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कहानी

एक मूँछप्रेमी का कबूलनामा

दिनेश कर्नाटक


कल्पना कीजिए, आपकी शादी को वर्षों बीत चुके हों। आप दोनों के बीच का प्रेम बच्चों की पढ़ाई-लिखाई, नौकरी की आपाधापी, घर के राशन-पानी और मँहगाई के बीच कहीं गुम चुका हो! तभी एक दिन सुबह-सुबह आपकी पत्नी अचानक आपकी ओर मुस्कराते हुए तिरछी नजर से देख रही हो और मौका मिलते ही शरारत करने से भी न चूक रही हो। आप के सीने की धड़कन अचानक बढ़ चुकी हो। और आप दोनों विवाह के बीस साल बाद; विवाह के पहले साल की जैसी गर्मजोषी से भर जाएँ तो क्या आप चैंकेंगे नहीं? सच मानिए एक दिन मेरे साथ ऐसा हुआ! अब आप पूछेंगे कि जनाब, हमें भी बताइए, ऐसा हुआ कैसे? दरअसल, उस दिन सुबह मैंने एक बहुत बड़े बदलाव का निर्णय लिया था। अपनी जिन मूँछों पर मुझे काफी गर्व था और जिन्हें मैंने कभी बड़ी हसरत से बढ़ते हुए देखा था। अपने ही हाथों से-जी हाँ, अपने ही हाथों से हमेशा-हमेशा के लिए खत्म कर दिया था!

वैसे भी यह दिन मेरे लिए मामूली नहीं था। मुझे अपने किसी जरूरी काम के सिलसिले में दो ऑफिसों में जाना था, जिसके कारण मैं कई दिनों से तनाव में था। एक ओर मेरा सामना हमेशा खीझे रहने वाले बाबुओं से होना था, जिनसे मैं कई बार लड़कर हार चुका था। दूसरी ओर इक्कीसवीं सदी में जमींदारों के युग में जी रहे एक शीर्ष अधिकारी से मुझे मिलना था। जी हाँ, आपकी तरह मैं भी किसी काम के लिए सरकारी ऑफिसों में जाने की कल्पना मात्र से ही घबरा जाता हूँ। मुझे लोगों से गर्मजोषी से मिलने तथा यथासंभव उनकी सहायता करने की आदत रही है, लेकिन आप जानते हैं, ऑफिसों के हमारे अनुभव ऐसे नहीं होते। आपकी तरह मैं भी झगड़े और कड़ुवी बातचीत से बचना चाहता हूँ। इसी कारण ऑफिस में पहुँचकर प्रायः मैं अपने काम के बारे में डिस्पैच में ही पता कर लेता हूँ। लेकिन सच तो यह है कि डिस्पैच वाला भी न जाने किस बात से तमतमाया रहता है और कई बार उससे बातचीत का अनुभव भी अच्छा नहीं रहता।

बात तब की है, जब मैं इंटर का विद्यार्थी था और मेरा ध्यान पढ़ाई से ज्यादा फिल्मों में था। उन्हीं दिनों अनिल कपूर की चमेली की शादी, मशाल, तेजाब तथा मिस्टर इंडिया जैसी फिल्मों ने धूम मचा रखी थी। अनिल कपूर ने अमिताभ बच्चन के बाद बेरोजगारी, निराशा और असफलता से पैदा हुए हमारे आक्रोश और गुस्से को पर्दे पर अभिव्यक्ति देने का जिम्मा ले लिया था। माधुरी हर फिल्म में अनिल को जीत जाने का भरोसा दिलाती रहती थी। हमारे दोस्त माधुरी की मुस्कान और उसकी अदाओं पर फिदा थे तथा उसकी तलाश अपने आस-पास की लड़कियों में किया करते थे। जबकि मैं किसी और चीज पर फिदा था और वह थी अनिल कपूर की मूँछें! मुझे हर समय लगता, मूँछें हों तो अनिल कपूर जैसी... जो होठों के ऊपर खपरैलों की तरह छाई रहें! मैं जानता हूँ आप तुरंत मुझे नत्थू लाल की याद दिलाना चाहेंगे जबकि उसका जमाना काफी पीछे छूट चुका था। यह अनिल की मूँछों और माधुरी की मुस्कान का जमाना था।

