सर्दी, पानी, धूप-घाम के बीच
बाहर में पेड़ के नीचे
किसी तरह से छूट गई है कुर्सी।
उजड़ चुका पुराना रंग,
जंग लगे कीलों से जुड़े जोड़ों में,
धीमे-धीमे जमा हो गई हैं चरमराहटें।
एक दिन शेष हो जाएँगे
इस पर बैठने वाले का संस्मरण सुनाते अंतिम लोग।
बताना मुश्किल होगा इसकी अस्थियों से
इसका विगत विन्यास,
नये और अपरिचित लोगों के बीच -
जब खुल जाएँगी इसकी संधियाँ।
इससे पहले ही किसी शिशिर में शायद
एकमत हो जाएँ कुछ लोग
दहकाने को इससे -
एक साँझ का अलगाव।