भारतेंदु हरिश्चंद्र ने वाराणसी से कविता केंद्रित पत्रिका 'कविवचनसुधा' का प्रकाशन 15 अगस्त, 1867 को प्रारंभ किया था। इस तरह हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता के 150 वर्ष पूरे हुए। भारतेंदु 'कवि वचन सुधा' में आरंभ में पुराने कवियों की रचनाएँ छापते थे जैसे चंद बरदाई का रासो, कबीर की साखी, जायसी का पदमावत, बिहारी के दोहे, देव का अष्टयाम और दीन दयाल गिरि का अनुराग बाग। लेकिन जल्द ही पत्रिका में नए कवियों को भी स्थान मिलने लगा। पत्रिका के प्रवेशांक में भारतेंदु ने अपने आदर्श की घोषणा इस प्रकार की थी -
"खल जनन सों सज्जन दुखी मति होंहि, हरिपद मति रहै।
अपधर्म छूटै, स्वत्व निज भारत गहै, कर दुख बहै।।
बुध तजहि मत्सर, नारि नर सम होंहि, जग आनंद लहै।
तजि ग्राम कविता, सुकविजन की अमृतवानी सब कहै।"
भारतेंदु खलजनों द्वारा पीड़ित किए जानेवाले सज्जनों के प्रति संवेदना जताते हैं, वहीं यह आकांक्षा प्रकट करते हैं कि पाठक अच्छी कविता का रसास्वादन करें। भारतेंदु की यह भी कामना है कि भारत अपने खोए हुए स्वत्व को प्राप्त करे। वे नर-नारी की समानता पर भी बल देते हैं। भारतेंदु स्त्री-पुरुष की समानता के इतने बड़े पैरोकार थे कि 'कविवचनसुधा' के 3 नवंबर, 1873 के अंक में उन्होंने लिखा, "यह बात सिद्ध है कि पश्चिमोत्तर देश की कदापि उन्नति नहीं होगी, जब तक यहाँ की स्त्रियों की भी शिक्षा न होगी क्योंकि यदि पुरुष विद्वान होंगे और उनकी स्त्रियाँ मूर्ख तो उनमें आपस में कभी स्नेह न होगा और नित्य कलह होगी।" 1
'कवि वचन सुधा' में साहित्य तो छपता ही था। उसके अलावा समाचार, यात्रा, ज्ञान विज्ञान, धर्म, राजनीति और समाज नीति विषयक लेख भी प्रकाशित होते थे। इससे पत्रिका की जनप्रियता बढ़ती गई। इतनी कि उसे मासिक से पाक्षिक और फिर साप्ताहिक कर दिया गया। प्रकाशन के दूसरे साल 'कवि वचन सुधा' पाक्षिक हो गई थी और 5 सितंबर, 1873 से साप्ताहिक। 'कवि वचन सुधा' के द्वितीय प्रकाशन वर्ष में मस्टहेड के ठीक नीचे छपता था -
"निज-नित नव यह कवि वचन सुधा सकल रस खानि।
पीवहु रसिक आनंद भरि परमलाभ जिय जानि।।
सुधा सदा सुरपुर बसै सो नहीं तुम्हरे जोग।
तासों आदर देहु अरु पीवहु एहि बुध लोग।।"
'कवि वचन सुधा' में सूचना का एक नियमित स्तंभ रहता था। सूचना के अलावा नाना विषयों पर टिप्पणियाँ छपती थीं। 'कवि वचन सुधा' के 8 फरवरी, 1874 के अंक में प्रकाशित एक ऐसी ही टिप्पणी द्रष्टव्य है, "कुछ काल पहले अँग्रेज लोग जब हिंदुस्थान के विषय में व्याख्यान देते थे तब यही प्रगट करते थे कि हम लोग इस देश के लाभ अर्थ राज्य करते हैं यही चिल्ला-चिल्ला कर सर्वदा कहा करते कि हम सदैव हिंदुस्तान की वृद्धि के निमित्त विचार करते हैं कि हम लोग इस देश की वृद्धि करेंगे और यहाँ के निवासियों को विद्यामृत पिलाएँगे और राज्य का प्रबंध किस भात करना यह ज्ञान प्रजा को स्वतः हो जाएगा तब हम लोग हिंदुस्तान का सब राज्य प्रबंधन यहाँ के निवासियों को स्वाधीन कर देंगे और अंत को सब राम-राम कह कर जहाज पर पैर रख स्वदेश गमन करेंगे। यह वार्ता हम लोग अपनी गड़ी हुई नहीं कहते। पर इन्हीं अँग्रेजों की और मुख्य करके पाद्रियों के जो व्याख्यान प्रसिद्ध हुए हैं उनसे स्पष्ट प्रगट होता है कि यह प्रकार पाठकजनों के देखने में निस्संदेह आया ही होगा इसमें संदेह नहीं।"2
अँग्रेजी शासन के प्रति भारतेंदु की यह टिप्पणी बेहद तात्पर्यपूर्ण है कि भारतीयों के लाभ के लिए अँग्रेजी शासन होने का दावा खोखला था। अँग्रेज किस तरह भारत की संपदा लूट रहे थे, इसका संकेत भारतेंदु ने 'कवि वचन सुधा' के 7 मार्च, 1874 के अंक में अपनी टिप्पणी में दिया, "सरकारी पक्ष का कहना है कि हिंदुस्तान में पहले सब लोग लड़ते-भिड़ते थे और आपस में गमनागमन न हो सकता था। यह सब सरकार की कृपा से हुआ। हिंदुस्तानियों का कहना है कि उद्योग और व्यापार बाकी नहीं। रेल आदि से भी द्रव्य के बढ़ने की आशा नहीं है। रेलवे कंपनी वाले जो द्रव्य व्यय किया है, उसका व्याज सरकार को देना पड़ता है और उसे लेने वाले बहुधा विलायत के लोग हैं। कुल मिलाकर 26 करोड़ रुपया बाहर जाता है।" 3
'कवि वचन सुधा' में प्रकाशित लेख 'भुतही इमली का कन कौआ' पर राजा शिवप्रताप सितारेहिंद ने गवर्नर से शिकायत की। रही-सही कसर 'मर्सिया' के प्रकाशन ने पूरी कर दी। उससे अँग्रेजी शासन का क्रोध और बढ़ गया। भारतेंदु ने 20 अप्रैल, 1874 के अंक में शंका शोधन (स्पष्टीकरण) भी छापा, "मर्सिया में हमारे अपने ग्राहकों को शंका होगी कि वह राजा कौन था? इससे अब हम उस राजा का अर्थ स्पष्ट करके सुनाते हैं। वह राजा अँग्रेजी फैसन था जो इस अपूर्ण शिक्षित मंडली रूप अँधेर नगरी का राज करता था जब से बंबई और काशी इत्यादि स्थानों में अच्छे-अच्छे लोगों ने प्रतिज्ञा करके अँग्रेजी कपड़ा पहिरना छोड़ देने की सौगंध खाई तब से मानो वह मर गया था।"4 स्पष्टीकरण का कोई लाभ न हुआ। अँग्रेज सरकार ने 'कवि वचन सुधा' की प्रतियों की खरीद बंद कर दी। सरकार भक्तों ने भी पत्र खरीदना, पढ़ना और अपने घर में रखना बंद कर दिया, इससे 'कविवचन सुधा' को आर्थिक नुकसान तो बहुत हुआ, किंतु उसकी प्रतिष्ठा बढ़ गई। भारतेंदु ने अँग्रेजी हुकूमत के मानद दंडाधिकारी का पद भी त्याग दिया। यही क्या, उन्होंने अँग्रेज अफसरों से मिलना तक बंद कर दिया। भारतेंदु ने विलायती कपड़ों के बहिष्कार की अपील करते हुए स्वदेशी का जो प्रतिज्ञा पत्र 23 मार्च, 1874 के 'कविवचनसुधा' में प्रकाशित किया, वह समूचे हिंदी समाज का प्रतिज्ञा पत्र बन गया। उसमें भारतेंदु ने कहा था, "हमलोग सर्वांतर्यामी सब स्थल में वर्तमान सर्वद्रष्टा और नित्य सत्य परमेश्वर को साक्षी देकर यह नियम मानते हैं और लिखते हैं कि हम लोग आज के दिन से कोई विलायती कपड़ा न पहिरेंगे और जो कपड़ा कि पहिले से मोल ले चुके हैं और आज की मिती तक हमारे पास हैं उनको तो उनके जीर्ण हो जाने तक काम में लावेंगे पर नवीन मोल लेकर किसी भाँति का भी विलायती कपड़ा न पहिरेंगे, हिंदुस्तान का ही बना कपड़ा पहिरेंगे। हम आशा रखते हैं कि इसको बहुत ही क्या प्रायः सब लोग स्वीकार करेंगे और अपना नाम इस श्रेणी में होने के लिए श्रीयुत बाबू हरिश्चंद्र को अपनी मनीषा प्रकाशित करेंगे और सब देश हितैषी इस उपाय के बाद में अवश्य उद्योग करेंगे।" 5
