भारत के सामने आज दो रास्ते हैं; वह चाहे तो पश्चिम के 'शक्ति ही अधिकार है' वाले सिद्धांत को अपनाए और चालाए या पूर्व इस सिद्धांत पर दृढ़ रहे और उसी की विजय के लिए अपनी सारी ताकत लगाए कि 'सत्य की ही जीत होती है'; सत्य में हार कभी हैं ही नहीं; और ताकतवर तथा कमजोर, दोनों को न्याय पाने का समान अधिकार है। यह चुनाव सबसे पहले मजदूर-वर्ग को करना है। क्या मजदूरों को अपने वेतन में वृद्धि, यदि वैसा संभव हो तो भी हिंसा का आश्रय लेकर करानी चाहिए? उनके दावे कितने भी उचित क्यों न हों, उन्हें हिंसा का आश्रय नहीं लेना चाहिए। अधिकार प्राप्त करने के लिए हिंसा का आश्रय लेना शायद आसान मालूम हो, किंतु यह रास्ता अंत में कांटों वाला सिद्ध होता है। जो लोग तलवार के द्वारा जीवित रहते हैं, वे तलवार से ही मरते हैं। तैराक अक्सर डूबकर करता है। यूरोप की ओर देखिए। वहाँ कोई भी सुखी नहीं दिखाई देता, क्योंकि किसी भी संतोष नहीं है। मजदूर पूँजीपति का विश्वास नहीं करता और पूँजीपति को मजदूर में विश्वास नहीं है। दोनों में एक प्रकार की स्फूर्ति और ताकत है, लेकिन व तो बैलों में भी होती है। बैल भी मरने की हद तक लड़ते हैं। कैसी भी गति-प्रगति नहीं है। हमारे पास यह मानने का कोई कारण नहीं हैं कि यूरोप के लोग प्रगति कर रहे हैं। उनके पास जो पैसा है उससे यह सूचित नहीं होता कि उनमें कोई नैतिक या आाध्यात्मिक सद्गुण हैं। दुर्योंधन असीम धन का स्वामी था, लेकिन विदुर या सुदामा की तुलना में वह गरीब ही था। आज दुनिया विदुर और सुदामा की पूजा करती है; लेकिन दुर्योधन नाम तो उन सब बुराइयों के प्रतीक के रूप में ही याद किया जाता है जिनसे आदमी को बचना चाहिए।
...पूँजी और श्रम में चल रहे संघर्ष के बारे में आम तौर पर यह कहा जा सकता है कि गलती अक्सर पूँजीपतियों से ही होती है। लेकिन जब मजदूरों को अपनी ताकत का पूरा भान हो जाएगा, तब मैं जानता हूँ कि वे लोग पूँजीपतियों से भी ज्यादा अत्याचार कर सकते हैं। यदि मजदूर मिल-मालिकों की बुद्धि हासिल कर लें, तो मिल-मालिकों को मजदूरों की दी हुई शर्तों पर काम करना पड़ेगा। लेकिन यह स्पष्ट है कि मजदूरों में वह बुद्धि कभी नहीं आ सकती। अगर वे वैसी बुद्धि प्राप्त कर लें तो मजदूर मजदूर ही न रहें और मालिक बन जाएँ। पूँजीपति केवल पूँजी की ताकत पर नहीं लड़ते; उनके पास बुद्धि और कौशल भी है।
हमारे सामने सवाल यह है: मजदूरों में, उनके मजदूर रहते हुए, अपनी शक्ति और अधिकारों की चेतना आ जाए, उस समय उन्हें किस मार्ग का अवलंबन करना चाहिए? अगर उस समय मजदूर अपनी संख्या के बल का यानी पशु-शक्ति का आश्रय लें, तो यह उनके लिए आत्म घातक सिद्ध होगा। ऐसा करके वे देश के उद्योगों को हालि पहुँचाएँगे। दूसरी ओर यदि वे शुद्ध न्याय का आधार लेकर लड़ें और उस पाने के लिए खुद कष्ट सहन करें, तो वे अपनी हर कोशिश में न सिर्फ सफल होंगे बल्कि अपने मालिकों के हृदय का परिवर्तन कर डालेंगे, उद्योगों का ज्यादा विकास करेंगे और अंत में मालिक और मजदूर दोनों एक ही परिवार के सदस्यों की भाँति रहने लगेंगे। मजदूरों की हालत के संतोषजनक सुधार में निम्नलितिखत वस्तुओं का समावेश होना चाहिए :
1. श्रम का समय इतना ही होना चाहिए कि मजदूरों को आराम करने के लिए भी काफी समय बचा रहे।
