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आलोचना

‘शेखर : एक जीवनी’ - प्रदेय एवं प्राप्ति

प्रकाश उदय


'शेखर : एक जीवनी' एक जीवनी होकर उपन्यास है, एक उपन्यास होकर जीवनी है। और जीवनी भी है, उपन्यास भी, एक आत्मचरित होकर। संस्मरण है कुछ, कुछ डायरी के पन्ने है, कुछ यात्रा-वृत्त, कुछ रेखचित्र कुछ रिपोर्ताज - जिनके होने से 'शेखर : एक जीवनी' एक जीवनी है, उपन्यास है, आत्मचरित है। यह सब कुछ वह चार खंडों में अखंडित 'एक' लंबी कविता के रूप में है, जो वस्तुतः बारह खंडों में संभावित थी और उस संभावना तक नहीं पहुँच पाने के कारण या नहीं पहुँचाई जाने के कारण खंडित है, खंडित रखी गई है। इसके साथ ही, अपने समय के कुछ बहुचर्चित वैचारिक द्वंद्वों - जैसे हिंसा और अहिंसा, व्यक्ति और समाज, स्त्री और पुरुष, पश्चिमी और भारतीय वगैरह - के दस्तावेज के रूप में भी 'शेखर : एक जीवनी' उपन्यास और उसके अलावा भी जो-जो है, सो-सो है। इन सबमें से किसी एक के रूप में, अचरज नहीं अगर किसी को यह एक असफल कृति लगती है और अगर किसी को यह सफल लगती है, इन सारे के सारे रूपों में, तो यह भी शायद कम अचरज के लायक नहीं है। तय अगर है, तो इतना ही कि 'शेखर : एक जीवनी' उपन्यास ही होकर जो कुछ और जितना कुछ है, है। सफलता इसकी इस बात में तो तय है कि इसने उपन्यास के सर्वसमेटू विधागत चरित्र को सामने किया। आगे जिन उपन्यासों ने ऐसा किया, 'शेखर : एक जीवनी' उनका एक प्रमुख पूर्वज है।

यह प्रमुखतापूर्वक पूर्वजपन 'शेखर : एक जीवनी' को स्त्री-विमर्श, विशेषतः कथाकृतियों पर आधारित स्त्री-विमर्श के मामले में भी हासिल है। इस तरह कि यह उसके आधार के लायक एक प्रामाणिक सा पुरुष विमर्श प्रस्तुत करता है। स्त्रियाँ जो भी है इस उपन्यास में, वे लेखक की ज्ञात स्त्रियाँ नहीं है, ज्ञातव्य स्त्रियाँ हैं। वे कैसी हैं, यह नहीं है, वे कैसी लगती हैं, यह है। इसे लेखक की ईमानदारी कह सकते हैं, लेकिन बात इतनी सी ही होती तो इसे लेखक की नहीं, एक पुरुष लेखक की ईमानदारी कहते। लेकिन नहीं कह सकते ऐसा, क्योंकि इस उपन्यास 'शेखर : एक जीवनी' के जीवनीकार के लिए ज्ञात केवल शचार है, दूसरे सभी, पुरुष भी, ज्ञातव्य ही हैं। उन्हें उसका जानना बाहर से जानना है, भीतर से जानना सिर्फ शेखर को जानना है। एक कथाकार के लिए, अपनी कथाकृति के हर किसी को हर तरह से जानते होने से अपने को बचाए रखना 'शेखर : एक जीवनी' जैसे किसी एक आकार और प्रकार में भी बड़े उपन्यास में, बेशक एक सुदीर्घ साधना है।

