मंच पर ऊंचे -नीचे प्लेटफार्म। दायें विंग की ओर एक सीढ़ी। पूरे मंच पर प्रकाश है। नाटक की नायिका विजया विंग से निकल कर भागती हुई आती है।
विजया : बस नाटक शुरू ही होने वाला है। दरअसल मैं डायरेक्टर को बिना बताए आपके सामने आ गई हूं। यह मेरा पहला नाटक है न! सोचा, आप से रिक्वेस्ट कर लूं कि आप नाटक भले ही न समझें लेकिन, मुझे जरूर समझ लें। प्लीज! मेरा मतलब यह नहीं है कि इस नाटक के डायरेक्टर कोई अनाड़ी हैं। अरे, वह तो बहुत ही काबिल और मशहूर डायरेक्टर हैं। दरअसल अनाड़ी मैं ही हूं। कहने को मैं इस नाटक की नायिका हूं लेकिन मैं जानती हूं कि यह एक लॉलीपॉप है जो हर नए आर्टिस्ट को दिया जाता है। बस यही कि वह उस नाटक का नायक है, नाटक की नायिका है, उसका रोल कितना खास है वगैरह-वगैरह। बहरहाल... मैं कौन हूं, क्या हूं, यह आप नाटक में देखेंगे ही। मेरे पहनावे से ही आपको लग रहा होगा कि मैं किसी मिडिल क्लास फैमिली का कैरेक्टर हूं। मुझे मालूम है कि मैं सुंदर नहीं हूं, नहीं तो आप सीटी जरूर बजाते। लेकिन मैं बदसूरत भी नहीं हूं। हां, क्योंकि आप मुझे बरदाश्त जो कर रहे हैं। कुल मिला कर मैं एक लड़की हूं जिसे आप टाइम पास करने के लिए कामचलाऊ तो समझते ही होंगे। (सहसा गंभीर हो कर) हां... मैं लड़की हूं। मैं जब पैदा हुई तो लोगों ने कहा - बधाई हो!... लक्ष्मी आई है! घर को धन-धान्य से भर देगी। मां ने पैरों में पायल बांध दी। छोटी थी न। छन-छन करती पायल। जब मैं आंगन में चलती तो लोग कहते - मंदिर में घंटियां बज रही हैं! फिर, जब सरकारी स्कूल में पढ़ने जाने लगी तब भी सब ठीक था। मैं छोटी ही थी। लेकिन जब मैं कॉलेज गई, तो अचानक बड़ी हो गई, और मेरा वजन भी बहुत भारी हो गया। मैं इतनी भारी हो गई, इतनी भारी हो गई कि उसके बोझ की थकान मम्मी-पापा के चेहरों पर देखने लगी। ऐसा हर घर में होता होगा न? कम से कम आपके जैसी मिडिल क्लास फैमिली में? माफ कीजिएगा, मैंने आपको मिडिल क्लास फैमिली का कह दिया। आपको बुरा तो नहीं लगा न? दरअसल मैं मम्मी-पापा को दुःखी नहीं देख सकती थी इसलिए...
नाटक की घंटी बजती है , विजया विंग की ओर देखती है और तेजी से बोलने लगती है।
फिर अपना वजन कम करने के लिए घर के अंदर ही दौड़-भाग करने लगी। बाजार जाती नहीं थी क्योंकि कहीं किसी चीज के लिए मन ललक गया तो? किसी सहेली से मिलती भी नहीं थी कि कहीं कुछ पूछ लिया तो?
दूसरी घंटी बजती है , विजया जल्दी-जल्दी बोलने लगती है।
नहीं-नहीं, ऐसी-वैसी कोई बात नहीं है। फिर आप सोचते होंगे कि अगर मैं ऐसी
ही थी तो नाटक में कैसे आ गई? तो हुआ यह कि...
अचानक अंधेरा होता है।
(जाते-जाते, चीख कर) प्लीज मेरा सपोर्ट करिएगा! मेरा पहला नाटक है!
क्रमशः मंच पर प्रकाश , पिताजी नहा-धो कर, एक हाथ में अगरबत्ती और दूसरे हाथ से घंटी बजाते हुए आते हैं।
पिताजी : सकल सुमंगल-दायक, रघुनायक गुणगान ।।
सादर सुनहिं ते तरहिं भव, सिंधु बिना जलयान ।।
सियावर रामचंद्र की जय! पवनसुत हनूमान की जय! हे प्रभू! आज का दिन अच्छा बीते।
चारों दिशाओं को नमस्कार करते हैं। अगरबत्ती खोंसते हैं। मां अखबार ले कर आती हैं। पिताजी अखबार लेते हैं , बदले में घंटी थमाते हैं। बाहर से एक आवाज आती है - पोस्टमैन! एक चिट्ठी आकर गिरती है। मां विराज जाती हैं।
कौन है रे! क्या जमाना आ गया है। चिट्ठी ऐसे फेंकता है जैसे बेगार कर रहा हो। अरे भई तनख्वाह मिलती है तुम्हें चिट्ठी पहुंचाने की, न कि चिट्ठी फेंकने की। कहीं पानी-वानी में गिर जाती तो? (चिट्ठी उठाते हुए) वाह प्रभू! क्या टायमिंग है! इधर मैंने मांगा कि दिन अच्छा बीते, उधर तुमने चिट्ठी पठा दी ।
पुत्रजी : (सीढ़ी पर से) अरे ओ पिताजी! मैडम की चिट्ठी हो तो इधर पास करिएगा।
पिताजी : अबे लंगूर! बोलने का शऊर सीख पहले।
पुत्रजी : कुछ मैंने गलत कहा? (पास आ कर) किसकी चिट्ठी है?
पिताजी : मेरी है। ले पढ़ेगा?
पुत्रजी अजीब - सा मुंह बनाते हुए वापस सीढ़ी की ओर। पिताजी चिट्ठी पढ़ते हैं। चेहरा बदल जाता है।
मां : किसकी चिट्ठी है?
पिताजी : वही कानपुर वालों की।
मां : क्या लिखा है?
पिताजी : वही। जो सभी लिखते आए हैं। लड़की पसंद नहीं आई।
मां : सीधे यही लिख दिया?
पिताजी : अरे क्या फर्क पड़ता है? सीधे लिखें या घुमा कर। मतलब तो वही निकलता है न! लिखा है कि आजकल बिना बच्चों की मर्जी के फैसला नहीं लिया जा सकता। हमें तो रिश्ता मंजूर था लेकिन लड़के को लड़की पसंद नहीं आई, इसलिए हम मजबूर हैं।
मां : ऐसे ही गोरखपुर वालों ने भी लिखा था। इसलिए हम 'मजबूर' हैं!
पिताजी : सब मेरी गलती है।
मां : तुम्हारी गलती तो हई है।
पिताजी : हां विजया की मां, स..ब मेरी गलती है।
मां : (जोरों से) तुम्हारी गलती तो हई है! !
पिताजी : न शादी करता, न ये सब झंझटें होतीं। (माताजी चौकन्नी) लेकिन पिताश्री ने कहा कि बेटा, शादी न करोगे तो माखनपुरा वालों का 'वंश' कैसे चलेगा! तो ये है माखनपुरा वालों के वंश का हाल। इकलौती लड़की की शादी नहीं हो रही है, इकलौते लड़के को नौकरी नहीं मिल रही है। भला हुआ मौसिया जी का, जिन्होंने बाबूगीरी पर रखवा दिया नहीं तो पुरातत्व वाले ढूंढ़ते रह जाते माखनपुरा वाले गंगा प्रसाद के वंश को।
मां : हमारे कदम रखते ही तुम्हारी नौकरी लगी थी हमें याद है।
पिताजी : (माताजी को घूरने के बाद) बस! तुम्हारा सारा का सारा भाग्य बस उसी घड़ी भर में सिमट गया रहा। बाद में एक भी लक्षण के दर्शन नहीं हुए। एल.डी.सी. से भर्ती हुए एकाउटैंट पे रिटायर हुए। चाली...स साल में!
मां : प्रमोशन मिला तो। ये मेरा भाग्य नहीं तो किसका भाग्य है?
पिताजी : चालीस साल...में! एल.डी.सी. से एकाउटेंट! इस भाग्य पर फूल रही हो?
मां : काहे। ससपेंड नहीं हुए, निकाले नहीं गए, हथकड़ी नहीं पड़ी, जेल नहीं गए, ये क्या कम है? ये किसका भाग्य है?
पिताजी : अरे हां। यह तो मैंने सोचा ही नहीं था।
मां : अब सोचते ही न बैठे रहो। जब भी विजया की शादी का जिकर छेड़ती हूं, अपनी नौकरी का पुराण लेकर बैठ जाते हो। कानों की जूं मर गईं सुन-सुनके। पता नहीं कब जाएगी ये लड़की इस घर से! इसके उमर की सारी छोरियां ब्याह गईं, बस यही बाकी रही। एक तो यह बन-संवर के भी नहीं रहती! मनहूस-सी आ जाती है सब के सामने। अरे बाल तक तो संभाल कर रखती नहीं। कोई पसंद भी करे तो कैसे!
पिताजी : क्या समय आ गया है। एक वो भी समय था। मां-बाप जहां कह दिए शादी हो जाती थी। न देखना न दिखाना। विजया की मां, क्या मैं तुम्हें देखने गया था?
मां : पता नहीं।
पिताजी : (झल्लाकर) अरे नहीं गया था! (मां की नकल) पता नहीं। अरे गया होता तो!
मां : (माताजी फिर चौकन्नी) तो?
पिताजी : तब भी शादी करता! मां-बाप के सामने न कहने की हिम्मत थी किसी की? और आज देखो, खुद मां-बाप लड़की को माडल बनाकर पेश कर रहे हैं, हीरोइन बनाकर पेश कर रहे हैं। कि जैसे भी हो, लड़की लड़के को पसंद आ जाये बस!... मुझे दहेज में क्या मिला था याद है? एक भैंस। इसलिए कि लड़का दूध-घी खाये मस्त रहे। और आज देखो, होड़ लगी है बाप-पूत में। कौन कितना चूस सकता है लड़की वालों को। बाप कहता है मारुती, तो बेटा कहता है... टोयटा..। विजया की मां, अगर हमारे पास आठ-दस लाख होते न, तो विजया कब की ब्याह जाती, घर में न बैठी रहती! आज पैसे के आगे रंग-रूप तो क्या, चरित्र तक बिकाऊ है। यह और कुछ नहीं है। दुर्भाग्य है विजया का। उसका बाप गरीब है न! इसीलिए.. सिर्फ इसीलिए विजया की मां, विजया बदसूरत है, मनहूस है आदि.... आदि...। सब मेरी गलती है।
मां : दे चुके भाषण? अब यहां बात टूट गई है तो कहीं और चलाओ। घर में भाषण देने से काम नहीं चलेगा।
पिताजी : देवि उचित अस विनय तुम्हारी। पर क्या करें, देखा सुना कतहुं कोउ नाहीं! जितने भी रिश्तेदार, मित्र थे सबसे पूछ-पाछ लिया। पहले ही। तुम्हारे मायके में भी कोई सयाना नहीं बचा, जो कुछ बताता। सब टिकट कटा कर पहले ही चल दिए। एक हमीं बचे हैं, लड़की ब्याहने को। नए लड़कों को तो कोई मतलब ही नहीं रिश्ते-नातों से। अरे जब अपना ही नालायक निकला तो औरों को क्या दोष दें।... हे प्रभू! लड़की की शादी! कानन कठिन भयंकर भारी!
पिताजी जनेऊ चढ़ाते अंदर जाते हैं। विजया रसोई से आती है।
विजया : मम्मी! आज सब्जी कौन-सी बनानी है?
मां ध्यान से विजया के रूप -रंग को देखती है और उसके बनाव-श्रृंगार से निराश होती है।
मां : जो हो वही बना दे, बार-बार क्या पूछती है! अरे विजया, घर में क्या साबुन-तेल नहीं आता? क्या शैंपू की पुड़िया नहीं आती? और तो और, क्या घर में कंघा नहीं है? यह कैसा रूप बनाए रहती है तू? कोई कहेगा कि तू बी.ए. है? जा पहले कंघा करके आ! जा न! पर ठहर, ले पहले तनिक पैर तो दबा दे। पता नहीं कहां नस चढ़ जाती है... आई री...
विजया पांव दबाने लगती है।
बहूजी : (अंदर से) विजया! यहां आना जरा!
विजया : आ रही हूं भाभी!
मां : देख लिया न तुझे मेरा पांव दबाते। इसीलिए। मेरी सेवा करे तू, उसको तो भाता ही नहीं।
भाभी के कमरे की ओर चल देती है।
पिताजी : (अंदर से) विजया! अरे नल में पानी नहीं आ रहा है! पंप चला दे।
विजया : अच्छा पापा!
विजया पापा के कमरे की ओर मुड़ती है।
बहूजी : विजया! नहीं सुना तुमने?
विजया : आ रही हूं भाभी।
पिताजी बांह समेटे जनेऊ चढ़ाए आते हैं।
पिताजी : यह सब क्या है? कम से कम मोटर तो चला दिया कर विजया!
बहूजी : (बाहर निकल कर, सीढ़ी से) क्यों विजया, सुनाई नहीं देता? कब से चिल्ला रही हूं। आई भाभी... आई भाभी!
विजया को कुछ नहीं सूझता। आगे आती है। प्रकाश विजया पर केंद्रित होता है।
विजया : मैं क्या करूं? परेशान हो जाती हूं कि पहले ये करूं कि वो करूं? चार हाथ नहीं हैं न मेरे। वैसे मुझे लगता है कि अगर होते भी, तो भी कम पड़ते। घर का काम ही इतना होता है। लेकिन, एक बात है!... थकान नहीं लगती। लगता है घर के सा...रे काम कर डालूं। क्योंकि यह 'घर' का काम है न! मेरे घर का काम। यह मेरा घर है। इसमें मेरे पापा रहते हैं, मम्मी रहती हैं, भैया-भाभी रहते हैं। बस इतने ही लोग तो हैं मेरे।... इनके अलावा और कौन है मेरा ? और हां, इसी घर में मैं रहती हूं। कहते हैं बेटी परायी होती है। दूसरे की होती है। क्यों ऐसा कहते हैं? मैंने तो इस घर को कभी पराया नहीं समझा! तो फिर घर क्यों पराया समझता है? जन्म देता है, पालता-पोसता है, फिर भी पराया समझता है! बेटी को पराया धन कहते हैं, तो फिर पैदा होते ही लक्ष्मी आई! लक्ष्मी आई! क्यों कहते हैं? कहना तो चाहिए लक्ष्मी गई! लक्ष्मी गई! (सिकुड़ती है) ...मुझे अच्छा नहीं लगता जब पापा-मम्मी मुझे बोझ कहते हैं। मुझे लगता है मैं क्या करूं कि बोझ न रहूं। मैं पापा-मम्मी तो क्या किसी पर भी बोझ नहीं रहना चाहती, लेकिन इस धरती पर बोझ बनी हूं। नाम विजया और कितना हारी हुई हुई हूं मैं!
निराश-सी पृष्ठमंच की ओर जाती है। पल भर रुकती है। प्रकाश विजया पर केंद्रित होता है। एक आत्मविश्वास अपने अंदर लाती है। सिर और शरीर को चुस्त करती है। और बोलना शुरू करती है। एक नया रूप सामने आता है।
विजया : मैं अमृता हूं, अमृता। मुझे कोई बांध कर नहीं रख सकता। मैं जो चाहूं कर सकती हूं, जहां चाहूं जा सकती हूं। घनघोर जंगल से अकेली गुजर सकती हूं मैं। नदी पार कर सकती हूं, पहाड़ों को लांघ सकती हूं, ऊंचे आकाश में उड़ सकती हूं। स्व च्छं द! मुझे कोई बंधन नहीं बांध सकता, राजेश! मैं अब पिंजरे में बंद कोई परिंदा नहीं हूं जिसे उड़ना न आता हो। मैं अब उड़ना सीख गई हूं, तैरना सीख गई हूं। मैं कोई सजी-धजी बेजान गुड़िया नहीं हूं जिसके हाथ-पैर की पोजीशन तुम तय करो। मुझ पर अब तुम कोई सीमा रेखा नहीं खींच सकते। मैं अब कोरा कागज नहीं रही, मैंने अपनी जिंदगी की इबारत खुद लिख ली है। अब फैसला तुम्हें करना है। अपनी किस्मत की डोर मेरे साथ बांध सकते हो तो बांध लो वरना मुझे तुम्हारी कोई जरूरत नहीं। मैं जा रही हूं, मेरे आफिस का वक्त हो गया है...
पूरे मंच पर प्रकाश। तालियां बजाते कई कलाकार दोनों ओर से मंच पर प्रवेश करते हैं। उनमें अरविंद भी है। एक -दो आवाजें - बहुत बढ़िया! वेल डन विजया! आदि।
अरविंद : नो नो नो। नहीं विजया नहीं।... प्लीज आप लोग तालियां बंद करिए! देखो विजया, तुम्हारी स्पीच तो ठीक हो गई है। मान सकता हूं कि काफी हद तक ठीक हो गई है, लेकिन अभी इसमें बहुत सारी चीजें बाकी हैं जो अमृता के कैरेक्टर को बिल्ड अप करती हैं। अमृता! यू नो, अमृता एक ऐसी लड़की, जो तमाम संघर्षों के बाद इस पोजीशन में आई है कि वह ऐसा बोल सके। वह पैदाइशी बहादुर लड़की नहीं थी, धीरे-धीरे हुई है। कहां है वह संघर्ष? क्या तुम्हारी स्पीच में वह संघर्ष दिखा? नहीं दिखा। खैर चलो, तुम्हें कैसा लगा... तुम्हें खुद कैसा लगा?... विजया, मैं तुमसे पूछ रहा हूं?
विजया : जी! मैं इससे अच्छा नहीं कर पाऊंगी...।
अरविंद : अफकोर्स! तुम इससे अच्छा नहीं कर पाओगी। बट आय नीड इट। मुझे जरूरत है इससे बेहतर की। मुझे अमृता चाहिए, दब्बू-डरपोक विजया नहीं। आप लोग मेरी बात सुन रहे हैं? मुझे अमृता चाहिए। इस नाटक को उठाने के पहले ही मैंने साफ-साफ कह दिया था कि अगर आप के पास अमृता है तो ही इस नाटक को शुरू करें। क्या इस शहर में एक बोल्ड, डायनेमिक, डैशिंग लड़की नहीं है जो अमृता बन सके? विनोद, वाइंड अप करो! यह प्ले नहीं हो सकता।
विनोद : ठहरो-ठहरो अरविंद! टेक इट इजी!
अरविंद : व्हाट टेक इट इजी! मजाक उड़ा रहे हो मेरा? आखिर कब तक विनोद मैं यही सब करता रहूंगा? हर बंदे को ए बी सी डी से शुरू करो और एक नाटक किया नहीं कि बस पंख लग जाते हैं। हर बार सोचता हूं कि कभी तो मन मुताबिक काम पाऊं। जो मैं चाहता हूं आर्टिस्टों से निकाल तो सकूं। प्ले मेकिंग को एंजॉय तो कर सकूं। लेकिन पकड़ लाते हो पता नहीं कहां-कहां से...। पैक अप करो यह नाटक नहीं होगा।
विनोद : अरविंद, नाटक होगा और यही होगा।
अरविंद : तो फिर तुम्हीं डायरेक्ट कर लो, मुझे क्यों फंसाते हो?
विनोद : देखो अरविंद, तुम इतनी जल्दी पेशेंस छोड़ दो, यह हम लोगों को बरदाश्त नहीं होता है। प्ले यही होगा और इसे डायरेक्ट भी तुम्हीं करोगे।
अरविंद : तो फिर इस लड़की को बदलो। मुझे अमृता चाहिए, विजया नहीं। पहले एक अच्छी आर्टिस्ट ले आओ।
विनोद : तुम्हें हो क्या गया है अरविंद? हम लोगों को तुम्हीं ने तैयार किया है। बिल्कुल कच्ची मिट्टी थे हम। एक-एक डायलॉग पर पूरे दिन पीछे पड़े रहते थे। हम ऊब जाते थे तुम नहीं।
अरविंद : फिर भी मुझे क्या मिला?
विनोद : क्या मिला? क्या मिला से क्या मतलब?
अरविंद : हां-हां, मुझे क्या मिला? गिने-चुने दो-चार लोग बचे हो बस! वह भी मेरी काबिलियत के कारण नहीं। इस सो-कॉल्ड 'दोस्ती' के कारण।
विनोद : व्हाट डू यू मीन बाइ 'सो-कॅाल्ड'?
अरविंद : ओ के-ओ के! सॅारी! सुबह-शाम मिलते हैं इसलिए अलग हो नहीं सकते। ओ के?
विनोद : देखा अनु, क्या बोल रहा है यह?
अरविंद : ..खैर, अगर नाटक खेलना है तो इस लड़की को बदलो। फालतू बहस करने से क्या फायदा।
अनु : एक्सक्यूज मी, आप दोनों बात कर रहे थे तो मैंने बीच में टोकना नहीं चाहा। बट आय एम सॉरी, मुझे कुछ बोलना पड़ रहा है।
विनोद : थैंक्स गॉड। अनु, तुम कुछ बोलीं तो।
अनु : विनोद, तुम किसे समझा रहे थे? अरविंद को। जानते हो अरविंद कौन है? अरविंद मामूली डायरेक्टर नहीं है। समझाया उसे जाता है जो 'नासमझ' हो। मैं अरविंद को 'नासमझ' नहीं मानती। अगर अरविंद विजया को अपमानित कर रहे हैं तो... इसमें उनकी कुछ समझदारी ही होगी। क्यों अरविंद जी?
अरविंद : व्हट? मैं विजया को अपमानित कर रहा हूं? इसका मतलब है कि मैं अब किसी भी आर्टिस्ट को कुछ बोल भी नहीं सकता?... थैंक्स! थैंक्स अनु! थैंक्स फार योर दिस रियल कांप्लीमेंट! (विनोद से) देखा! मुझे यह मिला है!
अरविंद जाता है। विजया रोने लगती है।
अनु : विजया! विजया!
पास जाकर गले लगाती है।
विजया! यह तो होता ही रहता है। हम लोग आपस में लड़ते रहते हैं फिर भी एक साथ काम करते हैं। बरसों से ऐसा हो रहा है। (विनोद से) बेचारी डर गई।
विनोद : अब मैं जाता हूं अरविंद को मनाने। इस ग्रुप में यही दिक्कत है, कभी डायरेक्टर को मनाओ, कभी आर्टिस्टों को। अनु, तुम विजया को समझाओ। क्या तमाशा है। आओ कामेश चाय पी कर आते हैं।
विनोद के साथ कामेश बाहर जाता है। अनु विजया के साथ बैठती है।
अनु : (ऊंचे स्वर में) विनोद, चाय यहां भी!
