परंपरा शब्द का व्यवहार प्रायः रूढ़ि के अर्थ में किया जाता है और इस प्रकार अनजाने में परंपरा की व्यापक अर्थवत्ता को संकुचित कर दिया जाता है। परंपरा अपने आप में एक व्यापक अवधारणा है। इसमें न केवल परिवर्तन की संभावना होती है बल्कि परिवर्तन की यह प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है। परंपरा विच्छेद नहीं है और निषेध भी नहीं है। यह पूर्व के उत्तम गुणों का अनुसंधान कर उसे नई कसौटी पर परखने, तत्पश्चात उसे अपनाने का कार्य करती है। इसी कारण रामधारी सिंह 'दिनकर' लिखते हैं -
"परंपरा को अंधी लाठी से मत पीटो
उसमें बहुत कुछ है,
जो जीवित है
जीवनदायक है
जैसे भी हो
ध्वंस से बचा रखने लायक है।"
पं. विद्यानिवास मिश्र ने परंपरा के अर्थ को स्पष्ट करते हुए लिखाते है कि -"परंपरा का अर्थ है 'पर' अर्थात श्रेष्ठ या उत्तरवर्ती, उसका अतिक्रमण करने वाली श्रेष्ठतर उत्तरवर्ती 'परा' धारा।"1
किंतु आज परंपरा के इस अर्थ की पूर्णतः अनदेखी कर इसे रूढ़ि के अर्थ में प्रयुक्त किया जाने लगा है। इसका कारण है परिवर्तन के प्रति अतिरिक्त उत्साह एवं परंपरा की पहचान में कमी। परंपरा और रूढ़ि बिल्कुल अलग अलग चीजें हैं। परंपरा निरंतर परिवर्तनशील होती है जबकि रूढ़ि का अर्थ है जहाँ आगे परिवर्तन की संभावनाएँ खत्म हो जाएँ या कम हो जाएँ।
जहाँ परंपरा एक परिवर्तनशील और काल सापेक्ष प्रक्रिया है वहीं आधुनिकता को समसामयिक बोध माना जाता है। कहीं इसे समसामयिकता का अतिक्रमण करने वाली मूल्य दृष्टि मानते हैं तो कहीं किसी काल खंड में व्याप्त बोध की स्वीकृति। इन बिंदुओं और विचारों ने आधुनिकता को परिभाषित करने की जगह उसे और उलझा कर रख दिया है। दिनकर जी ने इसे परिभाषित करते हुए लिखा है कि - "आधुनिकता एक प्रक्रिया का नाम है यह प्रक्रिया अंधविश्वास से बाहर निकलने की प्रक्रिया है। यह प्रक्रिया नैतिकता में उदारता बरतने की प्रक्रिया है। यह प्रक्रिया बुद्धिवादी बनने की प्रक्रिया है। यह प्रक्रिया धर्म के सही रूप पर पहुँचने की प्रक्रिया है।"2
आधुनिकता और परंपरा परस्पर संबद्ध धारणाएँ हैं। इनको अलग नहीं किया जा सकता है। परंपरा के द्वारा पूर्वकाल से चली आ रही प्रथाओं, रीति-रिवाजों एवं विचारधाराओं को बोध होता है। यह किसी समाज के व्यक्तित्व को समझने के लिए युगों से संचित निधि के समान होती है। वस्तुतः परंपरा के द्वारा किसी समाज के भूतकाल का आकलन करके उसके भविष्य की संभावनाओं को अभिव्यक्त किया जा सकता है। गतिशील एवं नित नूतन परंपरा आधुनिकता की हमराही बन जाती है। जब उसी परंपरा के कुछ तत्व जड़ एवं स्थिर हो जाते हैं तो यह रूढ़ि का रूप ले लेती है और आधुनिकता से कट जाती है। आधुनिकता को समेटने की क्षमता ही परंपरा का पुरुषार्थ है।