उन दिनों कुछ बूढ़े-बुजुर्ग हिटलर कट तो कुछ लोग पुराने अभिनेताओं की तरह ऊपर-नीचे से कुतरी हुई पतली मूँछें रखते थे। सच बताऊँ तो उन सब पर मुझे तरस आता था। वे सब मुझे शोले के असरानी और सूरमा भोपाली की तरह परम चूतिए लगते थे। बहुत से लोग अपने चेहरे पर मूँछें नहीं रखते थे। उन्हें देखकर मैं सोचता था, कोई भी आदमी, अगर वह वास्तव में आदमी है तो अपनी मूँछों को कैसे उड़ा सकता है? यह मेरी कल्पना से परे था। मुझे लगता था, मूँछें ही उन एक-दो चीजों में से है जिसके कारण औरत और आदमी के बीच का अंतर समझ में आता है। तब मैंने मन ही मन तय कर लिया था, चाहे कुछ भी हो जाए, मैं अपनी मूँछें कभी नहीं उड़ाऊँगा!

समय के साथ मेरे चेहरे पर मूँछों की हल्की फिर खूब घनी पैदावार हुई। वर्षों तक मैंने उन्हें अनिल कपूर की तरह रखा। हर दो-तीन दिन बाद मैं बड़े मन से उनकी कटाई-छटाई किया करता था। पेड़-पौधों से प्यार करने वाले माली की तरह! धीरे-धीरे अनिल कपूर के साथ-साथ गोविंदा, आमीर खान, शाहरुख, सलमान जैसे सितारे लोगों के दिलों में राज करने लगे। अनिल कपूर और उसकी मूँछों की जगह गोरे-चिकने चेहरे लेने लगे। एक बार किसी फिल्म में, जब अनिल कपूर ने भी अपनी मूँछें उड़ा दी तो मुझे गहरा झटका लगा। कई दिनों तक मैं सदमे में रहा। जैसा कि मैंने पहले भी कहा था, मैं माना करता था, आदमी का रंग-रूप तथा जीवन कैसा भी क्यों न हो, उसकी असली षान मूँछों से होती है। लेकिन धीरे-धीरे मैं गलत साबित होता जा रहा था। लोगों के चेहरों से मूँछें गायब होती जा रही थी। यह दौर मेरे लिए काफी दर्द और बेचैनी का दौर था। सच कहूँ तो उन दिनों मैं विकल्पहीनता और अवसाद का शिकार हो चुका था। इस तरह से किसी की आस्था का उसकी आँखों के सामने मटियामेट होना कोई मामूली बात नहीं थी।

वर्षों तक एक ही अंदाज में मूँछों को रखने और मूँछ वाले लोगों के कम होते चले जाने के कारण अब मैं भी अपनी मूँछों से ऊबने लगा था। मुझे अब उनमें कोई संभावना नजर नहीं आती थी। ऊपर से समय की लगातार होती कमी के कारण रोज की कटाई-छटाई अब मुझे परेशान करने लगी थी। कई बार तो मूँछ का कोई बाल कैंची में फँस जाता और मैं तिलमिलाकर रह जाता था। लेकिन मूँछों के प्रति अब भी मेरे दिल में वही इज्जत और सम्मान था। लगातार हो रही असुविधाओं से बचने के लिए मैंने एक नायाब तरीका ढूँढ़ निकाला था। अब मैं रविवार के दिन कैंची की सहायता से मूछों को जड़ से उड़ा देता था। इससे हल्की सी मूँछें भी बनी रहती और हफ्तेभर तक मुझे कटाई-छटाई भी नहीं करनी पड़ती थी। सालों तक यह चलता रहा।

धीरे-धीरे फिल्मों को लेकर मेरी दिवानगी खत्म होती जा रही थी। मैंने फिल्में देखना भी काफी कम कर दिया था। नए हीरों लोगों को देखकर, एक बात तो साफ हो चुकी थी कि मूँछों का स्वर्णयुग अब समाप्त हो चुका था।

