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कविता

झाड़ू
महेश वर्मा


वे बुहार आएँगी एक रोज़ हमारा अंतरिक्ष।
जिनके टूटकर गिरने के दृश्य में
गूँज उठती थीं हमारी अपूरित चाहनाएँ
आत्मा के खाली कमरे में।
बुझे हुए वो तारे बुहारकर डाल दिये जाएँगे
किसी विस्मृति जैसे ब्लैक होल में।
क्षुद्रग्रहों की धूल से अँटे मैदान पर
एक ओर से पानी सींचते बढ़ जाएँगे देवता अनंत में।
यहीं कहीं पड़े होंगे हमारे शौर्य के मलबे -
कृत्रिम उपग्रह और अंतरिक्ष यान।
निर्वात में चलने के हास्यापद अभ्यास,
फूली वादियों के भीतर, भारहीन उत्तेजना से धड़कते हृदय
और इनसब के बहुअभ्यासित संस्मरणों का पुनर्कथन
बुहारकर फेंक दिए जाएँगे सब
किसी निर्जन से सौरमंडल के कूड़ेदान में।
तब जो थका सा चमक रहा था हमारा अंतरिक्ष
धूल की उदास परत के नीचे,
दीप्त हो उठेगा अपने गर्वीले एकांत में।
फिर वो चाहेंगी कि सजा सजा दें
गेंदे के फूलों से भरा शीशे का गिलास
ब्रह्मांड की खाली मेज़ पर।


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