भारतीय परंपरा के परिप्रेक्ष्य में विचार करने पर हम यह पाते हैं कि इसके अधिकांश तत्व वैज्ञानिकता की कसौटी पर खरे उतरने के साथ तर्कसंगत भी हैं। इस कारण इसका आधुनिकता से टकराव न के बराबर है। भारतीय जनमानस स्वभाव से कट्टर न होकर उदार है। समय-समय पर चलने वाले समाजिक आंदोलानों ने रूढ़ियों के मैलेपन को दूर कर परंपरा को सदैव निर्मल बनाए रखा है। गार्गी और चार्वाक आदि अपनी परंपरा से टकराकर उसे चुनौती देते हैं और उसे अनवरत तराशने का कार्य करते रहे हैं। रूढ़ि के बंधनों से मुक्त यह गतिशीलता ही हमारी परंपरा का वास्तविक गुण है। कहना न होगा कि जीवंत परंपरा, आधुनिकता के मार्ग में बाधक न बनकर उसे दिशा-बोध देती है, साथ ही आधुनिकता की मौलिक उपलब्धियों को कालगत सत्य को विश्वसनीयता प्रदान करती है। इस प्रकार परंपरा की चेतना किसी व्यक्ति को बाँधती नहीं बल्कि यह देशकाल के साथ-साथ स्वयं के अतिक्रमण पर बल देती है। ऐसी रूढ़ि विरोधी समर्थ एवं जीवंत परंपरा आधुनिकता का पर्याय हो जाया करती है।
18वीं शताब्दी का समय देश में एक बड़े परिवर्तन का समय था। इसी समय समाज में व्याप्त रूढ़ियों, गलित मूल्यों, परंपराओं को त्यागने और नई परंपराओं एवं आधुनिकता के प्रति लोगों मे जागृति लाने के प्रयास किए जा रहे थे। राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक जीवन में अनेक महत्वपूर्ण परिवर्तन हो रहे थे। उस समय तक स्वाँग के नाम से जो लोकनाट्य विधा प्रचलित थी वह भी विकसित और परिवर्तित हुई और उसने नौटंकी नाम से आधुनिक रूप ग्रहण किया। वह एक नए रंग-रूप, तथा कलेवर में लोगों के सम्मुख उपस्थित हुई। नौटंकी के कलाकार अपने गीतों एवं नाट्य प्रदर्शनों के माध्यम से समाज के अशिक्षित, सर्वहारा एवं वंचित वर्ग के लोगों को मनोरंजन के स्वस्थ एवं सुलभ साधन मुहैया कराते थे। ये नौटंकी लेखक एवं कलाकार एक ऐसे समाज का प्रतिनिधित्व कर रहे थे जो अपनी रूढ़ियों व परंपराओं को गले से लगाए हुए अनवरत जीवन जिए जा रहे थे। आधुनिकता क्या है और उसके मायने क्या हैं, इन बातों से यह समाज दूर-दूर तक परिचित नहीं था। जीविका चलाने हेतु दिन भर कठोर परिश्रम करना, और शाम को थके-हारे मन को शांति एवं सुख प्रदान करने हेतु मनोरंजन के सस्ते-सुलभ साधन ढूँढ़ना यही उनका जीवन था।
ऐसा माना जाता है कि परंपरा का सबसे मजबूत पोषक है हमारा लोक क्योंकि लोक ही संवेदनाओं और भावनाओं से जुड़ा रहता है। परंपरा के लिए जिस इतिहास बोध की अनिवार्यता की बात की जाती है वह इतिहास बोध संवेदनाओं एवं भावनाओं के योग के बिना इतिवृत्त मात्र बन कर रह जाएगा। संवदेना और भावना के बिना कोई भी इतिहास मात्र घटनाओं का विवरण ही कहा जाएगा। पं. विद्यानिवास मिश्र ने भी कहा है कि - "उस विराट पुरुष के दो नेत्र हैं, एक दायाँ नेत्र है जो विवेक, विज्ञान और संचेतना का है, जिसे हम शास्त्र कहते हैं। बायाँ नेत्र संवेदना और भावनाओं का है, जिसे हम 'लोक' कहते हैं।"3
