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कहानी

उम्मीद की कहानी

ममता शर्मा


कहने को वह एक सफर था लेकिन वह कुछ अलग किस्म का सफर था। दिमाग पर अब भी उसका असर तारी है। जबकि उस सफर को गुजरे हुए 10 से ऊपर बरस हो गए हैं। ट्रेन आधी से ज्यादा खाली थी; शायद इसलिए कि वह ना तो त्योहारों का मौसम था और ना छुट्टियों का। बारिशें आ पहुँची थी और रास्ते में जगह-जगह मिल रही थी कहीं तेज और कहीं घनघोर, कहीं फुहारें, तो कहीं कुछ भी नहीं एकदम से सूखा। बारिश किसी सफर में भी ऐसी रोमानी लग सकती है यह एक नया तजुर्बा था। मैंने ट्रेन की खिड़की का शटर ऊपर कर दिया था ताकि पानी की बौछारें अंदर तक आ सके और उनके साथ हल्की ठंडक लिए हवा भी; लेकिन यह सब सिर्फ उन इलाकों में था जहाँ रिहाइश नहीं थी; जैसे ही रिहाइशी इलाके शुरू होते थे हवा की ताजगी बदबू में बदल जाती थी और पानी की बौछारें बदबू को अंदर ले आने का एक जरिया और सारी रोमानियत जैसे हवा हो जाती थी। मैंने चलते वक्त एक किताब रख ली थी साथ में अपने प्रिय लेखक की या फिर कहें कि प्रिय लेखकों में से एक की; इसलिए नहीं कि मुझे सफर के दौरान उसे पढ़ना था बस यूँ ही, वरना सच पूछिए तो मुझे सफर में किताबें पढ़ना कोई खास पसंद नहीं था यह सिर्फ तब होता था जब बाहर के दृश्य देखने लायक ना रह जाएँ तो ऐसे में किताबें सहायक बन जाया करती। दरअसल मेरा मानना था किस सफर सिर्फ मंजिलों तक पहुँचने के लिए नहीं होते बल्कि उन तमाम जगहों से गुजरने के लिए भी होते हैं जो मंजिल के रास्ते में पड़ती है लेकिन फिर भी वह एक किताब मैंने रख ली थी और कुछ ही देर पहले उस किताब को निकालकर पास की खाली सीट पर रखा था। खाली सीट पर पड़ी किताब अकेली सी पूरा ध्यान अपनी ओर खींच रही थी ऐसा मैंने महसूस किया था लेकिन जब मुझे लगा कि ट्रेन करीब-करीब खाली है तो उसका वहाँ पड़ा होना मुझे बहुत गैरजरूरी भी नहीं लगा।

वह अचानक ही ऊपर वाली बर्थ से उतरा था कुछ इस तरह से जैसे काले पर्दे पर अचानक कोई कैरेक्टर प्रकट हो जाए या फिर दर्शकों के सामने रंगमंच पर कोई पात्र दाएँ और बाएँ से नहीं बल्कि ऊपर से अचानक टपक पड़े और आप उसके इस तरह प्रकट हो जाने के लिए तैयार ना हो।

मध्यम कद काठी, आधे पके आधे कच्चे बाल, बहुत छोटे भी नहीं और बहुत बड़े भी नहीं लेकिन कटने के इंतजार में हो जैसे, बढ़ी हुई सी दाढ़ी कंधे पर तौलिया और देह पर जोगिया रंग का पुराना सा दिखने वाला कुर्ता इतना सब कुछ तो अच्छी तरह से याद है। यही था हुलिया उसका।

"गाफिल हुँह''

उसने खाली सीट पर पड़ी किताब पर नजर फेरी और बेपरवाही से कहा।

"आप पढ़ती हैं?" मैं उसके ऊपर से टपकने और सवाल के बीच की दूरी को कम करने की कोशिश में लगी हुई थी।

"जी"

मैंने छोटा सा उत्तर दिया और किताब को समेटे हुए अपने पास खींच लिया लेकिन उसने मेरी किसी भी बात की ओर कोई ध्यान नहीं दिया - ऐसा मुझे महसूस हुआ।

"जरा हाथ मुँह धो कर आता हूँ।"

उसने सहयात्री के भाव से कहा मैंने गौर किया कि उसकी बातों में, उसके हाव-भाव में कुछ ऐसा था जो कुछ अलग था और अपना ध्यान खींचता था। मतलब इसने भी गाफिल को पढ़ा है मैंने मन ही मन कहा उसके जाने के बाद मैंने किताब को उठाकर अब वापस अपने बैग में रख लिया।

"तो ...गाफिल आपको पसंद है!"

