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उपन्यास

कैनवास पर प्रेम

विमलेश त्रिपाठी


सत्यदेव शर्मा के लिए - जो झूठ होकर भी सच और सच होकर भी झूठ हैं।

शुरुआत के लिए कुछ बातें जरूरी होती हैं। मसलन एक समय की बात है या किसी एक शहर कस्बे या गाँव में कोई एक आदमी या लड़का या कोई लड़की रहती थी।

और फिर ऐसा कहते हुए कथा की शुरुआत करने की एक सुदीर्घ परंपरा-सी बनी आई है। लेकिन जब कथा उस तरह न कहनी हो तब?

तब कैसे शुरुआत की जाए?

मैं जानता हूँ कि चाहे मैं कितना भी कह लूँ, मतलब कसम-वसम खा लूँ लेकिन इस लिखे को आप कथा मान कर ही पढ़ेंगे। मेरे कहने का आप विश्वास नहीं करेंगे क्योंकि इस तरह की बात कहना भी आजकल फैशन-सा हो गया है, लेकिन मैं फिर कहता हूँ कि वास्तव में यह कथा-वथा कुछ नहीं है। इसलिए इसमें आपको कथा के गुरुओं द्वारा गिनाए गए तत्व-अवयव नहीं भी मिल सकते हैं। यह एक अनुभव है जिसके साथ मैं एक यात्रा करूँगा। वह अनुभव भी कई बार मेरा प्रत्यक्ष का नहीं भी हो सकता है लेकिन हो सकता है कि मैं भी कहीं उनमें शामिल होऊँ। लेकिन अभी कुछ भी स्पष्ट तौर पर कहने की स्थिति में मैं नहीं हूँ।

टुकड़े-टुकड़े में की हुई बात अगर एक कथा का रूप ले ले तो मुझे कोई आपत्ति भी नहीं। और यह भी तो तथ्य है कि कथा और होती क्या है, वही न जो पहले घट चुकी है या चुकी नहीं है तो वर्तमान में भी अविरल घट रही है। इस तरह कितनी कथाएँ हैं चारों ओर विखरी पड़ी। कितनी-कितनी कथाएँ कितने-कितने मुँहों से लगातार कही जाती हुईं और कितने-कितने कानों से लगातार सुनी जाती हुईं। हमारी कितनी-कितनी बातों में कितनी-कितनी कथाओं के सार हैं, यह भी तो महत्वपूर्ण है।

कि नहीं?

तो चलिए हमारे साथ एक यात्रा पर - हम और आप। कोई जरूरी नहीं कि आप अंत तक साथ रहें - जब कभी जहाँ कहीं आपको लगे कि आप और साथ नहीं चल सकते तो आप लौट सकते हैं - यह स्वतंत्रता आपको है। अस्तु...

 

1.

अव्वल तो कथा के नायक वही हैं - नायक मतलब सबकुछ। मलतब कहानी उनसे ही शुरू होकर उन्हीं में विलीन हो जाने जैसा कुछ नियम का पालन करती हुई है। वही मतलब सत्यदेव शर्मा यानी पापुलरली नॉन बाई साधु जी, जिन्हें कुछ लोग साधु बाबा कहते हैं और मैं मौज में आकर साधु खान कहता हूँ। यह जानकर आपको दुख होगा कि कई बार एक नाचीज कथाकार का हस्तक्षेप भी होता है। यह कहानी के लिए जरूरी था इसलिए आप इसे मजबूरी में हुआ हस्तक्षेप समझें। यकीन मानिए, मुझे कहानी में आना बिल्कुल पसंद नहीं, क्योंकि मुझसे बेहतर कौन जानता है कि ये कथाकार लोग जिसे कहानी में लेकर आते हैं, उनके साथ कैसे-कैसे सलूक करते हैं। लेकिन मजबूरी है - क्या किया जाए।

सबसे पहले कथा के नायक से परिचय कर लेना जरूरी होगा। तो परिचय कुछ यूँ है नाम - सत्यदेव शर्मा। कुछ लोग साधु जी कहते हैं।

शिक्षा - विज्ञान में स्नातक, बिरला अकादमी, कोलकाता से चित्रांकन में डिप्लोमा

उम्र - लगभग 52 साल

पेशा - शिक्षक। कुछ दिन पहले एक अँग्रेजी माध्यम के स्कूल में चित्रकला पढ़ाते थे। अब ट्यूशन देते हैं। खुद को बेकार चित्रकार कहते हैं।

मैरिटल स्टेटस - सिंगल

फिलहाल घर-घर घूमकर बच्चों को पेंटिंग पढ़ाते हैं। अपने किराए के घर में कम ही जाते हैं। गाँव गए लगभग 20 साल हो गए। बाल सफेद नहीं पर खिचड़ी हो चुके हैं। कभी-कभी उन्हें रंगवाते हैं, इसलिए उनका रंग कई बार लाल भेड़ों के बालों की तरह दिखता है। कभी-कभी नाजिर हुसैन की बनाई गई भोजपुरी फिल्मों के गीत गाते हैं और गाते-गाते उनकी आँखों के लाल डोरे और लाल होते जाते हैं।

कहते हैं कि धरती मइया के गीत उनके सबसे पसंदीदा हैं - खासकर 'जल्दी-जल्दी चलु रे कंहरा'। जानकारी के लिए कहना जरूरी है कि इसे पिछली सदी के एक महान गायक मोहम्मद रफी ने गाया था और चित्रगुप्त ने संगीत बजाया था। यह जानकारी वे खुद देते हैं।

संपर्क : बड़ा माठ के सामने, बाबू साहेब की बाड़ी, लिलुया, हावड़ा, पंश्चिम बंग -711204.

कोई फोन नंबर नहीं।

बहुत दिन हुए उन्होंने कोई फोटो नहीं खिंचवाई। उनकी अपनी तस्वीर जिसे रिंकी सेन ने बनाया था वह उनके संदूक में पता नहीं कितने समय से बंद है। इसलिए फोटो उपलब्ध होते ही चस्पा कर दिया जाएगा।

2.

पहली बार कब मिले? - कथाकार पूछता है। जाहिर है कि अचानक आए इस सवाल से मैं हकबका जाता हूँ।

किससे?

और किससे, उस पागल पेंटर से। अरे जिसके घर गए थे आज तुम। मैं सकते में आ जाता हूँ। इसे कैसे पता कि मैं उसके घर गया था - उस नायक के घर, जिसके ऊपर कथाकार कहानी लिखने की सोच रहा था।

दरअसल कथाकार तो कभी मिला नहीं उससे। मिला तो मैं था और मैं ही जानता था कि कौन है वह, क्या करता है और क्यों रात-रात भर जब सब लोग सो जाते हैं, वह चुप-चाप किसी पेड़ के नीचे बैठा रहता है - उदास-गुमसुम जैसे तपस्या कर रहा हो।

मैं कब मिला था उनसे? मैं सोच की कितनी गहराइयों पार चला जाता हूँ।

कुबूल करता हूँ - हाँ, सच है कि मैं सत्यदेव शर्मा से मिला था।

वह एक बरसाती रात थी।

लगातार हो रही बारिश ने शहर की एक-एक चीज को भिगा दिया था। ठंडी हवाएँ चल रही थी - सर्द साँसें और अधिक सर्द हुई जाती थीं।

मैंने एक आदमी को पेड़ के नीचे खड़े देखा था। लगता था जैसे उसे बारिश की परवाह नहीं। पूरी दुनिया में उस समय वही एक अकेला आदमी था, जो बारिश से बेखबर था। मेरे शरीर पर रेनकोट था, मैं पास की सड़क से गुजर रहा था - तभी देखा था उसे।

ऐसा क्या था उस आदमी में कि मैं ठहरकर कुछ देर देखता रहा था, उसे। तब मैं समझ नहीं पाया था, लेकिन मेरे पाँव रुके हुए थे बहुत देर तक - शायद कोई कविता मेरे अंदर जन्म ले रही थी।

बारिश तेज हो रही थे - रात बढ़ रही थी और एक आदमी पेड़ के नीचे चुप-चाप खड़ा था। सामने कैनवास जैसी कोई चीज भीग रही थी - रंग की कुछ शीशियाँ - एक-दो कूँची।

वह हाथ में एक कूँची लिए खड़ा था। इस बात से भी अनासक्त कि कोई अजनबी उसे देर से घुरे जा रहा था। मैं बहुत देर तक उस बारिश में उसे देखता रहा था चुपचाप - बारिश और तेज होती जा रही थी - बिजली की कौंध से कभी-कभी पूरा दृश्य आँखों में उतर आता था - बाद इसके पूरा दृश्य एक घने कुहरे में तब्दील हो जाता था। मैंने कई बार सोचा कि उस आदमी से जाकर पूछूँ, तुम कौन हो? इस बारिश में अकेले खड़े क्या कर रहे हो? कौन हो तुम जिसे देखकर मैं ठिठक गया हूँ? लेकिन मैंने कुछ नहीं पूछा। देर तक बारिश और उसके बीच चुपचाप खड़े उस आदमी को देखता रहा।

कुछ देर बाद मैं बहुत भारी मन और थके कदमों को लिए घर चला आया।

बात बस इतनी-सी थी। लेकिन उस रात मेरे सपने में कुछ अजीब-अजीब दृश्य उभर कर आ रहे थे। नींद कई-कई बार खुली थी। मुझे याद है कि उस रात मैंने पूरे पाँच गिलास पानी पिया था - साथ उसके लगभग पाँच सिगरेट भी।

वह रात...।

रात दिन साथ चलता कथाकार पूछता है - सवाल पर सवाल। खीझ जाने की हद तक। क्यों और कैसे की गुत्थियों के बीच एक मैं और एक सत्यदेव। कभी कभी सोचता हूँ कि क्या साम्यता है उनमें और मुझमें?

उस रात जब मिला था इस सवाल वाले कथाकार से, हाँ, याद है बराबर, तब तीन बजकर पाँच मिनट हुए थे और नींद न आने के कारण मैं एक पुरानी किताब को अनायास पलट रहा था - उसी किताब के पन्ने में बैठा था वह। अचानक सामने आकर प्रकट हो गया। पहले तो मैंने पहचाना नहीं। बाद में उसने खुद ही बताया कि वह एक कथाकार है और अब कुछ दिन मेरे साथ ही रहेगा। अजीब पेशोपेश थी - अजीब मुश्किल। मैं पूछना चाहता था कि तुम क्यों आए हो और अब मेरे साथ क्यों रहना चाहते हो? मैं वैसे ही बहुत मुश्किल में हूँ - दफ्तर में मेरा बॉस मुझे कवि कहकर हो-हो कर के हँसता है और घर में पत्नी मुझे कविता लिखने के कारण निकम्मा घोषित कर चुकी है। अब यह कथा का शिगूफा लेकर आए हो तो किसलिए आए हो तुम कथाकार! मेरी जान वैसे ही कम आफत में थी कि अब तुम भी चले आए हो मेरी जान को साँसत में डालने के लिए...।

वह रात...।

लेकिन मैं मिला हूँ सत्यदेव से। वह इतना चुप रहते हैं कि हूँ हाँ से अधिक बोलते ही नहीं और आप सवाल पर सवाल पूछे जा रहे हैं - मैं उनके बारे में बहुत कुछ नहीं बता सकता। आप खुद क्यों नहीं चले जाते? तसल्ली से उन्हीं के साथ रहिए, मेरे पास क्यों आ गए। मैं आपके किस काम का हूँ?

कथाकार कुछ नहीं बोलता। बस मुस्कुराता है - जैसे कह रहा हो तुम कितने भोले हो विमल बाबू।

हँसते क्यों हो? मेरे पास बहुत कम समय है। घर है। नौकरी है। बच्चे हैं। ऊपर से तुम क्यों आ गए हो। मैं पहले से ही बहुत परेशान हूँ यार। यह जो मेरी पत्नी है जो सो रही है, चादर तानकर - इसे झगड़ने की बुरी आदत है। मेरी किताबों पर इसकी सख्त नजर है। कभी उसके पल्ले पड़ गए तो कथा-वथा सब भूल जाओगे। इसलिए कहता हूँ। घर में मत आओ। बाहर रहो - कभी समय रहेगा तो तुमसे भी मिल लेंगे।

और जो मुझे मिलने का मन किया तो? वह उसी मुद्रा में बोलता है।

तब देखा जाएगा - तुम जाओ अभी। रात में आना 12 बजे के बाद।

मैं उसे टालने के लिए कह देता हूँ। ऐसा तो नहीं हुआ कभी पहले। मैं सोच में पड़ जाता हूँ - यह एक अप्रत्याशित और अनहोनी बात है जिस पर किसी को भी विश्वास नहीं होगा। पत्नी से कहूँ तो वह कल से ही ओझा-गुनियों के चक्कर में लग जाएगी। इसलिए मैं उसे तो नहीं ही बताऊँगा - मैं चुपचाप सोचता-सा बैठा रहता हूँ।

और पता नहीं कब वह चला जाता है - मेरी उम्मीद के खिलाफ...।

3.

तुम्हें याद हो कि न याद हो -
गा रही हैं आबिदा परवीन
इतिहास से आती हुई उसकी आवाज
वर्तमान को छेदती लगातार गूँज रही है
मरे हुए समय में
सिर्फ गीत ही जिंदा लगते हैं
मुझे क्यों बार-बार सुनाई पड़ता है वह रुदन
जो मेरे दोस्त की आखिरी चिट्ठी में दर्ज थे
क्यों याद आता है
उस रात के बाद का मौन
जब उसके शब्द चुक गए थे
खड़े थे पराजित मेरे सामने शर्मसार
ओ जो हममे - तुममें करार था
गा रही है आबिदा परबीन...।
शहर सुनसान है किधर जाएँ
गा रही है आबिदा परबीन
एक विशाल पेड़ की सभी चिड़िया
उड़ गई हैं
पता नहीं कहाँ किस मुलुक चली गई हैं
कोई मशीन चला रहा है
एक-एक शाखें कतर रहा है
मिट्टी से पानी की जगह
निकल रहा है काला तेजाब
आसमान का छत फट गया लगता है
टप-टप टपकता है
सदियों से संचित आँख का खारा पानी
खाक होकर बिखर जाएँ
गा रही हैं आबिदा परबीन

गीत चलता रहता है कि अचानक मोंगरे की एक तेज खुशबू उनके नाक के आस-पास महसूस होनी शुरू होती है। वे घर से निकल आते हैं। अकेले घर के कमरे में पुराना ताला बंद करते हैं। बारिश ने ताले में जंग लगा दिया है और इसलिए ही ताला लगाने में देर होती है, वे फौरन से पेश्तर उस घर जैसी जगह से कहीं दूर निकल जाना चाहते हैं।

बहुत पहले कमरे के दरवाजे पर नामपट्ट पर उनका नाम टंका होता था। अब सिर्फ पट्ट रह गया है, शब्द घिस कर लुप्त हो चुके हैं - वे शायद अपना नाम भूलने लगे हैं। बहुत दिन हुए जब हर कोई उन्हें उनके नाम से पुकारता था - उनका भी कोई नाम था। मेरा नाम सत्यदेव शर्मा है, वे अपना नाम खूब उत्साह और सही-सही उच्चारण करते हुए बताते थे।

लेकिन अब इतने समयों के पार नाम का सत्य मिटने लगा है, उनके अंदर बैठा कोई देव मर-सा गया है।

वे बाहर निकल आते हैं। घर के सामने तुलसी का एक छतनार पौधा है - उसे हसरत भरी निगाह से देखते हैं और सोचते हैं कि आज वे नहा नहीं सके। वे जब भी नहाते हैं तो तुलसी की जड़ में पानी जरूर देते हैं। पानी देते हुए तुलसी की ओर नहीं मद्धिम सूरज की ओर आँख होती है - आँख कुछ समय के लिए बंद हो जाती है। वे उस समय मंत्र भी बुदबुदाते हैं। यह बचपन में मठ में आए एक साधु ने सिखाया था। बहुत पुरानी बात है, जब दादा के साथ वे मठ में रहने लगे थे। पढ़ाई-लिखाई वहीं शुरू हो चुकी थी। घर पीछे कहीं छूट गया था - घर में रहने की यंत्रणाएँ धुँधली होने लगी थी।

फिर? कथाकार अचानक उपस्थित हो जाता है।

फिर...? वे घर से निकल कर एक चौराहे पर आकर बैठ जाते हैं। वे यहाँ रोज बैठते हैं चुपचाप। पता नहीं क्या सोचते रहते हैं...।

अरे, नहीं। मठ की बात बताओ प्यारे...। मठ में क्या हुआ उसके बाद? कथाकार मेरी आँखों में अपनी दृष्टि गड़ाए हुए है। जैसे लगता है - अपनी आँखों की चमक से मुझे सम्मोहित कर देगा। मैं उसके इस तरह के सवालों से हकबका जाता हूँ - जब-तब मेरे सामने आकर वह खड़ा हो जाता है। उसे देखकर मैं पहले तो घबरा जाता हूँ फिर खुद को संयत करते हुए उससे पीछा छुड़ाने के बहाने ढूँढ़ने लगता हूँ। लेकिन वह मेरी किसी बात की परवाह किए बिना मेरे साथ लगा रहता है जैसे वह मेरा अपना ही हिस्सा हो और मेरे साथ अपने पूर्ण अधिकार के साथ रह चल और बोल रहा हो।

तुम जाओ तो यहाँ से तुम मुझे पागल कर दोगे। मुझसे घाउंज-माउंज सवाल मत पूछो।

मैं अपनी बौखलाहट को दबाते हुए ही यह बात कह पाता हूँ।

इस बार वह सामने की कुर्सी पर आकर बैठ जाता है। इंतजार करता हुआ। मेरे कुछ कहने या बोलने का।

मैं सबसे पहले घर का मुयायना कर लेना चाहता हूँ। पत्नी अगर जगी रही तो मेरी बड़बड़ाहट को पागलपन समझ सकती थी। मैं बेडरूम में गया। बोतल से कुछ घूँट पानी पिया। बहुत करीब से मुयायना किया - वह सो रही थी। उसकी नींद बहुत कच्ची है - मैंने सोचा।

वह अब भी चेयर पर आराम से बैठा था - मेरा ही इंतजार करता हुआ। इस बार उसके हाथ में सुरती थी - अपने हथेलियों में उसे वह आराम से रगड़ रहा था।

तुम क्यों जानना चाहते हो, सत्यदेव के बारे में? एक चित्रकार जो पागलों की तरह हरकत करता है - हाँ, पागलों की तरह ही। उसकी हरकतें देखी हैं तुमने? तुम देखते तो कभी मेरे पीछे नहीं पड़ते इस तरह। वह एक मामूली इनसान है - हमारी आपकी तरह। वह...

वह क्या है इसके विवरण में मत जाओ। तुम बताओ उसके बारे में। वह बीच में रोकता है मुझे...। वह नाराज दिखता है, एकदम बेचैन। वह कुर्सी से उठकर टहलना शुरू करता है कमरे के इस कोने से उस कोने तक। किसी गहरी सोच में डूबा हुआ। मुझे लगता है कि सत्यदेव से ज्यादा पागल तो यही है - क्या किया जाए इसका?

क्या करोगे मेरा...? कोई उपाय है तुम्हारे पास? वह चिल्लाता है। उसकी आवाज में एक गहरी बेचैनी और पीड़ा है। मैं डर जाता हूँ इस बार...। वह सबकुछ समझता है, यहाँ तक कि जो मैं सोचता हूँ वह भी।

मेरी सोच तक में उसकी दखल है।

तुम खुद क्यों नहीं मिलते उससे?

तुम्हारे बिना मैं उससे नहीं मिल सकता।

क्यों भला?

इसका उत्तर मेरे पास नहीं। तुम जब रहोगे तभी वह मुझे दिखाई पड़ेगा। क्योंकि तुम समझो कि हम और तुम अभिन्न हैं। बस, सोच का अंतर है...।

क्या बकते हो तुम। तुम उस सत्यदेव शर्मा से भी अधिक पागल हो। पागल लोगों को पागल लोग आकर्षित करते हैं, ऐसा किसी किताब में लिखा है क्या?

लिखा भी होगा - तो मैं तुम्हें बताने की जरूरत नहीं समझता फिलवक्त।

मैं लाचार-सा उसे देखता रह जाता हूँ।

और वह बैठा रहता है देर तक यूँ ही। पत्नी पानी पीने के लिए उठ गई है। नल से पानी के गिरने की आवाज की ओर मेरा ध्यान है। वह जरूर आएगी यह देखने के लिए कि इतनी रात को एक कमरे के अंदर अँधेरे में मैं क्या कर रहा हूँ। उसे हमेशा शक होता रहता है कि मैं अँधेरे में कई दूसरी लड़कियों से फोन पर बातें करता हूँ। आप जानते हैं न फेसबुक के आने के बाद यह शक और बढ़ा है - यकीन की हद तक। और मेरे कंप्यूटर में इंटरनेट का कनेक्शन है। फेसबुक में मेरा प्रोफाईल भी है।

वह आती है। मैं कातर नजरों से उसकी तरफ देखता हूँ। और उस कथाकार की परवाह किए बिना उसकी अजीब सी आँखों का पीछा करते हुए अपने बेडरूम तक चला जाता हूँ।

कुछ देर बाद पत्नी सो जाती है - उसके नाक की धीमी और लयबद्ध आवाज उसकी गहरी नींद की सूचना दे रहे हैं।

मुझे देर तक नींद नहीं आती। मुझे बार-बार लगता है कि वह आस-पास ही कहीं हैं। कि वह कुर्सी से उठकर हमारे साथ ही यहाँ तक आया है - लेकिन दिखता नहीं। इस बार लगता है कि वह अदृश्य है। मैं धीरे से उठता हूँ और कमरे के अँधेरे में चला आता हूँ। कुर्सी खाली है। लेकिन उसके होने की गंध अब भी है उस अँधेरे कमरे में।

वह शायद चला गया है। मैं सुकून की साँस लेता हूँ।

 

 

4 .

एक शून्य घिर आता है...।

एक टाली का घर। तीन टिनहे बक्से। एक चौकी जिस पर पता नहीं कितने समय से फाल्तू कह दिए जाने लायक समान रक्खे हैं। पूरे घर में दो कैनवास, जो बारिश के पानी से सड़ चुके हैं। उन पर पता नहीं कितने दिन से कपड़े को कसकर उसे कैनवास का रूप दिया गया है। कैनवास पर कोई रंग नहीं। अगर रंग है कोई - तो वह स्याह है।

घर में अँधेरा है।

यह सत्यदेव शर्मा का घर है। असल में उनका नहीं। किराए का घर है। जिसमें वे पता नहीं कितने दिन से रह रहे हैं।

पूछा नहीं कभी? कथाकार की जिज्ञासा है।

मैं चुप रहता हूँ...।

देखिए मैं पहले ही बता दूँ कि मुझे कुछ कविताएँ वगैरह लिखने का शौक रहा है। कुछ एक कहानियाँ भी लिखी हैं। क्या तो, कुछ लोगों को मेरी कहानियाँ बहुत पसंद हैं, और कुछ लोग मेरी कविताओं की तारीफ करते हैं। कुल मिलाकर एक गुमनाम लेखक से ज्यादा की हैसियत मैं खुद का नहीं समझता। मेरे लिखने को लेकर मेरे घर वाले खुश नहीं हैं। सबसे अधिक झगड़े मेरी कविताओं की वजह से मेरी पत्नी करती है। मैं छुप-छुपकर कविताएँ लिखता हूँ और कवि गोष्ठी रही कहीं अगर तो ऑफिस का बहाना कर के घर से बाहर निकलता हूँ। हर समय मेरे साथ एक भय और एक अनजाना-सा दबाव साथ-साथ चलता रहता है। मैं डरपोक और अकेला होता जा रहा हूँ। लेकिन कुछ दिनों से इस एक नए और अजीबोगरीब मुश्किल में हूँ। वह आकर मेरे पास बैठ जाता है और तरह-तरह के सवाल पूछता है।

वैसे पहली मुलाकात सत्यदेव शर्मा से किन हालात में हुई थी - मैं बता चुका हूँ। लेकिन हर समय उनके साथ रहना-घूमना और एक-एक बातें जानना तो आसान नहीं है न। घर परिवार के अलग झमेले हैं, ऑफिस भी है। रोज घर से निकलते वक्त भगवान से प्रार्थना कर के निकलता हूँ कि नौकरी बची रहे। मेरे साथ के ही सात लोगों को एक ही दिन कंपनी ने निकाल बाहर किया गया था। बिना कारण बताए। लोग कहते हैं कि यह लोकतंत्र है, लेकिन यहाँ कुछ भी कहने की आजादी हुई नहीं है। आप बोल के देखिए। वह एक कवि हैं न हिंदी के? क्या तो कहते हैं कि 'क' लिखते ही कत्ल कर दिया जाता है एक कवि। यही आपका लोकतंत्र है... हुँह...।

छोड़िए जी इन सब बातों से आपको बोर करने का क्या लाभ? लेकिन इस सत्यदेव का क्या करें। अच्छा होता उनको मैंने उस बारिश की रात देखा ही न होता। कम से कम यह मुसीबत तो गले नहीं पड़ती।

बाद उसके ही यह आदमी न दिन देखता है न रात। न घर देखता है न दफ्तर। चला आता है दबे पाँव और खड़ा होकर मुस्कुराता है। मैं झेंपता रहता हूँ, डरता रहता हूँ, मेरे दिल की धड़कन बढ़ती रहती है और वह चुप-चाप मुस्कुराता रहता है। मैं सोचता हूँ कि यह दुनिया का सबसे खुशमिजाज इनसान है - इसके पास कोई तनाव नहीं। वर्ना इस कठिन समय में इतना कौन मुस्कुरा सकता है भला - वह भी लगातार!

हर समय कथा। पता नहीं उसको सत्यदेव की कथा में इतनी दिलचस्पी क्यों हो गई है - वैसे इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि मेरी भी इस पात्र में थोड़ी बहुत दिलचस्पी तो हुई है लेकिन यह कथाकार मुझे अपनी उपस्थिति से हद दरजे तक बेचैन और परेशान किए दे रहा है। खैर, आगे बढ़ते हैं और देखते हैं कि क्या होता है - और कि आपसे गुजारिश है कि कृपया आप साथ रहें।

बरगना इस जहाँ में मुस्कुराता कौन है यानिकि दास्तान-ए-सत्यदेव की पहली किस्त

सत्तर के दशक की बात होगी।

तब उनकी उमर बारह-तेरह साल की रही होगी। छपरा जिले का एक धुर गाँव। भाषा भोजपुरी, ठाट भोजपुरी और रहन-सहन पूरी तरह से किसानी। गाँव का नाम अगर न भी लिखें तब भी कोई खास फर्क नहीं पड़ता क्योंकि भोजपुरी अंचल के गाँव लगभग एक ही तरह के होते हैं। दूर तक फैला खेत-बधार। गीत गवनई। भगुआ-चैता और मेहररुई गीत। एक तरह की बेपरवाही और बिंदासपन। घर में रोटी न हो तब भी गीत गवनई में कोई कमी नहीं होती थी। भिखारी ठाकुर के गीत तब एकदम ताजा थे। छपरहियों को तब भिखारी के नाम से ही लोग पहचानते थे। महेंदर मिसिर की किंवदंतियाँ। मेला ठेला तीज त्योहार। विदेसिया नाच और उसमें पूरबी गाने वाले लौंडे।

गीत से उस दस-बारह साल के लड़के को बहुत प्रेम था। लउंडा का नाच वह इसलिए देखने जाता कि उसे पूरबी सुनने को मिलता। पूरबी एक खास किस्म का गीत है जिसमें पुरुष रोजी-रोजगार के लिए पूरब के देश चला जाता है और स्त्रियाँ उसके विरह में जो सोचती हैं उसको गीत का विषय बनाया जाता। ऐसा क्या था उस गीत में जो बारह साल के इस लड़के को अपनी ओर खींचता था।

उसके लिए कोई पुरुष नहीं गया था पूरब के देश। बस उसकी अपनी माँ चली गई थी। वह बहुत छोटा था तभी। दादा यही कहते थे - वह दूर देश चली गई है। वह उस दूर देश को पूरब के देश से पहचानता था और गीत सुनते हुए पूरबी का सारा विरह उसके सीने में उतरता चला जाता था।

एक पुरुष औरतों की तरह सजकर नचनिया बन जाता था। नाचता जाता था डूगी -नगाड़े की ताल पर। वह चुपचाप सुनता जाता था। कई-कई बार उस नचनिया के चेहरे में अपनी माँ के चेहरे को ढूँढ़ता हुआ।

भुनेसर की लड़की का बियाह था। बारात आई थी - समियाना लगा था। शोर हुआ था कि विदेसिया नाच आ रहा है। जरूर नगेसरा भी आएगा - दादा को कहते हुए सुना था उसने। नगेसरा की अपनी विदेसिया पार्टी थी - उसकी उम्र हो गई थी लेकिन आवाज में वही उठान और दर्द था। जब वह पूरबी गाता था तो लोग रोते थे। नोट की बौछार होती थी उस पर। नगेसरा का गीत कभी नहीं सुना था उसने। सुनकर मन ही मन बहुत खुश हुआ कि वह नगेसरा का गीत सुनेगा।

बाबा, सुना है नगेसर का विदेसिया नाच आ रहा है? वह सवाल लिए खड़ा हो गया दादा के पास।

हाँ सोर है चारों ओर। पचास हजार दहेज दिया है भुनेसर ने। नगेसर के नाच से कम ले आएँगे तो इज्जत रहेगी? चान बिजुलिया की औकात नहीं, नगेसरा तो आ ही सकता है।

चान बिजुलिया? क्या वह नगेसरा से भी बड़ा नाच है?

अरे, वो लेडी का नाच है। वह सब नाच सरीफ लोग थोड़े देखते हैं। ऊ सब माफिया लोगन के यहाँ जाती हैं। पुलिस आती है। बड़ा झमेला है उसके नाच में। हम नहीं देखे कभी। और खबरदार तू भी मत देखना।

अच्छा...। पर क्यों दादा?

कह दिया न सरीफ लोग नहीं देखते वह नाच। समझे गए कि नहीं।

हम्म...।

दादा अपने काम में लग जाते हैं। वह कुछ देर इंतजार करता है फिर वापिस लौट जाता है।

गाँव के बाहर शामियाना लग गया है। शामियाने के पीछे रेंवटी लगी है, जो इस बात का संकेत है कि बारात में नाच-पार्टी भी आएगी। रेंवटी नचनियों के सजने-सँवरने की जगह होती है जो मूल शामियाने से लगी टेंट की तरह तान दी जाती है। नाच-पार्टी अपने साज-साजिंदों और नचनियों के साथ वहीं अपना डेरा जमाते हैं। ठीक उसके सामने पर्दा लगा होता है और पर्दे के आगे चौकियाँ बिछाकार मंच जैसा बना दिया जाता है। इसी मंच पर लउंडे नाचते हैं और एक तरफ साजिंदे बैठे हुए हारमोनियम, तबला और डुगी-नगाड़ा बजाते हैं। इस मंच पर ही पाठ भी खेला जाता है - विदेशिया नाच में बेटी बेचवा, सत्ति बिहुला, सारंगी-सदाबृक्ष आदि नाटक मंचित किए जाते हैं जिसे लोग पाठ खेलना कहते हैं। नगेसर की उम्र हो गई है लेकिन सत्ति बिहुला में वह बिहुला का पाठ लेता है - वह गीत-गाते हुए जब विलाप करता है तो लोग गमछे से अपनी आँख पोंछते हैं। तो ऐसे ही थोड़े है, कहते हैं कि नगेसरा भिखारी ठाकुर का चेला है - नाटक और अभिनय उसने भिखारी ठाकुर से सीखा है। आज भुनेसर की लड़की की शादी में उसी नगेसर की पार्टी आ रही है। लोग खुश हैं लेकिन सबसे ज्यादा खुशी सत्यदेव को है। वह कई बार शामियाने का चक्कर लगा चुका है। सैफू को कोई खास खुशी नहीं है - उसे लउंडों का नाच पसंद नहीं। वह लेडी का नाच देखता है और रंडियों को पैसे दिखाकर टिटकारी मारता है और उन्हें ललचाकर अपने पास बुलाता है।

बारात आ गई है - पैट्रोमेक्स जल चुके हैं। रेंवटी में नाचपार्टी सज रही है - पाऊडर और सेंट की खुशबू से शामियाना महक उठा है।

घर नहीं आते सत्यदेव। सीधे शामियाने की ओर चले जाते हैं। गाँव के अँधेरे से दूर शामियाने में गैस की सनसनाहट के बीच रोशनी के कतरे दूर खेतों तक विखर रही है। उनके कदम तेज हो जाते हैं। चौकियाँ लग गई हैं। उसके पीछे रेंवटी बँधी है और उसके आस-पास नचदेखओं की भीड़ जमी है। लौंडे तैयार हो रहे हैं। एक अधेड़ आदमी पास ही में बैठा बीड़ी पी रहा है। नगेसरा है यही - एक आदमी धीरे से बुदबुदाता है।

सत्यदेव सबकुछ भूलकर नगेसर नचनिया को देख रहे हैं। तभी पीछे से कोई आकर उन्हें पकड़ लेता है - वे चिहुंक जाते हैं। पीछे हकबकाकर ताकते हैं - सैफू है।

तुम्हें खोजते हुए मियंटोली गए थे - उनकी शिकायत है।

सैफू हँस रहा है

बारातियों के आगे मैली और फटी दरी पर एक जगह बनाकर दोनों बैठ जाते हैं। सैफू और सत्यदेव। वे दोनों मुयायना करने आए थे लेकिन अब इस उजाले और सजी हुई महफिल को देखकर उन्हें फिर घर लौटने का मन नहीं होता। नगेसर के नाच ने सबकुछ भुला दिया है - मरछिया की मार। उसका डर सबकुछ।

हारमोनियम बजना शुरू होता है - डूगी-नगाड़े की लयबद्ध आवाज बजने लगी है। लोग झूमने लगे हैं। एक-एक कर नचनिया मंच पर आ रहे हैं - पहले प्रार्थना होगा।

सत्यदेव को इंतजार है नगेसर का। उसे पूरबी सुननी है - नाच में उसका मन नहीं रमता। वह पीछे लगे परदे को देख रहा है। परदे पर एक बूढ़ा आदमी पगड़ी बाँधे लाठी लेकर खड़ा है - एक सुंदर औरत उसके पास नृत्य की मुद्रा में चित्रित है।

भूख भी लग रही है। याद आता है कि बिना खाए चले आए हैं। मरछिया का चेहरा याद आता है। सुबह के बारे में सोचकर रूह काँप जाती है सत्यदेव की - वे नगेसर की पूरबी में सबकुछ भूल जाना चाहते हैं।

लेकिन प्रार्थना के बाद नाच शुरू है...। डूगी बज रहा है - नाच हो रहा है। जोकर हँसा रहा है...। अश्लील फब्तियाँ कस रहा है। पीछे बैठा एक मोटी मूँछों वाला आदमी दुनलिया से कभी-कभी फायर करता है। लोग उसकी ओर देखते हैं - वह मूँछों पर ताव देता अपने कंधे से दुनलिया टिकाए शान से बैठा नाच देख रहा है।

मंच पर नगेसर आ चुके हैं। लाल रंग की साड़ी पहने नगेसर पहले सुमिरन करते हैं, सरस्वती वंदना। ऐसा लगता है जैसे मंच पर कोई दिव्य दृश्य तैयार हो गया हो। सत्यदेव के रोंगटे खड़े हो जाते हैं। बार-बार वह स्वयं को झटकता है - आह कितना दिव्य लग रहा है नगेसर का चेहरा।

सैफू बीड़ी सुटक रहा है दूर खेत की तरफ जाकर।

भूल गया है सत्यदेव सबकुछ। सैफू कब चला गया उसे याद भी नहीं। पूरबी की तान में डूबता उतराता वह भूल गया है अपनी मरछिया की पिटाई। पीठ पर पड़े सरके की दाग।

नगेसर को वह बार-बार कई बार देखता है - उसे लगता है कि उसकी अपनी माँ का चेहरा नगेसर से कितना मिलता है। वह माँ ही है - वह माँ जो किसी दूर देस चली गई थी - अब आ गई है यहाँ नगेसर की शक्ल में...। भूल गया है वह सबकुछ। पूरबी उठ रही है गिर रही है, बजता है डूगी नगाड़ा हारमोनियम और तबला और आँखों में नदी की धार उतर आई है सत्यदेव के। वह भूल गया है सबकुछ कि भूल जाना चाहता है - यह संसार कितना मनोरम है। इसी संसार में वह लगातार धँसता चला जा रहा है। इस बात से अनजान कि उसका एक घर है जिसमें मरछिया रहती है - जो कई-कई बार उसे खाना नहीं देती और इस तरह यदि वह नाच देखता रहा कि पता नहीं उसके इसके लिए कितनी निर्मम सजा मिलेगी।

भूल गया है वह सबकुछ - देर रात तक पूरबी की तान उठती और गिरती रहती है और वह तमाम भौतिक चीजों से बेपरवाह एक अलग दुनिया में लगातार उड़ रहा है - निस्पृह और नादान।

5.

