी को (अति) यथार्थवादी अंत न देकर जूली के पति के अंदर व्यक्तित्वांतरण को दिखाया है। यह व्यक्तित्वांतरण सकारात्मक दिशा में होता है। अंततः वह अपनी पत्नी को 'ऑब्जेक्ट' के रूप में न देखकर मनुष्य के रूप में स्वीकारता है। स्नेह एवं प्रेम का मूल्य स्थापित होता है। बिना उपदेश के कार्यव्यापार के माध्यम से कैसे संदेश दिया जा सकता है उसका बहुत ही सुंदर उदाहरण है। जूली का पति नफरत एवं बदले की भावना से भरा ससुराल जा रहा है। जहाँ जूली अपनी बहन से मिलने गई हुई है। गहरे मानसिक झंझावात के बीच ही एक्सीडेंट होता है। होश आने पर खुद को हॉस्पिटल में पाता है। साथ में जूली को देखता है। चिंता एवं ममता से भरी। दोनों एक-दूसरे को देख रो पड़ते हैं और फिर एक-दूसरे को ढाँढ़स बँधाते हैं। स्वयं प्रकाश के सकारात्मक सोच की बनाई है यह कहानी। किसी भी व्यक्ति में या किसी भी समाज में सकारात्मक एवं नकारात्मक दोनों पक्ष होता है। रचनाकार के पूरे रचना-विस्तार में इसका संतुलन होना आवश्यक है। स्वयं प्रकाश के यहाँ 'संहारकर्ता', 'बलि', 'क्या तुमने कभी कोई सरदार भिखारी देखा?', 'पार्टीशन' आदि धुंध है तो 'नीलकांत का सफर' तथा 'मेरे और कोहरे के बीच' जैसी कहानियों की रोशनी भी है।

स्त्री प्रश्नों को लेकर सजगता, उनके साथ हो रहे सामाजिक भेदभाव पर विक्षोभ स्वयं प्रकाश की कहानियों में बार-बार आती है। 'बलि', 'अगले जनम', 'अच्छी भेन्जी' में भी इसकी विविध रूपों में अभिव्यक्ति है। 'अच्छी भेन्जी' में एक माँ के मंजिलहीन भविष्य, उसके संघर्ष एवं मानवीयता की अभिव्यक्ति हुई है। 'बलि' पूँजीवादी व्यवस्था के षड्यंत्र तले पिसने को मजबूर एक निम्नवर्गीय लड़की की त्रासद गाथा है। कहानी में लड़की अपने जिस मालिक-मालकिन के यहाँ कर रही है वह जब इसे गली के एक लड़के के साथ तुरंत उसके घर वापस कर देती है। इस वापसी के साथ ही भविष्य की सारी संभावनाओं के द्वार बंद हो जाते हैं। 'अगले जनम' हिंदी कहानी में बिलकुल अलग आयाम की कहानी है। प्रसव की पीड़ा एवं पुरुषवादी मानदंड वाले परिवार-समाज से तिरोहित हो रही स्त्री की नियति को इतने संवेदनशील ढंग से व्यक्त करने वाली हिंदी में ऐसी कुछेक कहानी ही हैं। कहानी में प्रसव की परिस्थितियों का वर्णन पाठक के अंदर गहन करुणा को जन्म देता है। इस करुणा के साथ जब वह (पाठक) पुरुषवादी मानदंड का डंडा स्त्री पर लटकता देखता है तो वह विक्षोभ से भीग जाता है। कहानी में सुमि के परिवार में लड़का ही होता रहा है, इस बार सुमि से भी लड़के का ही आग्रह है। सुमि निरंतर दबाव एवं डर में जी रही है। विडंबना भरी स्थिति यह है कि जिस बेटी को सुमि इतनी पीड़ा के बाद जन्म देती है, उसे वहाँ देखने वाला कोई नहीं है। डर और खीज के कारण सुमि के मुँह से भी निकल पड़ता है, ''मर जा।'' संवेदना के अपेक्षाकृत अपरिचित प्रदेश में पहुँचकर स्वयं प्रकाश ने इस कहानी में विषय का जिस प्रकार निर्वाह किया है, वह विरल है। इस कहानी के लेखकीय कौशल एवं स्त्री भाव-संवेदना-पीड़ा से कहानीकार के अपने को एकाकार कर लेने की स्वयं प्रकाश की विशिष्टता के संदर्भ में सुधा अरोड़ा का कहना है कि ''स्वयं प्रकाश के यहाँ ऐसी बहुत-सी कहानियाँ हैं जहाँ वह पात्र की काया में इतनी सजगता से प्रवेश कर जाते हैं कि हैरत होती है। पर इस कहानी ने मुझे हिलाकर रख दिया था। यह कहानी तो एक महिला की कलम से ही आ सकती थी। आनी चाहिए थी। पुरुष रचनाकार का नाम हटा दिया जाता तो कोई विश्वास नहीं कर पाता कि यह कहानी एक महिला की कलम से नहीं आई है। लेखक यहाँ स्त्री की काया में इस तरह प्रवेश कर गया है, जैसे कोई स्त्री अपना प्रत्यक्ष बयान दे रही है निस्संग संलग्नता से।''9