बात उस अपूर्व दिन के सुबह की है, मैंने मूँछों को ठिकाने लगाने के लिए कैंची पकड़ी ही थी कि आर्किमीडीज की तरह मेरे दिमाग में एक जोरदार विचार आया कि क्यों न आज रेजर को दाढ़ी पर चलाने के साथ ही मूँछों पर भी चला दिया जाए। ऐसा करने से मूँछों पर अलग से कैंची चलाने का बवाल भी हमेशा के लिए समाप्त हो जाएगा। जैसा कि मैं पहले कह चुका हूँ, कैंची काफी पुरानी हो चुकी थी और आए दिन मूँछ के बालों को नोचकर मुझे कई बार रूला चुकी थी। यह सब सोचते हुए अचानक मुझे अतीत में मूँछों के प्रति व्यक्त किए गए अपने संकल्प याद आए। यह भी याद आया कि कैसे मैं मूँछों के लिए लोगों को प्रेरित करने के लिए एक से बढ़कर एक नायाब दलीलें दिया करता था और चाहता था, सब मेरी तरह मूँछों की इज्जत करें। मुझे लगा ऐसे यक्ष प्रश्न जिनसे मैं उस समय घिरा हुआ था, लोगों के सामने भी आते होंगे। जब पुराने वादे निभाना मुश्किल हो जाता होगा और इनसान एक बड़े धर्मसंकट में फँस जाता होगा। फिर मुझे ख्याल आया, आदमी जिंदगी भर एक ही तरह से सोचता और हँसता-बोलता तो नहीं रह सकता। समय के साथ उसकी कई चीजों में बदलाव आता रहता है। तो उस दिन मैं भी ऐसे ही एक बदलाव के मुहाने पर खड़ा था। और मैंने बदलाव के पक्ष में जाना पसंद किया।

और अपने जन्म के ठीक छियालिस साल बाद मैंने अपनी मूँछों पर रेजर चला दिया। सबसे पहले पत्नी की मुझ पर नजर पड़ी और जैसा कि मैं पहले बता चुका हूँ वह मुझे देखकर विवाह के पहले साल की तरह मुस्कराने लगी। यह मेरे लिए हौंसला बढ़ाने वाली बात थी।

पहले वाले ऑफिस में गया तो डिस्पैच वाला खुश नजर आया। मेरे लिए यह किसी स्वप्न को देखने जैसा था। और, मैं तो जैसा कि आपको पता है पहले से ही खुश था। डिस्पैच वाले से अच्छी बातें हुई। उसने न सिर्फ मेरे काम के बारे में ध्यान से सुना बल्कि मुझे सांत्वना देते हुए व्यवस्था को भी गरियाया! मैं भी ऑफिस आने वाले हर आदमी की तरह उसकी हाँ में हाँ मिलाते हुए उसको दाद देता रहा। अपनी बात खत्म कर उसने मुझसे संबंधित बाबू से मिलने और काम में किसी तरह की अड़चन होने पर संपर्क करने को कहा। बगैर किसी तरह की जान-पहचान, दोस्ती और रिश्तेदारी के उसकी इस आत्मीयता ने मुझे भाव-विभोर कर दिया। बाबूजी को देखते ही मैंने अभिवादन में सिर झुका दिया। उसने भी तपाक से हाथ जोड़ दिए और मेरा हाल-चाल पूछने लगा। मैं फिर से विस्मित! हिम्मत जुटाकर काम के बारे में पूछा तो कहने लगा, 'चिंता न करें आप का काम मेरे ध्यान में है... इस बीच चुनावों की वजह से नहीं कर पाया... एक-दो घंटे इंतजार कर सकते हैं तो हाथों-हाथ ले जाइए... वरना अब आप जब भी आएँगे, आप को अपना काम तैयार मिलेगा!'