सात वर्षों तक 'कवि वचन सुधा' का संपादक-प्रकाशन करने के बाद भारतेंदु ने उसे अपने मित्र चिंतामणि धड़फले को सौंप दिया और 'हरिश्चंद्र मैग्जीन' का प्रकाशन 15 अक्टूबर, 1873 को बनारस से आरंभ किया। 'हरिश्चंद्र मैग्जीन' के मुखपृष्ठ पर उल्लेख रहता था कि यह 'कवि वचन सुधा' से संबद्ध है। 'हरिश्चंद्र मैग्जीन' के प्रवेशांक में एक निबंध छापा - 'हिंदूज क्वश्चन टू यूरोपीयन'। यह लेख प्रश्नोत्तर शैली में है : आप इंग्लैंड के हो या हमारे? क्यों अपना घरबार छोड़कर यहाँ आ बसे? यदि आप हमारे हैं तो क्यों हमारे देश को इतनी पीड़ा दे रहे हैं...? आप किसी के नहीं हैं - फिर आपकी स्तुति करें या निंदा? आपको साधु कहें या गुरु? इसी तरह 'रिलीजन्स' शीर्षक लेख में अंधविश्वासी युवकों की खबर ली गई थी, "हमें यह देखकर खेद होता है कि हिंदू धर्म का पतन हो रहा है। हिंदू धर्म, अन्य सभी धर्मों से श्रेष्ठ है। परंतु हमारे प्रबुद्ध मित्र इसे अंधविश्वास की संज्ञा देते हैं।"6 प्रथम अंक 24 पृष्ठों में प्रकाशित हुआ। कुछ अंक बीस और बयालीस पृष्ठ के भी निकले। इसमें प्रायः अँग्रेजी भाषा में हर अंक में तीन से छह पृष्ठ होते थे। अँग्रेजी की सामग्री अधिकतर अन्य व्यक्ति लिखकर भेजते थे जिनके नाम से वह छपती थी। इसमें साहित्य, विज्ञान, राजनीति, धर्म, पुरातत्व, इतिहास आदि विषयों पर लेखों के साथ ही उपन्यास, कविता, हास्य-व्यंग्य आदि पर भी सामग्री रहती थी।
'हरिश्चंद्र मैग्जीन' जल्द ही 'कवि वचन सुधा' से भी अधिक लोकप्रिय हो गई थी तथा उस समय के मशहूर लेखक जैसे बाबू तोताराम मुंशी, ज्वाला प्रसाद, बाबू कार्तिक प्रसाद खत्री, दयानंद सरस्वती और स्वयं भारतेंदु समय-समय पर 'हरिश्चंद्र मैग्जीन' के लिए लिखा करते थे। भारतेंदु जी ने अपने लेखकों को सहायक संपादकों की मर्यादा दी। 'हरिश्चंद्र मैग्जीन' के केवल आठ अंक ही निकल सके। उन आठ अंकों में कुल 113 रचनाएँ प्रकाशित हुईं। आठवें अंक निकलने के बाद पत्रिका का नाम 'हरिश्चंद्र चंद्रिका' कर दिया गया। मुखपृष्ठ पर 'हरिश्चंद्र चंद्रिका' छपा होता था और आखिरी पृष्ठ पर 'हरिश्चंद्र मैग्जीन'।
'हरिश्चंद्र चंद्रिका' का प्रवेशांक जून 1874 में निकला। मुखपृष्ठ पर यह श्लोक और छंद छपता था -
"विद्वत्कुलाम लस्वांत कुमुदामोददायिका।
आर्याज्ञान-तमोहंती श्री हरिश्चंद्र चंद्रिका।।"
'कविजन-कुमुद-गन हिय विकासि चकोर रसिकन सुख भरै।
प्रेमिन सुधा सों सींचि भारतभूमि आलस तम हरै।।
उद्यम सु औषधि पोखि विरहिनि दाहि खल चोरन दरै।
हरिश्चंद्र की यह चंद्रिका पर कासि जग मंगल करै।।"
'हरिश्चंद्र चंद्रिका' में हठीकृत राधा सुधा शतक, भारतेंदु जी का धनंजय विजय व्यायोग, गदाधर सिंह कृत कादंबरी, लाला श्रीनिवास दास कृत तप्सासंवरण नाटक आदि प्रकाशित हुए। भारतेंदु का 'पाँचवा पैगंबर', मुंशी कमला सहाय का 'रेल का विकट खेल', मुंशी ज्वाला प्रसाद का 'कलिराज की सभा' आदि रचनाएँ भी उसमें छपे। पुरातत्व संबंधी लेख भी उसमें प्रकाशित किए जाते थे। कुछ पृष्ठों में अँग्रेजी रचनाएँ भी प्रकाशित होती थीं। कविता में ही मूल्यादि का विवरण छपता था -
"षट् मुद्रा पहिले दिए बरस बिताए सात।
साथ चंद्रिका के लिए दस में दोऊ मिल जात।।
बरन गए बारह लगत दो के दो महसूल।
अलग चंद्रिका सात, षट् वचन सुधा समतूल।।
दो आना एक पत्र की टका पोस्टेज साथ।
सारध आना आठ दै लहत चंद्रिका हाथ।।
प्रति पंगति आना जुगुल जो कोऊ नोटिस देई।
जो विशेष जानन चहै पूछि सबै कुछ लेई।।"
'हरिश्चंद्र चंद्रिका' का प्रकाशन घाटे के बावजूद छह वर्षों तक होता रहा। हरिश्चंद्र ने 'नवोदित हरिश्चंद्र चंद्रिका' भी निकाली। उसमें धारावाहिक रूप में 'पुरावृत संग्रह', 'स्वर्णलता' (उपन्यास) तथा 'सती प्रताप' (नाटक) का प्रकाशन हुआ था। 'प्रेम-प्रलाप' के कुछ उत्कृष्ट पद भी प्रकाशित किए गए थे। उस पत्रिका के तीन अंकों का ही विवरण मिलता है। नवंबर 1874 के अंक में 31 सहायक संपादकों के नाम दिए गए हैं। जैसे - ईश्वरचंद्र विद्यासागर, महर्षि दयानंद सरस्वती। कहना न होगा कि वस्तुतः ये सहायक संपादक पत्रिका के लेखक थे। पत्रिका के विदेशों में भी पाठक थे।
भारतेंदु ने एक स्त्री शिक्षोपयोगी मासिक पत्रिका की जरूरत को शिद्दत से महसूस किया और जनवरी, 1874 में 'बाला बोधिनी' नामक आठ पृष्ठों की डिमाई साइज की पत्रिका प्रकाशित की। उसके मुखपृष्ठ पर यह कविता प्रकाशित होती थी -
"जो हरि सोई राधिका जो शिव सोई शक्ति।
जो नारि सोई पुरुष या में कुछ न विभक्ति।।
सीता अनुसूया सती अरुंधती अनुहारि।
शील लाज विद्यादि गुण लहौ सकल जग नारि।।
पितु पति सुत करतल कमल लालित ललना लोग।
पढ़ै गुनैं सीखैं सुनै नासैं सब जग सोग।।
और प्रसविनी बुध वधू होई हीनता खोय।
नारी नर अरधंग की सांचेहि स्वामिनि होय।।"