स्वयं प्रकाश ऐसे कहानीकार हैं जिनमें अपने समय की अनुगूँज निरंतर दिखाई देती है। वह चाहे सांप्रदायिकता का नया मॉडल हो या पूँजीवाद की नई एवं आक्रामक पैकेजिंग, जिस किसी मुद्दे ने व्यापक जनसमुदाय को प्रभावित किया है, स्वयं प्रकाश अपनी कहानियों में उसका संज्ञान लेते हैं। अस्सी के दशक में सत्ता प्राप्ति के लिए नए सिरे से सांप्रदायिक ध्रुवीकरण होने लगा। पंजाब से लेकर कश्मीर होते हुए अयोध्या तक इसकी लंबी शृंखला है। हिंदू-मुस्लिम समाज को आपस में बाँटने के प्रयास एवं इस प्रयास में विघटनकारी शक्तियों के बहुत हद तक सफल होने की प्रक्रिया को स्वयं प्रकाश ने 'पार्टीशन' में दिखलाया। 'पार्टीशन' में जहाँ सामाजिक विघटन का स्याह पक्ष सामने आया है। 'आदमी जात का आदमी' इस मायने में अलग कहानी है कि इस कहानी में समाज में पसरे हुए सांप्रदायिकता की मनोभूमि की स्थिति, जिसकी गिरफ्त में एक कवि भी है, की मानवीयता की ओर वापसी होती है। यशःप्रार्थी कवि सुधीररंजन कुछ तो मेजबान के संकेत और कुछ मंच लूटने की कोशिश में रामजन्म भूमि वाली कविता पढ़ने का निश्चय करता है। कवि सम्मेलन से पहले उसके इकलौते पैंट का चेन खराब हो जाता है। यह उसके लिए बड़ी समस्या बन जाती है, इससे उबरने में मुसलमान दर्जी मदद करता है। इस प्रक्रिया में अहसास होता है कि व्यक्ति की बड़ी पूँजी धर्म नहीं मानवीयता है। वह उन्माद की प्रक्रिया का सहभागी बनने से पीछे हट जाता है।

'आदमी जात का आदमी' सुधीररंजन का हृदय परिवर्तन उन्मादी माहौल के बरक्स एक उम्मीद की किरण है, जिसका दामन स्वयं प्रकाश कभी नहीं छोड़ते। दरअसल जनपक्षधर रचनाकार का यह दायित्व है कि यथार्थ कड़वे अनुभव को ही नहीं संघर्ष, मानवीयता, जनपक्षधर शक्तियों की सफलता 'जो भी है, जितना ही है' उसे भी सामने लाए। कड़वे यथार्थ की निरंतरता जनपक्षधर शक्तियों के उत्साह को मंद करती है। निरंतर संघर्ष की जरूरत की परिस्थिति में यह उचित रणनीति नहीं होगी।

जैसा कि ऊपर संकेत किया गया कि अस्सी के दशक में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के जो प्रयास हुए उनमें हिंदू एवं सिख समुदाय के बीच प्रसारित किया गया वैमनस्य प्रमुख था। यह एक स्तब्धकारी परिस्थिति थी क्योंकि दोनों संप्रदाय सदा से एक-दूसरे से घुले-मिले थे। राजनीतिक प्रपंचों के बीच द्वेष की जो स्थिति बनी वह श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या के बाद उन्मादकारी ढंग से फूट पड़ी थी। परस्पर कत्लेआम होने लगा। हिंदी में भीष्म साहनी की 'झुटपुट', अरुण प्रकाश की 'भैया एक्सप्रेस' एवं महीप सिंह की 'हँसी' आदि कुछेक कहानियों के साथ स्वयं प्रकाश की 'क्या तुमने कभी कोई सरदार भिखारी देखा?' उन चंद कहानियों में है जो इस उन्माद के दिनों की वीभत्सता को अंकित करती हैं। ट्रेन में यात्रा कर रहे सत्तर वर्षीय बीमार बूढ़े सरदार जी को उन्मादी लूटते-पीटते हैं, पर शरीफ जनता चुपचाप तमाशा देखती रहती है। इस कहानी का महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि कहानी में स्वयं प्रकाश घटना के मूल कारणों की ओर जाते हैं। उन्माद के पीछे सत्ता आकांक्षा से संचालित राजनीतिक षड्यंत्र जितना जिम्मेदार है उतनी ही जिम्मेदारी आभिजात्य वर्ग की मतलबी तटस्थता की भी है। जब चारों ओर दहशत का माहौल है, ट्रेन में गुंडागर्दी हो रही है, उस बोगी में यात्रा कर रहा आभिजात्य अपनी बेटी एवं नौजवान सहयात्री से चुहलपूर्ण बातचीत कर रहा है, यूरोप की बातें कर रहा है, शराब पी रहा है। दरअसल सहज भाषा में लिखी गई घटना प्रधान इस कहानी के अनेक महत्वपूर्ण संकेत हैं। विश्वनाथ त्रिपाठी इस कहानी के विश्लेषण के क्रम में एक महत्वपूर्ण तथ्य की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करते हैं, ''जिस निम्न और निम्न मध्यवर्ग को सर्वहारा बनना था वे सांप्रदायिक, प्रतिक्रियावादी या लुंपेन बन गए थे। इस देश में शोषकों की ऐसी निर्मम हत्याएँ, ऐसा अग्निदहन कभी नहीं हुआ जैसा अल्पसंख्यकों का हुआ और यह सब शोषकों, पूँजीवादियों, साम्राज्यवादियों ने नहीं किया। संभावित सर्वहारा, निम्नवर्ग, निम्न मध्यवर्ग ने किया।''10 यहाँ त्रिपाठी जी ने एक महत्वपूर्ण विडंबना की ओर संकेत किया है। कहानी में जो लोग सरदार जी के साथ ज्यादती करते हैं वे सबके सब मध्य एवं निम्न वर्ग के लोग हैं। विडंबना यह है कि इनकी आक्रामकता निरीहता के बरक्स है। सरदार जी बूढ़े, बीमार एवं पस्तहाल हैं। उनमें दैहिक संघर्ष की माद्दा नहीं है। लुंपेन युवा उन्हें प्रताड़ित कर अपनी कुंठा एवं दबी हुई हिंसा-वृत्ति को निकाल रहे हैं।

