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वैचारिकी

मेरे सपनों का भारत

मोहनदास करमचंद गांधी

अनुक्रम 43 विदेशी माध्यम की बुराई पीछे     आगे

करोड़ों लोगों को अँग्रेजी की शिक्षा देना उन्‍हें गुलामी में डालने जैसा है। मेकॉले ने शिक्षा की जो बुनियादी डाली, वह सचमुच गुलामी की बुनियाद थी। उसने इसी इरादे से अपनी योजना बनाई थी, ऐसा मैं सुझाना नहीं चाहता। लेकिन उसके काम का नतीजा यही निकता है। ...यह क्‍या कम जुल्‍म की बात है कि अपने देश में अगर मुझे इंसाफ पाना हो, तो मझे अँग्रेजी भाषा का उपयोग करना पड़े! बैरिस्‍टर होने पर मैं स्‍वभाषा बोल ही नहीं सकूँ! दूसरे आदमी को मेरे लिए तरजुमा कर देना चाहिए! यह कुछ कम दंभ है? यह गुलामी की हद नहीं तो और क्‍या है? इसमें मैं अँग्रेजों का दोष निकालूँ या अपनाᣛ? हिंदुस्‍तान को गुलाम बनाने वाले तो हम अँग्रेजी जानने वाले लोग हैं। प्रजा की हाय अँग्रेजों पर नहीं पड़ेगी, बल्कि हम लोगों पर पड़ेगी।

विदेशी भाषा द्वारा शिक्षा पाने में जो बोझ दिमाग पर पड़ता है वह असह्म है। यह बोझ केवल हमारे ही बच्‍चे उठा सकते हैं, लेकिन उसकी कीमत उन्‍हें चुकानी ही पड़ती है। वे दूसरा बोझ उठाने के लायक नहीं रह जाते। इससे हमारे ग्रेज्‍युएट अधिकतर निकम्‍मे, कमजोर, निरुत्‍साही,रोगी और कोरे नकलची बन जाते हैं। उनमें खोज की शक्ति, विचार करने की ताकत, साहस, धीरज, बहादुरी, निडरता आदि गुण बहुत क्षीण हो जाते हैं। इससे हम नई योजनाएँ नहीं बना सकते। बनाते हैं तो उन्‍हें पूरा नहीं कर सकते। कुछ लोगा, जिनमें उपरोक्‍त गुण दिखाई देते हैं, अकाल मृत्‍यु के शिकार हो जाते हैं। ... अँग्रेजी शिक्षा पाए हुए हम लोग नुकसान का अंदाजा नहीं लगा सकते। यदि हम यह अंदाजा लगा सकें कि सामान्‍य लोगों पर हमने कितना कम असर डाला है, तो उसका कुछ खयाल हो सकता है।

माँ के दूध के साथ जो संस्‍कार मिलते हैं और जो मीठे शब्‍द सुनाई देते हैं, उनके और पाठशाला के बीच जो मेल होना चाहिए, वह विदेशी भाषा द्वारा शिक्षा लेने से टूट जाता है। इासे तोड़ने वालों का हेतु पवित्र हो तो भी वे जनता के दुश्‍मन हैं। हम ऐसी शिक्षा के शिकार होकर मातृद्रोह करते हैं। विदेशी भाषा द्वादा मिलने वाली शिक्षा की हानि यहीं नहीं रुकती। शिक्षित वर्ग और सामान्‍य जनता के बीच में भेद पड़ गया है। हम सामान्‍य जना को नहीं पहचानते। सामान्‍य जनता हमें नहीं जानती। हमें तो वह साहब समझ बैठती है और हमसे डरती है; वह हम भरोसा नहीं करती। ... सौभाग्‍य से शिक्षित वर्ग अपनी मूर्च्‍छा से जागते दिखाई देते हैं। उनमें जो जोश है वह जनता में कैसे भरा जाए? अँग्रेजी से तो यह काम हो नही सकता। ... यह रुकावट पैदा हो जाने से राष्‍ट्रीय जीवन का प्रवाह रुक गया है।