वह अब लौट आया था और यह सवाल उसने हाथ, मुँह और गर्दन पर एक टॉवल घुमाते हुए पूछा था। मैं खिड़की से बाहर देख रही थी, जब उसने यह सवाल पूछा था।

"क्यों क्या आप भी पढ़ते हैं ...मेरा मतलब गाफिल को"

मैंने भी उसी अंदाज में सवाल किया।

"हुँह" ...इस बार भी वह हँसा वैसी ही बेपरवाह सी हँसी, पर मुझे इस बार थोड़ी खीझ हुई और मैंने फिर बाहर की तरफ देखना शुरू कर दिया। ट्रेन अच्छी-खासी रफ्तार में थी।

पेड़-पौधे काफी तेजी से पीछे छूटते जा रहे थे और उतनी ही तेजी से मेरे मानस में विचारों का घालमेल हो रहा था। मुझे उसकी किसी बात का उत्तर देने का मन नहीं हो रहा था। मुझे लगा कि ऐसा कैसे हो सकता है कोई आपसे जवाबों की अपेक्षा रखे और खुद सवालों के जवाब देने में कंजूसी करे। वह अब भी अपने हाथ पोंछ रहा था और गर्दन भी उसी टॉवल से। फिर उसने टॉवल से सीट को हल्का झाड़ा बस यूँ ही क्योंकि सीट पर कुछ भी ऐसा नहीं था जिसे झाड़ने की जरूरत हो और फिर सीट पर बैठते हुए उसने एक और सवाल किया।

"आपको गाफिल के किस कैरेक्टर ने ज्यादा अपनी तरफ खींचा"!

"अरुणा ने"

मैं भूल गई थी कि कुछ देर पहले मैंने यह प्रण लिया था कि अब उसके किसी सवाल का उत्तर नहीं देना है। ऐसा लगा कि मेरे पास इतना सुनिश्चित सा एक जवाब था कि उसे दिए बिना मैं नहीं रह सकती थी।

"अरुणा ...अच्छा! और समीर ...समीर नहीं पसंद आपको, मुझे तो लगा आप की सहानुभूति या कह लें संवेदना समीर से होगी मैंने तो स्त्रियों में समीर के प्रति अधिक झुकाव देखा है बिचारा समीर, प्यारा समीर, समीर को तलाश करती स्त्रियाँ; हर पुरुष में समीर का अक्स देखती स्त्रियाँ!

"क्योंकि समीर को पसंद करना आसान है..." मैंने कहा "...कथा के समानांतर चलते रहो समीर आपकी सहानुभूति बटोरता हुआ आगे बढ़ता रहेगा; समीर को आप पसंद नहीं करते। समीर स्वयं को पसंद करवाता है"

"और अरुणा को पसंद करना..." उसने पूछा

"उसे पसंद करने के लिए ठहरना पड़ता है; मील के पत्थरों पर बैठना पड़ता है, अरुणा के मन के अंदर झाँकना होता है, उसके कठोर से लगते हुए हृदय को छूकर भीतर की कोमलता को महसूस ना होता है वगैरा-वगैरा ...वह जो कह रही होती है या फिर जो कर रही होती है वही उसका आशय नहीं होता; उसका आशय कहीं और छुपा होता है; मेरे लिए कोई नावेल नहीं रेफरेंस बुक है यह, इसे मैं जब जी चाहता है जहाँ से जी चाहता है उठाकर पढ़ने लग जाती हूँ" मैं प्रवाह में थी और रुकने का मन नहीं हो रहा था; वह किसी परीक्षा हॉल में पर्चा देने के समान था; ऐसा लगता था चरित्र चित्रण का एक प्रश्न है और मेरे पास और उस चरित्र के बारे में कहने के लिए इतना कुछ है इतना कुछ है और यह भी कि मुझे अपने कहे गए पर बेइंतहा भरोसा है। इस बार उसने पहली दफे मेरी तरफ देखा उसके दोनों हाथ उसके दोनों बगल सीट पर थे और उसके कंधे पर अब भी तौलिया पड़ा हुआ था।

"और गाफिल में आपको मिला क्या...? मेरा मतलब कोई ऐसी चीज कोई ऐसी एक चीज जिसके बारे में आप कह सकते हैं कि इसे पढ़कर मैंने यह पाया।"