'आप ने कह दिया, मैं आश्वस्त हो गया!' मैं गद्गद हो उठा और अपने काम को भी भूल गया। मुझे उसका पक्ष सही मालूम हुआ। वैसे भी वह कुछ देर रुकने के लिए कह रहा था। इसलिए उस पर शक करने का कोई कारण नहीं बचा था।

'ठीक है, लौटते हुए आपके पास आ जाऊँगा!'

जब सब कुछ ठीक ही चल रहा था तो अचानक मुझे अपने एक सहकर्मी का काम याद आ गया और मैं संबंधित बाबू के पास चला गया। वह किसी काम में व्यस्त था। उसे 'नमस्कार' कहकर मैं चुपचाप सामने की कुर्सी पर बैठ गया। थोड़ी देर बाद उसने मुस्कराते हुए मेरी ओर देखा। मुझे फिर एक जोरदार झटका लगा। कहाँ मैं उससे काम के बारे में भूमिका बाँधने के बारे में मन ही मन सोच रहा था, जबकि वह मुस्कराते हुए मेरी ओर मुखातिब था।

मैंने सब से पहले उसके सामने अपनी जिज्ञासा रख दी - 'बाबूजी, एक बात बताओ! आज आपके ऑफिस के सभी लोग बदले-बदले से नजर आ रहे हैं, जिसके पास जाता हूँ, वही बड़े प्यार से मिल रहा है। ध्यान से समस्या को सुन रहा है। भाई, ये चमत्कार कैसे हो गया!'

'देखिए, भाई साहब औरों की तो मैं नहीं जानता। लेकिन मैं हमेशा अपने उन दिनों को याद रखता हूँ, जब मैं बेरोजगार था और एक अदद नौकरी के लिए तरसा करता था। आप बताइए हम तनखा किस बात की लेते हैं? क्या काम करके हम किसी पर एहसान कर रहे हैं? इसी बात की तो हमें तनख्वाह मिलती है। मेरा तो उसूल है कि जो भी मेरे पास काम के लिए आता है, अपनी पूरी सामर्थ्य के साथ जल्दी से जल्दी उसका काम निपटाने की कोशिश करता हूँ। काम होने पर उसके चेहरे पर जो खुशी और धन्यवाद का भाव होता है, उससे मुझे बड़ी तृप्ति मिलती है!'

उसका जवाब सुनकर मैं आश्चर्य में पड़ गया और मैंने अपना सिर जोर से झटका। मैं सोया हुआ नहीं था और न ही कोई स्वप्न देख रहा था। वास्तव में मैं एक ऑफिस के अंदर था, जहाँ कई कर्मचारी अपनी सीटों पर बैठे थे और कई लोग अपने कामों के लिए उनके इर्द-गिर्द मंडरा रहे थे।

'क्या बात है?' मैं उसको दाद दिए बगैर न रह सका।

'अरे साहब, हमारा क्या है... हमको समय से वेतन... मिल जाता है कितने लोग हैं, जिनको रोटी तक मयस्सर नहीं है। करोड़ों लोग हमारे महीने भर के चायपानी के खर्चे के बराबर मामूली आमदनी से अपनी बसर कर रहे हैं। हमारे पास तो लोगों की सेवा करके पुण्य कमाने का मौका भी है!'

'क्या बात है?' मैंने फिर से दोहराया। मैं अभिभूत था तथा भावुकता के कारण कुछ भी कह पाने की स्थिति में नहीं था। 'हमारे मित्र विनय कुमार जी का एक मामला आप के पास है, जरा देखिए तो, क्या स्थिति है?'

'अरे साहब, कागज मेरे पास आया होगा तो काम हो चुका होगा!'

वह एक फाइल में कागजों को पलटने लगा और कुछ ही देर में उसने एक कागज मेरी ओर बढ़ा दिया। कागज में साहब के हस्ताक्षर थे। मैंने तपाक से पचास का नोट निकालकर उसकी ओर बढ़ा दिया। दोस्त ने कहा था, 'दे देना, कई काम पड़ते हैं!'

'अरे साहब, रखिए कौन सा बड़ा काम है?'

'देखिए साहब, यह मैं अपने मित्र की खुशी से दे रहा हूँ। वैसे भी हमारे वहाँ काम होने पर भगवान के आगे तक चढ़ावा चढ़ाने का रिवाज है। आप और हम तो मामूली से इनसान हैं!'

