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कविता

उन दिनों - 1

महेश वर्मा


अक्सर लगता कि कोई दरवाज़ा खटखटा रहा है, कोई दे रहा है आवाज़, देर से बज रही है फ़ोन की घंटी, बाहर बारिश हो रही है। फ़ोन के मूर्ख चेहरे को घूरना छोड़ कर बाहर आते तो दिखाई देता उड़ता दूर जाता पॉलीथीन का गुलाबी थैला। पता नहीं वे कौन से दिन थे और कौन सा मौसम। एक ज़िंदा ख़बर के लिए अख़बार उठाते तो नीचे से निकल कर एक तिलचट्टा भाग कर छुप जाता अँधेरे में।

सुनाई नहीं देता था कोई भी संगीत कोई चिट्ठी हमारी चिट्ठी नहीं थी, किसी को नहीं करना था अभिवादन, कोई शिकायत नहीं थी सड़क की कीचड़ से या गड्ढे से।

रात आती तो देर तक ठहरती कमरे में और आँख में। सारे मज़ाक ख़त्म हो चुके थे अपने अधबीच, कोई चिड़िया आ जाती भूल से तो रुकी रहती जैसे दे रही हो सांत्वना फिर ऊबकर वह भी चली जाती शाम के भीतर।

पेशाब करते हुए सामने के धुँधले आईने में जितना दिखाई देता चेहरा, उसे देखते और हँस देते अकेले

 


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हिंदी समय में महेश वर्मा की रचनाएँ