एक सफर और उसमें एक अपरिचित इनसान दो मिनट, पाँच मिनट, दस मिनट या आधे घंटे के परिचय के बाद मुझसे ऐसे सवाल पूछ रहा था जैसे पता नहीं कितना पुराना परिचय हो। सवाल अच्छा था और मेरे पास उसका जवाब भी था इस बार मैंने उस व्यक्ति को बहुत गौर से देखा और देर तक देखती रही; उसे पढ़ने की कोशिश की; मैंने पाया कि वह मेरी तरफ नहीं देख रहा था वह कहीं और ही देख रहा था; खिड़की के बाहर की बारिश को या फिर दौड़ते हुए दरख्तों को या कभी सीट पर रखे सामान को। जैसे उसके लिए किसी का होना ना होना कोई मायने नहीं रखता हो या फिर जैसे वह बातचीत करने की उस औपचारिक परंपरा को धता बता देना चाहता हो जिसके अनुसार बात करते वक्त जिस से बात करो उसकी तरफ अपनी नजरें रखो और वह अपनी बनाई किसी परंपरा में ही चलने पर विश्वास रखता हो। इतनी देर के सफर में उसने बमुश्किल दो या तीन बार मुझे देखा था।

"पता नहीं मिला क्या लेकिन गाफिल मुझे पसंद है उसके पात्र कह सकते हैं या फिर उसका रचा बुना हुआ वह पूरा ताना-बाना जिसमें आप पूरी तरह डूब जाते हैं आकंठ!" मैंने कहा - मुझे लगा मैंने वह सब कहा नहीं, कहीं अंतस में रखा हुआ सब कुछ बाहिर आ रहा था; मुझे लगा मैं बहुत दिनों बाद बातें कर रही हूँ स्वयं से मैंने प्रश्न किया कि उन सारे समयों में जब सोचती रही कि मैं बातें कर रही हूँ क्या मैं वाकई बातें कर रही थी अगर नहीं तो वह क्या था आत्मालाप जैसा कुछ था या फिर कुछ और। मुझे कुछ ऐसा लगा कि बातें करने का आनंद तभी आता है जब आपके सामने वाला आपके मन लायक हो और ऐसा लगे कि उसे शब्दों की जरूरत नहीं है शब्दहीन वार्तालाप! मुझे धीरे-धीरे अच्छा लगने लग गया सब कुछ उसके सवाल; बातें करते हुए उसका ना देखना; कंधे पर रखा हुआ उसका तौलिया; उस वह पुराना जोगिया रंग का बदरंग कुर्ता और फिर उसकी वजह से वह सारा परिवेश; वह खिड़की के बाहर के दृश्य; दरख्तों का दौड़ना; हल्की बारिश; खाली सीटें और भी न जाने क्या क्या! मुझे कुछ ऐसा लगा कि वह मेरी बातों को गौर से सुन रहा था और ऐसा भी वह सारी बातें या फिर वह सारे पात्र अरुणा समीर वगैरा-वगैरा उसके बड़े गहरे परिचित हैं मानो उसके हाथ से गढ़े हुए। मुझे भरोसा हो चला उस पर।

"स्त्रियों को भरोसा दिलाने के लिए ज्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ती" ऐसा अखिल का कहना था जिस पर मैं बहस किया करती।

"ना... बिल्कुल नहीं अब वह समय नहीं रहा... इस स्टेटमेंट में सच्चाई हो सकती है लेकिन यह व्यक्ति सापेक्ष तथ्य है जेंडर सापेक्ष नहीं"

ऐसा मैं ऊपर से कहा करती और पुरजोर तरीके से कहा करती और मन ही मन सोचा करती कि अगर ऐसे विश्वासियों के आँकड़े इकट्ठे हों कभी तो शायद अखिल ही सच निकले, उस में स्त्रियों की संख्या ही ज्यादा निकले। लेकिन ऐसा क्यों है!