सच तो यह है कि जब अँग्रेजी अपनी जगह पर चली जाएगी और मातृभाषा को अपना पद मिल जाएगा, तब हमारे मन जो अभी रुंधे हुए हैं, कैद से छूटेंगे और शिक्षित और सुसंस्‍कृत होने पर भी ताजा रहे हुए हमारे दिमाग को अँग्रेजी भाषा का ज्ञान प्राप्‍त करने का बोझ भारी नहीं लगेगा। और मेरा तो यह भी विश्‍वास है कि उस समय सीखी हुई अँग्रेजी हमारी आज की अँग्रेजी से ज्‍यादा शोभा देने वाली होगी।

जब हम मातृभाषा द्वारा शि‍क्षा पाने लगेंगे, तब हमारे घर के लोगों के साथ हमारा दूसरा ही संबंध रहेगा। आज हम अपनी स्त्रियों को अपनी सच्‍ची जीवन-सहचरी नहीं बना सकते। उन्‍हें हमारे कामों का बहुत कम पता होता है। हमारे माता-पिता को हमारी पढ़ाई का कुछ पता नहीं होता। यदि हम अपनी भाषा के जरिए सारा ऊँचा ज्ञान लेते हों, तो हम अपने धोबी, नाई, भंगी, सबकों सहज ही शिक्षा दे सकेंगे। विलायत में हजामत कराते-कराते हम नाई से राजनीति की बातें कर सकते हैं। यहाँ तो हम अपने कुटुंब में भी ऐसा नहीं कर सकते। इसका कारण यह नहीं कि हमारे कुटुंबी या नाई अज्ञानी हैं। उस अँग्रेज नाई के बराबर ज्ञानी तो ये भी हैं, इनके साथ हम महाभारत, रामायण और तीर्थों की बातें करते हैं, क्‍योंकि जनता को इसी दिशा की शिक्षा मिलती है। परंतु स्‍कूल की शिक्षा घर तक नहीं पहूँच सकती, क्‍योंकि अँग्रेजी में सीखा हुआ हम अपने कुटुंबियों को नहीं समझा सकते।

आजकल हमारी धारा सभाओं का सारा कामकाज अँग्रेजी में होती है। बहुतेरे क्षेत्रों में यही हाल हो रहा है। इससे विद्याधन कंजूस की दौलत की तरह गड़ा हुआ पड़ा रहता है। ...ऐसा कहते हैं कि भारत में पहाड़ों की चोटियों पर से चौमासे में पानी के जो प्रपात गिरते हैं, उनसे हम अपने अविचार के कारण कोई लाभ नहीं उठाते। हम हमेशा लाखों रुपएँ का सोने जैसा कीमती खाद पैदा करते हैं और उसका उचित उपयोग न करने के कारण रोगों के शिकार बनते हैं। इसी तरह अँग्रेजी भाषा पढ़ने के बोझ से कुचले हुए हम लोग दीर्घदृष्टि न रखने के कारण ऊपर लिखे अनुसार जनता को जो कुछ मिलना चाहिए वह नहीं दे सकते। इस वाक्‍य में अतिशयोक्ति नहीं है। यह तो मेरी तीव्र भावना को बताने वाला है। मातृभाषा का जो अनादर हम कर रहे हैं, उसका हमें भारी प्रायश्चित्‍त करना पड़ेगा। इससे आम जनता का बड़ा नुकसान हुआ है। इस नुकसान से उसे बचाना मैं पढ़े-लिखें लोगों का पहला फर्ज समझता हूँ।

(29 अक्‍तूबर, 1917 में भड़ौंच में हुई दूसरी गुजरात शिक्षा-परिषद् के अध्‍यक्ष-पद से दिए गए भाषण से।)

