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वैचारिकी

मेरे सपनों का भारत

मोहनदास करमचंद गांधी

अनुक्रम 35 गाँव का आरोग्य पीछे     आगे

मेरी राज में जिस जगह शरीर-सफाई, घर-सफाई और ग्राम-सफाई हो तथा युक्‍ताहार और योग्‍य व्‍यायाम हो, वहाँ कम-से-कम बीमारी होती है। और, अगर चित्‍तशुद्धि भी हो, तो कहा जा सकता है कि बीमारी असंभव हो जाती है। राम नाम के बिना चित्‍तशुद्धि नहीं हो सकती। अगर देहात वाले इतनी बात समझ जाएँ तो वैद्य हकीम या डॉक्‍टर की जरूरत नरह जाए।

कुदरती उपचार के गर्भ में यह बात रही है कि मानव-जीवन की आदर्श रचना में देहात की या शहर की आदर्श रचना आ ही जाती है। और उसका मध्‍यबिंदु तो ईश्‍वर ही हो सकता है।

कुदरती इलाज के गर्भ में यह बात रही है कि उसमें कम-से-कम खर्च और ज्‍यादा से ज्‍यादा सादगी होनी चाहिए। कुदरती उपचार का आदर्श ही यह है कि जहाँ तक संभव हो, उसके साधन ऐसे होने चाहिए कि उपचार देहात में ही हो सके। जो साधन नहीं हैं वे पैदा किए जाने चाहिए। कुदरती उपचार जीवन-परिवर्तन की बात आती है। यह कोई वैद्य की दी हुई पुड़िया लेने की बात नहीं है, और न अस्‍पताल जाकर मुफ्त दवा लेने या वहाँ रहने की बात है। जो मुफ्त दवा लेता है वह भिक्षुक बनता है। जो कुदरती उपचार करता है, वह कभी भिक्षुक नहीं बनता। वह अपनी प्रतिष्‍ठा बढ़ाता है और अच्‍छा होने का उपाय खुद ही कर लेता है। वह अपने शरीर से जहर निकालकर ऐसा प्रयत्‍न करता है, जिससे दुबारा बीमार न पड़ सके। और कुदरती इलाज में मध्‍यबिंदु तो रामनाम ही है नᣛ?

पथ्‍य खुराक-युक्‍ताहार-इस उपचार का अनिवार्य अंग है। आज हमारे देहात हमारी ही तरह कंगाल हैं। देहात में साग-सब्‍जी, फल-दूध वगैरा पैदा करना कुदरती इलाज का खास अंग है। इसमें जो समय खर्च होता है, वह व्‍यर्थ नहीं जाता। बल्कि उससे सारे देहातियों को और आखिर में सारे हिंदुस्‍तान को लाभ होता है।

निचोड़ यह निकला कि अगर हम सफाई के नियम जानें, उनका पालन करें और सही खुराक लें, तो हम खुद अपने डॉक्‍टर बन जाएँ। जो आदमी जीने के लिए खाता है, जो पाँच महभूतों का यानी मिट्टी, पानी, आकाश, सूरज और हवा का दोस्‍त बनकर रहता है, जो उनको बनानेवाले ईश्‍वर का दास बनकर जीता है, वह कभी बीमार न पड़ेगा। पड़ा भी तो ईश्‍वर के भरोसे रहता हुआ शांति से मर जाएगा। वह अपने गाँव के मैदानों या खेतों में मिलने वाली जड़ी-बूटी या औषधि लेकर ही संतोष मानेगा। करोड़ो लोग इसी तरह जीते और मरते है। उन्‍होंने तो डॉक्‍टर का नाम तक नहीं सुना। वे उसका मुँह कहाँ से देखेंᣛ? हम भी ठीक ऐसे ही बन जाएँ और हमारे पास जो देहाती लड़के और बड़े आते है, उनको भी इसी तरह रहना सिखा दें। डॉक्‍टर लोग कहते हैं कि 100 में से 99 रोग गंदगी से, न खाने से और खाने लायक चीजों के न मिलने और न खाने से होते हैं। अगर हम इन 99 लोगों को जीने की कला सिखा दें, तो बाकी एक को हम भूल जा सकते हैं। उसके लिए कोई परोपकारी डॉक्‍टर मिल जाएगा। हम उसकी फिकर न करें। आज हमें न तो अच्‍छा पानी मिलता है, न अच्‍छी मिट्टी और न साफ हवा ही मिलती है। हम सूरज से छिप-छिपकर रहते हैं। अगर हम इन सब बातों को सोचें और सही खुराक सही तरीके से लें, तो स‍मझिए कि हमने जमानों का काम कर लिया। इसका ज्ञान पाने के लिए न तो हमें कोई डिग्री चाहिए और न करोड़ों रुपए! जरूरत सिर्फ इस बात की है कि हममे ईश्‍वर पर श्रत्रा हो, सेवा की लगन हो, पाँच महाभूतों का कुछ परिचय हो, और सही भोजन का सही ज्ञान हो। इतना तो हम स्‍कूल और कॉलेज की शिक्षा के बनिस्‍बत खुद ही थोड़ी मेहनत से और थोड़े समय में हासिलकर सकते हैं।

