मेरा विश्वास है और मैंने इस बात को असंख्य बार दुहराया है कि भारत अपने चंद शहरों में नहीं बल्कि सात लाख गाँवों में बसा हुआ है। लेकिन हम शहरवासियों का ख्याल है कि भारत शहरों में ही है और गाँवों का निर्माण शहरों की जरूरतें पूरी करने के लिए ही हुआ है। हमने कभी यह सोचने की तकलीफ ही नहीं उठाई कि उन गरीबों को पेट भरने जितना अन्न और शरीर ढकने जितना कपड़ा मिलता है या नहीं और धूप तथा वर्षा से बचने के लिए उनके सिर पर छप्पर है या नहीं।
मैंने पाया है कि शहरवासियों ने आम तौर पर ग्रामवासियों का शोषण किया है; सच तो यह है कि वे गरीब ग्रामवासियों की ही मेहनत पर जीते हैं। भारत के निवासियों की हालत पर कई ब्रिटिश अधिकारियों ने बहुत कुछ लिखा है। जहाँ तक मैं जानता हूँ कि किसी ने भी यह नहीं कहा है कि भारतीय ग्रामवासियों को भरपेट अन्न मिलता है। उलटे, उन्होंने यह स्वीकार किया है कि अधिकांश आबादी लगभग भुखमरी की हालत में रहती है, दस प्रतिशत अधभूखी रहती है और लाखों लोग चुटकी भर नमक और मिर्चों के साथ मशीनों का पालिश किया हुआ नि:सत्त्व चावल या रूखा-सूखा अनाज खाकर अपना गुजारा चलाते हैं।
आप विश्वास कीजिए कि यदि उस किस्म के भोजन पर हम लोगों में से किसी को रहने के लिए कहा जाए, तो हम एक माह से ज्यादा जीने की आशा नहीं कर सकते, या फिर हमें यह डर लगेगा कि ऐसा खाने में कहीं हमारी दिमागी शक्तियाँ नष्ट न हो जाएँ। लेकिन हमारे ग्रामवासियों को इस हालत में से रोज-रोज गुजरना पड़ता है।
हमारी आबादी का पचहत्तर प्रतिशत से ज्यादा हिस्सा कृषि जीवी है। लेकिन यदि हम उनसे उनकी मेहनत का सारा फल खुद छीन छीन लें या दसरों को छीन लेने दें, तो यह नहीं कहा जा सकता कि हममें स्वराज्य की भावना काफी मात्रा में है।
शहर अपनी हिफाजत आप कर कर सकते हैं। हमें तो अपना ध्यान गाँवों की ओर लगाना चाहिए। हमें उन्हें उनकी संकुचित दृष्टि, उनके पूर्वाग्रहों और वहमों आदि से मुक्त करना है; और इसे करने का सिवा इसके और कोई तरीका नहीं है कि हम उनके साथ उनके बीच में रहें, उनके सुख-दु:ख में हिस्सा लें और उनमें शिक्षा का तथा उपयोगी ज्ञान का प्रचार करें।
हमें आदर्श ग्रामवासी बनना है; ऐसे ग्रामवासी नहीं जिन्हें सफाई की या तो कोई समझ ही नहीं है या तो बहुत विचित्र प्रकार की, और जो इस बात का कोई विचार ही नहीं करते कि वे क्या खाते हैं और कैसे खाते हैं। उनमें से ज्यादातर लोग चाहे जिस तरह अपना खाना पका लेते हैं, किसी भी तरह खा लेते हैं और किसी भी तरह रह लेते हैं। वैसा हमें नहीं करना है। हमें चाहिए कि हम उन्हें आदर्श आहार बतलाएँ। आहार के चुनाव में हमें अपनी रुचियों और अरुचियों का विचार नहीं करना चाहिए, बल्कि खाद्य वस्तुओं के पोषक तत्वों पर नजर रखनी चाहिए।
हमें जिनकी पीठ पर जलता हुआ सूरज अपनी किरणों के तीर बरसात है और उस हालत में भी जो कठिन परिश्रम करते रहते हैं उन ग्रामवासियों से एकता साधनी है। हमें सोचना है कि जिस पोखर में वे नहाते हैं और अपने कपड़े तथा बरतन धोते हैं और जिसमें उनके पशु लोटते और पानी पीते हैं, उसी में से यदि हमें भी उनकी तरह पीने का पानी लेना पड़े तो हमें कैसा लगेगा। तभी हम उस जनता का ठीक प्रतिनिधित्व कर सकेंगे और तब वे हमारे कहने पर जरूर ध्यान देंगे।