अचानक मेरी नींद खुल गई थी। ऐसा अक्सर होता है मेरे साथ। मैं कोई बुरा सपना देखता हूँ और डर के मारे बहुत जोर से चीख पड़ता हूँ। जितनी ताकत हो सकती है चिल्लाने की एक आदमी के अंदर उतने ही जोर से। शुरू में पत्नी डर जाती थी। लेकिन अब ध्यान नहीं देती। मैं चिल्लाता हूँ और वह कुछ क्षण के लिए कुनमुनाती है और फिर सो जाती है।

लेकिन आज मैं चिल्लाया नहीं। चुपचाप उठ बैठा। लगा कोई बहुत देर से मुझे जगा रहा था।

अन्हुआया-सा मैं फिल्टर की ओर जाता हूँ, गला सूखता-सा लगता है। मुझे पानी की जरूरत है। एक गिलास पानी एक ही साँस में पी जाता हूँ।

बाहर कोरिडोर और उसके पार सब कुछ शांत है। मोबाइल में दो बजता हुआ दिखता है। वॉलपेज पर हनुमान जी की तस्वीर देखकर मुझे राहत महसूस होती है। मैं डरने के बारे में सोचना बंद कर देता हूँ। जब डर लगे तो डर के बारे में सोचना बंद कर दो। किसी कविता के बारे में सोचो या किसी कहानी के किसी पात्र के बारे में, बहुत समय पहले की कहीं पढ़ी हुई यह बात याद आ जाती है। मुझे लगता है कि कोई है जो मेरे साथ चल रहा है, मेरी हर गतिविधि को ध्यान से देखता हुआ।

कहीं फिर तो नहीं आया वह?

मैं मुआयना कर लेना चाहता हूँ। मैं बहुत धीमे कदमों से अपने किताबों वाले कमरे की ओर बढ़ता हूँ।

और वह सचमुच बैठा है। वहीं, ठीक उसी जगह जहाँ उसके होने की कल्पना की थी मैंने। चुपचाप मंद-मंद मुस्कुराता हुआ। जैसे मेरे ही इंतजार में बैठा हो और आश्वस्त हो कि मुझे तो आना ही था।

आओ, बैठो। वह बहुत प्यार और सहानुभूति से आदेश देता है। मैं कुछ देर पता नहीं किस सोच में डूबा उसे देखता रहता हूँ। मुझे लगता है कि दरअसल मैं जगा नहीं और मैं अब भी एक गहरी नींद में हूँ।

मैं दीवान पर बैठ जाता हूँ। वह कुर्सी पर ही है। मैं देखता हूँ मेरे अंदर बहुत सारे प्रश्न हैं, डर है, खीझ है, बेचैनी है, पीड़ा है। इनका एक कोरस उस समय मेरी आँखों में उतर आया हुआ लगता है। वह लगातार मेरी आँखों में देखता जा रहा है।

देखो, मैं तुम्हारा मुखालिफ नहीं हूँ। मैं उस आदमी के बारे में लोगों को बताना चाहता हूँ। वह 'डिजर्व' करता है। मैं चला जाऊँगा। लेकिन यह काम करना है मुझे पहले। इसमें तुम्हारा सहयोग चाहिए। तुम भूल क्यों नहीं जाते कि तुम एक साधारण इनसान हो? साधारण मतलब घरेलू। जब तक तुम नहीं भूलोगे यह बात, तुम जीवन भर कलम घिसते रहोगे, कोई झाँट नहीं पूछेगा तुमको। देखो, मेरी बात का बुरा मत मानो। मैं तुम्हारी भलाई के लिए ही आया हूँ।

हम्म...। मैं उसे विस्मित-सा उसे घूरता रहता हूँ।

तो तुम निकलो अपने डर से। और चलो साथ चलते हैं। तुम्हें बाहर निकलने की जरूरत है। इस घर से और घर के अंदर की ऊब से। थोड़ा बिंदास बनना है। बिंदास मतलब समझते हो ना?

मैं अब भी एकटक देख रहा हूँ उस रहस्यमय आदमी को जो खुद को कथाकार कहता है। मैंने कहानियाँ तो लिखी हैं, कविताएँ भी लिखी हैं लेकिन ऐसा तो कभी नहीं हुआ कि किसी रहस्यमय आदमी ने मुझे इस तरह परेशान किया हो।

तुमने ही जगाया मुझे?

हाँ, मैंने ही।

इस वक्त?

हाँ, इस वक्त...।

क्यों?

बताता हूँ। लेकिन तुम्हें मेरे साथ चलना होगा अभी...।

कहाँ?

यह सवाल पूछना पहले तुम्हें बंद करना होगा। चिरकुट की तरह बात मत किया करो यार। बोलो तैयार हो? हाँ या ना?

मैं क्या जवाब दूँ। ऊहापोह तो है लेकिन पता नहीं क्यों इस आदमी में कैसा तो आकर्षण है कि 'हाँ' कह देने का मन करता है। सोचता हूँ कि इसी के साथ कहीं निकल जाऊँ - किसी खोह में, किसी जंगल या किसी वीरानगी में। सात-आठ साल के जीवन - मतलब घरेलू जीवन में पता नहीं कितनी बार सोचा है कि चला जाऊँगा। कहीं भागभूग जाने की जुगत में कई-कई बार रातभर घर से बाहर भी रह चुका हूँ। और भी बहुत कुछ किया है, क्या-क्या बताऊँ आपसे। लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ कि किसी ने इस तरह मुझे परेशान किया हो।

मैं... देखो, मैं अभी कुछ कह नहीं पा रहा। अभी वह जग जाएगी।

तुम सोचते बहुत ज्यादा हो। एक लेखक को इस तरह नहीं सोचना चाहिए जैसा कि तुम सोचते हो।

लगता है वह जग गई है।

मैं हड़बड़ाहट में विस्तर पर दुबक कर लेट जाता हूँ। ऐसे कि जैसे रात में पत्नी के कमरे से आकर इस अकेले अँधेरे कमरे में सो गया हूँ।

उसके कदमों की आहट सुनाई पड़ रही है - साफ-साफ। मेरे दिल की धड़कन और उसके पैरों की चाप मिलकर एक होती जा रही है। वह आते ही मुझे झकझोर देगी। मैं कल्पना कर रहा हूँ कि उसके हाथ मेरी ओर बढ़ रहे हैं और वह गुस्से में है।

मैं कल्पना करता हूँ कि उसकी चीखें दीवारों को चिरती हुई बाहर जा रही हैं - कल सुबह जब मैं उठूँगा तो पड़ोस के खन्ना अंकल मेरी ओर एक अजीब निगाह से देखेंगे। तिवारी जी एक मस्त हिदायत ऑब्लिक सलाह दे देंगे और हूहूहू कर के हँसेंगे और मेरा मन करेगा कि अपने दोनों हाथ से उनका मुँह चाँप दूँ। मान लीजिए अगर कोई कुछ नहीं बोलेगा तब भी उसकी निगाह में उसके चिल्लाने का चित्र साफ-साफ देख ही लूँगा मैं।

लेकिन मैं आँख बंद किए रहता हूँ - कहीं कोई हरकत नहीं होती।

तो क्या वह नहीं आई? तो क्या यह मेरा भ्रम था। तो क्या यह मैं सपना देख रहा हूँ।

एक नरम हाथ मेरे गाल को छूते हुए लगते हैं।

पापा, उठो कब की सुबह हो गई। यह अंकू है।

मैं हड़बड़ा के आँख खोलता हूँ। सामने वह मुस्कुरा रहा है। स्कूल जाने के लिए पूरा तैयार।

अले, मेला बेता तैयाल हो गया? मैं खुश हो जाता हूँ कि यह कोई सपना था।

किट्टू भी तैयार हो गया है। और जानते हैं पापा, वो टी.वी. देख रहा है।

और मम्मी? मैं पूछता हूँ।

वह तो किचेन में है।

मैं चुपचाप एक भर गिलास पानी पीता हूँ और बाथरूम की ओर रुख करता हूँ। इस बीच एक बार पत्नी से मेरी आँख मिलती है। वह गुस्से में घूरती है मुझे - मैं दुबक कर बाथरूम की ओर बढ़ जाता हूँ।

और मैं वह हूँ कि गर खुद पे कभी गौर करूँ यानि दास्ताने सत्यदेव की दूसरी किस्त

सत्यदेव पूरबी में खोए रहते हैं। उसके बाद नौटंकी। बाच-बीच में नगेसर की पूरबी होती है - उसके लालच में बैठे रहते हैं। इस बीच सैफू बीड़ी फूँकता रहता है - नौटंकी से बोर होकर वो सैफू के पास चले आते हैं सामियाने के बाहर खेत में। सैफू हर बार की तरह पूछता है।

बीड़ी पिएगा बाबा?

नहीं, रहने दे नशा हो गया तो?

कितनी बार कहा कि ये बीड़ी है - चरस या गाँजा नहीं। बोल पिएगा? जलाऊँ? नींद भगाने का सबसे अच्छा उपाय है।

तूने कहा था न कि खैनी में नशा नहीं। खाने के बाद चक्कर आए थे कि नहीं? उल्टी हुई थी कि नहीं? मरछिया से कितनी मार पड़ी थी, याद है न?

पतरकी, उस साली का तो एक दिन हिसाब कर देंगे। सैफू मौज में आ गया लगता है।

सत्यदेव को उसकी बात अच्छी नहीं लगती। वह उसके हाथ से उसकी बची हुई बीड़ी ले लेता है।

अरे बाबा, काहे हमको दोजख में भेज रहे हो। मियाँ की जूठी बीड़ी पियोगे?

मैं मियाँ हिंदू यह सब कुछ नहीं मानता। आदमी को मानता हूँ। देखा नगेसर पूरबी में क्या गा रहा था - सबसे ऊपरा मानुख तार ऊपर कोउ नाहीं। तूझे बीड़ी फूँकने से फुरसत होगी और रेंवटी में नवछेटिया लउंडों को देखने से छूटोगे तब तो मरम समझोगे न।

नगेसर फिर मंच पर था - पिया मोर गवनवा कइलें जालें बदरी में...। खींचा चला गया सत्यदेव। निस्सार है सबकुछ। सब मिथ्या है, जीव-जगत सबकुछ। माया है। पिता फँसे हैं, दूसरा ब्याह कर के लाए। उस पतरकी ने जीना हराम कर रखा है, क्यों। क्या लेकर जाएगी। मरेगी तो कौन होगा उसके आस-पास। कोई कितने दिन तक बरदास करे। पिता तो मउग हो गए। आह, क्या दर्द है नगेसरा की आवाज में। लगता है माँ की ममता फूट-फूट पड़ रही है - यह तो बहुत बड़ा साधु है। कोई सिद्ध पुरुष। दुसाध के घर में जन्म लेकर यह हुनर, यह कला। साक्षात सरस्वती गा रही हैं, उसके वेश में।

रात गहराती जा रही है।

सत्यदेव को बीड़ी लग गई है। नींद क्या खतम होगी। गीत खतम होते न होते सामियाने की धूल भरी दरी पर वह लुढ़क जाता है। सैफू नौटंकी देखने और लौंडों को टिटकारी देने में व्यस्त है। दस-दस के चार नोट दिखाता है - होय-होय का हल्ला हो रहा है। ...और सत्यदेव बेखबर। नाक बजने लगी है - और नाच के संगीत में खो गई है कहीं। नाच पार्टी थकने लगी है लेकिन रात भर का साटा है - उसे तो पुराना है...। नहीं तो सुबह पैसे को लेकर चख-चख।

सुबह एक अलग तरह की होती है उस दिन।

रामबरन आगे-आगे। सत्यदेव पीछे-पीछे। शामियाने से सीधे घर की तरफ जाते हुए। दोनों चुप।

सुबह खोजते हुए रामबरन यानि सत्यदेव के पिता शामियाने तक पहुँचते हैं और धूल में लोट रहे सत्य को उठाकर ले जा रहे हैं घर।

मरछिया का फरमान है।

सत्यदेव जानता है कि मरछिया तक पहुँचाकर रामबरन की ड्युटी खतम हो जाएगी। फिर मरछिया का नाटक शुरू होगा। सैफू ठीक ही उसे मेहरारू नहीं, मेहरार कहता है। औरतों में जो मर्द औरते होती हैं वो मेहरारू नहीं मेहरार होती है - सैफू ऐसा ही कहता है और जोर-जोर से हँसता है। मरछिया सत्यदेव की मएभा महतारी (सोतेली माँ) है।

सत्यदेव की माँ सुगनी देवी सात साल पहले खून की कमी से मर गई थी। सुगनी देवी रामबरन की पहली पत्नी थी। पेट से थी - लेकिन बहुत कमजोरी।

तब सत्य सिर्फ तीन साल का था। सत्य को माँ का धुँधला चेहरा याद है। उसके सपने में हड्डियों का एक ढाँचा आता है बार-बार जिसके मुँह से बहुत मुश्किल से आवाज निकलती है...। वह पानी माँगती है और वह दौड़कर लाने जाता है सुराही तक। आकर देखता है तो खाट खाली है...। लोग उसे बाँस के खटोले पर कहीं ले जा रहे हैं...। राम नाम सत्य है कि गूँज से हर बार उसकी नींद खुल जाती है...। वह डर और पसीने से हदस जाता है...। लेकिन कोई नहीं दिखता कहीं। पास के पेड़ पर एक उल्लू रोता रहता है रात-भर।

फिर कुछ दिन बाद बाजे बजते हैं। पिता के साथ डोली में वह सहबाला बन कर जाता है, उनकी शादी में सरीक होने। अपनी दूसरी माँ को लाने।

माँ दुबली-पतली है जब आती है तो सत्य को उससे मिलने में शर्म नहसूस होती है। वह सैफू को बताता है माँ के बारे में।

बाद में सैफू मिलता है तो मरछिया देवी का दुबला-पतला चेहरा देखकर उसका नाम पतरकी रख देता है। तब से जब भी बात होती है - सैफू उसे पतरकी ही कहता है। सत्य को शुरू में अपनी दूसरी माँ के लिए यह संबोधन अच्छा नहीं लगता। लगता तो अब भी अच्छा नहीं है - लेकिन अब माँ के प्रति उसके हृदय में जज्बात का कोई रेशा शेष नहीं है। वह अनासक्त हो गया है और इस अनासक्ति के साथ ही उसकी अपनी माँ की स्मृतियों का ग्राफ थोड़ा बढ़ गया है। दुःस्वप्न की अवधि और अधिक बढ़ गई है।

जब घर पहुँचे रामबरन और सत्यदेव तो पतरकी दुआर पर ही खड़ी मिली। दादा चौकी पर बैठकर पूजा कर रहे थे। उनकी भी उम्र हो गई थी। उनका कहीं आना-जाना बंद के लगभग हो गया था। सत्यदेव ने जब पतरकी को देखा तो उसका खून सूख गया। बोली की परवाह नहीं थी उसे। गाली-गलौज का तो वह पहले से ही अभ्यस्त हो चुका था, लेकिन मार की याद आते ही अंदर कहीं कुछ दरकने लगा था।

वह एक अपराधी की तरह खड़ा हो जाता है - दुआर पर। माँ कहने में अब जिसको शर्म आती है, वह माँ दाँत पीसती खड़ी है। पिता चुपचाप अपने काम में लग जाते हैं। दादा लगातार मंत्र पढ़े जा रहे हैं। हवा रुक गई है, पृथ्वी रुक गई है, पाखियों ने चह-चह करना बंद कर दिया है। गाय का बछड़ा चुप है अपने खूँटे से बंधा। चरनी पर बँधी गाय नाद में मुँह ढुकाए, खेसारी के दाल का एक दाना खोज रही है।

इन सबके बीच सत्यदेव जैसे शून्य में खड़ा है। और उसके सामने खड़ी है, वह स्त्री जिसे डोली में बैठाकर लाया था वह अपने पिता के साथ। सहबाला बना था।

बीच में कुछ नहीं है।

कुछ समय बाद वह एक अँधेरे बंद कमरे में पड़ा है। हिचकियाँ लेकर रोते हुए। माँ... माँ... की एक ऐसी ध्वनि निकल रही है - इतनी करुण कि घर की दीवार पिघलने लगती है। धरती डोलने लगती है। प्रलय जैसा कुछ आने-आने को है। अँधेरे घर में ऊपर के दरवाजे से रोशनी के कुछ कतरे आते हैं। सामने की दीवार पर पड़ रही रोशनी की ओर लगातार उसकी नजर है। पीठ पर छाकुन के निशान हैं, असह्य दर्द से वह ठीक तरह कराह भी नहीं पा रहा। पीड़ा और क्षोभ से चेहरा विकृत हो आया है - आँख के सामने अँधेरा छाने लगा है।

कि देखते-देखते दीवार की वह रोशनी एक शक्ल में बदलनी शुरू होती है।

यह क्या, कौन यह? सिसकी कम होने लगती है। दीवार पर एक स्त्री का चित्र उभरता है - पहले वह चित्र नगेसर नचनिया की तरह लगता है - फिर वह शक्ल एक कमजोर स्त्री में बदल जाता है - वह स्त्री कुछ बोलना चाहती है, लेकिन उसके मुँह से आवाज नहीं निकलती।

माँ कहकर सत्यदेव उस आकृति की ओर दौड़ता है... लेकिन प्रकाश की किरणें उसके शरीर पर आ जाती हैं। दीवार स्याह अँधेरे में बदल जाती है। वह निरीह चुप और हताश पत्थर की तरह खड़ा रह जाता है, पता नहीं कितनी देर तक।

नीचे कोयले के टुकड़े बिखरे पड़े हैं। जिस घर में वह बंद हैं, वहाँ जलावन का सामान रक्खा जाता है। कोयला, गोइंठा, फारी हुई लकड़ियाँ बाजरे-ज्वार के ढाठे। किरासन तेल और कुछ तेल में सने अनुपयोगी जूट।

हाथ में कोयला उठाते हुए वह सोचता है कि अपनी माँ... अपनी माँ जो कहीं दूर देस चली गई है उसका चित्र बनाए। वह आँख बनाता है, कान और एक पिचके गालों वाला चेहरा। वह लगभग उसके द्वारा बनाई गई पहली आकृति है। चिरईं-चुरूँग और फूल पत्ती से अलग एक जिंदा तस्वीर - जो बोल बतिया सकने के लायक है। कोयले से बनी वह स्याह तस्वीर - जिसकी साँसें चलती हैं। हिचकी रुक जाती है, आँसू सूख जाते हैं। चेहरे पर एक शांत भाव उभर आता है, जिसे आभा कहते हैं शायद...।

उसे सजा दी गई है और उस कोयले और गोइठे से भरे एक अँधेरे घर में बारह-तेरह साल का वह लड़का सो रहा है, एक रात, एक दिन, दो रात। बिना खाए-पिए। दीवार पर बनाई एक आकृति के सहारे।

एकदम निःशब्द।

6 .

नींद क्यों रात भर नहीं आती
गा रही हैं आबिदा परबीन
पूरी कायनात सो रही है
देश सो गया है
लोग सो गए हैं
पेड़ के पखेरू चले गए हैं स्मृतियों की काली दुनिया में
जाग रहा है कोई एक पागल फकीर
दुनिया की फिक्र में सर खपाता
कोई उम्मीदबर नहीं आती
गा रही हैं आबिदा परबीन

नींद नहीं आ रही। आँख बंद करते ही लगता है कि वह आकर मेरे सामने खड़ा है। पत्नी मुझे जगा हुआ देखकर एक अजीब निगाह से घूरती है। शायद वह कहना चाहती है कि क्या बात हैं, नींद क्यों नहीं आ रही है। लेकिन यह पूछना उसके लिए काफी मुश्किल लग रहा है। कई बार हम किसी से खराब बातें आसानी से कर लेते हैं, लेकिन कोई अच्छी बात कहने के पहले हमें शर्म आती है। संबंध एक ऐसे धरातल पर चले जाते हैं, जहाँ अच्छी बातें अटपटे मुहावरे की तरह आती हैं, एकदम अप्रत्याशित, जिनके बारे में सोचकर हम शर्मिंदा हो जाएँ थोड़ी देर के लिए।

वह कई बार देखती है। हर बार अलग-अलग नजरों से। मैं बताना नहीं चाहता कि रात को वह आता है, मुझे कहीं ले जाने को और दूसरी ओर करवट बदल लेता हूँ।

पत्नी पानी पीती है। चेहरे पर बोरोलीन मलती है। अंत में मुझसे एक नजर मिलती है उसकी, फिर वह लाइट बुझाकर बिस्तर पर निढाल हो जाती है। मैं कहना चाहता हूँ कि लाइट जलती रहने दो, मुझे अँधेरे में डर लगेगा, लेकिन चुप रहता हूँ। बस एक कातर नजर से मैं देखता हूँ उसकी तरफ और झूठ-मूठ आँखें बंद कर लेता हूँ।

लाइट बंद होते ही मेरी आँखें खुल जाती हैं। कुछ समय पहले कुछ कविताएँ जोड़ लेता था लेकिन अब तो वह भी नहीं कर पा रहा। उस आदमी, मतलब तथाकथित कथाकार ने मेरे नाक में दम कर के रखा है। अरे क्या हुआ लेखक नहीं बना - अब लेखक बनने के लिए पागलों की तरह चिरकुट बटोरूँ, रोड पर फटेहाल फकीरों की तरह गदहेंड़ई करूँ।

अजीब जिद्दी आदमी है।

क्या मैं आँखें बंद किए सोने का अभिनय करता रहता हूँ? मेरे पास ही पत्नी सो रही है। एक हल्की-सी आवाज उसकी नींद खोल देने के लिए काफी है। मैं नहीं चाहता कि उसकी नींद खुले। क्या उसके सो जाने पर मुझे आजादी का अहसास होता है? क्यों इस घर की एक-एक दीवारें मुझे अजनबी लगती हैं - एकदम जड़? जैसे मैं इन्हें जानता ही नहीं - यहाँ रहा ही नहीं कभी। मेरे अंदर एक अजीब सी शून्यता क्यों भरती जा रही है - क्या इसे ठीक-ठीक शून्यता कहना भी ठीक है?

एक ऐसा समय जब तुम्हारी अपनी प्यारी किताबें भी तुमसे बोलना-बतियाना छोड़ दें वह समय कैसा होगा। उसको व्यक्त करने के लिए सही शब्द क्या होगा। बहुत सारे शब्दों की भीड़ में कोई एक शब्द भी मिल पाएगा, जो ठीक-ठीक तुम्हारी शून्यता तुम्हारे और तुम्हारी रचना के बीच के गैप को हू-ब-हू व्यक्त कर सके...?

आगे आती थी हाले दिल पे हँसी
गा रही हैं आबिदा परवीन
एक सन्नाटा रेंगता है
घर के चारों ओर घूप अँधेरे में
शब्द चींटियों की तरह अभरते
फिर किसी खोह में
हो जाते हैं अदृश्य
घर की दीवारें बजती रहती हैं
बहुत मद्धिम पीड़ा में
अब किसी बात पर नहीं आती
गा रही हैं आबिदा

मैं चुपचाप आकर कोरीडोर में खड़ा हो जाता हूँ। लगता है कि वह आया है - खड़ा है एक कोने में। मैं एक गहरी दृष्टि से देखता हूँ उसकी ओर। नहीं, वह नहीं है। एक पेड़ की छाया है, जो बाहर से आ रही है।

वह नहीं है - मैं बुदबुदाता हूँ। लगता है कि आज के इस नींद से खाली रात में उसे जरूर होना चाहिए था। वह नहीं आया - मैं बुदबदाता हूँ। कल सत्यदेव के घर जाऊँगा - मैं बुदबुदाता हूँ। पत्नी सो रही है - मैं बुदबुदाता हूँ। बच्चे रोज स्कूल जा रहे हैं - मैं बुदबुदाता हूँ। सत्यदेव के घर जाना है, उनके घर की सफाई करनी है - मैं बुदबुदाता हूँ। अपने हाथ को अपने हाथ से छू लेता हुआ, अपने बालों को एक बार कसकर उखाड़ता हुआ, खुद को झटकता हुआ खूब जोर से। बुदबुदाता हुआ - चुपचाप खड़ा हूँ।

बाहर रात है, अंदर रात है। उन दो रातों के बीच मैं खड़ा हूँ अकेले।

और वह नहीं आया है...।

दूसरे कमरे की कुर्सी पर शायद आराम कर रहा हो। मुझे अचानक याद आता है। भय और उत्साह दोनों एक साथ उभरते हैं। मैं तेज कदमों से कमरे की ओर भागने की तरह जा रहा हूँ।

और वह वहीं है। कुर्सी पर चुपचाप बैठा। कुछ-कुछ ऊँघता हुआ-सा। जैसे इंतजार करते-करते थक गया हो।

मेरे कमरे में प्रवेश करते ही वह सक्रिय हो जाता है। लेकिन आज वह थोड़ा हताश-सा दिखता है। लगता है वह मुझसे निराश है। वह कई दिनों से मेरे साथ है, लेकिन उसके और हमारे बीच बहुत कम संवाद हुए हैं। वह चाहता है जो, वह करने के रास्ते में कई तरह की दिक्कतें हैं - लेकिन कोई एक बीच का रास्ता जरूर होता होगा। कवि हूँ तो जानता हूँ कि कोई एक सनकीपन की हद तक प्रतिबद्ध साहित्यकार कहता था कि बीच का रास्ता नहीं होता। फिर भी जो कुछ है इस समय में, वहाँ कोई एक पतली सी गली जरूर होती होगी, जहाँ से मैं और वह साथ-साथ चल सकें।

सोचता हूँ कि आज मैं ही बोलूँ और आज की उसकी चुप्पी को तोड़ूँ।

कब से बैठे हो?

अच्छा, कोई बीच का रास्ता तो होगा। मतलब हम और तुम चाहें तो...। ...तुम आए हो तो तुम्हारा आना अच्छा भी लगा। लेकिन तुम ऐसी अटपटी बातें करते हो, क्या मेरे जैसे घरेलू आदमी के लिए संभव है यह। वह बिंदासपन... वह पता नहीं क्या क्या...?

हम्म...। वह अपना सिर हिलाते हुए उसे अपने पैरों के दोनों घुटनों के बीच छुपा लेता है।

अच्छा ठीक है, मैं तुम्हारी बात सुनूँगा। लेकिन इस बार नहीं। इस बार तो तुम्हें मेरी बात सुननी ही होगी। नहीं, तो मजबूरन मुझे वापिस लौटना होगा। फिर कलम रगड़ते रहना जीवन भर। मुझे क्या है...। बोलो क्या कहते हो...?

वह अपना सिर घुटनों के बीच से बाहर निकाल कर मेरी ओर ही देखे जा रहा है।

मैं सोच में पड़ जाता हूँ। वह जो मेरे लिखने को निकम्मा और आलसियों की शगल से नवाजती है, वह जो हर बार मेरी किताबों को बेतरह खा डालने वाली नजरों से घूरती है, वह जिससे मुझे प्यार था कभी बेहद... वह... जो...। उसे समझाऊँ, लेकिन कैसे? वह मेरी एक कविता तक पढ़ने को तैयार नहीं। कैसे समझेगी इस कथाकार के आने की अजीब लगती घटना को? पागल तो वह मुझे पहले से ही समझती और कहती रही है, यह सुनकर तो उसे यकीन हो जाएगा कि मैं सचमुच गंभीर पागलपन के दौर से गुजर रहा हूँ।

लेकिन यह कथाकार, इसे तो कुछ जवाब देना होगा।

तो तुम कहते हो कि सत्यदेव की कथा तक?

हाँ मान लो कि यहीं तक। इसके बाद जो तुम कहोगे, मैं वही करूँगा। तुम्हारा कृतदास हो जाऊँगा।

वह हँसता है एक अजीब सी हँसी। एक ऐसी हँसी जिसे हमेशा के लिए चुरा लेने का जी करता है। मैं भी चाहता था कभी इसी तरह हँसना...। लेकिन...।

ठीक है।

ठीक?

ठीक।

पक्का?

पक्का... पक्का...।

तो लॉक कर दिया जाए...? या एक बार अपनी पत्नी से राय लेना चाहते हैं?

नहीं...। पत्नी नहीं...। लॉक कर दिया जाए।

तो चलें?

कहाँ?

फिर ये सवाल, चिरकुट लेखकों की तरह...?

चलिए। नहीं... चलो...। नो सवाल, बॉस...।

गुड, यंग रायटर...।

मैं खुश तो नहीं हूँ... लेकिन डर का एक परदा उठ गया लगता है और रोशनी की कई - एक किरणें लगातार मेरे जेहन की ओर बढ़ी आ रही हैं।

वह आगे चल पड़ता है। मैं उसके पीछे-पीछे।

लेकिन कहाँ...?

7.

वह आगे-आगे चल रहा था। मैं उसके पीछे-पीछे। क्या खास था उस रात में, जब पूरी कायनात सो रही थी, लोग अपने-अपने घरों में दुबके हुए थे। बेघर कुत्ते इधर-उधर घूम रहे थे, पहरा देते। कुछ सो रहे थे बंद दुकानों के आहाते में। सब शांत था दिन के शोर के विपरीत। ...और वह गुनगुना रहा था कोई एक गीत जो बहुत-जाना पहचाना लगता था।

आमारे यदि जागाले आजि, नाथ
फिरो ना तबे फिरो ना, करो
करुण आँखीपात।

(मुझे यदि आज जगाया तो हे नाथ लौटो मत मेरे ऊपर करुण दृष्टिपात करो - रवि ठाकुर)

पीछे धीरे-धीरे एक संसार छूटता जा रहा था। हल्की ठंडी हवाएँ कभी-कभी देह को गुदगुदा कर निकल जाती थीं, जैसे हमारे इस समय रात में निशाचरों की तरह निकलने की क्रिया उसे भली लग रही हो, और वह हमारे साथ कुछ क्षण अठखेल करना चाहती हो। बहुत अजीब लग रहा था मुझे उस समय यह सोचना। मैं कुछ और सोचना चाहता था। कुछ अप्रत्याशित - कुछ भयानक, कुछ पागल बातें। सबसे ज्यादा उसके बारे में जो मेरे आगे-आगे चला जा रहा था और मुझे पता तक नहीं था कि उसके पीछे मैं कहाँ जा रहा हूँ। सत्यदेव की कथा के पीछे इस बारह बजे रात का क्या संबंध है? कितने लोग तो कथा-कहानी लिखते हैं। लेकिन इस तरह पागलों की तरह रात में घुमना सब लोग करते हैं क्या? मैंने बहुत कम पढ़ा है मेरी जानकारी की सीमा है, लेकिन वह जो आगे जा रहा है...? वह कौन? वह क्या...?

निविड़ वनशाखार परे
आषाढ़-मेघे वृष्टि झरे
बादल भरा आलस भरे
घुमाए आछे रात।
फिरो ना तुमि, फिरो ना, करो
करुण आँखिपात।

(निविड़ वन शाखाओं पर/आषाढ़ के मेघ बरस रहे/ इस बदली में आलस से भर/सोई हुई है रात। तुम न लौटो, न लौटो, करो करुण दृष्टिपात...)

और उस सोई हुई रात में मैं, वह अजनबी कथाकार और सत्यदेव - सत्यदेव और सत्यदेव।

हर एक बात पे कहना कि यूँ होता तो क्या होता यानि दास्ताने सत्यदेव की तीसरी किस्त!

दादा कई बार दरवाजा पीटते हैं। खाना भी छोड़ दिया है। कह चुके हैं कई बार पतरकी से कि बच्चा है, उसपे रहम कर। नहीं तो तू भी मराछ (बाँझ) हो जाएगी। तेरा नाम मरछिया रख्खा है, माँ बाप ने। गरियाते हैं दादा। पिता को मउगड़ा कहते हैं। लेकिन पिता चुप हैं। जैसा अक्सर होता है कि महतारी के सामने पिता चुप ही रह जाते हैं। उनके दिल में कैसी और कितनी तड़प होती है, इसको मापने का कोई पैमाना सत्यदेव के पास नहीं है। इसके बाद एक सन्नाटा है, जिसके बीच सारे काम-काज चलते हैं। पिता के खेत के काम। दादा का पूजा-पाठ। और एक अँधेरे घर में बारह साल का एक बच्चा माँ की बनाई हुई सुंदर और बेढंगी तस्वीर के साथ अपनी पीड़ा और दर्द के बीच खुश है। यह पहली बार ही है कि उसने दरवाजा खोलने की गुहार नहीं लगाई। भूख का जिक्र नहीं किया। नहीं, अपनी माँ से भी नहीं जो उस दीवार पर सियाह रंगों की शक्ल में बैठी है।

बाहर की दुनिया काली हो गई है और अंदर एक संतरंगा इंद्रधनुष फैला हुआ है। उन स्याह रंगों में सबके चेहरे काले पड़ चुके हैं। मरछिया, रामबरन और पूरा गाँव। उन सबके बीच धवल वस्त्र पहने एक साधु खड़ा दिखता है। उस साधु का नाम है विश्वभंर दास। वह साधु सत्यदेव के दादा से मिलते जुलते चेहरे-मोहरे का है - वह आशिर्वाद की मुद्रा में खड़ा है। सैफू वह कहाँ है? उसे भी कमरे में बंद कर दिया गया है सत्यदेव के साथ। नहीं सत्यदेव ने भीतर बुलाया है उसे। बिल्कुल माँ के सामने उसे खड़ाकर बता रहा है, - देखो, यह मेरी माँ हैं। इन्होंने मुझे अपना दूध पिलाया है, इनका रक्त है मेरे रक्त में।

माँ का चेहरा दमक रहा है। लेकिन एक स्त्री का चेहरा पता नहीं कितनी सदियों से स्याह पड़ा हुआ है। धरती की सारी माँएँ बाँस की खाट पर बीमार लेटी हुई हैं। अधमरी हो रही हैं, हिमोग्लोबिन की कमी से। मुझे लाल रंग चाहिए। मैं इन सबको जिंदा करना चाहता हूँ, उस लाल रंग से जो खून की तरह है, मैं उस लाल रंग में हिमोग्लोबिन के टुकड़े मिलाना चाहता हूँ। सैफू देखो, ये मेरी माँ है। नहीं, यह सैकड़ों लोगों की माँ है, जो अँधेरे कमरे में कोयले से बनी हुई तस्वीरों में बदल चुकी हैं।

और पूरे दो दिन के बाद दरवाजा खुलता है।

सत्यदेव चुपचाप अँधेरे में पड़ा हुआ है - ऐसा लगता है जैसे कोई मासूम शिशु अपनी माँ की गोद में सोया हुआ हो। बेपरवाह और निस्पृह। मरछिया दरवाजा नहीं खोलती। रामबरन दरवाजा खोलते हैं। मरछिया की चलती तो शायद सत्यदेव के मर जाने के बाद दरवाजा खुलता। कोई औरत इतनी क्रूर कैसे हो सकती है - सोचते हैं सत्यदेव के दादा। पिता क्या सोचते हैं पता नहीं। सत्यदेव जो सोचता है वह दुनियावी सीमा के बाहर है। उसके अंदर काले रंगों की मार्फत एक लाल रंग घुस आया है, जिसमें हिमोग्लोबिन होता है। उसके हाथ में कोयले की कालिख के निशान है, चेहरे पर स्याह रंग फैला हुआ है लेकिन आँखों में एक अजीब-सी चमक है। वह एक जन्म के पार की यात्रा कर लौटा है अभी-अभी इस दुनिया में। उसने अपनी दुनिया की एक तस्वीर बनाई है, उस अँधेरे बंद कमरे में।

जब उसकी नींद खुलती है - वह दादा के खाट पर लेटा हुआ है।

वह विस्मय से दादा की ओर देखता है - जैसे पहचानने की कोशिश कर रहा हो। उसकी बारह साल की आँखों में सदियों के प्रश्न देख लेते हैं दादा।

सोये रहो - दादा कहते हैं।

वह चुप है।

अब यहाँ नहीं रहने देंगे तुझे। तू मेरे साथ मठ चलेगा। तू अब वहीं रहेगा। दादा बुदबुदाते हैं।

वह चुप है।

मेरी गलती है - रामबरन की शादी मेरी ही जिद के कारण हुई थी। तुझे एक माँ की जरूरत थी। लेकिन मैं समझ गया हूँ कि मरछिया किसी की माँ नहीं हो सकती। ठीक कहते थे गुरू महाराज कि औरतों के दिमाग में एक वृत्त होता है, उसके बाहर वे नहीं देख सकतीं। उनको पहचानना बहुत कठिन है - शास्त्र कहता है... त्रिया चरित्तर पुरुषस्य भाग्यं...। बुदबुदाते हैं दादा।

वह चुप है।

तुझे अब यहाँ नहीं रहने देंगे। मठ जाएगा तू मेरे साथ।

दादा जब कोलकाता में कुछ दिन रहे थे, तभी संत जगन्नाथ दास से उनकी मुलाकात हुई थी। उनका चमत्कारी व्यक्तित्व इस कदर हावी हुआ चंद्रमणि शर्मा पर कि वे उनके भक्त हो गए। चंद्रमन जिस नाम से लोग उन्हें अक्सरहाँ पुकारते थे - थोड़ा पढ़े-लिखे थे और रामायण और हरिकीर्तन में उनकी रुचि थी। कोलकाता में रहते हुए वे जूट मिल में काम करते और फुर्सत के समय और लगभग हर शाम मजदूरों को रामायण पढ़कर सुनाते थे। कुछ पूजा-पाठ भी चलता था।

एक दिन जूट मिल बंद हो गया और वे गाँव वापिस चले आए। यहाँ की खेती-बारी में उनका मन नहीं लगा। वे सारी खेती-बारी और जायदाद अपने बेटे रामबरन को सौंपकर गाँव से 10-15 किलोमिटर दो बीघे के पुश्तैनी जमीन पर एक मठ बनाकर रहने लगे। गाँव में जिसे मठिया कहा जाता। वहाँ चंद्रमणि ने अपने रहने के लिए एक झोपड़ी डाल ली थी और कुछ ईंटों को सजाकर एक पूजा स्थल बना लिया था। अब वे अपने गाँव बहुत कम आते, और ज्यादातर उनका रहना मठिया पर ही होता।

लोग धीरे-धीरे उन्हें साधु समझने लगे। उनकी दाढ़ी बढ़ गई। लोग उनके यहाँ झाड़-फूँक और टोना-टोटका से निजात पाने के लिए आने लगे। जगन्नाथदास से दीक्षा लेकर वे चंद्रमणि शर्मा से चंद्रमणि दास हो ही गए थे। अब वे साधु चंद्रमणि दास के नाम से ख्यात हो गए।

वह चुप आँखों से अब भी देखे जा रहा था - जैसे देख न रहा हो किसी गहरी सुरंग की यात्रा कर रहा हो। जैसे महज एक शरीर था वहाँ, लेकिन वह असल में वहाँ हो कर भी वहाँ नहीं था। उस एक समय वह कोई और था।

दादा एक दिन और रुके। सत्यदेव में आए बदलाव को देखकर वे गहरी सोच में थे।

वह चुप हो गया था।

ऐसा चुप जिसे सचमुच का चुप होना कहते हैं।

सत्या - सैफू कहता है।

सत्या - दादा कहते हैं

सत्या - जो जानते हैं, वे भी कहते हैं।

सत्या - मयना कहती है।

वह चुप। सबकी ओर देखता है - और उसका देखना किसी अँधेरी सुरंग की यात्रा की तरह।

उसके हाथ में लकड़ी का टुकड़ा, पत्थर कोई नोखदार, पेंसिल की घिसी हुई देह। और जमीन। दीवारें। और पूरा आकाश। उसका आकाश जिस पर वह उँगलियाँ फिराकर चित्र आँकने लगा था।

दादा दो दिन बाद चले गए थे।

सत्या चलो मेरे साथ - कहा था सत्यदेव से।

नहीं दादा।

पर यहाँ अब तुम्हें मैं कैसे रहने दूँ।

यहाँ सैफू है न...। और मैंने गलती की थी न उसकी ही सजा मिली थी न मुझे। मेरी अपनी माँ होती तो क्या वह सजा नहीं देती?