जाने-अनजाने कुदरत के कानूनों को तोड़ने से ही बीमारी पैदा होती है। इसलिए उसका इलाज भी यही हो सकता है कि बीमारी फिर कुदरत के कानूनों पर अमल करना शुरू कर दे। जिस आदमी ने कुदरत के कानून को हद से ज्‍यादा तोड़ा है, उसे तो कुदरत की सजा भोगनी ही पड़ेगी, या फिर उससे बचने के लिए अपनी जरूरत के मुताबिक डॉक्‍टरों या सर्जनों की मदद लेनी होगी। वाजिब सजा को सोच-समझकर चुपचाप सह लेने से मन की ताकत बढ़ती है, मगर उसे टालने की कोशिश करने से मन कमजोर बनता है।

मैं यह जानना चाहूँगा कि ये डॉक्‍टर और वैज्ञानिक लोग देश के लिए क्‍या कर रहे हैं? वे हमेशा खास-खास बीमारियों के इलाज के नए-नए तरीके सीखने के लिए विदेशों में जाने के लिए तैयार दिखाई देते हैं। मेरी सलाह है कि वे हिंदुस्‍तान के 7 लाख गाँवों की तरफ ध्‍यान दें। ऐसा करने पर उन्‍हें जल्‍दी ही मालूम हो जाएगा कि डॉक्‍टरी की डिग्रियाँ लिए हुए सारे मर्द और औरतों की, पश्चिमी नहीं बल्कि पूर्वीं ढँग पर, ग्रामसेवा के काम में जरूरत है। तब वे इलाज के बहुत से देशी तरीकों को अपना लेंगे। जब हिंदुस्‍तान के गाँवों में ही कई तरह की जड़ी-बूटियों और दवाइयों का अखूट भंडार मौजूद है, तब उसे पश्चिमी देशों से दवाइयाँ मँगाने की कोई जरूरत नहीं। लेकिन दवाइयों से भी ज्‍यादा इन डॉक्‍टरों को जीने का सही तरीका गाँव वालों को सिखाना होगा।

मेरा कुदरती इलाज तो सिर्फ गाँव वालों और गाँवों के लिए ही है। इसलिए उसमें खुर्दबीन, एक्‍स-रे वगैरा की कोई जगह नहीं है। और न ही कुदरती इलाज में कुनैन, अमिटीन, पेनिसिलीन वगैरा दवाओं की गुँजाइश है। उसमें अपनी सफाई, घर की सफाई, गाँव की सफाई और तंदुरुस्‍ती की हिफाजत का पहला और पूरा-पूरा स्‍थान है। इसकी तह में खयाल यह है कि अगर इतना किया जाए या हो सके, तो कोई बीमारी ही न हो। और बीमारी आ जाए तो उसे मिटाने के लिए कुदरत के सभी कानूनों पर अमल करने के साथ-साथ राम-नाम ही उसका असल इलाज सार्वजनिक या आम नहीं हो सकता। जब तक खुद इलाज करने वाले में राम-नाम की सिद्धि न आ जाए, तब तक राम-नाम-रूपी इलाज को एकदम आम नहीं बनाया जा सकता।


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