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कविता

ख़ून
महेश वर्मा


चाहे कितने भी बार काग़ज़ पर लिखा जाए खू़न
कितना यह अलग होता सचमुच के चिपचिपे खू़न से।
अपरिचित गाड़ी से कुचले गए अपरिचित का
जो बहा था ख़ून हमारे अनुपस्थित में -
उसकी कत्थई याद जो चिपकी रह गई हो
सड़क के काले चेहरे पर -
काफ़ी है सिहराने को रीढ़ की हड्डी।
खेलते हुए किसी घरेलू छुरे से
कुलबुलाती है सुरक्षा के कोष्ठक के भीतर
हथेली पर चीरा लगाने की दुर्बल सी इच्छा।
हत्या को भी कहा जाता रहा ख़ून
और वास्तव में देखने के बाद कोई लाश
जिसका की किया गया था ख़ून
वैसा ही नहीं रह पाता आगे बचा जीवन।
एक सैनिक के गर्व से देखते हम
परखनली में निकाला गया जो हमारा ख़ून -
बीमारी जाँचने में।


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