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कविता

फिर लौटकर

महेश वर्मा


घूमकर वापस आती है ऋतुएँ,
पागल हवाएँ, बीमार चाँद और नदियों की याद
वापस आते हैं घूमकर
घूमकर आता है वही भीगा हुआ गीत।
जहाँ अब भी झर रहे हैं पारिजात के फूल।
घूमकर याद आती है कोई बुझी हुई सी जगह
चमकने लगतीं जैसे सभ्यताएँ
हटाकर पुरातत्व की चादर।
घूमकर लौट आता है मृत्यु का ठंडा स्पर्श,
स्नायुओं का उन्माद और कोई निर्लज्ज झूठ।
घूमकर वापस आती है पृथ्वी हाथ की रेखाओं में,
लौटकर अस्त होता सूर्य अक्सर पुतलियों में,
अभी-अभी तो लौटा है साँसों में आकाश,
घूमकर वापस लौटता ही होगा कोई
जीवन कण अनंत सेँ


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