"आप भी गाफिल को पसंद करते हैं" मैंने पूछा लेकिन इस बार वह पिछली बार की तरह मेरे सवाल पर हँसा भी नहीं न उसने सर नीचे झुकाया और फिर बाहर देखने लगा देर तक बाहर देखता रहा मुस्कुराता रहा; मुझे लगा कि वह शायद मुस्कुरा नहीं रहा है बल्कि यह उसके चेहरे का स्थायी भाव है फिर उसने अपनी कुर्ते की बाँह को करीने से मोड़ना शुरू किया पूरी तरह एक एक सलवट हटाते हुए।

"लेखक भी बड़ी अजीब चीज है अपना एक संसार सा खड़ा कर लेता है और पाठकों को बरगलाता रहता है बरगलाता रहता है बस बरगलाता रहता है"

वह अब फिर बाहर देख रहा था और मैं उसे देख रही थी लगातार; ऐसा लगा कि बातें जैसे उसके दिल की अतल गहराइयों से निकल रही हैं।

"तो मतलब आप कह रहे हैं कि वे सारी रचनाएँ युग-युगांतर से लिखी जा रही रची जा रही हैं सबकुछ झूठ हैं और यह कि वह सारे रचनाकार, कलाकार, नाटककार और कैनवस पर कूची चलाने वाले और उनकी रचनाएँ उनकी अभिव्यक्तियाँ सब झूठी हैं उनके भाव कुभाव हैं और ...और उनके पाठक उनके दर्शक उनके कद्रदान भी झूठे हैं उनकी रचनाओं के प्रति निष्ठा उनकी आस्था सब की सब झूठ है माया है बस यह सब..."

मैं आवेश में थी मानो मुझ पर ही सब इल्जाम लगा दिया गया हो और एक ही पल में सारा किया धरा बेकार हो गया हो। उसने पहली बार मुझे देखा और मैंने उसे और मेरे अंदर कोई भाव जागृत हुआ ...क्या था वह मैं उसे पहचान ना पाई।

"माया नहीं यह मोह है यह एक का दूसरे के प्रति... दूसरे का तीसरे के प्रति ...तीसरे का चौथे के प्रति और इसी प्रकार आगे-आगे और आगे। जब मैं अपने पात्रों को गढ़ता हूँ तो मोहाविष्ट हो जाता हूँ ...एक एक पात्र के अंदर जाकर डूब जाता हूँ; जाकर कब बैठ जाता हूँ उसके अंदर पता ही नहीं चलता है जैसे तुमने कभी चाक पर कुम्हार को देखा है? वह अपनी बनाई चीज पर हाथ फेरता है बार बार हाथ फेरता है क्या इस स्पर्श में सिर्फ प्रोफेशन टच है नहीं वह सिर्फ प्रोफेशन टच नहीं है, वह उसे बार-बार दुलराता है और जब तक उसकी कृति पूरी नहीं हो जाती वह उसे वैसे ही दुलराता रहता है, थपथपाता रहता है यह सिर्फ प्रोफेशनल टच नहीं है उसमें उसकी आत्मा है और उसका मोह है और फिर उस मोह का साधारणीकरण हो जाता है जब किसी कद्रदान के हाथों में चली जाती है उसकी कृति।"

'ओह... बहुत खूब'

मैं लगातार उसके चेहरे की तरफ देख रही थी अपलक... मैं एक-एक शब्द को पकड़ना चाह रही थी कुछ देर तक हम दोनों के मध्य सन्नाटा रहा; ट्रेन की धड़धड़ की आवाज के बीच जितना सन्नाटा हो सकता था आसपास के लोगों की आवाजो के बाद बचा रह गया सन्नाटा! हमारे ही हिस्से का सन्नाटा !

"तो फिर वह बरगलाने वाली बात तो पीछे ही छूट गई ना..."

वह चुप था और मैं खुश !

"एक दिन ऐसा भी आता है जब वह मोह बंधन सब बरगलाना ही लगने लग जाया करता है कभी किसी एक दिन ऐसा ही लगने लगता है।"

"मैं ऐसा नहीं मानती कि कृतिकार बरगलाता है, वह तो पाश में बाँधता है, मैं ऐसा नहीं मानती वह तो सृजनकर्ता है उसके पास ताकत होती है रचने की इसीलिए वह रचता है उसके अंदर एक सैलाब होता है इसलिए वह रचता है उसके पास सही और गलत को अलग-अलग करके देखने की आँखें होती है इसलिए वह रचता है तीसरी आँख! उसके अंदर सही को सही और गलत को गलत कहने की ताकत होती है इसलिए वह रचता है उसके पास हथियार होते हैं इसलिए रच पाता है..."

मेरे शब्द खत्म नहीं होते थे जैसे कही खुदाई में अचानक मिल गया हो कोई बड़ा सा खजाना जिसमें से शब्द निकलते जा रहे हो एक के बाद एक और रुकने का नाम नहीं ले रहे हों!