विजया : दीदी, मुझसे नहीं होगा यह।
अनु : होगा। सब होगा। तुम परेशान मत हो। अरविंद शार्ट-टेंपर्ड है। उसको खयाल नहीं रहता कि वह क्या बोल रहा है। उसकी ओर से मैं तुमसे माफी मांगती हूं।
विजया : दीदी! मुझे उसका बुरा नहीं लगा। मैं...मेरे कारण आप लोगों का काम अच्छा नहीं हो पा रहा है इसलिए बुरा लग रहा है। आप कोई दूसरी लड़की ढ़ूंढ़ लीजिए।
अनु अचानक हंसने लगती है ।
क्या हुआ?
अनु : कहां है दूसरी लड़की?
विजया : तो आप ही कर लीजिए न?
अनु अचानक उदास हो जाती है।
क्या हुआ दीदी?
अनु : कुछ नहीं विजया। (मूड बदल कर) अ... दरअसल हम लोग प्रोफेशनल नहीं हैं विजया। थिएटर से पैसे नहीं कमाते। और इसीलिए हमें आर्टिस्ट भी नहीं मिलते। जैसे तुम्हें पकड़ा है न, वैसे ही पकड़ कर ले आते हैं। फिर उसे रोज एक लॉलीपॉप देते हैं ताकि वह रिहर्सल में आता रहे।
विजया : लॉलीपॉप?
अनु : नहीं समझी?
कामेश चाय ले कर आता है ।
कामेश : सर ने कहा है कि विजया जी को रिहर्सल कराती रहें।
अनु : अच्छा! तो आप लोग चाय पिएं और हम लोग रिहर्सल करें?
कामेश जाने लगता है।
कौन-से सर ने कहा है?
कामेश : (रुक कर मुस्कुराहट के साथ) अरविंद सर ने।
कामेश चला जाता है ।
अनु : विजया, ये जो डायरेक्टर लोग होते हैं न, ये लोग आदमी नहीं होते, सिर्फ डायरेक्टर होते हैं। इनका दिमाग यहां थोड़ी होता है, सातवें आसमान में होता है। जानती हो क्यों? ब्राड थिंकिंग! दि होल युनिवर्स रिवॉल्व्स एराउंड दि डायरेक्टर! सा..री दुनिया डायरेक्टर के चा.. रों ओर चक्कर लगाती है!
विजया : हूं। समझ गई दीदी।
अनु : क्या समझी?
विजया डायरेक्टर बहुत सोचता है।
अनु : डायरेक्टर सोचता है न! तो हम लोग क्यों सोचें? वी आर . ऑन टी ब्रेक! चलो चाय पियो! (चाय पीने लगती है।)
विजया : डायरेक्टर जीनियस होते हैं न दीदी!
अनु : ऐसा तुम भी सोचती हो? वे तो सोचते ही हैं। खैर। कभी तुमने पपेट्स का गेम देखा है? (हाथ से डोरी चलाने का अभिनय करते हुए) डायरेक्टर ऊपर होता है न...
विजया : उसके हाथ ऊपर होते हैं
अनु : हां-हां, हाथ ऊपर होते हैं... सॉरी...
विजया : आयम सॉरी दीदी।
अनु : क्यों? क्या हो गया? कोई गलत बोले तो ऐसे ही टोकना चाहिए। हूं। हां, तो मैं कह रही थी कि... हां... अब देखो, वह सोचता है कि उसकी उंगलियों के जादू में लोग बंध गए हैं। वह जैसी भी उंगलियां चलाएगा, लोग वाह-वाह करेंगे, तालियां बजाएंगे। और होता भी है, पर विजया, क्या हमेशा उसकी उंगलियों का ही कमाल होता है! नहीं न! कठपुतलियों का रूप, रंग, हाथ झटकने की अदा और कई सिचुएशन्स में तो जस्ट कांट्रास्ट फेस, जो डायरेक्टर ने चेंज नहीं किया है। वह तो उसका है ही। ये सारी चीजें जब एक साथ आती हैं तो क्लैपिंग वहां होती है।
विजया : हां।
अनु : लेकिन डायरेक्टर सोचता है कि यह उसका कमाल है। होते पचास शो हैं, डायरेक्टर भी वही होता है और उंगलियां भी वही होती हैं और धागा भी वही, पर क्या कठपुतली हर शो में हमेशा वैसी ही नाचती है? नहीं न? तो है न कठपुतली भी कोई चीज!
विजया : आपकी चाय ठंडी हो गई।
एकबारगी पूरी चाय पी लेती है।
अनु : गला जल गया। इतनी ठंडी भी नहीं हुई थी यार।
विजया : दीदी, आप मुझे बताइए न?
अनु : क्या बताऊं?
विजया : यह डायलॉग, और क्या? मैं अमृता हूं अमृता। नदी पार कर सकती हूं पहाड़ों को लांघ सकती हूं... एक डायलाग नहीं बोल पाती, खाक लांघ सकती हूं।
अनु : अरे, तुम लांघ सकती हो। मेरा मतलब है ठीक तो बोल रही हो। इसमें बताना क्या?
विजया : नहीं। जैसा सर चाहते हैं वैसा बताइए न!
अनु : अब सर कैसा चाहते हैं मैं क्या जानूं यार?
विजया : हूं। आप बताना नहीं चाहतीं।
अनु : देख विजया, तू जितना भी अच्छा कर लेगी न, अरविंद कभी अच्छा नहीं कहेंगे। समझी। इसलिए तू इसकी फिक्र छोड़, बस अपने रोल में डूब कर बोल।
विजया : दीदी, मुझसे नहीं हो पाएगा यह रोल। आप समझती क्यों नहीं हैं?
अनु : सब हो जाएगा, बस जरा अमृता की बोल्डनेस ले आ।
विजया : बोल्डनेस मुझमें नहीं है दीदी, मैं कहां से ले आऊं? यह रोल मेरे स्वभाव से एकदम अलग है। आप सर से कह कर मेरा रोल बदलवा दीजिए।
अनु : अच्छा! कौन-सा रोल करना चाहोगी?
विजया : कोई भी।... मैं मां का रोल कर लूंगी।
अनु : मां का रोल। डॉयलॉग बोल कर दिखाओ।
विजया : कौन-सा बोलूं?
अनु : कोई भी। वह पल्लू वाला ही ले लो। (विजया स्क्रिप्ट खोलती है।) हां बोलो।
विजया : मैं देख रही हूं आजकल तुम्हारे नखरे कुछ ज्यादा ही होने लगे हैं। कल कौन आया था तुम्हें छोड़ने? क्या इस शहर में ऑटो और बस नहीं चलते हैं? किसी की कार में आने का क्या मतलब? सुन बहू, हमें यह सब पसंद नहीं। कल से तेरा ऑफिस-वाफिस जाना बंद! हमें नहीं करानी नौकरी। पल्लू ओढ़ो और घर में रहो!
अनु : ... तुम्हें अच्छा लगा?
विजया : ... नहीं दीदी।
अनु : ... क्यों? क्योंकि यहां भी इन्वॉल्वमेंट की, बोल्डनेस की, कैरेक्टर को जीने की जरूरत है। तो क्यों न तुम अपना ही रोल करो। विजया, तुम कर सकती हो। अमृता को अंदर पैदा करो। तुम सोचो कि तुम विजया नहीं, अमृता हो। ऐसी अमृता, जो अठारवीं सदी की नहीं, इक्कीसवीं सदी की है। दुनिया को अपनी मुट्ठी में समझती है। बोलो, डायलाग बोलो!
विजया डायलाग बोलने के लिए तैयार होती है।
विजया : मैं अमृता हूं। अमृता। मुझे कोई बांध कर नहीं रख सकता। मैं जो चाहे वह कर सकती हूं...
अचानक मंच पर अंधेरा।
अनु : ओह! लाइट चली गई! इसे भी अभी ही जाना था!
विजया चीख उठती है।
क्या हुआ विजया?
विजया : दीदी... मुझे डर लग रहा है। टॉर्च नहीं है दीदी? दीदी मुझे...
अनु : विजया, बिजली चली गई है अभी आ जाएगी। विजया, तुम इतना डर क्यों रही हो? विजया!
विजया : दीदी, मुझे अंधेरे से बहुत डर लगता है। प्लीज। मुझे अपने पास बुला लो।
अनु : हां-हां...आ जाओ...आ जाओ!
मंच पर पुनः प्रकाश। विजया अनु के पास आंखें मूंदे बैठी है।
अनु : विजया! लाइट आ गई। क्या हो गया था तुझे?
विजया आंखें खोलती है। प्रयास करके संयत होती है।
अनु : क्या हो गया था विजया?
विजया : कुछ नहीं दीदी। बस यूं ही।
अरविंद , विनोद और कामेश आते हैं।
अरविंद : कामेश, जाओ गिलास लौटा आओ।
कामेश : जी।
कामेश गिलास ले कर बाहर जाता है ।
अरविंद : विजया!
विजया : जी।
अरविंद : यहां आओ। (विजया पास आती है) देखो विजया, आय एम सॉरी। काम ठीक से नहीं होता तो मैं उखड़ जाता हूं। तुम्हें बुरा तो नहीं लगा?
विजया : (नहीं में सिर हिलाती है।)
अरविंद : गुड! अब तुम जाओ। तुम्हारी छुट्टी।
विजया चुपचाप अपना बैग उठाती है और चली जाती है , अनु और विनोद हैरान देख रहे हैं।
क्या हुआ? मैंने कुछ गलत किया?
अनु : विजया को क्यों भेज दिया?
अरविंद : उसे बदलना ही होगा।
विनोद : कमाल है! अरविंद, मैं तो अब तुम्हारे साथ काम नहीं कर सकता। यह तुम्हारी डिक्टेटरशिप है।
कामेश : (अंदर आ कर) सर, विजया जी को क्या हो गया? वह रो रही थीं।
अनु : अरविंद, मैं भी तुम्हें अब नहीं बरदाश्त कर सकती।
अरविंद : मैं भीख मांगता हूं कि तुम सब लोग मुझे बरदाश्त करो?... क्यों करते हो बरदाश्त? क्यों कहते हो कि अरविंद प्ले करो? बहुत दिन हो गए? अब कुछ होना चाहिए? मैंने तो नहीं कहा था कि नाटक खेलना है? कामेश!
कामेश : जी सर।
अरविंद : तुम अभी नए लड़के हो, और अच्छे आर्टिस्ट हो। तुम्हें अगर थियेटर में कुछ करना है तो कोई दूसरा ग्रुप ज्वाइन कर लो। इस ग्रुप में अब कुछ नहीं होगा। 'अंकित' मर चुका है अब।
विनोद : तो ठीक है। हम लोग दूसरा प्ले उठाते हैं।
अनु : कोई जरूरत नहीं है। क्या प्ले नहीं करेंगे तो मर जाएंगे हम? प्ले न करेंगे तो क्या जिंदा नहीं रह सकते? कोई जरूरत नहीं है प्ले करने की। बंद करो चलो घर।
विनोद : अरविंद, 'अंकित' नहीं मरेगा। तुम नहीं करना चाहते तो ठीक है। अनु, तुम भी नहीं करना चाहतीं तो भी ठीक है। मैं करूंगा। अपनी खुशी के लिए नहीं। ग्रुप जिंदा रहे इसलिए। कामेश!
कामेश : जी दादा!
विनोद : तुम कल विजया के घर चले जाना। उसे कल आने के लिए कहना।
बल्कि साथ ही ले आना। इस प्ले को मैं डायरेक्ट करूंगा। (अनु और अरविंद से) जाइए आप लोग।... जाइए न! अपना कीमती वक्त क्यों बरबाद कर रहे हैं? अनु, जाइए आप शापिंग करिए। और अरविंद, जाइए आप कंप्यूटर पर गेम खेलिए। प्ले तो देखने आएंगे आप लोग, कि वह भी नहीं आएंगे? न आएंगे तब भी कोई बात नहीं, मैं अकेले ही प्ले को देख लूंगा।
कामेश : सर, मेरी फैमिली तो आ सकती है न?
अनु हंस पड़ती है। अरविंद भी कुछ नार्मल होता है।
विनोद : बस-बस। तुम्हारी फैमिली और मैं। लेकिन और किसी को न बुलाना। औरों के देखने लायक प्ले बनेगा ही नहीं।
अनु : बहुत हो गया विनोद। कल कितने बजे रिहर्सल पर आना है अरविंद साफ-साफ बताओ।
अरविंद कुछ पल गंभीर बना रहता है फिर अचानक हंस पड़ता है।
अंधेरा
पुनः प्रकाश।
पिता अखबार पढ़ते बैठे हैं। सामने मां भी घुटने मोड़े बैठी है ।
मां : विजया! पापा को चाय ले आई? न जाने क्या होगा इस लड़की का! पता नहीं इसकी किस्मत में क्या लिखा है! तुम भी अब हाथ पर हाथ धर कर बैठ गए। कहीं आना-जाना ही छोड़ दिया!
पिता : सुबह-सुबह न शुरू करो यह सब! मुझे अखबार पढ़ने दो।
विजया चाय ले कर आती है।
विजया : पापा! चाय। मम्मी, आप के लिए भी।
मां : रख दे, और तू जा सब्जी काट डाल। और हां, भाभी से पूछ ले जो कपड़े हों वाशिंग मशीन में डाल दे। और सुन विजया, भाभी के कपड़ों में प्रेस करना होगा। वह भी कर दे।
पिता : बहू अपने कपड़ों में खुद ही प्रेस क्यों नहीं करती?
मां : उसे वक्त ही कहां है?... तुम्हें नौकरी करने वाली बहू चाहिए थी न?
पिता : (अखबार से नजरें उठा कर) सिर्फ मुझे ही चाहिए थी?
मां : (माताजी पिता के व्यंग्य को समझ जाती हैं फिर बड़बड़ाती हैं।) अपना लड़का बेरोजगार है तो क्या हुआ! उसकी नौकरी लगेगी एक दिन!
पिता : हां वह तो प्राइम मिनिस्टर बनेगा।
पुत्रजी आते हैं। हाथ में एक बैग है।
पुत्रजी : पापा! मैं एक बिजनेस करने वाला हूं। आपका आशीर्वाद चाहिए,
मतलब कुछ पैसे चाहिए।
पिता : हूं...। क्या बिजनेस करने वाले हो, पहले सुनूं तो!
पुत्रजी : आप? आप सुनना चाहते हैं कि मैं क्या बिजनेस करने वाला हूं! माई गॉड! पापा बहुत समय लगेगा। इतना वक्त नहीं है मेरे पास। खैर बताना ही पड़ेगा, शार्ट में बताता हूं। देखिए यह है नेटवर्क बिजनेस। पहले मैं कंपनी का मेंबर बनूंगा। इसके बाद मैं कम से कम दो मेंबर बनाऊंगा। जब मैं दो मेंबर बना लूंगा तो मुझे कमीशन में दो हजार रुपए मिलेंगे। ज्यादा मेंबर बनाऊंगा तो ज्यादा मिलेंगे। इसके बाद मेरे वो दो मेंबर अपने मेंबर बनाएंगे यानी कुल हो जाएंगे... .
पिता : चार मेंबर। फिर?
पुत्रजी : चार मेंबर? ठहरिए बुकलेट देखता हूं।
बैग से बुकलेट निकालकर देखता है।
हां। अरे! आपको यह स्कीम मालूम है? किसी ने आपसे जरूर बात की है। मैं यहां घर में बैठा हूं और आप किसी और से मेंबर बन रहे हैं? अरे पिताजी, आप कैसे पिता हैं?...हे भगवान मैंने तेरा क्या बिगाड़ा था जो...?
पिताजी : अबे चुप रहता है कि नहीं?
पुत्रजी : वाह-वाह-वा! देखा मम्मी, सबको बांटें हमको डाटें!
पिताजी : तू चुप होता है कि नहीं। अभी मैं तुझे मारूंगा भी।
पुत्रजी अपने पांव पटकने लगते हैं।
पुत्रजी : ... आप अपने बेटे को बिजनेस देंगे या किसी दूसरे को?
पिताजी : कैसा बिजनेस?
पुत्रजी : यही बिजनेस और कौन-सा बिजनेस? दस बिजनेस थोड़ी हैं मेरे पास? इसी इंटरनेट बिजनेस की तो बात कर रहा हूं?
पिताजी : अच्छा भाग, फालतू वक्त मेरे पास नहीं है।
पुत्रजी : देखा मम्मी, सब के लिए टाइम है और मेरे लिए टाइम ही नहीं है। सबसे बिजनेस प्लान सुनें और मुझे कहें, चल भाग!
पिताजी : अरे मूर्ख कैसा बिजनेस प्लान, कहां का बिजनेस प्लान?
पुत्रजी : यही बिजनेस प्लान और कैसा बिजनेस प्लान? आपने दो और दो चार तुरंत बता दिया, मतलब कि यह आपको किसी ने बताया ही होगा? बताइए कौन मिला था आपसे?
पिताजी : तू ही बता मुझसे कौन मिला होगा?
पुत्रजी : ठहरिए, सोचकर बताता हूं... (सोचता है।) आपसे कौन मिला होगा!.... मतलब कि आपसे कोई नहीं मिला था?
पिताजी : हां।
पुत्रजी : हां? मतलब मिला था?
पिताजी : अरे हां का मतलब नहीं। (पुत्रजी अभी भी असमंजस में) मतलब नहीं मिला था। कोई नहीं मिला था। इस विषय में कोई भी, कभी भी, और कहीं भी आज की तारीख में इतने बजे तक मुझसे नहीं मिला था।
पुत्रजी : .... तो फिर आपको यह सब कैसे मालूम?
पिताजी : क्या मालूम है मुझे? क्या मालूम है? दो दूनी चार नहीं मालूम होगा मुझे बेवकूफ?
पुत्रजी : कमाल है! खैर . ठीक कहा आपने, चार मेंबर।
पिताजी : क्या चार मेंबर?
पुत्रजी : पापा, आप मुझसे मेरा बिजनेस प्लान सुन रहे थे।
मां : तू सुना बेटा। मैं सुन रही हूं।
पुत्रजी : अरे आप के सुनने से क्या होगा मम्मी, पैसा तो इधर है।
पिताजी : अच्छा-अच्छा सुना चल।
पुत्रजी : (कुछ देर सोचता है कि कहां से शुरू करें।) तो पहले मैं मेंबर बनूंगा, फिर मैं दो मेंबर बनाऊंगा। फिर मेरे मेंबर, अपने मेंबर बनाएंगे। इस तरह मेंबर, मेंबर बनाते जाएंगे और मुझे घर बैठे पैसे मिलते जाएंगे। पापा, कैन यू इमैजिन? मुझे एक साल के अंदर कम से कम पचास हजार रुपए मिलेंगे! पचास हजार! (मां की ओर) फिफ्टी थाउजैंड मम्मी! (पिता से) कहिए कैसा रहा!
मां : अरे यह तो बहुत अच्छी स्कीम है। चल तू यही धंधा कर।
पुत्रजी : धंधा नहीं मम्मी, बिजनेस कहिए। इंटरनेट बिजनेस। बिजनेस।
मां : हां-हां। वही।
पुत्रजी : (पिता से) तो लाइए मुझे पांच हजार रुपए दीजिए।
पिता : पुत्रजी, मैं पांच हजार तो तब ही दूंगा जब तुम दो मेंबर बना लाओगे।
पुत्रजी : पापा पहले मैं तो मेंबर बनूं तब न दो मेंबर बनाऊंगा।
पिता : (अखबार में घुसते हुए) अपनी मैडम से मांग लो पांच हजार।
पुत्रजी : देखा मम्मी! पापा का जवाब सुना!
मां : दे दीजिए न? पांच हजार ही तो मांग रहा है।
पिता : मैंने कहा न, दो लोगों को पकड़ कर ले आओ, वो दोनों मेरे सामने वचन दें कि मेंबर बनेंगे फिर मैं पांच हजार दे दूंगा।
पुत्रजी : पक्का?
पिता : एकदम पक्का।
पुत्रजी : हाथ मिलाइए।
पिता : हां मिला लो।
दोनों हाथ मिलाते हैं।
पुत्रजी : मम्मी, आपके सामने डील हुई है। आप गवाह हैं। पापा अगर अपनी जुबान से मुकरें तो आप जानिएगा।
पिता : हां-हां ठीक है। जा तू पहले दो आदमी पकड़ कर ले आ।
पुत्रजी : ठीक है। मैं अभी ले आता हूं।(अंदर जाने लगता है।)
पिता : अब ये अंदर कहां जा रहा है? बेडरूम में घुसे हैं क्या मेंबर?
पुत्रजी : ओफ्फोह पापा! मैडम को आफिस नहीं छोड़ना है क्या!
अंदर जाता है।
मां : अब मैडम उतरने वाली है, देखना!
पिताजी : क्या देखना?
मां : यह नहीं कि हफ्ते में कम से कम एक बार तो अपने पैसे से सब्जी लेती आए!
पिताजी : तुमने कहा कभी?
मां : बिना कहे नहीं ले आ सकती क्या?
पिताजी : अरे तुम कह कर तो देखो, अपने मन से ही सब सोच लेती हो!
मां : मालूम है। एक प्याज तक नहीं ले आएगी कभी। बहूरानी अवतरित होती हैं।
बहू : अच्छा मम्मी, मैं जा रही हूं।
मां : अरे आज पहले ही जा रही हो बहू?
बहू : हां, वो आफिस में कुछ काम ज्यादा है तो पहले ही जाना पड़ेगा।
मां : और लौटोगी भी देर से?
बहू : उफ! जब तक काम नहीं हो जाएगा तब तक कैसे लौट सकती हूं,
आप ही बताइए?
मां : सुनो बहू, वो आफिस से लौटते समय क्या सब्जी लेती आएगी?
बहू : मम्मी, मैं जब आफिस जाती हूं, घर को भूल जाती हूं। आफिस का काम ही ऐसा है। अब आपको क्या बताएं... अपना आफिस का काम देखूं कि सब्जी-भाजी देखूं? अपने बेटे से मंगवा लीजिएगा। कम से कम इतना तो काम कर सकता है आपका बेटा।
पुत्रजी : (आते हुए) क्या चीज?
बहू सैंडल खटखटाती चली जाती है।
मम्मी, किसी को जाते वक्त नहीं टोंका जाता। लाइए पैसे, जो लाना हो मैं ला दूंगा।
मां : रहने दे, मैं विजया से मंगवा लूंगी।
पुत्रजी : ओके! नो प्राब्लम! मैं चला। पापा, प्रामिस याद रखिएगा।... प्राण जाय पर वचन न जाई! अरे मैडम मैं आया...
चला जाता है।
पिता : मैडम की दुम! (मां से) तुमने यह क्यों कहा कि विजया से मंगवा लूंगी? दे देती पैसा वह ले आता न?