लेकिन, तुम नहीं समझते, वह सजा नहीं...।

आप ही तो कहते हैं कि गलती करने पर सजा देना न्याय है।

आप सच मानिए मेरे मन में अपनी माँ के लिए कोई गिला नहीं। पिता के लिए भी नहीं। अपनी माँ के नहीं होने का दुख है। वह ज्यादा बड़ा है।

मैं जा रहा हूँ। लेकिन मेरी चिंता कम नहीं हुई। तुम्हें जब भी लगे तुम आ जाना मठ में। अब इस जगह मैं नहीं लौटूँगा। यहाँ रहकर मैं तुम्हारे ऊपर हो रहे अन्याय को देख नहीं सकता - और मेरा घर तो वही मठ है।

चुप रहता है सत्यदेव। बैलगाड़ी के पहिए चल पड़ते हैं। सत्यदेव बहुत देर तक उसे जाते हुए देखता रहता है।

सैफू उसी दिन सत्यदेव से मिलने आता है। वह दो-एक बार आया था लेकिन बाहर पतरकी ने बताया कि वह बीमार है। पतरकी का चेहरा देखकर ही उसे पता नहीं कैसी तो विरक्ति होती है। वह हर बार मिलने पर उसे दूर रहने का इशारा करती है। मुसलमान होने के कारण वह खाट पर नहीं बैठ पाता। कभी अगर प्यास लगी उसे तो सत्य लोटे में पानी लाता है और सैफू चुल्लू से पानी पी लेता है। सत्य चाहता है कि वह सैफू को अपने साथ अपनी खाट पर बैठाए और उसे भर लोटा पानी पिलाए। पतरकी पता नहीं कितनी बार बारन कर चुकी है कि मियाँ-टियाँ से दोस्ती मत रख। अगर सैफू कभी सत्यदेव को खोजने चला आता तो उस दिन सत्य की सामत आनी तय होती। खाना बंद हो सकता था। या फिर मार भी पड़ सकती थी। इसलिए सैफू का आना कम ही होता था। अक्सर सत्यदेव ही मिंयटोली जाता। जाते हुए यह भी ध्यान रखता कि मरछिया को पता न चले इस बात का।

जब पूरा एक दिन सत्य नहीं आया तो सैफू खोज लेते हुए आया था, लेकिन तब पता चला कि सत्या बीमार है और घर के अंदर है। मुसलमान होने के कारण सैफू घर के अंदर नहीं जा सकता था इसलिए वह मायूस होकर लौट गया।

सैफू उसी दिन सत्यदेव से मिलने आता है। वह थोड़ा परेशान है।

सत्या चुपचाप आगे बढ़ जाता है। यह इशारा है कि हम कहीं और चलें। अपने घर से दूर कहीं किसी ऐसी जगह जहाँ सुकून से बोल बतिया सकें।

वह बहुत दूर खेत के बीचों-बीच लगे एक छतनार महुए के पेड़ के नीचे रुकता है। दोनों महुए की एक डाल पर बैठ जाते हैं। यह उनकी पसंदीदा जगह है। सत्या कुछ नहीं बोलता - वह अब भी चुप है। सैफू को यह अजीब लगता है। पूरे रास्ते भी उनके बीच कोई बात नहीं हुई थी। उनके साथ-साथ जैसे एक चुप्पी भी चल रही थी और अब वह भी उनके बीच महुए की एक डाल पर आराम से बैठ गई थी।

मयना पूछ रही थी। सैफू ही बोलता है पहले।

सत्या बोलता नहीं। वह देखता है सिर्फ सैफू की ओर। उस देखने में एक साथ क्या-क्या है, यह सैफू ठीक से समझ नहीं पाता। लेकिन इस तरह देखना सत्या का वह पहली बार देख रहा था। विस्मय से - एक हहरती हुई आँख से।

दो जोड़ी आँखें एक साथ एक-दूसरे को देखती हुई भिन्न भाषा बोल रही थीं। बहुत कुछ समझ रहीं थीं लेकिन अपनी समझ पर उनको सहसा विश्वास नहीं हो रहा था।

और हवा में सैफू की कही हुई बात लगातार प्रतिध्विनित हो रही थी -

मयना... मयना... मयना... पूछ रही... पूछ रही... पूछ रही... थी... थी... थी...।

बचपन से सत्यदेव मयना को जानते हैं। तब से जब वे पेड़ के नीचे पहाड़ा पढ़ा करते थे और नाक से नेटा पोंछते थे। मयना उनके साथ गाँव के स्कूल में साथ ही पढ़ती थी। दादा ने स्कूल में नाम लिखवा दिया था। यह मरछिया के आने के पहले की बात है। मरछिया के आने के बाद इस कोशिश में लगी थी कि सत्यदेव का स्कूल छुड़वा दिया जाय और वे भी अपने पिता के साथ खेतों में काम करें। गाय के लिए चारा लाएँ। काम करें। पढ़-लिखकर कुछ होने-हवाने वाला नहीं।

लेकिन दादा ने यह होने नहीं दिया।

मयना सत्यदेव के नाक का नेटा अपने फ्रॉक में पोछ देती थी। अपनी पैंसिल उसे दे देती थी। और घर से जो गोलिया मिठाई लेकर वह आती थी वह भी उन्हें खाने के लिए देती थी। कभी-कभी अपने हाथों से सत्यदेव के बिखरे बालों को समेट देती थी। कहती - तुम अपने बालों में तेल नहीं लगाते - और हँसती थी। सत्य उसका हँसना देखते थे।

तब से मयना सत्य के साथ थी।

यह अजीब बात ही थी लेकिन सत्य को वह लड़की अपनी माँ की तरह लगने लगी थी बाद के दिनों में। बाद के दिनों में जब वह अपने झोले में कुछ बनाकर लाती तो वह सत्य को जरूर देती - सत्य चाहते थे कि वह उसे अपने हाथों से खिलाए। चाहते थे लेकिन कह नहीं पाते थे। हर बार वे कहना चाहते, लेकिन पता नहीं कौन सी एक अदृश्य शक्ति उन्हें ऐसा करने से रोक देती।

यह बच्चे क्लास का समय नहीं था जब मयना उनके नाक का नेटा पोंछ देती थी - वे दोनों हाथ पकड़कर स्कूल के मैदान में दौड़ा-दौड़ी के खेल खेलते थे।

इसी बीच कोई एक लाल-पीली तितली उड़ती हुई आती थी और मयना के फ्रॉक पर बैठ जाती थी - सत्य उसे देखता था। चुप। वह आहिस्ता से उसे पकड़ लेना चाहता कि मयना से कहे कि देखो मैंने एक तितली पकड़ी है और हर बार वह तितली उड़कर चली जाती थी सरसों के खेतों की ओर। फिर वे दोनो दौड़ते हुए खेतों में चले जाते थे। फिर वह और दूर चली जाती थी और वे दोनों उसके पीछे। पेड़ के नीचे लगने वाला स्कूल पीछे छूट जाता था और वे खेत में कहीं भटक जाते थे। मयना बहुत देर तक रास्ता तलाश करने के बाद रोने लगती थी। सत्यदेव को उसका रोना अच्छा नहीं लगता था - वह उसे चुप रहने को कहता। जब वह चुप नहीं होती तो वे दोनों एक साथ रोने लगते थे। उस समय खेत में पगड़ी बाँधे और धोती पहने उघारे-निघारे खड़ा कोई किसान मिलता जो दो बच्चों को रोते हुए देखता था - और उन्हें स्कूल तक छोड़कर चला आता था। दोनों के चेहरे पर खारे आँसुओं की एक लकीर-सी बन जाती। बहुत देर तक वे एक-दूसरे को देखते नहीं थे - आँखें-आँखों से छुपती थीं। चेहरे-चेहरे से छुपते थे। और यह भी एक खेल की तरह ही होता जिसके बीच कोई एक बहुत मधुर धुन बजती थी जिसे दोनों में से कोई समझ नहीं पाता था।

तितलियों की तरह के दिन थे।
दिन थे सरसों के फूलों की तरह।
खेत में बेपरवाह दौड़ने और खो जाने की तरह दिन थे।
खोकर रास्ता तलाशते हुए रो लेने के दिन थे।
फिर आँसुओं की लकीरों को एक-दूसरे से छुपाने जैसे दिन थे।
कुछ ऐसे कि एक मधुर धुन की तरह दिन थे।
उन दिनों में पिता नहीं थे।
मरछिया नहीं थी।
घर की यंत्रणाएँ नहीं थी।

दो तितलियाँ थीं। उड़ती हुई एक जगह से दूसरी जगह। समयहीन और बेपरवाह। अंततः खूब उजली गाय के दूध की तरह दिन थे।

वे दिन धीरे-धीरे बड़े होते गए थे।

सत्यदेव उन दिनों को पार कर चुका था - मयना भी उसी के लगभग की उम्र में थी।

सैफू लगभग उनकी उम्र से कुछ बड़ा था।

नगेसर का नाच था। मरछिया की तीखी जबान थी। भूख थी। यंत्रणाएँ थी। लेकिन इन सबके बीच दादा थे, सैफू था और मयना थी जिसके बारे में अभी-अभी सैफू कह रहा था।

क्या सोच रहे हो। हुआ क्या है तुम्हें। मैंने जो कहा वह कान में गई।

सैफू एक बीड़ी सुलगा कर पीना शुरू कर चुका है।

सत्यदेव फिर भी चुप। वह बीड़ी फेंक कर एक बार सत्यदेव को जोर से झकझोर देता है - क्या हुआ तुम्हें। चुप क्यों हो मऊग की तरह?

सत्यदेव जैसे लंबी नींद से जागता है - हकबकाकर।

इसे पढ़ो। उसने दिया है।

क्या है यह ?

मुझे क्या पता। उसने अकेले में छुपाकर दिया। कहा तुम्हें देने के लिए।

वह कागज का एक मुड़ातुड़ा टुकड़ा है जिसे इतने करीने से छुपाया गया है कि लगता है कि वह सदियों पुराना एक कागज का टुकड़ा है जो इतिहास की यात्रा कर उनके अभी-अभी के समय में चला आया है। उनकी उम्र में। बारह-तेरह साल की उम्र में। इन सालों की यंत्रणाओं के बीच। तेरह साल के तितलियों के समय के बीच।

सत्यदेव कागज का वह टुकड़ा ले लेता है सैफू के हाथों से।

कुछ लिखे हुए शब्द हैं जो अजीब से हैं। सैफू कुछ समझ नहीं पाता। लेकिन सत्य को सब समझ आता है।

तोता...

एक तितली अकेले उड़ती-उड़ती थक गई है। एक हाथ अकले हिलते-हिलते थक गए हैं। एक साँस रुक-रुक कर चलना शुरू करती है। खेत में सरसों के सारे फूल गुम हो गए हैं। चाँपानल में पानी नहीं आता। झोले से लेमनचूस गायब हो जाते हैं। पहाड़े की जगह कानों में एक धुन बजती है, जिसका अर्थ समझ में नहीं आता। एक चिड़िया आकर पेड़ पर बैठती है और एक हूक जैसी आवाज निकालती फूर्र हो जाती है। काजल के रंग काले नहीं, पता नहीं उनका रंग कैसा हो गया है। सपने में घोड़े पर सवार एक राजकुमार आता है, जिसके पीछे बहुत सारे मुखालिफ हैं। मैं उसे बचाने दौड़ती हूँ कि सब अचानक गायब हो जाते हैं। मुझे लगता है कि मुझे एक पिंजरे में कैद कर दिया गया है। वह पिंजरा एक अँधेरे कुएँ के भीतर पाताल में है, जहाँ से मेरी आवाजें बाहर की दुनिया को सुनाई नहीं पड़ती। मैं मौन हूँ। मेरे शब्द गुम गए हैं। क्या तुम मुझे मेरे शब्द वापस करने आओगे?

मयना...।

वह पढ़ता है ऐसे जैसे वह उन शब्दों में धँस जाना चाहता हो। एक बहुत पहले का समय उसकी आँखों के सामने सरसराता हुआ निकल जाता है और बीच इसके एक लड़की का हँसता हुआ चेहरा है - जिसका नाम मयना है। वह एक बार खोई हुई नजरों से सैफू की ओर देखता है और कागज के उस टुकड़े को और उसे अपनी पैंट की जेब में रख लेता है।

सैफू...।

सैफू...। धीरे-धीर उसकी आवाज बढ़ती चली जाती है।

बोलो सत्या...। सैफू जैसे किसी पुराने खंडहर से अचानक निकलकर बोलता है, हकबकाया हुआ।

मेरे साथ चलोगे मेरे घर? मैं तुम्हें उस कमरे में ले जाना चाहता हूँ एक बार जिसमें मरछिया ने मुझे दो दिनों तक बंद रखा था।

क्या कह रहे हो? तुम बीमार थे न? दादा ने भी यही कहा था।

सैफू विस्मय से चिल्ला पड़ता है।

हाँ इतने दिनों तक तो बीमार ही था। मेरी माँ नहीं थी न। जिसकी माँ नहीं होती वे बच्चे अक्सर बीमार रहते हैं। वे जीवन भर बीमार रहते हैं।

अचानक ऐसी रहस्यमयी बातें सुनकर सैफू को समझ नहीं आता कि सत्यदेव के साथ क्या हो रहा है। बदला हुआ तो वह लग रहा था। लेकिन उसकी बातें भी किस तरह बदल गई हैं। आवाज में वह बचकानेपन की गंध नहीं रही। उसका चेहरा अचानक एक प्रौढ़ की तरह हो आया है। सैफू ध्यान से सत्यदेव के चहरे का दुबारा मुयायना करता है।

मरछिया? वह मुझे तुम्हारे घर के अंदर प्रवेश करने देगी। ये जानते हुए कि मैं एक मुसलमान हूँ, तुम मुझे अपने घर ले जाने की बात कर रहे हो?

तुम चलोगे?

कैसे? तुम जानते हो कि मैं नहीं जा सकता। फिर भी...?

फिर भी...

और मेरे जाने की सजा तुम भुगतोगे...।

हाँ, मैं देखना चाहता हूँ कि मुझे कोई कितनी सजा दे सकता है। मैं फिर से उस कमरे के अंदर बंद हो जाना चाहता हूँ। अगर कोई कहे कि हमेशा के लिए तो - हाँ, हमेशा के लिए।

तुम पागल हो गए हो सत्या? तुम बीड़ी पियो। तुम्हारा दिमाग सही होगा।

तुम मुझे चरस पिलाओ। अफीम और भाँग खिलाओ। गाँजा पिलाओ।

फिलहाल तो बीड़ी भी नहीं।

नहीं, मुझे पीना है, तुम जलाओ मेरे लिए भी बीड़ी।

ठीक है लेकिन एक ही बची है। तुम पी लो।

नहीं, एक ही में आधा-आधा। हम दोनों पिएँगे साथ-साथ।

और चले आए हैं दोनों साथ-साथ सत्यदेव के घर।

मरछिया कहीं गई है उस समय। क्योंकि घर खाली है। लेकिन अभी-अभी गई है और अभी-अभी लौट आएगी का एक संदेश हवा में तैर रहा-सा लगता है।

सत्यदेव पूरी तरह तैयार होकर आए हैं। मतलब जो होगा देखा जाएगा की तरह। सैफू डर रहा है, उसके मन में एक झिझक है। सत्यदेव सीधे उस घर में चले जाते हैं जहाँ उन्हें बंद रखा गया था। वह एक परित्यक्त-सा घर है। घर में उतना अँधेरा नहीं है। सैफू के नाक में एक अजीब-सी बदबू घुसती है। लेकिन वह संयत है।

सत्यदेव एक दीवार के पास जाकर रुक जाते हैं। सैफू देखता है कि वहाँ किसी स्त्री का चित्र बना हुआ है। वह जिज्ञासा भरी नजरों से सत्यदेव की ओर देखता है।

इसे देखो सैफू, यह मेरी माँ हैं। मेरी अपनी माँ। मुझे याद है उसका चेहरा। वह खूब दुबली हो गई थी। और जब उसने आखिरी बार साँसें बंद कीं तो मैं उनके पास ही था। वह लगातार मेरी ओर देखे जा रही थीं। मैं पढ़ने की कोशिश कर रहा था कि क्या था उनकी आँखों में - वह कुछ बोलना चाहती थीं लेकिन उनके कंठ बंद हो गए थे। सैफू..., देखो यह मेरी माँ हैं...। माँ ने मुझसे बात की। ढेर सारी बातें कीं...। मैं दादा के साथ चला जाता मठ, लेकिन माँ ने मना किया कहीं जाने से। कहा कि मुकाबला करना है हर यंत्रणा का। वह अभी बोलना शुरू करेंगी। देखना तुम...। अभी...।

सैफू सिर्फ देख रहा है। सत्यदेव का चेहरा फिर-फिर देखकर उसे पहचानने की कोशिश कर रहा है। उसे समझ में नहीं आ रहा है कि वह क्या प्रतिक्रिया व्यक्त करे। क्षण भर के लिए उसे लगता है कि सत्यदेव पागल हो चुका है। पागलपन में बड़बड़ा रहा है यह सब।

मयना के बारे में भी जानती हैं माँ। मैंने बताया है। ...और ...और तुम्हारे बारे में भी। उन्होंने मना नहीं किया मरछिया की तरह तुम लोगों से मिलने से। कहा कि खूब मन लगाकर पढ़ाई करो। और रिश्ते की आँच को कभी बुझने मत दो। उन्होंने और भी बहुत कुछ कहा लेकिन उनमें से उनकी कई बातें मेरी समझ में नहीं आईं।

वह मयना का पत्र माँ की तस्वीर के सामने रख देता है। पढ़ो माँ समझाओ कि इसके क्या मतलब हैं। मैं कुछ समझ नहीं पा रहा। कई बार मयना की शक्ल तुमसे मिलती-जुलती है। क्या तुम फिर से जन्म लेकर मयना बनकर आई हो मेरे पास? देखो सैफू आया है तुमसे मिलने। बोलो... बोलो... बोलो माँ...।

चित्र जड़ है। माँ तस्वीर में उसी तरह उदास चेहरा लिए दीवार पर चिपकी हैं। कहीं कोई हलचल नहीं। कमरे में सिर्फ सत्यदेव की आवाजें गूँज रही हैं, और सैफू मौन होता जा रहा है। लगता है जैसे उसे कठेया मार दिया है।

सत्यदेव अब चुप है।

कभी माँ के जड़ चेहरे को देख रहा है तो कभी सैफू के मौन और विकृत हो गए चेहरे को।

कोई कुछ नहीं बोलता।

सत्यदेव कुछ देर बाद उठता है और दीवार की तरफ मुँह कर के खड़ा हो जाता है। सैफू ने जो कागज दिया था वह उसके हाथ में है। दूसरे हाथ में वह एक कोयला उठा चुका है। सैफू समझ नहीं पाता कुछ। दीवार पर सत्यदेव लकीरें खींचना शुरू करता है। माँ के चित्र के सामने हू-ब-हू वैसा ही एक चित्र बनाता है। लेकिन यह चित्र उदास नहीं है - उसमें एक हँसी की झलक है। इस चित्र में, जो एक लड़की की लगती है, वह कम उम्र की लगती है।

सैफू लगातार चुपचाप देखे जा रहा है। उसे भय भी है कि मरछिया आ गई तो?

लेकिन सत्यदेव बेपरवाह चित्र बनाने में लगा है - उसकी आँखों में एक चमक है। कोई भय नहीं।

सिर्फ एक उदासी है जो कई साल पहले उसकी आँखों में ठहर गई थी।

यह किसकी तस्वीर है सत्या?

अरे, इसे नहीं पहचाना? यह मयना है...। अपनी मयना। देखो इसकी शक्ल कितनी मिलती है न मेरी माँ से? बोलो सैफू, तुम चुप क्यों हो?

सत्या...? तुम्हें हुआ क्या है, तुम पागल हो गए हो? मरछिया आ जाएगी...। चलो मैंने देख लिया। तुम माँ का चित्र दिखाने लाए थे न। मैंने देख लिया। अब चलो...। होश में आओ सत्य...।

अचानक कोई भड़ाम से दरवाजा खोलता है। सामने मरछिया को देखकर सैफू का खून सूख जाता है। सत्य निरपेक्ष-सा खड़ा रहता है जैसे मरछिया के आने से उसके ऊपर कोई असर न हुआ हो।

वह खूब गुस्से से सैफू की तरफ देखती है।

मिया मुकुड़ी जात तेरी हिम्मत कैसे हुई मेरे घर में कदम रखने की।

सत्या आँखें नीची किए फर्श पर देख रहा है।

इसे मैं लेकर आया हूँ यहाँ। आपको इस तरह इसके साथ व्यवहार करने का कोई अधिकार नहीं। आपको जो कहना है - मुझसे कहें। जो सजा देनी हो मुझे दें। सैफू का कोई कसूर नहीं इसमें।

तेरा तो जो हाल करूँगी मैं कि तू अपनी तकदीर पर रोएगा। तेरी ये मजाल कि तू मुझसे जबान लड़ा रहा है। चल तू ...बाहर निकल...।

मरछिया लगभग खींचती हुई सत्यदेव को बाहर निकालती है।

सैफू कुछ देर चुपचाप खड़ा रहता है रुआँसा-सा फिर दबे कदमों घर से बाहर निकल जाता है।

8.

यह दूसरी बार था कि सत्यदेव को उसी कमरे में बंद किया गया। यह उसके लिए आशातीत ही था। लेकिन कुछ और बातें आशातीत नहीं थीं। सैफू के चले जाने के बाद मरछिया ने सत्यदेव को सोंटे से पीटा था। हर सोंटे पर सत्यदेव की चीख निकलती थी और वह हर बार बड़बड़ा रही थी कि मेरे घर को मुसलमानों की बस्ती बनाना चाहते हो। मैं देखती हूँ कि तुम्हें कल कौन स्कूल लेकर जाता है। सैफू सत्यदेव के साथ स्कूल में पढ़ता था। मयना भी पढ़ती थी, लेकिन मयना दूसरे गाँव की थी इसलिए उसके बारे में मरछिया को कोई खबर नहीं थी।

एक और बात हुई थी जो आशातीत नहीं थी। अब तक सत्यदेव ने मरछिया के झापड़ खाए थे, भूखे धूप में घंटों खड़े रहा था लेकिन आज जो हुआ था इसकी कल्पना उसके बच्चे मन ने कभी नहीं की थी। जो हुआ था उसका सबसे अधिक दुख सत्यदेव को था। लेकिन शायद यह दुख नहीं था। वह क्या था उसका अर्थ वह आज तक नहीं खोज पाया है। उसकी आँखों में उस घटना की तस्वीर कौंधती है कभी-कभी जिसे कोई नहीं देख पाता। जिसे गुजरे हुए समय में मयना देख पाती थी। जिसे रिंकी सेन देख पाती थी। जिसे सिर्फ गायत्री देवी की तस्वीर देख पाती थी।

और संभवतः यह घटना उनके लिए बिलकुल अप्रत्याशित था - मरछिया ने सत्यदेव को सिर्फ पीटा ही नहीं वह तेज कदमों से सत्यदेव की किताबों की ओर दौड़ी। आँगन में उनके बस्ते के साथ उनकी सारी किताबें एकत्रित कीं, उस पर किरासन तेल छिड़का और माचिस की एक तीली जलाकर किताबों के उस ढेर पर फेंक दिया।

उसने मरछिया को रोकना चाहा लेकिन हाथ जड़ हो गए थे - वह दौड़कर पिता के पास जाना चाहता था कि कहे कि आप मेरी किताबें बचा लीजिए। लेकिन उसके कदमों की चेतना जाती रही थी - जैसे उसके पैरों में किसी ने सैकड़ों मन लोहा बाँध दिया हो। वह निरीह और हैरान और विवश आँखों में आँसू लिए खड़ा था।

वह चुपचाप अपनी किताबों को जलते हुए देख रहा था।

एक-एक शब्द जल रहे थे। एक-एक वाक्य जल रहे थे। जल रहा था पूरा एक संसार जो अब तक के समय में बना था उसके भीतर...।

जल रहा थी मयना की एक नन्हीं-सी तस्वीर जो एक डायरी के भीतर रखी थी। कुछ सरसों के सूखे फूल। मोर के पंख जो बच्चे जना करते थे। मोर के पंखों के साथ उनके बच्चे भी जल रहे थे।

जल रही थीं कविताएँ जो उसने रात जगकर डायरी में लिखी थी वे सारी तस्वीरें जो उसके अकेले एकांत दिनों की सहचर थीं।

वह बदहवासी में डायरी और उसमें रखी एक तस्वीर को बचाने के लिए दौड़ा था। उसके हाथ आग की लहरों में घुस गए थे - कि मरछिया ने उसके हाथ को पकड़कर आग में झोंक दिया था। सत्यदेव की चीख निकल गई थी।

क्या कोई इतना निर्मम और निर्दय हो सकता है? मैं पूछता हूँ कथाकार से जो चुप बैठा है रात के दो बजे सत्यदेव शर्मा के घर। वह आगे-आगे चलते हुए सत्यदेव के घर ही गया था। मैं पीछे-पीछे मुट्ठी में प्रश्न लिए - इतनी रात को यहाँ क्यों?

और फटेहाल-सा दिखता चमकदार आँखों वाला कथाकार मेरी खीझ और मेरी झेंप पर चुपचाप मुस्करा रहा था। दूर कहीं किसी माइक से किसी बाऊल की एक हल्की अवाज आ रही थे जो हवा के झकोंरों से कभी दूर जाती तो कभी पास आती हुई लगती थी -

मिलन हबे कतो दिने

आमार मनेर मानुषेर सने...?

सत्यदेव चुप थे।

इतनी रात को मुझे देखकर घबरा गए थे। पहले उन्हें लगा था कि पार्टी के लोग उन्हें जान से मारने के लिए आए हैं।

सिर्फ जान से मारने ही नहीं उनकी सारी तस्वीरों को जला देने के लिए भी। कई बार पार्टी के लोग उनसे दीवारों पर इश्तहार लिखवाने के लिए आते थे, लेकिन सत्यदेव कभी नहीं गए। वे दीवारों पर लिखने को अपने चित्रकार की तौहीन समझते थे और उन्हें पार्टी के लोगों से सख्त नफरत थी। इसलिए नहीं कि वे किसी खास पार्टी के लोग थे, वरन इसलिए कि वे अच्छे लोग नहीं थे - कई-कई बार रोड पर उनको आपस में लड़ते हुए उन्होंने देखा था - इन्ही पार्टी के लोगों ने एक मुहल्ले के सीधे-सादे आदमी पल्टू दा को बीच सड़क पर पीट-पीट कर अधमरा कर दिया था। और वह इसलिए कि उसने एक दूसरी पार्टी का झंडा अपने साईकिल पर बाँधी थी। उन्हें तब बहुत आश्चर्य हुआ था जब उन्होंने तरुण दा से हस्तक्षेप करने के लिए कहा था और तरुण दा ने उन्हें चुप रहने और अपना काम से काम रखने की हिदायत दे दी थी। रवि दा सब जानता है। वह दारू पीकर सबके कारनामे सत्यदेव को सुना चुका है।

कथाकार को देख नहीं पा रहे हैं वह। अजीब मुसीबत यह है कि वह किसी और को दिखाई नहीं पड़ता। सिर्फ मुझे ही दिखाई पड़ता है। मैं ही उसकी बातें सुन सकता हूँ। लेकिन वह है कि सबको देख सकता है। उसे देखकर बार-बार मिस्टर इंडिया फिल्म की याद आती है और उसके साथ अमरीश पूरी का वह खूँखार चेहरा और उस चेहरे के पीछे से आती आवाज - मोगैंबो खुश हुआ।

रात में सत्यदेव की बढ़ी हुई खिचड़ी दाढ़ी और उनकी लाल आँखों को देखकर पता नहीं किसकी याद आ रही थी। वे मुझे और मैं उन्हें एक अजीब नजरों से देख रहे थे - हम दोनों को इस तरह देखते हुए कथाकार देख रहा था। जैसे उसके चेहरे पर कोई भाव ही न हो - कि जैसे ऐसे दृश्य वो पता नहीं कितनी बार देख चुका है और देख-देखकर एक दम इन तरह की बातों का आदी हो चुका है।

मैंने कहा था कि मैं आऊँगा आपसे मिलने? सत्यदेव की यह बहुत दूर किसी कुएँ से आती आवाज लग रही थी।

हाँ, कहा तो था। लेकिन पिछले रविवार को मैं आपकी राह देखता रहा।

आप शनिवार को भी नहीं आए। तो मुझे ये लेकर आए।

मैं भूल जाता हूँ कि मेरे साथ आए कथाकार को वे नहीं देख पा रहे हैं। इसलिए वे

मेरी उँगलियों के इशारे की ओर देखते हैं और विश्वास कर लेते हैं। मैं झेंप जाता हूँ।

तो और भी कोई आया है आपके साथ।

आपके लगभग सारे सवालों का जवाब तो मैं दे चुका हूँ। क्या अब भी बाकी हैं सवाल?

सवाल तो बाकी ही रहते हैं सत्य बाबू।

आप मुझे साधु जी ही कहें। शुरू से यही कहते हैं।

जी...।

इस घर में आप क्यों आए। यहाँ तो मेरे बैठने लायक भी जगह नहीं। इसे ठीक करना है। एक नया कैनवास खरीदना है। देखिए सारे रंग बरसात के पानी में बह गए। दो कैनवास सड़ गए हैं। एक घर दिलाएँगे आप मुझे जहाँ लोग न रहते हों? यहाँ मच्छर बहुत काटते हैं।

आप मेरे घर चलिए। मैंने तो कितनी बार कहा।

हाँ, लेकिन ये सब सामान है। आपके घर?

हाँ...

नहीं... नहीं... एक घर दिला दीजिए। यहाँ लोग मुझे बहुत तंग करते हैं।

कौन तंग करता है आपको?

ये तो पता नहीं। लेकिन कई लोग हैं। एक औरत मेरी खिड़की से एक गंध छोड़ जाती है। रात भर उसकी बदबू से मुझे नींद नहीं आती। एक आदमी हंटर लेकर मुझे मारने दौड़ता है, मैं घर छोड़कर बाहर निकल जाता हूँ। घर आने का मन नहीं करता। आपके आने के पहले ही एक औरत सिंदूर जैसा लाल रंग मेरे चेहरे पर फेंक कर गई है। देखिए... दिख रहा है वह लाल रंग मेरे चेहरे पर? फिर एक औरत आई और एक खूब तेज खूशबू वाला सेंट मेरी नाक में भर कर चली गई। बहुत तंग करते हैं लोग मुझे।

मैं देखने की कोशिश करता हूँ। लेकिन उनका चेहरा खिचड़ी दाढ़ियों से भरा है वहाँ कोई लाल रंग नहीं है।

तो उस दिन आपकी किताबों के साथ मोर के पंख भी जल गए? कथाकार प्रश्न करता है।

तो उस दिन आपकी किताबों के साथ मोर के पंख भी जल गए? और मयना की तस्वीर वह...? मैं कथाकार का इशारा समझ जाता हूँ और सीधे काम की बात पर आ जाता हूँ। मुझे उस समय उस खड़ूस कथाकार पर गुस्सा भी आता है। बेचारा कितनी दीन अवस्था में है और तुम्हें ससुरे कथा की पड़ी है। लेकिन डर भी लगता है कहीं इस सत्यदेव की हालत मेरी भी हो गई तो? आज एक कथाकार आता है। कल एक कवि आ जाएगा। कल एक पेंटर आदि... आदि... मैं भगवान का नाम लेता हूँ और अपने को इससे ज्यादा सोचने से रोकता हूँ। मैं एक बाल-बच्चे वाला आदमी हूँ... मेरी एक वीवी है जो अगर इस समय जग गई होगी तो पता नहीं क्या तूफान मचा होगा वहाँ मेरे घर में।

तो सीधे लफ्जों में मैं दिमाग को 'डाइवर्ट' करता हूँ।

यूँ अगर रोता रहा गालिब यानि दास्ताने सत्यदेव की चौथी किस्त

मुझे लगा कि सिर्फ मेरा हाथ ही नहीं मेरा पूरा शरीर जल रहा है। मैं चाहता था कि चिल्लाकर उस कमरे में बंद अपनी माँ को आवाज दूँ। मयना को आवाज दूँ। लेकिन मेरे अंदर मोर के पंख के जलने की एक चिरायंध भर चुकी थी और मेरे मुँह से सिर्फ घुटते हुए गले की सी आवाज निकल रही थी। मुझे तब तक भी विश्वास नहीं हो रहा था कि वह एक औरत है जिसका नाम मरछिया है और जिसको डोली में बिठाकर मेरे पिता लेकर आए थे ताकि मुझे एक माँ मिल सके कि वह एक औरत है और दादा कहते थे कि औरत तो करुणा की मूर्ति होती है।

जब मैंने बहुत कोशिश कर के जलती हुई किताबों के बीच से वह डायरी निकाली तो वह लगभग जल चुकी थी। मोर के पंख जल चुके थे। मयना जल चुकी थी। मेरे हाथ स्याह हो गए थे। और मेरा चेहरा कोयले की तरह काला पड़ चुका था।

इसके बाद मुझे कुछ ठीक-ठीक याद नहीं कि क्या हुआ।

मेरी नींद खुली तो चारों ओर अँधेरा था। ठंड हल्की-हल्की पड़ने लगी थी। चाँद का एक टुकड़ा बहुत दूर पेड़ों के पीछे से निकलता हुआ दिखाई पड़ रहा था।

मेरे दाहिने हाथ में तेज जलन हो रही थी।

शरीर में झिनझिनी फैली थी। सिर चकरा रहा था। दर्द का एक असह्य झोंका बहुत तेजी के साथ उभरा था और मुझे बेहोश कर गया।

कथा का वन और अंतहीन रास्ते का सफर

आँख खुली तो सुबह चुचुहिया बोल रही थी। मैं पुआल पर अकेला था। ऊपर मेरे पिता का गमछा था। मैंने एक बार गमछे को देखा - वह जले हुए हाथ के फफोले में चिपक गया था। मैंने कोशिश की उसे छुड़ाने की लेकिन दर्द इतना हो रहा था कि मेरी हिम्मत जवाब दे रही थी। मेरे हाथ मजबूत थे, पीठ मजबूत थी। गाल मजबूत थे। पीठ ने सैकड़ों सोटे की मार सही थी। गाल ने तमाचे सहे थे। हाथ ने घास काटे थे, चारा काटा था और खेत की खूँटियाँ साफ की थी फावड़े से।

पर यह दर्द पहली बार महसूस हो रहा था। ऐसा लगता था मानों मेरे हाथ में सैकड़ों विषैली सूइयाँ एक साथ चुभाई जा रही हैं। मुझे कुछ समझ में नहीं आया - मेरे आस-पास कोई नहीं था। मुझे पता नहीं कब मैं दर्द की छटपटाहट में उस कमरे की ओर बदहवास भागा जहाँ मैंने कोयले से माँ की तस्वीर बनाई थी।

दीवार पर रोशनी के कतरे ऊपर की छोटी खिड़की से छनकर आ गए थे। मैंने देखा जिस जगह मैंने माँ की तस्वीर बनाई थी वहाँ एक स्याह और गहरा काला निशान था। उसपर किसी ने खूब गुस्से में कालिख पोती होगी। माँ के चित्र के साथ ही मयना की तस्वीर थी। उसे किसी तेज धार वाले चाकू से किसी ने खुरचकर मिटा दिया होगा।

मैं धम्म से बैठ गया। मेरी आँखों के सामने अँधेरा छा रहा था - मैंने माँ को पुकारा। वह नहीं आई। उसका दूसरी बार कत्ल किया जा चुका था।

मेरे आस-पास गोबर के बने उपले थे, कोयले के टुकड़े थे और अँधेरा था जिसके बीच मैं अपने लिए जमीन का एक टुकड़ा खोज रहा था। कि अचानक किसी के कदमों की आहट मेरे कानों के भीतर बजने लगी। मैंने आँखें उठाकर देखा - मेरे सामने धवल वस्त्र में सफेद दाढ़ी से भरे चेहरे वाला एक साधु खड़ा था। साधु स्थिर नदी की तरह चुप था। चुप और गंभीर।

मैं एक गहरी दृष्टि से उस साधु की ओर देखे जा रहा था। दादा ने बचपन में एक कथा सुनाई थी उस कथा में इसी तरह का एक बूढ़ा साधु प्रकट हुआ था और चारों ओर उजाला फैल गया था - गड़ेरिए का बच्चा उसे देखता रह गया था। साधु ने उसे वरदान माँगने को कहा था - उसने अपनी माँ को वापिस करने की इच्छा व्यक्त की। साधु ने माँ को तो वापिस करने में असमर्थता जाहिर की, लेकिन गड़ेरिए के बच्चे को ऐसा वरदान दिया कि उसके सारे कष्ट दूर हो गए थे। फिर वह कथा वन में चली गई थी और सत्यदेव सोचता रह गया था अपने मन में। बाद के दिनों में वह साधु हर रात सपने में आने लगा था - लेकिन धीरे-धीरे उसके आने के बाद का उजाला कम होता गया था और मयना के सपने में आना शुरू होने के बाद वह फिर से वन में कहीं लौट गया था।

वन से चलकर कथा का साधु यहाँ, इस वक्त किसलिए प्रकट हुआ था? मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था। मैं उससे बहुत कुछ कहना चाहता था लेकिन हलक से एक भी शब्द बाहर नहीं निकल रहे थे। वह धीरे-धीरे मेरे नजदीक आता जा रहा था। उसके प्रकाश से मेरी आँखें मिचमिचा गई थीं। मैंने अपनी आँखें बंद कर लीं। कुछ पल बाद उसकी आवाज आई - उठो वत्स। अब यहाँ का जीवन समाप्त हुआ।

मैंने घबरा कर आँखें खोल दीं। देखा उसके हाथ आगे की ओर बढ़े हुए थे।

दादा - मैंने पहचान लिया था।

मैंने अपना एक हाथ उनकी ओर आगे कर दिया था।

किरण फूटने लगी थी। आगे-आगे एक बूढ़ा साधु और पीछे-पीछे तेरह साल का एक किशोर खेतों की पगडंडियों पर चल रहे थे। शीत पड़ी घास पैरों को सहला रही थी - हम लगातार चलते जा रहे थे। बहुत दूर कहीं किसी खोह से कोई एक मद्धिम तान कानों से टकरा रही थी - पिया मोर गवनवा कइलें जालें बदरी में...। (मेरे पिया गौना कराकर मुझे बादलों में लिए जा रहे हैं...।)

भोर का उजास आहिस्ता-आहिस्ता पूरी धरती पर फैल रहा था और किसी पागल बूढ़े फकीर की वह तान धीरे-धीरे पीछे छूटती जा रही थी। दो और दो चार कदम एक नई यात्रा पर लागातर आगे बढ़ते जा रहे थे।

पूरी तरह होश में आने के बाद मैंने फिल्मों की तरह यह नहीं पूछा था कि मैं कहाँ हूँ।

वह एक झोपड़ी थी जो बहुत साफ-सुथरी थी। गंगा का एक किनारा था जो खिड़की से दिखता था। मैंने अजनबी आँखों से चारों ओर देखा। बाहर कोई बहुत मधुर स्वर में मंत्रों का पाठ कर रहा था। आवाज पहचानी हुई लग रही थी। मेरे हाथ का दर्द कम था। उस पर एक सफेद पट्टी बँधी हुई थी। मेरे शरीर का ताप कम हो गया था।

मुझे धीरे-धीरे सारी बातें याद आ रही थीं। लगता था कि एक भयानक यातना शिविर से मुक्त होकर यहाँ किसी देवदूत ने मुझे पहुँचा दिया है।

मैं बाहर निकला। सामने एक पत्थर का चबूतरा था जिस पर बैठकर एक बूढ़ा आदमी मंत्र पढ़ रहा था।

दादा - मैं उस बूढ़े को पहचान गया था।

मंत्र पढ़ते हुए ही उन्होंने मेरी ओर देखा और फिर अपने पूजा में लीन हो गए। उनकी आँखों में एक सुकून था एक आग्रह जिसे देखकर मैं वहीं मिट्टी पर बैठ गया। और उनकी पूजा के खत्म होने का इंतजार करने लगा।

दादा की पूजा खत्म हो गई थी। वे अक्सर कम ही बोलते थे। बहुत कुछ जो वे नहीं कहते उनकी आँखें कहती थीं। उनकी आँखों की भाषा वह सब कहती थीं जिसे वो शब्दों में नहीं कह पाते थे।

कथाकार चुपचाप है। सत्यदेव पता नहीं और क्या-क्या बड़बड़ाते जा रहे हैं। मुझे फिकर हो रही है। मैं बार-बार एक पुरानी घड़ी की तरफ देख रहा हूँ जिसका समय पता नहीं कितने समय से रुका हुआ है। छत के टपकने से उसके अंदर तक सीलन भर गई है। मुझे पता है कि वह घड़ी रुकी हुई है सदियों से। सत्यदेव भी वहीं कहीं उसी के साथ ठहर गए हैं।

और मैं...?