2. उन्हें अपने शिक्षण की सुविधाएँ मिलती चाहिए।
3. उनके बच्चों की आवश्यकता शिक्षा के लिए तथा वस्त्र और पर्याप्त दूध के लिए व्यवस्था की जानी चाहिए।
4. मजदूरों के लिए साफ-सुथरे घर होने चाहिए।
5. उन्हें इतना वेतन मिलना चाहिए कि वे बुढ़ापे में अपने निर्वाह के लिए काफी रकम बचा सकें।
अभी तो इनमें से एक भी शर्त पूरी नहीं होती। इस हालत के लिए दोनों ही पक्ष जिम्मेदार हैं। मालिक लोग केवल काम की परवाह करते हैं। मजदूरों का क्या होता है, उससे व कोई संबंध नहीं रखते। उनकी सारी कोशिशों का मकसद यही होता है कि पैसा कम-से-कम देना पड़े और काम ज्यादा-से-ज्यादा मिले। दूसरी ओर मजदूर की कोशिश ऐसी सब युक्तियाँ करने की होती है, जिससे पैसा उसे ज्यादा-से-ज्यादा मिले और काम कम-से-कम करना पड़े। परिणाम यह होता है कि यद्यपि मजदूरों के वेतन में वृद्धि होती है, परंतु काम की मात्रा में कोई सुधार नहीं होता। दोनों पक्षों के संबंध शुद्ध नहीं बनते और मजदूर लोग अपनी वेतन-वृद्धि का समुचित उपयोग नहीं करते।
इन दोनों पक्षों के बीच में एक तीसरा पक्ष खड़ा हो गया है। वह मजदूरों का मित्र बन गया है। ऐसे पक्ष की आवश्यकता से इनकार नहीं किया जा सकता लेकिन यह पक्ष मजदूरों के प्रति उसकी मित्रता का निर्वाह उसी हद तक कर सकेगा, जिस हद तक उनके प्रति उसकी मित्रता स्वार्थ से अछूती होगी।
अब वह समय आ पहुँचा है जब कि मजदूरों का उपयोग कई तरह से शतरंज के प्यादों की तरह करने की कोशिशें की जाएँगी। जो लोग राजनीति में भाग लेने की इच्छा रखते हैं, उन्हें इस सवाल पर विचार करना चाहिए। वे लोग क्या चुनेंगे: अपना हित या मजदूरों की और राष्ट्र की सेवा? मजदूरों को मित्रों की बड़ी आवश्यकता है। वे नेतृत्व के बिना कुछ नहीं कर सकते। देखना यह है कि यह नेतृत्व उन्हें किस किस्म के लोगों से मिलता है; क्योंकि उससे ही मजदूरों की भावी परिस्थितियों का निर्धारण होने वाला है।
काम छोड़कर बैठ जाना, हड़तालें आदि बेशक बहुत प्रभावशाली साधन हैं, लेकिन उनका दरुपयोग आसान है। मजदूरों को अपने शक्तिशाली यूनियन बनाकर अपना संगठन कर लेना चाहिए और इन यूनियनों की सहमति के बिना कभी भी कोई हड़ताल नहीं करनी चाहिए। हड़ताल करने के पहले मिल-मालिकों से बातचीत के द्वारा समझौते कोशिश होनी चाहिए; उसके बिना हड़ताल का खतरा मोल लेना ठीक नहीं। यदि मिल-मालक झगड़े के निपटारे के लिए पंच-फैसले का आश्रय लें, तो पंचायत की बात जरूर स्वीकार की जानी चाहिए। और पंचों की नियुक्ति हो जाने के बाद दोनों पक्षों को उसका निर्णय समान रूप से जरूर मान लेना चाहिए, भले उन्हें वह पंसद आया हो या नहीं।
मेरा सर्वत्र सही अनुभव रहा है कि सामान्यत: मालिक की तुलना में मजदूर लोग अपने कर्तव्य ज्यादा ईमानदारी के साथ और ज्यादा परिणमकारी ढँग से पूरे करते हैं, यद्यपि जिस तरह मालिक के प्रति मजदूरों के कर्तव्य होते हैं उसी तरह मजदूरों के प्रति मालिक के भी कर्तव्य होते हैं। और यही कारण है कि मजदूरों के लिए इस बात की खोज करना आवश्यक हो जाता है कि वे मालिकों से अपनी माँग किस हद तक मनवा सकते हैं। अगर हम यह देखें कि हमें काफी वेतन नहीं मिलता या कि हमें निवास की जैसी सुविधा चाहिए वैसी नहीं मिल रही है, तो हमें काफी वेतन और समुचित निवास की सुविधा कैसे मिले, इस बात का रास्ता ढूँढ़ना पड़ता है। मजदूरों को कितनी सुख-सुविधा चाहिए, इस बात का निश्चय कौन करे? सबसे अच्छी बात तो यही होगी की कि तुम मजदूर लोग खुद यह समझो कि तुम्हारे अधिकार क्या हैं, उन अधिकारों को मालिकों से मनवाले का उपाय क्या है और फिर उन्हें उन लोगों से तुम खुद ही हासिल करो। लेकिन इसके लिए तुम्हारे पास पहले से ली हुई थोड़ी-सी तालीम होनी चाहिए-शिक्षा होनी चाहिए।