मां : अरे जितना दे दो वह कभी नहीं लौटाता। कम से कम विजया पूरा हिसाब तो देती है।
पिता : देखो, यह सब मुझे अच्छा नहीं लग रहा है।
मां : क्या?
पिता : यही कि हर काम विजया के ही सिर! मेरी तो समझ में नहीं आता कि विजया पढ़ती कब है! जब नहीं तब काम में ही लगी दिखती है। आखिर उसका एम.ए. फाइनल है, परसेंटेज गिर जाएगा तो एम.ए. का मतलब क्या रहेगा?
मां : पढ़ चुकी जितना पढ़ना था। उसकी शादी कर दो और छुट्टी पाओ।
पिता : अरे शादी हो जाए इसी के लिए तो कह रहा हूं। आजकल डिग्री बताने से काम नहीं चलता। मार्कशीट देखते हैं। नौकरी करवाते हैं न बहू से। लड़के को तो नौकरी मिलती नहीं।... जैसे अपने यहां है।
मां को बुरा लगता है।
मां : हमारे टंपू को नौकरी अच्छी मिली थी पर कंपनी ही फ्राड निकल गई तो क्या करे। एक तो वैसे ही बीवी के आगे दबा रहता है, ऊपर से तुम भी धौंस दिखाते रहते हो। कहीं कुछ कर-करा लिया तो..।
पिता : तो क्या जब भी पैसा मांगे मैं निकाल कर दे दिया करूं?
मां : नहीं। लेकिन उसे डांटा न करो।
पिता : अरे भागवान मैं उसे डांटता नहीं हूं। बाप हूं, दुश्मन नहीं हूं उसका। क्या मुझे उसकी कोई फिक्र नहीं है? है। बहुत अफसोस है मन में, कि मैं उसके लिए कुछ भी नहीं कर सका। इसका मतलब ये नहीं कि मैं आगे भी कुछ नहीं करूंगा। विजया की मां, बस विजया की शादी हो जाए। फिर जो भी बचा-खुचा रहेगा सब टंपू के लिए लगा दूंगा।
मां : पता नहीं कब जाएगी ये लड़की। बहू का रंग-ढंग देखा तुमने? कैसा बन-ठन कर जाती है।
पिता : नौकरी करने वाली बहू है, सज-धज कर तो जाएगी ही।
मां : सज-धज कर जाए, बन-ठन कर तो नहीं। विजया!
पिता : रक्षा करो प्रभू.....
पिताजी कान पर जनेऊ चढ़ा कर अंदर की ओर जाते हैं।
विजया : (अंदर से) आई मम्मी।... . (बाहर आकर) क्या है मम्मी?
मां : जा बेटा, तनिक बाजार जा कर ये सामान तो ले आ ले।
विजया : बाजार! (मायूसी के साथ) बाजार मैं नहीं जाऊंगी मम्मी।
मां : तब कौन जाएगा? मैं जाऊंगी? क्या हो गया तुझे? इसको तो बाहर निकलने भर को कह दो तो मानो बहुत बड़ी सजा दे दी। न स्कूल-कालेज न पास-पड़ोस। दिन भर घर में घुसी रहती है। घरघुसनी कहीं की। यह ले पैसा, यह ले झोला और जा बाजार।
मां विजया के हाथ में झोला और पैसा देकर अंदर चली जाती है ।विजया बीच मंच पर आती है। गीत और नृत्य में उसका भोलापन मौजूद रहेगा।
विजया : मैं घरघुसनी? (हंसती है)
(गीत) मैं घरघुसनी।
मैं घरघुसनी कभी न जाऊं मैं बाजार में।
मैं घरघुसनी!
घर के बाहर जाते ही मन भीगा-भीगा लागे
मुझे देख कर हसें लफंगे जाने कैसा लागे
इसीलिए मैं कभी न निकलूं मेला-हाट में।
मैं घरघुसनी!
शादी-ब्याह में कितनी झंझट पहनूं कौन-से कपड़े
क्या बोलूं मैं बैठ के घंटों हाथ-पैर को जकड़े
इसीलिए मैं कभी न जाऊं शादी-ब्याह में।
मैं घरघुसनी!
मैं घरघुसनी कभी न जाऊं मैं बाजार में।
एक हीरो किस्म का लड़का विजया के साथ -साथ नाचने और गाने लगता है। उसके सिर में मोरपंख लगा है ।
रंगीला : मैं रंगीला। छैल-छबीला ।
तुझे दिखाऊं जुहू-चौपाटी आ जा साथ में।
मैं रंगीला। छैल छबीला ।
विजया डर कर छुपती है। रंगीला उसे अपनी ओर आकर्षित करने का प्रयास करता है। भावों से ऐसा लगता है जैसे विजया भी उसे पसंद करने लगी हो।
डर मत कुड़िए तेरी खातिर रब ने मुझे बनाया
इन आंखों को मेरे यार बस तेरा रूप ही भाया
इसीलिए मैं कहता हूं चल भग ले प्यार में। मैं रंगीला...
विजया रंगीला की बातों से मोहित होती है।
विजया : तुम मुझसे प्यार करते हो?
रंगीला : ब हो त!
विजया : मैं भी तुमसे प्यार करती हूं।
रंगीला : वो तो होना ही था।
विजया : क्या मतलब?
रंगीला : (नाचते हुए) प्यार तो होना ही था।
विजया : मुझसे शादी करोगे न?
रंगीला : शादी ?... अ. . हां। वो भी कर लेंगे।
विजया : (भावुक हो जाती है।) सच कह रहे हो न?
रंगीला : झूठ नहीं है।
विजया : दहेज तो नहीं लोगे?
रंगीला : बिल्कुल नहीं।
विजया : मुझे धोखा तो नहीं दोगे?
रंगीला : कभी नहीं।
विजया : तो फिर, मुझे लेने कब आओगे?
रंगीला : बहुत जल्दी। तुम मेरा इंतजार करना।
विजया : हां, पर जल्दी आना!
रंगीला एक स्वप्न जैसे जाता है। सामने एक अधेड़ आकर खड़ा हो जाता है।
मामाजी : हम आ गए।
विजया पल भर के लिए हैरान रह जाती है। उसे होश आता है तो चीख पड़ती है। उसकी चीख सुनकर मामाजी भी चीख पड़ते हैं। विजया भाग जाती है। मां और पिताजी आते हैं।
पिताजी : कौन है? कौन है?
मामाजी : कुत्ता न छोड़िएगा... कुत्ता न छोड़िएगा, हम हैं, कृपालपुर के कामता प्रसाद।
पिताजी : कृपालपुर के का म ता प्र सा द....?
मामाजी : जौनपुर के जमुना प्रसाद के....
पिताजी : आ हा हा! आ हा हा! सब कुछ समझ गए। सब कुछ समझ गए। (पत्नी से) अरे भाग्यवान! वह जो एक बात चली थी न! तीन साल पहले जौनपुर वालों के यहां! तो वही लोग हैं। जौनपुर वालों के..?
मामाजी : साला। साला हूं जमुना प्रसाद जी का। मैं कामता प्रसाद, यानी लड़के का मामा।
मां अचानक लंबा घूंघट निकाल कर अंदर जाती हैं।
मामाजी : वाह! क्या संस्कार हैं!
पिताजी : अहोभाग्य हमारे, जो आप पधारे! पर कुछ सूचना तो दे दिए होते। हम रेलवे स्टेशन लेने आ गए होते।
मामाजी : अरे, जब वहां से यहां आ गए, तो यहां से यहां आने में क्या दिक्कत थी? और फिर सरप्राइज इनिसपेक्सन की बात ही कुछ और होती है। हम जब भी इस्कूलों का निरीच्छन करने जाते हैं सरप्राइजिंगली ही जाते हैं। बैठा जाए?
पिताजी : हां-हां। बैठिए न। मैं अभी आया।
मामाजी : आ हां हां रुकिए स्रीमान। इनिसपेक्सन हो गया। अब हम लौटेंगे।
पिताजी : इंन्स्पेक्शन हो गया? कब?
मामाजी : अभी-अभी। बड़ी प्यारी बच्ची है आपकी, समझ लीजिए। हमने देखली।
पिताजी : नहीं। ये तो पत्नी थीं मेरी।
मामाजी : आप बहुत मजाकिया हैं, हंसना चाहिए मगर टाइम नहीं है। दरअसल मैं आपकी बेटी को देख चुका हूं।
पिताजी : लेकिन कब?
मामाजी : वही। जब आप कौन है..कौन है... कहते हुए दौड़े थे।
पिताजी : अच्छा-अच्छा। यानी कि आप मेरी बेटी को देख चुके हैं!
पिताजी आशंकित हो जाते हैं।
मामाजी : अरे स्रीमान्, बेटियों को क्या देखना। बेटी, बेटी होती है। हम लोग तो इन ढकोसलों में विस्वास करते ही नहीं। पर अब देखिए जल्दी करिए, टाइम बिल्कुल नहीं है, अभी हमको लौटना भी है।
पिताजी : लौटना है?
मामाजी : हां। का करेंगे फालतू बैठ के? अभी चार जगह और इनिसपेक्सन में जावेंगे। ग्यारा तो अभी ही बज गए। घड़ी देख लीजिए ।
पिताजी : चार जगह?
मामाजी : हां। नौकरीसुदा लड़का है। अकेले आपका परपोजल थोड़े ही है। इस लाइन में चार हैं। अब का करें। जीजा जी ने सगरा काम हमीं को दे दिया न। एक दिन की सी.एल. ली है, आज हमें सब के सब निपटाने हैं।
पिताजी : लेकिन लड़की को तो देख लीजिए।
मामाजी : देख लिया न। बहुत सुसील है। हमको बहुत पसंद है, मान लीजिए।
लड़का भी बहुत सुसील है बिल्कुल आपकी बेटी की भांति। गऊ है गऊ। हां। अब देखिए हमारे पास टाइम बहुत कम है। काम की बात हो जाए। नगीचे बैठ जावें?
पास बैठते हैं।
ये रही प्रस्नावली यानी कि क्वस्चनायर। प्रस्नावली आब्जेक्टिव टाइप है। आप हां या ना में जवाब देते जावेंगे, हम टिक करते जावेंगे। हां तो बोलिए। कार?
पिताजी : कार?
मामाजी : आपके परपोजल में कार है कि नहीं?
पिताजी : कार तो नहीं है...
मामाजी : उहूं... अच्छा चलिए, बाइक?
पिताजी : बाइक?... ठीक है, देंगे।
मामाजी : सत्तर हजार वाली कि पैंतीस हजार वाली?
पिताजी : आं?
मामाजी : हां।
पिताजी : ठीक है, सत्तर हजार वाली।
मामाजी : रजिस्ट्रेसन?... आप करावेंगे न?
पिताजी : कराएँगे।
मामाजी : इनसोरेंस?
पिताजी : कराएँगे।
मामाजी : कलर टीवी?
पिताजी : करा देंगे... मतलब कि देंगे।
विजया ट्रे में कुछ लेकर आती है। दोनों की बातों में व्यवधान होता है। समझ में नहीं आता कि विजया को तबज्जो दें या लिस्ट को।
अरे विजया! लाओ-लाओ! रख दो। अरे पहले ये लीजिए, मुंह मीठा करिए।
मामाजी : घड़ी देखिए। कितना बज गया। अब इन सब फारमलिटी का टाइम नहीं है।
पिताजी : ठीक है... ठीक है। (विजया से) रख दे बेटा और जा, तू अंदर जा।
विजया अंदर जाती है।
मामाजी : हां तो हम कहां थे? हां! टीवी में। तो स्रीमान बताइए कि टीवी कौन-सी? पचीस हजार वाली कि पंदरा हजार वाली?
पिताजी : ठीक है, पचीस हजार वाली।
मामाजी : सोना?
पिताजी : देंगे।
मामाजी : पंदरा, कि दस, कि पांच?
पिताजी : पांच।
मामाजी : पांच? सोच लीजिए!
पिताजी : ठीक है दस।
मामाजी : चांदी?
पिताजी : दस।
मामाजी : ठंडई?
पिताजी : पिलावेंगे।
मामाजी : पिलावेंगे नहीं। ए.सी. कि कूलर?
पिताजी : कूलर।
मामाजी : बाराती?
पिताजी : बाराती तो आप ले आयेंगे न?
मामाजी : हां...लेकिन आप अफोर्ड कितना करेंगे?
पिताजी : डेढ़ सौ।
मामाजी : ढ़ाई सौ।
पिताजी : मान लिया।
मामाजी : हम आवेंगे कि आप आवेंगे?
पिताजी : हमीं आ जावेंगे।
मामाजी : उठिए।
पिताजी : उठ गए।
मामाजी : गले लगिए।
पिताजी : ये लीजिए।
मामाजी : पर ठहरिए! कैश तो रह ही गया। कितना जोड़ लूं?
पिताजी : विकल्प बताइए?
मामाजी : हः हः... नहीं है। नहीं है। कैश में विकल्प नहीं है। खाली स्थान है जितना आप कहें, मैं भर दूं।
पिताजी : बीस हजार भर दीजिए।
मामाजी : हः हः हः मजाक नहीं स्रीमान्। सुरुआत पचास से है।
पिताजी : तो पचास भर दीजिए।
मामाजी : पचास? चलिए, भर दिया। अब आइए।
दोनों गले मिलते हैं।
अच्छा तो अब चलते हैं। क्या बज गया भाई! अरे बप्पा, साढ़े ग्यारा?
पिताजी : सुनिए?
मामाजी : कहिए?
पिताजी : थोड़ा कोने में आएंगे?
मामाजी : बिल्कुल आएंगे।
दोनों कोने में आते हैं।
पिताजी : आपका काम बड़ा फास्ट है। बहुत पसंद आया। कुछ कमेंट करिए।
मामाजी : कार होती तो कमेंट होता।
पिताजी : हो जाएगी। मामला फिट करिए। (हाथ में कुछ पकड़ाते हैं।) इतना अभी रखिए, आगे और देंगे।
मामाजी : रिश्वत?
पिताजी : नहीं। विदाई।
मामाजी : इस ढंग से?
पिताजी : ऐसे में डबल मजा है।
मामाजी : आदमी समझदार हैं।
पिताजी : दास हूं। दोबारा चरण शीघ्र रखिए।
अंधकार।
पुनः प्रकाश।
अरविंद और अनु कॉफी पी रहे हैं। अनु अरविंद से कुछ बातें करना चाहती है लेकिन वह स्क्रिप्ट में उलझा है।
अनु : कॉफी अच्छी है न?
अरविंद : हूं।
अनु : कल मैंने एक अजीब बात देखी, अरविंद। तुम लोग जब चाय पीने बाहर चले गए थे न, तो मैं विजया को कुछ समझाने लगी। अचानक लाइट चली गयी। विजया ऐसे डरी जैसे छोटी बच्ची हो।
अरविंद : क्यों?
अनु : सिर्फ लाइट चली गई थी इसलिए।
अरविंद : लाइट चली गई थी? कब?
अनु : तुम्हारा ध्यान कहां है, अरविंद? मैं विजया के बारे में कुछ बता रही हूं।
अरविंद : अनु, तुम उसे बदल दो। विजया यह रोल नहीं कर पाएगी। देखो अनु, अब मैं थक चुका हूं। मुझमें पेशेंस नहीं है। अब अगर कोई मुझसे यह उम्मीद करे कि मैं ऐक्टिंग सिखाऊंगा तो यह मेरे साथ बेइंसाफी होगी। मुझे स्किल्ड आर्टिस्ट चाहिए, रॉ नहीं।
अनु : विजया नई लड़की है, मानती हूं। लेकिन उसमें ऐसा कुछ है जो मेरी समझ में अमृता में होनी चाहिए।
अरविंद : मसलन?
अनु : मसलन... उसका उदास चेहरा। उसमें कुछ करने की तड़प!
अरविंद : जो मुझे नहीं दिखता वह तुम्हें दिखता है?
अनु : हो सकता है, ऐसा ही हो। एंड आय ऐम श्योर कि यही खासियत उसे अमृता बना सकती है।
अरविंद : तब तो तुम्हारा बेसिक कांसेप्ट ही गलत है। अमृता एक बहादुर लड़की है। परिस्थितियों से लड़ने का जजबा है उसमें।
अनु : क्या जन्म से ही?
अरविंद : नहीं। कई बार बता चुका हूं। धीरे-धीरे उसमें आता है।
अनु : तो?... . देखो अरविंद, अमृता का जीवन दो फेजेज में बंटा हुआ है। पहली फेज वह, जब वह एक दब्बू और डरपोक अमृता है और दूसरी फेज वह, जब अमृता एक बहादुर और जुझारू अमृता है। मेरी समझ में नहीं आता तुम विजया के चेहरे में पहली अमृता की झलक क्यों नहीं पा रहे हो...
अरविंद : पा रहा हूं। पहली अमृता वह अमृता है जो विजया खुद है, पर दूसरी अमृता वह है जो विजया नहीं है। आखिर विजया को अभिनय दूसरी अमृता के लिए करना है जिसकी उम्मीद ही मुझे नहीं दिख रही है। इसीलिए मैं बार-बार कह रहा हूं कि अगर नाटक को प्रभावशाली बनाना है, इंप्रेसिव बनाना है तो विजया को बदल दो। कोई पावरफुल ऐक्ट्रेस ले आओ नहीं तो नाटक का भगवान ही मालिक है।
अनु : अरविंद, तुममें मैं कुछ चेंजेस पा रही हूं। पहले तुम ऐसे नहीं थे।
अरविंद : कैसा था मैं?
अनु : पुरानी बातों को छेड़ूंगी तो बुरा तो नहीं मानोगे?
अरविंद : कौन-सी पुरानी बात?
अनु : जब कौल साहब ने मेरे बारे में ऐसा ही कहा था, और तुमने मेरे लिए उनका ग्रुप छोड़ दिया था। मुझे कितना दुःख लगा था जब सबके सामने उन्होंने मुझे एक चीप कॉलेज-आर्टिस्ट कहा था। और शायद मुझसे भी ज्यादा तुमको।... क्यों लगा था तुमको दुःख अरविंद?
अरविंद : ... क्योंकि मैं जानता था कि तुम एक... अच्छी आर्टिस्ट हो।
अनु : कैसे जानते थे?
अरविंद : अ... तुम्हारी परफार्मेंस देख कर और कैसे?
अनु : सिर्फ इसलिए?
अरविंद : हां। सिर्फ इसलिए।
अनु : तुम कितने झूठे हो। कितने फरेबी। झूठ बोलते हो और छुपाना भी नहीं आता।
अरविंद : इन सब बातों का अब क्या फायदा!
अनु : हर बात फायदे या नुकसान के लिए ही नहीं होती अरविंद।
अरविंद : अच्छा तो मैं चलता हूं।... जाऊं?
अनु : (पल भर देखती है फिर विषय बदल कर) मान लो, विजया ये कैरेक्टर अच्छी तरह निभा ले तो?
अरविंद : 'अच्छी' की डेफिनीशन क्या होगी?
अनु : 'अच्छी' तुम्हारी नजर में। ओके? तो?
अरविंद : तो क्या? यही तो मैं चाहता हूं। मुझे खुशी होगी।
अनु : किस बात की?
अरविंद : नाटक अच्छा बनेगा। और किस बात की?
अनु : बस! नाटक अच्छा बनेगा सिर्फ इस बात की खुशी होगी?
अरविंद : और क्या? आखिर मुझे नाटक से ही मतलब है।... वह लड़की लक्ष्मीबाई बने, दुर्गावती बने, मुझे उससे क्या? बस वह अमृता बन जाय। मुझ पर उसकी यही मेहरबानी होगी। मेरी बात समझ रही हो न?
अनु अरविंद का हाथ पकड़ लेती है। फिर भूल समझ कर छोड़ देती है।
अनु : अरविंद, नाटक से हट कर भी कभी सोचा करो। कलाकार एक इंसान भी होता है।
अरविंद : मैं जा रहा हूं।
अरविंद चला जाता है। प्रकाश अनु पर केंद्रित होता है। अरविंद की बेरुखी से आहत होती है।
अनु : तुम्हारे लिए कलाकार सिर्फ एक पपेट ही रहेगा। सिर्फ एक पपेट। लेकिन ऐसा नहीं है अरविंद। कलाकार सिर्फ पपेट नहीं होता। वह डायरेक्टर की हर बात पर सर...सर.. करता है इसका मतलब यह नहीं कि वह कुछ जानता नहीं... समझता नहीं...। फिर भी अरविंद, मैं ये चैलेंज लेती हूं। मैं विजया को अमृता बनाकर दिखाऊंगी, अरविंद। विजया को पपेट नहीं बनने दूंगी मैं।... देखा जाए तो विजया और मुझमें फर्क ही क्या है! जब मैं बदल गई तो विजया कैसे नहीं बदल सकती? विजया डरती है। मैं भी तो पहले बहुत डरती थी। डर के कारण घर से बाहर नहीं निकलती थी। मैं तो बहुत पहले से ही डरने लगी थी मगर... किससे? क्या थी वह चीज जो मेरे मन में डर पैदा करती थी?... हां। कुछ-कुछ याद आ रहा है। मैं जब कालेज जाती थी... नहीं, जब मैं स्कूल जाती थी... नहीं, और भी पहले से।... कब से? जब मैं मां की गोद में थी? नहीं-नहीं... और भी पहले। यानी जन्म के पहले से ही? हां। जब मैं मां के पेट में थी। घुप्प अंधेरे में मुझे कुछ आवाजें सुनाई देती थीं। कोई कहती थी इस बार तू बेटा ही जन। कोई कहती थी - खबरदार जो लड़की हुई तो? फिर एक मर्दानी आवाज सुनाई दी थी - मुझे इस बार लड़का ही चाहिए।... मुझे डर लगने लगा था।... लगा कि ये लोग मुझे पैदा होते ही मार डालेंगे! मैंने कोशिश भी की थी कि मैं लड़की से लड़का बन जाऊं, अंदर ही अंदर। पर नहीं बन पाई थी। आखिरकार... मां की सिसकियों और दुनिया भर के तानों के बीच मेरा जन्म हुआ। चारों ओर प्रकाश! आंखों में चकाचौंध! यह किस दुनिया में आ गई मैं। मां कहती थी मैं रोती नहीं थी। मेरे हिस्से का सारा रोना वह रो चुकी थी न। और फिर?... मैंने सुनीं कुछ आवाजें! शायद मन की ही बात रही होगी.
नेपथ्य में कई स्वर - अनु! ! अनु ! ! कहां हो अनु ! !