उन दिनों 'बाल बोधिनी' और 'हरिश्चंद्र चंद्रिका' की पाँच-पाँच सौ प्रतियाँ छपती थीं जिसमें सौ-सौ प्रतियाँ तो सरकार ही खरीद लेती थी। 'बाला बोधिनी' के प्रवेशांक में लिखा था, "मैं तुम लोगों से हाथ जोड़कर और आँचल खोलकर यही माँगती हूँ कि जो कभी कोई भली बुरी कड़ी नरम कहनी अनकहनी कहूँ उसे मुझे अपनी समझकर क्षमा करना क्योंकि मैं जो कुछ कहूँगी सो तुम्हारे हित की कहूँगी।" 7 इस पत्रिका में महिलापयोगी रचनाएँ ही अधिकतर छपती थीं, परंतु इतिहास, साहित्य, राजनीति पर सामयिक लेख भी दिए जाते थे। 'मुद्राराक्षस' नाटक का प्रकाशन भी इसमें हुआ था। यह पत्रिका चार वर्षों तक निरंतर प्रकाशित होती रही। भारतेंदु स्त्री शिक्षा को प्रोत्साहन देते थे। उस समय जो युवतियाँ अँग्रेजी परीक्षाएँ पास करतीं, उनको वे साड़ी भेंट करते थे। 'बाला बोधिनी' के जिल्द 2 संख्या-73 में स्त्रियों में नैतिक शिक्षा के प्रसार के लिए लिखा गया था, "हे सुमति, जब बालक तुम्हारा भली प्रकार बातचीत करने लगे तो उसको वर्णमाला याद कराती रहे फिर उन्हीं को पट्टी पै लिख के अभ्यास कराओ और रातों को गिनती और सुंदर-सुंदर श्लोक व छोटे स्रोत याद कराओ। इस व्योहार में कई एक बातें सुंदर प्राप्त होंगी। प्रथम तो बालक को खेल ही खेल में अक्षर ज्ञान हो जावेगा दूसरे उसका काल भी व्यर्थ नहीं जाने का फिर इस अवसर का पढ़ा लिखा विशेष करके याद रहता है।" 'बाला बोधिनी' में 'गुरुसारणी' नाम से एक स्तंभ होता था जिसमें घर के हिसाब-किताब के सूत्र कविता में प्रकाशित किए जाते थे। 'हरिश्चंद्र चंद्रिका' के साथ ही 'बाला बोधिनी' की भी सरकारी सहायता बंद हो गई तो भारतेंदु ने उसे 'कविवचनसुधा' में समाहित कर दिया। राममोहन राय ने स्त्री अधिकारों के लिए जो रचनात्मक संघर्ष किया, सती प्रथा और बाल विवाह का विरोध किया, विधवा विवाह को समर्थन दिया और स्त्री शिक्षा पर जोर दिया और उस नवजागरण के लिए पत्रकारिता को अस्त्र बनाया और जिसे द्वारिका प्रसाद टैगोर तथा ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने 'तत्वबोधिनी' पत्रिका के माध्यम से आगे बढ़ाया, उसी की अगली कड़ी भारतेंदु की पत्रिका 'बालाबोधिनी' से जुड़ती है। ध्यान देने योग्य है कि 'बालाबोधिनी' का प्रकाशन होने के दस साल बाद 1884 में फ्रेडरिक एंगेल्स की किताब 'परिवार, निजी संपत्ति और राज्य की उत्पत्ति' आई थी जिसमें मार्क्सवादी अवधारणा के आलोक में स्त्रीत्ववाद का गंभीर विवेचन किया गया था। कहना न होगा कि हिंदी साहित्य और पत्रकारिता में स्त्री विमर्श की जब भी चर्चा होगी तो उसमें 'बालाबोधिनी' के रचनात्मक अवदान का उल्लेख अनिवार्य होगा।
भारतेंदु की पत्रिकाओं के बाद बालकृष्ण भट्ट के संपादन में 1877 में मासिक पत्रिका 'हिंदी प्रदीप' निकली। उसके प्रत्येक अंक में 'विद्या, नाटक, इतिहास, परिहास, उपन्यास, साहित्य, दर्शन, राज संबंधी इत्यादि के विषय में हर महीने की पहली को छपता है' लिखा रहता था। 'हिंदी प्रदीप' ने भारतीय ज्ञान परंपरा का प्रसार किया। बालकृष्ण भट्ट ने 'हिंदी प्रदीप' में कालिदास, श्री हर्ष, भवभूति, बिल्हण, बाण, त्रिविक्रम भट्ट, हरिश्चंद्र, भारवि, क्षेमेंद्र तथा गोवर्धन आदि कवियों के जीवन और योगदान पर लेख प्रकाशित किए और प्राचीन पुस्तकों की समालोचनाएँ भी छापीं। 'नल दमयंति', 'किरातार्जुनीयम', 'सौ अजान एक सुजान' और 'भाग्य की परख' जैसे नाटक भी 'हिंदी प्रदीप' में छपे। 1908 में माधव शुक्ल की कविता 'बम क्या है' छापने के लिए 'हिंदी प्रदीप' पर तीन हजार रुपए का जुर्माना लगा जिसे न चुका पाने के कारण उसका प्रकाशन बंद हो गया। सन 1878 में 'भारत मित्र', 1879 में 'सारसुधानिधि' और 1880 में 'उचित वक्ता' का प्रकाशन हुआ। 'भारत मित्र' के संपादक छोटेलाल मिश्र, 'सारसुधानिधि' के संपादक सदानंद मिश्र और 'उचित वक्ता' के दुर्गाप्रसाद मिश्र ने हिंदी गद्य के उन्नयन के लिए ठोस काम किए। 'सारसुधानिधि' के वर्ष 2, अंक 12 की संपादकीय टिप्पणी में सदानंद मिश्र ने लिखा था, ''एक विशुद्ध साधु हिंदी भाषा की सर्वत्र एक ही पुस्तक पढ़ाई जाना उचित है। किंतु विशेष दुख का विषय है कि जिस हिंदी भाषा का अधिकार इतना बड़ा है कि भारतवर्ष के प्रायः आधे दूर तक परिव्याप्त है। ...हिंदुस्तान की उन्नति का मूल जब यह ठहरा कि हिंदुस्तान की प्रधान भाषा हिंदी परिशुद्ध होकर सर्वत्र एक ही रूप से प्रचार होय, तब अवश्य गवर्नमेंट की सहायता आवश्यक है क्योंकि संप्रति भारतवासियों की सर्व प्रकार की शिक्षा एकमात्र गवर्नमेंट के अधीन है।''8 इसी तरह दुर्गाप्रसाद मिश्र ने 12 जनवरी, 1895 के 'उचितवक्ता' की संपादकीय टिप्पणी में लिखा था, 'आजकल हिंदी साहित्य की विचित्र दशा वर्तमान है। इसकी कुछ स्थिरता ही नहीं देख पड़ती। विविध प्रकार के रंग-बिरंगे लेख प्रकाशित होते हैं। कोई तो आज संस्कृत शब्दों पर झुक रहे हैं और ज्यों ही किसी ने कह दिया कि आपकी भाषा कठिन है, कुछ सरल कीजिए, कि चट-पलट कर उर्दू की खिचड़ी पकाने लग गए, फिर ज्यों ही किसी ने कह दिया कि केवल संस्कृत के शब्दों के मिलाने से वा उर्दू के शब्दों के प्रयोग से भाषा पुष्ट होगी, बस चट बदल गए और दोनों प्रकार के शब्दों को मिलाने में उतारू हो गए। सारांश यह कि ग्राहकों की खोज में भाषा को भी भटकाते रहते हैं।" 9 'सारसुधानिधि' और 'उचितवक्ता' की इन संपादकीय टिप्पणियों से स्पष्ट है कि तब के संपादकों में भाषा के प्रश्न को लेकर कितनी गहरी चिंता थी। इसी सरोकार से 1881 में बद्रीनारायण उपाध्याय ने 'आनंद कादंबिनी' और प्रतापनारायण मिश्र ने 'ब्राह्मण' का प्रकाशन किया।
