बस एक झटके से रुकती है। मैं अद्र्धनिद्रित स्थिति में इधर-उधर देखता हूँ। लम्बे घेरे की सलवार और खुली बाहों का कुरता पहने,पैरों में फटी-पुरानी जूती डाले अधेड़ उम्र का एक देहाती बस में सवार होता है। कंडक्टर पूछता है—बाबा कहाँ जाना है? तो कुरते की जेब में हाथ डालता दीनता से कहता है—टैकसला जी! मैं घबराकर चारों तरफ देखता हूँ। मेरा अस्तित्व सीट की गिरफ्त से निकलकर फैलने लगता है। सनसनाती हवा लगातार बड़बड़ाती है—टैकसला...टैकसला....टैकसला...! बस तेजी से दौड़ती चली जा रही है। कटे-फटे ज़$ख्मी मैदान, बंजर ज़मीन, इक्का-दुक्का पेड़ पीछे छूटते जा रहे हैं।
अब कोई हदबन्दी नहीं, मैं पूरे मैदान पर छा रहा हूँ। दिमाग में लहलहाता जंगल उभर रहा है। कमरे में सूर्य की किरणें चारों ओर फैल चुकी हैं। कलाकार तल्लीन होकर मूर्ति पर झुका हुआ है। उसे समय का भान नहीं। दीपक जगमगाने लगे। अपने काम से आश्वस्त हो, अँगड़ाई लेता वह पीछे हट गया। पत्थर के उस टुकड़े में जीवन जन्म ले चुका था। मूर्ति के चेहरे से असीम मुसकान,खुशी और उल्लास की किरणें बिखर रही थीं। कलाकार प्रफुल्लित होकर कुछ क्षण मूर्ति को देखता रहा, फिर झुककर उसने मूर्ति के चरण छू लिये।
देवदासी कौशल्या दबे-पाँव अन्दर आयी। कुछ क्षण उसे श्रद्धा और सम्मान से देखती रही, फिर झुककर उसने उसे प्रणाम किया। कलाकार ने उसे कन्धे पकडक़र उठाते हुए कहा—‘‘तुम तो देवी हो!’’ देवदासी बोली—‘‘तुम महान कलाकार हो! तुमने भगवान को नया जीवन दिया है!...’’
कलाकार ने कहा—‘‘मैं तो महात्मा की मूर्ति में भी तुम्हें ही तराशता हूँ। तुम्हारा अस्तित्व ही मन्दिर का जीवन है!’’ दोनों चुपचाप एक-दूसरे को देखते खड़े रहे। कोमल, मदभरी शाम उनके गिर्द नाचने लगी।
शाम को कलाकार मन्दिर में गया, तो पूजा का दूसरा नृत्य शुरू हो चुका था।
कोकिलकंठी कौशल्या अपने मधुर स्वर में रस घोलती चारों दिशाओं में आवाज़ दे रही थी :
ऐ आने वालो! आओ!
यह धरती तुम्हें पुकारती है!
मेरी पवित्र माँ, जो ज्ञान का द्वार है,
अपनी छातियों में सरकते दूध से
तुम्हारी रगों में कला का लहू दौड़ाएगी!
तुम्हें नया जन्म देगी!
इस महान धरती के महान निवासी
हर आने वाले का स्वागत करते हैं...!
मेरी माँ! मेरी धरती! मैं बड़बड़ाता हूँ। मेरा साथी मुझे विस्मय से देखता हुआ पूछता है—‘‘क्या आपकी माँ बीमार है...?’’ मैं सिर हिलाता हूँ। मेरा अस्तित्व फिर फैलने लगता है।
हम तीनों नदी के किनारे नरम-नरम घास पर लेट गये। जब दयाशंकर ने पूछा कि इस समय कामिनी कहाँ होगी, तो मदनमोहन ने बाँसुरी नीचे रख दी और उसकी आँखों में बादल घिर आये। मेरी आँखों में भी राधा टिमटिमाने लगी। उसने मेरे सीने से चिपटकर रोते हुए पूछा था—‘‘लौटकर कब आओगे? आखिर क्यों जा रहे हो?’’ मैंने कहा था—‘‘ज्ञानार्जन करने। मैं वहाँ से विद्या का, भगवान का नूर लेकर लौटूँगा।’’
हमने अपना-अपना बोझ उठाया और चल पड़े। मोहन ने सवाल किया—‘‘हम क्या हैं? मनुष्य क्या है?’’ जब दयाश्ंाकर ने कहा कि इस समय जंगल में यह सवाल कितना अजीब लगता है, तो मोहन बोला—‘‘हम इन पेड़ों की तरह एक-दूसरे के पास हैं और अकेले भी। हम कौन हैं, क्या हैं, यह जानने के लिए ही तो हम हजारों कोस की इस यात्रा का कष्ट सहन कर रहे हैं।’’ कामिनी कहती थी—‘‘मैं जीवन भर तुम्हारी राह देखूँगी!...पगली कहीं की! भला विद्या के अथाह सागर से भी कभी कोई लौटा है!’’