कहानी से जो एक और महत्वपूर्ण बात निकलकर आती है वह है मध्यवर्गीय कायरता। ट्रेन में बैठे लोगों में यह भाव तो है कि सरदार जी पर आक्रमण नहीं हो लेकिन यह भाव उनकी अपनी चिंताओं के कारण उपजा है। ये एक बार भी दंगाइयों का सक्रिय प्रतिरोध नहीं करते। इस संदर्भ में बलराज पांडेय उचित ही कहते हैं कि ''हम कितने अमानवीय होते जा रहे हैं कि एक आदमी पिटता है, बीस आदमी पीटते हैं और सैकड़ों लोग तमाशा देखते हैं। इस कहानी के माध्यम से भी स्वयं प्रकाश यही कहना चाहते हैं कि जब तक हमारी करुणा या सहानुभूति क्रिया रूप में परिवर्तित नहीं होगी, तब तक ऐसी घटनाएँ होती रहेंगी।''11 हिंदू-सिख दंगा तो फिर भी भारतीय इतिहास में एक स्याह बिंदु बनकर रह गया। वह आकर गुजर गया। लेकिन हिंदू-मुस्लिम सांप्रदायिकता तो भारतीय समाज में एक 'ट्रेंड' की तरह घर बनाकर बैठ गई है। भारतीय समाज में वह बार-बार लौट आती है। स्वयं प्रकाश ने अपनी कहानियों में बार-बार इसका प्रतिकार किया है। 'रशीद का पाजामा', 'पार्टीशन' आदि सांप्रदायिकता पर लिखी गई उनकी महत्वपूर्ण कहानियाँ हैं। सांप्रदायिकता की परिघटना को स्वयं प्रकाश सतही रूप में नहीं देखते। विश्वनाथ त्रिपाठी के अनुसार, ''स्वयं प्रकाश ने शायद पहली बार हिंदी कहानी में सांप्रदायिकता को व्यापक सामाजिक संदर्भ दिया है, यह भी समझ का, पर्यवेक्षण का और विक्षोभग्रस्त मानसिकता की रचनात्मक छटपटाहट का परिणाम है। स्वयं प्रकाश की 'पार्टीशन' हिंदी की सांप्रदायिकता विषयक सबसे महत्वपूर्ण कहानियों में है। यह कहानी उस प्रक्रिया की तलाश करती है जिसमें एक सुलझा हुआ व्यक्ति सांप्रदायिक व्यक्ति में परिणत हो जाता है। इस प्रक्रिया को दो चीजें संभव करती हैं, एक तो लंबे समय से लोगों के मन में जड़ जमाए हुए धार्मिक नफरत। लेकिन दूसरा जो इससे ज्यादा खतरनाक है और वह है समाज के तथाकथित बौद्धिक एवं निष्पक्ष लोगों का झूठ एवं उनकी कायरता। इस कहानी में पूर्व में फिरकापरस्ती झेल चुके कुर्बान भाई एक दुकान चलाते हैं और वे संजीदा किस्म के इनसान हैं। ध्यान रहे कि उन्होंने पाकिस्तान जाने का विकल्प नहीं चुना था। बहरहाल उनकी दुकान अब समाज के बौद्धिक किस्म के लोगों का अड्डा बन गया है। एक दिन एक गाड़ीवान उनकी दुकान के सामने गाड़ी लगा देता है और टोकने पर 'मियाँ' कहकर अपमानित करता है। आहत कुर्बान भाई थाने में रिपोर्ट कराने जाते हैं लेकिन रास्ते में बहाने बनाकर लोग निकल लेते हैं। थाने में मुंशी रिपोर्ट लिखने से इनकार कर देता है। उनकी दुकान पर लोगों का आना-जाना भी कम हो जाता है। इस पूरी प्रक्रिया से कुर्बान भाई इतने आहत होते हैं कि वे अपने समुदाय के उन लोगों के साथ जुड़ जाते हैं जो तत्ववादी रुझान के हैं। एक दिन वे टोपी पहनकर मस्जिद की ओर जाते दिखाई देते हैं। यहाँ स्पष्ट है कि सांप्रदायिकता भले ही तत्ववादियों द्वारा आयोजित की जाती है, लेकिन उसे गति देने में बौद्धिक वर्ग की कायरता की भूमिका है। बौद्धिक वर्ग की कायरता के कारण हमारी साझी संस्कृति का ताना-बाना बिखर रहा है। सुधीश पचौरी के अनुसार, ''कुर्बान भाई को यदि पढ़े-लिखे मुस्लिम समाज का एक प्रतिनिधि मान लिया जाए तो यह कहानी नेहरू युग की 'कंपोजिट-कल्चर' के खत्म हो जाने का प्रमाण देती है। 'तमस' में कंपोजिट कल्चर के तहस-नहस किए जाने और फिर से एक कंपोजिट कल्चर में लौटने की व्याख्या है। वह एक पुरानी साझी संस्कृति से हटकर, एक नई साझी संस्कृति की तलाश थी भले ही उजड़े हुए परिवारों के टैंटों में रहने से उसकी शुरुआत होती थी। 'पार्टीशन' उस साझी संस्कृति का अंत है।''12

