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कविता

बाँह उखड़ जाने पर

महेश वर्मा


किसी फूल से उड़कर आई हो यह तितली
एक जंतु की तरह बैठती है त्वचा पर
पहले कभी आते ही बैठती हो सपने की किसी टहनी पर,
किसी असावधान क्षण
रगड़ सकता हो इसको दूसरा स्वतंत्र हाथ.
कोई पानी या जल नहीं बह रहा इसके बहने में
यह जो आ गई है नदी कहाँ को आते जाते,
भले ही भूल की तरह रखा हो जेब में
प्यास की श्वते-श्याम चित्र, और दूसरे किनारे से -
जो बहा आता है विलाप या रुदन
कितनी तीव्रता मापी जाए इस आवाज़ की?
हम आगे आएँ या लौटें पीछे
या जाएँ किसी भी दिशा में
आईना देखें, पुस्तकें या स्त्रियाँ
बहुत बाद में पता चला कि पता नहीं कहाँ
लेकिन पीछे कहीं हम छोड़ आए थे अपना मन।
फर्श पर जो फेंक दी गई है गुड़िया -
मुस्कराती रहती है बाँह उखड़ जाने पर भी।


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