अँग्रेजी सीखने के लिए हमारा जो विचारहीन मोह है, उससे खुद मक्‍त होकर और समाज को मुक्‍त करके हम भारतीय जनता की एक बड़ी-से-बड़ी सेवा कर सकते हैं। अँग्रेजी हमारी शालाओं और विद्यालयों में शिक्षा का मध्‍यम हो गई है। वह हमारे देश की राष्‍ट्रभाषा हुई जा रही है। हमारे विचार उसी में प्रगट होते हैं। ... अँग्रेजी के ज्ञान की आवश्‍यकता के विश्‍वास ने हमें गुलाम बना दिया है। उसने हमें सच्‍ची देश सेवा करने में असमर्थ बना दिया है। अगर आदत ने हमें अंधा न बना दिया होता, तो हम यह देखे बिना न रहते कि शिक्षा का माध्‍यम अँग्रेजी का कारण जनता से हमार संबंध टूट गया है, राष्‍ट्र का उत्‍तम मानस उपयुक्‍त भाषा के अभाव में अप्रकाशित रह जाता है और आधुनिक शिक्षा से हमें जो नए-नए विचार प्राप्‍त हुए हैं उनका लाभ सामान्‍य लोगों को नहीं मिलता। पिछले 60 वर्षों से हमारी सारी शक्ति ज्ञानोपर्जन के बजाय अपरिचित शब्‍द और उनके उच्‍चारण सीखने में खर्च हो रही है। हमें अपने माता-पिता जो तालीम मिलती है उसकी नींव पर नया निर्माण करने के बजाय हमने उस तालीम को ही भुला दिया है इतिहास में इस बात की कोई दूसरी मिसाल नहीं मिलती। यह हमारे राष्‍ट्र की एक अत्यंत दु:ख पूर्ण घटना है। हमारी पहली और बड़ी-से-बड़ी समाज सेवा यह होगी की हम अपनी प्रांतीय भाषाओं का उपयोग शुरू करें, हिंदी को राष्‍ट्रभाषा के रूप में उसका स्‍वाभाविक स्‍थान दें, प्रांतीय कामकाज प्रांतीय भाषाओं में करें और राष्‍ट्रीय कामकाज हिंदी में करे। जब तक हमारे स्‍कूल और कॉलेज प्रांतीय भाषाओं के माध्‍यम से शिक्षण देना शुरू नहीं करते, तब तक हमें इस दिशा में लगातार कोशिश करनी चाहिए। … वह दिन शीघ्र ही आना चाहिए जब हमारी विधान-सभाएँ राष्‍ट्रीय सवालों की चर्चा प्रांतीय भाषाओं में या जरूरत के अनुसार हिंदी में करेंगी। अभी तक सामान्‍य जनता तो विधान-सभाओं में होने वाली इन चर्चाओं से बिलकुल बेखबर हो रही है। स्‍वदेशी भाषाओं के पत्रों ने इस घातक भूल को सुधारने की कुछ कोशिश की है। लेकिन यह काम उनकी क्षमताओं से बड़ा सिद्ध हुआ है। 'पत्रिका' अपना तीखा व्‍यंग्‍य और 'बंगाली' अपना पाण्डित्‍य तो अँग्रेजी पढ़े-लिखे लोगों के लिए ही परोसता है। गंभीर विचार कों की इस पुरानी भूमि में हमारे बीच में टैगोर, बोस या राय का होना आश्‍चर्य का विषय नहीं होना चाहिए। दु:ख की बात हो यह है कि इन मनीषियों की संख्‍या हमारे यहाँ इतनी कम है।

(27 दिसंबर, 1971 में कलकत्‍ता में हुई पहली अ.भा. समाज-सेवा परिषद् के अध्‍यक्षीय भाषण)

यह मेरा निश्चित मत है कि आज की अँग्रेजी शिक्षा ने शिक्षित भारतीयों को निर्बल और शक्तिहीन बना दिया है। इसने भारतीय विद्यार्थियों की शक्ति पर भारी बोझ डाला है, और हमें नकलची बना दिया है। देशी भाषाओं को अपनी जगह से हटाकर अँग्रेजी को बैठाने को प्रक्रिया अँग्रेजों के साथ हमारे संबंध का एक सबसे दु:खद प्रकरण है। राजा राममोहन राय ज्‍यादा बड़े सुधारक हुए होते और लोकमान्‍य तिलक ज्‍यादा बड़े विद्वान बने होते, अगर उन्‍हें अँग्रेजी में सोचने और अपने विचारों को दूसरों तक मुख्‍यत: अँग्रेजी में पहुँचाने की कठिनाई से आरंभ नहीं करना पड़ता। अगर वे थोड़ी कम अस्‍वाभाविक पद्धति में पढ़-लिखकर बड़े होते, तो अपने लोगों पर उनका असर, जो कि अद्भुत था, और भी जयादा हुआ होताᢽ! इसमें कोई शक नहीं कि अँग्रेजी साहित्‍य के समृद्ध भंडार का ज्ञान प्राप्‍त करने से इन दोनों को लाभ हुआ। लेकिन इस भंडार तक उनकी पहुँच उनकी अपनी मातृभाषाओं के जरियें होनी चाहिए थी। कोई भी देश नकलचियों की जाति पैदा करके राष्‍ट्र नहीं बन सकता। जरा कल्‍पना कीजिए कि यदि अँग्रेजों के पास बाइबल का अपना प्रमाण भूत संस्‍करण न होता तो उनका क्‍या हाल होताᣛ? मेरा विश्‍वास है कि चैतन्‍य, कबीर, नानक, गुरु सिंह, शिवाजी और प्रताप राजा राममोहन राय और तिलक की अपेक्षा ज्‍यादा बड़े पुरुष थे।