. .. लोग मुझे पुकार रहे थे! कौन थे वो लोग? और क्यों पुकार रहे थे? शायद तब भी डरती ही थी मैं। मैंने उन्हें कभी नहीं देखा पर वो आवाजें लगातार मेरे कानों में गूंजती रहतीं। लगा जैसे जन्म के वर्षों बाद भी मैं गर्भ के गहन अंधेरों में ही पड़ी हूं। सोचती थी क्या वाकई मेरा जन्म हुआ भी है? कहीं यह सब मेरा भ्रम तो नहीं? पर... वर्षों बाद... जब मैं मंच पर आई तो मुझे लगा, जैसे मेरा जन्म अब हुआ है। विंग्स का अंधेरा गर्भ का अंधेरा रहा हो और ये मंच की फ्लड लाइट्स सूरज की हजार किरणें हों।... मुझे फिर वही आवाजें सुनाई देने लगीं, पर अब वो अपनी लग रही थीं। लोग पहचान रहे थे। तो क्या मेरा जन्म मंच पर आने के बाद हुआ? मंच से जन्म का क्या संबंध? जन्म कहते किसे हैं?
अंधकार।
पुनः प्रकाश।
विजया का घर। पिताजी अखबार पढ़ रहे हैं , मां भी बैठी हैं। अंदर से पुत्रजी की आवाज आती है।
पुत्रजी : पापा, आप अखबार पढ़ चुके हों तो मैं भी पढ़ूं!
पिताजी : हूं...। जाग गए तुम्हारे सुपुत्र। (ऊंचे स्वर में) भेज रहा हूं पुत्रजी। विजया!
विजया : जी पापा।
पिताजी : ले जाओ अखबार। तुम्हारे बड़े भाई साहब जाग गए। सुबह हो गई उनकी।
विजया : दीजिए पापा।
अखबार लेकर मुड़ती है तभी उसके मन में उसे देखने का विचार आता है। विजया एक कोने में बैठ कर अखबार पढ़ने लगती है। पुत्रजी हाफपैंट और टीशर्ट में सीढ़ी से उतरते हैं। पिताजी की ओर जाते हैं।
पुत्रजी : लाइए दीजिए अखबार।
पिताजी : अखबार विजया पढ़ रही है।
जनेऊ चढ़ा कर अंदर जाते हैं। ऐसा लगता है कि प्रेशर बन चुका है।
पुत्रजी : अखबार विजया पढ़ रही है!... विजया क्या करेगी अखबार पढ़ कर ?... आपने तो पढ़ कर अपना काम बना लिया, मैं कब बनाऊंगा? कब अखबार पढ़ूंगा कब बाथरूम जाऊंगा! ओफ्फोह! मैडम के आफिस का भी समय हो रहा है, अब विजया भी अखबार पढ़ने लगी!
विजया को नहीं देख पाता इसलिए अंदर चला जाता है।
विजया! विजया! कहां चली गयी! (पुनः आकर) विजया कहां चली गयी! ओह तो विजया जी यहां अखबार पढ़ रही हैं। लाओ दो मुझे। (छीन लेता है।) तुम क्या करोगी अखबार? जानती भी हो कुछ देश-दुनिया के बारे में?
विजया : भइया, थोड़ा पढ़ लेने दो न!
पुत्रजी : चल-चल। कोर्स की किताबें पढ़ने में मन नहीं लगता, अखबार पढ़ेगी। जा-जा, चूल्हा-चौका कर!
विजया : भइया, देखो इसमें एक पोस्ट निकली है।
पुत्रजी : पोस्ट निकली है? दिखाओ कहां है?
विजया : ये।
पुत्रजी : हूं। मार्केटिंग मैनेजर! पोस्ट तो मेरे लायक है। क्वालीफिकेशन? हूं। ग्रैजुएशन फर्स्ट क्लास! बेकार है! अरे छोड़ो... बहुत छोटी नौकरी है। मैं तो बिजनेस ही करूंगा।
विजया : भइया, मैं एप्लाइ कर दूं? मेरा तो फर्स्ट क्लास भी है।
पुत्रजी : तू? तुझे नौकरी नहीं मिलने वाली। अरे इंटरव्यू होता है इंटरव्यू! देख-सुन कर भरती करते हैं प्राइवेट सेक्टर में। तुझे देख कर तो कोई चपरासी की नौकरी भी नहीं देगा। ह ह ह...
अखबार लिए अंदर चला जाता है। मां लंगड़ाते हुए आती है।
मां : विजया! अरे ओ विजया! अरे देख तो फिर से नस चढ़ गई रे! दबा जल्दी!
विजया दौड़ती हुई आती है और मां का पांव दबाने लगती है।
आह! अरे धीरे-धीरे दबा रे! हां... यहीं। यहीं दबा दे।.....बस ठीक है। हां...हां। क्यों रे विजया, रत्ना की दीदी ने तुझे क्यों बुलाया था? बड़े दिनों बाद याद आई तेरी उसको।
विजया : वैसे ही मम्मी।
मां : और बड़ी देर में लौटी थी? क्या बात थी?
विजया : कुछ नहीं मम्मी। सब तमाशा है और कुछ नहीं।
मां : तमाशा?
विजया : वो एक नाटक में काम कराना चाहती थीं।
मां : नाटक में? अरे नहीं-नहीं। उसको करने दे नाटक में काम। तू मत करना।
विजया : क्यों मम्मी?
मां : अरे नाटक-वाटक में काम करने वाले लोग अच्छे नहीं होते।
विजया : कह रही थीं कोई कलाकार नहीं मिल रहा है तो कर लो।
मां : कलाकार नहीं मिल रहे तो क्या तू ही है। वो अपना काम साधने में लगी है बस। ये नहीं कि टंपू के लिए कोई नौकरी-वौकरी बताए।
दरवाजे पर दस्तक होती है ।
देख तो कौन आया है। उसी टंपू का कोई लफंगा दोस्त होगा। कह दे नहीं है। अंदर न आने देना।
विजया बाहरी विंग की ओर जाती है।
विजया : (कामेश को आया देख कर) अरे! आप!
कामेश : नमस्ते जी!
विजया : नमस्ते।
कामेश : अ...
विजया : आइए। बैठिए। ये मेरी मम्मी हैं।
कामेश : नमस्ते जी।
मां : टंपू नहीं है घर में। रात में आएगा।
विजया : मम्मी, ये कामेश जी हैं। अनु दीदी के साथी हैं। (मां का मुंह कसैला)
मां : नाटक में काम करते हो?
कामेश : जी हां। अ विजया जी वो...
पिताजी : (आते हुए) कौन आया है विजया की मां? (कामेश को देखकर)...एं! (ध्यान से देखते हुए) को तुम तीन देव महकोऊ?
कामेश : जी?
मां : रत्ना की दीदी का दोस्त है।
पिताजी : रत्ना की दीदी का दोस्त! तो ऐसा कहो न कि अनु का दोस्त है। ये घुमा कर कहने की आदत पता नहीं तुम्हारी कब जाएगी। हां तो तुम अनु के दोस्त हो? केहि नाते मानिए मिताई?
कामेश : जी?
पिताजी : मित्रता किस कारण है? (कामेश नहीं समझ पाता)
मां : नाटक में काम करता है। तुम भी अब चौपाई छोड़ो, सीधे-सीधे पूछो।
पिताजी : तो अनु के दोस्त जी, यहां कैसे आना हुआ?
बहूरानी सैंडिल खटखटाती बाहर से आती हैं। सीढ़ी से ऊपर चली जाती हैं। सभी देखने लग जाते हैं। खासकर कामेश भी। पिताजी खांसकर उसका ध्यानभंग करते हैं।
पिताजी : हां तो श्रीमान, सिनेमा देख चुके हों तो बातचीत आगे बढ़ाई जाए?
कामेश : जी?
पिताजी : कुछ कहेंगे भी? यहां पधारना कैसे हुआ?
तभी पुत्रजी का सीढ़ी से उतरना होता है।
पुत्रजी : पिताजी, दस रुपये फुटकर दीजिए।
एक मेहमान के आगे किरकिरी न हो इसलिए मना न करते हुए जेबों में पैसे ढ़ूंढ़ने लगते हैं।
जल्दी करिए आटो खड़ा है।
अशोभनीय होती स्थिति को समझते हुए विजया पैसा मांगने के लिए मां के पास चली जाती है पर बोल नहीं पाती।
जल्दी करिए पिताजी। अभी कितनी जेबें बाकी हैं। ऐसी जगह क्यों रखते हैं कि ऐन वक्त पर मिले न।
कामेश : ये लीजिए मेरे पास हैं...
अप्रत्याशित। पुत्रजी कामेश की ओर दिलचस्पी से देखते हैं।
पुत्रजी : गुड!
पैसा ले कर बाहर चले जाते हैं।
पिताजी : कैसा नालायक है। मेहमान से पैसे ले लिया और...
कामेश : नहीं-नहीं। ऐसी कोई बात नहीं है...
पिताजी : ऐसी बात क्यों नहीं है? क्यों नहीं है ऐसी बात?
कामेश : तो ठीक है... है फिर।
पिताजी : क्या है?
कामेश : पता नहीं।
पिताजी : धन्यवाद। धन्यवाद तो बोलना चाहिए न?
कामेश : जी हां।
पुत्रजी वापस लौटते हैं , अंदर जाते हुए ठिठकते हैं लौटते हैं।
पुत्रजी : (कामेश से) मैंने आपको कहीं देखा है?
पिताजी : अभी-अभी देखा है। इन्हीं से दस रुपए लिया है।
पुत्रजी : ओ! (हाथ मिलाते हुए) थैंकयू वेरी मच। (बगल में बैठ जाते हैं।) आप नेटवर्क बिजनेस में इंटेरेस्टेड हैं?
पिताजी : रुक! अभी अपनी बात नहीं। (कामेश से) हां तो अनु के... अरे भई नाम क्या है आपका?
कामेश : जी कामेश।
पिताजी : ऐं! कामेश! नाम तो बड़ा खतरनाक है आपका। हां तो कामेश जी, काम क्या करते हैं आप?
कामेश समझ नहीं पाता कि वह इस प्रश्न का क्या उत्तर दे।
मुश्किल सवाल है न! इसे छोड़िए। यहां कैसे आना हुआ यह बताइए?
कामेश : जी, यहां इसलिए आया था कि वो अनु दीदी का मेसेज था कि विजया जी को आज रिहर्सल में पहुंचना है।
पिताजी : रिहर्सल?
पुत्रजी : कैसी रिहर्सल?
मां : काहे की रिहर्सल बेटा?
कामेश : वो नाटक की रिहर्सल।
पिताजी : नाटक?
पुत्रजी : कैसा नाटक?
कामेश : जी?
पिताजी : विजया! क्या बात है?
विजया : जी वो...
मां : मैं बताती हूं। रत्ना की दीदी ने...
पिताजी : बोलो। हमेशा घुमा के ही बोलोगी।
मां : अनु ने इसको एक नाटक में एक्टिंग के लिए कहा है। उसी के लिए कह रही है।
पुत्रजी : ऐक्टिंग और विजया? दिमाग तो नहीं खराब हो गया मम्मी आपका?
पिताजी : क्यों तुम्हें क्या हो गया? तुम चुप रहो अभी थोड़ी देर। (कामेश से) हां बोलो, क्या बात है?
कामेश : मुझे लगता है विजया जी ने आप लोगों को बताया नहीं है...
पिताजी : क्या नहीं बताया है?
कामेश : यही कि वो एक नाटक में रोल कर रही हैं...
पुत्रजी : कर रही है? नाटक में? विजया और नाटक में रोल कर रही है?
पिताजी : तुम चुप रहोगे थोड़ी देर? (उसी झल्लाहट के साथ कामेश से) हां
आगे बोलो!
कामेश : अ... मैंने कुछ नहीं किया है। आप अनु दीदी से पूछ लीजिए।
पिताजी : क्या पूछ लीजिए?
कामेश : कि वो नाटक में काम करेंगी या नहीं?
पिताजी : अनु कौन होती है? हम अनु से पूछने जाएंगे? इसका फैसला हम करेंगे कि अनु करेगी।
कामेश : ... तो फिर ठीक है।
पिताजी : क्या ठीक है? अच्छा तमाशा है! यहां क्या हो रहा है हमको पतै नहीं! (कामेश पसीना पोंछता है।) विजया! सबकुछ साफ-साफ बताओ!
विजया : पापा, (सिर नीचे कर के) अनु दीदी ने कहा है कि मैं एक नाटक में काम कर लूं। उन्हें आर्टिस्ट नहीं मिल रहे हैं... तो...
पिताजी : तो क्या?
विजया : तो.... मैं एक दिन गई थी।
पुत्रजी : क्या? तुम एक दिन नाटक में हो भी आई?
पिताजी पुत्रजी की ओर घूर कर देखते हैं।
पिताजी : फिर क्या हुआ? (विजया चुप) फिर क्या हुआ ??
कामेश : फिर... फिर ये घर वापस लौट आईं।
पिताजी कामेश को घूरते हैं।
पिताजी : (विजया से) तुमसे बना कि नहीं कुछ?
हैरानी से सभी पापा को देखते हैं।
जवाब दो। तुमसे कुछ ऐक्टिंग-वैक्टिंग बनी कि बस नाक कटा दी मेरी?
कामेश : नहीं, वो बहुत अच्छा कर रही हैं।
पिताजी : तुम चुप रहो! (फिर मुलायम स्वर में) तुम चुप रहो मैं विजया से
पूछ रहा हूं कामेश जी। तुम बताओ विजया?
विजया : मुझसे नहीं बना पापा।
कामेश : नहीं-नहीं। विजया जी से बन रहा है। बहुत अच्छा कर रही हैं।
पिताजी : तुम तो कहोगे ही। चाहे जितना रद्दी करे कहोगे वाह-वाह! क्योंकि तुम्हारे पास कलाकार जो नहीं हैं।
मां : आर्टिस्ट।
पिताजी : अरे आर्टिस्ट और कलाकार एक ही है। (कामेश से) कब जाना है प्रैक्टिस में कामेश जी?
कामेश : जस्ट अभी। थोड़ी देर भी हो गई है।
विजया : अभी जाना है?
पिताजी : तो क्या हुआ? जा। जा जल्दी।
मां और पुत्रजी अपने -अपने कारणों से चौंक कर देखते हैं।
अरे जा न!
विजया अंदर जाती है। दुपट्टा डाल कर वापस आती है।
कामेश : जी चलता हूं। (पिताजी से) नमस्ते। (मां से) नमस्ते। (पुत्रजी से) नमस्ते। (दोनों जाते हैं)
पिताजी : (ऊंची आवाज में) सदा रहो पुर आवत जाता!
मां और पुत्रजी पिताजी से विमुख होकर बैठ जाते हैं। पिताजी समझ जाते हैं कि अब चर्चा होने वाली है।
हां शुरू करो!
मां : तुमने हां क्यों कर दी?
पिताजी : क्यों? तुम्हें ऐतराज था?
मां : जवान लड़की है। कहीं कोई ऊंच-नीच हो गई तो?
पिताजी : अरे कुछ तो हो!
मां : क्या?
पिताजी : न उस बेचारी की शादी हो रही है, न कोई ऊंच-नीच हो रही है। अ... मेरा मतलब है जो लड़का आया था न, वो मुझे पसंद है। बस नाम ही थोड़ा...
पुत्रजी : लेकिन मुझे पसंद नहीं है।
पिताजी : क्यों क्या बुराई है उसमें? नाटक ही सही कुछ काम तो करता है। तुम्हारी तरह घर में तो नहीं बैठा रहता।
पुत्रजी : मैं घर में बैठा रहता हूं? आप खुद बैठे रहते हैं और कहते हैं मैं बैठा रहता हूं? मुझे विजया का नाटक में काम करना पसंद नहीं है, मैं साफ कहे देता हूं।
पिताजी : क्यों?
पुत्रजी : शरीफ घरों की लड़कियां नाटक में काम नहीं करतीं।
पिताजी : नाटक में शरीफ घरों की लड़कियां ही काम करती हैं, पुत्रजी।
पुत्रजी : वह नाटक में काम करेगी तो घर का काम कौन करेगा?
पिताजी : हां! अब आए हो प्वाइंट पे। तो पुत्रजी, इसका भी हल मेरे पास है।
पुत्रजी : क्या है हल? (खुश हो कर) नौकर रखेंगे? नौकर रख लीजिए न पिताजी। बेचारी विजया को कितना काम करना पड़ता है! मैडम के लिए भी ठीक रहेगा।
पिताजी : नौकर नहीं रखूंगा, पुत्रजी!
पुत्रजी : तो फिर? फिर कौन करेगा काम? बताइए?
पिताजी : तुम। तुम घर का काम करोगे, पुत्रजी।
पुत्रजी : मैं करूंगा? घर के काम मैं करूंगा?
पिताजी : क्यों? क्या बुराई है?
पुत्रजी : मैं पी.जी.डी.सी.ए. हूं, पिताजी!
पहले तो पिताजी भरपूर नजर देखते हैं। फिर धाराप्रवाह बोलने लगते हैं।
पिताजी : तो क्या हुआ? डी.पी.जी.डी.सी.ए. तो नहीं हो। डी.पी.टी. तो नहीं हो। डी.डी.टी. तो नहीं हो। ए.बी.सी.डी.ई.एफ.जी. तो नहीं हो। माना कि तुम हाइली क्वालीफाईड हो तो वह भी बी.ए. बी.एड. है पुत्रजी। एम.ए. कर रही है।
पुत्रजी : लेकिन घर के काम औरतों को ही करना चाहिए न?
पिताजी : तो कहो न अपनी मैडम को। किया करे वह घर के काम।
पुत्रजी : मैडम नौकरी करती हैं पिताजी।
पिताजी : तो तुम करो। तुम तो नौकरी नही करते। (पुत्रजी निरुत्तर) क्या हुआ? गयउ सहमि कछु कहि नहिं आवा!
पुत्रजी : जब नहीं तब चौपाई? अच्छा लाइए नौकरी। मैं न करूं तो कहिए।
पिताजी : नौकरी क्या मेरी जेब में रक्खी है!
पुत्रजी : फिर?
पिताजी : फिर क्या?
पुत्रजी : जब नौकरी नहीं दे सकते हैं, तो फिर बात-बात पर नौकरी की टेर सुनाना जरूरी है क्या?
पिताजी : अखबार पढ़ते हो न रोज?
पुत्रजी : तो?
पिताजी : उसमें नौकरी के विज्ञापन नहीं पढ़ते क्या?
पुत्रजी : पढ़ता हूं। तो?
पिताजी : तो फिर अप्लाई क्यों नहीं करते महराज।
पुत्रजी : वाह-वाह-वाह! बड़ी नई बात कर रहे हैं न आप? पहली बार किसी ने मार्के की सलाह दी है मुझे। है न?
पिताजी : तो फिर जाओ। सलाह पर अमल करो। मेरा दिमाग मत खाओ।
पुत्रजी : कर चुका हूं। जब से पैदा हुआ यही कर रहा हूं मैं, और अब थक चुका हूं। अप्लाई-अप्लाई, नेवर रिप्लाई। वो तो अच्छा हुआ कि मैडम को फंसा कर शादी कर ली मैंने, नहीं तो आपके भरोसे कुंआरा ही रहा आता। जैसे बेचारी विजया बैठी है।
पिताजी : बहुत तरस आ रहा है विजया पर तो उसके लिए लड़का क्यों नहीं ढूंढ़ते?
पुत्रजी : विजया आपकी लायबिलिटी है, मेरी नहीं।
पिताजी : अच्छा! तो तुम्हारी क्या लायबिलिटी है पुत्रजी, मैं भी तो जानूं।
पुत्रजी : मैं भी आपकी लायबिलिटी हूं।
पिताजी : तुम लायबिलिटी हो?
पुत्रजी : हां। आपकी। पूरे देश की।
पिताजी : अरे मूर्ख, मैन पावर लायबिलिटी में नहीं आता एसेट्स में आता है।
पुत्रजी : जिंदगी भर एकाउंटैट रहे। सोसायटी की एकांउटैंसी नहीं आई। एसेट्स वो होते हैं जिनकी कोई मार्केट वैल्यू होती है। एसेट्स वो हैं जो बिकाऊ हों। एसेट्स वो है जो मार्केट में बिक सकें। मैं क्यों नहीं हूं बिकाऊ? मल्टीनेशनल कंपनी मुझे क्यों नहीं ले रही है? कंप्यूटर वाले मुझे क्यों नहीं ले रहे हैं? कहां है बिल गेट्स? और अगर नहीं हूं बिकाऊ तो इसका जिम्मेवार मैं नहीं, आप हैं और यह देश है। अरे आपसे ज्यादा एकाउंटेंसी तो मुझे आती है।
पिताजी : अच्छा! दो और दो कितने होते हैं बता?
पुत्रजी : फिर वही! यंग जेनरेशन आप लोगों से जब भी सीरियसली बात करना चाहती है आप बाप बन जाते हैं! मैं अब आपसे कोई बात नहीं करूंगा। (चला जाता है।)
पिताजी : मैदान छोड़ कर भाग लिए पुत्रजी?
मां : वह कहां भाग रहा है?
पिताजी : तो?
मां : भाग तो तुम रहे हो।
पिताजी हैरान हो कर पत्नी की ओर देखते हैं। फिर नजरें झुका लेते हैं। बाहर से आवाज आती है।
मामाजी : स्रीमान्!
पिताजी : अरे अहोभाग्य!
मामाजी : अरे मत बोलिए...मत बोलिए! भगवान सब कुछ बनाए पर लड़के का मामा न बनाए। और सुनिए! भगवान सब कुछ दे! स्रीमान् ध्यान चाहूंगा!
पिताजी : हां-हां।
मामाजी : भगवान सबकुछ दे, पर... सादी-ब्याह तय कराने का जिम्मा न दे।
पिताजी : वो तो है पर... बात कुछ आगे बढ़ी या...?
मामाजी : अरे बिल्कुल बढ़ गई और बहुत दूर तक चली गई।
पिताजी : अच्छा! अरे भाग्यवान! अब तुम अंदर मत जाना। बाद में कहने लगती हैं कि ये नहीं पूछा, वो नहीं पूछा तो यहां बैठो और सब कुछ खुद ही पूछ लो। कामता प्रसाद जी, ये मेरी धर्मपत्नी हैं।
मामाजी : आहाहा! आंखें तर गयीं। आप को देखा तो मुझे अपनी पत्नी की याद आ गई। हू-ब-हू आप जैसी। बरसों हो गए.. क्या करें....
पिताजी : कामता प्रसाद जी! होनी को कौन टाल सकता है। और फिर यह तो सब के साथ होना है।
मामाजी : नहीं-नहीं। आप गलत समझ रहे हैं। वो हैं। दरअसल इस शादी-ब्याह के सिलसिले में मैं ही घर नहीं जा पाता।
पिताजी : अरे-अरे! क्षमा कीजिएगा, भूल हुई।
मां अंदर जाने लगती हैं।
मामाजी : अरे बैठिए न आप भी।
पिताजी : तो बात कहां तक आगे बढ़ी?