मेरी नम्र राय में यदि मजदूरों में काफी संगठन हो और बलिदान की भावना भी हो, तो उन्हें अपने प्रयत्नों में हमेशा सफलता मिल सकती है। पूँजीपति कितने ही अत्याचारी हों, मुझे निश्चय है कि जिनका मजदूरों से संबंध है और जो मजदूर-आंदोलन का मार्गदर्शन करते हैं, खुद उन्हें ही अभी इस बात की कल्पना नहीं है कि मजदूरों की साधन-संपत्ति कितनी विशाल है। उनकी साधन-संपत्ति सचमुच इतनी विशाल है कि पूँजीपतियों की उतनी कभी हो ही नहीं सकती। अगर मजदूर इस बात को पूरी तरह समझ लें कि पूँजी श्रम का सहारा पाए बिना कुछ नहीं कर सकती, तो उन्हें अपना उचित स्थान तुरंत ही प्राप्त हो जाएगा।
दुर्भाग्यवश हमारा मन पूँजी की मोहिनी से मूढ़ हो गया है और हम यह मानने लगे है कि दुनिया में पूँजी ही सब-कुछ है। लेकिन यदि हम गहरा विचार करें तो क्षणमात्र में हमें यह पता चल जाएगा कि मजदूरों के पास जो पूँजी है वह पूँजीपतियों के पास कभी हो ही नहीं सकती। ...अँग्रेजी में एक बहुत जोरदार शब्द है-यह शब्द आपकी फ्रैंच भाषा में और दुनिया की दूसरी भाषाओं में भी है। यह है 'नहीं बस, हमने अपनी सफलता के लिए यही सहस्य खोज निकाला है कि जब पूँजीपति मजदूरों से 'हाँ' कहलवाना चाहते हों उस समय यदि मजदूर 'हाँ' न कहकर 'नहीं' कहने की इच्छा रखते हों, तो उन्हें निस्संकोच 'नहीं' का ही गर्जन करना चाहिए। ऐसा करने पर मजदूरों को तुरंत ही इस बात का ज्ञान हो जाएगा कि उन्हें यह आजादी है कि जब वे 'हाँ' कहना चाहें तब 'हाँ' कहें और जब 'नहीं' कहना चाहें तब 'नहीं' कह दें; और यह कि वे पूँजी के अधीन नहीं हैं बल्कि पूँजी को ही उन्हें खुश रखना है। पूँजी के पास बंदूक और तोप और यहाँ तक कि जगरीले गैस जैसे डारवने अस्त्र भी हैं, तो भी इस स्थिति में कोई फर्क नहीं पड़ सकता। अगर मजदूर अपनी 'नहीं' की टेक कायम रखें, तो पूँजी अपने उन सब शस्त्रास्त्रों के बावजूद पूरी तरह असहाय सिद्ध होगी। उस हालत में मजदूर प्रत्याक्रमण नहीं करेंगे, बल्कि गोलियों और जहरीले गैस की मार सहते हुए भी झुकेंगे नहीं और अपनी 'नहीं' की टेक पर अडिग रहेंगे। मजदूर अपने प्रयत्न में अक्सर असफल होते हैं, उसका कारण यह है कि वे जैसा मैंने कहा है वैसा करके पूँजी का शोधन नहीं करते, बल्कि (मैं खुद मजदूर के नाते ही यह कह रहा हूँ) उस पूँजी को स्वयं हथियार चाहते है और खुद पूँजीपति शब्द के बुरे अर्थ में पूँजीपति बनना चाहते हैं। और इससलिए पूँजीपतियों को, जो अच्छी तरह संगठित हैं और अपनी जगह मजबूती से डटे हुए हैं, मजदूरों में अपना दरजा पाने के अभिलाषी उम्मीदवार मिल जाते हैं और वे मजदूरों के इस अंश का उपयोग मजदूरों को दबाने के लिए करते हैं। अगर हम लोग पूँजी की इस मोहिनी के प्रभाव में न होते, तो हममें से हर एक इस बुनियादी सत्य को आसानी से समझ लेता।