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कविता

आदिवासी औरत रोती है

महेश वर्मा


आदिवासी औरत रोती है गुफाकालीन लय में।
इसमें जंगल की आवाज़ें हैं और पहाड़ी झरने के गिरने की आवाज़,
इसमें शिकार पर निकलने से पहले जानवर के चित्र पर टपकाया
गया आदिम खू़न टपक रहा है,
तेज़ हवाओं की आवाज़ें हैं इसमें और आग चिटखने की आवाज़।
बहुत साफ और उजली इस इमारत के वैभव से अबाधित
उसके रुदन से यहाँ जगल उतर आया है।

लंबी हिचकियों के बीच उसे याद आते जाएँगे
मृतक के साथ बीते साल, उसके बोल, उसका गुस्सा -
इन्हें वह गूँथती जाएगी अपनी आवाज़ के धागे पर
मृतक की आखिरी माला के लिए।
यह मृत्यु के बाद का पहला गीत है उस मृतक के लिए -
इसे वह जीवित नहीं सुन सकता।

हम बहरहाल उन लोगों के साथ हैं
जिनकी नींद ख़राब होती है - ऐसी आवाज़ों से।


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