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कविता

पत्थर

महेश वर्मा


इतने संतुष्ट थे पत्थर
कि उनकी छाया ही नहीं थी
जो लाखों साल वे रहे थे समंदर के भीतर
यह भिगोए रखता था उनके सपनों को

गुनगुनी धूप थोड़ा और देर ठहरे
इस मामूली इच्छा के बीच
वे बस इतना चाहते हैं
कि कोई अभी उनसे बात न करे

 


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हिंदी समय में महेश वर्मा की रचनाएँ