‘‘ऐ ज्ञान के अथाह सागर के खोजियो! हम सब चक्करों में घूम रहे हैं। आत्मा चक्करों की इस यात्रा में पापों से छूटकर अपना कल्याण करती है। इच्छा का अन्त ही जीवन की इस कठिन राह का अन्त है...’’
हम चुपचाप विश्वविद्यालय की सीढिय़ाँ उतरने लगे...सायंकाल नगर के निवासी विश्वविद्यालय के बड़े द्वार पर आ जाते और दो-दो, चार-चार विद्यार्थियों को भोजन के लिए अपने साथ नगर में ले जाते। हमने पंडित चन्द्र के छोटे-से घर में प्रवेश किया, तो उनके परिवार के सभी लोगों ने आंगन में आकर हमारा स्वागत किया। पंडितजी की पत्नी ने हमें प्रेम से भोजन कराया। रात में जब हम लौट रहे थे, तो मोहन बोला—तक्षशिला वाले कितने महान हैं...! सवेरे दयाशंकर ने मुझे झिंझोडक़र जगाया—‘‘उठो! गुरुदेव प्रकट होने वाले हैं!’’ मैं हड़बड़ाकर बाहर निकला।
‘‘मेरे बच्चो! निद्रा मनुष्य के जीवन की मृत्यु है, जो उसे चक्कर में खींच लेती है। मनुष्य निद्रा के झाँसे में आकर ज्ञान के मार्ग से हट जाता है। आत्मा भगवान का सुन्दर रूप है, जो कभी मर नहीं सकता...’’
मैं आँखें मलता हूँ। बस तेजी से दौड़ रही है...
पाठशाला में गहरी निस्तब्धता छायी है। विद्यार्थी अपनी-अपनी कुटी में हैं। हम तीनों बड़े द्वार की दीवार से सटे खड़े हैं। दो सिपाही आपस में मजाक़ करते हुए निकलते हैं, तो मोहन मुठ्ठियाँ भींचकर बड़बड़ाता है—‘‘अम्बी कुत्ते...!’’ दयाशंकर कहता है—‘‘सुना है, चार हजार बैल काटे गये हैं...?’’ हम तीनों बा$जार की तरफ निकल जाते हैं। दूर-दूर तक लोगों के सिर ही सिर नज़र आते हैं। तम्बुओं के बाहर सिपाही जोर-जोर से बातें करते जाँघें खुजला रहे हैं। दयाशंकर मुँह सिकोडक़र कहता है—कुत्ते...! हम वापस लौटते हैं। पंडित चन्द्र हमें मिलते हैं। वह निराशा से सिर हिलाते हुए कहते हैं—अम्बी देशद्रोही निकला...! उनके साथ देवदासी कौशल्या है। वह दोनों हाथ जोडक़र हमें प्रणाम करती हुई कहती है—सुना है, बड़े दरिया के किनारे पोरस इनकी राह देख रहे हैं।
मोहन भावाभिभूत होकर कहता है—‘‘वह इस धरती का सच्चा सपूत है...!’’ हमारे चेहरे खिल उठते हैं। देवदासी दोनों हाथ जोडक़र हवाओं में किसी को सिर झुकाकर कहती है—‘‘हे भगवान! पोरस तेरा बेटा है! इस धरती का सपूत है! हे प्रभु! उसे शक्ति दे!’’
‘‘सिकन्दर कुत्ते! मैं तुझसे घृणा करता हूँ! मेरा नायक पोरस है!’’