कथाकार जानता है यह सब। लेकिन फिर भी इतना जिद्दी कि वह मुझे भटकाए जा रहा है - मेरी पत्नी की तीखी बहसों के बीच वह कहीं गायब हो जाता है और रात के एकांत में प्रकट होता है - मुझे आवारा की तरह भटकाता हुआ।

पूछो सत्यदेव से आगे क्या हुआ। वह गंभीर स्वर में कहता है।

उसके बाद क्या हुआ? मैं सत्यदेव से पूछता हूँ। उनका चेहरा बेचारगी से भरा हुआ है। वे अचानक उद्विग्न हो जाते हैं। एकदम बेचैन जैसे उनके भीतर कुछ रासायनिक परिवर्तन जैसा घटित हो रहा हो।

देखिए विमल बाबू मेरे नाक में जले हुए मोर के पंख की एक चिरायंध जैसा कुछ घुस रहा है। एक इनसान के जलते हुए शरीर की गंध आ रही है। आप गए हैं कभी भूतनाथ? वहाँ लाशों के जलने से जैसी गंध आती है - बिल्कुल वैसी ही।

मैं देखता हूँ - उनकी साँसें तेज-तेज चलने लगी हैं। वे उठकर इधर-उधर उस छोटे से कमरे में टहलना शुरू कर चुके हैं। खिड़कियाँ धड़-धड़ बंद करना शुरू कर देते हैं। चौकी पर बिखरे समान और कुछ अधूरे चित्रों को सम्हालना शुरू करते हैं।

मैं परेशान-हैरान सत्यदेव को देख रहा हूँ। कथाकार अविचलित है - निर्विकार।

अब? मैं कथाकार की ओर देखता हूँ। उसके अगले आदेश की प्रतीक्षा में।

विचलित न होओ कवि महोदय। अब कथा के असली जड़ों तक की यात्रा का वक्त आ रहा है। धीरज रखो।

यह तो पूरा पागल और सनकी आदमी है। क्या तुम्हें ऐसी कोई गंध आ रही है?

हाँ, आ रही है।

आ रही है? क्या बकवास कर रहे हो। मुझे तो कोई गंध नहीं आ रही है।

तुम अब तक सत्यदेव की कथा में प्रवेश नहीं कर पाए हो वत्स। शायद इस वजह से। जिस दिन तुम सत्यदेव को समझ लोगे और उनकी आत्मा में प्रवेश कर जाओगे, उस दिन तुम्हें भी वह गंध महसूस होगी। तब शायद मेरी जरूरत नहीं पड़ेगी। तुम अकेले ही इस कथा को लिख पाओगे।

सत्यदेव एक फटा हुआ गमछा अपने टिनहे संदूक से निकालते हैं। नहीं, वह गमछा नहीं है। वह दुपट्टा जैसा कुछ है। अपने पुरानेपन में एकदम जर्जर।

निकलो, चलो विमल बाबू। सत्यदेव की विवश आवाज है। ऐसी विवश और फटी हुई उनकी आवाज मैं पहली बार सुन रहा हूँ।

कहाँ?

बाहर। निकलो इस कमरे से। बाहर निकलो अब बर्दाश्त नहीं हो रहा है।

चलो। उनकी बात सुनो। कथाकार वैसे ही कहता है जैसे बीमार के सामने एक डॉक्टर बोलता है।

हम बाहर निकल आते हैं। आगे-आगे सत्यदेव। पीछे-पीछे मैं और मेरे साथ वह कथाकार जिसे देखकर अब मुझे कोफ्त हो रही है। आखिर यह चाहता क्या है मुझसे। ठीक है कि कभी मैंने सोचा था कि सत्यदेव पर कोई कहानी लिखूँगा। लेकिन यह बहुत पहले की बात है। नहीं भी लिखता तो क्या फर्क पड़ जाता। इस सनकी आदमी की कथा को पढ़ेगा कौन? कथाकार मेरी एक-एक सोच से जैसे वाकिफ है। वह मेरी ओर देखता हुआ शरारत से मुस्कुरा रहा है। मैं चिढ़ जाता हूँ।

पूरे रास्ते सत्यदेव कुछ नहीं बोलते। उन्हें इस बात की कोई परवाह नहीं जैसे कि उनके साथ मैं भी चल रहा हूँ।

टेढ़ी-मेढ़ी गलियों से गुजरते हुए वे उसी जगह पहुँचते हैं - उसी पेड़ के नीचे जहाँ पहली बार उन्हें मैंने बारिश में भीगते हुए देखा था। वह पेड़ बहुत पुराना है। पेड़ के सामने एक खुला मैदान है जहाँ काली माँ का एक मंदिर है। सत्यदेव मंदिर के चबूतरे पर बैठ जाते हैं।

कथाकार की ओर देख रहा मैं पूछता हूँ - अब?

इंतजार करो। तुम्हारे अंदर बिल्कुल धैर्य नहीं है। एक लेखक के लिए धैर्य सबसे बड़ी पूँजी है।

मुझे इस तरह लेखक नहीं बनना। मेरी पत्नी मेरा खाना बंद कर देगी। आप नहीं जानते कि किस तरह के तनाव से मैं गुजर रहा हूँ। मेरे एक-एक शब्द उसके जीवन के लिए अभिशाप की तरह हैं - वह ऐसा ही समझती है।

ऐसा नहीं है। यह तुम्हारा भ्रम है। वह तुम्हें प्यार करती है।

यह कैसा प्यार है? क्या प्यार करने वाले इस तरह किसी के कला का गला घोंट सकते हैं। मेरा लिखना उसके लिए असहनीय है। वह मेरी कॉंपियाँ फाड़ चुकी है खूब गुस्से में। मेरी कविताओं को शाप दे चुकी है। अगर इस तरह मैं रात में घर से बाहर घूमता रहा तो वह जरूर घर छोड़कर चली जाएगी। मुझे जाने दो - अभी भी सुबह होने में बहुत वक्त है।

बैठो। शांत होओ। हम इस मुद्दे पर बात करेंगे। फिलहाल सत्यदेव पर ध्यान केंद्रित करो। कथा पर। कथा से भी अधिक सत्यदेव पर...।

मैं अपनी उद्विग्नता में सत्यदेव की ओर देखता हूँ। वे अपनी नाक पर दुपट्टा लिए रो रहे हैं। मैं कथाकार की ओर आश्चर्य से देखता हूँ। वह गंभीर है।

रोने दो इन्हें।

लेकिन ये रो क्यों रहे हैं?

पूछो इनसे। मुझसे क्यों पूछ रहे हो?

कथाकार तटस्थ है और कोई एक है जो रोए जा रहा है। इस तरह इसे कभी नहीं देखा। मुझे खुद पर ग्लानिबोध जैसा कुछ होता है।

साधुजी...! शर्मा जी! साधु खान!

सुनिए, देखिए आप प्लीज रोइए मत।

लोग मुझे सोने नहीं देते। कोई एक आता है और मेरे सीने के अंदर घुस जाता है। फिर वह मेरे अंदर रात भर टहलता रहता है। विमल बाबू...। ढेर सारे लोग हैं जो मेरे कमरे में घुस आते हैं। वे कहाँ से आते हैं मुझे पता नहीं चलता। घर में घुसने के बाद मैं तुरंत दरवाजे की कुंडी लगा देता हूँ। घर की एक अकेली खिड़की को मजबूती से बंद कर देता हूँ। फिर भी...।

वे धीरे-धीरे संयत हो रहे हैं। बहुत देर की चुप्पी के बाद उनकी यह मुखरता उस सन्नाटे में इतिहास से आती हुई किसी मद्धिम रोशनी की तरह लगती है। कथाकार सक्रिय हो जाता है और वैसे ही उछल-कूद करना शुरू करता है जैसे फिल्म का कोई निर्देशक किसी लंबे दृश्य को शूट करने के पहले करता है। लाईट... कैमरा... एक्शन... कैनवास... कैनवास...।

मैं दिल हूँ, फरेबे-वफ़ा-ख़ुर्दगाँ का यानि दास्तान-ए-सत्यदेव की पाँचवीं किस्त

मुझे दादा ही लेकर आए थे मठ में। वह गाँव से दूर दो-तीन बीघे की एक जमीन थी जहाँ झोपड़ीनुमा एक घर बना हुआ था। वह जमीन गंगा के किनार पर थी। लोग उसे साधुजी का मठिया कहते थे।

स्कूल गए हुए लगभग हफ्ता भर हो चुका था। सैफू से तभी मिल सकता था जब स्कूल जाऊँ। मयना पता नहीं क्या सोच रही होगी - वह बार-बार सैफू से ही पूछती होगी मेरे बारे में। लेकिन सैफू को तो पता ही नहीं था कि मैं यहाँ इतनी दूर गंगा के इस पार मठिया में आ गया हूँ।

लेकिन यह सब मैं क्यों बता रहा हूँ आपसे विमल बाबू।

उस समय की बहुत सारी बातें मेरे जेहन में नहीं आतीं। आप कहें तो मैं चित्र दिखाऊँ? रहने दीजिए चित्र मत देखिए आप। इसलिए नहीं कि मुझे डर है कि आप उसे चुरा लेंगे। इसलिए कि वे चित्र कई बार भयानक आकृतियों में ढल जाते हैं और मैं खुद को संयत नहीं कर पाता। उस दिन सैफू की एक तस्वीर टेबल से उड़कर जमीन पर गिर गई - मैं जब ठाने लगा तो वह एक सुंदर तोते में बदल गई। मैं अभी देख ही रहा था कि वह तोता उड़ गया। वह उड़कर एक पेड़ पर बैठ गया और बिल्कुल तोते से अलग इनसान की आवाज में रोने लगा। मैं उसके पीछे-पीछे बहुत दूर तक भागता रहा - पूछता रहा कि आखिर तुम रो क्यों रहे हो। कि तुम मेरे पास क्यों नहीं आते। लेकिन वह रोता रहा - रोता ही रहा। बहुत देर बाद शाम हो गई - अँधेरा छाने लगा और फिर वह मेरी आँख से ओझल हो गया। उस दिन मैं घर नहीं लौटा। मुझे सैफू की बेतरह याद आती रही - मैं वहीं पेड़ के नीचे पता नहीं कितनी देर तक पड़ा रहा। कब घर आया कुछ याद नहीं। आपको भरोसा नहीं होगा विमल बाबू मेरी बातों पर लेकिन मैं सच कह रहा हूँ।

मैं जब घर लौटा तो देखा कि सैफू की वह तस्वीर टेबल पर निर्जीव पड़ी हुई है - तस्वीर में सैफू की मासूम आँखें बहुत तेज चमक रही हैं - इतनी कि मेरी आँखें चौधिया जाए।

तभी मेरे नाक में शब्दों के जलने की एक तीव्र गंध फैलती है - मोर के जले हुए पंखों की गंध। एक देह के चिरचिर जलने की गंध।

जानते हैं वह मोर के पंख मुझे मयना ने दिए थे। मैंने उसे सम्हाल कर रखा था अपनी डायरी में। तब मैं उसे चॉक खिलाता था और हर रोज उनकी देख-भाल करता था। एक दिन अचानक मैंने देखा कि मोर के उस पंख ने एक बच्चा दिया था। एक मोर से दो मोर के पंख हो गए थे - फिर कुछ दिन बाद तीन हो गए थे। मैंने यह बात मयना को बताई तो वह जोर-जोर से हँसती रही और मेरे कानों के समीप आकर कहा - बुद्धू...। वह शब्द बहुत दिनों तक मेरे कानों में किसी गीत की तरह गूँजता रहा था। बुद्धू... बुद्धू...। राह चलते हुए अचानक मेरे मुँह से वह शब्द निकलता था और मेरे रोम सिरसिराने लगते थे - आँखें झेंप जाती थीं।

वह जल गया। उसने जला दिया। मेरी डायरी, मेरी किताबें। मेरे मोर के पंख।

शब्दों के जलने की गंध कैसी होती है विमल बाबू आप बता सकते हैं?

आप नहीं बता सकते - मुझे लगता है कि कोई नहीं बता सकता - सिर्फ मैं बता सकता हूँ। नहीं, मैं कहकर नहीं बता सकता, उसके लिए मेरे साथ उस दुनिया में जाना होगा जहाँ मैं रहता हूँ। वहाँ से निकलने के लिए हर वक्त छटपटाता हुआ - बेचैनी में जार-जार रोता हुआ भी मैं निकल लहीं पाता। लेकिन आप नहीं जा सकते। वहाँ जाने के लिए बहुत साहस की जरूरत होती है - मेरे अंदर साहस तो नहीं था लेकिन मैं उस गंध का पीछा करते-करते ही वहाँ तक चला गया था।

देखिए वह आ रही है।

वह आते ही एक ऐसी हँसी हँसेंगी जिसको आप शब्दों में नहीं बाँध सकेंगे - रंगों में भी नहीं। मैंने ढेर सारी तस्वीरें बनाई हैं - उस हँसी को बाँधने के लिए। और हर बार देखता हूँ कि वह बदल जाती है। हर पहले की हँसी दूसरे से मिलती नहीं हू-ब-हू वैसी ही। हर की शक्ल बिलकुल अलहदा होती है।

अरे, देखिए वह चली गई।

शायद आपको देखकर चली गई। हवा में एक मुस्कान छोड़कर गई है वह अभी-अभी। जब मैं जले हुए मोर के पंख, शब्द और जलती हुई देह-गंध से परेशान हो जाता हूँ, रोकर खुद को चुप करा लेता हूँ तब वह आती है और एक पहले से बिल्कुल अलग हँसी की गंध हवा में तैरता हुआ छोड़ जाती है।

आपको पता है विमल बाबू कि हँसी की गंध कैसी होती है?

मैं जानता हूँ। जब मैं बहुत दिनों के बाद स्कूल गया था तो वह उदास थी। हँसी और उदासी के मिले हुए रंग में उदासी का रंग कुछ गहरा था। मेरे हाथ की पट्टी खुल चुकी थी। जले हुए की दाग रह गई थी। यह दाग अब भी है। बाहर से कम दिखती है - लेकिन अंदर बहुत अधिक है - आज भी टिसती हुई-सी।

स्कूल मैं सिर्फ उससे ही मिलने गया था। उस समय और कोई आकर्षण नहीं था।

अब ये मत कहना कि मैं उदास हूँ। देखो मैं कितना खुश हूँ।

उसने मेरे दोनों हाथ पकड़ लिए थे। वहाँ कोई और नहीं, हम थे। सिर्फ मैं और सिर्फ मयना।

वह खेतों के बीच एक ऐसी जगह थी जहाँ सिर्फ हम ही जा सकते थे। सैफू को भी पता नहीं होता था कि हम गायब होकर कहाँ जाते हैं। जब हम वहाँ से अचानक निकलते थे तो वह हैरान रह जाता था। एक अजीब निगाह से वह मुझे घूरता था। उसकी आँखों में सैकड़ों जलते हुए सवाल होते थे लेकिन वह कुछ पूछता नहीं था। एक बीड़ी सुलगाकर पीते हुए इधर-उधर की बातें शुरू कर देता था। लेकिन आज जब सोचता हूँ तो मुझे लगता है कि उसे सबकुछ पता था। वे सैकड़ों सवाल जो उस समय उसकी छोटी आँखों में उभरते थे - वह यूँ ही नहीं। लेकिन उनको देखने की शक्ति तब मेरे पास नहीं थी - शक्ति नहीं, हौसला। मैं उन प्रश्नों से छुपकर भाग जाता था एक ऐसी जगह, एक ऐसे चेहरे में जिसमें मेरी माँ की तस्वीर-सा कुछ दिखता था।

हम वहाँ कई बार जा चुके थे। वह गहन वन था। एक घर, जिसे हमने अपने लिए शुरू दौर में बनाया था। एक दिन तितलियाँ पकड़ते-पकड़ते जब हम थक गए थे तब हमने पहली बार वहाँ आराम किया था। अपनी तेज होती साँसों को एक-दूसरे की हथेलियों में बाँधने की कोशिश की थी। वह हमारा घर था। दुनिया से अलग एक घर जहाँ के अँधेरों में रोशनी के जादुई दिए जलते थे। गीत के सैकड़ों झरने बहते थे। पाखियों की असंख्य झूँड कोई आदिम गीत गाती थी जिसे हम और मयना - सिर्फ हम ही समझ पाते थे। और कोई नहीं।

मैं जानता हूँ कि तुम उदास हो। मैं जमीन पर बैठ गया जहाँ अरहर के सूखे पौधे बिछे हुए थे।

चेहरा मेरा नहीं, तुम्हारा सूखा हुआ है। कितने दुबले हो गए हो। ऐनक में चेहरा देखो - वह शरारत से मुस्कुरा रही थी। हवा में वह मुस्कुराहट घुलने लगी थी। दूर किसी खेत में कोई कौए उड़ा रहा था। एक माईक पर प्रौढ़ाएँ सोहर गा रही थीं। शायद पास के गाँव में किसी के घर कोई लड़का पैदा हुआ था।

और वहाँ सिर्फ हम थे। मैं और वह।

बचपन से अब तक की एक बहुत लंबी यात्रा कर हम यहाँ तक पहुँचे थे। मैं नहीं जानता था कि क्या कैसे और क्यों - लेकिन जैसे उस दिन उस अकेले और निर्जन समय में मैं उसके अंदर समा जाना चाहता था - इतना अंदर कि मेरा खुद का होना मिट जाए। कि वह सदियों पुरानी गाँठें जो मेरे अंदर नासूर बनने लगी थीं - उन्हें पिघल जाने का सिर्फ एक मौका मिले...।

मुझे याद नहीं कि मैंने कभी कहा हो उससे कि मुझे मरछिया कई-कई बार खाना नहीं खाने देती। मैं पढ़ने बैठूँ तो कोई न कोई काम अढ़ा देती है। मैं कहना चाहता था उससे कि मेरी सारी किताबें मरछिया ने जला दी हैं - तुम्हारी तस्वीरें। वे शब्द जो मेरी अकेली डायरी में तुमने मेरे लिए लिखा - एक तोता। कि मैंने उसी जगह नीचे में लिखा - मैना...(मयना)। वह सब जो हमारा अपना समय था - जिसके बीच हमने अपनी एक दुनिया निर्मित की थी जहाँ मैं सचमुच जी सकता था। बिना किसी घुटन के साँसें ले सकता था।

वह सब खत्म हो चुका है - मैं कहना चाहता था।

मेरी आँखें बार-बार डबडबा आती हैं - और वह अपने दुपट्टे से उसे पोंछती है। एक अजीब हसरत और तत्परता है उसकी आँखों में। मैं उसकी उन आँखों को हमेशा के लिए अपने अंदर कहीं सात कपाटों के बीच बंद कर देना चाहता हूँ। ऐसा लगता है कि एक तोता और एक मैना एक डाल पर पता नहीं कितने समय से बैठे हैं - उड़ना भूलकर। खाना-दाना भूलकर। एक-दूसरे के आँसू पोंछ रहे हैं इतिहास के समय के बहुत पहले से। पृथ्वी के जन्म के बहुत पहले से। आकाश के होने के बहुत पहले से। उफ्फ...।

विमल बाबू वह समय मेरे अंदर पता नहीं कितने प्रकाश वर्षों से ठहरा हुआ है। आप देखेंगे उस समय का चित्र। मैंने बहुत कोशिश की है उसे रंगों की मार्फत कैनवास पर उकेरने की। लेकिन वह चित्र अधूरा है विमल बाबू। उतना ही अधूरा जितना कि मैं...।

नहीं आप नहीं...।

वह कुछ बोल रही है सुनिए विमल बाबू। सुन रहे हैं...? नहीं, मुझे याद दिला रही है उस दिन की। उसदिन की जो हमारे लिए एक आखिरी दिन और आखिरी समय था। लेकिन मैं उस आखिरी दिन को फिलहाल याद नहीं करना चाहता। उसके पहले के कई दिन हैं - कई रातें।

उनके बाद के एक दिन वह आखिरी दिन आता है।

कथाकार का नोट

सत्यदेव की बातों में एक पागल आदमी की सच्चाई है। पागल बड़बड़ा सकता है लेकिन वह झूठ नहीं बोल सकता। दुनिया में मेरे कई पागलों से ताल्लुक हुए - बहुतों से मेरी घंटों बातें हुईं। उनके पास उनका एक समय होता है - उनकी एक अलग दुनिया। उसी के बीच में वे आवा-जाही करते हैं - बतकही भी उनकी वहीं केंद्रित रहती है। इसका मतलब यह नहीं कि मैं अपने नोट में यह लिख रहा हूँ कि सत्यदेव शर्मा का मानसिक संतुलन सामान्य नहीं है। वह एक ऐसे समय में चले गए हैं जहाँ यथार्थ की घोर और नंगी विकृतियाँ होती हैं - स्वप्न मनुष्य को जी सकने का एक भ्रम देता है - नंगा यथार्थ उसे तोड़ता है। यह टूटन कई बार एक मनुष्य को मुर्दे में तब्दील कर देती है और कई बार उसके व्यक्तित्व को एक बड़ा आकार भी देती है। सत्यदेव टूट तो नहीं गए। अगर वे टूटकर बिखर गए होते तो शायद उनके पीछे समय खपाना मेरे लिए न उचित होता और न ही अर्थपूर्ण। लेकिन कुछ तो है इस इनसान में जिसकी मार्फत समय का एक वितान रचा जाता हुआ दिखता है। बस इतना-सा कारण। अस्तु!

वे राजेश खन्ना की फिल्मों के गाने के दिन थे। गाँव के भोंपू में तवे वाली सीडी घूमती थी और तरह-तरह के गीत बजते थे। लड़कियों की पढ़ाई लगभग-लगभग घर की चारदिवारी के भीतर होती थी। दो-एक लोग जो खुद को थोड़ा एडवांस समझते थे और समाज में जिनकी दबंगई थी - उनकी लड़कियाँ स्कूल जाती थीं। लेकिन दसवीं के बाद उनकी पढ़ाई भी रुक जाती थी। उस समय एक लड़की की शादी के लिए जरूरी शिक्षा चिट्ठी भर पढ़ना-लिखना होता था। स्कूलों में लड़कियों के बैठने के लिए अलग बेंच लगे होते थे जिसमें वे सिमट कर बैठती थीं और आँखें नीची किए और अपने बस्ते से छाती के उभारों को छिपाती हुई स्कूल से घर और घर से स्कूल तक की यात्रा करती थीं।

लड़कियों की उम्र बढ़ते के साथ उनके लिए दीवारों के घेरे ऊँचे और ऊँचे होते जाते थे। बाबा को वर की चिंता सताने लगती थी और गहना गुरिया कपड़े और पैसे जोड़े जाने लगते थे। उनका जोर से बोलना कम हो जाता था। हँसने-खिलखिलाने तक के अर्थ निकाले जाते थे। लेकिन तब भी घर से लड़कियाँ भागती थीं जैसे पिंजरे से चिंरई उड़ भागती है। चमाईन की तब भी जरूरत पड़ती थी - बच्चा गिराने के लिए। और धन की तब भी जरूरत होती थी इज्जत को तोपने के लिए। कुछ ज्यादा इज्जतदार लोगों के घर से कुछ जवान लड़कियों की अचानक होने वाली मौतों के बाद लाश निकलती थी - कुछ दिन गाँव में काना-फूँसी चलती फिर सबकुछ सामान्य हो जाता था। राजेश खन्ना और मुमताज के गीत बजने लगते थे। सोहर गाई जाने लगती थी। खलिहान में दँवरी होने लगती थी। मेहिनी और चइता के गोल सजने शुरू हो जाते थे। स्त्रियाँ दरवाजे के भीतर से झाँकने लगती थी आकाश की अधूरी देह और अपनी इस स्थिति पर उनके मन में कोई अफसोस पैदा नहीं होता था।

यह भिखारी ठाकुर के बेटी बेंचवा और विदेसिया के अवसान का समय था। नाच में लौंडे नाचते थे और दुनलिया बंदूक से शामियाने में छेद किए जाते थे। दारू और गोश्त की अलग से व्यवस्था होने लगी थी।

दलित हल चलाते, गाय चराते, घास और चारा काटते और सेवा टहल करते।

यह वही समय था जब एक बढ़ई का लड़का एक निर्जन द्वीप में एक बाबू साहेब की लड़की के साथ चुपचाप बैठा हुआ था - लड़की अपने साथ छुपाकर ठेकुआ लेकर आई थी और आम का अचार। जो अपने हाथों से लड़के को खिला रही थी। लड़की तोता लिखती थी अपने हाथ की अँगुलियों से लड़के की पीठ पर...। लड़का मैना लिख रहा था अपने हाथों से लड़की की पूरी देह पर...।

समय रुका हुआ था दो आत्मा और दो देहों के बीच।

और सत्यदेव पागलपन या बदहवासी में बिना रुके बोलते जा रहे थे - कहते जा रहे थे...। बिना यह सोचे-जाने कि वहाँ सिर्फ मैं नहीं एक कथाकार भी है जो उनका कहा सबकुछ दर्ज कर रहा है चुपचाप। एक कथा आगे बढ़ रही है चुपचाप - बिना किसी शोर-शराबे के। चुप और अंतहीन...।

वह एक ऐसी उम्र थी जब हम उम्र के बारे में नहीं सोचते। एक बसंत के जाने के बाद दूसरे के आने की तारीखें उँगलियों पर गिनी जाती हैं।

मेरे परदादा बढ़ई थे। पेड़ काटना और लकड़ियों से घर में लगने वाले समान बनाना हमारा पेशा था। पहली बार दादा ने यह पेशा छोड़ा और पंडित जगन्नाथ दास के शिष्य बन गए। जगन्नाथ दास से दीक्षा लेने के बाद वे गाँव आए, लेकिन मरछिया के व्यवहार के कारण उनसे घर में और नहीं रहा गया और उन्होंने गाँव से थोड़ी दूर पर एक मठिया बनाया। वही मठिया जहाँ घर छोड़ने के बाद मुझे भी एक दिन साथ ले गए। पिता के पास कुछ खेत थे। हम जात के बढ़ई थे लेकिन आरी और बंसिला आदि हथियार हमारे घरों से लुप्त हो चुके थे। लकड़ियों और लोहे से हमारा नाता टूट चुका था। कहते हैं कि मेरे परदादा लकड़ियों पर बहुत अच्छी नक्काशी करते थे और उनकी बुलाहट डुमराव महाराज के यहाँ भी रहती थी। लेकिन यह बातें मैं क्यों दुहरा रहा हूँ विमल बाबू...। अब इन सारी बातों का कोई अर्थ नहीं। यह सब इसलिए बताया कि मैं जाति का बढ़ई हूँ। मेरे चित्रकार होने या आदमी होने के पहले यह बढ़ई होना ज्यादा महत्वपूर्ण है - मैं इस देश में रहते हुए यही जान पाया हूँ। और हाँ, उसके बाद बिहारी होना भी जो यहाँ आकर मुझे पता चला। यहाँ इस बंगाल की धरती पर।

मैं जानता हूँ कि इन सारी बातों में आपकी कोई रुचि नहीं है। इन सारी बातों को मत लिखिएगा। मेरी जाति मत लिखिएगा। मयना का नाम भी मत लिखिएगा। रिंकी का भी नहीं। मरछिया का तो बिल्कुल नहीं। मेरा नाम भी बदल दीजिएगा। मैं नहीं चाहता कि मेरे ऊपर आप कहानी लिखें। जब कहानी पूरी हो जाए तो एक दिन मंत्र पढ़कर उसे गंगा में बहा दीजिएगा।

मैं वह दिव्य दृश्य देखना चाहूँगा। जब मेरे सारे कहे हुए दर्ज शब्द किसी शरीर के जले हुए राख की तरह पवित्र गंगा में बहकर मुक्त हो जाएँगे। वही मेरा श्राद्ध होगा। अपने जीते-जी अपना श्राद्ध मैं देख पाऊँगा और मुझे प्रेत योनि से मुक्ति मिल जाएगी।

सुबह होने वाली है। देखिए आकाश का रंग काला होता जा रहा है। बहुत जल्दी वह चिड़िया बोलेगी - क्या कहते थे दादा उसको। हाँ, चुचुहिया...। चुचुहिया बोलेगी।

हाँ, मैं जल्दी-जल्दी में अपनी बात खत्म करूँगा। सुबह के पहले ही।

आप बहुत देर से खड़े हैं। बैठ जाइए। आज पता नहीं क्यों बहुत दिनों बाद बीड़ी पीने का मन कर रहा है। आप तो बीड़ी नहीं पीते होंगे। मेरे पास भी नहीं है - पल्टू दा की दुकान सुबह तक खुलेगी। है आपके पास बीड़ी? जाने के पहले मुझे दो रुपये दे के जाइएगा। दो रुपये की बीड़ी खरीदूँगा। माचिस मैंने घर में रखा है। मोमबत्ती जलाने के लिए बहुत पहले खरीदी थी। लेकिन मुझे मोमबत्ती से डर लगता है - उसमें आग है न। आग की गंध असहनीय है मेरे लिए। उससे मुर्दे के जलने की बू आती है।

सिगरेट? हाँ, सिगरेट भी चलेगी।

आप छोड़िए मैं जला लूँगा। तरुण दा के लिए मैंने बहुत सिगरेटें जलाई है। उनकी लाइटर भी। उन्होंने मुझे सिखाया कि कैसे झटके से उसके चक्के को घुमाने पर उससे आग निकलती है। इसके अंदर जलने वाली गैस है। पता नहीं क्या तो नाम है इसका। इसकी गंध मुझे पसंद है। कितनी सोंधी-सोंधी लगती है न। इन गंधों ने ही मुझे बचाया है विमल बाबू...। और गंधो ने ही... खैर।

सच तो यही है कि मैं उस आखिरी समय को याद नहीं करना चाहता। लेकिन मैं जानता हूँ कि आपकी नजरें वहीं टिकी हुई हैं। बदहवासी में बहुत सारी बातें छूट जाएँगी। मैं जानता हूँ कि उन छुटी हुई जगहों को आप शब्दों से भर देंगे। जैसे तरुण दा ने बताया था कि एक चित्रकार बदहवासी में कई लकीरें खींचता है - कोई एक आकृति बनाता है। बाद में उसे वह रंगों से भरता है - ऐसे जैसे किसी बहुत सुंदर और नाजुक स्त्री के साथ अभिसार कर रहा हो। आपके पास तो अब भी शब्द हैं। मेरे पास अब कुछ भी नहीं बचा।

रंग...? वे भी कहाँ बचे हैं। सबकुछ काला-काला दिखाई पड़ता है - रात की तरह - ऐसी रात जिस रात में एक भी मोमबत्ती नहीं। सब कुछ शून्य-सा दिखता है। एक बहुत बड़ा काला शून्य जैसे कोई अँधेरा कुआँ हो। उस कुएँ के अंदर से कई लोगों के रोने की आवाजें आती हैं - मैं चाहता हूँ कि उन आवाजों तक पहुँच पाऊँ लेकिन लाख कोशिशों के बावजूद मैं वहाँ पहुँच नहीं पाता। मुझे लगता है कि वहाँ उस कुएँ में जरूर मयना होगी - सैफू होगा। मेरी माँ गायत्री देवी होगी - मेरे दादा होंगे। आह!