मामाजी : बस यह समझिएगा कि जरा-सी बात पर अंटक गई है।
पिताजी : (मां से) अरे सुनो! जाओ जल्दी से कुछ बढ़िया नाश्ता बनाओ!
मामाजी : नहीं है। टाइम बिल्कुल नहीं है। घड़ी देख लीजिए। मैं बस यह कहने आया हूं कि आपकी बिटिया और हमारे लल्लाजी की जोड़ी समझ लीजिए कि भगवान ने लिख दी है। अब इसमें हम-आप अड़ंगा नहीं लगा सकते। हम चाहें भी तो यह होनी नहीं टाल सकते स्रीमान्।
पिताजी : सब कृपा है आपकी।
मामाजी : मेरी नहीं। मेरी नहीं। मैं तो बहुत छोटा आदमी हूं स्रीमान्। बस दिल से चाहता हूं कि यह रिस्ता हो जाए।
पिताजी : आप चाहेंगे, तब तो सब कुछ हो जाएगा।
मामाजी : सब कुछ तो आपके चाहने पर है स्रीमान्।
मां : मैं अभी आई। कुछ खाने के लिए ले आती हूं।
मामाजी : माफी चाहता हूं। बिल्कुल टाइम नहीं है, घड़ी देख लीजिए। बस एक विनती करने आया हूं, कि राम और सीता की जोड़ी को बनने से मत रोकिए... मत रोकिए...।
मामाजी आंसू पोंछने लगते हैं। मां और पिताजी एक -दूसरे को देखते हैं।
पिताजी : लेकिन रोक कौन रहा है?
मामाजी : आप! आप रोक रहे हैं!
पिताजी : मैं कुछ समझा नहीं।
मामाजी : पचास हजार में कहीं राम और सीता मिले हैं? सोचिए! पैसे का मोह मत करिए। आज नहीं है तो कल हो जाएगा।
पिताजी : हूं। कितना बढ़ा दूं?
मामाजी : एक। मात्र एक। एक लाख और बढ़ाइए। बात... बन सकती है। बोलिए! जल्दी बोलिए! टाइम कम है!
पिताजी : (दोनों हाथ जोड़कर) ठीक है, बोल दिया।
मामाजी : जय हो! जय हो! अब दुनिया की कोई ताकत राम और सीता को मिलने से नहीं रोक सकती। बस, विदाई हो जाए और मैं प्रश्थान करूं। टाइम कम है।
पिताजी मां को विदाई ले आने का इशारा करते हैं। मां अंदर जाती है। मामाजी अत्यंत गंभीर मुद्रा में खड़े हैं।
अंधकार।
पुनः प्रकाश।
रिहर्सल में अनु , अरविंद और विनोद गीत की कंपोजिंग कर रहे हैं।
विनोद : तिकड़म धू तिकड़म धू तिकड़म धू धू
तिकड़म धू तिकड़म धू तिकड़म धू धू
देखो रे तमाशा ये दुनिया का
कैसे कोई खेल बनता है
अनु : इसको अगर ऐसा कर दें (ऊंचे स्वर में)... कैसे कोई खेल बनता है!
अरविंद : हां ये ठीक है ।
विनोद : देखो रे तमाशा ये दुनिया का
कैसे कोई खेल बनता है
कैसे लड़की का बाप बनता है घुनघुना
जितना हिलाओ बजता है
और जितना जोर से पीटो
उसका बैंड उतने ही जोरों से बजता है
अरविंद : (ऊंचा आलाप लेता है।) आ आ......
और फिर जब वही लड़की का बाप बनता है लड़के का बाप
भूलकर सारे गम
वो बन जाता है कसाई
विनोद : हां, और बहुत भयानक कसाई।
सभी : देखो रे देखो रे देखो आदमी दरिंदा है
खून पीता दूसरों का फिर भी नहीं शर्मिंदा है।
अरविंद : (आलाप के साथ) आदमी... दरिंदा है...
विजया और कामेश आते हैं।
अनु : अहा! ! आ गई आ गई! आओ! जानेमन!
विजया : नमस्ते सर! नमस्ते दीदी! नमस्ते सर!
विनोद : नमस्कार विजया जी। घर में सब ठीक-ठाक है न?
विजया : जी।
अरविंद : मम्मी-पापा से परमीशन ली हो न विजया?
कामेश : अभी-अभी ले कर आया हूं सर। इन्होंने तो घर में बताया ही नहीं
था।
अनु : क्यों विजया? तुमने परमीशन नहीं ली थी?
विजया : ... नहीं।
अनु : क्यों?
कामेश : मैं तो बड़ी ही मुश्किल में फंस गया था।
विजया : पसीना पोंछ रहे थे ये।
अनु : क्यों कामेश?
कामेश : दीदी, 'ये' काम बहुत मुश्किल है। फीमेल आर्टिस्ट के यहां जाना! बाप रे बाप!
अनु : क्यों आखिर हुआ क्या?
अरविंद : खैर छोड़ो। चलो स्क्रिप्ट खोलो।
पाकेट से सिगरेट निकालता है।
विनोद : बेटा अपन बहुत झेले हैं। अब कुछ तुम भी झेलो।
अनु : विजया, पेज नंबर पांच खोलो।
विजया : जी।
अनु : कामेश! तैयार हो?
कामेश : जी।
अनु : बोलो। डायलॉग बोलो।
अरविंद : घर में तो रीडिंग करते हो न कामेश।
कामेश : जी सर।
अरविंद : चलो शुरू करो।
अरविंद और विनोद बाहर चले जाते हैं।
कामेश : अमृता... अमृता! तुम यहां बैठी क्या कर रही हो? ओहो! अरे भई पार्टी में चलना है कि नहीं? चलो जल्दी तैयार हो जाओ।
विजया : मैं तैयार हूं जी।
अनु : शाबाश! थोड़ा ऐसे - मैं तैयार हूं ज्जि! ठीक?
विजया : जी।
अनु : फिर से बोलो कामेश!
कामेश : अमृता! अमृता! तुम यहां बैठी क्या कर रही हो? ओहो... अरे भई पार्टी में चलना है कि नहीं? चलो जल्दी तैयार हो जाओ।
विजया : मैं तैयार हूं ज्जि।
अनु : वेरी गुड!
कामेश : ये... तुम तैयार हो ? यही मेकअप रहेगा तुम्हारा और यही साड़ी पहनोगी? ये चिपके-चिपके बाल, ये लंबी चोटी, हाथों में इतनी चूड़ियां! पार्टी में जा रहे हैं पूजा में नहीं। अरे थोड़ा ग्लैमरस बनो यार! थोड़ी अपील डेवलप करो!
विजया : मैं तो ऐसे ही ठीक हूं ज्जि। हमारी अम्मां जब भी बाहर जाती हैं ऐेसेई जाती हैं।
कामेश हंस पड़ता है।
अनु : कामेश!
कामेश : सॉरी दीदी। विजया जी ये डायलॉग इतना अच्छा बोलती हैं कि हंसी रोके नहीं रुकती।
अनु : सचमुच। अच्छा बोलती हो। अरे भई थैंक्स बोलो, कामेश तुम्हें कांप्लीमेंट्स दे रहा है।
विजया : थैंक्स।
कामेश : यू आर वेलकम!
हंसते हुए अनु भी बाहर जाती है।
कामेश : हूं। आगे बोलो।
विजया : मैं तो नहीं बोलूंगी। मुझसे नहीं बनता तो आप हंसते हैं।
कामेश : नहीं-नहीं ऐसी बात नहीं है। तुमको बुरा लगता है तो नहीं हंसूंगा। प्रामिस। अरे चलो-चलो डायलॉग बोलो नहीं तो अरविंद सर अभी डांट लगाएँगे।
विजया : चलिए बोलिए।
कामेश : अमृता! अमृता! तुम यहां बैठी क्या कर रही हो? ओहो... अरे भई पार्टी में चलना है कि नहीं? चलो जल्दी तैयार हो जाओ।
विजया : मैं तैयार हूं ज्जि।
कामेश : ये... तुम तैयार हो? यही मेकअप रहेगा तुम्हारा और यही साड़ी पहनोगी? ये चिपके-चिपके बाल, ये लंबी चोटी, हाथों में इतनी चूड़ियां! पार्टी में जा रहे हैं पूजा में नहीं। अरे थोड़ा ग्लैमरस बनो यार! थोड़ी अपील डेवलप करो!
विजया खोसी जाती है।
क्या हुआ? कहां खो गईं मैडम?
विजया : आं?... कहीं नहीं। (हल्की हंसी)
प्रकाश विजया पर केंद्रित होता है। विजया आगे आती है।
विजया : (गुनगुनाना) ऊं... आ अ आ आ आ!
ख्वाब के सहारे मैं सुबह-शाम जीती हूं
कल्पना की रह-रहकर मैं शराब पीती हूं
ताल पर रंगीला एक स्वप्न की तरह आता है। प्रकाश मद्धम ही है।
रंगीला : आऊंगा मैं इक दिन कुड़िए, अपना है ये वादा
नहीं भूलता मन को मेरे, तेरा रूप ये सादा
इसीलिए मैं कहता हूं चल भग ले प्यार में। मैं रंगीला...
स्वप्न की ही तरह रंगीला जाता है। विजया मुग्ध होने लगती है और अपने बाल खोलकर सजने-संवरने लगती है। प्रकाश पूरे मंच पर बढ़ता है। विजया गुनगुनाती हुई काल्पनिक आईने के सामने श्रृंगार करने का अभिनय करती है। चुपके से पापा और मम्मी उसके इस परिवर्तन को देख कर चकित होते हैं।
मां : क्या तुम भी वही देख रहे हो जो मैं देख रही हूं?
पिताजी : क्या तुम भी वही सुन रही हो जो मैं सुन रहा हूं?
विजया अपने में मग्न है ।
मां : उसकी आंखों की चमक बता रही है कि वह कितनी खुश है!
पिताजी : उसके चलने का ढंग बता रहा है कि उसके जीवन में कोई आया
है।
मां : आज उसने अपने बालों को शैंपू किया है।
पिताजी : तभी तो उसके बाल रेशम जैसे लग रहे हैं।
मां : आज उसने देह पर उबटन मला है।
पिताजी : हूं...। तभी तो उसका रंग निखरा-निखरा लग रहा है।
मां : कितनी प्यारी लग रही है हमारी बेटी।
पिताजी : ऐसी वो कभी नहीं लगी थी।
मां : हूं...।
पिताजी : कौन कहता है कि वह बदसूरत है!
मां : चुप रहो। तुम्हीं तो कहते थे। अब बस भी करो। नजर न लगा देना हमारी बेटी को।
विजया अपने ही मूड में अंदर जाती है।
पिताजी : जाओ पता करो। उसकी खुशी का राज क्या है? कहीं कोई लड़का उसे पसंद तो नहीं करने लगा? क्या हुआ?
मां : हम लोग भी क्या-क्या सोचने लगे। उसके चेहरे पर जरा-सी मुस्कान आई कि हम ही खिल उठे। सुनो, क्या वाकई हम दोनों यही चाहने लगे हैं कि उसे कोई पसंद करे और ले जाए।
पिताजी : शायद हमारे खुश होने का तरीका बेहूदा है विजया की मां, वरना सच्चाई तो यही है कि बेटी को कोई पसंद करे, ले जाए और अपना बना ले। इससे बड़ी खुशी मां-बाप की और क्या हो सकती है।
मां : अरे विजया!
विजया आती है।
विजया : जी मम्मी। अरे! ऐसे क्या देख रहे हैं मुझे?
पिताजी : अरे-अरे कुछ नहीं। ये बता रिहर्सल कैसी चल रही है? कुछ बनता-वनता है कि बस ऐसे ही?
विजया : पता नहीं पापा। (अंदर चली जाती है।)
पिताजी : पता नहीं? शरमा गई।
मां : अरे विजया!
विजया : हां मम्मी। (विजया फिर से आती है।)
मां : आज तू अपने नाटक की रिहर्सल मे मत जाना। आज शाम को हम दोनों बाजार चलेंगी। बोल चलेगी न?
पिताजी अखबार की ओट से विजया की प्रतिक्रिया देखते हैं।
विजया : (मायूसी के साथ) जी।
मां : जा। अब घर का काम निपटा डाल।
मां की आंखों में चमक आती है।
पिताजी : क्या हुआ?
मां : देखा, मैंने उससे कहा कि आज रिहर्सल में नहीं जाना है, तो कैसे कुम्हला गई ।
पिताजी : क्यों कहा तुमने ऐसा?
मां : अरे उसका मन लेने के लिए। जरूर वह नाटक के कारण ही खुश है। ऐसा क्या है नाटक में जो उसके कारण खुश है? जरूर नाटक के पीछे कोई और ही बात है।
पिताजी : कोई और बात? और क्या बात हो सकती है? तुम भी बड़ी शक्की हो। जवानी भर मुझ पर शक करती रही और जब बूढ़ी हो गई तो बच्चों पर शुरू कर दिया।
मां : इसीलिए ये घर बसा हुआ है।
पिताजी : अच्छा! तुम्हारे शक करने के कारण ये घर बसा हुआ है? वो कैसे?
मां : अब ज्यादा मुंह न खुलवाओ। सब जानती हूं तुम कैसे थे...।
बोलते हुए अंदर जाती है।
पिताजी : अरे! कमाल है! अरे मेरा बस चलता तो जितना खुलता है वो भी बंद करा देता। (ऊंचे स्वर में) अरे विजया! कहीं नहीं जाना है बाजार-वाजार। अपनी रिहर्सल में जा। रिहर्सल में नहीं पहुंचेगी तो सबका नुकसान होगा कि नहीं? विजया!
विजया आती है।
विजया : जी।
पिताजी : तुम्हें बाजार नहीं जाना है, समझी। अपनी रिहर्सल में जाना। टाइम पर। ठीक है?
विजया : जी।
पिताजी : और सुन! कभी अपने दोस्तों को घर पर बुलाना। मुझे अच्छा लगेगा। मैं उन्हें खाना खिलाऊंगा। ठीक है?
विजया : जी।
विजया जाती है , उसी समय पुत्रजी का आगमन।
पिताजी : भूत पिशाच निकट नहिं आवे...
पिताजी अखबार में अपना मुंह छुपाते हैं।
पुत्रजी : पापा, मुझे एक दूकान लेनी है। आपका आशीर्वाद चाहिए।
पिताजी : आशीर्वाद है पुत्रजी।
पुत्रजी : मुझे पैसा चाहिए।
पिताजी : अपनी मैडम से मांगो।
पुत्रजी : मैडम से नहीं, मुझे आपसे चाहिए।
पिताजी : मेरे पास पैसे नहीं हैं पुत्रजी।
पुत्रजी : आपके पास पैसे हैं पिताजी, मुझे मालूम है।
पिताजी : वो विजया की शादी के लिए हैं।
पुत्रजी : विजया की शादी अभी तो नहीं हो रही है न? अभी दूकान में लगा देते हैं साल भर के अंदर आपके पैसे आपको लौटा दूंगा।
पिताजी : मुझे पैसे फेंकने का शौक नहीं है पुत्रजी।
पुत्रजी : फेंकने का? आप अपने इकलौते लड़के को बिजनेस सेट्ल करने के लिए पैसे दे रहे हैं, फेंक नहीं रहे हैं।
पिताजी : एक ही बात है।
पुत्रजी : यही तो दुर्भाग्य है। जो कुछ कर नहीं सकते वो पैसा बांध कर बैठे हैं, और जो कुछ करना चाहते हैं उनके पास पैसेइ नहीं हैं। आदमी करे भी तो क्या करे?
पिताजी : ये मेरा दुर्भाग्य है, बेटे।
पुत्रजी : नहीं-नहीं पिताजी, आप दुःखी न होइए। यह आपका नहीं, पूरे देश का दुर्भाग्य है। हर घर में आप जैसे बाप बैठे हैं। ठीक है, मुझे क्या? अब मैं आपसे दोबारा पैसे के लिए कहूंगा ही नहीं। लाइए अखबार दीजिए।
पिताजी : अरे भई विजया की मां! एक कप चाय और मिलेगी क्या?
मां : (अंदर से ही) विजया! एक कप चाय बना दे पापा के लिए।
पुत्रजी : अरे! सचिन ने ब्रेडमैन की बराबरी कर ली?...वेरी गुड! वेरी गुड! ये लड़का जायेगा! जरूर जाएगा!
पिताजी : कहां जाएगा पुत्रजी?
पुत्रजी : क्या पढ़ते हैं आप? बहुत ऊपर जाएगा! बहुत ऊपर जाएगा बाप!
मां आती है।
मां : सुनो!
पिताजी : तुम भी सुना दो। सुन ही तो रहा हूं।
मां : नाराज नहीं होना।
पिताजी : याद नहीं आता कि कभी हुआ हूं?
मां : बहू का मन है कि ऊपर एक कमरा बन जाए।
पिताजी : बहुत सुंदर मन है। बिल्कुल बन जाए।
पुत्रजी : अरे तो जब आप की तिजोरी खुलेगी तब न बनेगा।
पिताजी : तिजोरी तो पुत्रजी सिर्फ एक काम के लिए ही खुलेगी। और वह है विजया का ब्याह।
पुत्रजी : मतलब ये कि विजया ही आपके लिए सब-कुछ है। और हम बेटा-बहू आपके लिए कुछ भी नहीं हैं?
पिताजी : लायबिलिटी हो न।
पुत्रजी : पापा, आप सिचुएशन को समझ नहीं रहे हैं।... विस्फोट हो जाएगा। समझ लीजिए।
पिताजी : विस्फोट? कैसा विस्फोट?
पुत्रजी : मैडम बहुत दिनों से अलग रहने की बात कर रही हैं।
पिताजी : चोप्प! ! मैडम के दुमछल्ले! उठ! उठ यहां से! चल भाग! घर में बैठे-बैठे जोरू का गुलाम ही हुआ जा रहा है कमबख्त!
पुत्रजी सीढ़ी की ओर भागते हैं। पलट कर ...
पुत्रजी : मैं जा कर मैडम को एक-एक बात बता दूंगा, हां।
पिताजी : तू भागता है कि नहीं!
मां : जवान बेटे को थोड़ा सोच-समझ कर डांटा करो।
पिताजी : जवान? बुढ़ा गया है बोलने का शऊर नहीं आया।
मां : वैसे उसने सच ही कहा है। मैडम की इच्छा अब अलग रहने की है। बहाना है कि घर छोटा पड़ता है।
पिताजी : (ऊंचे स्वर में बहू को सुनाते हुए) तो चली जाय न? उसके मत्थे घर का खर्च नहीं चलता। मैं अपनी पेंशन में गुजारा कर लूंगा। कह देना उससे। कल जाना हो तो आज ही चली जाय। हुंह! दो हजार रुपट्टी की नौकरी क्या कर ली अपने को तुर्री बेगम मानने लगी!
मां : हो गया बस भी करो। देखो वह आ रहा है।
पुत्रजी सीढ़ी से उतर कर क्रास करते हैं।
पिताजी : अरे मैं डरता नहीं हूं किसी से। क्यों, अब कहां जा रहे हो?
पुत्रजी : कहीं भी जाता होऊं। आपसे पूछ कर जाऊं? बुढ़ा भी गया हूं और पूछ कर भी जाऊं? (जाते-जाते) पता नहीं बड़ा कब समझेंगे!
अंधकार।
पुनः प्रकाश।
विजया डायलॉग याद कर रही है। स्क्रिप्ट हाथ में और चहलकदमी। कभी -कभी हाथों का संचालन और भाव प्रदर्शन भी।
विजया : हां तो गोयल साहब, क्या सोचा आपने? क्या दिक्कत है? आप बताइए? कोई आपको रोक रहा है?... गोयल साब, मैं सोचती हूं कि आगे बात करने का कोई फायदा नहीं है। आप जा सकते हैं।
मां : (अंदर से) कौन आया है विजया?
विजया : कोई नहीं मम्मी। मैं सोचती हूं कि आगे बात करने का...
मां : अरे तो तू किससे बात कर रही है?
विजया : मैं? (पुत्रजी बाहर से अंदर आते हैं।)... मैं भैया से बात कर रही हूं।
पुत्रजी चौंकते हैं। फिर अंदर जाने लगते हैं कि विजया की आवाज सुन कर पुनः रुकते हैं।
हां तो गोयल साहब, क्या सोचा आपने?
पुत्रजी : क्या?
विजया : तुमको नहीं भैया। मैं डायलाग याद कर रही हूं। प्लीज तुम जाओ।
पुत्रजी हिकारत से उसे देखते हैं। जाने को होते हैं लेकिन पलटते हैं।
पुत्रजी : देखूं।
विजया : क्या?
पुत्रजी : कापी।
विजया : स्क्रिप्ट?
पुत्रजी : हां। वही।
विजया : प्लीज भैया, मुझे डायलाग याद कर लेने दो।
पुत्रजी : अरे दे तो! (छीन लेते हैं।) डायलाग ऐसे नहीं याद किया जाता, पागल। क्या बताता है तेरा डायरेक्टर! देख, मैं बताता हूं। देख, (बड़े ही नाटकीय ढंग से)... हां तो गोयल साहब, क्या सोचा आपने? (दूसरी तरफ जा कर) अब सोचना क्या मैडम जी। आपका हुकुम है तो मेरे को तो करना ही करना है... अरे विजया, तू अपना डायलाग बोल, मैं गोयल का बोलता हूं (बांह चढ़ाते हैं।)।
विजया : हां-हां। चलो।
पुत्रजी : बोल।
विजया : हां तो गोयल साहब क्या सोचा आपने?
पुत्रजी : अब सोचना क्या मैडम जी। आपका हुक्म है तो मेरे को तो करना ही करना है...
बोलते -बोलते बाहर वाले दरवाजे के पास पहुंचते हैं कि सामने बहूजी! पुत्र जी डायलॉग की ही शैली में मैडम के पीछे-पीछे।
आपका कहना था यानी आदेश था यानी कि हुक्म था कि दूसरा मकान ढूंढ़ना है तो मैं वह काम कर आया हूं। अब जब आप उसे फाइनल कर लें तो बात आगे बढ़े। और ये काम जल्दी से जल्दी हो जाए मैडम तो अति उत्तम है नहीं तो रहने वाले बहुत हैं और मकान कम। भारत की जनसंख्या तो आप जानती हैं कितनी तेजी से बढ़ रही है। हम दो के अलावा बाकी सब तो इसी काम में लगे हैं...
स्क्रिप्ट फेंकता हुआ मैडम के पीछे -पीछे सीढ़ी चढ़ते हुए अंदर चला जाता है। विजया कुछ चिंतित होती है और फिर स्क्रिप्ट याद करने लगती है। ऊपर से बहू आती है। हाथ में एक साड़ी और फाल है।
बहू : विजया!
विजया : क्या भाभी।
बहू : विजया, एक काम कर देना बहना।
विजया : बोलिए भाभी।
बहू : ये साड़ी है न! इसमें ये फाल लगाना है। लगा देगी न?