'नहीं साहब, अपने दोस्त से कहिएगा... मेरी ओर से बच्चों को कोई चीज दिलवा दें!'

'क्या बात कर रहे हैं?' मुझे फिर एक छटका सा लगा था। 'चलिए, आप जो सही समझें!'

वहाँ से मैं खुशी-खुशी बड़े ऑफिस की ओर को चल पड़ा, जहाँ मुझे बड़े साहब से मिलना था। मैंने अपने जीवन में ऐसे साहब लोग कम ही देखे हैं, जो हम जैसे साधारण लोगों से सीधे मुँह बात करते हों। पता नहीं, हम लोगों से बात करने में उनके सिर में दर्द क्यों शुरू हो जाता है? पता नही हम लोगों को देखते ही उनका मुँह क्यों फूल जाता है? हालाँकि इनकी बिरादरी में कुछ लोग सहज, सरल और विनम्र होते हैं। उन लोगों के लिए राजा भतृहरि ने कहा है, 'सत्ता होते हुए साधु होना महानता का गुण है।'

मेरा अनुभव रहा है कि जितनी देर आप साहब लोगों के सामने रहते हैं, वे अपनी खास तरह की भाव-भंगिमा से आपको आपकी औकात याद दिलाते रहते हैं। वे आप से बात भी करते हैं तो ऐसा लगता है मानो अपना समय बरबाद कर रहे हों। उनके चेहरे में ऐसे भाव बने रहेंगे मानो आपका उनके सामने होना कोई बुरी घटना हो। इसी बीच अगर उनका कोई साथी आ जाए तो देखिए वे कैसे बदल जाते हैं? आँखों ही आँखों में वे उनको बता देते हैं, 'क्या करें, फँसे हैं इन बेवकूफों के बीच!' उस समय आपको लगता है, 'धरती फट जाए और आप सीता मैया की तरह उसमें हमेशा के लिए समा जाएँ!'

बड़े ऑफिस में पहुँचकर मुझे पहली खुशी तब हुई जब पता चला कि साहब ऑफिस में मौजूद हैं। इससे पहले मैं जब भी ऑफिस आता था, पता चलता कि साहब अभी-अभी निकल गए हैं - थोड़ा देर में आने वाले हैं या दौरे पर गए हैं। मैं थोड़ी देर के लिए घंटों तक उनका इंतजार करते हुए मायूस होकर लौट जाया करता था।

हारकर मैं खुद को समझाता, 'साहब लोगों का काम हमारा जैसा थोड़ा है, उनके ऊपर कितनी बड़ी-बड़ी जिम्मेदारियाँ होती हैं, उनको कितनी चीजों पर नजर रखनी होती है?'

'लेकिन उनका ऑफिस में बैठने का समय और दिन तय होना चाहिए, लोग कितनी दूर-दूर से आते हैं?' मेरे भीतर का इनसान सवाल करता।

'तुम्हें क्या लगता है साहब तुम्हारे प्रति जिम्मेदार हैं? तुमने ऐसा सोच कैसे लिया, तुम्हारी औकात ही क्या है?' मैंने उसे लताड़ते हुए समझाया। आप तो जानते ही हैं कि इन लोगों को सीधे मुँह कही हुई बात समझ में नहीं आती।

बहरहाल मैं बड़े साहब के ऑफिस के बाहर जाकर बैंच पर बैठ गया। सामने विजिटर्स रजिस्टर देर से मेरी ओर देख रहा था। कुछ ही देर में उसको लेकर बैठा हुआ कर्मचारी भी प्रकट हो गया। अंदर से जोर-जोर की आवाजें आ रही थी। साहब किसी बात पर नाराज थे। छोटे-बड़े सभी कर्मचारी एक के बाद एक तेजी से अंदर-बाहर आ-जा रहे थे। इंतजार करते और यह सब देखते हुए एक घंटा बीत गया, जो स्वाभाविक था। डर तो यह था कि कहीं साहब इस सब के बाद उठकर कहीं को चल न दें। या इस सब के बाद कहीं गुस्से से भरकर मेरा प्रार्थना पत्र देखते ही उसे पटक न दें, 'क्या बकवास है यह!'