हमारे लोक ने इन संवेदनाओं के सहारे निरंतर एक प्रकाश अपने समाज को दिया और उसे गतिशील बनाए रखा। गतिशीलता की बात आते ही आधुनिकता से उसका जुड़ाव स्वतः हो जाता है, क्योंकि गतिशील परंपरा, आधुनिकता को खुद में समाहित कर लेती है, फिर उन दोनों में विभेद करना कठिन हो जाता है।
नौटंकी एक ऐसी लोकनाट्य विधा है जो अतीत और वर्तमान तथा परंपरा और आधुनिकता के बीच सेतु के समान है। इसके माध्यम से पूर्व एवं पश्चिम की ग्राह्य बातें अत्यंत दृढ़ता के साथ बिना किसी भय के कही गई हैं। नौटंकी के माध्यम से लोक कलाकारों ने जातिभेद, धर्मभेद, वर्णभेद एवं लिंगभेद जैसी समस्याओं का खुलकर विरोध किया है। उदाहरणस्वरूप पंडित 'नथाराम शर्मा गौड़' द्वारा रचित एक स्वाँग 'गरीब हिंदुस्तान उर्फ फूट का अंजाम' की ये पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं -
"हिंदू मुसलमान दोनों ही प्यारे पुत्र हमारे।
चलौ धरम अपने अपने पर हरदम रहौ सुखारे।।"4
ऐसे देश में जहाँ जातिगत विद्वेष के कारण आज भी लोग कट-मर रहे हैं वहाँ एक लोक-कलाकार अपनी लेखनी व कला के माध्यम से सभी देशवासियों को चाहे वह हिंदू हों या मुसलमान भारतवर्ष का पुत्र घोषित कर रहा है, साथ ही भाईचारे का संदेश भी दे रहा है। यह अपने आप में बहुत बड़ी बात है। एक श्रेष्ठ कलाकार की यह विशेषता होती है कि वह परंपरा और आधुनिकता को पृथक न मानते हुए उनके द्वंद्व के मध्य अपनी दिशा तय करता है। वह परंपरा के दाएँ भाग को स्वीकार कर अपने आत्मविश्वास द्वारा, नए मार्ग के अन्वेषण का कार्य करता है। अज्ञेय ने एक जगह लिखा है कि -
"अच्छी अपनी ठाठ फकीरी, मंगनी के सुख साज से
अच्छी कुंठा रहित इकाई, साँचे ढले समाज से।"
यहाँ साँचे ढले समाज का विरोध व्यक्त है, क्योंकि यह साँचा उन्हीं रूढ़ियों एवं बंधनों को आधार देता है, जो आधुनिक मानस के मन में कुंठा का सृजन करते हैं। नौटंकी ने इसी भावना को आत्मसात करते हुए बँधी-बँधाई रूढ़ियों का प्रखर विरोध किया साथ ही परंपरा और आधुनिकता के संगम की अभिव्यक्ति की।
कई नौटंकी कलाकारों ने वेद-पुराण की कथाओं पर आधारित नौटंकियों की रचना की तथा उनका मंचन भी किया। नौटंकी के मूर्धन्य कलाकार पं. नथाराम शर्मा गौड़ ने स्वयं रामायण-महाभारत श्रृंखला की नौटंकियों के साथ-साथ नल-दमयंती, सती-सावित्री, सती-वृंदा आदि पौराणिक नौटंकियों की रचना की। इसके साथ ही आधुनिक युग की समस्याओं पर आधारित नौटंकियों जिनमें गरीब हिंदुस्तान प्रमुख है, की भी रचना की।
जिस समय इन आधुनिक नौटंकियों का सूत्रपात हुआ उस समय की राजनैतिक, सामाजिक एवं धार्मिक स्थितियों के संदर्भ में तत्कालीन नौटंकी कलाकारों की दृष्टि के मूल्यांकन द्वारा इस बात की पड़ताल की जा सकती है कि किन-किन मुद्दों पर उन्होंने परंपरा को अपनाया और किन मुद्दों पर आधुनिक भावबोध का सहारा लिया।