हमें उन्हें बताना है कि वे अपनी साग-भाजियाँ विशेष कुछ खर्च किए बिना खुद उगा सकते हैं औ अपने स्वास्थ्य की ठीक रक्षा कर सकते हैं। हमें उन्हें यह भी सिखाना है कि पत्ता-भाजियों को वे जिस तरह पकाते हैं, उसमें उनके अधिकांश विटामिन नष्ट हो जाते हैं।
हमें उन्हें यह सिखाना है कि वे समय, स्वास्थ्य और पैसे की बचत कैसे कर सकते हैं। लिओनेल कार्टिस ने हमारे गाँवों का वर्णन करते हुए उन्हें 'घूरे के ढेर' कहा है। हमें उन्हें आदर्श बस्तियों में बदलना है। हमारे ग्रामवासियों को शुद्ध हवा नहीं मिलती, यद्यपि वे शुद्ध हवा से घिरे हुए हैं; उन्हें ताजा अन्न नहीं मिलता, यद्यपि उनके चारों ओर ताजे-से-ताजा अन्न होता है। इस अन्न के मामले में मैं मिशनरी की तरह इसीलिए बोलता हूँ कि मैं गाँवों को एक सुंदर दर्शनीय वस्तु बना देने की आकांक्षा रखता हूँ।
क्या भारत के गाँव हमेशा वैसे ही थे जैसे कि वे आज हैं, इस प्रश्न की छान-बीन करने से कोई लाभ नहीं होगा। अगर वे कभी भी इससे अच्छे नहीं थे तो इससे हमारी पुरानी सभ्यता का, जिस पर हम इतना अभिमान करते हैं, एक बड़ा दोष प्रगट होता है। लेकिन यदि वे कभी अच्छे नहीं थे तो सदियों से चली आ रही नाश की क्रिया को, जो हम अपने आस-पास आज भी देख रहे हैं, वे कैसे सह सके? ...हर एक देश-प्रेमी के सामने आज जो काम है वह यह है कि इस नाश की क्रिया को कैसे रोका जाए या दूसरे शब्दों में भारत के गाँवों का पुनर्निर्माण कैसे किया जाए, ताकि किसी के लिए भी उनमें रहना उतना ही आसान हो जाए जितना आसान वह शहरों में माना जाता है। सचमुच हर एक देशभक्त के सामने आज यही काम है। संभव है कि ग्रामवासियों का पुनरुद्धार अशक्य हो, और यही सच हो कि ग्राम-सभ्यता के दिन अब बीत गए हैं और सात लाख गाँवों की जगह अब केवल सात सौ सुव्यवस्थित शहर ही रहेंगे और उनमें 30 करोड़ आदमी नहीं, केवल तीन ही करोड़ आदमी रहेंग। अगर भारत के भाग्य में यही हो तो भी यह स्थिति एक दिन में तो नहीं आएगी; आखिर गाँवों और ग्रामवासियों की इतनी बड़ी संख्या के मिटने में और जो बच रहेंगे उनका शहरों और शहरवासियों में परिवर्तन करने में समय तो लगेगा ही।
ग्राम-सुधार आंदोलन में केवल ग्रामवासियों के ही शिक्षण की बात नहीं है; शहरवासियों को भी उससे उतना ही शिक्षण लेना है। इस काम को उठाने के लिए शहरों से जो कार्यकर्ता आएँ, उन्हें ग्राम-मानस का विकास करना है और ग्रामवासियों की तरह रहने की कला सीखनी है। इसका यह अर्थ नहीं कि उन्हें ग्रामवासियों की तरह भूखे मरना है; लेकिन इसका यह अर्थ जरूर है कि जीवन की उनकी पुरानी पद्धति में आमूल परिवर्तन होना चाहिए।
