आजकल के चर्चित सरोकारों में 'भारत' और 'भारतीयता' के सवाल प्रछन्न और प्रत्यक्ष दोनों ही रूपों में खासी चर्चा का विषय बन चुके हैं और कई बड़े बुद्धिजीवी इस पर बहस में शिरकत कर रहे हैं। दूसरी ओर ऐसों की भी कमी नहीं है जो इसे बेमतलब का मुद्दा मानते हैं। इसका परिदृश्य आज जटिल और बदला हुआ है। देश के स्वतंत्र होने के पहले और स्वतंत्र होने के तत्काल बाद और अब लगभग सात दशक की परिपक्वता के करीब पहुँचते-पहुँचते इसे लेकर आज बहुतेरे यह मान कर इस तरह की चर्चा से तटस्थ हो चले हैं कि यह तो कोई सार्थक प्रश्न ही नहीं है। कुछ इसे वैश्विक या भूमंडलीकृत हो रहे आज के समय की जरूरतों के अनुसार समझना चाहते हैं। कुछ इसे केवल स्थानीय दृष्टि से ही देखना चाहते हैं। कुछ इसे सभ्यता और संस्कृति के विमर्श से जोड़ कर देखते हैं। जो भी हो अंतरराष्ट्रीयता के सारे प्रयासों के बावजूद आज भी राज्य या 'नेशन स्टेट' की अवधारणा निर्णायक महत्व रखती है और निकट भविष्य में सीमाविहीन देश जैसी कोई अवधारणा आकार लेती नजर नहीं आती।
आज का सत्य यही है कि देशों की सीमाएँ बाधा (का अधिक) और संपर्क (का कम) का काम कर रही हैं। देश की सीमाओं की रक्षा सबके सामने एक बड़ी चुनौती है। 'देश' और 'राष्ट्र' केवल कोरी भौगोलिक अवधारणाएँ नहीं होतीं। उन इकाइयों की रचना के साथ एक समाज या समुदाय विशेष की आशा-आकांक्षा भी जुड़ी होती है। देश की अवधारणा एक स्वप्न को समर्पित रहती है। आज के तमाम राष्ट्रों के साथ उनके साथ जुड़ी लंबी संघर्ष-गाथा आसानी से देखी जा सकती है जो दूसरे समाजों और समुदायों की साम्राज्यवादी आकांक्षाओं के प्रतिरोध को दर्शाती हैं। शक्तिसंपन्न और आर्थिक रूप से प्रबल देशों की दादागिरी, उनकी सत्ता और शक्ति का जलवा अभी भी बरकरार है। कहने का तात्पर्य यह कि देश की इकाई अभी भी राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक, सामरिक और सांस्कृतिक रूप से महत्वपूर्ण बनी हुई है और उसे नकारा नहीं जा सकता।
आज बौद्धिक कवायद में भारत समेत सब कुछ 'कंटेस्टेड' माने जाने का फैशन-सा चल पड़ा है, पर उससे दूर करोड़ों (भारतीय) जनों के तन-मन में भारत जीवित है। आम आदमी जिनसे देश आकार लेता है वह भारत की एक सामाजिक स्मृति भी रखता है। उसके लिए 'देश' स्थानबोधक है और भारत एक भाव भी है। 'भारतीय' होने का मतलब है भारतभूमि में रहने की जीवन-व्यवस्था में शामिल होना। भारत कहें या 'इंडिया' यह मूलतः एक भौगोलिक स्थान और उसकी परिधि को रेखांकित करता है। इस भूभाग को 'जंबू द्वीप', 'आर्यावर्त', 'भारतवर्ष' और 'हिंदुस्तान' के नाम से भी जानते हैं। हिमालय और सागर इसकी सीमाएँ बनाते हैं। 'शस्यश्यामलां' के देश गान और 'जनगणमन' के राष्ट्रीय गान में जीवंत भारत माता को जिस रूप में स्मरण किया गया है वह भौगोलिक अवधारणा ही नहीं उसकी सीमा में रहने वाले बाशिंदों की सामाजिक-सांस्कृतिक अस्मिता पर बल देती है जिसका एक भावात्मक रूप भी है। भारत एक सामाजिक श्रेणी भी है जो समाज द्वारा रचित और स्वीकृत है। यह उस सामाजिक आकांक्षा का प्रतीक भी है जो एक आदर्श स्थिति की दिशा में जाने के लिए प्रेरित करती है। आधुनिक युग में एक स्वतंत्र जनतंत्र के रूप में एक राज्य की स्थापना हुई और सहमति से एक संविधान बना और सामाजिक आकांक्षा को एक मूर्त रूप मिला। हमने उसमें आवश्यकतानुसार बदलाव भी किया है। इस इकाई के सदस्य के रूप में हमारी एक भारतीय पहचान है।