माधवराव सप्रे ने छत्तीसगढ़ के पेंड्रा से 'छत्तीनसगढ़ मित्र' पत्रिका का प्रकाशन व संपादन जनवरी, 1900 में आरंभ किया। वामन बलीराम लाखे और रामराव चिंचोलकर उनके सहयोगी थे। 'छत्तीनसगढ़ मित्र' के प्रवेशांक में सप्रेजी ने 'आत्म परिचय' शीर्षक से अपने मंतव्य की घोषणा इस प्रकार कि - (1) इसमें कुछ संदेह नहीं कि सुसंपादित पत्रों के द्वारा हिंदी भाषा की उन्नति हुई है। अतएव यहाँ भी 'छत्तीकसगढ़ मित्र' हिंदी भाषा की उन्नति करने में विशेष प्रकार से ध्यान देवे। आजकल भाषा में बहुत सा कूड़ा-कर्कट जमा हो रहा है, वह न होने पावे, इसलिए प्रकाशित ग्रंथों पर प्रसिद्ध मार्मिक विद्वानों के द्वारा समालोचना भी करे। (2) अन्यान्य भाषाओं के ग्रंथों का अनुवाद कर सर्वोपयोगी विषयों का संग्रह करना आवश्यक है।"10 'छत्तीरसगढ़ मित्र' तीन साल ही निकल सका किंतु उसने सर्जनात्मक साहित्य यथा - कविता, कहानी, व्यंग्य व निबंध विधा की रचनाएँ तो छापीं ही, समालोचना विधा को प्रतिष्ठित करने का महत्वपूर्ण काम भी किया। 'छत्तीसगढ़ मित्र' में सप्रे जी ने दस पुस्तकों की विस्तृत समालोचना की और सत्रह पुस्तकों पर परिचयात्मक टिप्पणियाँ प्रकाशित की। सप्रे जी की राय थी कि किसी पुस्तक या पत्र की आलोचना करने में समालोचक को उचित है कि उस पुस्तक या पत्र के गुण-दोष सप्रमाण सिद्ध करे।
सन 1900 में ही इलाहाबाद के इंडियन प्रेस से 'सरस्वती' निकली। आरंभ में इसका संपादन एक समिति को सौंपा गया था जिसमें बाबू श्याम सुंदर दास, बाबू राधाकृष्ण दास, बाबू कार्तिक प्रसाद, बाबू जगन्नाथ दास और किशोरीलाल गोस्वामी शामिल थे। महावीर प्रसाद द्विवेदी 1903 के जनवरी महीने में 'सरस्वती' के संपादक बने। उन्होंने पत्रिका को ज्ञान के सभी अनुशासनों का खुला मंच तो बनाया ही, यह भी सुनिश्चित किया कि प्रकाशन के पहले हर रचना की भाषा व्याकरण की दृष्टि से ठीक हो। भाषा-परिष्कार उनकी पहली प्राथमिकता थी। उन्होंने 'सरस्वती' के नवंबर, 1905 के अंक में 'भाषा और व्याकरण' शीर्षक से अपनी भाषा नीति स्पष्ट की और भारतेंदु हरिश्चंद्र, राजा शिवप्रसाद, गदाधर सिंह, काशीनाथ खत्री, मधुसूदन गोस्वामी और बाल कृष्ण भट्ट आदि की भाषा की गलतियों पर टिप्पणी करते हुए लिखा कि भाषा की यह अनस्थिरता बहुत ही हानिकारिणी है।" द्विवेदी जी के इस 'अनस्थिरता' शब्द को लेकर लंबा विवाद चला।11 'भारतमित्र' के तत्कालीन संपादक बालमुकुंद गुप्त ने आत्माराम के नाम से दस लेख लिखकर द्विवेदी जी की तीखी आलोचना की। गोविंदनारायण मिश्र भी सामने आए और उन्होंने 'हिंदी बंगवासी' में 'आत्माराम की टें-टें' शीर्षक से लेख लिखकर गुप्त जी की आलोचना की। वह ऐतिहासिक विवाद डेढ़ साल तक चला।
महावीर प्रसाद द्विवेदी ने अनेक रचनाकारों को सबसे पहले अवसर दिया और जिनकी कविता या कहानी या लेख 'सरस्वती' में छपते थे, वे भी चर्चा में आ जाते थे। श्यामसुंदर दास, कार्तिक प्रसाद खत्री, राधाकृष्ण दास, जगन्नाथ दास रत्नाकर, किशोरीलाल गोस्वामी, माधवराव सप्रे, रामनरेश त्रिपाठी, अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध, मैथिलीशरण गुप्त, गयाप्रसाद शुक्ल स्नेही, जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानंदन पंत, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, महादेवी वर्मा, रायकृष्ण दास, माखनलाल चतुर्वेदी, बालकृष्ण शर्मा नवीन, रामधारी सिंह दिनकर आदि की रचनाएँ 'सरस्वती' में ही प्रकाशित हो कर चर्चित हुईं। 'सरस्वती' ने सर्जनात्मक साहित्य की हर विधा के विकास में ऐतिहासिक भूमिका निभाई। रामचंद्र शुक्ल की कहानी 'ग्यारह वर्ष का समय' 1903 में द्विवेदी जी के संपादन में 'सरस्वती' में ही छपी। बंग महिला (राजेंद्रबाला घोष) की कहानी 'कुंभ की छोटी बहू' 'सरस्वती' के सितंबर 1906 के अंक में छपी। 'सरस्वती' में 1909 में वृंदावन लाल वर्मा की कहानी 'राखी बंद भाई' और 1915 में प्रेमचंद की पहली हिंदी कहानी 'सौत' तथा 1916 में 'पंच परमेश्वर' छपी। 1915 में चंद्रधर शर्मा गुलेरी की कहानी 'उसने कहा था' 'सरस्वती' में ही छपकर विख्यात हुई। महावीर प्रसाद द्विवेदी ने दिसंबर 1920 में 'सरस्वती' से विदा ली। सरस्वती 1975 तक निकलती रही किंतु महावीर प्रसाद द्विवेदी के संपादन काल को सर्वोत्कृष्ट काल माना जाता है।
शारदा चरण मित्र ने 1907 में 'देवनागर' नामक मासिक पत्र निकाला था जो बीच में कुछ व्यवधान के बावजूद उनके जीवन पर्यंत यानी 1917 तक निकलता रहा। 'देवनागर' के पहले संपादक यशोदानंदन अखौरी थे। देवनागर में बांग्ला, उर्दू, नेपाली, उड़ीया, गुजराती, मराठी, कन्नड़, तमिल, मलयालम और पंजाबी आदि की रचनाएँ देवनागरी लिपि में लिप्यंतरित होकर छपती थीं। उस पत्रिका में पं. रामावतार शर्मा, डॉ. गणेश प्रसाद, शिरोमणि अनंतवायु शास्त्री, अक्षयवट मिश्र, कोकिलेश्वर भट्टाचार्य और पांडेय लोचन प्रसाद जैसे विशिष्ट लोग लिखते थे। 1909 में वाराणसी से 'इंदु' पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। अंबिकाप्रसाद गुप्त उसके संपादक थे। 'इंदु' को छायावाद की नींव डालने का श्रेय जाता है। जयशंकर प्रसाद की पहली कहानी 'ग्राम' 'इंदु' में ही 1911 में छपी थी।
नवंबर 1922 में रामरख सिंह सहगल ने स्त्रियों के सर्वांगीण उत्थान पर केंद्रित सचित्र मासिक 'चाँद' का प्रकाशन प्रारंभ किया। बाद में इसका दायरा विस्तृत कर दिया गया। 'चाँद' ने कई विशेषांक निकाले जैसे अछूतांक, पत्रांक, वैश्यांक, शिशु अंक, विधवा अंक, प्रवासी अंक। 'चाँद' का फाँसी अंक नवंबर 1928 में आया था और उसमें चार अत्यंत महत्वपूर्ण कहानियाँ छपी थीं। वे हैं - चतुरसेन शास्त्री की 'फंदा', पांडेय बेचन शर्मा उग्र की 'जल्लाद', जनार्दन प्रसाद झा द्विज की 'विद्रोही के चरणों पर' और विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक की 'फाँसी'। प्रेमचंद की प्रसिद्ध कहानी 'कफन' 'चाँद' के अप्रैल 1936 के अंक में छपी थी। महादेवी वर्मा का अधिकांश साहित्य 'चाँद' में ही छपा।