"और तुम्हें क्या लगता है गाफिल के पास भी इतना सब कुछ होगा जो अभी तुमने एक के बाद एक लगातार गिनाया"

"बिल्कुल... इतना और उससे कहीं ज्यादा जिसके लिए मेरे पास शब्द नहीं है! मैं तो ...मैं तो... बस साधारण... सामान्य सा एक पाठक हूँ"

"साधारण और सामान्य जैसे शब्द पाठक के लिए तुम इस्तेमाल नहीं कर सकती... जिस दिन पाठक सामान्य हो जाएगा उस दिन कृतियाँ भी सामान्य हो जाएँगी"

वह आप से तुम पर उतर आया था यह मैंने अब जाकर गौर किया था, लेकिन यह आप से तुम का परिवर्तन इतना सहज था कि इसमें नोटिस लेने लायक ज्यादा कुछ था भी नहीं।

"और एक दिन पाठक या दर्शक इतना मोहाविष्ट हो जाता है कि वह कृति का अक्स कृतिकार में देखने की कोशिश करने लग जाता है यह कोशिश जारी रहती है जारी रहती है तब तक जब तक वह मोहांध नहीं हो जाता"

वह मेरी तरफ देख रहा था किसी उत्तर की प्रत्याशा में नहीं बस यूँ ही, मेरी तरफ देखते वक्त भी उसकी आँखें कहीं और थी कहीं और उन अदृश्य स्रोतों पर जहाँ से वे सारी बातें प्रकट हो रही थी।

"लेकिन आप जिसे मोहाविष्ट होना कहते हैं या फिर मोहांध होना कहते हैं उसे मैं कुछ और नाम देती हूँ जैसे जैसे..." मैंने कहा... लेकिन मेरे शब्द गुम हो गए और मैं शब्द तलाश करने लग गई।

"जैसे?"

मैं उसे कुछ भी कह सकती हूँ ...आस्था कह सकती हूँ या फिर..."

"यहीं तो तुम गलत हो..." उसने मेरी बात को जहाँ छूटी थी वहीं से पकड़ा मानो वह जानता हो कि मेरा यही जवाब होगा या फिर मानो यह जवाब वह अनंत बार सुन चुका हो और उसे पता हो कि यही जवाब आने वाला है मैंने यह भी गौर किया कि ऐसा कहते हुए उसकी आवाज ऊँची हो गई थी और उसने जोर देकर अपनी बात कही जबकि पहले वह ऐसा कुछ नहीं कर रहा था।

"तुम यह क्यों नहीं समझती कि वह कृतिकार है वह कोई गुरु नहीं वह कोई राजा भी नहीं है और वह कोई भगवान भी नहीं वह तो बस सिरजनहार है; सिर्फ एक सिरजनहार..."

वह थक गया था और उसकी आवाज में उसकी थकान जाहिर हो रही थी लेकिन वह बहुत-बहुत कुछ कहने की चाहत रखता था लगता था जैसे वह बहुत कुछ कहना चाहता है बहुत कुछ, बावजूद इसके कि वह थका हुआ है!

"वह कृतिकार है वह कलाकार है उसने कृति में अपनी आत्मा अपना तन-मन खून और पसीना और जाने क्या क्या लगाया है उसने अपनी आँखों की नींद और पेट की भूख उसमें होम कर दी है उसने... अपने इमोशन उसमें होम कर दिए हैं और ऐसा करते हुए कितनी बार उसका मन खंड-खंड हुआ कितनी बार उसका तन खंड-खंड हुआ क्या इतना काफी नहीं है! कितनी बार कितने पात्रों को उसने जिया : कितनी बार कितने पात्रों का आतप सहा; कितनी बार कितने पात्रों के साथ वह मरा क्या इतना कुछ काफी नहीं है।"

वह खाँसने लग गया था और हाँ हाँफने भी लग गया था वह। मेरे पास करने को कुछ नहीं था बोलने को शब्द नहीं थे जल्दी में मुझे जो सूझा मैंने वही किया...।

