इस तालीम की मंशा यह है कि गाँव के बच्चों को सुधार-सँवार कर उन्हें गाँव का आदर्श बाशिंदा बनाया जाए। इसकी योजना खासकर उन्हीं को ध्यान में रखकर तैयार की गई है। इस योजना की असल प्रेरणा भी गाँवों से ही मिली है। जो कांग्रेसजन स्वराज्य की इमारत को बिलकुल उसकी नींव या बुनियादी से चुनना चाहते हैं, वे देश के बच्चों की उपेक्षा कर ही नहीं सकते। परदेशी हुकूमत चलाने वालों ने, अनजाने ही क्यों न हो, शिक्षा के क्षेत्र में अपने काम की शुरुआत बिना चूके बिलकुल छोटे बच्चों से की है। हमारे यहाँ जिसे प्राथमिक शिक्षा कहा जाता है वह तो एक मजाक है; उसमें गाँवों में बसने वाले हिंदुस्तान की जरूरतों और माँगों का जरा भी विचार नहीं किया गया है; और वैसे देखा जाए तो उसमें शहरों का भी कोई विचार नहीं हुआ है। बुनियादी तालीम हिंदुस्तान के तमाम बच्चों को, फिर वे गाँवों के रहने वाले हों या शहरों के, हिंदुस्तान के सभी श्रेष्ठ और स्थायी तत्त्वों के साथ जोड़ देती है। यह तालीम बालक के मन और शरीर दोनों का विकास करती है; बालक को अपने वतन के साथ जोड़े रखती है; उसे अपने और देश के भविष्य का गौरवपूर्ण चित्र दिखाती है; और उस चित्र में देखे हुए भविष्य के हिंदुस्तान का निर्माण करने में बालक या बालिकाएँ अपने स्कूल जाने के दिन से ही हाथ बँटाने लगें, इसका इंतजाम करती है।
बुनियादी शिक्षा का उद्देश्य दस्तकारी के माध्यम से बालकों का शारीरिक, बौद्धिक और नैतिक विकास करना है। लेकिन मैं मानता हूँ कि कोई भी पद्धति, जो शैक्षणिक दृष्टि से सही हो और जो अच्छी तरह चलाई जाए, आर्थिक दृष्टि से भी उपयुक्त सिद्ध होगी। उदाहरण के लिए, हम अपने बच्चों को मिट्टी के खिलौने बनाना भी सिखा सकते हैं, जो बाद में तोड़कर फेंक दिए जाते हैं। इससे भी उनकी बुद्धि का विकास तो होगा। लेकिन इसमें इस महत्त्वपूर्ण नैतिक सिद्धांत की उपेक्षा होती है कि मनुष्य के श्रम और साधन-सामग्री का अपव्यय कदापि न होना चाहिए। उनका अनुत्पादक उपयोग कभी नहीं करना चाहिए। अपने जीवन के प्रत्येक क्षण का सदुपयोग ही होना चाहिए, इस सिद्धांत के पालन का आग्रह नागरिकता के गुण का विकास करने वाली सर्वोत्तम शिक्षा है, साथ ही इससे बुनियादी तालीम स्वावलम्ब्ी भी बनती है।
यहाँ हम बुनियादी तालीम के खस-खास सिद्धांतों पर विचार करो :
1. पूरी शिक्षा स्वावलंबी होनी चाहिए। यानी, आखिर में पूँजी छोड़कर अपना सारा खर्च उसे खुद देना चाहिए।
2. इसमें आखिर दरजे तक हाथ का पूरा-पूरा उपयोग किया जाए। यानी, विद्यार्थी अपने हाथों से कोई-न-कोई उद्योग-धंधा आखिर दरजे तक करें।
3. सारी तालीम विद्यार्थियों की प्रांतीय भाषा द्वारा दी जानी चाहिए।
4. इसमें सांप्रदायिक धार्मिक शिक्षा के लिए कोई जगह नहीं होगी। लेकिन बुनियादी नैतिक तालीम के लिए काफी गुंजाइश होगी।
5. यह तालीम, फिर उसे बच्चे लें या बड़े, औरतें लें या मर्द, विद्यार्थियों के घरों में पहुँचेगी।
6. चूँकि इस तालीम को पाने वाले लाखों-करोड़ों विद्यार्थी अपने-आपको सारे हिंदुस्तान के नागरिक समझेंगे, इसलिए उन्हें एक आंतर-प्रांतीय भाषा सीखनी होगी। सारे देश की यह एक भाषा नागरी या उर्दू में लिखी जाने वाली हिंदुस्तानी ही हो सकती है। इसलिए विद्यार्थियों को दोनों लिपियाँ अच्छी तरह सीखनी होंगी।
हमारे जैसे गरीब देश में हाथ की तालीम जारी करने से दो हेतु सिद्ध होंगें। उसे हमारे बालकों की शिक्षा का खर्च निकल आएगा और वे ऐसा धंधा सीख लेंगे, जिसका अगर वे चाहें तो उत्तर-जीवन में अपनी जीविका के लिए सहारा ले सकते हैं। इस पद्धति से हमारे बालक आत्म -निर्भर अवश्य हो जाएँगे। राष्ट्र को कोई चीज इतना कमजोर नहीं बनाएँगी, जितना यह बात कि हम श्रम का तिरस्कार करना सीखें।