‘‘जी, क्या फरमाया?—मेरा साथी पूछता है।’’
‘‘कुछ नहीं! मैं इन्कार में सिर हिलाता हूँ।’’
मोहन भागता हुआ आता है। कहता है—‘‘तुमने सुना, पोरस के हाथी हमें ले डूबे...!’’ मैं सिर हिलाता हूँ—हमारी बुद्धि हमें मार गयी...! दयाशंकर पूछता है—‘‘पोरस का क्या हुआ है...?’’ मोहन दोनों हाथ फैलाकर कहता है—‘‘उसने सिर नहीं झुकाया...!’’ शंकर उछलकर खड़ा हो गया—‘‘धरती के महान सपूत पोरस, मैं तुम्हारे आगे अपना शीश झुकाता हूँ!’’ हमारे सिर झुक जाते हैं। पीड़ा की टीस मेरे सारे बदन में दौड़ जाती है। मेरा झुका हुआ सिर सामने वाली सीट से टकरा जाता है। मेरे चारों ओर चीखों का समुद्र है। धरती काँप रही है। मकान और गलियाँ एक-दूसरे के गले मिल रहे हैं। मेरे अस्तित्व पर लहू के गर्म-गर्म छींटे फैल रहे हैं...
‘‘मुझे बचाओ! मैं डूब रहा हूँ...!’’ मेरे कदमों में दम तोड़ता शहर चीख रहा है। मैं पागलों की तरह चारों तरफ दौड़ता हूँ। एक धमाका होता है। बड़े मन्दिर की दीवारें नीचे आ रही हैं। उसके पीछे-पीछे भगवान की मूर्ति है और उससे चिपटी हुई कौशल्या। एक धमाका होता है। मैं आँखें बन्द कर लेता हूँ। चीखें अब सर्द हो रही हैं। लहू की बूँदे जमने लगी हैं। पत्थरों की गडग़ड़ाहट दम तोड़ रही है। मैं चीखता हूँ—‘ऐ महानगर! तू कहाँ है?’
धरती खिलखिलाकर हँसती अपनी बाँहें खोल देती है। सारा शहर मुस्कराता-गुनगुनाता हुआ उसके आगोश में सो रहा है। मैं उसकी ओर लपकता हूँ, तो धरती कहती है—‘‘न-न, मेरे बच्चे को आराम करने दो! बहुत थक गया है...!’’ और धरती उसे अपने आगोश में लिए गहरी नींद सो जाती है। मैं बड़बड़ाता हूँ—‘मैं काई बनकर, खून के छींटे बनकर, अनन्त काल तक इन दीवारों से चिपटा रहूँगा! हर आने वाले को तेरी महानता की कहानियाँ सुनाता रहूँगा...! मैंने काल को पराजय दी है। मैं पत्थरों, दीवारों और टीलों पर आज भी मौजूद हूँ।’
‘‘मेरे बच्चों! ये खँडहर उस गुनगुनाते नगर के साक्षी हैं, जो कभी विद्या और कला और साहित्य का पालना था।’’ प्रोफेसर सलीम की आवाज़ डबडबा गयी।
इनायत अल्लाह ने कहा—‘‘मौत कितनी भयानक चीज होती है!’’
‘‘हाँ, वह इनसानों की तरह नगरों पर भी नाजिल होती है!’’
दीवार की तरल सुगन्ध कितनी प्यारी है! इनायत ने दीवार पर हाथ फेरा। दीवार की ओट में मैले-कुचैले, फटे कपड़े पहने, कम्बल लपेटे कोई व्यक्ति दबे-पाँव हमारे पास आया और बोला—‘‘सा’ब, लेगा...?’’ मैंने झपट कर उसके हाथ से मूर्ति ले ली। गौतम बुद्ध की एक सुन्दर मूर्ति थी। वह फिर बोला—‘‘पाँच रुपये! मेरे पूछने पर कि यह तुम कहाँ से लाये।’’ उसने कहा—‘‘धरती में से निकला है,सा’ब...!’’ इनायत ने मेरे कान में कहा—‘‘किसी मन्दिर से चुरा लाया होगा...!’’ मैं सिसक पड़ा—‘‘मत बेचो! $खुदा के लिए इसे मत बेचो! यह तो तुम्हारे महान अतीत की साक्षी हैं! इसे भी बेच दिया, तो फिर तुम्हारे पास रह ही क्या जाएगा...?’’