स्वयं प्रकाश की कहानी 'बलि' पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली, उसको सपोर्ट करने वाली सामाजिक व्यवस्था, उसकी नीतियों को कार्यरूप देने वाले व्यक्तियों की मानसिकता एवं इस प्रक्रिया द्वारा स्थानीय संस्कृति पर पड़ने वाले प्रभाव को समझने की दृष्टि से सहायक है। एक लड़की को केंद्र बनाकर कही गई यह कहानी दर्शाती है कि किस प्रकार पूँजीवादी प्रणाली का प्रसार स्थानीय संसाधन के दोहन, उचित-अनुचित तरीके से उस पर नियंत्रण के साथ तमाम स्थानीय विशिष्टता को अपने मानदंड एवं जरूरत के अनुरूप परिवर्तित करके उस समाज को पंगु करता है और फिर जब उसके दोहन की प्रक्रिया पूरी हो जाती है तब या तो अपना मातहत बनाकर रखता है, या फिर अपने दायरे से बाहर धकेल देता है। तब तक जहाँ वह हस्तक्षेप हो जाता है। इस कहानी में आदिवासी क्षेत्र में फैक्ट्री लगाने के लिए जो कंपनी आती है वह प्रारंभ में लालच देकर लोगों को अपने गिरफ्त में लेती है और फिर उनकी जमीन हड़प लेती है। पुरुष बेकार हो जाते हैं एवं मुआवजे के लिए कचहरियों के चक्कर में फँस जाते हैं। दूसरी ओर समुदाय की लड़कियाँ कंपनी के अफसरों के यहाँ काम पर जाने लगती हैं। इन्हीं में से एक इस कहानी की नायिका भी है। लेकिन नौकरी एवं मेहनताने की सीधी-सरल प्रक्रिया नहीं है। यह दो सभ्यताओं, दो व्यवहार प्रणाली, दो मूल्यों का द्वंद्व है। लड़की मूलतः जिस परिवेश से आती है उसकी अपनी जहालत एवं विशिष्टता है। नया परिवेश उसे हिकारत से देखता है। अपनी संस्कृति एवं परिवेश के प्रति हेय भाव को देखकर प्रारंभ में लड़की में क्षोभ उत्पन्न होता है। लेकिन ज्यादा टिक नहीं पाता। नया परिवेश उसका मेटामॉफोर्सिस करता है। लड़की की चंचलता, प्राकृतिक साहचर्य एवं क्षोभ को इरेज कर पूँजीवादी प्रणाली के अनुसार उसका अनुमूलन होता है, नए मूल्य, नई व्यवहार सरणी आरोपित की जाती है। लड़की मानसिक तौर पर उस परिवार एवं उसकी व्यवहार संहिता के अनुरूप ढल जाती है, लेकिन यह रचना-बसना उस परिवार की ओर से उसकी जरूरत तक सीमित है। वहाँ उसके सपनों की स्वीकृति नहीं है। लड़की को जब प्रेम होता है, वह भविष्य के मंसूबे बाँधने लगती है, वह परिवार जहाँ वह काम कर रही है उसे वापस उस गलित में धकेल देती है जहाँ से निकली थी, पर अब तक लड़की का अपने मूल परिवेश के साथ रागात्मक तंतु टूट चुका है। अब वहाँ वह तारतम्य नहीं बना पाती। हृदयहीन व्यक्ति से ब्याह दिए जाने के बाद अंततः आत्महत्या को विवश होती है। पूँजीवादी संस्कृति के घातक दुष्परिणाम को व्यक्त करने वाली यह बेहद महत्वपूर्ण कहानी है। वरिष्ठ कथा-आलोचक नवल किशोर ने 'बलि' शीर्षक कहानी की आलोचना की है। उनके अनुसार, '''बलि' बहुत कमजोर रचना है। यह विमर्शवादी दबाव में लिखी गई कहानी लगती है, एक निम्नवर्गीय गरीब बच्ची एक भद्र परिवार में घरेलू नौकरानी रह चुकने के बाद वापसी पर अपने परिवेश और परिवार में कहीं खप नहीं पाती और इस वजह से उसकी आगे की जिंदगी एक शोककथा बन जाती है। ...यह उसी यथार्थवादी प्रकृति की कहानी है, जिसमें स्त्री-पुरुष अत्याचार का एक आसान शिकार भर होती है। यह न आदिवासी समाज का सच है और न आज की स्त्री-सशक्तीकरणवादी साहित्यिक चेतना का।'' 13 नवल किशोर जी के मत का सम्मान करते हुए यहाँ यह कहना चाहूँगा कि जिसे नवल जी आदिवासी समाज का सच न होना रेखांकित कर रहे हैं वह जंगल-पहाड़ के पर्यावरण एवं प्राकृतिक अर्थव्यवस्था पर आधारित आत्मनिर्भर आदिवासी समाज के लिए तो सच हो सकता है लेकिन पूँजीवादी विकास का विस्थापन आधारित मॉडल अस्तित्व में आया है। आदिवासियों से उनकी जंगल आधारित आत्मनिर्भरता छीन ली गई है, उसकी निर्भरता शहरी समाज की ओर उन्मुख हो गई है। इस स्थिति ने आदिवासी जीवन के सांस्कृतिक पक्ष एवं माइंड सेट को उद्वेलित कर दिया है। दूसरी संस्कृति अथवा जीवन-पद्धति उन्हें अपने अंदर स्थायी 'स्पेस' नहीं दे रही है, सिर्फ इस्तेमाल कर रही है और फिर फेंक दे रही। दूसरी ओर वे अपनी संस्कृति के वृत्त से बाहर जाकर अपनी जड़ों से भी विछिन्न हो रहे हैं। इस कहानी पर विचार करते हुए अरुण प्रकाश ने लिखा है, ''...समाज के बाजार बनने की प्रक्रिया में व्यक्ति व्यक्तित्वहीनता की तरफ लुढ़कता जाता है। आखिर वह एक दिन डिब्बाबंद जिंस बन जाती है। इस नामहीन लड़की की कहानी पिछड़े समाज की किसी लड़की पर चस्पाँ कर दी जा सकती है। ...आदिवासी समाज में बहुत कुछ सहज है। स्त्रियों का आत्मविश्वास ज्यादा सघन और पलटकर मार करने वाला आत्मविश्वास भी है। वहाँ स्त्रियों के पीछे नहीं, बल्कि अपने प्रेमी/पति का हाथ पकड़कर साथ-साथ चलती है। लेकिन लड़की शहर में रहकर 'नागरिक' होकर वह आत्मविश्वास खो चुकी है।''14 यहाँ अरुण प्रकाश ने बड़ी खूबी से कहानी की मूल संवेदना की ओर संकेत किया है। कहानी में जो विडंबना घटती है वह परंपरागत आत्मनिर्भर आदिवासी समाज की विडंबना नहीं है बल्कि उस नए आदिवासी (स्त्री-जीवन) की विडंबना है जो आक्रामक पूँजीवादी हस्तक्षेप के कारण कई तरह के संक्रमण का शिकार हो गई है और उसकी स्थिति त्रिशंकु-सी हो गई है।