विष्णुनारायण भार्गव द्वारा 1922 में नवल किशोर प्रेस से साहित्यिक मासिक पत्रिका 'माधुरी' निकाली। संपादक थे दुलारेलाल भार्गव व रूपनारायण पांडेय। शिवपूजन सहाय, प्रेमचंद, बांके बिहारी भटनागर भी कभी न कभी पत्रिका की संपादकीय टीम के हिस्से रहे। 1950 में पत्रिका बंद हो गई। 1923 में कलकत्ता से साप्ताहिक 'मतवाला' पत्रिका निकली। संपादक के रूप में महादेव सेठ का नाम छपता था किंतु संपादक मंडल में निराला, शिवपूजन सहाय और मुंशी नवजादिक लाल भी थे। 'मतवाला' के प्रकाशन का एक मकसद निराला की कविताओं को प्रकाशित करना भी था। पत्रिका के हर अंक में प्रथम पृष्ठ पर निराला की कविता छपती थी। पत्रिका में समालोचना भी वही करते थे। संपादकीय, चलती चक्की व अन्य विनोदपूर्ण टिप्पणियाँ लिखने तथा प्रूफ पढ़ने का जिम्मा शिवपूजन सहाय का था। मुंशी नवजादिक लाल भी हास्य विनोदपूर्ण टिप्पणियाँ लिखते थे। प्रेस की व्यवस्था महादेव सेठ देखते थे। पत्रिका का प्रबंध मुंशी जी के जिम्मे था। 1927 में मध्यप्रदेश हिंदी साहित्य समिति इंदौर ने अंबिकाप्रसाद त्रिपाठी के संपादन में मासिक पत्रिका 'वीणा' का प्रकाशन किया। बाद में कालिकाप्रसाद दीक्षित कुसुमाकर, शांतिप्रिय द्विवेदी, चंद्ररानी सिंह, नेमीचंद्र जैन उसके संपादक हुए। इसी साल लखनऊ से दुलारेलाल व सावित्री के संपादन में मासिक पत्रिका 'सुधा' का प्रकाशन हुआ। 'सुधा' का प्रवेशांक दो बार छपा था। पहली बार तीन हजार प्रतियाँ बिक जाने पर दोबारा चार हजार छापा गया था। 'सुधा' का मार्च 1929 का अंक कार्टून विशेषांक के रूप में निकला। कार्टून पर पहली बार कोई विशेषांक तब निकला था।
1928 में रामानंद चट्टोपाध्याय ने हिंदी मासिक 'विशाल भारत' का प्रकाशन प्रारंभ किया। बनारसीदास चतुर्वेदी उसके संस्थापक संपादक थे। चतुर्वेदी जी के संपादन में 'विशाल भारत' जल्द की हिंदी की सर्वश्रेष्ठ मासिक पत्रिका बन गई। शुरू के तीन वर्षों में ही उसने साहित्यांक, प्रवासी अंक तथा कला अंक जैसे विशेषांक निकालकर अपनी धाक जमा ली। जैनेंद्र की पहली कहानी 'खेल' 1928 में 'विशाल भारत' में ही छपी। 'विशाल भारत' ने प्रचुर अनुवाद साहित्य भी प्रकाशित किया। 1937 में बनारसीदास चतुर्वेदी के आग्रह पर 'विशाल भारत' का संपादन करने के लिए अज्ञेय कलकत्ता आ गए। 'विशाल भारत' में आने के पहले अज्ञेय 1936 में आगरा के साप्ताहिक 'सैनिक' के बिना नाम के संपादक थे। वहाँ साल भर रहे थे। अज्ञेय अकेले साहित्यकार हैं जिन्होंने हर तरह की पत्रकारिता की। उन्होंने दैनिक अखबार, साप्ताहिक अखबार, मासिक पत्रिका, द्विमासिक पत्रिका और त्रैमासिक पत्रिका का संपादन किया। 1947 में अज्ञेय ने इलाहाबाद से द्वैमासिक 'प्रतीक' नामक साहित्यिक पत्रिका निकाली। बाद में वह मासिक हो गई। त्रिलोचन, शमशेर, भारतभूषण अग्रवाल, सर्वेश्वर, केदारनाथ सिंह, गिरिजाकुमार माथुर, जगदीश गुप्त, कुँवरनारायण, रांगेय राघव, राजेंद्र यादव, मनोहरश्याम जोशी, अहमद हुसैन, शिवप्रसाद सिंह, राधाकृष्ण, विद्यानिवास मिश्र 'प्रतीक' में छपकर ही चर्चित हुए। 'प्रतीक' में अज्ञेय की संपादकीय टीम में रघुवीर सहाय, सियाराम शरण गुप्त, शिवमंगल सिंह सुमन और श्रीपत राय थे और प्रिंट लाइन में इन सबका नाम छपता था।
मार्च 1930 में मुंशी प्रेमचंद ने 'हंस' पत्रिका निकाली। प्रेमचंद ने 'हंस' में श्रेष्ठ कविताएँ, कहानियाँ, नाटक, अनूदित साहित्य, साहित्यिक लेख व टिप्पणियाँ छापकर उसे भारतीय साहित्य का मुखपत्र ही बना दिया। 1932 में 'हंस' के अलावा साप्ताहिक 'जागरण' का भी संपादन भार प्रेमचंद पर आ पड़ा। 'जागरण' पहले पाक्षिक साहित्यिक पत्र के रूप में शिवपूजन सहाय के संपादन में 11 फरवरी, 1932 को निकला किंतु उसके बारह अंक निकालने के बाद सहाय जी ने उसे प्रेमचंद जी को हस्तांतरित कर दिया। मासिक 'हंस' और 'जागरण' साप्ताहिक प्रेमचंद घाटे के बावजूद निकालते रहे। हजारीप्रसाद द्विवेदी के संपादन में 1942 'विश्वभारती पत्रिका' शांतिनिकेतन से निकली। द्विवेदी जी उसे 1947 तक निकालते रहे। द्विवेदी जी के संपादन में उस पत्रिका ने रवींद्र साहित्य से हिंदी जगत को अवगत कराया। प्रवेशांक के संपादकीय में द्विवेदी जी ने लिखा था कि देश आज किस प्रकार नाना भाँति की संकीर्णताओं का शिकार बनता जा रहा है। उससे रक्षा पाने का सर्वोत्तम उपाय साहित्य ही है। रवींद्रनाथ टैगौर ने द्विवेदी जी के बारे में कहा था कि उनका ज्ञान हमलोग पाँच सौ वर्षों में भी सीख पाएँगे, कहना कठिन है। टैगोर ने यह टिप्पणी इसलिए की थी क्योंकि द्विवेदी जी ने भारतीय दर्शन, अध्यात्म, साधना, इतिहास, संस्कृति और कला को खोख डाला था और वैदिक वांगमय, इतिहास, संस्कृति, नीति शास्त्र, दर्शन शास्त्र और काव्य शास्त्र का द्विवेदी जी ने अपने साहित्य और साहित्यिक पत्रकारिता में जितना समर्थ उपयोग किया, उतना किसी अन्य साहित्यकार ने नहीं। मोहन सिंह सेंगर ने कलकत्ता से जुलाई 1948 में 'नया समाज' का प्रवेशांक निकाला। अस्सी पृष्ठों का। उसमें प्रकाशित पहली रचना मैथिलीशरण गुप्त की सोद्देश्य कविता 'एकलव्य' है। द्वितीय रचना हरिवंश राय बच्चन की दो शिक्षाप्रद कविताएँ - 'बापू के फूलों का जुलूस' और 'आत्मशक्ति का पुजारी' है। इसी अंक में जैनेंद्र कुमार का लेख 'सर्वोदय की नीति', अंबिकाप्रसाद वाजपेयी का लेख 'क्या यही स्वराज्य है', हजारीप्रसाद द्विवेदी का निबंध 'नाखून क्यों बढ़ते हैं' छपा है। 'नया समाज' दस वर्षों तक निकलता रहा। उसे मैथिलीशरण गुप्त, राहुल सांकृत्यायन, रांगेय राघव, महादेवी वर्मा, बनारसीदास चतुर्वेदी, अज्ञेय समेत हिंदी के सभी दिग्गजों का रचनात्मक सहयोग मिलता रहा। सितंबर 1948 के अंक में भगवत शरण उपाध्याय, वृंदावनलाल वर्मा, रांगेय राघव, हजारीप्रसाद द्विवेदी, काका कालेलकर की रचनाएँ छपी हैं तो दिसंबर 1948 के अंक में रघुवीर सहाय, चंद्रकुँवर लाल की रचनाएँ छपी हैं। 'नया समाज' ने साहित्य के माध्यम से समाज को जाग्रत करने का प्रयास किया। 'नया समाज' दस वर्षों तक निकलने के बाद बंद हो गया।
