आजादी नीचे से शुरू होनी चाहिए। हर एक गाँव में जमहूरी सल्तनत पंचायत का राज होगा। उसके पास पूरी सत्ता और ताकत होगी। इसका मतलब यह है कि हर गाँव को अपने पाँव पर खड़ा होना होगा-अपनी जरूरतें खुद पूरी कर लेनी होंगी, ताकि वह अपना सारा कारोबार खुद चला सके। यहाँ तक कि वह सारी दुनिया के खिलाफ अपनी रक्षा खुद कर सके। उसे तालीम देकर इस हद तक तैयार करना होगा कि वह बाहरी हमले के मुकाबलें में अपनी रक्षा करते हुए मर-मिटने के लायक बन जाए। इस तरह आखिर हमारी बुनियादी व्यक्ति पर होगी। इसका यह मतलब नहीं कि पड़ोसियों पर या दुनिया पर भरोसा न रखा जाए; या उनकी राजी-खुशी से दी हुई मदद न ली जाए। कल्पना यह है कि सब लोग आजाद होंगे और सब एक-दूसरे पर अपना असर डाल सकेंगे। जिस समाज का हर एक आदमी यह जानता है कि उसे क्या चाहिए और इससे भी बढ़कर जिसमें यह माना जाता है कि बराबरी की मेहनत करके भी दूसरों को जो चीज नहीं मिलती है वह खुद भी किसी को नहीं लेनी चाहिए, वह समाज जरूर ही बहुत ऊँचे दरजे की सभ्यता वाला होना चाहिए।
ऐसे समाज की रचना सत्य और अहिंसा पर ही हो सकती है। मेरी राय है कि जब तक ईश्वर पर जीता-जागता विश्वास न हो, तब तक सत्य और अहिंसा पर चलना असंभव है। ईश्वर या खुद वह जिंदा ताकत है, जिसमें दुनिया की तमाम ताकतें समा जाती हैं। वह किसी का सहारा नहीं लेती और दुनिया की दूसरी सब ताकतों के खतम हो जाने पर भी कायम रहती है। इसी जीती-जागती रोशनी पर, जिसने अपने दामन में सब-कुछ लपेट रखा हैं, मैं यदि विश्वास न रखूँ, तो मैं समझ न सकूँगा कि मैं आज किस तरह जिंदा हूँ।
ऐसा समाज अनगिनत गाँवों का बना होगा। उसका फैलाव एक के ऊपर एक के ढँग पर नहीं बल्कि लहरों की तरह एक के बाद एक के शकल में होगा। जिंदगी मीनार की शकल में नहीं होगा, जहाँ ऊपर की तंग चोटी को नीचे के चौड़े पाए पर खड़ा होना पड़ता है। वहाँ तो समुद्र की लहरों की तरह जिंदगी एक के बाद एक घेरे की शकल में होगी और व्यक्ति उसका मध्यबिंदु होगा। यह व्यक्ति हमेशा अपने गाँव के खातिर मिटने को तैयार रहेगा। गाँव अपने इर्दगिर्द के गाँवों के लिए मिटने को तैयार होगा। इस तरह आखिर सारा समाज ऐसे लोगों का बन जाएगा, जो उद्धत बनकर कभी किसी पर हमला नहीं करते, बल्कि हमेशा नम्र रहते हैं और अपने में समुद्र की उस शान को महसूस करते हैं जिसके वे एक जरूरी अंग हैं।
इसलिए सबसे बाहर का घेरा या दायरा अपनी ताकत का उपयोग भीतर वालों को कुचलने में नहीं करेगा, बल्कि उन सबको ताकत देगा और उनसे ताकत पाएगा। मुझे ताना दिया जा सकता है कि यह सब तो खयाली तस्वीर है, इसके बारे में सोचकर वक्त क्यों बिगाड़ा जाए? युक्लिड की परिभाषा वाला बिंदु कोई मनुष्य खींच नहीं सकता, फिर भी उसकी कीमत हमेशा रही है और रहेगी। इसी तरह मेरा इस तस्वीर की भी कीमत है। इसके लिए मनुष्य जिंदा रह सकता है। अगरचे इस तस्वीर को पूरी तरह बनाना या पाना संभव नहीं हैं, तो भी इस सही तस्वीर को पाना या इस हद तक पहुँचना हिंदुस्तान की जिंदगी का मकसद होना चाहिए। जिस चीज को हम चाहते हैं उसकी सही-सही तस्वीर हमारे सामने होनी चाहिए, तभी हम उससे मिलती-जुलती कोई चीज पाने की आशा रख सकते हैं। अगर हिंदुस्तान के हर एक गाँव में कभी पंचायती राज कायम हुआ, तो मैं अपनी इस तस्वीर की सच्चाई साबित कर सकूँगा - जिसमें सबसे पहला और आखिरी दोनों बराबर होंगे या यों कहिए कि न तो कोई पहला होगा, न आखिरी।
इस तस्वीर में हर एक धर्म की अपनी पूरी और बराबरी की जगह होगी। हम सब एक ही आलीशान पेड़ के पत्ते हैं। इस पेड़ की जड़ हिलाई नहीं जा सकती, क्योंकि वह पाताल तक पहुँची हुई है। जबरस्त से जबरदस्त आँधी भी उसे हिला नहीं सकती।
इस तस्वीर में उन मशीनों के लिए कोई जगह नहीं होगी, जो मनुष्य की मेहनत की जगह लेकर कुछ लोगों के हाथों में सारी ताकत इकट्ठी कर देती हैं। सभ्य लोगों की दुनिया में मेहनत की अपनी अनोखी जगह है। उसमें ऐसी मशीनों की गुंजाइश होगी, जो हर आदमी को उसके काम में मदद पहुँचाएँ। लेकिन मुझे कबूल करना चाहिए कि मैंने कभी बैठकर यह सोचा नहीं कि इस तरह की मशीन कैसी हो सकती है। सिलाई की सिंगर मशीन का खयाल मुझे आया था। लेकिन उसका जिक्र भी मैंने यों ही कर दिया था। अपनी इस तस्वीर को पूर्ण बनाने के लिए मुझे उसकी जरूरत नहीं।
जब पंचायत राज स्थापित हो जाएगा तब लोकमत ऐसे भी अनेक काम कर दिखाएगा, जो हिंसा कभी नहीं कर सकती। जमींदारों, पूँजीपतियों और राजाओं की मौजूदा सत्ता तभी तक चल सकती है, जब तक कि सामान्य जनता को अपनी शक्ति का भान नहीं होता। अगर लोग जमींदारी और पूँजीवाद की बुराई से सहयोग करना बंद कर दें, तो वह पोषण के अभाव में खुद ही मर जाएगी। पंचायत राज्य में केवल पंचायत की आज्ञा मानी जाएगी और पंचायत अपने बनाए हुए कानून के द्वारा ही अपना कार्य करे।