पूँजीवादी छलनाओं का दूसरा आयाम 'गौरी का गुस्सा' है। इस कहानी के निहितार्थ के दो स्तर हैं - एक तो ऊपरी स्तर है, जहाँ हम पाते हैं कि याचना वृद्धि एवं तमाम किस्म की भौतिकता हमें वास्तविक सुख नहीं दे सकती। एक के बाद एक, गौरी के आशीर्वाद से प्राप्त होती तमाम समृद्धि रतनलाल अशांत को क्षणिक शांति देकर गहन बेचैनी दे जाती है। लेकिन भौतिक संसाधनों की अबाध उपलब्धता के बावजूद सुख प्राप्त न होने से परे ज्यादा महत्वपूर्ण संदेश कहानी में मौजूद दूसरे निहितार्थ में है, जो इसकी आंतरिक तटों में है, जहाँ प्रवेश पाने पर पाते हैं कि कहानी में एक बेहतर समाज की परिकल्पना का बीज है। कहानीकार कहानी में व्यवस्था के चरित्र, सरकार की अस्थिरता एवं दृष्टिहीनता, अट्टालिकाओं के तले गंदी झुग्गियों के पॉकेट्स, भोग की संस्कृति आदि पर लगातार कटाक्ष करता चलता है और प्रकारांतर से यह दर्शाता है कि समाज के व्यापक हिस्से में जब तक अँधेरा है, कोई भी व्यक्ति व्यक्तिगत चकाचौंध जितना रच ले वह उसके लिए वास्तव में सुखकर नहीं हो सकती। 'गौरी का गुस्सा' में स्वयं प्रकाश ने पूँजीवादी घटनाओं से अपनी अंतहीन अतृप्ति को रेखांकित किया है। शंभुनाथ के अनुसार, ''...इन दिनों जब उपभोक्तावाद को बेइंतहा पनपने का मौका मिला है, हजारों साल की भारतीय निराशाओं और कुंठाओं के विस्फोट से एक अनोखे किस्म का भोगवाद निकला है। आदमी के कर्तृत्व पर उसका भोक्तृत्व प्रबल हो उठा। वह एक निष्क्रिय आस्वादकर्ता बन गया है। स्वयं प्रकाश ने 'गौरी का गुस्सा' में यथार्थ और फैंटेसी की मिलावट से उपभोक्तावादी आत्मछल का सुंदर चित्र खींचा है।'' 15

'गौरी का गुस्सा' में स्वयं प्रकाश ने पूँजीवादी छलनाओं की निस्सारता को सीधे-सीधे व्यक्त किया है तो 'संधान' में इसी का दूसरा आयाम है। इस कहानी के संदर्भ में रेखा सेठी लिखती हैं, ''संधान सामाजिक जीवन के नए केंद्र को उद्घाटित करती है जहाँ पैसे से खरीदी जाने वाली सुविशाओं के बिना छोटे कस्बों में रहने वाला आदमी अपनी सामान्यता पर लज्जित हैं। शर्मिंदगी का अहसास अब बड़ी बातों के लिए नहीं होता।''16 यहाँ रेखा सेठी 'संधान' शीर्षक कहानी की जिस खूबी की ओर इधारा कर रही हैं वह कहानी का एक महत्वपूर्ण आयाम है। कहानी में जब विश्वमोहन जी का परिवार महानगर की यात्रा करता है तो वहाँ की चकाचौंध से अभिभूत रह जाता है। परिवार का इस कदर अभिभूत होना हमारे विकास यात्रा की पोल भी खोलता है और यह दिखाता है कि किस प्रकार एक ही देश में संपन्नता एवं विपन्नता के अलग-अलग टापू हैं। हर टापू अपने में संकुचित है, दूसरे की दुनिया तिलिस्म-सी लगती है। महानगर में विश्वमोहन जी के परिवार को सब कुछ अविश्वसनीय-सा लगता है, ''महानगर एक चकित कर देने वाला अनुभव था। बच्चे गरदनें उठा-उठाकर ऊँची-ऊँची इमारतों की ऊँचाई देख रहे थे और उनकी मंजिलें गिन रहे थे। पत्नी इतनी चकित थीं कि मानो अभी अपने आप को चिकोटी काटकर देखेंगी।''17 लेकिन इस कहानी की एक और खूबी यह भी है कि स्वयं प्रकाश ने महानगर की संपन्नता, एश्वर्य को दर्शाते हुए कस्बे या गाँव को दयनीय नहीं बनाया है। यदि गाँव-कस्बे का वंचना का शिकार आदमी शहर के लिए लालायित है तो शहर से ऊबा आदमी कस्बे एवं गाँव में राहत पाता है। कहानी में विश्वमोहन जी का दोस्त विश्वमोहन जी के पास कुछ दिनों के लिए आता है। यहाँ के जीवन में रच-बसकर, गाँव-घर की यात्रा कर अपने आप को ज्यादा संपन्न (धन नहीं प्रेम आत्मीयता से) पाता है। यहाँ स्वयं प्रकाश जी ने दो बातों का संधान किया है - एक तो यह कि गाँव एवं शहर एक-दूसरे के बरक्स खड़े न होकर एक-दूसरे के पूरक बने तो यह ज्यादा सुंदर होगा। दूसरी बात यह है कि मानवीय जीवन की संतुष्टि लालसापूर्ति में नहीं परस्परता में है।