राजनीति एक ऐसा क्षेत्र है जिससे हर मनुष्य किसी न किसी रूप में जुड़ा रहता है। हमारा लोकतंत्र तो स्वयं में आधुनिकता का प्रतीक है साथ ही यह राजनीति में सबकी समान भागीदारी को प्रोत्साहित करता है। 18वीं शताब्दी में जो नौटंकी विधा, नौटंकी कलाकारों के माध्यम से पुष्पित-पल्लवित हुई उसने उस समय के राजनैतिक क्षेत्र में अपनी कोई प्रत्यक्ष भूमिका निभाई हो ऐसा तो नहीं कहा जा सकता क्योंकि नौटंकी कलाकार मूलतः लोक-कलाकार थे जिन्होंने विभिन्न विषयों पर संगीतों की रचना की। वे विभिन्न विषयों पर संगीतों की रचना कर उनके मंचन इत्यादि में ही सक्रिय रहते थे जिसके कारण राजनीति के विषय में सोचने और उस पर व्यापक मंथन करने का समय उनके पास नहीं होता था। परंतु फिर भी वे अपने देश में घट रही राजनैतिक गतिविधियों से पूर्णतः अनभिज्ञ भी नहीं थे। परतंत्रता के इस काल में कई नौटंकी कलाकारों यथा श्री त्रिमोहन लाल, पं. नथाराम शर्मा गौड़, श्री कृष्ण पहलवान इत्यादि ने देश की जनता को जागृत करने हेतु देशभक्तिपूर्ण नौटंकियों की रचना की जिनमें पंडित नथाराम शर्मा गौड़, जी द्वारा रचित संगीत गरीब हिंदुस्तान, अमर सिंह राठौर, रानी दुर्गावती, सुल्तान डाकू आदि प्रमुख हैं।
आधुनिक राजनैतिक विचारधारा के अंतर्गत लोकतांत्रिक व्यवस्था को स्वीकार किया गया है। ऐसी लोकतांत्रिक व्यवस्था में शासक की जवाबदेही जनता के प्रति होती है। शासक को जनता के हित में, जन कल्याण एवं उत्थान हेतु फैसले लेने होते हैं शासक को जन हित हेतु स्वहित का त्याग करना होता है। क्योंकि शासक जनता का, जनता द्वारा, और जनता के लिए होता है।
प्रसिद्ध नौटंकी कलाकार पं. नथाराम जी द्वारा रचित 'संगीत निहालदे प्रथम भाग' में नायक सुल्तान सिंह के पिता राजा चित्रसाल सिंह द्वारा जनता को सताने की शिकायत पर अपने इकलौते पुत्र को राज्य निकाला दे दिया जाता है।
"दो - बदतमीज बद लियाकत, पाजी नामाकूल।
ये तौ बतला दै रहा, किस गरूर में फूल।।"
चौ - किस गरूर में फूल रहा जो करता मनमानी तू।
की हिदायतें मगर न छोड़ै हरकत शैतानी तू।।
करै नाम बदनाम मेरा बेहूदे दहकानी तू।
काला मुँहकर निकल शोख बस छोड़ राजधानी तू।"5
यह बड़े साहस की बात है कि कोई राजा अपने ही बेटे को राजधानी से बाहर जाने का आदेश दे रहा है। आधुनिक राष्ट्रीय संविधान समता मूलक है। यदि शासक भी किसी प्रकार का अपराध करता है तो वह समान दंड का भागी होता है। इस आधुनिक राष्ट्रीय विचारधारा को इन नौटंकी कलाकारों ने अपने संगीतों के माध्यम से जनता के सम्मुख प्रस्तुत किया।
आधुनिक समय की एक प्रमुख सामाजिक धरोहर मानी जाती है धर्मनिरपेक्षता। इसका प्रमुख कारण है भारतवर्ष की मिलीजुली साझी संस्कृति, जिसमें हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, पारसी आदि विभिन्न धर्मो एवं मतों को मानने वाले लोग रहते है। नौटंकी कलाकारों ने जनता में धार्मिक विद्वेष को मिटाकर धार्मिक सौहार्द्र के प्रचार-प्रसार में महती भूमिका निभाई। उदाहरणस्वरूप संगीत 'श्रीमती मंजरी' में एक ब्राह्मण के द्वारा मुस्लिम अनाथ लड़के को स्वीकार कर उसका पालन-पोषण किया जाता है। जो सच्ची धर्मनिरपेक्षता का उदाहरण है-