यह सुदीर्घ साधना यह कहने के भी काम आती है कि स्त्री और पुरुष जैसी जातिवाचक संज्ञाओं में अलग-अलग चाहतों-राहतों वाले अनेकानेक अलग-अलग चेहरों को एक साथ लील लेने की जो राक्षसी ताकत है, 'शेखर : एक जीवनी' की औपन्यासिकता को उसके प्रतिकार से भी रचा गया है। करती तो हालाँकि, सभी कथाकृतियाँ, अपनी व्यक्तिवाचक संज्ञाओं के जरिए, वस्तुतः यही है, लेकिन 'शेखर : एक जीवनी'-जैसी ऐसी तन्मयता से तो शायद ही, जिसमें सिवा एक शेखर के, किसी की तरफ से कुछ भी देख सकने का कोई दावा नहीं। इसे चाहें तो स्त्री-विमर्श या पुरुष-विमर्श के बजाय व्यक्ति स्त्री-विमर्श या व्यक्ति-पुरुष विमर्श के लिए एक उकसावे के तौर पर ले सकते हैं और नहीं कह सकते कि हिंदी कथा साहित्य ने इस उकसावे में आने से बिल्कुल इनकार कर दिया है। बल्कि सबको न जानते होने के निरहंकार के बजाय, 'शेखर : एक जीवनी' में, चाहे जैसे, एक को पूरी तरह से जानते होने का एक अहंकार सा जो अतिरिक्त रूप से कुछ व्यक्त हो गया-सा लगता है, हिंदी कथा साहित्य ने संभवतः उससे भी कुछ सबक सा लेने का प्रयत्न किया है और अगर यह सही है तो जैसे उस उकसावे का, वैसे ही इस सबक का श्रेय भी, 'शेखर : एक जीवनी' को अवश्यमेव देय है।

देय है, 'शेखर : एक जीवनी' को, साहित्य में जीवन के साथ ही जीवन में साहित्य की उपस्थिति को दर्ज करते चलने का श्रेय भी। शेखर की जो जीवनी है उसमें अंग्रेजी की, बंगला की, हिंदी की, संस्कृत की, भी कविताएँ यहाँ वहाँ-जहाँ-तहाँ बिखरी पड़ी हैं। शेखर दें, शशि दें, शांति दें या अज्ञेय दें या दिलवाएँ, साहित्य का यह सम्मान है और यह सम्मान, कहीं-कहीं जबर्दस्ती भी हो, तो जीव, जीवन और जगत की भी एक जरूरत है, साहित्य की ही नहीं - इसे यह कृति रेखांकित करती है यह एक बात है, दूसरी बात यह है कि यह लोकसाहित्य के एक रचना-सूत्र के इस्तेमाल के तौर पर है। लोकविश्वास है कि कुछ भी नया नहीं है, न कुछ भी पुराना है,जो सीताराम, गौरीशंकर के विवाह के रूप में हो चुका है वही आज अमुक दुलहन और अमुक दूल्हे के विवाह के रूप में हो रहा है और इसी अमुक दुल्हन और अमुक दूल्हे का विवाह सीताराम और गौरीशंकर के विवाह के रूप में हुआ था। इसलिए इस विवाह में उन विवाहों के गीत गाए जाएँगे। यह लोकविश्वास लोकसाहित्य का एक प्रमुख रचना सूत्र है और 'शेखर : एक जीवनी' में इस सूत्र का एक तरह से डटकर इस्तेमाल है। किसी प्रसंग विशेष में, परिस्थिति विशेष में किसी काव्य विशेष की पंक्तियाँ उपन्यासकार के कवि होने के प्रमाण या परिणाम के तौर पर ही नहीं है। ऐसे में, 'शेखर : एक जीवनी' की प्रशंसा में ही सही, अगर कहा जाता है कि एकदम से नई तरह के पात्र है इसके, नए तरह के प्रसंग हैं, परिस्थितियाँ है, अनुभूतियाँ है तो यह एक तरह से 'शेखर : एक जीवनी' को रचना के रूप में खारिज करना है और इस कृति में अक्सर उपस्थित काव्य संदर्भ में, कथा संदर्भ में इस खारिज करने को खारिज करने के लिए भी हैं। यह नहीं कि इनके जरिए जो भी है 'शेखर : एक जीवनी' में, उसे साहित्य की दुनिया में कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में मौजूद दिखा ही दिया गया है लेकिन इसकी संभावना की तरफ संकेत जरूर कर दिया गया है। संकेतों को पकड़ने के लिए यह उपन्यास केवल अपने को ही नहीं दुनिया भर के साहित्य को पढ़ने का, पढ़ते रहने का एक महत्वाकांक्षी प्रस्ताव रखता हुआ जान पड़ता है। और फिर, और कुछ नहीं भी तो लोक साहित्य में कथा को काव्यत्व देने की परंपरा तो रही ही है। बिडंबना ही कहेंगे यदि मौलिकता के दंभ से निष्कृति के ये उपाय इसी दंभ के प्रदर्शन के खाते में डाल दिए जाएँ।