विजया : लेकिन इसमें तो बहुत समय लगेगा। बाहर से लगवा दूं।
बहू : नहीं, बाहर से नहीं। बेमतलब को दस रुपए लग जायेंगे। तुम ही लगा देना न। क्या करोगी बैठे-बैठे?
विजया : ठीक है भाभी। अरे वाह! आपके इयर रिंग्स कितने सुंदर हैं! कब खरीदे आपने ?
बहू : (खुश होती हुई) अभी आज ही ले आई हूं। सुंदर हैं न?
काल्पनिक शीशे में देखने का अभिनय।
विजया : हूं...। आपके चेहरे पर तो बहुत खिलते हैं।
बहू : मेरे चेहरे पर तो हर चीज खिलती है?... नहीं?
सीढ़ी की ओर जाती है।
विजया : हां।
भाभी अंदर चली जाती हैं। विजया मंच के बीच में आती है। दो पल अवसाद के बीतने के बाद काल्पनिक रूप से अपने कानों में इयर रिंग्स पहनती है , नाक में नथ पहनती है, जूड़ा ठीक करती है, साड़ी ठीक करती है और विभिन्न अदाओं के साथ मुद्राएं बनाती हुई हरकतें करती है। सहसा रिद्म के साथ संगीत बजने लगता है। विजया हैरानी से इधर-उधर देखने लगती है। रंगीला नाचता-ठुमकता हुआ आता है। हाव-भाव से उसके बनाव-श्रृंगार की तारीफ करता है। विजया को अच्छा लगता है, नाचता हुआ ही रंगीला चला जाता है। विजया में एक नई उमंग आती है।
अंधकार।
पुनः प्रकाश।
अरविंद आदि नाटक की रिहर्सल कर रहे हैं। अरविंद स्क्रिप्ट में डूबा है। विजया पूरे आत्मविश्वास और चमक के साथ है।
अरविंद : (स्क्रिप्ट से नजरें उठा कर) हां तो दोस्तो आज हम चौथे दृश्य की ब्लॉकिंग करेंगे। हमारी इस टीम में कई नए कलाकार हैं, जैसे विजया। विजया कहां है?
विजया : जी मैं यहां हूं सर।
अरविंद : ओ... (विजया के परिवर्तन को गौर से देखता है।) हूं हूं वेल। तो आप लोग अपनी-अपनी स्क्रिप्ट लेकर मंच पर आ जाएँ।
कामेश : यस्सर।
कामेश , विजया और विनोद मंच पर पहुंचते हैं। अरविंद अनु के पास जाता है।
अरविंद : अनु! आज विजया काफी डिफरेंट लग रही है।
अनु : कैसी डिफरेंट अरविंद?
अरविंद : अ... कुछ-कुछ... अच्छी-सी लग रही है।
अनु : (समझती हुई) अच्छी तो वह है ही।
अरविंद : नहीं। आज कुछ अलग सी लग रही है।
अनु : नहीं अरविंद। विजया वैसी ही है। रोज की तरह।
अरविंद : नो। विजया कल तक ऐसी नहीं थी।
अनु : विजया कल भी ऐसी ही थी।
अरविंद : हूं? तो शायद यह मेरी नजरों का धोखा है। (कलाकारों से) हां तो दोस्तो! ब्लॉकिंग का अर्थ है मंच के स्पेस को मूवमेंट्स में बांटना। ये मूवमेंट्स संवाद के अंदर से मोटिव्स ढूंढ़कर निकाले जाते हैं। मूवमेंट्स फर्म होने चाहिए, फिक्स्ड होने चाहिए और प्रापर होने चाहिए। किसी भी बात पर कौन-सा मूव लेना है इस बात का खास खयाल रखें। विनोद!
विनोद : जी।
अरविंद : तुम प्रापर्टी डीलर हो। बिजनेस, ओनली बिजनेस। आंखों में, होठों
पर, मूवमेंट्स में, ओके? कामेश!
कामेश विजया से बात करने में व्यस्त था।
कामेश : जी।
अरविंद : तुम एंट्री राइट विंग से लोगे। एंड यू आर ड्रंक। चार पैग की खुराक में दो पैग। हल्की- सी लड़खड़ाहट, जुबान पर भी और पांवों में भी।... राइट? और विजया!
विजया : जि...जी...
अरविंद : क्या हुआ?
विजया : जी कुछ नहीं।
अरविंद : तुम अपने आफिस में आती हो। अपने आफिस में, जो कि तुम्हारा खुद का बनाया हुआ है। अपनी मेहनत से, अपने बलबूते पर। अपनी मर्जी के बगैर तुम वहां किसी भी आदमी का आना और जाना पसंद नहीं करतीं। तुम्हारा रुतबा है तुम्हारे आफिस में। सब कांपते हैं तुम्हारे नाम से। इस वक्त तुम अपने आफिस में एक प्रापर्टी डीलर से एक डील कर रही हो कि तभी तुम्हारा पति शराब पी कर तुम्हारे आफिस में आ जाता है। तुम कैसे रियेक्ट करोगी? तुमने पूरी स्क्रिप्ट पढ़ी है। समझा है अपने कैरेक्टर को। नाउ शो मी! आप सब इस सीन को क्रिएट करिए। स्क्रिप्ट आपके हाथ में है, कहीं ब्रेक नहीं आना चाहिए। कम ऑन! स्टार्ट! अनु! सबको सही जगहों पर खड़ा कराओ!
अनु : येस बॉस! (जाती है।) कामेश, तुम अभी बाहर जाओ अपने समय में एंट्री लेना। (कामेश बाहर जाता है।) विनोद तुम यहां रहोगे। और विजया, तुम यहां आ जाओ।
विजया को पकड़ कर निश्चित जगह पर खडी करती है।
हूं... . आज तुम बहुत अच्छी लग रही हो। अरविंद भी कह रहे थे। अच्छा करना। गुड लक!
विजया : थैंक्स दीदी!
अनु मुस्कुराती हुई अपने स्थान पर बैठती है।
अरविंद : येस स्टार्ट! विजया, डायलॉग बोलो!
विजया : हां तो गोयल साहब, क्या सोचा आपने?
विनोद : अब सोचना क्या मैडम जी। आपका हुकुम है तो मेरे को तो करना ही करना है बस दिक्कत... थोड़ी सी इतनी है कि...
विजया : क्या दिक्कत है? आप बताइए ? कोई आपको रोक रहा है?
विनोद : नहीं जी। ऐसी बात नहीं है। मेरे को कोई क्यों कर रोकेगा और किसी के रोकने से बिजनेस में कोई रुकता है क्या? पर वो क्या है कि अनडेवलप्ड एरिया है। वैल्यू उस जमीन की उतनी नहीं है जितनी कि आप कह रही हैं। समझ रही हैं न मेरी बात?
विजया : गोयल साब, मैं सोचती हूं कि आगे बात करने का कोई फायदा नहीं है। आप जा सकते हैं।
विनोद : जी?
विजया : हो सकता है आपको अपना वक्त कीमती न लगता हो, लेकिन मुझे लगता है। जब आप संक्षेप में, निश्चित तौर पर कुछ कह सकें तब आइएगा. .
विनोद : जी मैं तो...
विजया काल्पनिक इंटरकाम पर बात करती है।
विजया : रीता, कनेक्ट टु आर के बिल्डर्स मुंबई।
विनोद : मैडम, तो मैं साफ-साफ ही बात...
विजया : नो। प्लीज। अगली बार आइए। अप्वाइंटमेंट लेकर। जाइए।
विनोद : (निराश हो कर) ठीक है। तो मैं चलता हूं मैडम जी। नमस्कार।
कामेश : (प्रवेश करते हुए) अरे! गोयल साहब आप?
विनोद : नमस्ते जी।
कामेश : क्या हुआ गोयल साहब?... कहां चल दिए? अब मैं आ गया हूं। मैं आपसे डील करूंगा। आइए बैठिए।
विनोद : हें हें, नमस्कार। राजेश साहब, मैं आपसे बाद में ही मिलूंगा। यहां
उचित नहीं है...
कामेश : अरे! क्यों डरते हैं गोयल साब। ये मेरी बीवी है। हां। आपका हर काम मैं करा दूंगा। अरे अमृता डार्लिंग! गोयल साब हमारे बहुत खास दोस्त हैं, इनका वेलकम करो। कुछ ठंडा-वंडा मंगवाओ।
विजया चपरासी को बुलाने के लिए काल्पनिक कालबेल बजाती है।
हां, देखा गोयल साहब! आइए बैठिए। मैडम ने घंटी बजाई, (चपरासी आता है।) उधर देखिए चपरासी आया और ये ऑर्डर...
विजया : ले जाओ इन दोनों साहब को बाहर का रास्ता दिखा दो।
चपरासी खड़ा रहता है।
तुमने सुना नहीं! ले जाओ इन दोनों को। धक्के मार के बाहर निकाल दो। (चपरासी आगे बढ़ता है।)
कामेश : अरे अमृता! क्या बोल रही हो भाई? धक्के मार के निकाल दो? किसको?
विनोद : अच्छा साब मैं तो चलता हूं...
कामेश : ठीक है, गोयल साहब, बाद में आप मुझसे मिलिएगा। मेरा मोबाइल नंबर है न आपके पास? अभी आप जाइए। (गोयल जाता है।) अमृता, तुम मुझे निकाल रही हो? मुझे? अपने पति को?
चपरासी संकोच के साथ आगे बढ़कर कामेश को हाथ लगाता है।
अरे मोटे छोड़! अबे अपने साहब को हाथ लगाता है! तेरी नौकरी गई!
कामेश चपरासी को मारकर भगा देता है।
अमृता, मैं तुम्हें देख लूंगा। शाम को तो घर ही आओगी न?
कामेश जाता है।
विजया : (रिसीवर उठाती है) रीता, गेट ड्यूटी पर कौन है? इस कैंपस में कोई शराब पी कर कैसे आ गया? चौकीदार का हिसाब कर दो।... कोई भी हो। मेरा हसबैंड है तो क्या हुआ? ये कंपनी मेरी है मेरे हसबैंड की नहीं। (रिसीवर रखने का अभिनय)
कामेश फिर से आता है।
कामेश : हां तो अमृता रानी, कुछ डायलॉग और सुना दूं तुमको। माना कि तुम यहां की रानी हो, तो क्या हुआ, घर का राजा तो मैं ही हूं। माना कि यहां पर राज तुम्हारा चलता है लेकिन घर पर तो राज मेरा ही चलता है न...
चौकीदार आता है। कामेश के सामने खड़ा होता है।
कौन है रे तू? मार खाने आया है? साहब पे हाथ उठाएगा? एं? जंगली?
कामेश कराटे-ढंग से दो-तीन वार चौकीदार पर करता है लेकिन शातिर चौकीदार बचता जाता है। अंत में चौकीदार खालिस देशी दांव लगाकर साहब को अपने कंधे पर उठा लेता है।
अमृता, मेरी बीवी हो कर मुझे ही आफिस से निकाल रही हो! ठीक है। आफिस तुम्हारा है। घर तो मेरा है। आज रात मैं तुम्हें घर से निकालूंगा। अपने घर से।
चौकीदार कामेश को लादे हुए बाहर जाता है , सब लोग तालियां बजाते हैं।
अरविंद : हूं अच्छा था। वेल डन! सबने अच्छा किया। खासकर विजया ने। विजया! बधाई! बहुत अच्छा किया।... मेरा खयाल है कि मुझे अमृता मिल गई है। (सभी में हर्षमिश्रित आश्चर्य) क्यों अनु?
अनु : हां अरविंद। (व्यंग्य) विजया 'बोल्ड, डैशिंग और डायनैमिक लड़की' है और 'इसी' शहर की है। (विजया के पास जा कर) विजया, आज तुम इतनी अच्छी लग रही हो, इतनी सुंदर लग रही हो कि मैं क्या कहूं। क्यों अरविंद?... अरे, ये कामेश क्यों शरमा रहा है?
कामेश : क्या मैडम आप भी। मैं क्यों शरमाऊंगा? (लोगों की हंसी)
अरविंद : ओ के गाईज! लेट्स होप! नाटक अच्छा होगा। (सब में खुशी) अब मुश्किल बस एक ही है। बोलो विनोद क्या है मुश्किल?
विनोद : मुश्किल ये है कि इस बार शो के दिन डिनर विजया को देना होगा
क्योंकि ये हमारी परंपरा है कि शो के दिन हर नाटक में डिनर हमेशा लीड कास्ट देता है, और इस नाटक में लीड कास्ट है विजया।
अनु : अ... विजया के बदले इस बार मैं अगर डिनर दूं तो?
विजया : नहीं दीदी। डिनर मैं दूंगी।
अनु : विजया! डिनर तुम दोगी?
कामेश : हम लोग चंदा कर लेंगे।
विजया : नहीं। डिनर मैं दूंगी और अपने घर में।
अरविंद : अरे भई पहले मम्मी-पापा से पूछ तो लो।
विजया : पापा ने खुद ही इन्वाइट किया है आप सबको।... आप सब आएँगे न?
विनोद : अरे क्यों नहीं आएँगे। जरूर आएँगे।
अरविंद : तो अब कल से पूरी रिहर्सल रन थ्रू में चलेगी। यानी नॉनस्टॉप शुरू से अंत तक। ओके?
अनु : और हर रिहर्सल एक शो की तरह होगी। फर्क सिर्फ इतना होगा कि दर्शक नहीं होंगे। उसी इंटेंसिटी से, उसी तन्मयता से।
अरविंद : किसी आर्टिस्ट को छुट्टी में तो नहीं जाना है?
विजया : सर, मैं कल नहीं आ पाऊंगी।
अरविंद : क्यों?... अरे भई जब तुम ही नहीं आ पाओगी तो रिहर्सल कैसे होगी? हर सीन में तुम हो।
अनु : (स्थिति को समझ कर) मैं मैनेज कर लूंगी अरविंद।
अरविंद : कैसे? प्रॉक्सी देकर? इस स्टेज में प्रॉक्सी? नो! क्या प्राब्लम है तुम्हारी विजया? कहीं जाना है तुम्हें? जो भी काम हो पहले निपटा लो।
विजया : जी कहीं जाना नहीं है।
अरविंद : तो?
विजया : मुझे घर में ही रहना है।
अरविंद : घर में ही रहना है...?
अनु : ठहरो-ठहरो। मैं पूछती हूं। क्या बात है विजया?
विजया : दरअसल भइया और भाभी ने एक नया घर किराए पर ले लिया है। कल वो लोग शिफ्ट हो रहे हैं। शाम को पापा-मम्मी को बुरा लगेगा सूने घर में। इसलिए मैं एक दिन के लिए...
अनु : अरविंद, विजया को एक दिन की छुट्टी दे दो।
अरविंद : ... ठीक है। ओके। ओके। विजया, माइंड मत करना भई, दरअसल सब कुछ डिस्टर्ब हो जाता है एक भी आर्टिस्ट के न होने से। शायद अब तक में तुम भी यह बात समझने लगी होंगी।
अनु : चलो भइ घर चलो ठंड नहीं लग रही है?
अरविंद : विनोद तुम जरा अनु को डब कर देना।
अनु : क्यों? तुम्हें उस फिल्म प्रोड्यूसर से नहीं मिलना है?
अरविंद : (जाते-जाते) उससे कहना मेरा नाटक देखे, और वह भी टिकिट खरीदकर।...
अनु : चल यार विनोद! तू ही बात कर ले उससे।
विनोद : थैंक यू मैडम।
अनु : किस बात का?
विनोद : इस जर्रानवाजी का। आज तो किस्मत खुल गई। (दोनों जाते हैं।)
सभी निकल गए। विजया और कामेश मंच पर।
कामेश : (विजया से) मैं आपको पहुंचा दूं?
विजया : नहीं। मैं चली जाऊंगी।
कामेश : नहीं। मैं उधर ही जा रहा था।
विजया : थैंक्स।
कामेश : ठीक है।
कामेश हाथ मिलाने के लिए आगे बढ़ाता है लेकिन तब तक विजया जा चुकी होती है। वह मायूस खड़ा रहता है कि तभी विजया लौटती है और कामेश से हाथ मिलाकर भाग जाती है। कामेश संज्ञाशून्य।
अंधकार।
पुनः प्रकाश।
मां घुटने मोड़े उदास सी बैठी हैं। पिताजी चहलकदमी कर रहे हैं। विजया परेशान कभी सीढ़ी की ओर तो कभी पिताजी की ओर आती है। पुत्रजी सीढ़ी से उतरते हैं।
पुत्रजी : अरे विजया, तुम्हारी भाभी कहां हैं? सारा सामान चला गया कि नहीं, यही पूछना है। कहीं कुछ छूट गया तो प्राब्लम हो जाएगी।
विजया : प्राब्लम क्या होगी? आकर फिर ले जाना न।
भाभी अंदर के कमरे से हाथ पोंछते निकलती हैं।
भाभी! क्यों जा रही हैं? यहां अच्छा नहीं लगेगा हम लोगों को।
पुत्रजी : मैडम, और भी कुछ सामान बचा हो तो बता दीजिए।
भाभी सीढ़ी की ओर जा रही हैं।
विजया : भाभी क्या कर रहीं हैं आप? पापा-मम्मी को कितना बुरा लग रहा है।
बहूजी : क्या है विजया? इसमें बुरा लगने की क्या बात है। अगर कहीं टंसफर होता तो जाते ही न? समझ लो कि टंसफर ही हो गया है। (चली जाती है।)
विजया : कितना छोटा-सा परिवार है हमारा, फिर भी टूट रहा है।
पुत्रजी : ये तो एक दिन होना ही था। हिटलरशाही में घर थोड़ी चलता है?
पुत्रजी भी ऊपर की ओर जाते हैं , पीछे-पीछे विजया भी।
विजया : (नेपथ्य से आती आवाजें) भाभी! भाभी! मत जाइए प्लीज! घर को मत तोड़िए!
बहूजी : (नेपथ्य से) तुम्हें टूटता-सा लग रहा है तो यही समझो। वरना मैं तो यह नहीं समझती।
पिताजी : अरे विजया! क्या चापलूसी कर रही है इन दोनों की? अरे जाने दे इन्हें जहां जाना हो। जब आटे-दाल का भाव मालूम होगा तो लौट कर फिर यहीं आएँगे।
पुत्रजी : (उतरते हुए) हां पापा अब हम लोग जा रहे हैं अपने पैरों पर खड़े होने। अब हमें आपकी जरूरत नहीं होगी। आज्ञा दीजिए।
पिताजी : आज्ञा है।
पुत्रजी : अरे पिताजी, होत न अज्ञा बिनु पैसा रे! आशीर्वाद दीजिए मेरा मतलब है कुछ पैसे दीजिए।
पिताजी : नहीं हैं पैसे।
पुत्रजी : अरे कुछ माल-भाड़े का तो देंगे?
पिताजी : क्यों दूं? ठेका ले रखा है तुम्हारा? ऐं?
पुत्रजी : भगवान करे आप जैसा बाप किसी को न मिले। मम्मी लाइए आप ही आशीर्वाद दीजिए यानी कुछ पैसे दीजिए।
मां : तू क्यों जा रहा है रे? समझाता क्यों नहीं अपनी बीवी को?
पुत्रजी : ओ हो मम्मी! अब इन बातों से कोई फायदा नहीं। मैडम ने डिसीजन ले लिया तो ले लिया। ये सब पहले सोचना था न? एक तो वह आफिस से थकीहारी आएँ और आते ही पिताजी की भों-भों और तुम्हारी कीं-कीं सुनें? इससे अच्छा ही है अलग हो जाना। तुम ही सोचो?
पिताजी : अच्छा ठीक है। तू जा। जा तू।
पुत्रजी : हां-हां जा रहा हूं। जब तबीयत खराब होगी तब याद करेंगे आप। डाक्टर को मैं बुलाने जाता था। और जब पेंशन लेने जाते थे तो मैं ही ले जाता था। तब सोचेंगे।
पिताजी : मुफ्त में नहीं ले जाता था! हर बार दस रुपए लेता था तब डोलता था!
पुत्रजी : अरे तो इसी बहाने अपने लड़के को दस रुपए दे दिए तो कौन सा...
पिताजी : तू जाता है कि लगाऊं चार लप्पड।
पुत्रजी : जाता हूं - जाता हूं। जल्दी करिए माता जी। हेर-ढूंढ़ दीजै कछु चीन्हां।
मां : ये ले कुछ पैसे हैं। रख ले।
पुत्रजी : हां-हां निकालिए! (पिताजी के पास आकर) देखा पिताजी! ये होती है ममता। (पुनः माताजी के पास आता है।) अरे! बस दस रुपए! क्या मां?
बहूजी उतरती हैं। पीछे -पीछे विजया। आकर नाटकीय ढंग से पल्लू ओढ़ कर सास के पांव छूती हैं ।
मां : जा बहू। सौभाग्यवती रह।
मां आंचल से नाक पोंछती खड़ी हैं। पिताजी अंदर चले जाते हैं।
विजया : भइया, मेरा नाटक देखने आओगे न?
दोनों चले जाते हैं , पिताजी निकलते हैं।
पिताजी : विजया! क्यों मन छोटा कर रही है। अरे ये लफंटूस लौट कर फिर आएँगे, देखना। (मां की ओर देख कर) अब तुम भी नथुने बहा रही हो! अरे विजया, तेरे रिहर्सल पर जाने का भी टाइम हो गया!
विजया : आज मैंने छुट्टी ले ली है, पापा।
पिताजी : क्यों?
विजया : वो... भइया-भाभी के जाने के बाद, शाम को आप दोनों अकेले रह जाते न, इसलिए। सिर्फ आज की ली है।
पिताजी : बेटी! गलत बात। रिहर्सल मत छोड़। रिहर्सल छोड़ने से नाटक का नुकसान तो होगा जो होगा, तेरा बहुत होगा। जा, मुझे चाय पिला दे और रिहर्सल में जा। (पुनः मां को देख कर) अब बंद भी करो ये बिसूरना!