'गौरी का गुस्सा' में अंतहीन लालसा की परिणति है तो 'बर्डे' में मध्यवर्गीय काइयाँपन लालच, ले-दे वाली सामाजिकता की आलोचना है। बच्चे का बर्डे श्रीमती बैजल के लिए अपनी नफासत, आभिजात्य, मेहमाननवाजी, पाककला महारथ के प्रदर्शन का अवसर है। स्वयं प्रकाश ने इन सबकी व्यर्थता को इस कहानी में रेखांकित किया है। कहानी में बर्डे ब्वाय को वास्तविक खुशी आभिजात्य प्रदर्शन से नहीं ताँगे वाले के प्रेम से मिलती है। भौतिकता एवं अमानवीयता की कथा 'नैनसी का धूड़ा' में भी कही गई है। यह कहानी धूड़ा (बैल) के माध्यम से जानवर के साथ होने वाले अत्याचार को सामने लाती है। दूसरे स्तर पर धूड़ा की नियति सत्ता एवं संसाधन से वंचित, शक्ति-संरचना से बाहर खड़े बेबस-मूक आदमी की नियति का मेटाफर है। उसमें जब तक संभावना है, दोहन किया जाता है, फिर उसे अपनी मौत मरने के लिए छोड़ देता है।

स्वयं प्रकाश की कहानी लेखन का एक महत्वपूर्ण आयाम है रूढ़िवादिता की कूपमंडूकता से मुक्ति का प्रयास। उनकी कहानी में संघर्षशील जनता को संकीर्णता एवं धर्मभीरुता से बाहर निकालने का प्रयास निरंतर जारी रहता है, और उनकी कहानी कला की अद्भुत विशेषता है कि ऐसा वे लेखकीय हस्तक्षेप अथवा नैरेटर के वक्तव्य के रूप में नहीं करते, बल्कि कहानी के कार्य-व्यापार के बीच से ही ये चीजें निकलकर आती हैं। 'सूरज कब निकलेगा' स्वयं प्रकाश की एक महत्वपूर्ण कहानी है। यह कहानी हृदयहीन सामंतवादी, गरीबी, विकल्पहीनता एवं जिजीविषा की बिलकुल अलग आयाम की कहानी है। दूसरे स्तर पर यह धर्मभीरुता के सनातन जकड़बंदी को तोड़कर बाहर निकल आने की कहानी है। कहानी की पृष्ठभूमि में प्राकृतिक आपदा है। बीसियों साल बाद मुल्क मारवाड़ में जोरदार पानी बरसता है। लोगों को खेती की उम्मीद बँधाती है लेकिन यह बारिश धीरे-धीरे तांडव का रूप ले लेती है। सब कुछ डुबोने वाला बन जाता है। इसी बारिश में भैराराम एवं सुगनी भी फँस जाते हैं। रात में बारिश बढ़ती जाती है, खतरा बढ़ता जाता है इस प्रक्रिया में अपने परिवार को बचाने का भैराराम का प्रयाय जिजीविषा की अद्भुत मिसाल है। लेकिन कुछ नहीं बचता और इस तरह ईश्वर से उसकी उम्मीद चूकता चला जाता है। साँप काटने से उसका छोटा बेटा मर जाता है। प्रारंभ में वह ईश्वर से कृपा की याचना कर रहा था बाद में वही भैराराम एवं सुगनी ईश्वर को प्रश्नांकित करने लगते हैं, ''...दोनों ने ऊँची आवाज में भगवान को धमकियाँ देना चालू कर दिया। वही भैराराम जो कुछ देर पहले तक भगवान को तरह-तरह के लालच देना चाह रहा था, अब उसे धमकियाँ दे रहा था, और धमकियाँ ही नहीं, बुरी-बुरी गालियाँ भी दे रहा था - और सुगनी इसका जरा भी विरोध नहीं कर रही थी।''18

