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कविता

भाषा

महेश वर्मा


अब भला क्या तर्क है इसे स्खलन माने का
कि भाषा ने ही हमें सामर्थ्य दी
कि हम बदल सके अपने रुदन को
एक सामाजिक वक्तव्य में।
शब्द तो आ ही गए थे इसके कुछ पहले
दीर्घकालिक विलापों के बीच की हिचकियों के ठीक बाद
या ठीक पहले, प्रायः जोड़ते हुए मृतक का कोई संस्मरण
या उसका अनुपस्थित।
कभी हम एक पागल सम्राट की तरह भर देते
उसके मुँह में नीली स्याही, कभी बुझा देते एक जलती लाल
सलाख उसके गँदले जल में।
अक्सर एक अनाड़ी की तरह साइकिल चलाते
हम गिर जाते डगमगा कर उसकी पगडंडियों के दाहिनी ओर की घास में,
कभी समुद्र की उत्ताल तरंग की तरह वह हमें
फेंक आती पॉलीथीन, कचरे और विसर्जित देवताओं के बीच।
बहुत दिनों तक जिस रस्सी को हम थामे रहते
समझकर रास, मोतियाबिंद के पीछे से मुश्किल से
दिखाई देता किसी अश्व या रथ का नहीं होना।
इसी के जाम में घोलकर जो हम पी गए थे
एक पागल चाँद, तब कहाँ डूबने देते थे इसमें अपना प्रेम
कभी हम ढूँढ़कर लाते असंगत ऋतुओं के वन, वर्षा और
धूप के प्रसंग और रोप देते भाषा के मैदान पर।
यहीं सीखा हमने क्षोभ, उन्माद और प्यार को
एक धुँधली मुस्कान में अनूदित करने का कौशल।
कभी होता यह एक रिसता हुआ घाव कभी
अनुच्चरित शब्दों की कब्रग़ाह। कभी होती यह आततायी
की तलवार बोलती प्यार। कभी एक ख़ालिस बोरियत
जिसे ढाल देते हम एक सामाजिक वक्तव्य में।
अभी कहाँ सोच पाए हैं उन शब्दों के बारे में जिन्हें
आना है भाषा के भीतर।
शायद भाषा भी देखती हो उनका ही कोई स्वप्न।


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