हाँ, आगे की बात - मैं वहीं पहुँच रहा हूँ।

उस दिन पहली बार मैंने उसे चूमा था।

उसी जगह जिसके बारे में सैफू को भी पता नहीं था। सिर्फ हम जानते थे। वह और मैं।

वह मुझे ठेकुआ खिला रही थी अपने हाथ से।

वह कब रोने लगी थी यह करते-करते मैंने नहीं देखा। मुझे यह तब पता चला जब आँसू की एक गरम बूँद मेरे हथेलियों पर जा गिरा।

क्यों? क्या मेरी वजह से? मैं जानता हूँ कि...।

नहीं...।

उसने झट अपना जूठा हाथ मेरे होठों पर रख दिया। मैं चुप।

मेरे अंदर कोई एक तूफान-सा उठा था - जिसको ठीक-ठीक बताने में मैं असमर्थ हूँ लेकिन मैंने तब अपने होंठ उसकी गीली आँखों पर रख दिए थे - बहुत देर तक। जैसे एक गहरा रंग कागज पर जाकर एक सुंदर आकृति में ढल गया हो और वह रंग धीरे-धीरे दो होठों की शक्ल में बदलता गया हो - दो होंठ मिलकर एक नए रंग का नया चित्र आँक रहे हों। बहुत देर तक। अनबद्य और अशेष।

और उस दिन वह लौट रही थी। एक नया चित्र बना था हमारे और उसके बीच की थोड़ी-सी जमीन पर। भाषा चुक गई थी। सिर्फ उसका खामोश लौटना हवा में गूँज रहा था - वह जा रही थी और मुझे ऐसा लग रहा था कि बहुत दिनों बाद वह मेरे और पास और करीब आ रही थी।

दूसरे दिन की सुबह कुछ अधिक चमकीली थी। दादा के मंत्रों में कुछ और अधिक खनक। पीछे का एक पूरा दारुण समय पीछे छूटता जा रहा था और मेरे जेहन में गंगा की ओर से आती हुई एक ताजी और मदहोश हवा भरती जा रही थी।

रोज बनने वाली चावल और दाल की खिचड़ी में हर दिन से अधिक स्वादिष्ट गंध थी। चिड़ियों की आवाज अधिक तेज। मेरे शरीर के भीतरी शिराओं में रह-रहकर एक अजीब-सी झुरझुरी उठती थी - बहुत दूर से कोई एक पुकारती हुई आवाज आती हुई लगती थी जिसमें मादकता की हद तक का आकर्षण था।

मैंने मठिया से बाहर निकल कर देखा। दूर एक सायकिल मठिया की ओर ही बदहवास दौड़ी चली आ रही थी।

बहुत ध्यान से देखने पर उस नजदीक आती हुई सायकिल पर बैठे लड़के का चेहरा धुँधला-सा दिखाई पड़ रहा था। मुझे अचानक सैफू की याद आई थी।

यह वही था सायकिल पर बदहवासी में मठिया की ओर आता हुआ।

मैं भी तेज कदमों से उसकी ओर बढ़ने लगा। कुछ देर बाद सैफू मेरे सामने खड़ा था।

उसकी साँसें जोर-जोर चल रही थीं। वह बहुत तेज-तेज सायकिल चलाते हुए आया था। वह इस मठिया पर कम ही आता था। दादा की ओर से कोई मनाही नहीं थी लेकिन महौल कुछ ऐसा था कि वह जब भी आता मठ के बाहर ही हम मिलते थे।

लेकिन उस दिन वह घबराया हुआ था। मैंने उसके संयत होने तक इंतजार करना उचित समझा।

तुम चलो मेरे साथ - सैफू की साँसें अब भी तेज-तेज चल रही थीं। वह थोड़ा घबराया हुआ था लेकिन उससे भी अधिक परेशान।

चलो न।

लेकिन कहाँ?

आओ मेरे साथ।

मैं सायकिल के कैरियर पर बैठा हुआ हूँ और सायकिल तेज गति से भागी जा रही है। मुझे अब तक कुछ नहीं पता कि मैं कहाँ जा रहा हूँ। चारों ओर खेत ही खेत हैं। खेत के पतले राहों पर अरहर के पौधे बीछ आए हैं जो कई बार हमारी देह से आ टकराते हैं। जैसे हमारा इस तरह तेज-तेज भागना उन्हें पसंद न हो।

सायकिल जहाँ रुकती है - उससे कुछ ही दूरी पर एक लड़की खड़ी है। सैफू सायकिल से उतर गया है और मेरी ओर एक अजीब निगाह से देखते हुए उस लड़की के चेहरे की ओर देखता है जिसका चेहरा नहीं दिख रहा सिर्फ उसकी पीठ दीख रही है।

मैं यहीं इंतजार करता हूँ - सैफू गंभीर स्वर में कहता है। मैं आगे की ओर बढ़ जाता हूँ। उधर जहाँ उस लड़की की पीठ है।

वह मयना ही है। तेरह साल की वह लड़की। जिसकी शक्ल कई बार मेरी माँ गायत्री देवी की तरह लगती है - जो अपने हिस्से की रोटी मुझे असंख्य बार खिला चुकी है। जिसकी जुल्फें काले घने आकाश की तरह लगती हैं। जिसकी छातियों के ऊपर हल्के उभार दिन-ब-दिन बढ़ते जा रहे हैं। वही मयना जिसे पहली बार मैंने चूमा था - और पृथ्वी का रंग हरा हो गया था - आकाश एक सुंदर कैनवास में बदल गया था - जहाँ हजारों रंग एक साथ फैल गए थे - इतने कि मेरी आँखें चुंधिया गई थीं - और मैं अपने गुम होते होश को सम्हाल पाने में असमर्थ था।

मैं देखता हूँ कहने की तरह - कि तुम यहाँ? इस तरह इस वक्त? हम तो दो दिन बाद मिलने वाले थे न?

वह आगे-आगे चलती हुई खेत की एक आरी पर बैठ जाती है। यहाँ से लोग नहीं गुजरते। मुख्य रास्ते के पास की यह खेत की आरी है जो एक खेत को दूसरे से अलग करती है। चुप...।

मैं उसके पीछे चलता हुआ उसके पास बैठ जाता हूँ। दूर सैफू सायकिल को खड़ा कर के उसके पीछे बैठा दिख रहा है जैसे खेतों के बीच किसी झुरमुट में छुप कर बैठा हो।

मैं तुम्हारे बिना नहीं जी सकती।

यह एक ऐसा वाक्य था जिसे सैकड़ों-हजारों लड़कियों ने सैकड़ों-हजारों बार अपने पसंद के लड़के के सामने दुहराई हैं लेकिन फिर भी इसकी गंभीरता कम नहीं हुई थी। आप तो जानते हैं विमल बाबू कि फिल्मों में पता नहीं कितनी बार दुहराई गई हैं ये बातें। लेकिन इस एक वाक्य ने तब मेरे पूरे अस्तित्व को हिला कर रख दिया था। मेरी उम्र तब 14 के आस-पास रही होगी। तब, जब मेरी मूँछों के पास काली धारियाँ बन चुकी थीं।

एक ऐसा आवेग उठा था मेरे अंदर कि मैंने उसे कसकर अपनी बाँहों में जकड़ लिया था और जो मैंने कहा था वह भी एक बहुत बार दुहराई गई बात थी लेकिन उस समय उसकी पवित्रता के प्रति मैं उतना ही आश्वस्त और विश्वस्त था जितना कि आपके जैसा कोई लेखक हो सकता है - या कोई भी एक इनसान जो सच पर यकीन रखता हो - जिसे समय के थपेड़ों ने मुर्दा न कर दिया हो।

मैं तुम्हें प्यार करता हूँ।

यह वाक्य हमारे बीच से होकर आकाश की ओर उड़ गया था - बिल्कुल उस रंगीन तितली की तरह जिसे बचपन से हम दोनों पकड़ने की कोशिश करते खेतों में भटकते रहते थे। हवा में एक गूँज थी जिसकी थर्राहट अंतरिक्ष तक पहुँच रही थी। और धरती पर दो मिट्टी के पुतले एक-दूसरे से गुँथे हुए एक नई कविता लिख रहे थे - जिसका अर्थ इस देश के असंख्य लोगों को आज तक समझ में नहीं आया है।

चलो हम कहीं चलते हैं।

कहाँ?

कहीं भी। जहाँ हम रह सकें। एक साथ। एक-दूसरे के साथ।

ऐसे कैसे? हम शादी कर लेंगे।

यह क्या इतना आसान है? तुम्हारी जाति अलग है। मेरी अलग। शादी तो जाति वाले में होती है न।

और... और... अम्मा ने बताया कि एकमा में मेरी शादी तय हो गई है।

क्या?

हाँ, मैं यही कहने के लिए आई थी। मैं इंतजार न कर सकी।

मैंने तब इन सबके बारे में सोचा भी नहीं था। यह शादी शब्द मेरे जेहन में एक ही स्मृति की तरह सुरक्षित थी - वह कि मेरे पिता की बारात जा रही थी। उनकी शादी हो रही थी और मैं उनके साथ बैठा एक जीप में कहीं जा रहा था। बाजे बज रहे थे। नाच हो रहा था। मेरी माँ आने वाली थी - दादा यही कहते थे। और शादी के बाद मरछिया आई थी। मरछिया...। और फिर कुछ दिनों बाद घर एक यातना शिविर में बदल गया था।

वह आखिरी मुलाकात नहीं थी।

हम लौट रहे थे। उन्हीं रास्तों से जिनसे यहाँ तक आए थे। सैफू चुप-चाप सायकिल चला रहा था और मैं पीछे करिअर पर ऐसे बैठा हुआ था जेसे शून्य में बैठा होऊँ और हमारे सामने एक ऐसा रास्ता था जो आकाश गंगाओं से होकर गुजरता था और कि जिसकी कोई छोर न थी - अनंत पथ में एक सायकिल पर सवार हम दो लोग चुपचाप यात्रा कर रहे थे।

अब क्या करोगे? यहाँ से दो रास्ते जाते हैं एक मेरे घर की ओर। दूसरा मठिया तक।

उम्म...।

सैफू की इस आवाज ने जैसे झटके से हमें धरती पर फेंक दिया था। हम सायकिल से नीचे उतर गए थे। मैं पहली बार अपने दोस्त सैफू के सामने भी शरमाया हुआ-सा खड़ा था। बात की कोई छोर पकड़ में नहीं आ रही थी। लेकिन एक वही था जिसके सामने मैं यह कह सकता था।

तो क्या किया जाए? सैफू अपने थगली में माचिस ढूँढ़ते हुए बोल रहा था। ऐसे समय पर उसके चेहरे पर एक बूढ़े आदमी की गंभीरता आ जाती है। वह बीड़ी जलाकार मेरी ओर एक गंभीर और बूढ़ी नजर से देखता है।

मेरी तो कुछ समझ में नहीं आ रहा है। तुम बताओ, तुम जानते हो तो...।

देखो गुरू अगर मैं होता तुम्हारी जगह तो लड़की को भगा ले जाता।

भगा ले जाता? अरे यह कैसे? इस तरह चोरी-छुपे कैसे भाग सकता है कोई? और जरा सोचो एक लड़की का घर से भागना - कितनी बेइज्जती की बात है। और... हम इतने बड़े भी नहीं हुए कि इस तरह की बात किसी से कह सकें। लेकिन ये भागने वाला तुम्हारा आइडिया बहुत बुरा और खतरनाक है।

तो चुपचाप रहो। उसकी बारात आएगी न। उसमें मन्नान मियाँ बाजा बजाएँगे, मैं तुरूम्पिट बजाऊँगा। तुम कमर लचकाना। भोंदू कहीं के।

अरे सैफू...। तुम नहीं जानते हो...। मैं बढ़ई का लड़का हूँ। और वे बाबू साहब। बचपन तक तो ठीक था, लेकिन अगर अब उन्हें पता चल जाए कि ऐसा कुछ है तो जानते हो क्या होगा। सब भसम हो जाएगा।

भसम हो जाएगा इस डर से भाग जाओगे। नहीं मिलोगे मयना से। डरपोक कहीं के।

सैफू मुझसे दो-तीन साल बड़ा था। पहले वह हमारे साथ ही स्कूल में पढ़ता था लेकिन पाँचवी-छठवीं तक आते-आते उसके पिता मुसाफिर मियाँ ने उसे खेती और बाजा बजाने में लगा दिया। इस तरह पढ़ाई से उसका पहले ही मन भागा हुआ था, अब वह स्कूल छोड़कर पूरी तरह लगन में बाजा बजाता और अनदीना में खेत-बधार के काम करता। लेकिन बचपन की हमारी उसकी दोस्ती वहीं थी। उसमें कमी नहीं आई थी। खुब दुख के क्षणों में मुझे अपनी माँ के साथ सैफू की भी याद आती थी। बाद में सैफू की याद कम हो गई थी और उसकी जगह मयना आने लगी थी। सैफू मेरी यातना, मेरी खुशी, मेरे एकांत रुदन यहाँ तक कि मेरे और मयना के एकांत प्रेम का भी गवाह था।

सैफू भोला था। वह कभी भी अपने बारे में नहीं सोचता था। उसकी सारी सोच मुझसे शुरू होकर मुझ ही में समा जाती थी। वह कई बार मौज में बीड़ी पीता हुआ कहता कि कभी अल्लाह मिलें तो मैं तेरे लिए ढेर सारी खुशियाँ माँगूँगा और उससे कहूँगा कि अगले जन्म में हम दोनों को वह एक ही माँ के कोख से पैदा करे।

वह थरथराते होंठों से यह भी कहता था कि माँ गायत्री की कोख से...। वह नहीं जानता था कि माँ गायत्री कैसी थी। याद मुझे भी ठीक-ठीक नहीं था - बस एक अहसास था जो किसी सुंदर स्वप्न की तरह दिल के भीतर कहीं ठहर गया था। जब सैफू यह कहता था तो मेरी आँखें डबडबा आती थीं, और मेरा जी करता था कि उसके गले लगकर खूब रोऊँ - इतना रोऊँ कि मेरे अंदर के दुखों के पहाड़ हमेशा के लिए पिघल जाएँ।

सैफू उस स्वप्न की गंध और पीड़ा दोनों को बराबर पहचानता था।

लेकिन भाग कर जाएँगे कहाँ? कहाँ रहेंगे? क्या खाएँगे? मेरा मासूम सवाल अब भी उसके सामने था।

प्यार करने वाले खाने और रहने के बारे में नहीं सोचते। मेरे दादा जब कहानियाँ सुनाया करते थे तब उसमें प्यार करने वाले लोगों के बारे में वे कहा करते थे कि फरिश्ते उनकी मदद करते हैं। लेकिन प्यार करने वालों के दिल में साहस होना चाहिए। और अटूट यकीन अपनी माशूका के प्रति।

यह कहानी नहीं है सैफू। मैं सत्यदेव शर्मा हूँ। जिसकी एक सौतेली माँ है। जिसने मेरी सारी किताबें जला दी हैं। मेरे हाथ जला दिए हैं। मेरे मोर के पंख और मयना की तस्वीर सब जलकर खाक हो गई हैं। और जरा सोचो अगर मयना के घर वालों को कुछ भी पता चला तो उसका क्या हाल होगा।

तभी तो कहता हूँ कि उनको कुछ पता चलने के पहले पिंजरा से तोता और मैना दोनों उड़ जाएँ।

दूर किसी के आने की आहट थी। रघुनाथ तेली बाजार से समान लादकर ला रहे थे। दो गदहे आगे-आगे चल रहे थे और वो पीछे-पीछे। बीच रास्ते पर खड़ी की हुई सायकिल सैफू ने हटा ली।

सोच लेना। कल मिलता हूँ तुमसे। खुदा हाफिज।

मैं बहुत देर तक सैफू की सायकिल को पतली पगडंडियों पर जाते हुए देखता रहा। शाम गहरी हो रही थी। कुहासे में खेत और पूरा इलाका डूबने लगा था। उस दिन मेरे कदमों में जैसे मन-मन भर के लोहे बाँध दिए गए थे। मन बार-बार कहीं जाकर लौटता था फिर भागता था। कितनी भी कोशिश कर के खुद को संयत रख पाना उस समय मेरे लिए नामुमकिन-सा हो रहा था।

ठंड बढ़ती जा रही थी। मैंने अपने कानों को गमछे से जोर से बाँधा और मठिया की ओर चल पड़ा।

रात के दो बजे थे जब मेरे माथे पर किसी गंभीर हाथों के प्यारे स्पर्श फिसल रहे थे। मेरी आँख अचानक खुल गई। शायद मैं किसी स्वप्न में था।

किरासन तेल से जलने वाली लालटेन थोड़ी मद्धिम थी। दादा मेरे सिर को सहला रहे थे। पैरों का बोझ लगता था कि मेरे माथे पर आकर बैठ गया है। मैंने उठने की कोशिश की। लेकिन दादा ने न उठने का इशारा किया।

तुम्हें तेज बुखार है। मुझे याद आया कि शाम को लौटते ही मैं खाट पर धम्म से गिर गया था। दादा कुछ लोगों के साथ बैठे कुछ बातें कर रहे थे। कोई बीमार था जिसके लिए भगवान की विभूति लेने के लिए लोग किसी दूर गाँव से आए होंगे। मैं उस समय पता नहीं क्यों खूब जोर-जोर से रोना चाहता था - ऐसा लगता था कि अगर मैं रोऊँ तो मुझे बहुत अच्छा लगेगा। बार-बार मेरा गला रुँध आता था और मेरी आँखें खारे पानी से भर-भर जा रही थीं। मुझे पहली बार महसूस हो रहा था कि जब आप किसी को खूब-खूब प्यार करते हैं तो उसके लिए रोना उनता ही आनंदाई होता है जितना उसके साथ होना - संपूर्ण होना। फासलाहीन होना।

दादा...। दादा...। माँ की याद आ रही है - मैंने पहली बार दादा से कहा था यह वाक्य।

जैसे कह रहा होऊँ कि दादा मुझे उस लड़की की याद आ रही है जो कई बार मेरी माँ गायत्री देवी की तरह लगती है।

दादा...। आप समझ रहे हैं, जो मैं कहना चाह रहा हूँ?

हाँ बेटा...। तुम आराम करो। हम सुबह में बात करेंगे न। एक बहुत कड़वी दवाई दादा मुझे पिलाते हैं। और भेड़ के बालों से बना एक और कंबल मेरे ऊपर डाल कर अपनी खाट पर चले जाते हैं।

बहुत देर तक मुझे नींद नहीं आती। मैं कंबल के नीचे अँधेरे में टकटक ताकता रहता हूँ। भीतर एक पूरा संसार है। मुझे लगता है कि मैं किसी आकाश के नीचे सोया हुआ हूँ और आकाश इतना नजदीक है कि हाथ बढ़ाकर उसे छू सकता हूँ। कुछ देर के बाद उस आकाश में छोटे-छोटे तारे टिमटिमाने लगते हैं - जैसे एक साथ सैकड़ों हजारों पीले फूल खिल आए हों। दूर एक कोने में एक कटा हुआ चाँद दिखता है। आकाश से ओस टपक रही है और मेरी पूरी देह एक अजीब तरह की नमी से भीगती जा रही है। मैं जोर-जोर से काँपना शुरू करता हूँ। सर्द हवाएँ चलने लगती हैं - आकाश के ऊपर एक तेज बवंडर उठा हुआ है।

मुझे किसी की याद नहीं आती...। सिर्फ एक चेहरा याद आता है जिसकी हँसी समय के खोह में बिला गई मेरी माँ से मिलती है। मयना...। मयना... मयना...।

मुझे वह चित्र याद आता है जिसपर मरछिया ने कालिख पोत दिया था। और एक अजीब दुर्गंध भीतर फैल जाती है - जली हुई किताबें, जले हुए शब्द, जले हुए मोर के पंख...। मेरा दम घुट रहा है। मैं जोर-जोर से चिल्लाना चाहता हूँ। मैं चिल्ला रहा हूँ और मेरे हलक से आवाज ही नहीं निकलती। वह आकाश जिसमें पीले रंग के फूल जैसे तारे खिले थे वह एक भयानक दैत्य की तरह हो चुका है सभी तारे आग के छोटे-छोटे गोले में बदल गए हैं - मेरी साँसें फूल रही हैं। जैसे मैं मर रहा हूँ। जैसे अपने मरने को साफ-साफ महसूस कर रहा हूँ।

बहुत देर तक संघर्ष करता हुआ मैं कब मर जाता हूँ पता नहीं।

सुबह उठकर मुझे आश्चर्य होता है कि मैं जिंदा हूँ। मैं रात की भयावहता के बारे में सोचता हूँ कि वह सोच मयना की मासूम और उदास हँसी से घिर जाती है और फिर वह सारी बातें धीरे-धीरे फिर से मुझे अपने आगोश में जकड़ना शुरू कर देती हैं। मयना की कही हुई बात आकाशवाणी की तरह गूँजती है - वह गूँज ही रही होती है कि सैफू की आवाज आने लगती है। मैं चाहता हूँ कि जोर से अपने कान बंद कर लूँ। लेकिन मेरे हाथ अपनी जगह पर जड़ हो गए हैं। मैं निढाल होकर बिस्तर पर धम्म से गिर पड़ता हूँ।

प्रेम भी एक तरह का बुखार ही है विमल बाबू। मुझे यह बाद में पता चला जब रिंकी ने बताया - उस समय तो कुछ भी पता नहीं था। सचमुच कुछ भी पता नहीं था। बहुत सारी चीजें ऐसी घटित हो रही थीं जिनका अर्थ मुझे मालूम नहीं था। सबकुछ पहली बार हो रहा था - एकदम नया-नया और अप्रत्याशित।

कुछ ऐसी भी चीजें जिसकी कल्पना तक दिमाग के अंदर नहीं थी।

फिर क्या?

सुनिए विमल बाबू, कहीं से पानी मिलेगा? मेरा गला सूख रहा है। मेरे अंदर फिर से वही गंध भरने लगी है - किसी देह के जलने की गंध। आपको महसूस नहीं हो रहा है। मुझे उल्टी जैसी आ रही है। थोड़ा पानी हो तो कहीं से मँगवाइए न।

हाँ, लेकिन इतनी रात को कहाँ से लाएँगे आप पानी। पल्टू की दुकान खुलेगी तभी मिल पाएगा पानी। अभी सुबह होने में देर है। आज पल्टू भी साला इतनी देर कर रहा है।

आप जाइए अब। मुझे अकेले छोड़ दीजिए।

देखिए वह आ रही है बादलों के पार से जैसे-जैसे उजाला फैलता जाएगा वह करीब आती जाएगी। आपको देखेगी तो उसे लाज आएगी - फिर वह उदास लौट जाएगी। जैसे उस दिन वह लौट गई थी।

विमल बाबू जाइए...। जाइए अब लौट जाइए... अब किरण फूटने वाली है...।

देखिए वह फकीर भी जग गया है - सुनिए उसकी आवाज -

खुजते गिए बालो बासा
घुरी पथे-पथे...।
हजार निंदा चादर कोरे
जोड़िए तुलोर रथे
जानि भालोबासा आछे घरे
तबोओ कि मन खुजेई मरे
मोनेर हदिश के बा जाने
कि जे थाके मनेर घरे
केउ जाने ना केऊ जाने ना
सेऊ जाने ना जे धारण करे...
...मन धारण करे...।
(प्यार को खोजते हुए
राह-राह भटकता हूँ
हजार निंदा को चादर में लपेट
कर देता हूँ देवरथ पर रवाना
जानता हूँ कि प्यार
मेरे अंदर ही थम गया है कहीं
फिर भी मन यह
उसे ही खोजता त्याग देता प्राण
मन का मीत क्या तो
रहता है मन के घर में ही
कोई नहीं जानता
जानता नहीं कोई
वह भी नहीं
जिसने प्यार को धारण किया है...।)

बहुत दूर से आती उस बूढ़े फकीर की आवाज मैं सुनता रहता हूँ - यह गीत लालन फकीर ने लिखा है - लेकिन इस बूढ़े फकीर की आवाज में पता नहीं क्यों आज इतना दर्द उतर आया है कि मैं उसकी आवाज में खो जाता हूँ। किरण धीरे-धीरे फूट रही है - और वह गीत हवा से होते हुए लगातार मेरे कानों में गूँज रहा है।

कथाकार दूर बैठा इशारा कर रहा है - सत्यदेव को बहलाए रखने के लिए।

लेकिन वे फकीर की आवाज से आवाज मिलाते हुए तेज-तेज चलना शुरू कर देते हैं। जैसे किसी से मिलने की बहुत हड़बड़ी हो। बिना यह परवाह किए कि मैं उनके साथ इतनी देर से बैठा हुआ उनकी बातें सुन रहा था - उनसे लगातार बातें कर रहा था।

मैं उन्हें रोकने की कोशिश करता हूँ - साधुजी बैठिए, मैं पानी ला रहा हूँ आपके लिए। चाय पीते हैं न साथ मिलकर। देखिए पल्टूदा की दुकान अभी खुलने वाली है। और जैसे वे कुछ सुन ही नहीं रहे। मेरी आवाजें जैसे किसी पत्थर से टकरा कर वापिस आ जा रही हैं।

मैं विवश और असहाय होकर कथाकार की ओर देखता हूँ। वह पास ही बैठा है चुपचाप। मैं भूल गया हूँ कि मेरा एक घर है - एक पत्नी है जिसे सोता हुआ छोड़कर रात के दो बजे घर से बाहर निकल आया हूँ - और यह कथाकार ही लेकर आया है मुझे यहाँ।

अचानक मुझे याद आता है कि मेरे घर का कंप्यूटर ऑन है। ...और मैं उसे उसी हालत में छोड़कर यहाँ तक आ गया हूँ।

इन दो पागलों के बीच जैसे मैं फँस गया हूँ। मुझे सचमुच उस समय कोफ्त हो रही है। अब पछता रहा हूँ कि यह बात तो दिन में भी हो सकती थी। क्या लिखने के लिए इस तरह रात भर घर-बार छोड़कर टंडैली मारना जरूरी है। ये सारे सवाल मैं उस कथाकार से पूछना चाहता हूँ - मैं हाथ जोड़कर उससे कहना चाहता हूँ कि तुम मेरा पीछा छोड़ दो - मैं जैसे हूँ ठीक हूँ। नहीं लिखना मुझे कथा-वथा...। तुम दो विक्षिप्त लोगों के बीच मैं भी विक्षिप्त हो जाऊँगा। एक पागल औरत तो मेरे घर में भी है जो मुझे कभी भी चैन से नहीं रहने देने के लिए आई है।

सुनो... देखो मैं अब नहीं लिख रहा कुछ। तुम खबरदार इसके बाद मेरे पास मत आना। मैं कह रहा हूँ और देख रहा हूँ कि मैं यह सारी बातें हवा में कह रहा हूँ। मोनेर हदिश के बा जाने... की गूँज अब बहुत दूर से आती हुई धीमे-धीमे विलुप्त हो रही है। सूरज की ललाई आकाश पर रंग की तरह फैलने लगी है। दिन का उजाला फैलने वाला है।

कथाकार कहीं नहीं है।

पेड़ के पीछे भी नहीं। सामने का पत्थर खाली है जिसपर वह बैठा था। मैं उसे छूकर देखना चाहता हूँ एक बार।

उस पत्थर के ऊपर किसी मनुष्य के अभी-अभी होने की गंध और गरमाहट के निशान हैं। लेकिन वह नहीं है। कहीं नहीं।

वह चला गया है। सत्यदेव भी दूर कही जाते हुए किसी मोड़ के पास खो गए हैं।

मैं बहुत तेज कदमों के साथ बदहवासी में अपने घर की ओर भागना शुरू करता हूँ।

फ्लैट की सीढ़िया बहुत धीमें-धीमें चढ़ता हुआ मैं दरवाजे तक पहुँचता हूँ। दरवाजा अब तक खुला है। मैं चोर की तरह अपने घर में प्रवेश कर रहा हूँ। सामने कंप्यूटर के सीपीयू के फैन की आवाज सुनाई पड़ रही है। मैं बहुत धीमे-धीमे कंप्यूटर को शट डाऊन कर देता हूँ।

अब? मैं कुछ देर रुककर अपने साँसों की उखड़ती हुई आवाज को स्थिर करता हूँ। और बेडरूम की ओर सावधानी से बढ़ना शुरू करता हूँ।

बेडरूम की लाइट ऑफ है।

वह निढाल सो रही है, मैं एक राहत भरी साँस लेता हूँ और ब्लंकेट से उसके खाली बदन को ढक देता हूँ।

वह एक करवट लेती है और बिस्तर के दूसरे छोर पर चली जाती है - शायद वह नींद में कुछ बड़बड़ा रही है जो इतना अस्पष्ट है कि मेरी समझ में कुछ नहीं आता। मैं हाँ-हूँ कह रहा हूँ...। लेकिन मैं वहाँ नहीं हूँ जहाँ मैं हूँ।

मेरी आँखों में नींद नहीं है। पीठ में एक अजीब-सा दर्द महसूस हो रहा है। मैं धीरे से बिस्तर पर तकिए के सहारे लेट जाता हूँ और मोबाइल ऑन कर के अनायास ही उसके बटन टिपना शुरू कर देता हूँ।

मुझे गेम नहीं खेलना है। किसी को मैसेज नहीं करना। किसी से बात नहीं करनी। बस मोबाइल के लाईट और उसकी बटन की मुझे आदत पड़ चुकी है - बिल्कुल सिगरेट की तरह।

लेकिन कुछ क्षण बाद ही एक ऊब होती है। मैं बाहर कोरिडोर में टहलता हुआ एक सिगरेट पीना चाहता हूँ। सिगरेट पीना और रात की सारी बातों को सहेजना। एक ऐसी स्थिति में रखना ताकि वे चीजें मुझे बेतरह परेशान न करें।

मैं कॉरिडोर से बहुत दूर सूरज के गोल और लाल आकृति को एकटक देखता हूँ। बहुत देर के बाद मेरे फेफड़े में जा रहा सिगरेट का धुआँ एक अजीब सुकून दे रहा है। मुझे याद आता है कि बहुत दिन से मैंने बियर नहीं पी है। और बेगम अख्तर या गुलाम अली या आबिदा परवीन की गाई कोई गजल नहीं सुनी है। ठंड हल्की-हल्की बढ़ रही है और मैं यह सोचकर निराश होता हूँ कि कुछ देर बाद मुझे रात भर के जमे हुए ठंडे पानी से नहाना होगा और दफ्तर के लिए निकलना होगा। मुझे ट्रेन की भीड़ याद आती है जहाँ हम माल की तरह ठूँस दिए जाते हैं... और दफ्तर की अधूरी फाइलें याद आती हैं जो पता नहीं कितने दिन से ऐसी ही पड़ी हुई हैं।

लेकिन इस बात का सुकून है कि पत्नी को पता नहीं चला कि आज फिर मैं रात भर गायब रहा हूँ।

 

9.

मैं क्यों लिख रहा हूँ, कौन पढ़ेगा इस कथा को? क्यों पढ़ेगा? लोगों के पास आज समय कितना कम बच गया है।

मुझे अखबार तक पढ़ने की फुरसत नहीं। मेरी पत्नी ने हिंदी साहित्य में ए.ए. किया है - लेकिन जरा पूछिए कि टेक्स्ट को छोड़कर कौन सी किताब है जो उसने पढ़ी हो। कविता-वविता तो रहने दें। कथा की बात कह रहा हूँ जिसे पढ़कर लोगों का मनोरंजन भी होता है। जब से उसके साथ हूँ मैंने कभी भी उसे कोई किताब लेकर पढ़ते हुए या किताब लेकर बैठे हुए भी नहीं देखा। मैं चाहता हूँ कि मार्खेज की सारी किताबें अँग्रेजी में पढ़ूँ। सिर्फ मार्खेज ही क्यों, हर एक नोबेल विजेता रचनाकारों की रचनाएँ। कालीदास, चंडीदास, सूर, कबीर, तुलसी सबको। फिर-फिर पढ़ूँ। लेकिन समय कहाँ मिलता है। सुबह आठ से शाम आठ बजे तक दफ्तर। इसके बाद बच्चे-कच्चे दुकान-दउरी और पत्नी की चख-चख। सोचता हूँ कि कितने भाग्यवान हैं वे जिनका शब्दों से खूब-खूब नाता है। और एक मैं...। निरीह... समयहीन और घरेलू।

पराजित और दास।

कथाकार का नोट

अच्छा, इस प्रश्न का क्या उत्तर है कि सत्यदेव शर्मा ने बहुत सारी चीजों के बीच से पेंटिंग को ही क्यों चुना? कोई एक आदमी लेखन को क्यों चुनता है?

असल में यह प्रश्न ही पूछना बेमानी है।

कहना चाहिए और अगर पूछना खूब जरूरी हो तो पूछना चाहिए कि इतने लोगों के बीच से पेंटिंग ने सत्यदेव शर्मा को क्यों चुना या लेखन ने विमल बाबू को क्यों चुना?

लेखन एक रोग की तरह है - उसी तरह चित्रकला या समस्त कलाएँ। यह रोग कुछ लोगों में बहुत शुरू दौर में ही प्रकट हो जाता है। कुछ लोगों के अंदर किसी खास उम्र की सीमा में प्रकट होता है। यह रोग सोई हुई अवस्था में रहता है जो अनुकूल परिस्थिति और परिवेश पाकर उभरता है। यह एक लाइलाज मर्ज है। कई बार उम्र के साथ इसे बढ़ते और घटते हुए देखा जा सकता है। कई बार यह भी होता है कि वह चुपचाप एक समय फिर से सुसुप्तावस्था में प्रयाण कर जाता है।

लेकिन मैं यहाँ यह सब कहने के लिए नहीं आया हूँ। मैं सत्यदेव शर्मा और विमल बाबू का पीछा करते हुए आया हूँ। मुझे कुछ लिखना-विखना नहीं है। लिखना तो विमल बाबू को है और सत्यदेव शर्मा की कहानी लिखनी है। वह भी इसलिए कि वे उनकी कहानी लिखना चाहते थे शिद्दत से। और जब मैंने उनके अंदर यह हलचल और बेचैनी देखी तो उनके पास चला आया - सिर्फ उनकी सहायता करने के ध्येय से। ताकि सत्यदेव शर्मा की कहानी के साथ ठीक-ठीक न्याय हो सके। और विमल बाबू जैसा एक चिरकुट लेखक भी लोगों की यथोचित प्रशंसा प्राप्त कर सके।

सच मानिए, इससे अधिक की महत्वाकांक्षा मेरे पास नहीं थी। लेकिन जैसे-जैसे मैं सत्यदेव की कथा में प्रवेश करता जा रहा हूँ मुझे कई चीजें काफी रुचिकर लग रही हैं। जाहिर है कि कई एक जगह पर मैं करुण भी हुआ हूँ। खुश भी हुआ हूँ। मैंने सत्यदेव शर्मा के साथ एक पूरी उम्र जीने का उपक्रम किया है - जानबूझकर नहीं अनायास ही। जो मेरे लिहाज से बहुत जरूरी है। मैं उनके दिमाग की तंतुओं तक कई बार प्रवेश कर के लौट आया हूँ। वहाँ एक गहरा शून्य है - कई बीहड़ खाइयाँ हैं। उन्ही खाइयों और उस शून्य के बीच से मुझे कथा के तार जोड़ने हैं।

तो चलिए चलते हैं विमल बाबू के पास। वे दफ्तर से आने के बाद चाय पी रहे होंगे। उसके पहले पत्नी ने फोन पर सारे सामान की लिस्ट गिनवा दी होगी और फिर भी कोई न कोई चीज वह भूल गए होंगे जिसके लिए उनकी पत्नी उन्हें कोस रही होगी और वे चुपचाप मुँह बनाए - एक निरीह प्राणी-सा चाय सुरक रहे होंगे और सोच रहे होंगे कि वह कौन सा खाली वक्त होगा जिसमें वे सिगरेट पिएँगे और पत्नी की नजर उनपर नहीं जाएगी।

चलिए सीधे वहीं चलते हैं - फिर वहाँ से उन्हें लेकर सत्यदेव शर्मा के पास चलेंगे। चलिए - चलिए...।

मैं जानता हूँ कि वह आएगा ही आएगा। उसके आने के पहले मुझे अपनी चाय खत्म कर लेनी होगी। सिगरेट पी लेना होगा। वह आएगा तो फिर किधर बहाकर ले जाएगा मुझे - कुछ पता नहीं।

मैं कंप्यूटर ऑन करके चुपचाप बैठ जाता हूँ। पत्नी किचेन में कुछ काम कर रही है। मेरा मन होता है कि एक बार फेसबुक पर जाकर देखूँ कि एक कविता जो कुछ दिन पहले पोस्ट की थी उसपर कितने लाइक्स आए हैं - कितने लोगों ने आह-वाह की है। लेकिन मुझे डर है कि इसी बीच वह अगर आ गई तो तुरंत एक ताना कस देगी कि आपके जीवन में कंप्यूटर पर छोरियों से गप्पे लड़ाने और कागज रंगने को छोड़कर और कोई काम बचा है? इसके बाद शुरू करेगी वह कथा जिसमें मैं एक पाजी और दुष्ट विलेन की शक्ल में ढलता जाऊँगा और वह एक ऐसी राजकुमारी बन जाएगी जिसको माँ-बाप ने बड़े जतन से पाला-पोसा था और वह मेरे जैसे दैत्य के साथ शादी करने के बाद अपना जीवन बरबाद कर चुकी है।

मैं चुपचाप सुनूँगा। हमेशा की तरह चुपचाप।

लेकिन बहुत देर बाद तक वह नहीं आती तो मुझे अचरज होता है। मैं एकबार उसका मुयायना कर लेना चाहता हूँ। मैं दबे पाँव जाकर देखता हूँ - वह चुपचाप आटा गूँथ रही है। उसे इस तरह चुपचाप देखकर मुझे उस पर बहुत प्यार आता है। मैं चाहता हूँ कि चुपचाप जाकर उसे अपनी बाँहों में भर लूँ और कहूँ - प्लीज मुझे माफ कर दो मेरे अंदर एक रोग है। यह रोग मुझे बचपन से है और उम्र के साथ और अधिक बड़ा होता गया है। यह इलाज के काबिल नहीं है। तुम प्लीज मुझे समझो। मैं तुम्हें बहुत प्यार करता हूँ।

लेकिन उस समय उसे छेड़ने का साहस मैं जुटा नहीं पाता। कुछ क्षण उसे यूँ ही देखने के बाद मैं अपनी चेयर पर आकर बैठ जाता हूँ।

मेरी आँखें बंद है और मैं उन दिनों में चला गया हूँ जब पहली बार मैंने उसका हाथ अपने हाथ में लिया था और उसके चेहरे का रंग ऐसा हो गया था जिसे व्यक्त करना मेरे जैसे मामूली लेखक के बस की बात नहीं थी। सत्यदेव ने क्या सोचा होगा जब पहली बार उन्होंने मयना को चूमा था। कुछ वैसा ही - जैसा मैंने? उफ्फ... वे दिन...।

मैं फिर से जीना चाहता हूँ उन दिनों को।

शिद्दत से चाहता हूँ कि वह फिर से साबुत मेरे जीवन में लौट आए।

अचानक लगा कि मेरी कुर्सी के पीछे कोई खड़ा है - जरूर पत्नी होगी - मैंने हड़बड़ाकर आँखें खोल दीं।

पत्नी नहीं थी।

कैसे हो विमल बाबू? मैं हकबकाकर पीछे मुड़ता हूँ। कथाकार पीछे खड़ा मुस्कुरा रहा है।

तुम अभी क्यों आए हो? मैं अपनी हड़बड़ाहट छुपाते हुए अचकचाकर कहता हूँ।

वह चुप है। मेरी आवाज शायद पत्नी तक पहुँच गई है। वह किचेन से ही चिल्लाकर पूछती है कौन आया है? किसके साथ बात कर रहे हैं आप?