स्वयं प्रकाश ने मनुष्य के व्यवहार की स्वाभाविकता को बनाए रखते हुए यहाँ जिस प्रकार मुक्ति की प्रक्रिया एवं व्यक्तित्वांतरण को दिखलाया है वह काफी महत्वपूर्ण है। कपिल देव के अनुसार, ''वैचारिक आपरेशन के उस दौर में भी कहानी को खुली व्याख्याओं के लिए मुक्त रखने की चेतना स्वयं प्रकाश को उनके तमाम समकालीनों से विशिष्ट बनाती है। स्वयं प्रकाश की यही मुक्ति चेतना तमाम विश्वासों, आग्रहों और विधि निषेधों के साथ छेड़छाड़ करते हुए यथार्थ की नई-नई सिक्ते तलाशने का साहस देती है। 'सूरज कब निकलेगा' में मृत्युमुखी उस काल रात्रि के बाद सूरज निकला अवश्य। लेकिन जहाँ भैराराम की विपत्ति का अंत होना था वहाँ से विपत्ति का नया आयाम शुरू होता है।'' 19 सामान्य लंबाई की कहानियों के साथ ही स्वयं प्रकाश ने अपनी लघु कहानियों के माध्यम से भी अनेकानेक संवेदनात्मक मुद्दों को उठाया है। यहाँ भी उन्होंने किसी प्रकार का तयशुदा मानदंड नहीं रखा है, बल्कि हमेशा की तरह उनका जोर प्रसंग में निहित विडंबना के उजार करने पर है। उन्होंने 'एक खूबसूरत घर' तथा 'पाँच दिन और औरत' में सामाजिक-पारिवारिक व्यवस्था में स्त्री की नियति को उजागर किया है। 'एक खूबसूरत घर' में हम पाते हैं कि परिवार की मम्मी की यद्यपि कुछ इच्छाएँ हैं, ''...चेहरे पर से झाइयाँ हटाने के तरीके उन्होंने पत्रिकाओं में पढ़े थे, बालों को लंबे, काले और घुँघराले बनाने की तरकीबें उन्होंने खुद कइयों को बताई थीं लेकिन अब ये सब उनकी रुचियों के केंद्र में नहीं, परिधि पर चला गया है।''20

दरअसल हमारा जो सामाजिक ढाँचा है उसमें स्त्री की नियति परिवार को चलाने में अपनी निजता को घुलते जाना है। पुरुष की चिंता के साथ रहना और उनकी चिंता करना महिलाओं का स्थायी फर्ज बन गया है। इस वस्तुस्थिति की वास्तविकता को ही यह कहानी रखती है। 'पाँच दिन और औरत' में इस तथ्य पर प्रकाश डाला गया है कि जेंडर का जो एलिट डिस्कोर्स है वह कितना वायवीय है। वर्ग विभाजित समाज में जेंडर के अंदर भी वंचना एवं संघर्ष के दायरे अलग-अलग हैं। एक ही दौर में सर्किट हाउस में श्रीमती दगड़े का स्त्री अधिकारिता एवं संघर्ष पर जोरदार व्याख्यान हो रहे हैं उन्हीं दिनों सड़क के चौराहे पर फटेहाल हालात में रह रही औरत किसी की संवेदना का हिस्सा नहीं बन पाती। उसकी फटेहाली का तमाशा बनता है और एक दिन वह पुल के नीचे मृत पाई जाती है।

'अकाल मृत्यु' व्यवस्था की नब्ज पर हाथ रखने वाली महत्वपूर्ण कहानी है। फुटबॉल में संभावनाशील इम्मी राज्य टीम में सेलेक्ट नहीं हो पाता क्योंकि गहलौत सर की 'अजीब माँगों' को वह पूरा नहीं कर सकता। कमजोर आर्थिक हैसियत के कारण स्कूल में प्रताड़ित होता रहता है क्योंकि वह स्कूल फी नहीं दे पाता। स्कूल में फी माफी की शर्त यह लगाई जाती है कि पहले वह राज्य टीम में सेलेक्ट हो। इस तरह वह ऐसे दुष्चक्र में फँसता है जिससे निकासी का कोई रास्ता नहीं है। ऐसे ही हालात में एक दिन पिता की मृत्यु हो जाती है। यह मृत्यु इम्मी की प्रतिभा का अकालमृत्यु साबित होती है। एक संभावनाशील खिलाड़ी सब्जी का ठेला लगाने वाला बनकर रह जाता है।

सांप्रदायिकता के कुछ रूपों को हमने 'पार्टीशन', 'क्या तुमने कभी कोई सरदार भिखारी देखा?' आदि में देख चुके हैं। यह विडंबना है कि रूढ़िवादियों एवं विघटनकारियों ने इसकी जड़ें काफी गहरी कर दी हैं। इसका पूर्वाग्रह इतना प्रबल एवं रूढ़ हो चला है कि कर्मकांडीय स्तर पर एक-दूसरे से विद्वेष तो जाने दें, धार्मिक समुदाय विशेष के रहन-सहन, वेशभूषा को रूढ़ चिह्न बना दिया गया है। नफरत और प्रेम इन्हीं बाह्य चिह्नों के आधार पर होता है। 'चौथा हादसा' शीर्षक कहानी में हिंदू नैरेटर के दाढ़ी एवं बोली के लहजे के कारण प्याऊ पर बैठी महिला धार्मिक पहचान पूछती है। एक यात्रा के दौरान एक धर्म-विशेष के लोग छींटाकशी करते हैं तो दूसरे स्वागत करते हैं। समाज की धार्मिक जड़ता एवं सांप्रदायिक विलगाव को दर्शाने वाली यह महत्वपूर्ण कहानी है। यह कहानी हमारे समाज में घर कर गए पूर्वाग्रह का पारामीटर है। कहानी के माध्यम से यह भी सामने आता है कि मानो हमारा समाज सांप्रदायिक कवायद के लिए हर पल तैयार है।

'बलि' में पूँजीवादी विकास-प्रक्रिया का एक रूप देखा था। उसी का दूसरा रूप 'बिछुड़ने से पहले' शीर्षक कहानी में देखा जा सकता है। इस कहानी में खेत एवं पगडंडी के वार्ता के द्वारा पूँजीवादी वर्चस्व प्रक्रिया एवं प्रकृति के दोहन की कथा कही गई है। दरअसल पूँजीवादी वर्चस्व में लघुता को प्रभुता निरंतर विनष्ट कर रहा है। फिर वह लघु रूप में स्थानीय संस्कृति का हो, आम मनुष्य का हो अथवा प्रकृति का होता था। इसी वर्चस्व प्रक्रिया का मेटाफर यह कहानी है। पगडंडी लघुता का रूपक है जबकि सड़क शक्ति और विराटता का।