मैं जानता हूँ कि तुलनाएँ अच्‍छा नहीं है। अपने-अपने ढँग से सभी समान रूप से बड़े हैं। लेकिन फल की दृष्टि से देखें तो जनता पर राममोहन राय या तिलक का असर उतना स्‍थायी और दूरगामी नहीं है जितना कि चैतन्‍य आदि का। उन्‍हें जिन बाधाओं का मुकाबला करना पड़ा उनकी दृष्टि से वे असाधारण कोटि के महापुरुष थे; और जिस शिक्षा-प्रणाली से उन्‍हें अपनी तालीम लेनी पड़ी उसकी बाधा यदि उन्‍हें न सहनी पड़ी होता, तो उन्‍होंने अवश्‍य ही ज्‍यादा बड़ी सफलताएँ प्राप्‍त की होतीं। मैं यह मानने से इनकार करता हूँ कि यदि राजा राममोहन राय और लोकमान्‍य तिलक को अँग्रेजी भाषा का ज्ञान न होता, तो उन्‍हें वे सब विचार सूझते ही नहीं जो उन्‍होंने किए। भारत आज जिन वहमों का शिकार है उनमें सबसे बड़ा वहम यह है कि स्‍वातंत्रय से संबंधित विचारों को हृदयसंगम करने के लिए और तर्कशुद्ध चिंतन की क्षमता का विकास के रने के लिए अँग्रेजी भाषा का ज्ञान आवश्‍यक है। यह याद रखना जरूरी है कि पिछले पचास वर्षों से देश के सामने शिक्षा की एक ही प्रणाली रही है और विचारों की अभिव्‍यक्ति के लिए उसके पास जबरन लादा हुआ एक ही माध्‍यम रहा है। इसलिए हमारे पास इस बात का निर्णय करने के लिए कि मौजूदा स्‍कूलों और कॉंलेजों में मिलने वाली शिक्षा न होती तो हमारी क्‍या हालत होती, जो सामग्री चाहिए वह है ही नहीं! लेकिन यह हम जरूर जानते हैं कि भारत पचास साल पहले की अपेक्षा आज ज्‍यादा गरीब है, अपनी रक्षा करने में आज ज्‍यादा असमर्थ है और उसके लड़के-लड़कियों की शीरर-संपत्ति घट गई है। इसके उत्‍तर में कोई मुझसे यह न कहे कि इसका कारण मौजूदा शासन-प्रणाली का दोष है। कारण, शिक्षा-प्रणाली इस शासन-प्रणाली का सबसे दोषयुक्‍त अंग है।

इस शिक्षा-प्रणाली का जन्‍म ही एक बड़ी भ्रांति में से हुआ है। अँग्रेज शासक ईमानदारी से यह मानते थे कि देशी शिक्षा-प्रणाली निकम्‍मी से भी ज्‍यादा बुरी है। और इस शिक्षा-प्रणाली का पोषण पाप में हुआ, क्‍योंकि उसका उद्देश्‍य भारतीयों को शरीर, मन और आत्‍मा में बौना बनाने का रहा है।