बदरी विशाल पित्ती ने 1949 में हैदराबाद से 'कल्पना' का प्रकाशन शुरू किया। 'कल्पना' ने कई लेखक पैदा किए। कृष्ण बलदेव वैद के उपन्यास 'विमल उर्फ जाएँ तो जाएँ कहाँ' को उस दौर में सभी बड़े प्रकाशकों ने प्रकाशित करने तक से मना कर दिया था क्योंकि उसका कथ्य उन्हें पच नहीं रहा था, लेकिन बदरी विशाल ने उसे 'कल्पना' में छापा। वह उपन्यास हिंदी साहित्य की थाती बन गया है। मार्कंडेय 'चक्रधर' के उपनाम से लंबे समय तक 'कल्पना' के हर अंक में साहित्य समीक्षा का एक स्तंभ 'साहित्यधारा' लिखते रहे। उसी तरह 'कल्पना का सर्वेक्षण' नाम से विवेकी राय का साहित्य सर्वेक्षण धारावाहिक उसमें छपा। 'कल्पना' में सिर्फ साहित्य ही नहीं, ललित कलाओं पर समीक्षात्मक लेख भी छपते थे। बदरी विशाल ने रामकुमार, मकबूल फिदा हुसैन जैसे बड़े कलाकारों को 'कल्पना' से जोड़ा था। रघुवीर सहाय, प्रयाग शुक्ल, कमलेश, मुनींद्र जी जैसे लोग कभी न कभी 'कल्पना' की संपादकीय टीम का हिस्सा रहे। 'कल्पना' 1977 तक निकली। जिस साल 'कल्पना' निकली थी, उसी साल 1949 के जनवरी महीने में भारतीय ज्ञानपीठ ने कलकत्ता से मासिक 'ज्ञानोदय' पत्रिका निकाली थी। लक्ष्मीचंद्र जैन और जगदीश के संपादन में 'ज्ञानोदय' ने नवलेखन के प्रयोगों को उदारतापूर्वक प्रस्तुत किया। रमेश बक्षी ने जब 'ज्ञानोदय' का संपादन भार सँभाला तो उन्होंने भी आधुनिकता से संबंधित विचार-विमर्श से परिपूर्ण निबंध लगातार प्रकाशित किए। 'ज्ञानोदय' फरवरी 1970 तक निकलती रही। 2003 से ज्ञानपीठ ने 'नया ज्ञानोदय' के नाम से पत्रिका का पुनर्प्रकाशन प्रारंभ किया। संप्रति उसके संपादक लीलाधर मंडलोई हैं। इसी तरह 'नई धारा' पिछले 67 वर्षों से पटना से निरंतर निकल रही है। शिव पूजन सहाय के संपादन में अप्रैल 1950 में उसका प्रकाशन राधिकारमण प्रसाद सिंह ने प्रारंभ किया था। सहाय जी ने 'नई धारा' के प्रवेशांक की संपादकीय में लिखा था, "समाज को विद्रोही चाहिए। उससे अधिक विद्रोही चाहिए साहित्य को, कला को। 'नई धारा' ऐसे विद्रोहियों की वाणी कहकर जिस दिन बदनाम की जाएगी, हमारी चरम सफलता का दिन तब होगा।"12 इस समय पत्रिका के संपादक डॉ. शिवनारायण हैं। वे पिछले 25 वर्षों से 'नई धारा' का संपादन कर रहे हैं। 'नई धारा' की तरह ही भारतीय विद्या भवन की मासिक पत्रिका 'नवनीत' 65 वर्षों से निरंतर निकल रही है। इस समय उसके संपादक विश्वनाथ सचदेव हैं। इस पत्रिका ने श्रेष्ठ साहित्य के प्रकाशन की धारावाहिकता अक्षुण्ण रखी है।
साहित्यिक पत्रिकाओं ने साहित्यांदोलनों में भी अहम भूमिका निभाई। नई कविता आंदोलन के विकास में 1954 में प्रकाशित 'नई कविता' नामक पत्रिका का उल्लेखनीय योगदान रहा। 'नई कविता' पत्रिका का संपादन जगदीश गुप्त, रामस्वरूप चतुर्वेदी और विजयदेवनारायण साही करते थे। इसी तरह 'कहानी' और 'नई कहानी' पत्रिकाओं ने हिंदी में नई कहानी आंदोलन को जन्म दिया और 'सारिका' ने समानांतर कहानी को। भैरवप्रसाद गुप्त ने जनवरी 1955 से 'कहानी' पत्रिका के माध्यम से नई कहानी आंदोलन का नेतृत्व किया। 'कहानी' के नववर्षांक 1956 के अंक में पहली बार स्पष्टतः नई कहानी की बात उठाई गई। उस बीच छपी कई कहानियाँ कालजयी साबित हुईं। जैसे - 'राजा निरबंसिया', 'रसप्रिया', 'गुलकी बन्नो', 'गदल', 'मवाली', 'हंसा जाई अकेला', 'डिप्टी कलक्टरी', 'चीफ की दावत', 'बादलों के घेरे' और 'सेब'। 'कहानी' पत्रिका ने अमरकांत, शेखर जोशी, राजेंद्र यादव और कमलेश्वर को प्रतिष्ठित किया। भैरव प्रसाद गुप्त 1955 से 1959 तक 'कहानी' पत्रिका के संपादक रहे। उसके बाद वे 'नई कहानियाँ' नामक पत्रिका का संपादन करने लगे जिसमें छपकर राम नारायण, प्रयाग शुक्ल, मन्नू भंडारी, कृष्ण बलदेव वैद, कृष्णा सोबती, रमेश बक्षी और उषा प्रियंवदा प्रतिष्ठित हुए।
बड़े मीडिया घरानों से प्रकाशित पत्रिकाओं की भूमिका की बात करें तो हिंदुस्तान टाइम्स प्रकाशन द्वारा प्रकाशित 'साप्ताहिक हिंदुस्तान' का प्रकाशन 1950 से शुरू हुआ। 'साप्ताहिक हिंदुस्तान' लगभग 42 वर्ष तक निकलता रहा, जिसका संपादन मुकुटबिहारी वर्मा, बांकेबिहारी भटनागर, रामानंद दोषी, मनोहरश्याम जोशी, शीला झुनझुनवाला, राजेंद्र अवस्थी तथा मृणाल पांडे ने किया। मनोहरश्याम जोशी ने 'साप्ताहिक हिंदुस्तान' को पत्रकारीय उत्कर्ष प्रदान किया। टाइम्स ऑफ इंडिया समूह ने 'धर्मयुग' जैसी उत्कृष्ट पत्रिका निकाली। 'धर्मयुग' का जन्म 'नवयुग' की कोख से हुआ। 1950 में बेनेट एंड कोलमैन ने बंबई से 'नवयुग' से संयुक्त कर रविवार 8 अक्टूबर, 1950 से 'धर्मयुग' का प्रकाशन शुरू किया। 'धर्मयुग' का इलाचंद्र जोशी एवं हेमचंद्र जोशी का संपादककाल अल्पकालीन रहा। 'धर्मयुग' को शैशव से किशोरावस्था तक पहुँचाने का श्रेय सत्यदेव विद्यालंकार को जाता है। उन्होंने एक दशक तक 'धर्मयुग' का संपादक किया। 