स्मरणीय है कि एक समुदाय या सामाजिक इकाई की भिन्नता या अलग सत्ता स्थापित करना व्यावहारिक दृष्टि से भी आवश्यक है। ऐसा करना समाज को अंदर से बांधता है, एकजुट करता है और अन्य (वैसी ही) इकाइयों से फर्क करता है। वैधानिक रूप से 'नेशन' या राष्ट्र एक कानूनी इकाई भी है और उसके सदस्य वैध नागरिक होते हैं जिसकी स्वीकृति अन्य राष्ट्र भी करते हैं और पासपोर्ट, वीसा आदि की व्यवस्था से आवागमन को नियंत्रित करते हैं। नागरिक के रूप में वैधानिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकार के साथ कर्तव्य और दायित्व में भी भागीदारी होती हैं। समाज की नियति है कि जाति, भाषा, बोली, क्षेत्र, भोजन, वस्त्र, रीति-रिवाज, धर्म आदि की विशेषताएँ आ जाती हैं। इनके साथ समाज का भावात्मक लगाव होता है और उसके सदस्य स्वयं को उसी आधार पर परिभाषित भी करने लगते है। चूँकि इन विशेषताओं का संचार, पारस्परिक संबंध और जीवन के विविध व्यापारों से गहरा रिश्ता होता है इसलिए ये उस समाज की पारिभाषिक विशेषताएँ बन जाती हैं।
भारत देश हमारे समक्ष एक सभ्यता और मूल्य दृष्टिसंपन्न सामाजिक इकाई के रूप में उपस्थित होता है। इसकी समझ कई रूपों में मिलती है। निकट इतिहास में झाँकें तो पाएँगे कि इसके कई रूप हैं। एक छोर पर हिंदू उपलब्धि को बलपूर्वक रखने वाले तिलक, अरविंद, सावरकर और विपिन चंद्र पाल जैसे हैं। दूसरी और गोखले, रानाडे, गांधी और टैगोर सरीखे आध्यात्मिक विचार को मानने वाले हैं जो सभी प्रभावों को आत्मसात करने को तैयार हैं। ये सहिष्णुता, आत्मनियंत्रण आदि के साथ एक तरह की बहुलता को ठीक मानते हैं। तीसरी ओर आधुनिक दृष्टिसंपन्न नौरोजी और पंडित नेहरू जैसे लोग हैं जो भारत को एक विकसित सभ्यता तो मानते हैं पर यह भी महसूस करते हैं कि उसका ह्रास भी हुआ और उसमें बहुत कुछ आधुनिक जीवन दृष्टि के विपरीत हुआ जो आज उपयोगी नहीं है। उनके हिसाब से एक बहुलतावादी आधुनिक नजरिया जो विज्ञानसम्मत हो, उपयुक्त ठहरता है।
आज हर भारतीय की एक बहुआयामी पहचान बनती है। वह हिंदू, बंगाली, मुस्लिम, गुजराती, कश्मीरी, बिहारी, ब्राह्मण, ओबीसी, जैन, ईसाई आदि वाली एक साथ कई तरह की पहचान रखता है। ये भिन्न भिन्न पहचानें अक्सर एक दूसरे की विरोधी न होकर पूरक होती हैं। सांस्कृतिक रूप से वे गहरी पैठी हैं और उनके साथ लोगों का गहरा सार्वजनिक लगाव भी है। वस्तुतः हर भारतीय की पहचान (आइडेंटिटी) की अलग व्यवस्था है। कोई एक यूनीफार्म पैमाना नहीं है जो यह तय करे कि कई पहचानों में से कौन सबसे ऊपर 'नंबर वन' पर है। यह एक बड़ा तरल या 'फ्लुइड' मामला है। आज पूजा-पाठ संगीत और स्वास्थ्य लाभ के अनेक केंद्र भारत भर में फैले हुए हैं जहाँ आने जाने से हिंदू, ईसाई, सिख और मुसलमान किसी को भी परहेज नहीं होता। कई पहचान के साथ रहना अस्पष्टता तो पैदा करता है, पर शायद दूसरों के लिए। वस्तुतः हर भारतीय कई (उप) संस्कृतियों में जीता है और ये सब मिलकर उसकी पहचान बनाती हैं। इस अर्थ में हर भारतीय शायद बहुसांस्कृतिक है और उसकी पहचान बहुआयामी।