रविबाबू को उत्‍तर

...आज अगर लोग अँग्रेजी पढ़ते हैं, तो व्‍यापारी बुद्धि से और तथाकथित राजनीतिक फायदे के लिए ही पढ़ते हैं। हमारे विद्यार्थीं ऐसा मानने लगे हैं (और अभी की हालत देखते हुए यह बिलकुल स्‍वाभाविक है) कि अँग्रेजी के बिना उन्‍हें सरकारी नौकरी हरगिज नहीं मिल सकती। लड़कियों को तो इसीलिए अँग्रेजी पढ़ाई जाती है कि उन्‍हें अच्‍छा वर मिल जाएगा! मैं ऐसी कई मिसालें जानता हूँ, जिनमें स्त्रियाँ इसलिए अँग्रेजी पढ़ना चाहती हैं कि अँग्रेजों के साथ उन्‍हें अँग्रेजी बोलना आ जय। मैंने ऐसे कितने ही पति देखे हैं कि जिनकी स्त्रियाँ उनके साथ या उनके दोस्‍तों के साथ अँग्रेजी में न बोल सकें तो उन्‍हें दु:ख होता है! मैं ऐसे भी कुछ कुटुंबों को जानता हूँ, जिनमें अँग्रेजी भाषा को अपनी मातृभाषा 'बना लिया' जाता है! सैकड़ों नौजवान ऐसा समझते हैं कि अँग्रेजी जाने बिना हिंदुस्‍तान को स्‍वराज्‍य मिलना नामुमकिन-सा है। इस बुराई ने समाज में इतना घर कर लिया है, मानो शिक्षा का अर्थ अँग्रेजी भाषा के ज्ञान के सिवा और कुछ है ही नहीं। मेरे खयाल से तो ये सब हमारी गुलामी और गिरावट की साफ निशानियाँ हैं। आज जिस तरह देशी भाषाओं की उपेक्षा की जाती है और उनके विद्वानों लेखकों को रोटी के भी लाले पड़े हुए हैं, वह मुझसे देखा नहीं जाता। माँ-बाप अपने बच्‍चों को और पति अपनी स्‍त्री को अपनी भाषा छोड़कर अँग्रेजी में पत्र लिखें, तो वह मुझसे कैसे बरदाश्‍त हो सकता है? मुझे लगता है कि कवि-सम्राट के बराबर ही मेरी भी स्‍वतंत्र और खुली हवा पर श्रद्धा है। मैं नहीं चाहता कि मेरा घर सब तरफ खड़ी हुई दीवारों से घिरा रहे और उसके दरवाजे और खिड़कियाँ बंद कर दी जाएँ। मैं भी यही चाहता हूँ कि मेरे घर के आस-पास देश-विदेश की संस्‍कृति की हवा बहती रहे। पर मैं औंधें मुँह गिर पड़ूँ। मैं दूसरों के घरों में हस्‍तक्षेप करने वाले व्‍यक्ति, भिखारी या गुलाम की हैसियत से रहने के लिए तैयार नहीं। झूठे घमंड के वश होकर या तथाकथित सामाजिक प्रतिष्‍ठा पाने के लिए मैं अपने देश की बहनों पर अँग्रेजी विद्या का नाहक बोझ डालने से इनकार करता हूँ। मैं चाहता हूँ कि हमारे देश के जवान लड़के-लड़कियों को साहित्‍य में रस हो, तो वे भले ही दुनिया की दूसरी भाषाओं की तरह ही अँग्रेजी भी जी भर कर पढ़े। फिर मैं उनसे आशा रखूँगा कि वे अपने अँग्रेजी पढ़ने का लाभ डॉ. बोस, राय और खुद कवि-सम्राट की तरह हिंदुस्‍तान को और दुनिया को दें। लेकिन मुझे यह नहीं बरदाश्‍त होगा कि हिंदुस्‍तान का एक भी आदमी अपनी मातृभाषा को भूल जाए, उसकी हँसी उड़ावे, उससे शरमाए या उसे ऐसा लगे कि वह अपने अच्‍छे-से-अच्‍छे विचार अपनी भाषा में नहीं रख सकता। मैं संकुचित या बंद दरवाजे वाले धर्म में विश्‍वास ही नहीं रखता। मेरे धर्म में ईश्‍वर की पैदा की हुई छोटी-से-छोटी चीज के लिए भी जगह है। मगर उसमें जाति, धर्म, वर्ण या रंग के घमंड के लिए कोई स्‍थान नहीं है।