धीरे-धीरे अंदर की आवाजें कम होती गई। फिर वह दुर्लभ क्षण आया जब साहब ने मुझे कमरे में बुलाया। अंदर पहुँचते ही साहब ने देर होने पर खेद प्रकट किया, 'मैं जान-बूझकर किसी को इंतजार नहीं करवाता... काम ही कुछ ऐसे पड़ जाते हैं कि चाहकर भी कुछ नहीं कर पाता हूँ।'

उनकी बातों को सुनते ही मैं पानी-पानी हो गया था और मन ही मन कह रहा था, 'आप को सफाई देने की क्या जरूरत है, क्या मुझे पता नहीं है आप पर काम का कितना बोझ रहता है!' लेकिन मुझे साहब के सामने लंबा बोलने का अभ्यास नहीं था, इसलिए 'नहीं सर, मैं समझता हूँ... जी सर, यस सर...!' कहता रहा।

साहब ने मेरे ऑफिस के बारे में एक-दो सवाल पूछे और मेरे द्वारा आगे बढ़ाए गए कागज पर हस्ताक्षर कर दिए। 'धन्यवाद सर!' कहकर मैं बाहर निकला तो मुझे यकीन नहीं हो रहा था कि मेरा वह मामूली सा काम हो चुका है, जिसके लिए मैं कई दिनों से साहब के ऑफिस के चक्कर लगा रहा था। लेकिन यह सच था। किसी न किसी कमी के साथ आए दिन लौट रहा मेरा काम हो चुका था।

मेरे दिमाग में सवाल उठ रहा था, यह सब हुआ कैसे... आज से पहले तो ऐसा कभी नहीं हुआ। पहले ऑफिस वालों के रूखे व्यवहार के चलते किसी न किसी से झगड़ा हो जाता था। अचानक क्या बदल गया... ऑफिसों के बाबू और साहब लोग पहले तो ऐसे नहीं थे! बदलाव कहाँ हुआ? कहीं निजी क्षेत्र की तरह इन लोगों को भी 'पब्लिक डिंलिंग' का प्रशिक्षण तो नहीं दे दिया गया है? लेकिन ऐसी तो कोई खबर इन दिनों अखबार में नहीं थी!

अचानक मेरा ध्यान मेरी मूँछों की ओर गया। कहीं इस सबका श्रेय मेरी मूँछों को तो नहीं जाता? मूँछों वाला अनिल कपूर अपनी हर फिल्म में समस्याओं से घिरा रहता था। हर बार समाज या व्यवस्था की चौखट पर सिर पटकता, लड़ता-भीड़ता नजर आता था। समस्याएँ उसके इंतजार में रहती और पूरी फिल्म में वह उनसे जूझते रहता। कहीं मूँछें लड़ने-झगड़ने वाले आदमी की प्रतीक तो नहीं बन चुकी थी? कहीं मैं भी मूँछों के कारण एकदम लड़ने तो नहीं लगता था? कहीं मूँछों के जाने के साथ मैं भी बदल तो नहीं गया था? सच तो यह है कि मेरे अंदर भी मूँछों की अनिवार्यता को लेकर पहले जैसी जिद नहीं रह गई थी।

मैं जानता हूँ, इसे आप मेरा विचलन, पतन कहकर, मेरा मजाक उड़ाएँगे, लेकिन मुझे अपने किए पर कोई अफसोस नहीं है। यानी इतने साल तक जगह-जगह छोटी-छोटी चीजों के लिए जिस संघर्ष और जलालत से मैं गुजरता रहा, उसकी जिम्मेदार मेरी मूँछें थीं। क्या मेरे जीवन का स्वर्ण युग अब शुरू हो चुका है? आप क्या सोचते हैं, मुझे जरूर बताइएगा! आपके उत्तर की प्रतीक्षा में!

एक भूतपूर्व मूँछ प्रेमी!


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