"आप पानी लेंगे..." वह लगातार खाँस रहा था और उसके पास बोलने का अवकाश नहीं था। मैंने बैग से छोटी सी पानी की बोतल बाहर कर ली थी और वह मैंने उसके सामने कर दी। मुझे लगा यह सब मेरी वजह से हुआ है मैं ही हूँ अपराधिनी उसने बोतल मेरे हाथ से ले ली और मुझे बैठने का इशारा किया, कुछ पल बाद वह बोतल किनारे रख कर उठ खड़ा हुआ और अपनी सीट छोड़कर चला गया मैं अब भी परेशान थी; मैं सोचने लग गई क्या मुझे उसके साथ उसके पीछे-पीछे जाना चाहिए क्या वह शरीर से बीमार है अगर उसे अचानक कुछ हो गया तो? क्या उसके पैर उठते वक्त लड़खड़ाए थे; क्या उसे सहारे के लिए किसी चीज को पकड़ रखा था; कितने सवाल थे मेरे आस-पास और मैं उन सवालों से घिरी हैरान-परेशान। कुछ देर बाद वह लौट आया और उसके मुँह पर पानी के छींटे थे मैंने राहत की साँस ली।

ओह अब मैं चुप रहूँगी एकदम चुप। मैंने मन ही मन इस वाक्य को दुहराया।

"कैसा महसूस हो रहा है" उसने हाथ खड़ा किया जिसका अर्थ मैंने लगाया 'ठीक बैठ जाइए 'उसने कुछ पल सोचने का समय लिया और फिर ऊपर की तरफ इशारा किया जिसका मतलब था वह ऊपर वाली बर्थ में जाना चाहता है।

"ठीक है यह ठीक रहेगा थोड़ी देर लेट जाइए और सोने की कोशिश कीजिए इस से राहत मिलेगी।" उसने कंधे पर से तौलिया उतारा और मुँह पोछने लग गया जब तक कि पानी का एकएक कतरा चेहरे से साफ नहीं हो गया मुझे लगा कि अब वह ठीक है क्योंकि उसका खाँसना बंद हो गया था लेकिन उसके अंदर बहुत सी आवाजें थी जो सुनाई नहीं देती थी! उसके ऊपर जाने से मुझे राहत महसूस हुई मैंने बोतल के बचे हुए पानी की एक एक बूँद अपने अंदर की और खिड़की को थोड़ा खोलकर बैग को सर के नीचे तकिए की तरह रखकर लेट गई। नींद आते देर नहीं लगी। सोते समय आदत के अनुसार मैंने घड़ी देख ली थी 3:00 बज के 42 मिनट हुए थे मेरी नींद खुली और फिर आदतन घड़ी देखी तो 5:00 बज के 6 मिनट हो चुके थे। गाड़ी अभी-अभी किस स्टेशन से रेंगती हुई बाहर निकल रही थी और धीरे-धीरे रफ्तार पकड़ रही थी मैं हड़बड़ा कर उठी और मेरे उठने के साथ कागज का एक पुरजा जमीन पर गिरा। मुझे लगा पुरजा मेरे सर के आस पास ही था और वही से वह मेरे उठने पर नीचे जा गिरा था।

"अच्छा लगा तुमसे मिलकर... बातें करके ...लेकिन रचनाकार में रचना का अक्स देखना... कृतिकार में कृति का अक्स देखना... या फिर वैसे ही किसी भी कलाकार में कला का अक्स देखना... यह उम्मीद छोड़ दो!"

शुभकामनाएँ

गाफिल

मैं बार-बार उस एक पुरजे को उलट-पुलट कर पढ़ रही थी देख रही थी; फिर मैंने बैग से बदहवास होकर वही किताब निकाली जिसे मैं साथ लाई थी, किताब के अंतिम कवर को निकाला ऐसा नहीं था मैं पहली दफे वह किताब देख रही थी और उसका कवर भी मैं पहली बार नहीं देख रही थी और ऐसा भी नहीं था कि मुझे पता नहीं था कि वहाँ उस कवर पर कोई तस्वीर नहीं थी पर फिर मैं वहाँ तस्वीर की तलाश रही थी वहाँ कोई तस्वीर नहीं थी; आसपास कहीं कोई नहीं था ऊपर वाली बर्थ बिल्कुल खाली थी। मैं चुपचाप बैठ गई मेरे हाथ में खुला हुआ पुरजा था और मैं बाहर की ओर देख रही थी। मुझे लगा बाहर की तरफ दीवारें खेत सब कुछ धुँधले हो गए हैं; साफ-साफ कुछ दिखाई नहीं दे रहा, आँखों को छुआ तो हाथों के पोर गीले हो गए थे; ट्रेन ने रफ्तार पकड़ ली थी।


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हिंदी समय में ममता शर्मा की रचनाएँ