यह पूछना जाएज है कि कांग्रेसी मंत्री, जो अब ओहदों पर आ गए हैं, खद्दर और दूसरे देहाती धंधों के लिए क्या करेंगेᣛ? मैं तो इस सवाल को और भी फैलाना चाहता हूँ, ताकि यह हिंदुस्तान के तमाम सूबों की सरकारों पर लागू हो। गरीबी तो हिंदुस्तान के तमाम सबूतो में फैली हुई है। इसी तरह आम जनता के उद्धार के जरिए भी वहाँ हैं। अखिल भारत चरखा-संघ और अखिल भारत ग्रामोद्योग-संघ का ऐसा ही अनुभव है। एक यह तजबीज भी आई है कि इस काम के लिए एक अलग मंत्री होना चाहिए। क्योंकि इसके ठीक संगठन में एक मंत्री का पूरा समय लग जाएगा। मैं तो इस तजबीज से डरता हूँ, क्योंकि अभी तक हम अपने खर्च के नाप में से अँग्रेजी पैमाने को छोड़ नहीं सकें हैं। चाहे अलग मंत्री रखा जाए या न रखा जाए, इस काम के लिए एक महकमा तो बेशक जरूरी है। आजकल खाने और पहनने के संकठ के जमाने में यह महकमा बड़ी मदद कर सकता है। अखिल भारत चरखा-संघ ओर अखिल भारत ग्रामोद्योग-संघ के विशेषज्ञ मंत्रियों से मिल सकते हैं। आज यह संभव है कि थोड़े समय में थोड़ी-से-थोड़ी रकम लगाकर सारे हिंदुस्तान को खादी पहना दी जाए। हर प्रांत की सरकार को गाँव वालों से कहना होगा कि उनको अपने उपयोग के लिए अपनी खादी आप तैयार कर लेनी चाहिए। इस तरह अपने-आप स्थायनीय उत्पादन और बँटवारा हो जाएगा। और बेशक शहरों के लिए कम-से-कम कुछ जरूर बच रहेगा, जिससे स्थानीय मिलों पर दबाव कम हो जाएगा। तब ये मिलें दुनिया के दूसरे हिस्सों में कपड़े की जरूरत पूरी करने में हिस्सा लेने योग्य हो जाएँगी।
यह नतीजा कैसे पैदा किया जा सकता है?
सरकारों को चाहिए कि गाँव वालों को यह सूचना कर दें कि उन से यह आशा रखी जाएगी कि वे अपने गाँव की जरूरतों के लिए एक निश्चित तारीख के अंदर खादी तैयार करें। इसके बाद उनको कोई कपड़ा नहीं दिया जाएगा। सरकार अपनी तरफ से गाँव वालों को बिनौले या रूई (जिसकी भी जरूरत हो,) दाम के दाम देगी और उत्पादन के औजार भी ऐसे दामों पर देगी, जो आसानी से वसूल होने वाली किस्तों में लगभग पाँच साल या इससे भी ज्यादा में अदा हो सकें। सरकार जहाँ कहीं जरूरी हो उन्हें सिखाने वाले भी दे और यह जिम्मा ले कि अगर गाँव वालों के पास उनकी तैयार की हुई खादी से उनकी जरूरतें पूरी हो जाएँ, तो फालतू खादी सरकार खरीद लेगी। इस तरह बिना हलचल के और बहुत थोड़े ऊपरी खर्च के साथ कपड़े की कमी दूर हो जाएगी।
गाँवों की जाँच-पड़ताल की जाएगी और ऐसी चीजों की एक खादी तैयार ही जाएगी, जो किसी मदद के बिना या बहुत थोड़ी मदद से स्थानीय स्तर पर तैयार हो सकती हैं और जिनकी जरूरत गाँव में बरतने के लिए या बाहर बेचने के लिए हो। जैसे, घानी का तेल, घानी की खली, घानी से निकला हुआ जलाने का तेल, हाथ का कुटा हुआ चावल, ताड़ी का गुड़, शहद, खिलौने, मिठाइयाँ, चटाइयाँ, हाथ से बना हुआ कागज, गाँव का साबुन वगैरा चीजें। अगर इस तरह काफी ध्यान दिया जाए तो उन गाँवों में, जिनमें से ज्यादातर उजड़ चुके हैं या उजड़ रहे हैं, जीवन की चहल-पहल पैदा हो जाए और उनमें अपनी और हिंदुस्तान के शहरों और कस्बों की बहुत ज्यादा जरूरतें पूरी करने की जो ज्यादा-से-ज्यादा शक्ति है वह दिखाई पड़ने लगे।
फिर हिंदुस्तान में अनगिनत पशुधन है, जिसकी तरु हमने ध्यान न देकर गुनाह किया है। गोसेवा-संघ को अभी ठीक अनुभव नहीं है, फिर भी वह कीमती मदद दे सकता है।
बुनियादी तालीम के बिना गाँव वाले विद्या से वंचित रहते हैं। यह जरूरी बात हिंदुस्तानी तालीमी संघ पूरी कर सकता है।