"दो - बालक तेरी बात सुन, हृदय गया थर्राय।
जहाँ तक मुझसे हो सके, तेरी करूँ सहाय।।
चौ - कहों मती अब जाई तुझे मैं अपने कंठ लगाऊँ।
पालन तेरा करूँ दुई को दिल से दूर हटाऊँ।।
जैसा खुद खाऊँ तैसा ही बेटा तुझे खिलाऊँ।
कल तुझको मक्तब में पढ़ने के लिए बिठाऊँ।।"6
ये पंक्तियाँ आज के राजनेताओं के लिए सबक हैं जो आज भी धर्म एवं जाति के नाम पर लोगों में अलगाव पैदा कर अपनी राजनैतिक रोटियाँ सेकते हैं।
जिस समय नौटंकी कलाकारों ने इन नौटंकियों की रचना की उस समय के समाज में स्त्रियों की दयनीय दशा, सामाजिक कुरीतियाँ, अंधविश्वास, विधवाओं के करुण क्रंदन, सती प्रथा, बालविवाह, बहुविवाह, अनमेल विवाह, सट्टेबाजी, संप्रदायिकता, हिंदुओं की आपसी फूट, भिक्षावृत्ति, जुआखोरी, अशिक्षा, रूढ़ियों एवं सामाजिक विसंगतियों का बोलबाला था। धर्मांधता के कारण हिंदू समाज केवल परंपरा से प्राप्त धारणाओं में ही विश्वास करता था। ऐसी सामाजिक हीनता की दशा में नौटंकी कलाकारों ने लोगों को इन सामाजिक बुराइयों एवं रूढ़ियों से मुक्ति प्राप्त करने हेतु जागृत करने का बीड़ा उठाया। समाज सुधार पर आधारित मनोरंजक नौटंकियों की विशेषता यह थी कि इनमें अन्योक्ति के माध्यम से लोगों पर व्यंग्य बाण छोड़ा जाता था जिसे देखकर लोग उपर से तो हँसते दिखाई देते थे परंतु उनका अंतर्मन ग्लानि एवं पश्चाताप से भर जाता था और धीरे-धीरे उन सामाजिक बुराइयों का परिमार्जन होता दिखाई पड़ता था।
इन नौटंकी कलाकारों ने समाज में एक नई सोच एवं विचारधारा लाने का प्रयास किया। उदाहरणस्वरूप लोगों में आपसी फूट और वैमनस्य का वर्णन करती 'गरीब हिंदुस्तान' की ये पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं -
"पुत्र एक हिंद राजा का हुआ जैचंद मति हीना।
कि जिसने अपने घर का आसन भली विधि फूट को दीना।"7
समाज में व्याप्त अंधविश्वास पर भी नौटंकी के माध्यम से करारा व्यंग्य किया गया है -
"जरा देर में सितम हजारों स्याने बने दिवाने।
जूड़ी, जाड़े और बुखार को लगे भूत बतलाने।।"
अनमेल विवाह की बुराइयाँ बताती ये पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं -
"कही मानो स्वयंबर को जाओ मती।
आप बूढ़े हुए वह नौजवान आवेगी।
लज्जते वस्ल जब जनाव में न पावेगी।
तके गैरों को तुन्हें सींग पै खिलावेगी।
ये सारी शान तेरी खाक में मिलावेगी।।"8
ऐसा नहीं है कि सभी नौटंकी कलाकार आधुनिकता के अंधे मोह में फँसकर अपनी ग्राह्य एवं महत्वपूर्ण परंपराओं को पूर्णतः त्याज्य समझते थे। बल्कि वे आवश्यकतानुसार कहीं परंपरा को प्रश्रय देते हैं तो कहीं आधुनिकता पर बल देते हैं, क्योंकि चाहे कोई भी समाज हो वह न तो पूरी तरह पारंपरिक होकर रह सकता है न पूरी तरह आधुनिक। नौटंकी कलाकारों ने अपनी नौटंकियों में परंपरा और आधुनिकता के बीच सामंजस्य का पूरा ध्यान रखा है।