नहीं, कुछ नहीं। एक कविता पढ़ रहा था।

अभी कविता पढ़ने का समय है?

नहीं। क्या कोई काम था?

काम नहीं होगा तो तुम कविता पढ़ोगे?

नहीं, मैं काम कर रहा था कुछ। एक रिपोर्ट बनानी है ऑफिस के लिए। अर्जेंट।

तुम्हारी कविता की किताबें मैं एक दिन कबाड़ी को बेच दूँगी। फिर देखती हूँ कि तुम कहाँ से कविता लिखते और पढ़ते हो। ये तो होता नहीं कि कुछ लड़कों को ट्यूशन दे लो। बच्चे चिल्ला रहे हैं तब से। कभी थोड़ा पढ़ा ही दिया करो। उनकी डायरी ही चेक कर लिया करो। कविता पढ़ रहे हैं। ये चिंता है कि बच्चों की फीस भरी गई या नहीं? कोई ढंग का काम करो। इतनी महँगाई और फिर आधे पैसे तो गाँव भेज देते हो। अगर मैं स्कूल नहीं ज्वाइन करती तो तुमने तो मुझे और मेरे बच्चों को भूखे मार देने का पूरा प्लान कर लिया था।

मैं चुपचाप सुन रहा हूँ। मुझे यह बिल्कुल अच्छा नहीं लगता कि सारी बातें वह कथाकार भी सुन रहा है। एक अजीब-सी झेंप होती है। यह सब सुनने का मैं आदी हो चुका हूँ। कोई एक अच्छी कविता मन में कौंधती है - मैं इस दीन-दुनिया से ऊपर उठकर कहीं किसी जंगल में, कहीं आकाश के किसी खोह में, इतिहास के किसी गह्वर में भटक रहा होता हूँ कि उसकी आवाज किसी गोले की तरह गिरती है और सब कुछ धुआँ-धुआँ हो जाता है। पता नहीं कितना कुछ इसी तरह खत्म हुआ है। अब तो गिनती करना भी छोड़ चुका हूँ - मैं तो यही योजना बना रहा था कि लिखना-पढ़ना सब छोड़ दूँगा - यह रोज-रोज की चें-चें से तंग आ चुका हूँ - कि सत्यदेव मिल गए और एक बाबू साहेब रोज हाजिरी लगा रहे हैं कि लिखो-लिखो। खुद को कथाकार कहते हैं। उफ्फ...।

लेकिन पता नहीं क्यों यह सत्यदेव क्यों इतना खींचते हैं मुझको। मैं इस कलाकार को क्या दे सकता हूँ - तो सोच रहा हूँ कि यह कथा ही सही। आज की दुनिया में इस कथा का कोई मोल भले न हो - लेकिन मेरे लिए तो यह अमोल है।

लेकिन वह आ गई और मुझे इस तरह बड़बड़ाते हुए देख लिया तो पता नहीं क्या होगा - मैं कथाकार की ओर मुखातिब होता हूँ।

तुम प्लीज जाओ। बाद में आना। जब वह सो जाए तब।

तुम इतना डरते क्यों हो उस औरत से?

मैं डरता नहीं। मैं अपने घर से प्यार करता हूँ शायद उस औरत से भी।

तुम करते हो प्यार? और वह? क्या यह सब भी उसका प्यार है।

हाँ है। तो? तुम जाओ। कहा न बाद में आना।

वह आ रही है। उसके कदमों की आहट सुनकर वह कहीं छुप गया है। वह आती है। इधर-उधर किसी को तलाशती है और मैं किसी अबोध शिशु की तरह उसके पीछे-पीछे। जैसे गलती करने के बाद एक बच्चा माँ की ओर देखता है - तर्क पर तर्क देता है खुद को सही साबित करने के लिए।

चलो खाना खा लो। ये फिकर तो नहीं है कि आटा घटा है या नमक। तुम सुधरोगे नहीं। मैं ही तुम्हें छोड़कर चली जाऊँगी - तंग आ चुकी हूँ तुम्हारी हरकतों से।

मैं चुपचाप किसी अपराधी की तरह उसके पीछे-पीछे डायनिंग रूम की ओर चल पड़ता हूँ।

बिना कुछ जवाब दिए।

मिन्नी, मुझे खाना-खाने के बाद एक रिपोर्ट पूरी करनी है। तो...

जवाब में वह मुझे एक गहरी आँखों से घूरती है। कुछ बोलती नहीं और रोटी का एक टुकड़ा अपने मुँह में डाल लेती है।

एक चिकनी सी लड़की हड़बड़-हड़बड़ कुछ बोले जा रही है - टेलिविजन पर पता नहीं कितने लोगों की तस्वीरें एक साथ घूम रही है। हजार करोड़ का कोई स्कैम है - कहीं अमिताभ बच्चन सवाल पूछ रहा है और आम लोगों को लखपति और करोड़पति बना रहा है। एक जगह किसानों की आत्महत्या पर कोई बहस चल रही है। एक मसखरा एक कठिन भावमुद्रा में कोई कविता पढ़ रहा है - और उसकी कविता सुनकर मुझे शर्म आ रही है। कोई बता रहा है कि एक साधु को सपने में किसी ने बताया है कि किसी खंडहर में हजार टन सोना गड़ा हुआ है और अगर वह मिल जाए तो देश की अर्थव्यवस्था पटरी पर आ जाएगी। बार-बार एक साधु की तस्वीर के साथ लिखा हुआ स्क्रीन पर डिस्प्ले हो रहा है - देखिए एक संत की करतूत - संत या शैतान, आज रात 9 बजे। मैं जल्दी-जल्दी रोटियों के टुकड़े पालक के साग के साथ निगल रहा हूँ। पत्नी मेरी हर हरकत को गौर से देख रही है। मैं सावधान हो जाता हूँ। और एक नॉर्मल आदमी की तरह रोटियाँ चबाने लगता हूँ।

मैं जानता हूँ वह गया नहीं है - मेरा इंतजार कर रहा है। यहीं कहीं मेरे आस-पास वह है और कभी भी अचानक प्रकट हो सकता है।

खाना खत्म होने के बाद मैं कंप्यूटर रूम में धीरे-धीरे आता हूँ। पानी का बोतल, दवाइयाँ सबकुछ मैंने पत्नी के टेबल पर रख दिया है। उसे सुबह जल्दी उठना होता है। इसलिए वह दस बजे तक बिस्तर पर चली जाती है। मैं कुछ देर कंप्यूटर पर काम करता हूँ। यह एक रूटीन-सा बन गया है। कभी-कभी वह खूब तेज गुस्से में होती है या उसकी तबियत खराब रहती है तब मैं उसके पास रहता हूँ और उसकी तमाम शिकायतें चुपचाप सुनता हूँ।

लेकिन वह बहुत देर तक नहीं आता। मैं सत्यदेव की कही हुई बातों को धीरे-धीरे दर्ज करता हूँ - और एक जगह पर आकर रुक जाता हूँ। वह आखिरी दिन। या वे कई दिन। उसके बारे में तो सत्यदेव ने बताया ही नहीं। कथाकार का भी कहीं पता नहीं।

कुछ देर की अनमस्कता के बाद मैं पत्नी के कमरे में जाता हूँ। वह सो चुकी है। मैं बोतल से कुछ घूँट पानी पीता हूँ और कॉरिडोर में आकर एक सिगरेट जला लेता हूँ। बाहर की सड़क सुनसान होने लगी है। सड़क पर इक्का-दुक्का लोग तेज-तेज कदमों से गुजर रहे हैं। दुकानें लगभग बंद हो चुकी हैं। मैं सत्यदेव के बारे में सोच रहा हूँ। वह आदमी जिसे हमेशा शांत और गंभीर देखा था - वह कैसे अचानक जार-जार रोने लगा था। उसकी रुलाई में एक बच्चे की-सी जो मासूमियत थी, मेरे अंदर कहीं ठहर गई है - जो बार-बार कई बार याद आ जाती है। मैं मयना की कल्पना करता हूँ - कैसी दिखती होगी वह उस तेरह साल की उम्र में जब उसने सत्यदेव शर्मा से प्रेम करने का साहस किया था? यह कहने का साहस किया था कि चलो मुझे ले चलो कहीं। मुझे तुम्हारे साथ कहीं चलना है। तेरह वर्ष की एक लड़की चौदह साल के सत्यदेव से कह रही थी। कैसे कहा होगा उसने वह सारी बातें। सत्यदेव सबकुछ कहाँ बताते हैं। अगर कथाकार न होता तो क्या इस कथा के साथ मैं अकेले इतनी दूर आ पाता।

और अब इतनी दूर आ तो गया हूँ लेकिन मुझे यह भी पता नहीं कि जाना कहाँ है?

किसे पता है?

सत्यदेव को पता है?

क्या कथाकार को पता है?

अचानक दूर कोई एक आदमी एक लंबी मोटी चादर ओढ़े हुए दिखाई पड़ता है। मुझे उसकी चाल सत्यदेव की तरह क्यों लग रही है। क्या हर आदमी के अंदर मुझे सत्यदेव दिखाई पड़ने लगे हैं? वह आदमी इसी तरफ आ रहा है - लैंपपोस्ट तक आते-आते उसका चेहरा साफ दिखने लगता है - अरे हाँ, ये तो सत्यदेव ही हैं। लेकिन इस वक्त? कहाँ जा रहे हैं।

जाओ, उन्हें ऊपर लेकर आओ - पीछे से एक गंभीर आवाज आती है।

तुम...? कहाँ थे इतनी देर?

यहीं था - तुम्हारे पास। जाओ उन्हें लेकर आओ। वे तुम्हें ही ढूँढ़ रहे हैं।

इस वक्त?

हाँ, जाओ। डरो मत। मैं इंतजार कर रहा हूँ।

मैं बिना कुछ सोचे सीढ़ियाँ उतरते हुए नीचे पहुँचता हूँ। वे सचमुच मुझे ही ढूँढ़ रहे हैं, हैरान-परेशान चेहरे पर एक अजीब सी दीनता मैं देख रहा हूँ - उस समय मुझे उन पर दया के जैसा कोई भाव उभरता है जिसे मैं जाहिर नहीं होने देना चाहता।

भूख लगी है विमल बाबू। कुछ खाने को मिलेगा?

हाँ, चलिए ऊपर ।

यहीं ला दीजिए न।

ऊपर आइए, आराम से कुछ खा लीजिए। फिर जहाँ जाना हो चले जाइएगा।

उनके चेहरे पर एक संकोच-सा भी कुछ है लेकिन वे मेरे पीछे-पीछे चले आते हैं। मैं सोच रहा हूँ कि उन्हें इस वक्त क्या खिलाऊँ। मैं उन्हें एक कुर्सी पर बैठने के लिए कहता हूँ। कथाकार बहुत उत्साहित और खुश लग रहा है।

इन्हें भूख लगी है - मैं कथाकार की ओर देखता हूँ। वह आराम से सोफे पर बैठ चुका है।

इन्हे खिलाओ पहले कुछ। यह तो अच्छा हुआ कि ये चलकर तुम्हारे पास आए हैं।

हुम्म...।

वे खा रहे हैं। जैसे बहुत दिन से भूखे हों। चुपचाप। दो ही रोटियाँ थीं किचेन में और थोड़ी सी तरकारी। मैंने लाकर दे दिया है। रोटियाँ खत्म हो चुकीं। वे मेरी ओर देख रहे हैं। फ्रिज में कुछ केक और ब्रेड थे। मैंने सब लाकर दे दिया है।

पानी?

वे गटागट पूरा पानी पी जाते हैं। मैं बर्तन उठाकर किचेन में रख आना चाहता हूँ।

नहीं। आप किचेन दिखाइए। मैं धो देता हूँ।

नहीं रहने दीजिए। काम वाली आएगी वह धो देगी।

वे वर्तन किचेन में ले जाकर अपने हाथों से ही रखते हैं।

आजकल तबियत कुछ ठीक नहीं रहती। कई जगह ट्यूशन में नागा किया। पैसे नहीं मिले। होटल वाले ने दो दिन से खाना नहीं दिया। कहता है पैसे लेकर आओ।

यह कहने में उन्हें बहुत तकलीफ हो रही है।

इन्हें कुछ पैसे दे दो - कथाकार का आदेश है।

हुम्म।

मेरे पर्स में दो सौ रुपये पड़े हैं। मैं निकाल कर उनकी जेब में रख देता हूँ। वे लेना नहीं चाहते। लेकिन मैं जबरदस्ती उनकी जेब में वह पैसे रख देता हूँ।

इस बार वे चुपचाप जमीन पर बैठ जाते हैं। ऐसे जैसे कहीं खो गए हों - किसी अदृश्य संसार में चले गए हों।

अब? मैं कथाकार की ओर देखता हूँ।

आगे की कथा...? कब सुधरोगे? कथाकार गंभीर है।

सब कहाँ कुछ लाला-ओ-गुल में नुमाया हो गए यानि दास्तान-ए-सत्यदेव की छठवीं किश्त

नहीं-नहीं। हम एक ऐसी उम्र में थे - जब इस तरह का कोई निर्णय ले ही नहीं सकते थे। सैफू तो कुछ नहीं समझता था। बम्मड़ था वह।

लेकिन दोस्त था वह सचमुच का। फिर कभी उसके जैसा कोई नहीं मिला। उसकी एक तस्वीर है मेरे पास - मैंने बहुत बाद में बनाया। बीड़ी पीता हुआ वह मुस्कुराता है। जब कोई नहीं होता घर में तो वह पेंटिंग से निकल कर मेरे पास आ जाता है - बोलता कुछ नहीं। पेटिंग की हँसती हुई तस्वीर बहुत उदास और गंभीर हो जाती है। वह कुछ कहना चाहता है - लेकिन कहता नहीं। कुछ देर इधर-उधर घूमता है - बीड़ी पीता है और फिर वापिस चला जाता है।

घर गए थे तो आपने बीड़ी देखी थी न। मैंने उसी के लिए खरीदकर रखी है। वह मरा नहीं है। वह जिंदा है। मुझे यकीन है वह जिंदा है। सैफू जैसे लोग कभी नहीं मरते। कभी नहीं।

मयना? ...हाँ वह भी। उसी के बारे में बता रहा हूँ।

बुखार में दो दिन बिस्तर पर रहने के बाद मैंने एक छोटी सी पर्ची लिखकर भेजा था। सैफू उस पर्ची को पहुँचाने स्कूल गया था। उस पर्ची में मैंने मयना से मिलने की बात लिखी थी।

हमारे और मयना के बीच की दोस्ती को सैफू ही जानता और समझता था। वह अकेला गवाह था हमारे उन नादानियों के समय का।

और वह आई थी - ठीक उसी जगह। जो जगह हमें पहचानता था और उस दिन हसरत भरी निगाह से हमें देख रहा था।

उस दिन वह पहले से अधिक सुंदर लग रही थी। मैंने देखा कि उसका सलवार समीज कुछ नया-नया था। आँख में गहरा काजल, माथे पर एक चमचमाती बिंदी और हाथ में लाल रंग की दो जोड़ी मोटी और नक्काशीदार चूड़ियाँ थीं। काजल के बीच भी उसकी आँखों में उदासी की ढेरों परत दिखाई पड़ रही थी। जैसे बहुत रोने के बाद उसने पानी से आँख साफ किया हो और फिर काजल लगाया हो। मुझे पता था कि सैफू भी किसी अरार पर बैठा चुपचाप बीड़ी पी रहा होगा।

वह पहले से ही वहाँ थी। मुझे देखते ही आकर मुझसे लिपट गई और रोने लगी। उसका रोना पहली बार देख-सुन रहा था मैं। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि मैं उससे क्या कहूँ। मेरे पास शब्दों के सिवा उस समय उसके लिए कुछ नहीं था।

चुप... चुप हो जाओ मयना। मैं धीरे-धीरे उसके गालों पर ढुलक आए आँसू की बूँदों को पोंछ रहा था।

तुम्हारे सिवा मैंने किसी के बारे में नहीं सोचा सत्य - वह अब भी रोए जा रही थी।

आप कल्पना कीजिए न कि आजकल जैसा फिल्मों में होता है। एक लड़की एक लड़के की बाँहों में सिमटकर रोती है। कुछ-कुछ वैसा ही।

लेकिन वह समय अलग था - मुझे सैफू ने एक फिल्म दिखाई थी। गाँव के पास एक छोटा सा बाजार था - वहीं एक सिनेमा हॉल था। मुझे याद है जीवन में पहली बार मैंने बेंच पर बैठकर फिल्म देखी थी। धरती-मइया नाम था फिल्म का उसमें बहुत सारे अच्छे गीत थे। उस फिल्म में भी हीरो और हिरोइन इसी तरह एक-दूसरे से गले मिले थे। लड़की की आँख में आँसू था। शायद लड़के का नाम कुणाल था और लड़की का नाम पद्मा खन्ना। मैंने पहली बार वह फिल्म देखी थी और मरछिया ने नीम की छड़ी से मुझे मारा था। छड़ी के निशान एक हफ्ते तक मेरी पीठ पर मौजूद रहे थे। उसके बाद मैंने कभी फिल्म नहीं देखी।

एक बार मयना ने भी कहा था - चलो एक फिल्म देखते हैं। लेकिन मैंने मना कर दिया था। वह कई बार उस सिनेमा हॉल में अपने घर वालों के साथ फिल्म देख चुकी थी और आशा पारिख और राजेश खन्ना से लेकर बहुत सारे हीरो-हिरोइनों को पहचानती थी।

फिल्मों को लेकर हमारी बहुत कम ही बात होती थी। हम जब अकेले होते तो बात कम करते थे - एक-दूसरे को देखते और और हँसते ज्यादा थे। बाद के दिनों में हँसना कम हो गया था और एक-दूसरे को छूना ज्यादा।

उस दिन उसके चेहरे पर ऐसा कुछ था जिसे ठीक-ठीक उदासी नहीं कहना चाहिए। वह मेरे होठों की ओर बार-बार अपने होंठ ले जा रही थी। उस सन्नाटे में जैसे कोई आग की लपट हो जिससे डरते हुए भी मैं उसके करीब जाना चाहता था।

मैं तुम्हारे सिवा और किसी की नहीं हो सकती - उसने मुझे कसकर भींच लिया था।

उसके हाथ मेरे हाथों को पकड़कर उसके नए और कुछ दिन पहले के उभारों की ओर ले जा रहे थे। उसके जंघे बिना पानी के मछलियों की तरह छटपटा रहे थे। और बार-बार मेरे जंघे से सिर पटक रहे थे मानो पानी का सोत वहीं कहीं छुपा हो। एक अवश सी महदोशी में कुछ समय बाद हम जमीन पर थे। एक साँस उठती और फिर गिरती थी। फिर एक साँस गिरती और तेजी के साथ उठती थी। उस सन्नाटे में हमारी पीड़ा की आवाजों के गवाह सिर्फ अरहर के पौधे थे - वह जमीन थी। बहुत दूर बैठा सैफू था - जहाँ तक हमारी आवाजें पहुँच नहीं पा रही थीं।

एक शांत और उजली नदी थी - जिसके अंदर मैं डूब रहा था। एक ऐसी नदी जिसमें पहली बार मैं डूबते हुए भी डूब के डर से अलग था - यह डूबना एक नए रहस्य लोक की यात्रा थी - जो अनजान और एकदम नया था - अचंभित करने वाला और एकदम अप्रत्याशित।

वह एक बार दर्द से काँपती और उसके कंपन को सहेजता हुआ मैं इस दुनिया का सबसे बड़ा विजेता-सा महसूस कर रहा था - दूर कहीं पहाड़ पर ग्लैशियर पिघल रहे थे। कहीं तेज बारिश हो रही थी - एक जोर की आँधी उठी थी - उस आँधी में दो शरीर उड़कर किसी देवलोक तक पहुँचने की यात्रा कर रहे थे - दो आत्माएँ एक-दूसरे में अंतरित होकर नया जन्म ग्रहण कर रही थीं।

पूरी दुनिया में कुछ देर के लिए अँधेरा छा गया था।

यह कैसे हुआ, क्यों हुआ यह मैं नहीं जानता। एक अपराधबोध-सा कुछ महसूस हो रहा था मेरे जेहन में। लेकिन मयना की आँखों में चमक थी - जैसे किसी अनमोल वस्तु को हमेशा के लिए पा लेने और सहेजकर रख लेने का सुख।

मैंने तुम्हें सौंप दिया खुद को...। अब मैं कहीं भी जा सकती हूँ। तुम कहो तो तुम्हारे साथ। नहीं तो वहाँ जहाँ मेरे माँ बाप ने मुझे भेजने का निर्णय कर लिया है।

तुम चली जाओगी?

रोक लो मुझे।

कैसे? किस तरह...?

जिस तरह एक लड़का, एक लड़की को रोक लेता है हमेशा के लिए।

मेरे पास क्या है - तुम्हें रोकने के लिए?

रोकने के लिए कुछ का होना जरूरी है?

हाँ जरूरी है। तुम नहीं समझती। मेरे पास एक खाली प्यार, एक मन और इस देह के सिवा और क्या है?

क्या यह काफी नहीं?

कुछ चीजें काफी नहीं होतीं। मैं एक बढ़ई हूँ। घर से निकाल दिया गया। एक मठ में शरण ली है मैंने। सोचो अगर ऐसा कदम हमने उठाया तो क्या कुछ बदल जाएगा। तुम्हारे घर वाले? राजपूत हैं वे। मेरे गाँव को जला देंगे। न भी जला पाए तो मेरे बूढ़े दादा की मठिया...। तुम कुछ नहीं समझती मयना।

मुझे और कुछ नहीं समझना। तुम कहो। मैं अभी तुम्हारे साथ-साथ निकल सकती हूँ। सिर्फ तुम्हारे लिए। मुझे नहीं परवाह किसी की।

उफ्फ मयना। तुम अभी जाओ - बहुत देर हो गई है। कोई देख लेगा तो कुछ भी हो सकता है...।

फिर...?

फिर मुझे सोचने दो...।

उस दिन वह लौट गई थी। क्या था उस समय उसकी आँखों में - मैं ठीक-ठीक नहीं बता सकता। मेरे पास शब्द नहीं है - मैंने बहुत बार कोशिश की है उन आँखों की तस्वीर को आँकने की - लेकिन फिर सोचता हूँ कि उन आँखों को आँकने के बाद उनसे मैं अपनी आँख मिला सकने का साहस कहाँ से लाऊँगा?

वह जा रही थी - मुझे याद है बहुत दूर जाने के बाद एक बार उसने मुझे मुड़कर देखा था - फिर तेज कदमों से चलती हुई आँख से ओझल हो गई थी।

मयना...। फिर वह नहीं लौटी।

सत्यदेव एकदम से असहज हो गए थे - जैसे अभी-अभी उस समय से निकलकर बाहर आए हों। मुझे लगा कि वे अंदर से बहुत बेचैन हो रहे हैं - वे उठकर टहलने लगे थे - आपको किसी चीज के जलने की गंध आ रही है - देखिए वे लोग आ रहे हैं। उनके हाथों में मशालें हैं। दूर से एक पागल भीड़ दौड़ती हुई आ रही है। सैफू भाग रहा है - वह मुझसे कुछ कहना चाहता है - मुझे शोर में कुछ सुनाई नहीं पड़ रहा - आप सुनिए विमल बाबू - वह कुछ कह रहा है।

मैं किंकर्तव्यबिमूढ़ खड़ा हूँ - उनकी आवाज धीरे-धीरे तेज होती जा रही है। मुझे डर है कि कहीं पत्नी जग गई तो। मैं कथाकार की ओर देखता हूँ।

उनसे बात करो - वे अभी सहज हो जाएँगे। कथाकार बिल्कुल विचलित नहीं है।

हुँ...।

कुछ नहीं होगा साधु खान...। मैं हूँ न। कोई कुछ नहीं करेगा।

नहीं, आप नहीं जानते। वे बहशी हैं। दरिंदे हैं।

कुछ नहीं होगा। आप शांत हो जाइए।

मैं सत्यदेव को अपनी बाँहों में पकड़ लेता हूँ। उनके कपड़े से एक अजीब किस्म की बदबू आ रही है। लेकिन कथाकार के निर्देशानुसार मैं उन्हें तब तक पकड़े रहता हूँ जब तक वे शांत नहीं हो जाते।

विमल बाबू। थोड़ी चाय मिलेगी अदरक की। गले में दर्द हो रहा है।

वे अब शांत हैं।

इन्हे चाय पिलाओ। ये आज ही सबकुछ बताएँगे। कथाकार निरपेक्ष-सा आदेश देता है।

मैं एक लंबी साँस लेता हूँ और किचेन की तरफ चल पड़ता हूँ। उसके पहले एक बार बेड रूम में झाँककर देखता हूँ - पत्नी और बच्चे बेसुध सो रहे हैं। पानी की बोतल भरी पड़ी है। मुझे प्यास का अनुभव होता है। मैं टेबल तक दबे कदमों से पहुँचता हूँ और गटागट पानी पीने लगता हूँ।

अरे आप अब तक सोए नहीं। कितनी रात हो गई।

हाँ सो रहा हूँ। अब रिपोर्ट खत्म ही होने वाली है। तुम सोओ।

मैं पत्नी के माथे को हल्के-हल्के सहला देता हूँ। वह एक करवट बदलती है और बच्चों की ओर मुँह फेर कर सो जाती है।

मैं चाय लेकर हाजिर हूँ। सत्यदेव अपने घुटने के बीच अपने चेहरे को छुपाए चुपचाप बैठे हुए थे। इन्हें क्या हुआ का प्रश्न लिए मैं कथाकार की ओर देखता हूँ - वह भी उनके ठीक पास बैठा उनके माथे पर हाथ रक्खे कुछ बुदबुदा रहा है। यह एक अजीब दृश्य है जिसे उस रात के अँधेरे में देखकर मुझे डर-सा लगता है।

कथाकार मुझे चुपचाप बैठ जाने का इशारा करता है। मैं चाय को एक मोटी किताब के ऊपर रखकर सोफे पर चुपचाप बैठ जाता हूँ।

कुछ क्षण बाद सत्यदेव अपना माथ ऊपर करते हैं और अपनी आँखें खोल देते हैं - अनकी आँखें पानी से भरी हुई हैं। कथाकार धीरे-धीरे उठकर अपनी जगह पर बैठ जाता है।

साधु खान, चाय - मैं कुछ भी न समझकर सिर्फ यही कह पाता हूँ।

वे चाय की ओर देखते हैं। फिर मेरी ओर एक कातर नजर से - जैसे बहुत कुछ कहना चाह रहे हों लेकिन कहने के लिए शब्द नहीं मिल रहे या यह नहीं समझ पा रहे हैं कि बात कहाँ से शुरू करें। मैं चुप। कथाकार चुप। बाहर रेलवे के कारखाने में बारह बजे का सायरन बजना शुरू करता है - कुत्ते भूँकने शुरू करते हैं। पास के मकान से किसी बूढ़े के खाँसने की आवाज आती है। एक चिड़िया तेजी से बोलती हुई पास के जंगले से गुजर जाती है - पता नहीं कौन सी चिड़िया। और इसके बीच तीन लोग एक घर के मद्धिम अँधेरे में चुप हैं - ऐसे जैसे कुछ अनिष्ट घटित हो गया हो।

अचानक कुछ देर बाद सत्यदेव उठते हैं और अपने काँपते हाथों से चाय का प्याला उठा लेते हैं। चाय ठंडी हो चुकी है - वे उसे लगभग पानी की तरह पी जाते हैं। खाली कप सोफे के पास नीचे रख देते हैं।

विमल बाबू आपने प्यार किया है कभी? जानते हैं एक शायर हुआ था - विरला एकडमी में मुझे पढ़ाने वाले मेरे गुरू उस शायर का एक शेर बोलते थे - वह शेर तो मुझे याद नहीं, लेकिन उसमें आग और दरिया की बाद होती थी - और प्यार करने वाले को उसे पार करना होता था।

सत्यदेव ऐसे बोलते हैं उस सन्नाटे में जैसे मंच पर कोई कलाकार बोल रहा हो - दर्शक शांत और उस शांति में वह आवाज किसी करुण धुन की तरह बजनी शुरू करती है।

हवा शांत। पृथ्वी शांत। अंतरिक्ष शांत। हम तीन लोग उसके बीच खोई और भटकती हुई आत्माओं की तरह शांत... शांत...। शांत...।

इक आग का दरिया है और डूब के जाना है यानीकि दास्ताने सत्यदेव की सातवीं किस्त!

मयना चली गई थी। नहीं, चली नहीं गई थी - मेरे अंदर आकर चुपचाप कहीं अदृश्य हो गई थी। जैसे पेड़ की जड़ों से होकर पानी पौधे के पोर-पोर में अदृश्य हो जाता है - जैसे हवा साँस के अंदर जाकर निकलने के बाद भी हमारी देह में कहीं ठहर जाती है - बिल्कुल दूसरी शक्ल इख्तियार कर के। जैसे गीत बंद हो जाता है और किसी एक समय अचानक रात के सन्नाटे में हमारे दिमाग में बजना शुरू करने तक छुपा रहता है।

वह रह गई थी।

सैफू सायकिल चला रहा था - मैं पीछे बैठा था - जैसे मेरे अंदर एक मुर्दगी सन्नाटा भर गया हो। दूर-दूर तक खेत थे - अरहर के पौधे कई बार हमसे टकरा जाते थे - जैसे यह सन्नाटा उन्हें अच्छा न लग रहा हो और वे चाहते हों कि हम उनके पास से गुजरते हुए बोलते-बतियाते हुए निकलें...।

लेकिन चुप्पी थी की टूटने का नाम नहीं ले रही थी।

मैं चुप था लेकिन अंदर एक भारी बेचैनी थी - कई बार मन होता था कि मैं सायकिल से कूद पड़ूँ और मयना से जाकर कहूँ कि मयना सिर्फ तुम ही नहीं मैं भी नहीं रह सकता तुम्हारे बिना - और यह बात अपनी पूरी ताकत और गंभीरता से कहना चाहता था मैं। उस यकीन के साथ जिस यकीन की बात सैफू के शब्दों में प्यार में होना चाहिए और तभी आसमान से फरिश्ते उतरते हैं मदद के लिए। लेकिन मैं चुप था - और सायकिल धीरे-धीरे चलती जा रही थी।

सैफू... सैफू...। मेरी आवाज रुँधी हुई थी - हलक से आवाज बाहर आने में समय लग रहा था।

सैफू...।

हाँ, बोलो। सायकिल रुक जाती है।

हम मौन सहमति के वशीभूत अरार पर बैठ जाते हैं। मैं सैफू से बहुत कुछ कहना चाहता हूँ लेकिन मुझे शब्द नहीं मिलते - सैफू समझ रहा है सबकुछ। वह इन मुआमले में ज्यादा समझदार है - वह कहता नहीं लेकिन मैं जानता हूँ कि उसके जेहन में एक खालीपन है। वह कई बार कहते-कहते रुक गया है - उस लड़की के बारे में जो उसे दुनिया की सबसे खूबसूरत लड़की लगती थी - वह पंडित रमाशंकर पांडेय की लड़की थी। रमाशंकर पांडेय के यहाँ सुखारी मियाँ काम किया करते थे। लगन में बाजा बजाते और बाकी समय में खेत जोतते, खेतों में काम करते और उनके माल-मवेशी (गाय-बैल) की सेवा करते थे। कभी-कभी काम के लिए सैफू को भी उनके दुआर जाना पड़ता था। वहीं उस लड़की से उसकी जान-पहचान हुई थी।

कभी एक वक्त था जब सैफू ने उस लड़की के लिए चूड़ियाँ और बिंदी खरीदा था और सबकी नजरों से छुपकर उसे दिया था। लेकिन पता नहीं किस तरह इन सबके बारे में पांडेय जी को खबर लग गई थी। पांडेय जी ने सुखारी मियाँ को बुलवाया था - और हिदायत दी थी। सुखारी मियाँ पांडेय जी के पैरों पर गिर पड़े थे - बेटे की गलती को क्षमा कर देने के लिए कहा था। तब से सैफू का पांडे जी के दुआर जाना बंद हो गया था।

उसी लगन में पांडेय जी ने दुनिया की उस सबसे खूबसूरत लड़की की शादी कर दी थी।

तब से सैफू दीन दुनिया से बेखबर हो गया था - बीड़ी-गाँजा सब पीने लगा था। वह कहता है कि जिस दिन उस लड़की की बारात आई थी वह पाउच पीकर नहर के किनारे रात-भर पड़ा रहा था। तब सत्यदेव उसके साथ नहीं थे। बाद के दिनों में सैफू की आँखों में वह उदासी जो सत्यदेव को दिखी थी- आज भी कई बार उभर जाती हुई दिखती है।

लड़की डर गई थी। माँ और पिता के डर से उसने सैफू से बात करना छोड़ दिया था। नहीं तो सैफू जाति और संप्रदाय की परवाह नहीं करता - भले मिंयटोली उजड़ जाती - दंगे हो जाते बाभन टोली और मियंटोली के बीच - लेकिन वह उस लड़की को लेकर कहीं जरूर उड़ गया होता। वह अक्सर यह बात कहता है और फिल्मों के उन गानों को खूब डूबकर गाता है जिसमें लड़कियों की बेवफाई का जिक्र होता है।

लेकिन वही कहानी फिर आकर उसके सामने खड़ी थी। सत्यदेव और मयना। वह नहीं चाहता था कि यह कहानी भी बीच में कहीं गुम हो जाए। इसलिए वह सत्यदेव को बार-बार कहता था कि प्रेम खुदा की नेमत है और हमें उसे साहस के साथ स्वीकार करना चाहिए - अगर उसके लिए युद्ध करना पड़े तो करना चाहिए। यह जाति यह संप्रदाय यह सब मनुष्यों ने बनाए हैं, यह टूट कर बिखरनी चाहिए। इन सारी बातों में कुछ तो फिल्मी असर भी था, लेकिन यह भी सच था कि सैफू ईमानदारी से वर्जनाओं और समाज सी सड़ी हुई मान्यताओं से नफरत करता था।

वह निडर हो गया था। निडर और बेपरवाह।

तो विमल बाबू मैं अंत में उसकी इस बात पर तैयार हो गया था कि हम दोनों कहीं चले जाएँगे और हमारे जाने में सैफू ही हमारी मदद करने वाला था। लेकिन उसके पहले भी एक और मुलाकात याद आती है। एक वाकया जिसे बताना जरूरी है।

आपके बच्चे हैं न विमल बाबू? मैंने देखा है कई बार आप उनलोगों को बाजार करते समय नीचे ले जाते हैं, उन्हें सायकिल पर स्कूल छोड़ने जाते हैं। यह जो तस्वीर है न आपके दीवार पर लटकी हुई जिसमें ये दोनों बच्चे मुस्कुरा रहे हैं, यह तस्वीर मुझे बहुत अच्छी लगती है। एकदिन मैं आपके दोनों बच्चों की पोट्रेट बनाऊँगा।

हाँ, वह बाकया।

वह एक शीतलहरी वाला दिन था। आसमान में सूरज नहीं और चारों ओर कुहासे के अंधकार छाए हुए थे। लोग अपने-अपने घरों में अलाव जलाकार ठंड से बचने की तैयारी कर चुके थे। मठिया पर भी एक अलाव जल चुका था। दादा के कई भक्त लकड़ियाँ और जलावन दे गए थे। उसी एक ठिठुरती रात में सैफू ने आकर कहा था - मयना।

मैंने झूठ कहा था विमल बाबू। मैं उसदिन मयना से जो मिला था वह हमारी आखिरी मुलाकात थी। मतलब अभी जिस मुलाकात का जिक्र करूँगा मैं - वह। मेरी स्मृति काम नहीं कर रही इसलिए आप कथा में अपने हिसाब से लिख लीजिएगा।

वह एक काला शॉल ओढ़कर आई थी। अब कैसे आई थी ये तो वही जाने लेकिन इस तरह उसका निकलना कम मुश्किल तो नहीं ही रहा होगा। उसकी शादी तय हो चुकी थी - वह पिछले मुलाकात में मुझे बता चुकी थी। सैफू हमारे भागने की पूरी प्लानिंग में लगा हुआ था - मैं बार-बार उसे सवालों के घेरे में लेकर आता था - मुझे बूढ़े दादा का चेहरा याद आ जाता। मैं नहीं चाहता था कि मेरे कारण मेरे दादा या मेरे गाँव वाले किसी भयंकर तकलीफ में आ जाए।

