नया दिन, नई सुबह और सूर्य की पहली किरण जीवन में उल्लास, उन्मेष और संभावनाओं से सुरभित मनोभावों के प्रतीक माने जाते रहे हैं। हम सौ साल जिएँ, इसका संकल्प
रोज करने वाली भारतीय जाति के लोगों के लिए काल या समय एक निरंतर प्रवाह और अविराम गति की लय या छंद की ओर संकेत करता रहा है। इस तरह की सोच में जीवन भी है और
मृत्यु भी है, परंतु मृत्यु का भय नहीं है। भय आता है, पर अपने अधूरेपन के अहसास से। जब हममें कोई कमी होती है, कुछ खटकता रहता है तो हम अपने को असमर्थ और
असहाय पाते हैं। तब हम पर भय, आशंका और संशय के भूत हावी होने लगते हैं। आज भारतीय समाज में और विशेष रूप से नगरों और महानगरों में ऐसा ही कुछ होने लगा है। आम
आदमी के लिए दिन का बीत जाना राहत की साँस देता है। सुबह होती है और मन बेचैन हो उठता है। प्रश्नाकुल मन बार-बार आशंकाओं से भर उठता है - आज क्या होगा? दिन
कैसा होगा? किस दिशा से कब और क्या हो जाएगा, कुछ पता नहीं। आए दिन अपहरण, विस्फोट और व्यतिक्रम इस तरह मन पर छाते जा रहे हैं कि आम आदमी का अपने आप में
विश्वास डिगता जा रहा है। आश्वस्ति की खोज बेमानी होती जा रही है। लगता है एक-एक कर सब कुछ हाथ से फिसलता जा रहा है। नियंत्रण खोते चालक जैसी मनःस्थिति में
ज्यादातर लोग अपने आप को असहाय, विवश और निरुपाय पा रहे हैं। कुछ हैं जो नियंत्रण पाने के लिए नए उपाय ढूँढ़ रहे हैं, साधन जुटा रहे हैं। पर हर नया दिन नई
चुनौती लेकर सामने आ रहा है और पहले की तैयारी कुछ छोटी पड़ रही है।
आज महानगरीय जीवन एक दुःस्वप्न सरीखा हुआ जा रहा है। संशय, असुरक्षा, अनिश्चितता और तीव्र गति के दबाव आदमी के जीवन और उसके रोजमर्रे के कामकाज में ऐसे तनाव
को जन्म दे रहे हैं जो व्यक्तिगत स्वास्थ्य के साथ-साथ सामाजिक सद्भाव को गहरा आघात पहुँचा रहे हैं। सामाजिकता की धुरी होती है परस्पर विश्वास, जिसके
सहारे हम अनजाने, अनागत और अनिश्चित क्षणों को ज्ञात, आगत और सुनिश्चित क्षणों में ढालते हैं। आज यह विश्वास या भरोसा हमारे बर्ताव के मुहावरे से बाहर निकलता
जा रहा है। आज सब कुछ लेन-देन (एक्सचेंज) होकर रह गया है। इस नए सामाजिक गणित के समीकरण में कुछ भी दाँव पर लग सकता है, मोहरा बन सकता है, क्योंकि सब
कुछ-नाते, रिश्ते, दोस्ती, वस्तुएँ-चीजें हैं और चीजों की अहमियत होती है उनकी कीमत से। हर चीज बिकाऊ है और वाजिब कीमत देकर खरीदी जा सकती है।
'व्यापार' और 'बाजार' अब शायद सामाजिक जीवन को समझने के लिए अधिक सटीक और कारगर रूपक हो रहे हैं। हमारी जरूरतें और हमारी पहचान हम खुद नहीं तय करते, वरन् बाजार
(मार्केट) द्वारा तय होती हैं। बाजार हमसे चलता है जरूर, पर इसी के साथ यह भी उतना बड़ा सच है कि बाजार हमें चलाता है। जीवन के बाजारीकरण की यह प्रक्रिया बड़ी
तीव्र गति से चल रही है और उपभोक्ता होने के गुमान में हम उपभोग्य बनते जा रहे हैं। यह परिवर्तन समाज के विभिन्न स्तरों को अलग-अलग ढंग से प्रभावित कर रहा