वह तीन रुपये में ही बेचने को तैयार हो गया, किन्तु इनायत ने उसके हाथ में पाँच का नोट रख दिया। उसकी बाछें खिल गयीं। लम्बा फर्शी सलाम क र वह दीवार की ओट में उतर गया। इनायत ने कहा—‘‘जानते हो, अब यह क्या करेगा? ठर्रे की बोतल और जुआ...!’’ उसने उदासी से कन्धे सिकोड़े—‘‘एक महान माँ, तेरे बेटों को क्या हो गया! किसी की नज़र खा गयी इन्हें...?’’ हम दीवार के साथ टेक लगाकर बैठ गये। इनायत ने दीवार पर हाथ फेरते हुए कहा—‘‘लम्बी यात्राओं का कष्ट सहकर लोग यहाँ कितनी दूर-दूर से आते होंगे! शायद हम भी कभी आये हों!’’
मैंने उसकी आँखों में झाँका, वहाँ दो दीये टिमटिमा रहे थे—हम सारे तमाशे के गवाह हैं। हम अपनी फना और मौत के गवाह हैं। एक के बाद दूसरा आता है। दूसरे के बाद तीसरा। आख़िरी के बाद फिर एक ही आएगा। है न!
मैंने मूर्ति को दीवार में बने ताक में सजा दिया, फिर कहा—‘‘चलो, चलेें।’’ कंडक्टर घंटी बजाता है। बस की रफ़्तार सुस्त पड़ जाती है।
‘‘टैक्सला...टैक्सला...!’’ कंडक्टर चीखता है, सामनेवाला बूढ़ा तेजी से दरवा$जे की ओर लपकता है। मैं खिडक़ी से झाँकता हूँ। हाथों में झाबडिय़ाँ उठाये, छोटे-छोटे बच्चों की भाँति-भाँति की आवा$जें—शरबत! केला! सिगरेट...इन बच्चों को स्कूल में होना चाहिए था! आँखें धुएँ की एक लम्बी रेखा पर ठहर जाती हैं।
‘‘यह धुआँ...यह धुआँ...?’’ मैं बड़बड़ाता हूँ।
‘‘यह चाइनीज हेवी काम्प्लेक्स है...पाकिस्तान के शानदार भविष्य का साक्षी!’’ मेरा साथी बताता है—‘‘शीघ्र ही यहाँ एक रशियन हेवी कॉम्प्लेक्स भी लगने वाला है! अब तो फौलाद कारखाना भी यहीं लगेगा।’’
मुझ पर जनून की-सी स्थिति छा जाती है। मैं घूम-घूमकर चारों तरफ देखता हूँ। दूर-दूर तक फैले मैदान बंजर बनकर कैद से रिहा हो रहे हैं। शुष्क पहाडिय़ाँ हरियाली को गले लगा रही हैं।
उसने कहा था, ‘‘हाँ-हाँ, मेरा बच्चा थक गया है! उसे आराम करने दो! वह एक दिन अवश्य जागेगा!’’
‘‘हाँ-हाँ, मुझे याद है!’’ मैं बड़बड़ाता हूँ! मुझे महसूस होता है, सारे प्रदेश पर धुएँ की चादर तनती चली जा रही है। मैं सूँघता हूँ...धूएँ का कसैलापन...सोंधापन। मैं तो इसके लिए तरस गया था। मैं लम्बी-लम्बी साँसें लेकर उसे नस-नस में भर लेता हूँ मेरी धरती, मेरी माँ का स्पर्श...मेरे अन्दर जीवन की नई उमंग, नई लहर दौड़ उठती है। मुद्दतों का सोया यह महान नगर आँखें मल रहा है। मुझे उसकी साँसों की आवाज़ सुनाई देती है। धरती गहरी-गहरी साँसें ले रही है। मैं खुशी से नाचने लगा हूँ...टैक्सला साँस ले रहा है! और चारों ओर फैली हुई हवा मेरे साथ नाचती हुई मेरे शब्द दुहराती है। टैक्सला साँस ले रहा है!