सैफू मुझे मयना के पास छोड़कर कहीं गुम हो गया था। मैंने देखा मयना की आँखें धँस चुकी थीं - उसकी आँखों के नीचे काले निशान उभर आए थे।

सत्य - उसने बहुत कोशिश के बाद कहा था। उसकी आवाज में उस समय सदियों की पीड़ा उभर आई थी।

हाँ मयना।

बहुत मुश्किल हो गई है - कल से मुझे जोर की उल्टियाँ हो रही हैं।

उल्टियाँ? तुम्हारी तबियत ठीक नहीं। ठीक हो जाएगा। मैं उसे समझाते हुए कहता हूँ।

तुम नहीं समझते। वह किसी आनजाने उद्वेग से मेरी छाती में घुस आती है।

मुझे लगता है मेरे पेट में...? वह जोर-जोर से रोने लगती है।

मैं सन्न। ऐसा लगता है कि मेरे माथे पर किसी ने एक बड़े हथौड़े से वार किया है और मैं बेहोश होता जा रहा हूँ।

मैंने बड़ी मुश्किल से छुपाया है सत्य। लेकिन कबतक। घर वालों को पता चल जाएगा तो वे मुझे जिंदा गाड़ देंगे। अब मैं घर नहीं लौटना चाहती। चलो मुझे कहीं दूर ले चलो। सत्य...सत्य...।

मैं जड़ हो गया हूँ। मैं लगातार शॉल के नीचे ढके उसके पेट की ओर देखता जा रहा हूँ। मुझे पता नहीं चलता कि मुझे क्या करना चाहिए उस वक्त। वह मेरी छातियों से चिपकी लगातार रोती और कुछ बोलती जा रही है।

तुम उदास मत होओ मयना। हम चलेंगे। कहीं दूर चले जाएँगे। तुम चुप हो जाओ। मुझे एक-दो दिन का वक्त दो। मैं सैफू से खबर भिजवाऊँगा। कल रात तक हम निकल जाएँगे।

मैंने बहुत मुश्किल से उसे समझा-बुझाकर भेजा था उस दिन। सैफू उसे कुछ दूर तक छोड़ आया था। मैंने ही कहा था उसे। मैं एक आरार पर बैठा उसके लौटने का इंतजार कर रहा था - शून्य आँखों से देखता। भय, शून्यता, जड़ता, पीड़ा और एक झीनी सी गुदगुदी मयना के पेट के अंदर किसी अप्रत्याशित जीव के चले आने के कारण।

किसी ने देखा तो नहीं न तुम्हें - सैफू के आते ही मैं पूछता हूँ।

नहीं। लेकिन रजकुमरा को देखा, वह बहुत दूर से आता हुआ दिखाई पड़ रहा था। उसे आते देख मयना ने मुझे लौटने के लिए कहा तो मैं लौट आया। लेकिन तुम इतना डरते क्यों हो।

नहीं, सैफू अब और कोई चारा नहीं मेरे दोस्त। हमें अब निकलना होगा। लेकिन हम जाएँगे कहाँ? किस जगह? और कैसे? मैं उसके सामने पता नहीं और क्या-क्या बड़बड़ाता जा रहा था।

हम्म। ये हुई न बात। अब देखो मैं सारी व्यवस्था कैसे करता हूँ।

तुम अभी मठिया जाओ। मैं शाम को मिलता हूँ तुमसे।

वक्त बहुत कम है सैफू। तुम जानते हो...। मैं कहते-कहते रुक जाता हूँ।

क्या, कहो। जल्दी कहो। और ये रोनी सूरत मत बनाओ मेरे सामने। वह बहुत उत्साहित है।

मयना, जानते हो।

क्या मयना, मैंने उसे छोड़ दिया है सुरक्षित। तुम इतनी चिंता क्यों करते हो।

चिंता की तो बात ही है न सैफू...। उसके पेट में...। वह उल्टियाँ कर रही है कल से... वो...। तुम समझ रहे हो, मैं क्या कहना चाह रहा हूँ।

क्या? ओह... तो ये बात है...। लेकिन...।

पता नहीं...।

वह थोड़ी देर के लिए सकते में आ जाता है। कुछ देर चुप रहने के बाद वह मेरे समीप आता है। फिर से चिंतामुक्त। वही सैफू।

तुम ज्यादा सोचो मत। तुम सोच लो कि अब एक नहीं दो जान की जिम्मेदारी है तुम्हारे सिर। और मेरे सिर पर तीन जान - वह हो-हो कर के हँसना शुरू करता है। लेकिन सिर्फ मैं समझ रहा हूँ कि उसकी उस हँसी में एक मद्धिम पीड़ा की आँच भी है।

कुछ देर बाद मैं मठिया पर लौट आता हूँ। शीतलहरी और तेज हो गई है।

शाम को सैफू आएगा - मैं सोचता हूँ। वह कहकर गया है कि वह पूरी व्यवस्था कर के लौटेगा।

वह शाम से पहले ही चला आया था।

दूर से आती उसकी सायकिल। मैं सोच रहा था कि वह कोई देवदूत है। एक फरिश्ता जो हमारे और मयना के प्यार की हिफाजत करने के लिए आ रहा है। उसके दादा के कहानियों में जो फरिश्ते जमीन पर उतर आते थे, वह उन्हीं में से कोई एक है।

मैं मठिया से बाहर निकल आता हूँ। उसकी सायकिल आकर मेरे पास रुक जाती है। वह बहुत जोर-जोर से सायकिल चलाता हुआ आया है लेकिन वह अपनी साँसों के संयत होने के पहले ही सामने के एक बरगद के पेड़ के नीचे मुझे ले जाता है लगभग मुझे खींचते हुए।

बैठो। वह मुझसे कहता है। वह खड़ा है। मैं बैठ जाता हूँ।

मैंने सब कुछ मयना को बता दिया है। कल उसके गाँव में एक बारात आने वाली है उसी की बिरादरी में। सब लोग शादी की रस्मों में व्यस्त रहेंगे। सुबह तीन से चार बजे भोर के बीच मैंने मयना को आने के लिए कहा है। तुम कल सुबह दो बजे निकलने के लिए तैयार रहना। मैं आ जाऊँगा - फिर हम साथ चलेंगे। वहीं जहाँ हम मिलते हैं। और वहाँ से मैं सायकिल पर तुम दोनों को सिवान स्टेशन तक छोड़ दूँगा। सुबह की गाड़ी से तुमलोग पटना जाओगे। फिर वहाँ से तुम लोगों को सूरत की गाड़ी मिलेगी। सूरत में इस्राईल है - वह तुम्हारे लिए रहने की व्यवस्था कर देगा। मैं एक चिट्ठी लिख दूँगा और उसी में इस्राईल का पता।

मैं सत्यदेव की ओर चुपचाप प्रश्न भरी आँखों से देखता हूँ। मेरी आँखों में प्रश्न के साथ और भी बहुत कुछ हैं - इतना कुछ जिसे व्यक्त करने के लिए किसी भाषा में शायद शब्द नहीं होंगे। कि उन्हें व्यक्त करना लगभग नामुमकिन है। सैफू...। तुम नहीं चलोगे हमारे साथ? मैं बहुत मुश्किल से कह पाता हूँ इतनी सी बात।

अरे कुछ नहीं होगा। तुम इतना घबराते क्यों हो? मुझे यहाँ रहना होगा। मैं बाद में आ जाऊँगा। इस्राईल बहुत दिनों से मुझे वहाँ बुला रहा है। वह कपड़े के मिल में काम करता है। उसने मालिक से बात भी की है मेरे लिए। वह मेरा दोस्त है। विश्वासी है। तुम्हें कोई दिक्कत नहीं होगी।

और दादा। ये लोग बहुत बवाल करेंगे।

तुम उसकी फिकर मत करो। उसी के लिए तो मैं यहाँ रहूँगा न। और किसी को कुछ मत बताना।

तुम मयना से मिले थे?

नहीं, मैंने उसे सारा प्लान लिखकर दे दिया है। क्यों, कैसे, यह सब मत पूछो? कुछ मत सोचो। अल्लाह सब ठीक करेगा। कुछ पैसे हैं और कुछ कल तक जुगाड़ कर लूँगा।

कि जैसे वह एक फरिश्ता मेरे दर से लौट रहा था - मुझे ढेर सारी दुआओं से नवाजकर। वह मुसलमान, जिसे मरछिया अपने घर में घुसने नहीं देती थी। मठिया में जिसका प्रवेश वर्जित था। वह फरिश्ता जिसके मुसलमान होने में उसका कोई कसूर नहीं था।

शाम के पहले के कुहासे से पूरा दृश्य भरता जा रहा था। बार-बार हवा का कोई एक ढीठ झकोरा शरीर को ठिठुरा कर निकल जाता था। और वह अपनी सायकिल से दूर जाता हुआ दिख रहा था - और मैं देर तक उस फरिश्ते को जाते हुए देख रहा था - अनवरत - अपलक।

कुछ देर बाद मैं मठिया के अंदर लौट आया था।

दादा गाँव के कुछ लोगों से घिरे हुए थे। वे लोग किसी दूसरे गाँव से उनसे मिलने आए थे। बाद में जब वे जाने लगे तो सबने दादा के चरण छुए। जब वे सब चले गए तो दादा अकेले रह गए। पता नहीं क्यों, वे उस दिन उन लोगों के जाने के बाद सीधे क्यों मेरे पास चले आए। मैं उनकी तरफ कुछ देर यूँ ही एक खाली नजरों से देखता रहा। वे शायद मुझसे कुछ कहना चाहते थे।

सत्य तुम अपनी किताबें खरीद लो। उन्होंने धीमे से कहा था। मैंने देखा कि उनके हाथ में कुछ रुपये थे। उनके चेहरे पर उस समय एक करुणा की झीनी परत थी - आँखों में एक समय था जिसमें आग की लपटें थीं - मेरी जलती हुई किताबें थीं - मेरी चीख थी। और पता नहीं और क्या-क्या था?

मैं उन आँखों को और उनके चेहरे को देर तक नहीं देख पाता और रुपये ले लेता हूँ। वे मेरे सिर पर एक बहुत मुलायम स्पर्श रखते हैं और बाहर अलाव की ओर चले जाते हैं। मैं कुछ देर तक खड़ा किसी दूसरे समय में चला जाता हूँ - जब लौटता हूँ तो मुझे सैफू की बातें याद आती हैं। मयना की आँखों के नीचे के काले धब्बे याद आते हैं। शॉल के नीचे छुपा उसका पेट याद आता है और उस पेट के अंदर साँस ले रहा एक नन्हा-सा जीवन याद आता है। मैं विचलित होने लगता हूँ और तेजी से बाहर निकल कर अलाव के पास चला जाता हूँ जहाँ बैठे दादा चुपचाप आग ताप रहे हैं।

दादा... दादा... मैं कहना चाहता हूँ। अपना डर, अपनी बेचैनी और भी बहुत कुछ उनसे कहना चाहता हूँ और यह सब कहते हुए उनसे लिपटकर रोना चाहता हूँ। लेकिन पता नहीं किस शक्ति के वशीभूत यह सब नहीं कर पाता मैं। बस पत्थर-सा खड़ा दादा को आग तापते हुए देख रहा हूँ।

शाम एक गहरी रात में बदल जाती है। रात फिर सुबह में बदलती है। फिर वह दिन आता है। वह दिन जिस दिन हमें सबकुछ छोड़कर कहीं दूर देस चले जाना था - मुझे और मयना को। वह दिन लगता है एक पहाड़ की शक्ल में बदल गया है और मैं लाख कोशिश कर के भी वहाँ अपने लिए कोई रास्ता बनाने में असमर्थ हूँ। भयभीत हूँ कि खुश हूँ कि क्या हूँ मैं - मुझे कुछ पता नहीं चलता। मैं बार-बार मठिया के बाहर निकलता हूँ। चाँपानल से अपने चेहरे धोता हूँ - गंगा की लंबी कछार को देर तक देखता हूँ लेकिन बेचैनी है कि शांत होने का नाम नहीं लेती।

दिन शाम में बदलता है। सैफू आकर याद दिला गया है कि आज की ही रात।

और वह रात।

दादा ने मुझे मेरे पसंद की लिट्टी और चोखा दिया था खाने के लिए। लेकिन वह पसंदीदा खाना मेरे हलक से नीचे नहीं उतर रहा था - मैं बार-बार पानी पी रहा था। दादा खाते रहे थे और मैं उठ गया था। पूछने पर कहा था कि तबियत ठीक नहीं लग रही। दादा चिंतित हो गए थे। मैं बहुत जल्दी बिस्तर पर रजाई ओढ़े पड़ गया था। लेकिन नींद कहाँ?

दादा कुछ देर लालटेन की रोशनी में गीता का श्लोक पढ़ते रहे थे - मैं धीरे-धीरे उनकी आवाज रजाई के अंदर से ही सुन रहा था - कर्मणावाधिकारस्ते...। इस श्लोक के सुनते ही मुझे इसके सारे अर्थ भी याद आने लगे। मुझे लगा कि इस समय मतलब कुछ देर बाद जो मैं करने जा रहा हूँ, वही मेरा कर्म है। उस कर्म के सामने रिश्ते-नाते जगह-जमीन सब निस्सार हैं। उस श्लोक और उसके अर्थ को समझने की कोशिश में मैं बहुत देर तक स्वयं को सही साबित करने की कोशिश करता रहा। भय कुछ कम होता जा रहा था - बेचैनी कुछ कम होती जा रही थी - और गीता का वह श्लोक बार-बार मेरे कानों में गूँजता जा रहा था...। कर्मणावाधिकारश्ते...। दादा की धीमी आवाज दूर किसी पर्वत से आती हुई लग रही थी।

मेरे कानों में किसी के रोने की आवाज आ रही है। कौन है यह इतनी रात को। मैं अपने कान तकियों से ढक लेता हूँ लेकिन वह आवाज है कि बढ़ती ही जा रही है। मुझे लगता है कि इस आवाज को मैं पहचानता हूँ - मयना। मयना की याद आते ही मैं झट से उठ बैठता हूँ। दादा अपने रजाई में चुपचाप दुबके हुए हैं। मैं मठिया से बाहर निकल आता हूँ और उस आवाज की ओर बढ़ना शुरू करता हूँ।

आगे बरगद का पेड़ है उसी के नीचे सफेद वस्त्र पहने कोई बैठा है। इतनी ठंड में एक सफेद साड़ी पहन कर बैठा यह कौन है?

मैं धीरे-धीरे उस तरफ बढ़ता हूँ। कौन? मेरी आवाज सुनकर वह मेरी तरफ देखती है और देखते ही मुझे पहचान लेती है - मयना तुम??

वह मेरे पैरों से लिपट जाती है।

मुझे ले चलो सत्य। चलो यहाँ से ये लोग हमें और तुम्हें मार डालेंगे। मुझे बचाओ। वह लगातार जोर-जोर से बहवासी में चिल्लाए जा रही है।

एक शोर लागतार हमारी ओर बढ़ता आ रहा है।

कौन हैं ये लोग मयना?

ये लोग मुझे मार डालना चाहते हैं।

क्यों? तुमने कोई अपराध नहीं किया। तुम चुप हो जाओ मैं देखता हूँ।

इन्हें सब पता चल चुका है।

मैं देख रहा हूँ कि एक भीड़ हमारी ओर बढ़ती आ रही है।

मारो... मारो इन्हें। भीड़ चिल्ला रही है। मयना मुझे जोर से पकड़ लेती है। भीड़ नजदीक है। कोई एक उसे मुझसे खींच कर लिए जा रहा है। मैं देख रहा हूँ रजकुमरा भी शामिल है उस भीड़ में। वह चिल्ला रहा है - साली, रजपूतों में लौंडों की कमी हो गई है कि तू इस बढ़ई से पेलवा रही है। इसका गला रेत दो और नदी में फेंक दो। इसने हमारी जाति को बदनाम किया है, उसे नर्क में झोक दिया है। इसे जला दो। दोनों को गले में रस्सी बाँधकर पेड़ से लटका दो।

इस साधु की मठिया को तहस नहस कर दो। इस ढोंगी साधु को भी मार डालो।

मैं एक भीड़ के बीच मयना को तड़पते हुए देख रहा हूँ। मैं दौड़ रहा हूँ। दादा को आवाज लगा रहा हूँ... सैफू... सैफू चिल्ला रहा हूँ लेकिन मेरी आवाज गले के अंदर कहीं फँस गई लगती है। मयना की साड़ी खुल गई है - वह पेटीकोट में है...। कोई उसके शरीर पर किरासन तेल छिड़क रहा है।

मैं एक बहुत जोर का प्रहार रजकुमरा के माथे पर करता हूँ। वह मुझे छोड़ देता है। मैं मयना की ओर खूब तेज गति में दौड़ रहा हूँ कि एक लाठी का गंभीर प्रहार मेरे सिर के ऊपर कोई करता है। मैं अवश और अचेत होता जा रहा हूँ... मयना... सैफू...।

मैं देखता हूँ कि दादा दौड़े चले आ रहे हैं और उनकी बूढ़ी देह पर लाठियों की बरसात हो रही है। कुछ ही देर बाद मठिया धू-धू कर के जल रहा है।

मेरी आँखों के सामने अँधेरा छाता जा रहा है, लगता है कि मैं नदी के बीच में डूब रहा हूँ मेरी साँसें फूल रही हैं और मैं लगातार बचने की कोशिश में छटपटा रहा हूँ।

सत्या... सत्या... सत्या... कोई मुझे झिझोड़ रहा है।

क्या हुआ कोई बुरा सपना देख रहे हो। दादा ने झिंझोड़कर मुझे जगाया है। मैं पसीने से लथपथ उठ बैठता हूँ। मैं उन्हें ऐसे देख रहा हूँ जैसे वे कोई अजनबी हों...।

दादा ने लालटेन जला दिया है और मेरे पास ही बैठ गए हैं।

कितना समय हो रहा है दादा?

एक बजने वाला है। तुम सो जाओ। ज्यादा सोचते नहीं बेटा। कल बाजार से किताब लेकर आना और अपनी पढ़ाई शुरू करना।

मुझे लगता है कि अभी-अभी जिस दुःस्वप्न में था वह एकदम सचमुच का घटित हुआ था। मैं दादा की ओर हसरत भरी निगाह से देख रहा हूँ। दादा दीवार पर लटकी हुई पुरानी घड़ी की ओर देख रहे हैं।

दादा कुछ देर मेरे पास बैठते हैं फिर अपने बिस्तर पर जाकर लेट रहते हैं।

एक गहरी बेचैनी में मैं बाहर निकल आता हूँ। बाहर झाँय-झाँय बोलता सन्नाटा है। मैं आगे बढ़कर उस बरगद के पेड़ तक जाता हूँ जहाँ वह बैठी थी। बरगद के चारों ओर कुहासा छाया हुआ है। उन कुहासों के बीच वह पेड़ मौन खड़ा है - ऐसे जैसे कुछ हुआ ही न हो।

सैफू दो बजे आएगा - मैं सोचता हूँ। और एक चादर ओढ़े चबूतरे पर देर तक बैठा रहता हूँ। दादा अंदर सो रहे हैं - मैं अपने कुछ कपड़े ओर कुछ चीजें ले लेना चाहता हूँ। कई बार दादा का मासूम चेहरा देख आता हूँ - ऐसे जैसे अब इनसे मेरी कभी मुलाकात न होगी। बार-बार मेरी आँखें डबडबा आती हैं। मैं कई बार हिम्मत कर के दादा के पास जाता हूँ कि उन्हें सबकुछ सच-सच बता दूँ लेकिन मेरी हिम्मत जवाब दे जाती है - मैं चुपचाप लौट आता हूँ। कई-कई बार लगातार...।

दो बजने वाला है - मैं घड़ी की ओर देखता हूँ। दादा रजाई के भीतर हैं। उसकी साँसें तेज-तेज चल रही हैं। वे बेपरवाह सो रहे हैं।

वह ठीक दो बजे ही आता है। रात के अँधेरे में सायकिल धीरे-धीरे चल रही है। अरहर के पौधे शीत में भीगे हुए हैं। मेरे हाथ में एक कपड़े का झोला है जिसमें मैंने कुछ कपड़े रख लिए हैं। और कुछ तो नहीं बस कपड़े हैं कुछ। डायरी नहीं। किसी की तस्वीर नहीं। सिर्फ झोला और उसमें कुछ कपड़े।

निकलते समय मैंने दादा को दूर से प्रणाम किया। मैं उनके चरण छू लेना चाहता था आखिरी बार, लेकिन इस तरह उनके जाग जाने का भय था। न चाहते हुए भी मैं एक कागज की पर्ची में हड़बड़ी में कुछ लिखकर उनके तकिए के पास रख आया हूँ।

मैं एक-एक रास्ते को, मठिया को, खेतों को, पेड़-पौधे और चिरई-चुरूँग तक को हसरत भरी निगाह से देख रहा हूँ जैसे इनसे फिर कभी मिलना नहीं हो पाएगा।

सैफू चुपचाप सायकिल चलाए जा रहा है और मैं बेचैन मन लिए पीछे चुपचाप उसके करिअर पर बैठा चला जा रहा हूँ। एक संसार जैसे छूटता जा रहा है और मेरी आँख बार-बार आँसुओं से भर आ रही है।

और विमल बाबू हम बहुत देर तक वहाँ खड़े मयना का इंतजार करते हैं। तीन बजता है। साढ़े तीन बजता है। चार बजता है। वह नहीं आती।

सैफू बार-बार बेचैन होकर इधर-उधर देखता है। बीड़ी पर बीड़ी पीता जाता है।

मैं चुपचाप अरार पर बैठ गया हूँ। मुझे कुछ देर पहले का दुश्वप्न बेतरह याद आ रहा है। मेरा दिल बार-बार बहुत तेज धड़कने लगता है और फिर लगता है कि किसी गहरी खाई में मैं डूबता जा रहा हूँ।

शुकवा तारा निकल आया है, लेकिन वह नहीं आई है। सुबह हो रही है - वह नहीं आई है। सैफू का सारा उत्साह जैसे पिघल गया है।

हम थके और निराश एक-दूसरे को अजीब नजरों से देखे जा रहे हैं।

सत्यदेव खिड़की पर खड़े होकर दूर किसी तारे को देख रहे हैं।

विमल बाबू शुकवा तारा नहीं दिखता यहाँ? कुछ देर आसमान में ताकने के बाद वे खिड़की से आकर फिर से सोफा पर बैठ जाते हैं - मौन।

मैं जैसे बहुत देर के बाद होश में आता हूँ। घड़ी साढ़े चार बजने की सूचना दे रही है। दूर बाथरूम से पानी गिरने की आवाज आ रही है। मेरे कान अनायास ही उधर चले जाते हैं - लगता है मिन्नी जाग चुकी है। अगर मैं तुरंत उसके पास नहीं पहुँचा तो वह इस कमरे में आ जाएगी मुझे ढूँढ़ते हुए। मैं कथाकार की ओर देखता हूँ वह चुपचाप कुछ लिखने में व्यस्त है। सत्यदेव शून्य में देखते हुए सोफे पर धँसे हुए हैं।

बीड़ी मिलेगी विमल बाबू? वे मुझसे कह रहे हैं इस बात से बेखबर की मेरा ध्यान घर के भीतर से आ रही आवाजों की तरफ है।

मैं उन्हें चुप रहने का इशारा करता हूँ और तेज कदमों से घर के भीतर चला आता हूँ।

वह बाथरूम से निकलकर इस तरफ ही आ रही होती है। मैं उसे बीच में पकड़ लेता हूँ।

क्या हुआ, तुम रातभर कर क्या रहे हो? सोए नहीं? चार बज चुके हैं। वह लगभग डाँटते हुए मुझसे कहती है।

नहीं मैं सोया हुआ था। मेरी नींद खुल गई तो इधर...।

चलो, सो जाओ। आज तो रविवार है। देर से उठना। शायद तुम्हारी तबियत ठीक नहीं। वह मेरे चेहरे को गौर से देखते हुए कुछ नरम स्वर में कहती है।

हाँ, तुम चलो। मैं अभी आता हूँ।

वह बेडरूम की तरफ बढ़ जाती है। मैं उसे जाते हुए चुपचाप देखता रहता हूँ। जब वह रूम के अंदर चली जाती है और मुझे लगता है कि वह बिस्तर पर लेट चुकी है तब मैं लौटता हूँ। मेरे पास एक सिगरेट बचा हुआ है। मैं उसे बीच से तोड़ता हूँ और उसका एक टुकड़ा ले जाकर सत्यदेव को दे देता हूँ।

साधुखान, अब आप जाइए। जल्दी जाइए। सुबह होने वाली है। कथाकार मुझे अचरच से देखता है। मैं उसकी परवाह किए बिना सत्यदेव से दुबारा जाने को कहता हूँ। वे मुझे इस तरह देख रहे हैं, जैसे मुझे न देख रहे हों, अपने अतीत की स्मृतियों को वेधकर बाहर निकलने की कोशिश कर रहे हों।

वे सीढ़ियों से नीचे उतर रहे हैं धीरे-धीरे।

कथाकार कुछ कहना चाहता है - शायद वह चाहता है कि सत्यदेव और रुकें। लेकिन मैं उसे इग्नोर करता हूँ। और उसे वहीं छोड़कर चुपचाप पत्नी के पास आकर लेट जाता हूँ।

कथाकार बहुत देर तक वहीं बैठा रहा होगा। कुछ देर लगभग बेचैनी में उसने मेरा इंतजार किया होगा - फिर चला गया होगा - मैं सोच रहा हूँ।

10.

दोस्त रवि ही पहला मिला था। रिंकी बहुत बाद में।

रवि दा दीवारों पर इश्तहार लिख रहा था और सत्यदेव उसे गौर से देखे जा रहे थे। वह जिस भाषा में लिख रहा था वह उनके लिए एक अजनबी भाषा थी।

क्या लिख रहे हो? सत्यदेव ने पूछा था। यह पूछने के पहले सत्यदेव ने एक अंतराल की प्रतीक्षा की थी और बहुत साहस कर के थोड़ा झिझकते हुए यह सवाल पूछा था।

रवि दा ने अचानक आए इस सवाल को सुनकर दीवार से अपनी नजर हटाई। सामने एक लड़का खड़ा था - देहाती लगता हुआ। उसके चेहरे पर कोई आकर्षण नहीं था। लेकिन उसकी आँखों में ऐसा कुछ था कि रवि देखता रह गया था। यह पहली मुलाकात धीरे-धीरे हमेशा की मुलाकात बन गई थी। सत्यदेव कोलकाता में नए-नए थे और उन्हें एक-दोस्त की जरूरत थी - रवि उनकी यह कमी पूरी करता था। फिर रवि का रंगों से भी नाता था - गाँव से आने के बाद सत्यदेव अकेले थे। बहुत सारे हादसों के बीच एक रंग था जो मन के कोने में कहीं बचा रह गया था। वह रंग रवि और सत्यदेव की दोस्ती के बीच एक भूमिका की तरह था।

पेंटिंग करोगे? एक दिन रवि ने ही पूछा था।

कहाँ, दीवारों की?

हाँ, तो और किसकी?

क्या तुम्हें अच्छा लगता है दीवारों पर लिखना? तुम चित्र क्यों नहीं बनाते?

चित्र बनाकर क्या मिलेगा? खाना मिलेगा क्या? हम यहाँ दीवारों पर लिखता है, पैसा मिलता है। पार्टी का लोग इज्जत करता है। रिक्वेस्ट करता है हमसे। एक इज्जत है हमरा इस मुहल्ले में।

कुछ इसी तरह के संवाद और बहसों के बीच रवि दा सत्यदेव के करीब होता गया था। वह सब कुछ सच-सच बोलता था। खूब मस्ती में बोलता और मजाक करता था। कुत्तों-बिल्लियों को बिस्कुट खिलाता था। एक फुटबॉल एसोसिएशन का पुराना ऑफिस था, उसी में उसकी रहनवारी थी। था तो वह फुटबॉल एसोसिएशन का ऑफिस लेकिन सत्यदेव ने कभी भी वहाँ किसी फुटबॉल के खिलाड़ी को आते-जाते नहीं देखा था। रवि दा ही अपने कुत्ते बिल्लियों के साथ वहाँ रहा करता था। कभी-कभी तरुण दा आते थे। कई प्रौढ़ लोग भी कभी उनके साथ जुटते तो आपस में बहुत लंबी-लंबी बहस करते। सत्यदेव को उन लोगों की भाषा समझ में नहीं आती थी लेकिन वे भी वहीं आस-पास खड़े या बैठे रहते।

तरुण दा पेंटर थे। मलतब चित्रकार। रवि दा की तरह दीवारों पर लिखने वाले पेंटर नहीं। चित्रकार जैसे होते हैं बिलकुल वैसे ही।

तरुण दा के पास ही पहली बार सत्यदेव ने कैनवास देखा था जिसपर वे रंग के छींटे मार रहे थे और अँगुलियों से उन रंगों को एक आकार दे रहे थे। शायद इसके पहले वे जानते भी नहीं थे कि कैनवास जैसी कोई चीज होती है जिसपर एक कपड़ानुमा कुछ टँगा रहता है और उसी पर चित्र बनाया जाता है। सत्यदेव ने अब तक अपने नोट बुक और रफ की कॉपियों में चित्र बनाया था। चित्र की शुरुआत जमीन पर कोयले की लकीरें खींचने से हुई थी। लेकिन बेहद सुंदर चीजें उन्हें शुरू से ही आकर्षित करती थीं - वे फूल बनाते, पेड़-पौधे बनाते। बाद में एक समय आया था जब वे मयना की तस्वीर बनाने लगे थे - किसी भी लड़की की तस्वीर वे बनाते तो उन्हें लगता की उसकी शक्ल मयना से मिलती-जुलती है। कभी मयना की आँख तो कभी उनकी अपनी माँ के धुँधलाए चेहरे की नाक। वे परेशान हो जाते। वे फिर किसी दूसरी तस्वीर बनाते और फिर वही। फिर-फिर बनी तस्वीर अपनी शक्ल में मयना के किसी अंग के करीब होती या उसके बीच से उनकी माँ का धुँधलाया चेहरा झाँकता दिखता। हारकर वे किसी पुरुष की तस्वीर बनाने लगते। लेकिन उस पुरुष की शक्ल उनके दादा की शक्ल से मिलती और कई-कई बार उसके बीच से सैफू की आँखें किसी तेज रोशनी की तरह चमकती दिखतीं। वे हैरान होते और तस्वीर को कोई और रंग देने में जुट जाते। उनके लिए तस्वीर और रंग एक खेल था जिसे वे खेलते रहते। कभी-कभी झुँझलाकर तस्वीरों पर एक गहरा रंग पोत देते। जैसे कोई बच्चा किसी खिलौने से खेलते-खेलते उसे अचानक जमीन पर पकट कर तोड़ दे। कुछ-कुछ वैसे ही।

बहुत देर तक तरुण दा रंगों के साथ कैनवास में उलझे रहे थे और सत्यदेव चुपचाप जमीन पर विछी चटाई पर बैठे रहे थे।

दादा हम भी पेंटिंग बनाना चाहते हैं।

तरुण दा कुछ नहीं बोलते। एक बार ध्यान से सत्यदेव के चेहरे को देखते हैं और अपने काम में लग जाते हैं।

सिगरेट जला सकते हो मेरे लिए? कुछ देर बाद तरुण दा की गंभीर आवाज गूँजती है।

सिगरेट? कभी जलाया नहीं। हुक्का भर के जलाया है। मेरे दादा पीते थे।

इस बार सत्यदेव कहीं दूर किसी खोह में चले जाते हैं। स्मृतियों की गहरी घाटियों में, जहाँ से चले आए थे इतनी दूर। क्योंकि दादा अब नहीं रहे थे। और... और...।

क्या सोचने लगे? टेबल पर सिगरेट और लाइटर दोनों हैं। जलाओ। और मेरे पास लेकर आओ। मेरे हाथ रंगों से भरे हैं।

जी।

सत्यदेव सिगरेट निकालते हैं। लेकिन ऐन उसके पहले वे पढ़ते हैं कि सिगरेट पीना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है और उसके पहले चारमिनार की फोटो और 'चारमिनार' बड़े अक्षरों में लिखा हुआ। उन्हें याद आता है सैफू के हाथ में नं. 10 का वह सिगरेट जिसे पहली बार छुपकर उसने पिलाया था और वे खाँसते-खाँसते परेशान हो गए थे। सैफू अक्सर बीड़ी ही पीता था लेकिन उस दिन पता नहीं कहाँ से वह सिगरेट लेकर आया था। तभी उन्होंने सोचा था कि आखिर जब सिगरेट पीने से कोई आनंद नहीं आता और खाँसी आती है तो लोग उसे पीते क्यों हैं? लेकिन एक समय आया था जब सैफू के साथ मिलकर सत्यदेव ने खूब बीड़ी और सिगरेट पी थी। दादा के हुक्के को भी एक बार उनकी नजर बचाकर उन्होंने पिया था लेकिन उसकी बदबू को वे बर्दाश्त न कर सके थे।

जलाया? तरुण दा पेंटिंग में मशगूल रहते हुए ही खोई हुई आवाज में पूछते हैं।

लाइटर कैसे जलती है?

उफ्फ...। तुम बिहार से आए हो न? पता नहीं इन बिहारियों को कब बुद्धि होगी। रुको।

तरुण दा एक कपड़े से हाथ पोंछते हैं और सिगरेट जलाकर पीने लगते हैं। सत्यदेव को बिहारी कहा जाना बुरा लगता है। लेकिन वे कुछ बोलते नहीं। तरुण दा को सिगरेट पीते हुए चुपचाप देखते रहते हैं।

कैनवास पर किसी स्त्री की अधूरी तस्वीर है जिसके कई अंगों की हल्की झलक मिलने लगी है। सत्यदेव उस चित्र की तरफ देखते हुए कहीं छूट गए समय में एक लड़की की खो गई तस्वीर की ओर देखने लगते हैं। उन्हें लगता है कि यह तस्वीर उसी लड़की की है और यह लगते ही उन्हें यह सोचकर बुरा लगता है कि उस तस्वीर की देह पर कोई वस्त्र नहीं है।

इस तस्वीर को ऐसे ही बनाएँगे?