इसका एक ही उपाय है: हम जाकर उनके बीच में बैठ जाएँ और उनके आश्रयदाताओं की तरह नहीं बल्कि उनके सेवकों की तरह दृढ़ निष्ठा से उनकी सेवा करें; हम उनके भंगी बन जाएँ और उनके स्वास्थ्य की रक्षा करने वाले परिचारक बन जाएँ। हमें अपने सारे पूर्वाग्रह भुला देने चाहिए। एक क्षण के लिए हम स्वराज्य को भी भूल जाएँ और अमीरों की बात तो भूल ही जाएँ, यद्यपि उनका होना हमें हर कदम पर खटकता है। वे तो अपनी जगह हैं ही। और कई लोग हैं जो इन बड़े सवालों को सुलाझाने में लगे हुए हैं। हमें तो गाँवों के सुधार के इस छोटे काम में लग जाना चाहिए, जो आज भी जरूरी है और तब भी जरूरी होगा जब हम अपना उद्देश्य प्राप्त कर चुकेंगे। सच तो यह है कि ग्रामकार्य की यह सफलता स्वयं हमें अपने उद्देश्य के निकट ले जाएगी।
ग्राम-बस्तियों का पुनरुत्थान होना चाहिए। भारतीय गाँव भारतीय शहरों की सारी जरूरतें पैदा करते थे और उन्हें देते थे। भारत की गरीबी तब शुरू हुई जब हमारे शहर विदेशी माल के बाजार बन गए और विदेशों का सस्ता और भद्दा माल गाँवों में भरकर उन्हें चूसने लगे।
गाँवों और शहरों के बीच स्वास्थ्यपूर्ण और नीतियुक्त संबंध का निर्माण तब होगा जब कि शहरों को अपने इस कर्त्तव्य का ज्ञान होगा कि उन्हें गाँवों का अपने स्वार्थ के लिए पोषण करने के बजाय गाँवों से जो शक्ति और पोषण वे प्राप्त करते हैं उसका पर्याप्त बदला देना चाहिए। और यदि समाज के पुनर्निर्माण के इस महान और उदात्त कार्य में शहर के बालकों को अपना हिस्सा अदा करना है तो जिन उद्योगों के द्वारा उन्हें अपनी शिक्षा दी जाती है वे गाँवों की जरूरतों से सीधे संबंधित होने चाहिए।
हमें गाँवों को अपने चंगुल में जकड़ रखने वाली जिस त्रिविध बीमारी का इलाज करना है; वह इस प्रकार है : 1. सार्वजनिक स्वच्छता की कमी, 2. पर्याप्त और पोषक आहार की कमी, 3. ग्रामवासियों की जड़ता। ... ग्रामवासी जनता अपनी उन्नति की ओर से उदासीन है। स्वच्छता के आधुनिक उपायों को न तो वे समझते हैं और न उनकी कद्र करते हैं। अपने खेतों को जोतने-बोने या जिस किस्म का परिश्रम वे करते आए हैं वैसा परिश्रम करने के सिवा अधिक कोई श्रम करनेके लिए वे राजी नहीं हैं। ये कठिनाइयाँ वास्तविक और गंभीर हैं। लेकिन उनसे हमें घबड़ाने की या हतोत्साह होने की जरूरत नहीं। हमें अपने ध्येय और कार्य में अमिट श्रद्धा होनी चाहिए। हमारे व्यवहार में धीरज होना चाहिए। ग्रामकार्य में हम खुद नौसिखिया ही तो हैं। हम एक पुरानी और जटिल बीमारी का इलाज कारना है। धीरज और सतत परिश्रम से, यदि हममें ये गुण हों तो, कठिनाइयों के पहाड़ तक जीते जा सकते हैं। हम उन परिचारिकाओं की स्थिति में हैं, जो उन्हें सौंपे हुए बीमारों को इसलिए नहीं छोड़ सकती कि उन बीमारों की बीमारी असाध्य है।
इन भारतीय किसानों से ज्यों ही तुम बातचीत करोगे और वे तुमसे बोलने, लगेंगे, त्यों ही तुम देखोगे कि उनके होंठों से ज्ञान का निर्झर बहता है। तुम देखोगे कि उनके अनगढ़ बाहरीरूप के पीछे आध्यात्मिक अनुभव और ज्ञान का गहरा सरोवर भरा पड़ा है। मैं इसी चीज को संस्कृति कहता हूँ। पश्चिम में तुम्हें यह चीज नहीं मिलेगी। तुम किसी यूरोपीय किसान से बातचीत करके देखों; तुम पाओगे कि उसे आध्यात्मि वस्तुओं में कोई रस नहीं है।
भारतीय किसान में फूहड़पन के बाहरी आवरण के पीछे युगों पुरानी संस्कृति छिपी पड़ी है। इस बाहरी आवरण को अलग कर दें, उसकी दीर्घकालीन गरीबी और निरक्षरता को हटा दें, तो हमें सुसंस्कृत, सभ्य और आजाद नागरिक का एक सुंदर-से-सुंदर नमूना मिल जाएगा।