अंधकार।
पुनः प्रकाश।
विजया सामने मंच पर बैठी है पीछे अरविंद स्पीच दे रहा है।
अरविंद : औरत मां होती है। औरत बेटी होती है। औरत बहन होती है, प्रेयसी होती है, पत्नी होती है। और फिर से मां होती है। बेसिकली, औरत मां है। जननी है। क्रिएटिविटी का सूत्रधार है औरत। उसका मूल स्वभाव रचनात्मकता है। और यही उसकी शक्ति है। हर वक्त वह कुछ बनाना चाहती है। मकान पुरुष बनाता है। घर औरत बनाती है। नाते पुरुष बनाता है लेकिन उन्हें रिश्तों में बदलती है औरत। औरत बच्चे को बेटा बनाती है बेटी बनाती है। एक पुरुष को पिता, पुत्र, पति, भाई औरत बनाती है। औरत क्रिएटिव है। दरअसल पुरुष में जो भी क्रिएटिविटी है वह उसने औरत से ही लिया है। बहुत शक्तिशाली है औरत। प्राकृतिक रूप से शक्तिशाली। इसीलिए वह शक्ति मानी गई है। साक्षात दुर्गा। लेकिन समाज ने उसे अनेक ढंग से कमजोर किया है। समाज यानी एक अप्राकृतिक और बनावटी, आर्टीफिशियल संस्था जिसे पुरुष ने बनाया। विवाह के नाम पर उसने एक ऐसा अस्त्र ढूंढ़ लिया जिससे औरत को गुलाम बनाया जा सके।
अनु सिर झुकाती है।
और ऐसा हो गया। दुनिया भर के मजहबों के जरिए उस पर ऐसी पाबंदियां लाद दी गईं कि जननी एक बेबस, गुलाम, भोग की वस्तु बन गई। औरत के लिए विवाह जैसे इस धरती पर जन्म लेने का सबब बन गया। क्या जरूरी है विवाह करना? क्यों जरूरी है विवाह करना?
थकान महसूस करता है विजया के पास आता है।
अमृता पहले विजया ही थी। एक साधारण, आम लड़की। उसके संघर्षों ने उसे अमृता बनाया है। चाहती तो वह अपने पति के रहमोकरम पर पड़ी रहती। उसकी गालियां और मार सहती रहती। ये ज्यादा सरल था। पर नहीं, उसने ऐसा नहीं किया। एकबारगी उसका कैरेक्टर नहीं बदला है। धीरे-धीरे दुनिया के कठोर अनुभवों ने उसे अमृता बनाया। परिस्थितियां ऐसी आईं कि पूरे घर का भार उस के कंधों पर आ पड़ा। उसके सामने दो ही रास्ते थे। या तो वह दुनिया से रहम की भीख मांगे। हर कदम पर दुनिया के सामने गिड़गिड़ाए या फिर स्वयं अपने पैरों पर खड़ा हो कर अपना रास्ता खुद बनाए। उसने दूसरा रास्ता चुना। क्योंकि इसमें खुद्दारी थी। एक स्वाभिमान था। एंड दैट इज द ओनली राइट एप्रोच।
प्रकाश में परिवर्तन होता है। विजया एक नई उर्जा का अनुभव करती है। उसके चेहरे पर ओज और आत्म -गौरव का तेज दिखाई देता है। पीछे से कामेश शराब के नशे में लड़खड़ाता हुआ आता है। विजया के चारों ओर घूमता हुआ...
कामेश : आ गईं हुजूर! मलिका ए हिंदुस्तान!...पहचाना? नहीं पहचाना? मैं राजेश!... अरे हुजूर, तुम्हारा नाचीज पति! ऐं! वही पति जो तुम्हें ब्याहने बारात ले कर तुम्हारे घर गया था। और जिसे तुमने अपने आफिस से आज जलील कर के बाहर निकाल दिया था। सबके सामने। आफिस के बाद फिर घर आना पड़ा! ...च च च! ये तो बड़ी मुश्किल हुई। जाती भी कहां! वहां तो कुर्सी का सुरूर था। नशा। नशे में बोल गई। नशे में खयाल नहीं रहता कौन है सामने। पति या नौकर? लेकिन अब क्या किया जाए? तुम फिर आ गई मेरे सामने। मैंने वहां कह दिया था न कि आज मैं तुम्हें घर से निकालूंगा। अब न निकालूंगा तो मेरी इज्जत क्या रह जाएगी। तुम्हीं बताओ अमृता मैं क्या करूं ?
विजया की चोटी पकड़कर खींचता है।
बताओ अमृता! कुछ तो बताओ! कोई तो रास्ता सुझाओ। तुम अगर कहोगी न कि न निकालो तो न निकालूंगा। बोलो। समझ में नहीं आ रहा है?
हाथ मरोड़ता है।
कितनी बार कहा है कि मुझसे पंगा न लिया करो। मैं तुम्हारा पति हूं। लेकिन तुम हमेशा अपनी हुकूमत मेरे ऊपर लादने की कोशिश करती हो। अब बोलो! तरस आता है तुम पर। अपने पर भी। अगर मैं तुमको निकाल दूंगा तो कल खेलूंगा किसके साथ? मैं तो अकेला हो जाऊंगा इस बड़े बंगले में।
विजया में प्रतिरोध की भावना उमड़ती है।
कोरस : आ आ... अ आ...
अपने अंदर की धधकती लौ को तुम पहचान लो
आ रही है थाप जो उसकी रिदम को जान लो
कह दो जो दिल में तुम्हारे सदियों से है जमा
वक्त की रफ्तार को तुम थाम लो
विजया अप्रत्याशित रूप से सशक्त हो कर पति के हाथ को झटक कर अपने को आजाद करती है।
विजया : कब तक मुझ पर तुम ये जुल्म करते रहोगे राजेश, और मैं कब तक सहती रहूंगी? क्या समझ रखा है मुझको? कोई रखैल हूं तुम्हारी? कि जब चाहा हवस मिटाई और जब चाहा पैरों तले रौंद दिया? क्या हूं मैं तुम्हारी? और तुम क्या हो मेरे? पति? अरे पति-पत्नी का रिश्ता मानो तो सब-कुछ है और न मानो तो कुछ भी नहीं। मैं अब तक तुम्हें पति मानती थी, इसीलिए मैं तुम्हारे हर जुल्म को सहती थी। लेकिन आज, अभी, इसी वक्त से मैं तुम्हें अपना पति नहीं मानती। मैं अपने आप को तुमसे आजाद करती हूं। मुझे जीने के लिए किसी पति की जरूरत नहीं है। मैं बिना पति के भी रह सकती हूं। आखिर औरत बिना पति के क्यों नहीं रह सकती? क्या जरूरत है शादी की? और क्या जरूरत है पति की? जिस शादी को पुरुष औरत के ऊपर एहसान मानता है मैं वह शादी नहीं कर सकती।...
विजया को छोड़कर सभी चले जाते हैं। मां आती हैं।
मां : विजया! ये तू क्या कह रही है?
पिताजी आते हैं।
पिताजी : क्या हुआ विजया की मां?
मां : कह रही है कि शादी नहीं करूंगी!
पिताजी : क्या?... (विजया से) क्या कह रही है तू?
विजया मां के पास आती है।
विजया : क्या कह रही हूं मैं? मैं गलत कह रही हूं? पापा! मुझे आज आपसे बात करते हुए शर्म नहीं लग रही है। पता नहीं यह हिम्मत मुझमें कहां से आ गई। आप मुझे ब्याह देना चाहते हैं न? किसके साथ? आप खुश होंगे मुझे ऐसा पति देकर? और आप सोचते हैं, कि मैं खुश हो जाऊंगी ऐसे पति को पाकर? कितना दहेज देंगे आप, और कब तक? जिंदगी भर की कमाई आप की क्या रही? सिर्फ एक लड़की को ब्याह दिया, बस? यही निचोड़ रहा आपकी जिंदगी का? एक ऐसी फैमिली में आप मुझे भेज रहे हैं जिसे आप नहीं जानते। कोई परिचय नहीं। थोड़ा-बहुत जो भी परिचय है वो यह, आपके सामने है। आज तक यही नहीं सोच पाए कि कितना मांगा जाय। आप सोचते हैं कि मुझे ब्याह देने के बाद उनकी यह मांग बंद हो जाएगी? नहीं। कभी नहीं बंद होगी। आप देते-देते थक जाएँगे, वो मांगते-मांगते नहीं थकेंगे। तो फिर, क्या मैं इतनी पापिन हो चुकी हूं कि मुझे सांस लेने का हक भी नहीं रहा? मैं जैसी भी हूं अपने घर में हूं। मुझे आपके हाथों मरना मंजूर है, क्योंकि आपने मुझे जन्म दिया है, लेकिन उनके हाथों नहीं। मैं यह शादी नहीं करूंगी।... जीवन में पहली बार आपके सामने इतना बोली हूं पापा।
विजया भागकर अंदर चली जाती है। मां , पिताजी की ओर देखती है। थोड़ी देर बाद अंदर चली जाती है। पिताजी आगे आते हैं।
पिताजी : बच्चे अक्सर ऐसा कहते हैं। सेंसटिव होते हैं न। मन बड़ा कोमल होता है उनका। आगे क्या होगा उनको इस बात की चिंता नहीं रहती है। क्योंकि भविष्य के बारे में सोचते ही नहीं वो। पर, कहते... सच हैं। लेकिन, इसका मतलब यह तो नहीं कि उनके इस सच को ही पूरे संसार का सच मान लें। उनकी यह बात एक सच है, पर इसके अलावा और भी कई सच हैं। सच कई होते हैं। एक सच समाज है और एक सच उसकी उंगली भी। और एक सच शरीर भी है।... नहीं? सब सच अपनी जगह हैं लेकिन मेरा सच भी अपनी जगह है। क्या है वह सच? लड़की का ब्याह, या लड़की की खुशी? विजया को शादी करनी होगी। लेकिन कहां?... किसके साथ?
प्रकाश मद्धम होता है। पिताजी थकान महसूस करते हैं , और एक कुर्सी पर बैठ जाते हैं। उनका सिर एक तरफ लटक जाता है, जैसे नींद आई हो। कुछ ही पलों में उन्हें बेचैनी-सी होने लगती है। मां आती हैं।
मां : इतनी रात तक क्या कर रहे हो?... क्या हुआ जी! अरे कैसा कर रहे हैं?
पिताजी : दर्द-सा हो रहा है विजया की मां।
मां : दर्द हो रहा है?... कहां?
पिताजी : यहां... सीने में...
मां : हे भगवान! अब क्या करूं? (पुकारती है।) अरे विजया! विजया!
विजया : (नेपथ्य से) हां मम्मी।
विजया आंख मलते हुए आती है।
विजया : क्या हुआ मम्मी?
मां : देख तेरे पापा को क्या हुआ?
विजया : क्या हुआ पापा?
पापा : सीने में दर्द हो रहा है बेटा। बहुत जोरों से। अभी ठीक हो जाएगा। घबराना नहीं बेटे।
विजया : पापा! क्या करूं पापा मैं?
पिताजी : कुछ नहीं... कितने बजे होंगे?
विजया : डेढ़ बजे हैं पापा।
पिताजी : डेढ़ बजे हैं?
विजया : क्यों?
मां : लड़का होता तो डाक्टर को बुलाता।
विजया : अं! डाक्टर को बुलाऊं पापा?
पापा : कहां जाएगी डाक्टर को बुलाने इतनी रात?
विजया : तो...तो क्या करूं पापा मैं?
पापा : जा। पड़ोसियों को बुला ला।
विजया : क्यों?
पापा : वो कहीं से आटो बुला लेंगे और हास्पिटल... मुझे हास्पिटल ले चलेंगे।
विजया : पड़ोसियों को बुलाऊं? क्या मैं इतना नहीं कर सकती? मम्मी। मैं अभी आती हूं...
विजया बाहर जाती है।
मां : अरे कहां जा रही है? सुन तो?
पापा : गई होगी पड़ोसियों को बुलाने। आ जायेगी। थोड़ा पंखा तेज कर दो। हां, अब ठीक है। कुछ पैसे निकाल लो आलमारी से। जरूरत पड़ेगी।
मां अंदर जाती है। आटो की आवाज आती है। मां आती है।
लगता है आटो खुद ही ले आई।
विजया अंदर आती है।
विजया : मम्मी, ताला निकाल लीजिए। मम्मी, आ जाओ थोड़ा सहारा दो। उठिए पापा! हां, संभाल कर। चलिए। मम्मी कुछ पैसे रख ली हैं न?
मां : हां।
विजया : पापा! आप घबराइएगा नहीं। मम्मी आप ताला ले लीजिए... चलिए पापा! संभल कर! चलिए!
विजया पापा को सहारा देती हुई बाहर ले जाती है।
अंधकार।
पुनः प्रकाश।
रिहर्सल। अनु साथियों के साथ आती है।
अनु : शो में सिर्फ एक हफ्ता बाकी है।... आप लोग टिकिट्स की सेलिंग कर रहे हैं न? कामेश!
कामेश : जी मैडम।
अनु : तुम नए आर्टिस्ट हो। तुमसे उम्मीद ज्यादा है।
कामेश : किस बात की मैडम?
विनोद : टिकिट-सेलिंग की यार।
कामेश : मैं कर रहा हूं मैडम। (विनोद से) जानते हैं दादा, आज मैं सुबह-सुबह ही नानी के घर चला गया था। एक लिटर पेट्रोल खर्च हो गया दादा... दूर है न, लेकिन... बीस टिकिट दिए। सब के सब आएँगे।
अनु : विनोद...
विनोद : (कामेश से) लाओ पैसा जमा करो...
कामेश : कर देंगे न दादा। कल पूरा पैसा जमा कर दूंगा। वो थोड़ा खर्च हो गया न!
अनु : विनोद!
विनोद : हां, बोलो!
अनु : वो हाल में सफाई के लिए किसी को बोल दिया न?
विनोद : किसको बोलूंगा?... किसको बोलूंगा बोलो? दो सौ रुपया लगता है, सैंक्शन करो, बोल दूंगा।
अनु : विनोद, पिछली बार जिससे साफ कराया था उसने तो नहीं लिया था न?
विनोद : हां, नहीं लिया था।
अनु : तो फिर उसी को कह देना।
विनोद : ... ओके, कह दिया।
अनु : कह दिया नहीं, कह देना।
विनोद : अरे बाबा, अभी साफ करना है क्या? अभी कर दूं?
अनु : .... तुम ने साफ किया था क्या?... सॉरी विनोद।... लेकिन तुमने कब साफ किया था, मैंने तो नहीं देखा?
विनोद : मैडम, शो के ठीक पहले जिस वक्त आप ब्यूटी पार्लर में रहती हैं उस समय मैं यही काम करता हूं।
अनु : रास्कल! मैं ब्यूटी पार्लर कभी नहीं जाती।
विनोद : अच्छा? तब ये हाल है?
कामेश : (बाहर की ओर देख कर) सर आ गए।
जाकर अरविंद का बैग लेता है।
अरविंद : (अंदर आ कर) विजया नहीं दिख रही है?
अनु : (बाहर की ओर देख कर) वो आ गई।
विजया आती है।
अरविंद : चलो ठीक है। कास्ट पूरी हो गई।
विजया : नमस्ते!
अनु : क्या बात है विजया? कुछ परेशान दिख रही हो?
विजया : दीदी कल... पापा को हार्ट अटैक आ गया था।
अरविंद : कब?
विजया : कल रात लगभग डेढ़ बजे। फिर हास्पिटल ले जाना पड़ा।
अरविंद : अब वह कैसे हैं?
विजया : अब ठीक हैं। खतरे से बाहर हैं।
अरविंद : आर यू श्योर?
विजया : जी हां।
अनु : तुम्हारा भाई आ गया था?
विजया : नहीं। बस मैं और मम्मी।
अरविंद : अरे तो हममें से किसी को फोन कर देतीं। भई ये क्या बात हुई!
कुछ पलों की खामोशी।
अनु : खैर...
अरविंद : चलो आज की रिहर्सल कैंसिल।... सब लोग विजया के घर चलते हैं।
विजया : सर, मैं पापा के कहने पर ही आई हूं। अगर आज रिहर्सल नहीं होगी तो उन्हें बहुत दुःख होगा। उन्हें मालूम है कि एक हफ्ते बाद शो है और... । यकीन करिए वो एकदम ठीक हैं।
अनु : मैं कल सुबह विजया के घर हो आऊंगी। आज रिहर्सल कर लो।
अरविंद : ओके।.... ठीक है चलो! विजया तुम रिलैक्स हो न?
विजया : जी हां सर।
अरविंद : तो फिर चलो, रिहर्सल शुरू करते हैं। लेकिन याद रखो सब लोग। नॉनस्टॉप रिहर्सल होगी। जस्ट लाइक अ शो!
सभी कलाकार अपनी -अपनी जगहों पर खड़े होते हैं और कोरस में आलाप आरंभ करते हैं। नृत्यात्मक ढंग से कलाकार मूवमेंट लेते हैं जैसे नाटक शुरू हो रहा हो। धीरे-धीरे विजया को छोड़कर बाकी नेपथ्य में चले जाते हैं। प्रकाश विजया पर केंद्रित होता है।
विजया : रिहर्सल... रिहर्सल... रिहर्सल! मैं विजया, रोज अमृता बनती और फिर वापस विजया बन जाती। महीनों चला। विजया से अमृता और अमृता से विजया। इस हेर-फेर में क्या गड़बड़ हुआ, मैं समझ नहीं पाई। कहीं अंदर ही अंदर मैं सचमुच अमृता ही बनने लगी थी। एक रोमांच, एक सनसनी! कायांतरण की सनसनी! एक ही जन्म में दूसरी आत्मा को महसूस करना आपको रोमांचित नहीं करता?
अनु का पुकारते हुए आना। पूरे मंच पर प्रकाश।
अनु : (नेपथ्य से) आंटी! विजया? (प्रवेश करके) अरे विजया! चल तैयार हो गई?
विजया : हां दीदी। बस सामान ले लूं। (अंदर जाती है।)
मां : (आते हुए) आ बेटी अनु। हो गई तुम लोगों की तैयारी?
अनु : आप लोग आ रहे हैं न नाटक देखने आंटी?
पापा : (आते हुए) अरे बिल्कुल आ रहे हैं। क्यों नहीं आएंगे?
अनु : नमस्ते अंकल! तबीयत तो ठीक है न अब?
पापा : अरे मुझे कुछ नहीं हुआ है। लेकिन लगता है तुम लोगों का ब्लडप्रेशर जरूर बढ़ गया है।
अनु : वह तो हर शो के दिन होता है।
विजया : सॉरी दीदी थोड़ी देर हो गई। सर नाराज होंगे।
अनु : नहीं-नहीं कोई देर नहीं हुई है। अपनी सारी प्रापर्टी ले ली? कोई चीज भूल मत जाना।
विजया : नहीं, वो तो सब पहले ही रख लिया था।... तो फिर चलें।
अनु : (बैग अपने हाथ में लेती हुई) देखूं सब-कुछ तो है न?
विजया : हां मैंने देख लिया है। (मां के पास आकर) अच्छा मम्मी मैं जा रही हूं।
मां : जा बेटा। तेरा नाटक सफल हो।
विजया : (पापा के पास आती है) पापा!
पापा : (भरे गले से) जा बेटा! तेरी मेहनत रंग लाए बेटा।
अनु : अच्छा अंकल! आंटी! चलते हैं आप लोग टाइम पर पहुंच जाइएगा।
अनु पहले निकल जाती है। विजया अग्रमंच की ओर आती है और मां व पिताजी अंदर की ओर जाते हैं।
विजया : .... और जब नाटक हुआ तो कुछ मत पूछिए। मैं नहीं जानती क्या-क्या होता गया और मैं क्या-क्या करती गई। वो तेज लाइट्स, सामने बैठे सैकड़ों... दर्शक, विंग से झांकते अरविंद सर, अनु दीदी... मुझे कुछ नहीं दिख रहा था। मैं तो बस...। कब नाटक शुरू हुआ और कब खत्म हो गया मुझे नहीं मालूम। हां, दर्शकों की तालियां बजी थीं। देर तक गूंजती तालियां। हो सकता है उनमें से कुछ मेरे लिए भी रही हों। आपने अपने लिए बजी तालियों का आनंद लिया है न! ऐसा लगता है मानो सारा ब्रह्मांड गूंज उठा हो। मानो अचानक वसंत आ गया हो। चारों ओर खुशबू-सी दौड़ गई हो, और नन्हीं-नन्हीं कोपलें फुटकने लगी हों। मानो चारों दिशाएँ अपने रोम-रोम से आशीर्वाद दे रही हों मुझे। मैं बहुत देर तक मंच पर खड़ी रही। देखती रही दर्शकों को। क्या यही हैं वो लोग जिनसे मैं नजरें चुराती थी? क्या यही है वो समाज जिसने मुझे मेरे मां-बाप के लिए बोझ बना दिया था और जिससे मैं डरती थी। मुझे मम्मी-पापा की याद आ गई। नजरें ढूंढ़ने लगीं उनको। वो कहीं नजर नहीं आए। मन उदास हो गया। क्यों नहीं आये वो? उन्हें आना चाहिए था!... पर मन के एक कोने में विश्वास था वो जरूर आए होंगे। हां! वो जरूर आए होंगे। हां!
अंधकार।
पिताजी : अरे लाइट जलाओ भाई। कहां हो।
प्रकाश।
मां -पिताजी, पुत्रजी और बहूजी आते हैं। पिताजी नाटक के संगीत को गुनगुनाते हुए आ रहे हैं।
मां : मुझे तो विश्वास ही नहीं हो रहा है कि विजया ने ऐसी ऐक्टिंग कर ली। और कितनी सुंदर लग रही थी।
पिताजी : भई इतना अच्छा नाटक तो मैंने पहली बार देखा।
पुत्रजी : आपने देखे ही कुल कितने नाटक हैं?
पिताजी : अच्छा-अच्छा छोड़ो ये सब। जल्दी से खाने की तैयारी करो वो लोग आते ही होंगे।
मां और पिताजी अंदर चले जाते हैं।
पुत्रजी : मैडम बैठिए न!
बहूरानी : उफ! अब जल्दी से खाना ले आओ, मुझे जोरों से भूख लगी है।
पुत्रजी : मुझे तो डाउट हो रहा है।
बहूरानी : कैसा डाउट?
पुत्रजी : लगता है खाना घर में ही बनेगा।
बहूरानी : क्या? लेकिन तुमने तो कहा था...
पुत्रजी : हां, मैंने सोचा था कि खाना होटल से आएगा, इतना जल्दी घर में कैसे बन सकता है।
बहूरानी : मैं यहां खाना नहीं बनाऊंगी। मुझे खाना बनाना ही होता तो वहीं दो लोगों का बना लेती। नाटक देखने क्यों जाती?
पुत्रजी : तो... अब मैं क्या करूं?
बहूरानी : मुझे खाना चाहिए, और मैं बनाऊंगी नहीं।
पुत्रजी : अब तो बस एक ही काम हो सकता है।
बहूरानी : क्या?
पुत्रजी : चलिए, हम दोनों भाग चलें।
बहूरानी : लेकिन खाना?
पुत्रजी : किसी सस्ते होटल में खा लेते हैं...
बहूरानी : ...च्चल्लो! !
दोनों दबे कदमों से भागने की कोशिश करते हैं कि तभी पिताजी आ जाते हैं।
पिताजी : ए! क्या हुआ.... ?
दोनों मुड़ते हैं। पुत्रजी सिर खुजाते हैं। फिर पिता के पास आते हैं। इधर मां भी आती हैं।
पुत्रजी : पापा, एक आइडिया है।
पिताजी : क्या?