है। यह प्रभाव प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों ही तरह सक्रिय है। जहाँ प्रत्यक्ष प्रभाव विज्ञापन और मीडिया के संपर्क में आकर हो रहा है, अप्रत्यक्ष प्रभाव समाज
के मॉडल का काम करने वाले लोगों के आचरण को देखने, समझने और उसे आत्मसात करने के द्वारा हो रहा है। आज हर कोई एक द्वीप बनता जा रहा है। संबंधों के दायरे
सिकुड़ते जा रहे हैं। हम पढ़े-लिखे और सुशिक्षित होकर उन्मुक्त हो रहे हैं। अब संबंधों के दायरे में परिभाषित नहीं करते, बल्कि दायरे हमारे लिए ब्याज हो गए
हैं काम निकालने के। उनका शुद्ध उपयोगितावादी मूल्य ही अब शेष रह गया है। चूँकि अब हमारा 'मैं' ही केंद्रीय होता हा रहा है, 'हम' की एक कड़ी के रूप में उसकी
उपस्थिति कमजोर और हल्की पड़ती जा रही है। परिणाम यह कि मैं, समाज, समूह या समुदाय का प्रतिद्वंद्वी या विरोधी बनता जा रहा है। व्यक्ति की अपनी पहचान
बनाते-बनाते हम यह अक्सर भुला बैठते हैं कि व्यक्ति अपने आप में समग्र नहीं है, बल्कि समाज (समग्र) है। ऐसे में वह सहायक व्यवस्था जो समर्थन देती थी और समाज
में व्यक्ति के जीवन को संभव बनाती थी, उपेक्षित होकर निजी जीवन को निरंतर अस्त-व्यस्त करती जा रही है। घर, विद्यालय, मित्र मंडली, संचार माध्यम और
बाह्यजगत के साथ बढ़ते संपर्क ने बच्चों और किशोरों के सामने एक नए रुपहले संसार का खाका पेश किया। इसमें भागीदारी के अवसर भी बढ़े पर साथ ही साथ दबाव भी बढ़ते
गए। माता-पिता की बच्चों से आकांक्षाएँ बढ़ती गईं और बच्चों की क्षमता से बेमेल होने के कारण बच्चों द्वारा उनकी उपलब्धि का अनुपात असंतोषजनक होता है।
उपर्युक्त परिदृश्य भारत में हो रहे उस सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन की उस प्रक्रिया का बिंब है जो एकांगी रही है। आर्थिक मूल्यों को तरजीह देकर एवं आंशिक सत्य
को पूर्ण सत्य मानकर हम मनुष्य को उसके सामाजिक और प्राकृतिक परिवेश से काटते जा रहे हैं। एक अदूरदर्शी, अल्पकालिक योजना के तहत हमने अपना ध्यान अपने सीमित
स्व (सेल्फ) की माँगों की आपूर्ति तक संकुचित कर रखा है। चाहे राजनीति का क्षेत्र लें या शिक्षा का, हर कहीं इसी दिशा में हम आगे बढ़ रहे हैं। आज जो कुछ हो
रहा है, वह एक गहराते सांस्कृतिक संकट का संकेत है। तथापि हमारी सांस्कृतिक जड़ें शायद अधिक दृढ़ हैं और तभी जीवन मूल्यों के ह्रास के इस अंधे युग में भी
हमारा अस्तित्व बना हुआ है। इनके पुनराविष्कार, पहचान और विनियोग से ही हम इस संकट से उबर सकेंगे। सांस्कृतिक मूल्यों के पुनराविष्कार को प्रायः कट्टरवादी
पुनरुत्थान कहकर नकार दिया जाता है। उन्हें अप्रासंगिक घोषित कर दिया जाता है। यह प्रवृत्ति सामाजिक जीवन में परिलक्षित भी होती है जब धर्म, भगवान, मंदिर जैसे
प्रश्न उछालकर राजनीतिक लाभ लिया जाता है, पर यह छद्म जल्दी ही आवरण से बाहर आकर हमें सचेत कर जाता है। सांस्कृतिक मूल्यों की जीवन और व्यवहार में सार्थक
अभिव्यक्त होती है और सतर्क, संवेदनशील दृष्टि से उनकी तलाश ही हमारा मार्ग प्रशस्त कर सकती है।