इस विदेशी भाषा के माध्‍यम ने बच्‍चों के दिमाग को शिथिल कर दिया है, उनके स्‍नायुओं पर अनावश्‍यक जोर डाला है, उन्‍हें रट्टू और नकलची बना दिया है तथा मौलिक कार्यों और विचारों के लिए सर्वथा अयोग्‍य बना दिया है। इसकी वजह से वे अपनी शिक्षा का सार अपने परिवार के लोगों तथा आम जनता तक पहुँचाने में असमर्थ हो गए हैं। विदेशी माध्‍यम ने हमारे बालकों को अपने ही घर में पूरा विदेशी बना दिया है। यह वर्तमान शिक्षा-प्रणाली का सबसे बड़ा करुण पहलू है। विदेशी माध्‍यम ने हमारी देशी भाषाओं की प्रगति और विकास को रोक दिया है। अगर मेरे हाथों में तानाशाही सत्‍ता हो, तो मैं आज से ही विदेशी माध्‍यम के जरिए दी जाने वाली हमारे लड़कों और लड़कियों की शिक्षा बंद कर दूँ और सारे शिक्षकों और प्रोफेसरों से यह माध्‍यम तुरंत बदलवा दूँ या उन्‍हें बरखास्‍त करा दूँ। मैं पाठ्य-पुस्‍तकों की तैयारी का इंतजार नहीं करूँगा। वे तो माध्‍यम के परिवर्तन के पीछे-पीछे अपने-आप चली जाएँगी। यह एक ऐसी बुराई है जिसका तुरंत इलाज होना चाहिए।

हमें जो कुछ उच्‍च शिक्षा मिली है अथवा जो भी शिक्षा मिली है वह केवल अँग्रेजी के ही द्वारा न मिली होती, तो ऐसी स्‍वयं सिद्ध बात को दलीलें देकर सिद्ध करने की कोई जरूरत न होती कि किसी भी देश के बच्‍चों को अपनी राष्‍ट्रीयता टिकाए रखने के लिए नीची या ऊँची सारी शिक्षा उनकी मातृभाषा के जरिए ही मिलनी चाहिए। यह स्‍वयं सिद्ध बात है कि जब तक किसी देश के नौजवान ऐसी भाषा में शिक्षा पाकर उसे पचा न लें जिसे प्रजा समझ सके, तब तक वे अपने देश की जनता के साथ नतो जीता-जागता संबंध पैदा कर सकते हैं और न उसे कायम रख सकते हैं। आज इस देश के हजारों नौजवान एक ऐसी विदेशी भाषा और उसके मुहावरों पर अधिकार पाने में कई साल नष्‍ट करने को मजबूर किए जाते हैं, जो उनके दैनिक जीवन के लिए बिलकुल बेकार है और जिसे सीखने में उन्‍हें अपनी मातृभाषा या उसके साहित्‍य की उपेक्षा करनी पड़ती है। इससे होने वाली राष्‍ट की अपार हानि का अंदाजा कौन लगा सकता है? इससे बढ़कर कोई वहम कभी था ही नहीं कि अमुक भाषा का विकास हो ही नहीं सकता, या उसके द्वारा गूढ़ अथवा वैज्ञानिक विचार समझाए ही नहीं जा सकते। भाषा तो अपने बोलने वाले के चरित्र और विकास का सच्‍चा प्रतिबिंब है।

विदेशी शासन अनेक दोषों में देश के नौजवानों पर डाला गया विदेशी भाषा के माध्‍यम का घातक बोझ इतिहास में एक सबसे बड़ा दोष माना जाएगा। इस माध्‍यम ने राष्‍ट्र की शक्ति हर ली है, विद्यार्थियों की आयु घटा दी है, उन्‍हें आम जनता से दूर कर दिया है। और शिक्षण को बिना कारण खर्चींला बना दिया है। अगर यह प्रकिया अब भी जारी रही तो जान पड़ता है वह राष्‍ट्र की आत्‍मा को नष्‍ट कर देंगी। इसलिए शिक्षित भारतीय जितनी जल्‍दी विदेशी माध्‍यम के भंयकर वशीकरण से बाहर निकल जाएँ, उतना ही उनका और जनता का लाभ होगा।


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