विडंबनाएँ और भी हैं। सबमें नहीं भी जाएँ तो उदाहरण के लिए सिर्फ एक, कृति में कृतिकार की उपस्थिति के मामले को लें। नाट्य विधाएँ अपने में अपने रचनाकार की मौजूदगी तनिक नहीं चाहतीं, काव्य विधाएँ निरंतर चाहती हैं। कथा विधाएँ चाहती है कि उनमें उनका रचनाकार कम से कम उपस्थित रहे, कम से कम यह तो लगे ही कि वह ज्यादा से ज्यादा अनुपस्थित है। 'शेखर : एक जीवनी' में जो विडंबना है वह यह कि रचनाकार की उपस्थिति है तो कम से कम लेकिन लगती वह ज्यादा से ज्यादा है। शेखर का सारा सोचना समझना, उलझना-सुलझना, उलझाना-सुलझाना है तो शेखर का लेकिन लगता लेखक का ही है। ऐसा लगता है तो ऐसा लगने देने के लिए लेखक से बेशक नाराज हुआ जा सकता है, लेकिन इतना ही शायद काफी नहीं है। देखना होगा कि कविता को 'सुनने' का जो हमारा अभ्यास है, नाटक को 'देखने' का जो हमारा अभ्यास है, कहीं उसी 'देखने सुनने' के ही अभ्यास में बने रहते हुए तो हम उपन्यास को 'पढ़ने का भी प्रयास नही कर रहे हैं। दृश्य और श्रव्य से भिन्न एक पाठ्य विधा के रूप में उपन्यास उपने ग्रहण के लिए गाहक से कुछ अलग तरह की अपेक्षाएँ रख सकता है। ऐसी अपेक्षा या अपेक्षाएँ रखने वाले उपन्यासों में 'शेखर : एक जीवनी' संभवतः एक प्रमुख प्राथमिक है।

शेखर को, न कि अज्ञेय को, प्रत्यक्षतः यह बताना है कि वह क्या है, कैसा है, कि वह जो है, जैसा है वैसा वह क्यों है, कैसे है और यह भी अगर, कि वह जो है, जैसा है वैसा 'वही' है, तो यह भी शेखर को, न कि अज्ञेय को बताना है। अब यह वह चाहे जैसे बताता है - आचरण से या विचार विश्लेषण से, उसका मामला है, हालाँकि इसके चलते उपन्यास अगर शिथिल पड़ता है तो बेशक यह मामला शेखर का ही नहीं, 'शेखर : एक जीवनी' का भी है। वरना, शेखर की आलोचना ही 'शेखर : एक जीवनी' की भी आलोचना नहीं है, कृति का कोई पात्र या प्रसंग या परिस्थिति, उसकी स्थिति चाहे जितनी भी केंद्रीय हो, कृति का सर्वस्व नहीं है - अपने आलोचक से या आलोचक मात्र से, अपाने लिए या उपन्यास मात्र के लिए इस विवेक की माँग को भी, चाहें तो 'शेखर : एक जीवनी' का एक प्रमुख प्रदेय मान सकते हैं।

अज्ञेय की इस औपन्यासिक कृति के चरित्र - पात्र अज्ञेय के प्रकरण एवं कारावास जन्य जीवन से तादात्म्य स्थापित करते हुए पाठक की सहज सहानुभूति प्राप्त करते हैं तब शायद ऐसा न लगे कि शेखर अपनी माँ की अपने प्रति अविश्वास की एक सहज सामान्य उक्ति और ऐसे ही कुछ प्रसंगों को अपने विद्रोही व्यक्तित्व के मनोवैज्ञानिक हेतु निरूपण के रूप में प्रस्तुत कर पाठक की भूमिका को कम या खत्म कर देता है, तब शायद यह लगे कि लेखक पाठक की भूमिका को कुछ और सघन कर रहा है, वह उससे शेखर के इस हेतु निरूपण की उम्मीद रख रहा है।

इस उम्मीद के नाम पर एक अंतिम बात कहनी है। अज्ञेय ने इस उपन्यास की भूमिका में एक उम्मीद लगाई थी कि जो इस कृति का निर्णेता होने का हौसला करेगा वह इसे पूरा पढ़ने की उदारता भी दिखाएगा। तीसरा खंड लिखा नहीं गया इसलिए कोई यह कह सकने की हालत में तो है ही नहीं कि उसने पूरा पढ़ लेने की उदारता दिखाई। इसलिए निर्णेता बनने का हौसला दिखाने का भी कोई अवसर नहीं है। इसलिए जो कहा, जितना कहा, जैसा कहा उसके लिए भी क्षमा याचना सहित धन्यवाद।


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