उदाहरणस्वरूप परिवार की संरचना के प्रति लगभग सभी नौटंकी कलाकार पारंपरिक दृष्टिकोण रखते थे। वे एक सृदृढ़ पारिवारिक व्यवस्था का समर्थन करते थे जिसमें संयुक्त परिवार को महत्व प्रदान किया गया है। पुत्र-पिता की आज्ञा को सर्वोपरि मानता है। पिता की आज्ञा होने पर अपराधी न होते हुए भी बिना प्रतिकार के दंड भोगने को तैयार हो जाता है। उदाहरण द्रष्टव्य है -
दो - "तनक खता जिस पर सजा, इतनी सख्त हुजूर।
सर आँखों पर आपका, हमें हुकम मंजूर।।
बहरत - मुझै इरशाद मंजूर है आपका,
सर व आँखों से इसको बजाऊँगा मैं।"
कर कड़ा दिल चला जाऊँगा मैं अभी,
ये शकल आपको ना दिखाऊँगा मैं।"9
इन नौटंकी कलाकारों ने रामायण एवं महाभारत पर आधारित अनेक संगीतों की रचना की जो उनकी परंपरागत दृष्टि की झलक देते हैं।
कहना न होगा कि नौटंकी के माध्यम से तत्कालीन समाज में कई महत्वपूर्ण बदलाव के प्रयास किए गए, जो सफल भी हुए। इन सभी प्रयासों के मूल में भारतीय समाज में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने के साथ उन्हें अपनी जमीन से जोड़े रखने की भावना कार्य कर रही थी। इस कारण इन नौटंकी कलाकारों ने आधुनिक विचारधारा को संप्रेषित करने के साथ-साथ अपनी मूल परंपराओं के संरक्षण एवं पोषण का कार्य भी किया। साथ ही अंधी आधुनिकता की दौड़ में अपने मूलभूत परंपराओं और मूल्यों को अनदेखा करने वालों को यह सीख दी कि -
चाँद पर बाद में जाना ओ जमाने वालों।
पहले धरती पे तो चलने का तरीका सीखो।।
अख्तर कानपुरी
संदर्भ-ग्रंथ सूची
1. इतिहास, परंपरा और आधुनिकता, लेखक - विद्यानिवास मिश्र, संपादक - दयानिधि मिश्र, वाणी प्रकाशन, पृष्ठ संख्या- 53
2. आधुनिक बोध, रामधारी सिंह दिनकर, पंजाबी पुस्तक भंडार, दिल्ली प्रथम संस्करण, 1976, पृष्ठ संख्या-36
3. इतिहास परंपरा और आधुनिकता, लेखक - विद्यानिवास मिश्र, संपादक - दयानिधि मिश्र, वाणी प्रकाशन, पृष्ठ संख्या-30
4. सांगीत गरीब हिंदुस्तान उर्फ फूट का अंजाम, लेखक पंडित नथाराम शर्मा गौड़, श्याम प्रेस हाथरस, पृष्ठ संख्या-17
5. सांगीत निहालदे, प्रथम भाग, लेखक - पंडित नथाराम शर्मा गौड़, श्याम प्रेस हाथरस-पृ. संख्या-6
6. सांगीत श्रीमती मंजरी, लेखक पंडित नथाराम शर्मा गौड़, श्याम प्रेस हाथरस-पृष्ठ संख्या-37
7. सांगीत गरीब हिंदुस्तान उर्फ फूट का अंजाम, लेखक पंडित नथाराम शर्मा गौड़, श्याम प्रेस हाथरस, पृष्ठ संख्या-6
8. सांगीत भक्त पूरनमल उर्फ सप्त सागर, लेखक - पंडित नथाराम शर्मा गौड़, श्याम प्रेस, हाथरस, पृष्ठ संख्या-5
9. सांगीत निहालदे प्रथम भ़ाग, लेखक - पंडित नथाराम शर्मा गौड़, श्याम प्रेस हाथरस, पृष्ठ संख्या-6