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कविता

भाषा लेकिन भूल गया था

महेश वर्मा


निर्विवाद थी उसकी गंभीरता इसीलिए
भय पैदा कर लेती थी हर बार -
मुझे भी डर लगा उस रात जब गंभीरता से कहा दोस्त ने
कम होती जा रही हैं गौरय्याँ हमारे बीच।
उम्मीद की तरह दिखाई दी
एक गौरया दूसरी सुबह, जब
दुःस्वप्नों की ढेर सारी नदियाँ तैरकर
पार कर आया था मैं रात के इस तरफ।
मैंने चाहा कि वह आए मेरे कमरे में -
ताखे पर, किताबों की आलमारी पर,
रौशनदान पर,
आए आँखों की कोटर में, सीने के खोखल में,
भाषा में, वह आए और अपना घोसला बनाकर रहे।
मैंने चाहा कि वह आए और इतने अंडे दे
कि चूज़े अपनी आवाज़ से ढक दें -
दोस्त की गंभीर चिंता।
इतने दिनों में उसे बुलाने की
भाषा लेकिन मैं भूल गया था।


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