पुत्रजी : पैसे निकालिए मैं होटल से फटाफट ले आता हूं।
मां : क्या चीज?
पुत्रजी : खाना मम्मी और क्या?
पिताजी : क्यों तेरी बीवी को क्या हुआ?
पुत्रजी : अ... उनके सिर में दर्द है।
मां : होटल से क्यों? मैं अभी बना लेती हूं। पूरी-सब्जी ही तो बनानी है।
पिताजी : साथ में आंवले का अचार रख देना। जाओ-जाओ जल्दी शुरू करो, वो लोग आते ही होंगे भाई।
बहूजी : मेरे तो सिर में दर्द है। ओ बाबा! मैं कहां सोऊं?
पिताजी : सिर में दर्द हो चाहे पेट में दर्द हो। सास-बहू सीधे रसोई में जाएँ, कलाकारों के स्वागत में कोई कमी नहीं होनी चाहिए। और पुत्रजी, आप इधर आइए।
पुत्रजी : जी।
पिताजी : अब ये खड़ी-खड़ी देख क्या रही हैं, इन्हें अंदर पहुंचाइए और जाइए सलाद काटिए चुपचाप।
बहूरानी अंदर जाती हैं।
पुत्रजी : मैं?
पिताजी : हां, आप।
सभी अंदर जाते हैं। पिताजी आगे आते हैं।
पिताजी : (गर्मजोशी से) बचपन में कबड्डी खेलता था। आज फिर खेलने का मन कर रहा है। चैंपियन था मैं कबड्डी में। ऐसा होता है। बच्चों की सफलता पर ऐसे ही मन उछलने लगता है। हम जैसे बूढ़े भी जवान हो जाते हैं। कितना अच्छा नाटक खेला बच्चों ने। विजया ने तो कमाल कर दिया। सोचा ही नहीं था कि इस लड़की में भी कोई गुण हो सकता है। शादी वाले जब भी आते - खाना पकाती है? हां, कच्चा-पक्का पका लेती है। गाना? नहीं। संगीत-नृत्य? नहीं। मुझे मालूम है बहू को कोई नचवाता नहीं है, पर पूछेंगे जरूर। अब बताने लायक हो गया कि मेरी बिटिया कलाकार है! बहुत बढ़िया अभिनय करती है! पर... कहीं अभिनय का सुन कर और न बिचकने लगें?... तो क्या हुआ? अपने को तो गर्व है न! हमारी बिटिया इतनी अच्छी कलाकार है! देविकारानी को देखा था। गाती भी अच्छी थी, अभिनय भी अच्छा करती थी, और सुंदर भी थी...। विजया भी सुंदर है। हां। कौन कहता है कि वह सुंदर नहीं है? आज तो बस कबड्डी हो जाए... कबड्डी कबड्डी कबड्डी कबड्डी....
पुत्रजी निकलते हैं , पिताजी को कबड्डी के मूड में देखकर वह भी शुरू हो जाते हैं, तभी माताजी आ जाती हैं।
मां : अरे! ये क्या कर रहे हो?
दोनों रुकते हैं।
पिताजी : अ... कुछ तो नहीं।
मां : तुम भी क्या-क्या करने लगते हो। बुढ़ापा आ गया, एक भी आदत नहीं सुधरी।
पिताजी : अरे! तुम यहां बैठ गईं? खाने का क्या हुआ? (पुत्रजी पर ध्यान जाता है।) तुम्हें तो मैंने सलाद काटने के लिए कहा था न!
पुत्रजी : मैं सलाद ही तो काटने जा रहा था कि आपने इधर लगा लिया...
पिताजी : ठीक है... ठीक है... अब जा तू सलाद काट!... अब काहे खड़ा है?
पुत्रजी : मेरा चांस?
पिताजी आंख दिखाते हैं तो अंदर जाता है।
पिताजी : अरे तुम यहां कैसे बैठ गईं? खाना कौन बना रहा है?
मां : खाना बन रहा है। मैडम बना रही है।
पिताजी : अरे उसके भरोसे बन चुका खाना। जाओ-जाओ तुम अंदर जाओ और खाना बनाओ।
मां : ओहो! तनिक बैठ लेने दो न! नस चढ़ गई।
पिताजी : जब नहीं तब तुम्हारी नस ही चढ़ी रहती है। लाओ मैं ही दबाता हूं। कहां है वो नस?
खुद पांव दबाने को होते हैं।
मां : अच्छा-अच्छा, मैं जाती हूं।
मां अंदर जाने लगती है।
पिताजी : अरे सुनो! वो बात याद है न?
मां : कौन-सी बात?
पिताजी : अरे वही ई! मुझे लगता है कुछ तो बात है जरूर।... समझ गईं न?
मां : हां-हां समझ गई। अब बुढ़ापे में आंख मत मारो।
पिताजी : अच्छा तो तुम अब अंदर जाओ। जाओ।
मां : अरे जा रही हूं बाबा... (पलट कर) अरे सुनो! वो लोग खाना खाएँगे कहां?
पिताजी : अरे पूरा घर पड़ा है कहीं भी खा लेंगे। अरे सुनो-सुनो! ऐसा करो, इसी जगह पर बढ़िया दरी बिछाओ। कलाकार हैं मस्ती में खाएँगे।
मां : जमीन पर?
पिताजी : अरे अवसर सरिस सुआसन दीन्हा। सब बच्चे ही तो हैं। ऊपर से कलाकार! मां जाती है। पुत्रजी छुरी लिए आते हैं।
पुत्रजी : सलाद कट गया। अब क्या काटना है?
पिताजी : मेरी गर्दन काट दे। जा एक दरी ला और यहां पर बिछा दे और परोसने में मदद कर।
पुत्रजी : मैं परोसूंगा नहीं, साफ बताए देता हूं। हां।
पिताजी : अरे बेटा बड़ों से सीख ले। हम जब नहीं होंगे तब किससे सीखेगा?
पुत्रजी अंदर जाते हैं। मां बाहर आती हैं।
पिताजी : अरे! तुम फिर यहां?
मां : अरे बना रही है वो खाना तुम परेशान क्यों हो।
पिताजी : मैं परेशान इसलिए हूं कि सब्जी में नमक कितना पड़ रहा है, ज्यादा पड़ रहा है कि कम पड़ रहा है। मिर्च कितनी पड़ रही है। कम पड़ रही है कि ज्यादा पड़ रही है। मसाला कितना पड़ रहा है, कम पड़ रहा है कि ज्यादा पड़ रहा है, आटे में पानी कितना पड़ रहा है, कम पड़ रहा है...
मां : अच्छा-अच्छा, मैं चली जाती हूं...
पुत्रजी : (दरी ले कर आता है।) लीजिए बिछवाइए।
पिताजी : हां-हां। ले आओ...ले आओ!
पिता -पुत्र दरी बिछाते हैं।
पुत्रजी, मेहमान देव-समान होते हैं। इनकी सेवा करना चाहिए।... यहि ते अधिक धर्म नहिं दूजा।
पुत्रजी : ठीक है। कल मेरे देव आएंगे वो भी खाना खाएंगे यहां। अपना धर्म याद रखिएगा ।
पिताजी : ए! खबरदार जो लफंगों को घर में बुलाया तो! (शोर सुनाई देता है।) लगता है वो लोग आ गए!
पुत्रजी अंदर को खिसकते हैं। विजया के साथ अरविंद , अनु, विनोद और कामेश आते हैं। सबके हाथों में कुछ-कुछ सामान है। चेहरे पर मेकअप भी।
विजया : आइए सर! आइए दीदी!
पिताजी : आइए-आइए! भाई, बधाई हो! बहुत ही प्रभावशाली नाटक था। कमाल कर दिया आप लोगों ने।
विजया : पापा! आए थे आप लोग?
पिताजी : हां-हां भई, सब लोग आए थे। तुम्हारे भैया-भाभी भी। तू तो छुपी रुस्तम निकली रे! (अंदर जाती है।)
अनु : अंकल, कैसा लगा नाटक?
पिताजी : भई, ऐसा नाटक तो मैंने जिंदगी में कभी देखा ही नहीं था। (अंदर की ओर पुकार कर।) अरे आओ-आओ भई सब लोग! आओ पहले कलाकारों को बधाई तो दे दो! (अरविंद से) सो सब तव प्रताप रघुराई! गजब का डायरेक्शन था आपका।
अरविंद : अरे नहीं अंकल मेरा क्या कमाल, ये सब कमाल तो ऐक्टर्स का है खासकर विजया का। क्यों विनोद?
विनोद : बेशक। बहुत ही टैलेंटेड है विजया।
पिताजी : अरे नहीं-नहीं।... क्या मैं जानता नहीं हूं। असली कमाल तो डायरेक्टर का होता है। आइए, बैठिए न! ये दरी पर अच्छा रहेगा न? वो क्या है कि अपने पास खाने वाली टेबल नहीं है।
विनोद : अंकल खाना खाएँगे, टेबल नहीं।
पिताजी : (सब हंसते हुए बैठते हैं।) आइए आप सब बैठिए! (कामेश को देख कर) अरे कामदेव जी! आपने क्या शराब पी है! मजाल है कि एक पैग भी ज्यादा हो जाए। वैसे तो नहीं पीते न? पीते होओ तो अंदर आओ, जरा-सी हो जाए।
कामेश : अरे नहीं-नहीं, अंकल।
कामेश पिताजी के पांव छूता है।
अनु : ये हैं हमारी आंटी।
सब लोग अभिवादन करते हैं ,कामेशमां के पांव छूता है।
मां : सबने बहुत अच्छा किया। आप सबको बधाई हो।
पिताजी : विजया कहां चली गई?
मां : कपड़े बदलने गई होगी। (बहूजी आती हैं।)
अनु : ओ! तो भाभी जी भी आईं हैं! वेरी गुड! भाभी नाटक देखा आपने? कैसा लगा?
बहूजी : अच्छा था।
पुत्रजी : मम्मी! सलाद कहां रख दूं?
अनु : ओ हो भाई साहब! नमस्ते! नाटक देखा आपने? (सलाद हाथ में लेती है।)
पुत्रजी : हां-हां देखा, ठीक था। (चेहरे पर विपरीत भाव)
अनु : चलिए तब तो ठीक है। खाना भी ठीक से खिलाइएगा हमें।
अधिकांश कलाकार घेरे में बैठते हैं। सबकी पीठ दर्शकों की ओर है। अनु , अरविंद कुर्सी पर बैठते हैं। संकोच में कामेश अभी तक नहीं बैठा था।
पिताजी : अरे कामदेव जी, आप अभी तक खड़े हैं? आप यहां बैठिए। कामेश कुर्सी पर बैठने में संकोच करता है।
विनोद : बैठ जा बेटा, शरमा नहीं। किस्मत की बात है।
कामेश : (विनोद से) दादा, आप यहां बैठिए।
विनोद : बैठ जा, बैठ जा। नाटक मत कर।
कामेश बैठता है। मां और पिताजी मंच के दूसरे सिरे की ओर जाते हैं। पुत्रजी मौका पाकर उनके पास आते हैं।
पुत्रजी : मम्मी, मैं खाना नहीं परोसूंगा। उस दाढ़ीवाले को तो हरगिज नहीं।
मां : ठीक है जा तू ऊपर बैठ। विजया परोस लेगी। विजया!
विजया : (अंदर से) हां मम्मी, मैं खाना ला रही हूं।
प्लेट्स में खाना ले आती है।
पिताजी : सुनो! जरा ध्यान से देखना। इनमें से कौन है वह लड़का जिसने हमारी बेटी की सूरत ही बदल डाली।
अरविंद : विजया का रोल कैसा रहा, आंटी?
मां : जैसा आपने सिखाया, अच्छा ही रहा। विजया, खिलाओ सबको।
अनु : अंकल, आंटी! आप लोग भी लीजिए न?
पिताजी : नहीं बच्चो! हम लोग बाद में खाएँगे। तुम लोग आराम से खाओ न।
अरविंद : भई, खाना तो बहुत ही अच्छा बना है, तुमने तो बनाया नहीं होगा विजया, किसने बनाया है?
अनु : क्यों? विजया ऐसा खाना नहीं बना सकती क्या?
अरविंद : मेरा मतलब है उसे तो टाइम नहीं था...
मां : (पति से) सुनो! मुझे लगता है कि वह जो उसका पति बना था न, वही है वह लड़का। देखो कैसा शरमाया-सा बैठा है।
पिताजी : वह कामदेव?
मां : हां। वही है।
पिताजी : लड़का तो अच्छा है। मैंने पहले ही कहा था पर, पता नहीं कुछ कमाता भी है कि नाटक ही करता है।
मां : जो भी हो, मुझे पसंद है।
पिताजी : तुम तो बस बिना सोचे-समझे ही निर्णय ले लेती हो। अरे बेटी के जीवन का प्रश्न है। लड़का दिखने में अच्छा है, पर विजया को खिलाएगा क्या?
मां : अपने ही साथ रह लेंगे दोनों।
पिताजी : हें! अपने साथ?
मां : और क्या? इसमें कोई हर्ज है?
पिताजी : तब तो एक कमरा और बनवाना पड़ेगा।
मां : ऊपर बनवा देंगे एक कमरा।
पिताजी : लेकिन कहीं घर जमाई बनने से मना न कर दे?
मां : हमारी विजया सब ठीक कर लेगी।
पिताजी : अच्छा है। घर के काम भी किया करेगा।
अरविंद : मजा आ गया डिनर में। विजया, थैंक्यू!
विजया : और लीजिए न!
विनोद : अरे नहीं-नहीं।
कामेश : विजया जी! थैंक्यू!
विजया : आपने तो कुछ खाया ही नहीं।
पिताजी : देखो कैसे प्यार से खिला रही है उसको।
मां : हां।
पिताजी : खाता भी कम है।
मां : शरमा रहा है न।
अरविंद : बस-बस। बहुत हो गया।
विजया : आप लीजिए सर।
विनोद : नहीं-नहीं। मैंने तो पूरा कर लिया।
विजया : क्या?
विनोद : अपना कोटा भाई।
अनु : जेब में तो नहीं रखे हो?
विनोद : तलाशी ले लीजिए।
विजया : अनु दीदी आप?
अनु : नहीं-नहीं बस विजया। (सभी उठने लगते हैं।)
पिताजी : अरे! खाना हो गया! ठीक से नहीं खाया क्या?
अरविंद : खूब मजे से खाया, अंकल। बहुत अच्छा खाना था।
पिताजी : आइए बैठिए।
अनु : नहीं अंकल। सब थके हैं। हम लोग अब चलेंगे। थैंक्यू आंटी! विजया, भाभी और हां भैया को भी धन्यवाद कह देना मेरी ओर से। सचमुच खाना बहोत अच्छा था। (सभी जाने लगते हैं।)
मां : फिर आइएगा आप लोग। विजया! बाहर तक छोड़ आ।
विजया : जी।
सभी बाहर जाते हैं। कामेश मां और पिताजी के पांव छूना नहीं भूलता।
पिताजी : कितने खुश हैं सब।
मां : विजया भी।
पिताजी : विजया आए तो उससे पूछना। मेरे सामने हो सकता है न बोले।
मां : हां-हां।
पिताजी : थोड़ा कायदे से पूछना। उसको भनक न लगने पाए ।
मां : हां-हां जानती हूं। ज्यादा बुद्धि न बताओ।
विजया आती है। पिताजी ओट में हो जाते हैं।
मां : विजया, आज मैं बहुत खुश हूं। बता, क्यों?
विजया : नाटक अच्छा रहा, इसलिए।
मां : हां, नाटक तो अच्छा था ही। पर और बता?
विजया : अ...बहुत दिनों बाद इतने मेहमान आए, इसलिए?
मां : हां, यह बात भी सही है, पर और बता?
विजया : और... और क्या बात है मम्मी?
मां : मैं खुश हूं विजया, तुझे खुश देख कर। मुझे याद नहीं आता, पहले भी कभी तू इतनी खुश हुई थी। तू इतनी खुश क्यों है? बता बेटी? सच-सच बताना? मां से छुपाना नहीं।
विजया : मम्मी मैं खुश हूं... बहुत खुश हूं मम्मी। क्योंकि पहली बार मैंने पाया कि मेरा जीवन भी कुछ मायने रखता है। मेरा जीवन भी किसी के काम आया। कहने को छोटी चीज थी, मम्मी। एक नाटक में रोल कर लेना बड़ी बात नहीं है। लेकिन, मां-बाप के लिए बोझ बनी इस लड़की के लिए यह एक बहुत बड़ी बात थी मम्मी।
मां : विजया, तू ऐसा क्यों सोचती है?
विजया : मेरे काम से अनु दीदी बहुत खुश हुईं। अरविंद सर बहुत खुश हुए। सभी खुश हुए। सबसे ज्यादा आप दोनों खुश हुए। क्या कभी मैं सोच सकती थी, कि मैं इतनी खुशी आप सबको दे सकती हूं ?
पिता निकलकर सामने आते हैं।
पिताजी : शाबाश मेरी बच्ची!
विजया : पापा! आप रो रहे हैं?
पिताजी : हां। आजु सफल तप तीरथ योगू! मैं अपने आंसू रोक नहीं पा रहा हूं, बेटी। हम लोग अपनी बेटियों से सिर्फ इतना ही क्यों चाहते हैं कि वो अपनी और परिवार की इज्जत बचाते हुए अपने ससुराल चली जाएं, बस! इससे ज्यादा हम उनसे कुछ चाहते ही नहीं। और हम यह भी भूल जाते हैं, कि भले ही हम उनसे कुछ न चाहें, लेकिन हमारी बेटियां हमसे बहुत कुछ चाहती हैं। (पत्नी की ओर देखने के बाद विजया से) बेटी, हम दोनों इस बात को लेकर खुश थे कि शायद हमारी बेटी को, कोई ऐसा मिल गया है जो...
मां : (शर्म से) छोड़िए भी।
विजया : हां पापा। मुझे बहुत-कुछ मिला है। अरविंद सर कहते थे यह दब्बू डरपोक लड़की अमृता नहीं बन सकती। 'मुझे अमृता चाहिए'! और पापा, बाद में उन्होंने क्या कहा मालूम है? - 'मुझे अमृता मिल गई है'! सच पापा, उन्होंने ऐसा ही कहा। पापा, क्या मैं अमृता हूं? (आंखों में सच जानने की असीम चाह) सच बताइएगा पापा?
पिताजी : (वात्सल्य के चरम क्षण) हां बेटी, तू अमृता ही है! तू अमृता ही है!
आशीर्वाद देते हुए माता -पिता अंदर जाते हैं। विजया आगे आती है, प्रकाश सिर्फ उसके ऊपर। कुछ पल मान्यता मिलने के इस सुख को महसूस करती है।
विजया : पता नहीं पापा ने मेरा मन रखने के लिए कहा या... लेकिन, अब देखिए न, नाटक शुरू होने के पहले मैं कितना नर्वस थी। पता नहीं क्या होगा? आप लोग... न जाने किस तरह रिएक्ट करेंगे! पर अब, सब कुछ कितना... आसान-सा हो गया है। जिनसे खौफ था यानी आप लोग, कितने अपने-से लग रहे हैं। तभी तो, नाटक खत्म होने के बाद भी आप से बात करने आ गई हूं। क्या है अमृता, कौन है अमृता? एक लड़की? एक शक्ति? या केवल एक प्रतीक? कौन है अमृता? मैं जब तक विंग्स में थी आप लोग मुझे नहीं पहचानते थे, क्योंकि वहां घुप्प अंधेरा था। लेकिन जब मैं मंच पर आई तो आपने मुझे पहचान लिया। तो क्या अमृता अंधेरे से निकल कर प्रकाश में आई कोई चीज है? कोई एक पहचान? आखिर कौन है अमृता?... क्या वाकई यह एक नाटक है, एक सपनीली दुनिया? जिसमें कहीं कोई सच्चाई नहीं? आखिर क्या है यह? मैं नहीं जानती। मैं कुछ भी नहीं जानती। मेरी बुद्धि ही कितनी है। मेरी समझ में तो अमृता कुछ भी नहीं है, सिर्फ एक नाम है। साधारण, जैसा कि कोई भी नाम होता है। महत्वपूर्ण तो हैं ये फ्लड लाइट्स जिनकी रोशनी में आपने मुझे पहचाना। महत्वपूर्ण है वह छोटी-सी वह इच्छा, जिसमें अमृता ने खुद को पहचाना। और सबसे महत्वपूर्ण है वह मांग, आपकी, वह डिमांड, आपकी, जिसके कारण मैं विजया, अमृता बनी। अरविंद सर बार-बार कहते थे - मुझे अमृता चाहिए! मुझे अमृता चाहिए! और तभी आपके भी मन में यही आवाज आई होगी। भले ही नाटक के लिए ही सही, मुझे अमृता चाहिए, मुझे अमृता चाहिए! तो देखिए मुझे! क्या मैं अमृता हूं? मैं हूं न अमृता? सदियों से यहीं थी। किसी दूसरी दुनिया से नहीं आई हूं। आपकी अपनी विजया हूं। वही विजया जो आपके घर में, आपकी छोटी बहन बन कर दुबकी बैठी रहती है। पहचान लिया न आपने? मैं हूं आपकी, अपनी, अमृता!
विजया पृष्ठमंच की ओर जाकर चुपचाप खड़ी होती है। प्रकाश मद्धम होता है। विजया का मुंह नेपथ्य की ओर है। एक विंग से मां और पिता जी एक साथ आते हैं। दोनों की आंखों में विजया के ब्याह का सपना है। दूसरे विंग से कामेश आता है। वह अपनी जेब से चुनरी निकालता है। प्यार से विजया को उढ़ाता है , और मंच पर बिखरी सामग्रियों को समेटने लगता है। मां-बाप का सपना। प्रकाश क्रमशः समाप्ति की ओर।
( योगेश त्रिपाठी को उनके ' मुझे अमृता चाहिए ' के लिए 2002 के लिए साहित्य कला परिषद् , दिल्ली का मोहन राकेश पुरस्कार प्राप्त हुआ है। 2004 में विद्या प्रकाशन मंदिर , नई दिल्ली से प्रकाशित इस नाटक के कई मंचन श्री हबीब तनवीर , श्री मुश्ताक काक , श्री सतीश मेहता , श्री इरफान सौरभ आदि विभिन्न निर्देशकों द्वारा कि ए जा चुके हैं। संपूर्ण नाटक या उसके अंश के मंचन या किसी भी प्रकार के उपयोग के पूर्व लेखक की लिखित अनु मति प्राप्त करना व रॉयल्टी का भुगतान आवश्यक है। अनु मति न होने पर कानूनी कार्रवाई की जा सकती है। - योगेश त्रिपाठी , 12/273, गांधीनगर उर्रहट , रीवा ( म . प्र .) पिन - 486001 , मोबाइल नंबर - 09981986737, 09039588780 ।