'झूठा सच', 'आपका बंटी', 'आधे-अधूरे', 'सुखदा', 'गली आगे मुड़ती है', 'तेरी मेरी उसकी बात', 'इदन्नमम', 'रुकोगी नहीं राधिका', 'मानस के हंस', 'खंजन नयन' जैसी प्रसिद्ध रचनाएँ 'धर्मयुग' ने ही छापीं। इसके अलावा विष्णु प्रभाकर की कहानियाँ 'दुराचारिणी', 'भीगी पलकें', 'मर्यादा की रक्षा', यशपाल की कहानी 'सामंती कृपा', जैनेंद्र की कहानी 'ये पल' व उपन्यास 'सुखदा', वृंदावन लाल वर्मा की 'इस हाथ लें, उस हाथ दें', डॉ. रामकुमार वर्मा के नाटक - 'दुर्गावती, रात का रहस्य', भवानी प्रसाद मिश्र की 'परछाइयाँ' और राजेंद्र यादव की कहानी 'कुलटा' धर्मयुग में छपकर ही चर्चित हुई थीं। गोपाल सिंह नेपाली, दिनेश नंदिनी, रामधारी सिंह दिनकर, गोपाल दास नीरज, रांगेय राघव, हरिवंश राय बच्चन, रमानाथ अवस्थी, महादेवी वर्मा, सुमित्रानंदन पंत, शिवकुमार श्रीवास्तव, वीरेंद्र मिश्र आदि की कविताएँ नियमित रूप से 'धर्मयुग' में प्रकाशित होती थीं। रवींद्रनाथ ठाकुर, सरोजिनी नायडू जैसे कवियों की कविताओं के अनुवाद प्रमुखता से प्रकाशित होते थे। 'धर्मयुग' का 16 अगस्त, 1956 का अंक 'कविता अंक' था। 1957 में देशी विदेशी कविताओं पर आधारित लेखों की श्रृंखला का प्रकाशन और 1958 का व्यंग्य विशेषांक भी चर्चित रहा था।
6 मार्च, 1960 को धर्मवीर भारती 'धर्मयुग' के संपादक हुए और 28 नवंबर, 1987 तक यानी 27 वर्षों तक उन्होंने 'धर्मयुग' का संपादन किया। उस कालखंड में 'धर्मयुग' और धर्मवीर भारती एक दूसरे के पर्याय बन गए। भारती ने उच्च कोटि का साहित्य प्रकाशित कर 'धर्मयुग' को श्रेष्ठ राष्ट्रीय साहित्यिक-सांस्कृतिक पत्रिका बनाया। धर्मवीर भारती के संपादन काल में 60-70 दशक में वसंत ऋतु आई (ख्वाजा अहमद अब्बास), अरक्षणीया (राजकमल चैधरी) उत्सव, मलयालम कहानी, (तकषी शिवशंकर पिल्लै) अंतरपट, (गुजराती कहानी, हसुनायक) रात आठ बजे वाली सवारी (बांग्ला कहानी, विमल मित्र), समय (यशपाल), सिफारिशी चिट्ठी (भीष्म साहनी), बिल्लियाँ (मृणाल पांडेय), कल्कि अवतार (शिव प्रसाद सिंह), बयान (कमलेश्वर), माँ (बांग्ला कहानी-विमल मित्र), ऊब (एक उलजलूल कहानी-छेदी लाल), बदलाव (विवेकी राय), चतुरी लाल (बांग्ला कहानी-बनफूल), अरस का पावा (सलमा सिद्दकी), झुका हुआ आकाश (उड़िया कहानी - नंदनी सत्यपथी), प्रेत (गंगा प्रसाद विमल), प्रतीक्षा (लंबी कहानी - शिवानी), दिलबाग सिंह की हत्या (सुदर्शन सिंह मजीठिया), बौना और चाँद (देशज प्रसाद मिश्र) 'धर्मयुग' में छपकर ही चर्चित हुई थीं। धर्मवीर भारती के संपादन काल में 'कथा दशक' श्रृंखला का सफल आयोजन 'धर्मयुग' की उल्लेखनीय उपलब्धि थी। उसमें कथाकार अपनी कहानियों के पीछे की कहानी भी बताते थे। 'कथा दशक' श्रृंखला के तहत उस दशक के सभी चर्चित कथाकारों जैसे उषा प्रियंवदा, कमलेश्वर, कृष्ण बलदेव वैद, कृष्णा सोबती, नरेश मेहता, फणीश्वरनाथ रेणु, भीष्म साहनी, मार्कंडेय, मोहन राकेश, मन्नू भंडारी, निर्मल वर्मा, अमरकांत, रघुवीर सहाय, राजेंद्र यादव, राजकमल चैधरी, राजकुमार, लक्ष्मीनारायण लाल, विजय चैहान, शरद जोशी, ज्ञानी, शिव प्रसाद सिंह, शेखर जोशी, शैलेश मटियानी, सर्वेश्वर दयाल, सक्सेना, हरिशंकर परसाई, रमेश बक्षी आदि की कहानियाँ प्रस्तुत की गईं। अनेक श्रेष्ठ उपन्यास 'धर्मयुग' में धारावाहिक प्रकाशित हुए। 'धर्मयुग' ने महिला कथाकारों एवं कवयित्रियों को भी आगे बढ़ाया। शिवानी, मृणाल पांडेय, सूर्यबाला, मन्नू भंडारी, कृष्णा सोबती, उषा प्रियंवदा, कुर्रतुल उन हैदर, पद्मा सचदेव, मैत्रेयी पुष्पा, अमृता प्रीतम इस्मत चुगताई, महादेवी वर्मा, ममता कालिया, मालती जोशी, नासिरा शर्मा, कमला चमोला, शांति मेहरोत्रा, कुंदनिका कापड़िया, इंदिरा चंद्रा, सुधा अरोड़ा, उषा महाजन, आभा दयाल, मृदुला हसन, शुभदा मिश्र की रचनाएँ धर्मयुग में निरंतर प्रकाशित हुईं। भारती के बाद गणेश मंत्री और मंत्री जी के बाद विश्वनाथ सचदेव उसके संपादक बने। 'धर्मयुग' पत्रिका 47 वर्षों तक निकलती रही।
टाइम्स ऑफ इंडिया समूह ने ही 1965 में साप्ताहिक 'दिनमान' पत्रिका निकाली थी। अज्ञेय उसके संस्थापक संपादक थे। उनके संपादन में 'दिनमान' जल्द ही राष्ट्रीय स्तर की प्रतिष्ठित पत्रिका बन गई थी। उसका आधार वाक्य था 'राष्ट्र की भाषा में राष्ट्र का आह्वान।' उसने पाठकों में राजनीतिक और सामाजिक चेतना का संचार किया। 'दिनमान' ने नई शब्दावली चलाई। अज्ञेय की मान्यता थी कि व्यक्तियों और स्थानों के नामों को जहाँ तक हो सके, वैसे ही लिखा जाए, जैसा उन देशों में बोला जाता है। मास्को शब्द जब पूरे भारत में चल गया था, उस समय 'दिनमान' मस्क्वा लिखता था। इसी तरह चिली को 'दिनमान' चिले लिखता था। सौ किलोग्राम के लिए जब कुएँटल शब्द चला तो दिनमान ने उसे कुंतल लिखना शुरू किया। अज्ञेय ने 'दिनमान' के लिए वर्तनी के लिए जो नियम स्थिर किए थे, उनमें कुछ प्रमुख हैं - 1. विभक्तियाँ सर्वनाम के साथ लिखी जाएँ - जैसे : मैंने, हमने, किससे, उससे। 2. क्रिया पद 'कर' मूल क्रिया से मिलाकर लिखा जाए - जैसे : जाकर, जमकर, हँसकर। 3. चंद्रबिंदु के स्थान पर अनुस्वार का ही प्रयोग किया जाए - जैसे : हंसना, मां, पहुंचना। 4. प्रदेशों के नाम मिलाकर लिखे जाए - जैसे : उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, अरुणाचलप्रदेश, आंध्रप्रदेश, हिमाचलप्रदेश। 5. बड़े संवाद के लिए दोहरा उद्धरण चिह्न और छोटे उद्धरणों तथा वाक्याशों के लिए एकल उद्धरण चिह्न यथेष्ट है। 6. संस्कृत के शब्दों में जहाँ 'यी' का प्रयोग होता है, वहाँ 'ई' का प्रयोग उचित नहीं, जैसे - स्थायी, अनुयायी। अज्ञेय ऐसे संपादक थे जिन्होंने हर जगह अपने उत्तराधिकारी खुद बनाए। इसीलिए उनके संपादक पद से हटने के बाद भी संबद्ध समाचार पत्र या पत्रिका में उत्तराधिकार का कोई संकट कभी खड़ा नहीं हुआ। 'दिनमान' की अपनी संपादकीय टीम में उन्होंने रघुवीर सहाय, मनोहर श्याम जोशी, श्रीकांत वर्मा, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना को शामिल किया था। इसीलिए 1969 में अज्ञेय ने 'दिनमान' छोड़ा, उसके बाद भी वह पुराने तेवर के साथ ही निकलता रहा।