यद्यपि स्वयं प्रकाश सामाजिक यथार्थ को पर्याप्त महत्व देते हैं लेकिन उसके धूमिल रूप को ही नहीं जीवन में और कई तरह के राग-रंग हैं उसे भी अपनी रचना में पिरोते हैं। 'आखिर चुक्कू कहाँ गया' मानवीय संवेदना में आस्था उत्पन्न करने वाली मार्मिक कहानी है। राधेश्याम का जूता खो जाता है तो उसे वह बेचैनी से ढूँढ़ता है लेकिन पता चलता है कि एक बूढ़े-बूढ़ी का सहयोग कर रहा है तो वह उसे वहीं छोड़ देता है। इसी तरह 'क्या तुलसीदास झूठ बोल रहे थे' अद्भुत घटना को चमत्कार की बजाय जिजीविषा से संबद्ध किया गया है। 'अंतर्यामी' में एलीट अहंकार को तोड़ा गया है। नाजी को राजा के खासमखास होने का इसी नाते सब कुछ जानने का देय है लेकिन हाजी अपनी सहज बुद्धिमत्ता से हर बार हरा देता है। 'सांत्वना पुरस्कार' में युवा दिनों के उद्धत प्रेम में बेवकूफियों की कथा है लेकिन इसकी खूबसूरती इसमें है कि लड़की अपनी सहजता से प्रेमी में उत्साह को नियंत्रित कर देती है।

स्वयं प्रकाश की रचनात्मकता का दायरा विविधता भरा है। विषय का प्रसार व्यापक है। संप्रेषणीयता एवं भाषा की सहजता उनमें लगातार बनी रहती है। कहीं भी वे 'डिक्शन' के मोह में नहीं पड़ते, लेकिन प्रतिगामी शक्तियों पर कटाक्ष एवं मध्यवर्गीय लोलुपता पर व्यंग्य की मौजूदगी लगातार उनकी कहानियों में है। यदा-कदा उन्होंने प्रतीकात्मक एवं रूपक में भी कहानी लिखी है, लेकिन वहाँ भी संप्रेषणीयता बाधित नहीं होती। 'बाबूलाल तेली की नाक' में जाति-विभक्त समाज की विडंबना को दर्शाने के लिए देशज शैली का इस्तेमाल किया है तो 'गौरी का गुस्सा' में मिथक का सहारा लेकर उपभोक्तावादी लालसा की आलोचना को तीक्ष्ण कर देते हैं।

संदर्भ :

1. असगर वजाहत, जनवादी कथा रचना की समस्याएँ, जनवादी कहानी के दस वर्ष, पृष्ठ. 63

2. कहानी : वस्तु और अंतर्वस्तु, वाणी प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली, संस्करण 2013, पृष्ठ. 201

3. भूमिका, स्वयं प्रकाश, दस प्रतिनिधि कहानियाँ, किताबघर प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली, संस्करण 2008, पृष्ठ. 9

4. दस प्रतिनिधि कहानियाँ, स्वयं प्रकाश, किताबघर प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली, पृष्ठ. 93

5. वही, पृष्ठ. 14

6. कहानी : वस्तु और अंतर्वस्तु, शंभु गुप्त, राधाकृष्ण प्रकाशन, प्रा.लि., दरियागंज, नई दिल्ली, संस्करण 2015, पृष्ठ. 206

7. वही, पृष्ठ. 208

8. इक्यावन कहानियाँ, स्वयं प्रकाश, समय प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण 2003, पृष्ठ. 76

9. बेटियों का जिंदा रह जाना एक चमत्कार से कम नहीं होता (लेख), बनास-प्रवेशांक, बसंत 2008, पृष्ठ. 254

10. कुछ कहानियाँ, कुछ विचार, विश्वनाथ त्रिपाठी, राजकमल प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली, संस्करण 1998, पृष्ठ. 148

11. सादगी की संघर्ष-गाथा (लेख), बलराज पांडेय, बनास, प्रवेशांक, बसंत, 2008, पृष्ठ. 139

12. उत्तर-यथार्थवाद, सुधीश पचौरी, वाणी प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली-2, संस्करण 2004, पृष्ठ. 71

13. लोकधर्मी शिल्प में, जनसत्ता, 6 जुलाई, 2014, पृष्ठ. 6

14. लंबी कहानी : अतल के लय की खोज (भूमिका), लाखों के बोल सहे (कहानी-संग्रह), स्वयं प्रकाश, प्रवीण प्रकाशन, 1/1079 ई, महरौली, दिल्ली-30, संस्करण 1995, पृष्ठ. 20-21

15. शंभुनाथ, भय और आशा के बीच (लेख), बनास जन, प्रवेशांक, बसंत 2008, पृष्ठ. 184

16. अंधी दौड़ की हिंसा, जनसत्ता, रविवार, 26 नवंबर, 2006

17. दस प्रतिनिधि कहानियाँ, स्वयं प्रकाश, किताबघर प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली, संस्करण 2008, पृष्ठ. 129

18. इक्यावन कहानियाँ, स्वयं प्रकाश, समय प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण 2003, पृष्ठ. 98

19. कपिलदेव, तात्कालिकता के नए अर्थ और प्रयोजन (स्वयं प्रकाश की कहानियाँ), लेख, कथ्य-रूप, अंक 25, पृष्ठ. 11

20. छोटू उस्ताद, स्वयं प्रकाश, किताबघर प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली, संस्करण 2015, पृष्ठ. 71


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हिंदी समय में राजीव कुमार की रचनाएँ