देश की छवि देशवासियों के आत्मगौरव का माध्यम होती है। आज के भारत का अंग होना, उसे 'बिलांग' करना हमको आर्थिक प्रगति की ओर अग्रसर एक देश, एक आर्थिक 'पावर' के साथ जुड़ने का एहसास देता है। दूसरी ओर भ्रष्टाचार, अशिक्षा, अव्यवस्था, सामाजिक कुरीतियों और भेदभाव के कारण मन में थकान, उदासीनता और असहायता की भावना भी आती है। इस सबके बावजूद एक भारतीय का बोध जरूर है जो पंजाबी, मराठी या गुजराती होने, अलग जाति, वर्ग और समुदाय का सदस्य होने पर भी सबको भारतीय बनाता है। कभी-कभी 'विविधता में एकता' वाले नेहरू जी का भारत अपरिभाषेय या अव्याख्येय लगता है। भारत को एक विस्तृत सांस्कृतिक इकाई के रूप में देखने पर कुछ विचार उभरते हैं जो भारतीय होने के अर्थ को स्पष्ट करने में सहायक होते हैं। इनमें प्रमुख हैं धर्म, कर्म, पुनर्जन्म को किसी न किसी रूप में स्वीकारना, सामाजिक इकाई - परिवार, जाति, समुदाय के स्तर पर अपने अस्तित्व को महसूस करना, सेक्स, विवाह और अन्य व्यक्तियों के प्रति खास दृष्टिकोण को अपनाना, बहुलता का स्वीकार और खुले, कुछ-कुछ असंगठित किस्म की आत्म या सेल्फ की अवधारणा का स्वीकार और किसी न किसी रूप में किसी बड़ी ज्ञात-अज्ञात सत्ता से जुड़ाव की अभिलाषा और परिवेश, प्रकृति और सृष्टि के साथ साझेदारी तथा परस्पर अनुपूरकता का भाव।
समकालीन विमर्श में राज्य और राष्ट्र की अवधारणा के अर्थ बहुत कुछ इस पर निर्भर करते हैं कि कौन किस दृष्टिकोण और प्रयोजन से इन पर गौर कर रहा है। अक्सर इन्हें अतीत, वर्तमान और भविष्य से जोड़ कर देखा जाता है और लोग अपने चुने वैचारिक आदर्श से रँग कर ही इस पर विचार करते हैं। इन शब्दों और इनसे जुड़े अर्थ स्थान और समय के साथ-साथ बदलते रहे हैं जो स्वाभाविक है। 'भारत देश' के बारे में सोचने की एक बड़ी मुश्किल यह है कि हमारी अपनी परिभाषा के पैमाने हमारे अपने न होकर किसी और के दिए हुए हैं। वे हमारे बौद्धिक मानस में इतने गहरे पैठ चुके हैं कि अब हम अपने पैमाने के बारे में भरोसा ही नहीं कर पा रहे हैं और खुद को परिभाषित करने का अधिकार ही खोते जा रहे हैं। आर्थिक और तकनीकी प्रगति के पसराव की दुनिया में आज हमारा आत्म-संशय इतना गहराता जा रहा है कि 'भारत' और 'भारतीयता' की बात करना पुरानी और दकियानूस और इसलिए अप्रासंगिक मानी जाने लगी है। अगर इसकी बात करनी भी है तो उसकी सनद कहीं और से जुटानी होगी। आज अपनी पहचान के लिए हम पश्चिमी देशों में विद्वानों के द्वारा प्रमाण और गवाही चाहते हैं। आज भारत की सांस्कृतिक विविधता को संपन्नता और समृद्धि के स्रोत के रूप में समझने समझाने की जरूरत है जिसका उपयोग समाज के विकास में किया जाय। इसके लिए भारत को भारत के नजरिए से देखना होगा, बिना इस भय के कि भारतीय होना किसी क्षमा याचना की अपेक्षा करता है। स्वदेशी और सुराज जैसे विचार अभी भी प्रासंगिक हैं। समर्थ और स्वावलंबी होने के लिए आत्म स्वीकार और सतत परिष्कार आवश्यक है।