सन 1973 में अज्ञेय ने 'प्रतीक' को नए सिरे से निकाला। इस बार उसका नाम 'नया प्रतीक' था। वह मासिक पत्रिका भी नई प्रतिभाओं का खुला मंच बनी। अज्ञेय 1977 के अगस्त में दैनिक 'नवभारत टाइम्स' के संपादक बने और 1979 तक वहाँ रहे। उन्होंने 'नवभारत टाइम्स' को तत्कालीन अँग्रेजी दैनिक पत्रकारिता का विकल्प बनाने की चेष्टा की। यही काम परवर्ती काल में विद्यानिवास मिश्र ने किया। विद्यानिवास मिश्र 1992 से 1994 यानी दो वर्ष तक हिंदी दैनिक 'नवभारत टाइम्स' के संपादक थे। उन्होंने दस वर्षों तक मासिक 'साहित्य अमृत' का भी संपादन किया। बड़े मीडिया समूहों द्वारा निकाली गईं 'धर्मयुग', 'साप्ताहिक हिंदुस्तान' और 'दिनमान' का हिंदी समाज पर व्यापक सांस्कृतिक प्रभाव पड़ा था। वे पत्रिकाएँ बंद हो चुकी हैं, ऐसे में मासिक पत्रिका 'अहा जिंदगी' का पिछले तेरह वर्षों से हो रहा नियमित प्रकाशन तात्पर्यपूर्ण है। भास्कर समूह ने यशवंत व्यास के संपादन में 2004 में मासिक पत्रिका 'अहा जिंदगी' निकाली थी। संप्रति आलोक श्रीवास्तव उसके संपादक हैं।
राजकमल प्रकाशन समूह ने 1951 में 'आलोचना' पत्रिका शुरू की थी। शिवदान सिंह चौहान उसके संस्थापक संपादक थे। 'जनयुग' के संपादक रह चुके तथा सहारा के प्रधान संपादकीय सलाहकार रह चुके नामवर सिंह 'आलोचना' के प्रधान संपादक हैं। संपादन नामवर जी के लिए कविता अथवा आलोचनात्मक निबंध लिखने जैसा सर्जनात्मक कार्य ही रहा है। यही बात राजेंद्र यादव, ज्ञानरंजन तथा कमलेश्वर के लिए भी सही है। राजेंद्र यादव ने 1986 में 'हंस' का संपादन शुरू किया और उसमें छपकर ही उदय प्रकाश, संजीव, शिवमूर्ति, प्रियंवद, सृंजय, प्रभा खेतान, मैत्रेयी पुष्पा आदि प्रतिष्ठित हुए। राजेंद्र यादव ने 'हंस' के जरिए दलित और स्त्री विमर्श को आंदोलन के रूप में चलाया और चर्चा के केंद्र में ला खड़ा किया। राजेंद्र यादव के निधन के बाद 'हंस' संजय सहाय के संपादन में निकल रही है। 'पहल' का 108 वाँ अंक जुलाई 2017 में आया है। ज्ञानरंजन उसे 1973 से ही निकाल रहे हैं। कमलेश्वर ने 'सारिका' का संपादन बहुत कुशलता से किया था और उसके माध्यम से हिंदी में समानांतर कहानी आंदोलन का नेतृत्व भी किया था। परवर्ती काल में वे दैनिक भास्कर के संपादकीय सलाहकार भी बने थे। 'अमृत प्रभात' और 'जनसत्ता' के साहित्य संपादक रहे मंगलेश डबराल निकट अतीत तक 'सहारा समय', 'पब्लिक एजेंडा' से जुड़े रहे। इस समय वे 'शुक्रवार' के साहित्य संपादक हैं। 'शुक्रवार' को विष्णु नागर का भी संपादकीय संस्पर्श मिला था। प्रयाग शुक्ल ने 'रंगप्रसंग', पंकज बिष्ट ने 'समयांतर', अखिलेश ने 'तद्भव' और ज्योतिष जोशी ने 'समकालीन कला' को अपनी संपादन दृष्टि से अलग पहचान दी है। प्रभाकर श्रोत्रिय ने 'अक्षरा', 'साक्षात्कार', 'वागर्थ' और 'नया ज्ञानोदय' का संपादन किया और हर जगह अपनी अमिट छाप छोड़ी। 'वागर्थ' पत्रिका 1995 से ही निकल रही है। प्रभाकर श्रोत्रिय, रवींद्र कालिया और एकांत श्रीवास्तव के बाद अब शंभुनाथ उसके संपादक हैं। हरिनारायण के संपादन में मासिक 'कथादेश' 36 वर्षों से निरंतर निकल रही है। देशबंधु समाचार पत्र समूह से मासिक पत्रिका 'अक्षर पर्व' दो दशकों से निरंतर निकल रही है। सर्वमित्रा सुरजन उसकी संपादक हैं। 'अक्षर पर्व' पत्रिका के वर्ष में दो विशेषांक भी निकालते हैं। सितंबर 2017 में प्रेम भारद्वाज के संपादनवाली 'पाखी' के ठीक नौ साल पूरे हुए। सितंबर 2008 में उसका प्रवेशांक आया था। एक समय 'अब' निकालनेवाले शंकर संप्रति द्विमासिक 'परिकथा' निकाल रहे हैं। विभूतिनारायण राय 'वर्तमान साहित्य' निकाल रहे हैं। हरिशंकर परसाई और कमला प्रसाद के बाद अब राजेंद्र शर्मा के संपादन में 'वसुधा' निकल रही है। इसी कड़ी में 'मधुमती', 'समकालीन भारतीय साहित्य', 'गवेषणा', 'इंद्रप्रस्थ भारती', 'बहुवचन', 'पुस्तक वार्ता', 'आजकल', 'त्रिपथगा', 'भाषा', 'उत्तर प्रदेश', 'पूर्वग्रह', 'समकालीन सृजन', 'संवेद', 'समास', 'समीक्षा', 'बया', 'अपेक्षा', 'कसौटी', 'कल के लिए', 'कथा', 'कथाक्रम', 'समालोचना', 'लमही', 'अभिव्यक्ति', 'संचेतना', 'अभिनव कदम', 'परिवेश', 'साम्य', 'साखी', 'संबोधन', 'पल-प्रतिपल', 'दस्तक', 'पुरुष', 'विपक्ष', 'उद्भावना', 'मंतव्य', 'परिवेश', 'दस्तावेज', 'बया', 'स्त्री काल', 'इकाई', 'गल्पभारती', 'संदर्भ', 'परिदृश्य', 'समवेत', 'समिधा', 'विध्वंस,' 'अर्थात', 'धूमकेतु', 'बोध' जैसी पत्रिकाओं का उल्लेख लाजिमी है। पत्रिकाओं की दुनिया में नया चलन ई-पत्रिकाओं और ब्लॉग का है जिसमें बड़ी शीघ्रता से पाठ्य सामग्री सारी दुनिया में पाठकों तक पहुँच जाती है।
संदर्भ
1. कविवचनसुधा, 3 नवंबर, 1873
2. वही, 8 फरवरी, 1874
3. वही, 7 मार्च, 1874
4. वही, 20 अप्रैल, 1874
5. वही, 23 मार्च, 1874
6. 'हरिश्चंद्र मैग्जीन', 15 अक्टूबर, 1873
7. 'बाला बोधिनी', जनवरी, 1874
8. 'सारसुधानिधि', वर्ष 2, अंक 2
9. 'उचित वक्ता', 12 जनवरी 1895
10. 'छत्तीसगढ़ मित्र', जनवरी 1900
11. द्विवेदी, महावीर प्रसाद, गुप्त, बालमुकुंद और मिश्र, गोविंद नारायण (1993), हिंदी की अनस्थिरता : एक ऐतिहासिक बहस (संपादक - भारत यायावर), दिल्ली : वाणी प्रकाशन
12. 'नई धारा', अप्रैल 1950