ऐसे मतलब? मतलब यह तस्वीर तो वस्त्रों के बिना है। इसे कोई स्त्री देखेगी तो क्या सोचेगी? मतलब इसे सार्वजनिक जगह पर कैसे रखा जा सकेगा? आपको अजीब नहीं लगता? मतलब...।

तरुण दा की गहरी आँखें सत्यदेव के चेहरे पर धँसती चली जाती हैं। उन्हें अचानक समझ में नहीं आता कि इस लड़के को क्या कहें, क्या समझाएँ? वे उस लड़के के भोलेपन पर एक बार मोहित होते हैं और तुरंत उन्हें क्रोध जैसा भी कुछ आता है। लेकिन वे कहते कुछ नहीं। चुप रहते हैं।

सत्यदेव बहुत देर तक उनके कुछ कहने के इंतजार में उनकी ओर देखते हैं। फिर उस चित्र की ओर देखने लगते हैं।

कहाँ रहते हो तुम? यह एक अप्रत्याशित सा सवाल है, जो तरुण दा पूछते हैं।

यहीं। यहाँ से दूर वो बड़ी टंकी है न उसके पीछे।

अच्छा।

कल आना। फिर सोचते हैं कि क्या किया जाए तुम्हारा।

जी...।

सत्यदेव तरुण का को तस्वीर बनाते हुए देखना चाहते हैं। उन्हें अपनी डायरी और कॉपियाँ याद आती हैं जिनमें उन्होंने सैकड़ों तस्वीरें बनाई हैं, कुछ ऐसी तस्वीरें जो बहुत भयावह हैं। कुछ तस्वीरें सैफू के जैसी दिखने वाली और कुछ मयना से मिलती-जुलती। कई तस्वीरों पर उन्होंने खुद ही रंग पोत दिए हैं। उन तस्वीरों की जगह स्याह या नीला रंग दिखता है अब। उन्हें पेंटिंग का कोई ज्ञान नहीं। बस लकीरें खींचना - रंग भरना। यह अच्छा लगता है उन्हें। उन्हें लगता है कि यही एक दुनिया है जहाँ वे खुद को खपा सकते हैं। रह-रह कर जो एक बेचैनी और पीड़ा उठती है उनके जेहन में - उनसे निजात पाने का और कोई तरीका वे नहीं सीख पाए हैं।

और सत्यदेव अपने घर की ओर लौट रहे हैं। आस-पास की दुनिया से अनजान। एक और ही दुनिया में खोए। उस दुनिया में सैकड़ों पन्ने एक साथ उड़ रहे हैं - हर पन्ने पर उनकी बनाई हुई एक तस्वीर है। कुछ पन्ने एकदम स्याह हैं उनपर कोई तस्वीर नहीं। सिर्फ स्याह रंग बिखरा हुआ है। बीच उसके सैफू की सायकिल भागी जा रही है। एक लड़की अँधेरे घर में कैद सिसक रही है।

और सत्यदेव बदहावास-से अपने घर की ओर लौट रहे हैं।

नींद कम होती जा रही थी और जागना बढ़ता जा रहा था।

बड़े पिता के घर में एक कोना है जहाँ मेरी रहनवारी है। पास ही में मेरा झोला रखा है जिसमें मेरी पसंद की कुछ किताबें रहती हैं, कुछ अधूरी और स्याह तस्वीरें। कुछ ऐसे चित्र जो बचकाने हैं लेकिन जो मेरे लिए बहुत कीमती हैं। लेकिन इन बातों का विवरण या यह सब बातें शायद आपके लिए उतनी जरूरी नहीं हैं। उस घर में मेरी बड़ी माँ, बड़े पिता और उनकी दो लड़कियाँ रहती हैं। लड़कियाँ मुझसे उम्र में बहुत छोटी हैं और मुझे भईया कहकर पुकारती हैं। मुझे यहाँ बना-बनाया खाना मिलता है - और मैं एक-दो जगह ट्यूशन भी पढ़ाने लगा हूँ।

खाली समय में भागते हुए मुझे रवि के पास ही आना होता है। रवि जो निश्छल है - बिंदास है और मुहल्ले के लोगों की नजर में लापरवाह और आवारा। कभी तरुण दा के यहाँ पेंटिंग सीखता था अब दीवारें रंगता है और अकसरहाँ शराब पीकर मस्त रहता है।

तरुण दा मुहल्ले के बड़े पेंटर थे। रवि तापस और सुजन सब उन्ही के शिष्य थे। तरुण दा के पेंटिंग की बड़ी प्रदर्शनी लगती थी - कहते हैं कि हजारों रुपये में उनकी पेंटिंग बिकती थी - तापस तो कहता था कि मेरे आँख के सामने ही एक मारवाड़ी ने उनकी गणेश की तस्वीर को पूरे एक लाख रुपये में खरीदा था।

तापस की पेंटिंग उतनी अच्छी नहीं है वह बहुत दुखी आत्मा है। रवि पेंटिंग अच्छा करता है लेकिन उसके पास साधन नहीं हैं। वह गरीब है। और पेंटिंग ऐसे थोड़े न होती है। रंग, कागज और कैनवास फिर चित्र बनाने के लिए एक अच्छी जगह होनी चाहिए जहाँ बैठकर पेंटिग बनाई जा सके या कैनवास लगाया जा सके। उसके अपने रहने की जगह न थी। वह फुटबॉल एसोसिएशन के परित्यक्त घर में शरण लिए हुए था। और इस बात का उसे कोई दुख नहीं था कि वह दीवारों पर इश्तहार लिखने का काम करता था।

इन सबके बीच अब मैं भी आ गया था। पेंटिंग के प्रति रुचि ने मुझे इन चित्रकारों के बीच लाकर खड़ा कर दिया था। बड़े पिता चाहते थे कि मैं कोई नौकरी कर लूँ। उसके बाद वे मेरी शादी कर देना चाहते थे। लेकिन मुझमें नौकरी और शादी के प्रति कोई आकर्षण नहीं रह गया था। मेरे लिए पेंटिंग ऐसी चीज लगती थी जहाँ जाकर मैं खुद को विस्मृत कर सकता था - खुद के पिछले दर्द और हमेशा की बेचैनी से थोड़ा निजात पा सकता था।

तब भी सैफू की बातें मेरे जेहन में गूँजती थी। मैंने उसे मरते हुए नहीं देखा। मरने के बाद भी उसे नहीं देखा। मुझे हमेशा लगता था कि वह जिंदा है और राह चलते हुए कहीं भी मुझसे टकरा जाएगा। वह टकराता नहीं था लेकिन रात के अकेले में उसकी परछाईं मुझे दिखती थी। वह आकर मेरे समीप खड़ा हो जाता था - किसी के न होने पर भी उससे हर बात मैं कह सकता था - अपनी तंगहाली और बेबसी पर खीझ सकता था। वह तब भी मेरे सिर पर हाथ रखता था और मुझे फिल्मों के चरित्र अभिनेता की तरह अच्छी-अच्छी बातें समझता था। इस तरह रात में मेरा जगना ज्यादा होता गया था क्योंकि उसके जाने के बाद मयना भी कभी कभार आ जाती थी - वह जब आती तो मैं कुछ बोलता नहीं था न वह कुछ बोलती थी। मैं चुपचाप उसे देखता था और वह मुझे। इस तरह का देखना कम नहीं होता था और कब नींद आती थी मुझे इस बात का इल्म नहीं होता था।

नींद कम होती जा रही थी और जागना बढ़ता जा रहा था।

तरुण दा के पास बैठना और उनको चित्र आँकते देखना लगभग रोज के काम में शामिल हो गया था। वे जब पेटिंग कर रहे होते और उनके हाथ रंगों से सने होते तो मैं उनके आग्रह पर सिगरेट जलाता था। मुझे तरुण दा के लिए सिगरेट जलाना अच्छा लगता था।

कभी-कभी रवि भी वहाँ आता था। वह दीवारों पर किसी खास पार्टी का इश्तहार लिखता था और हसिया-हथौड़ी का चित्र बनाता था। वह हिंदी बांग्ला और अँग्रेजी तीनों भाषाओं में आराम से लिख सकता था। दिनभर वह लिखता रहता और शाम को शराब पीकर मस्त हो जाता था। उसने बिल्लियाँ पाल रखी थीं ढेर सारी और उन्हीं के साथ रहता और सोता था - फुटबॉल फेडरेशन ऑफ इंडिया के उसी ऑफिस में जहाँ आज तक किसी तरह के फुटबॉल का कोई नामोनिशान नहीं देखा था मैंने।

कहते हैं कि वह मुहल्ले के किसी लड़की से प्रेम करता था। लड़की उसके घर के पास में रहती थी और वह रोज उसे स्कूल जाते हुए देखा करता था। और जैसा कि होता है देखते-देखते दोनों करीब आ गए और किसी कोने की तलाश जारी हो गई। एक दिन रवि ने उस लड़की को गली के अँधेरे में दबोच लिया और उसके बड़े हो रहे स्तनों को निर्ममता से खूब दबाया। लड़की बेहोश-सी हो गई कि किसी ने देख लिया और मुहल्ले के लोग जुट गए। तरुण दा भी वहीं थे। उन्होंने रवि को दो-चार चाँटे मारकर वहाँ से भगाया नहीं तो उसकी हड्डी-गुड्डी तोड़ने के लिए लड़की के घर वाले तैयार थे।

इस घटना को बहुत दिन हो गए। जब इस घटना की जानकारी रवि के पिता को हुई तो उन्होंने उसे घर से बाहर निकल जाने को कहा - यह बात पिता ने गुस्से में कही होगी। लेकिन रवि तब से फुटबॉल फेडरेशन ऑफ इंडिया के इस घर में आ गया था और लगभग रोज ही शराब पीने लगा था। जैसा कि अक्सर होता है उस लड़की की शादी हो गई थी - और जब दूसरी बार वह इस मुहल्ले में दिखी तो उसके छोटे स्तन बहुत बड़े हो चुके थे और उसकी गोद में एक लड़का आ गया था। वह मोटी और बदसूरत भी हो गई थी - मतलब वह ऐसी नहीं रह गई थी कि रवि उसकी पेंटिंग बनाने के बारे में सोचता।

लेकिन वह अब भी सोलह साल की स्कूल जाने वाली उस लड़की को प्यार करता था - यह बात उसने मुझे खूब नशे में कई-कई बार बताई थी। वह उस लड़की के बारे में बताते हुए बेहद अश्लील हो जाता था - इतना कि कई बार उसकी बातें सुनने में भी मुझे असुविधा होती थी - एक ही साथ अश्लील और भावुक होते मैंने उसे ही देखा था। वह शराबी होते हुए भी लगभग ईमानदार था - ईमानदार और अच्छा दोस्त। वह एक ऐसा इनसान था जिससे आप अपनी बात कह सकते थे - वह सुनता था और जरूरत पड़ने पर मदद करने को भी तत्पर रहता था। प्यार ने उसे बेशर्म और शराबी बना दिया था। उसके नॉनवेज चुटकुले सुनने के लिए कई बार लोग भीड़ में खड़े हो जाते थे। वह इतना भोला था कि इसकी परवाह उसे नहीं थी कि जो लोग उसके चुटकुले सुनकर मजे लेते थे वही उसे बहार अश्लील और शराबी कहकर उसका मजाक उड़ाते थे।

लेकिन वह इन सारी बातों से बेपरवाह था। उसकी बेपरवाही मुझे उसकी ओर खींचती थी। मैं घर से निकलकर जब कहीं और जाने का रास्ता नहीं खोज पाता था तो उसके पास चला आता था।

वह तरुण दा का शिष्य होने के साथ ही पार्टी का कार्यकर्ता भी था। तरुण दा का पार्टी ऑफिस में आना-जाना था। कम्युनिस्टों से उनकी जान-पहचान थी - रवि भी पार्टी के लिए और पार्टी की वजह से दीवारों पर लिखने का काम पा जाता था। कम्युनिज्म से उसे भयंकर चिढ़ थी लेकिन वह अपनी चिढ़ लोगों पर जाहिर नहीं होने देता था - पार्टी की वजह से ही उसे रहने के लिए यह जगह मिली थी और उसकी वजह से उसे काम मिलता था। एक और फायदा यह था कि शराब पीकर कोई हंगामा कर देने के बावजूद पार्टी का आदमी होने के कारण उसे मुहल्ले के लोग कुछ बोलते न थे।

तरुण दा मुझे पेंटिंग सिखाएँगे? मैंने एक दिन उससे पूछा था।

तुम किसका वास्ते पेंटिंग सिखना चाहता है? तुम पढ़ा-लिखा मानुष। तुम चाकरी के लिए तैयारी करो। ये पेंटिंग का रास्ता बहुत मुश्किल है - गरीब लोगों के लिए कोई काम का नहीं। देखो हमको। कुछ हुआ? अभी तक हम दीवार में ये सब लिखता फिरता है।

नहीं रवि दा। मुझे नौकरी नहीं करनी। सिर्फ पेंटिंग करनी है। किसी गुरू की जरूरत होती है न। दादा कहते थे कि बिना गुरू के ज्ञान नहीं होता। थोड़ा-मोड़ा रंग का इस्तेमाल तो मैं कर ही लेता हूँ, लेकिन गुरू के बिना असली ज्ञान नहीं मिल पाएगा।

दूर्र...। क्या बकता है तुम सत्या। यह तरुण दा बहुत बाजे मानुष है। ये शाला तुमको कुछ नई शिखाएगा, तुमशे अपना बाड़ी का काज कराएगा। सिगरेट खाएगा - तुमसे आगुन जलवाएगा सिगरेट में और लेक्चर देगा।

लेकिन तरुण दा ऐसे नहीं हैं। उनका पेंटिंग देखे हो रंगों का इस्तेमाल कितना अच्छा है। हाँ, औरतों की तस्वीर ठीक नहीं। मुझे औरतों की नंगी तस्वीरें पसंद नहीं। यह भी क्या कोई कला है।

ओरे बाबा, वोही तो असली जिनिश है। ये तोरूण दा बहुत खिलाड़ी आदमी है - ऐसा औरत लोग का छवि बनाकर बहुत पैसा में बेचता है - कितना टाका गुछाया है। अपना बाड़ी कर लिया - शादी कर लिया। देखता है उसका बीबी कितना सुंदर है - प्रेम कर के शादी किया है। पार्टी का लोग के बीच उसका आना-जाना है। लेकिन काहे उसका चक्कर में पड़ता है रे बाबा। तुम पढ़ा-लिखा है - तुम बिड़ला अकादमी चला जाओ। उधर गनेश पाईन आता है... बड़ा-बड़ा पेंटर लोग से सीखेगा। ये तरुण दा तो कुआँ का बेंग है।

लेकिन...।

अरे तुम बहुत भोला है...। ले एक पैक मार फिर दिमाग खुलेगा तेरा।

नहीं, यह सब हमसे नहीं होगा। रवि दा तुम भी यह सब छोड़ दो। तुम अच्छे आदमी हो। पेंटिंग करो - तुम्हारे हाथ में जादू है। तुम क्यों खुद को मार रहे हो इस तरह।

ओरे बाबा। तुम हमको समझाता है। हमरा बाप भी हमको समझाने नहीं सका। तुम अच्छा लड़का है। तुमको हम पता बताएगा बिरला अकादमी का - तुम जाओ वहाँ एडमिशन ले लो। वहाँ से बड़ा रास्ता मिलेगा। इधर रहेगा तो तुम भी हमरा माफिक दीवार पर नारा लिखेगा रे बोका...। ...और नहीं तो तरुण दा का माफिक कुआँ का बेंग बन जाएगा।

लेकिन वहाँ तो पैसे लगेंगे न एडमिशन के। फिर हर महीने का फिस। यह सब मैं कैसे दे पाऊँगा। मेरे बड़े पिता को वैसे ही मेरा पेटिंग करना पसंद नहीं है।

ओरे बाबा। तुम बोलता है कि तुम बीएसी पाश है। तुम टियुशनी पढ़ाएगा। बहुत लड़का लोग है। चिंता काहे करता है रे बाबा। लेकिन ये तोरून दा का चक्कर में नहीं फँसेगा। ई शाला चोट्टा है। इशका वास्ते हम बहुत पेंटिंग बनाया है लेकिन सब पेटिंग इसने बेच दिया शाला। पार्टी का आदमी है कुछ बोलने पर झमेला हो जाएगा। तुम उसका चक्कर में मत पड़ो - हम बोलता है तुम विरला अकादमी में चला जाओ। अच्छा लोग का बीच में अच्छा कलाकार लोग से शीखेगा तो आदमी बन जाएगा तुम।

बोतल लगभग खाली हो चुकी है। वह अब एक सिगरेट पीने लगा है और उसकी आँखें कहीं किसी शून्य में खो गई हैं।

मैं इस सोच में पड़ गया हूँ कि क्या करूँ। पेटिंग तो मुझे सीखना ही है, लेकिन बड़े पिता को पता चलेगा तो वे अलग नाराज होंगे। कहीं घर में रहने न दिया तो मैं कहाँ जाऊँगा। तरुण दा से पेंटिंग सीखने से रवि मना कर रहा है। तो क्या मुझे पेंटिंग के बारे में भूलकर एक नौकरी ढूँढ़ लेनी चाहिए, क्या यह मुझसे हो पाएगा? और पेंटिंग...? सैफू... मयना? उस दिन रात के अँधेरे में सैफू ने कहा था कि तुम बहुत बड़ा पेंटर बनो। दुनिया में खूब नाम करो - फिर मेरी आत्मा को शांति मिलेगी। और मयना? जब वह आई थी तो मैंने उससे सैफू की बात बताई थी - उसने कुछ नहीं कहा था - वह चुप थी हमेशा की तरह। कुछ देर की चुप्पी के बाद उसने मेरा हाथ अपने हाथ में लिया था और उस पर अपने होंठ रखकर बहुत देर तक रोती रही थी।

उफ्फ...।

कुछ ही देर बाद रवि की देह जमीन पर बिछी एक चटाई पर लुढ़क चुकी थी और मैं घर की ओर लौटने वाले रास्ते पर परेशान कदमों से चल रहा था।

दुःस्वप्न थे, जो कोलकाता आने के बाद भी उनका पीछा नहीं छोड़ते। दीवार में बनी एक तस्वीर, धुँधली स्मृतियों में बसी माँ से मिलती-जुलती एक लड़की जो दुनिया की सबसे अच्छी लड़की, जिसकी मृत्यु दुनिया के सबसे रहस्यमय तरीके से हो चुकी है। और अब यह तीसरी मुश्किल, जो अच्छी लगती है - एक उलझन जिसकी ओर बार-बार जाने का मन करता है।

कुछ उलझनों में उलझकर बेतरह छटपटाने के भी कई अर्थ होते हैं।

उस दिन बहुत कहने पर सत्यदेव अपनी पेंटिंग की एक पुरानी फाइल सबसे नीचे के संदूक से निकालते हैं। पेटिंग में कीड़े लगने शुरू हो चुके हैं। पहली बार उनकी आँखों में एक जवान आदमी के चेहरे की कांति उतर आई है - एक शर्म की-सी हँसी।

ये तस्वीर... देखिए इसे विमल बाबू। वे मेरी ओर एक तस्वीर बढ़ा देते हैं।

कथाकार भी वहीं है - वह जल्दी से तस्वीर मेरे हाथों से ले लेता है और उसे देखते हुए पता नहीं किस दुनिया में खो जाता है।

यह तस्वीर उसी की है। इतना कहने के लिए सत्यदेव को बहुत मिहनत और साहस करना पड़ता है।

मतलब ये रिंकी की तस्वीर है - रिंकी सेन की? मैं हतप्रभ होकर पूछता हूँ। उन्होंने बड़बड़ाते हुए कई बार रिंकी का नाम लिया था। लेकिन वैसे ही जैसे अपने आप से कुछ कह रहे हों।

वे हाँ कहने की जगह सिर्फ देखते हैं - उनकी आँखों में अजीब-सा 'हाँ' है। कथाकार अब सक्रिय हो चुका है। मुझे अजीब-सी सहानुभूति होती है उस समय उनके उस 'हाँ' कहने की अदा से। लेकिन कथाकार मुझे आगे की कथा की याद दिला रहा है। वह लगातार मेरी ओर इस आशय से देखे जा रहा है कि मैं रिंकी के बारे में उनसे सवालात करना शुरू करूँ। वह सब कुछ पूछना शुरू करूँ जिससे कहानी में एक मोड़ आए - कथा एक रफ्तार पकड़ ले।

आपने बनाई है? मैं पूछता हूँ।

हाँ, मैंने ही। उसने जिद की थी। फिर एक दिन मैंने बनाई। हर बात में वह जिद करती थी। वह चली गई।

वे एक कोने में उकड़ूँ बैठ जाते हैं। इतना निरीह इतना पराजित कि सिर्फ वही ऐसे हो सकते हैं। लेकिन किसलिए?

मैं कथाकार की ओर देखता हूँ - अब?

कथाकार मुझे कलम थामने को कहता है - मैं कागजों को एक मासूम बच्चे की तरह रंगना शुरू करता हूँ - मुझे रंगों की समझ नहीं है। मुझे हर बार कथाकार की ओर प्रश्न भरी दृष्टि रखनी होती है और वह मुझे समझाता-बुझाता है। इस तरह धीरे-धीरे बात आगे बढ़ती है - मेरे दो बच्चों और पत्नी के बीच यह कथा भी परिवार के एक सदस्य की तरह अब शामिल हो गई है - और हाँ, सत्यदेव शर्मा और कथाकार तो हई हैं।

11.

बहुत खोजते-खाजते हुए अंततः मैं बिड़ला अकादमी पहुँच गया था। रवि ने जो पता दिया था वह जेब से कहीं गिर गया था - सिर्फ नाम याद रह गया था। उसने मुझे बताया था कि एक बड़ा पार्क है और उसके बीच में एक झील है। उस झील के आस-पास ही बिरला अकादमी होगी। मुझे बालीगंज पहुँचना था और इसके बाद रवि के दिए हुए पते पर पहुँचना था। बस वाले ने बालीगंज यही है कहकर मुझे एक फुटपाथ पर उतार दिया था। मैं बहुत देर तक खड़ा कुछ सोचता रहा था। कई लोग तेजी से आते और बदहवासी में गुजर जाते थे। मुझे किसी से भी पूछने की हिम्मत नहीं हुई। अंत में मैंने देखा कि एक आदमी डाभ बेच रहा है - मैंने सोचा कि उसी से पूछना ठीक रहेगा। मैं धीरे-धीरे उसकी ओर बढ़ा।

भाई बता सकते हो कि बिरला अकादमी किधर पड़ेगा? मैंने डाभ बेचने वाले को देखा। उसका पूरा शरीर नंगा था कमर में सिर्फ एक मैली-कुचैली लुंगी लटक रही थी। बीड़ी पीने की वजह से उसके दाँत काले पड़ चुके थे। वह हँसता था तो उसके होंठ विकृत हो जाते थे और चेहरे की झुर्रियाँ और गहरी होकर उभर आती थीं।

भाई, बता सकते हो कि बिरला...। मैंने एक बार फिर पूछा। वह डाभ छिलने में व्यस्त था। उसने आँखें ऊपर उठाई।

कौन-सा अकादमी बोला?

बिरला अकादमी?

क्या होता है उहाँ पर?

पेंटिंग सिखाई जाती है।

पेंटिंग... ओ हो चित्रकोला... इधर ही है। यहाँ से सीधा चला जाओ। उहाँ से दान दिके मुड़ जाएगा बस बिरला अकादमी का बड़ा बिल्डिंग आ जाएगा।

मैंने डाभ वाले को धन्यवाद दिया और उसकी हँसी से पड़ी झूर्रियों और काले हो गए दाँतों को देखता रहा। थोड़ी देर पैदल चलने के बाद एक लंबी-चौड़ी बिल्डिंग मिली और यह सोचकर मुझे राहत महसूस हुई कि यही बिरला अकादमी है।

मैं आगे की ओर चलता गया।

गेट पर ही एक लड़की तेजी से अंदर जाती हुई मुझे मिली थी और मैंने तपाक से पूछ लिया - क्या यही बिरला अकादमी है जहाँ पेंटिंग सिखाई जाती है? पहले तो उसने मुझे ऊपर से नीचे तक ध्यान से देखा फिर बोली - क्या आप पहली बार आ रहे हैं?

हाँ, पहली बार ही। मुझे दाखिले के बारे में पता करना है।

आइए। मैं उधर ही जा रही हूँ।

लड़की आगे की ओर बढ़ गई थी और मैं उसके पीछे-पीछे चल पड़ा था। उसने कुछ दूर जाकर एक सीढ़ी की ओर इशारा किया और थोड़ी मुस्कुराती हुई दूसरी ओर चली गई। मैं सीढ़ियाँ चढ़ते हुए उसके द्वारा बताई हुई जगह पर पहुँच गया।

वहाँ एक दरबान बैठा हुआ था। मैंने उस दरबान से ही कहा कि मुझे एडमिशन लेना है। दरबान ने मुझे अपने पीछे आने का इशारा किया। थोड़ी ही देर बाद मैं एक कमरे में था। मेरे सामने एक कागज का बड़ा-सा टुकड़ा था और सामने एक मूरत रखी हुई थी। मुझे वहीं के मि. बनर्जी ने उस मूरत को देखकर कागज पर उसकी नकल उतारने के लिए कहा था। यह एक तरह का टेस्ट था जिसके आधार पर यह तय होने वाला था कि मुझे किस स्टैंडर्ड में दाखिला मिलेगा।

मेरे लिए यह उतना मुश्किल नहीं था - मैंने पहले भी पेंसिल से कितनी ही आकृतियाँ बनाई थीं। उन दिनों जब मयना नहीं रही थी - सैफू नहीं रहा था - इस पेंसिल ने मेरा बहुत साथ दिया था। खाली दिनों को काटने का सबसे अच्छा तरीका मुझे यही लगता था कि कागज पर आड़ी-तिरछी लकीरें खींचकर उसे चित्र का रूप दिया जाए। यह सब मैं बता ही चुका हूँ।

मुझे फर्स्ट ईयर में दाखिला मिल गया था। उससे भी अच्छी बात या संयोग की बात यह थी कि जिस लड़की ने पहली बार मुझे अकादमी के अंदर पहुँचाया था - वह भी प्रथम वर्ष में ही थी। मैंने पहली बार कक्षा में ही उसे ध्यान से देखा था। वह साँवली-सी लड़की बहुत सुंदर नहीं थी लेकिन उसकी आँखें तीखी थीं और नाक सुग्गे के ठोर-सी नुकीली। देह का गठन सुडौल था जैसे एक-एक चीज सही अनुपात में करीने से बनाई गई हो। मुझे उस क्या किसी भी लड़की में कोई दिलचस्पी नहीं थी लेकिन पता नहीं उसके चेहरे में कैसा तो एक आकर्षण था कि उसे बार-बार देखने का मन करता था।

मैं उसे देखता था और उदास हो जाता था - उदास होकर मैं अकादमी से बाहर निकल जाता था और लेक गार्डेन झील के किनारे उस पार्क में किसी पेड़ के नीचे बैठ जाता था जो अकादमी के एकदम नजदीक था और कागज पर कोई दृश्य आँकना शुरू कर देता था।

मेरे अंदर तनिक भी कोई ऐसा खयाल न था जैसा कि अक्सर मेरी उम्र के लड़कों में रहता होगा कि था ही। बस वह सुंदर थी और उसे देखकर उदास हो जाना मुझे पता नहीं क्यों अच्छा लगता था? मुझे लगता है कि अगर किसी सुंदर चीज को देखकर आप उदास हो जाते हैं और यह उदासी आपको भली लगती है तो और-और उदास हो जाने का मन करता है।

और कभी-कभी आप किसी चीज को देखकर उदास हो जाने को बहुत प्यार करने लगते हैं - मुझे उस लड़की से नहीं, उसे देखकर होने वाली उदासी से प्यार जैसा कुछ हो गया था। मैं बहुत कम बोलने वाला और बेहद संकोची। मुझे अकेले रहना अच्छा लगता था - अकेले रहकर खुद से बात करना - उन स्मृतियों को जीना जो मेरे लिए किसी भी चीज से बहुत ज्यादा कीमती थी।

मेरे अंदर एक लड़की मेरे लहू के साथ बहती थी। उसका नाम मयना था। रिंकी कैसे आई मुझे नहीं पता। मुझे लगता है कि मेरे अंदर जो दुख की नदियाँ थीं - उदासी के बेआवाज झरने थे शायद उनसे रिंकी को लगाव हो गया था।

मैं आज भी ठीक तरह नहीं बता सकता विमल बाबू कि कैसे वह मेरे इतने करीब आ सकी। जबकि मैं नहीं चाहता था कि कोई मेरे इतना करीब आए। कि मुझे छू सके। उस शरीर को जिसे एक 13-14 साल की लड़की ने पागलों की तरह छुआ था - मेरे स्पर्शों को अपनी कच्ची देह पर खुशी-खुशी सहा था।

उसकी अँग्रेजी अच्छी थी। कोलकाता के कान्वेंट स्कूलों में पढ़ने वाले लड़के-लड़कियाँ जिस तरह की अँग्रेजी बोलते हैं उसी तरह की बोली उसकी भी थी। वह बोलते हुए कई तरह से अपने होंठों को मोड़ती थी - मैंने देखा कि हिंदी बोलते हुए भी कई बार उसी तरह से उसके होंठ मुड़ते थे। एक दिन क्लास में वह मेरे पास ही बैठ गई थी। थ्युरी ऑफ पेंटिंग की लेक्चरार दमयंती लाहिरी कुछ बोल रही थीं जिसे हमें नोट करना था। जब वह बोलती थीं तो उनके बोलने में इतनी रफ्तार होती थी कि कई चीजें मैं नोट नहीं कर पा रहा था। लेकिन मैंने देखा कि रिंकी बहुत आसानी से सबकुछ नोट किए जा रही थी। कक्षा खत्म होने के बाद मैंने बहुत साहस कर के डरते-डरते रिंकी से कहा - मे आई हैव योर नोटबुक प्लीज, मुझे कुछ नोट करना है।

तब मैं उसका नाम नहीं जानता था।

श्योर...। उसने नोटबुक मेरी ओर बढ़ा दिया था। मैंने कई चीजें वहाँ से नोट की और नोटबुक उसे वापिस करने के लिए जब आँख उठाई तो वह नहीं थी वहाँ। कहाँ चली गई - मैंने सोचा।

मैं बहुत देर तक वहीं बैठा रहा। यह ऑफ पीरियड था। शायद यह तनुजा मजुमदार का क्लास था और वो आज नहीं आई थीं। क्लास लगभग खाली था - बस इक्के-दुक्के लोग क्लास में बैठे कुछ खुसर-फुसर कर रहे थे। मैंने सोचा कि मैं लेक गार्डन में चला जाऊँ लेकिन उसके पहले उस लड़की को उसकी नोटबुक लौटानी थी। मैं उसको ढूँढ़ने की गरज से कैंटीन की ओर बढ़ गया। वह वहीं थी।

अरे, आप। आइए बैठिए। गणेश एक और चाय लेकर आना। उसने बैरे को आदेश दिया।

जी नहीं मैं चाय नहीं पीता। आपका ये नोटबुक...।

आप चाय नहीं पीते? बिल्कुल नहीं? आज हमारे साथ पीजिए। इस बहाने अपना परिचय हो जाएगा।

मैं संकोच के बावजूद वहाँ बैठ गया। उसके साथ एक और लड़की थी।

मीट माय फ्रेंड, सोहेली। सोहेली सरकार। उस लड़की ने हाथ बढ़ाया। मुझे एक लड़की से हाथ मिलाना अजीब लग रहा था लेकिन मैंने भी अपना हाथ बढ़ा दिया।

मैं सत्यदेव शर्मा। और आप...?

ओह, मैंने तो अपना नाम ही नहीं बताया आपको। माय नेम इज रिंकी। रिंकी सेन।

बंगाली?

हुम्म...। कोई प्रोब्लेम?

नहीं, मैंने ऐसे ही पूछा। आपका टायटिल सेन है।

लेकिन मुझे हिंदी अच्छी तरह आती है। मैंने बाकायदा हिंदी की पढ़ाई की है एंड यू नो मैंने प्रेमचंद की कहानियाँ पढ़ी हैं। यू फ्रॉम यू.पी., नो?

नहीं, सिवान। ए डिस्ट्रिक्ट इन बिहार।

अरे आप तो अँग्रेजी बोलते हैं। बिहार के बारे में हमलोग सुनते हैं कि उनको अँग्रेजी नहीं आती।

जी, मुझे भी ज्यादा नहीं आती। बस थोड़ा-बहुत।

चाय पीजिए। बैरा चाय रखकर चला गया था।

वह हमारी पहली औपचारिक मुलाकात थी। उस मुलाकात के बाद मैं अक्सर उससे नोटबुक ले लेता था और क्लास के दौरान छूट गई चीजों को नोट करता था। उसकी लिखावट अच्छी थी। मैंने दादा से सुना था कि जिसकी लिखावट साफ होती है वे मन के साफ लोग होते हैं। इसमें कितनी सच्चाई है मुझे नहीं पता लेकिन वह भली लड़की थी। मैंने कभी भी उसे उदास नहीं देखा था। उसका चेहरा हमेशा मुस्कुराता-सा रहता था। वह कई बार मुझे कैंटीन ले जाती और चाय पिलाती। मुझे उसके साथ चलने-बैठने में अजीब लगता क्योंकि वह करीने से सजी-सँवरी होती और मैं कपड़े के मामले में बहुत बेतरतीब था। कई बार एक ही शर्ट में तीन दिन लगातार पहन कर जाता था लेकिन उसे मैंने एक ही ड्रेस को दोबारा पहन कर आते नहीं देखा था। फिर भी वह मुझे बार-बार कैंटीन ले जाती। और अपनी बातों से मुझे सहज करने की कोशिश करती। कई बार ऑफ पीरियड के समय हम लेक गार्डेन में चले जाते और वहीं बैठकर मैं उसके नोट बुक से कुछ चीजें नोट करता। वह मुझे ध्यान से ऊपर से नीचे तक देखती रहती और मैं बार-बार झेंपता रहता।

उस समय उसके मन में क्या था मुझे पता नहीं लेकिन उसके प्रति मेरे मन में एक सम्मान का भाव था। वह बेहद सुलझी हुई लड़की थी जिसके साथ होना मुझे बुरा नहीं लगता था।

कोई वाकया नहीं। कोई कहानी नहीं।

कोई मोड़ नहीं विमल बाबू।

किसी तरह का 'थ्रिल' नहीं।

हुआ यह था कि एक दिन उसकी गाड़ी आकर रुकी थी अकादमी के सामने। मैंने पहली बार उसे एक बड़ी सी क्रीम कलर की गाड़ी से उतरते हुए देखा था - मुझे सचमुच तब पहली बार बहुत अधिक डर उससे लगा था। नहीं, उससे नहीं, उसकी संपन्नता से।

यह पहला डर था जो मेरी उदासियों के बीच से सेंध लगाकर मेरे जेहन में घुसा था। मुझे लगा कि मेरे साधारण से कपड़े और बेहद साधारण तरीके के रहन-सहन के बीच उसके लिए कोई जगह नहीं बनती थी। मैं उससे दूर जाना चाहता था। उससे या उसकी संपन्नता से ठीक-ठीक कहना मुश्किल है।

लेकिन वह आते ही मुस्कुराती हुई मेरे सामने खड़ी हो गई थी।

चलो...।

कहाँ?

चलो न एक जगह लेकर चलती हूँ तुम्हें।

बनर्जी बाबू ने मिलने के लिए कहा है - फिर क्लास भी तो है। मैं बहाना करता हूँ।

एक दिन क्लास नहीं करोगे तो पेंटर नहीं बन पाओगे? बुद्धू कहीं के। उसने बेतकल्लुफी से मेरे हाथ पकड़ लिए और अपने साथ लेकर चलने लगी।

मैं न चाहते हुए भी किसी अनजान शक्ति के वशीभूत उसके साथ चलते हुए चुपचाप उसकी गाड़ी में बैठ गया।

गाड़ी सड़क पर दौड़ती हुई बालीगंज सर्कुलर रोड से होती हुई रवींद्र सदन के पास आकर धीमी हो गई। उसने ड्राइवर को गाड़ी को एक-दूसरे रास्ते पर ले जाने का निर्देश दिया। हम विक्टोरिया के उल्टे फुटपाथ से लगी सड़क पर बड़े चर्च के आस-पास के एरिया से गुजर रहे थे। सामने अकादमी ऑफ फाइन आर्ट्स था। उसके बाद रवींद्र सदन।

हम जा कहाँ रहे हैं आखिर - मैंने पूछा नहीं। बस सोचा और उसकी ओर प्रश्न भरी आँखों से देखा। उसने मेरे प्रश्न को शायद भाँपकर मुस्करा दिया। उसकी आँखों में उस समय समंदर की गहराई नजर आ रही थी - उसने अपनी तर्जनी से यू बनाया और बहुत प्यार से मेरी नाक को छू लिया। मुझे क्या हुआ पता नहीं लेकिन उस समय लगा कि मेरी नाक पर एक ठंडी बर्फ रख दी गई है और उसकी शीतलता मुझे अच्छी लग रही है।

मैंने दूसरी ओर देखना शुरू कर दिया। सामने अलीपुर जाने वाले रोड का फुटपाथ था - लोग बेतहासा सड़क पार करते हुए दिख रहे थे - उस समय मुझे रिंकी के साथ आराम से उस बड़ी गाड़ी में बैठना अच्छा भी लग रहा था। उस समय सचमुच मैंने सोचा कि यदि पूरा जीवन इस गाड़ी में उसके साथ यात्रा करने की कोई शर्त हो तो उसे मंजूर करने में मुझे जरा-सी भी हिचक न होगी। वह अजीब समय था - शायद इस तरह की गाड़ी में बैठने का मेरा पहला मौका।

गाड़ी एक चौराहे पर थोड़ी देर के लिए रुकी थी - एक छोटा बच्चा खिड़की के शीशे के पार से भीख माँगता हुआ दिखा। मुझे पल भर के लिए लगा कि वह मैं ही हूँ वहाँ शीशे के बाहर खड़ा। मैंने अपनी जेबें टटोलीं। एक रुपये के दो सिक्के मेरे पास थे - बस का किराया एक रुपया और शाम के नाश्ते के लिए मुढ़ी और चनाचूर का एक रुपया। मैंने सोचा। लड़का बाहर से लगातार हाथ हिलाए जा रहा था - मैंने एक रुपये का सिक्का निकाल कर उसे दे दिया। वह पैसे लेकर दूसरी गाड़ी की ओर बढ़ गया।

मैंने रिंकी की ओर देखा। वह काफी खुश दिख रही थी - वास्तव में उसका चेहरा ही ऐसा था - हमेशा हँसता हुआ - मेरे जैसा उदास और गंभीर चेहरा उसका न था।

मेरे उदास चेहरे पर उस वक्त एक झेंप भी थी - जो शायद मुझे और अधिक दयनीय बना रही थी - क्या इस दयनीयता ने ही रिंकी को मेरी ओर आकर्षित किया था - मैं कई बार सोचता था। कई बार मैं उससे दूर रहने के बारे में भी सोचता था कि उसके साथ रहते हुए मेरे अंदर एक अजीब-सी झेंप उतरती थी - वह झेंप मुझे किसी अलग दुनिया में लेकर जाती थी जहाँ मैं अकेला होता। वह अकेली दुनिया मेरे लिए माफिक होती और वहाँ रहना मुझे अच्छा लगता।

लेकिन यह लड़की जो पता नहीं कहाँ से और कैसे मेरे करीब आ गई थी - कि मुझे अकेले नहीं रहने देना चाहती थी।

और जानते हैं विमल बाबू उसके चेहरे पर मैंने एक दिन मयना की-सी मुस्कान देखी थी - वह जब हँसती थी तो उसके दाँत बिल्कुल मयना की तरह चमकते थे - वह उतनी सुंदर नहीं थी - लेकिन उसके कपड़े और रहने-हँसने और बोलने का अंदाज सुंदर था - उसके बाल करीने से सँवारे हुए होते - कानों में कीमती टॉप और गले में कई तरह के हार उसे सुंदर बनाने में मदद करते थे। लेकिन वह मुझे कभी भी मयना जितनी खूबसूरत नहीं लगी। वह मासूम लड़की मेरे जेहन में इस तरह समाई हुई थी कि कोई भी लड़की उसकी मासूमियत का मुकाबला नहीं कर सकती थी।

मैं सोचते हुए कई-कई बार उसके हँसते हुए चेहरे को देख लेता था। इस देखने में मेरी कोशिश होती थी कि मुझे देखते हुए वह न देखे। अगर कभी ऐसा होता तो एक अजीब सी झेंप उभरती - और मैं बहुत देर तक उसकी ओर देख नहीं पाता था।

गाड़ी नंदन से होती हुई अलीपुर सेंट्रल लाईब्रेरी के सामने जाकर रुक गई थी।

मैं बहुत पहले बचपन में कभी यहाँ आ चुका था। मेरे मन में एक धुँधली याद थी लेकिन कब आया था यह याद नहीं। शायद बड़े पिता के साथ। वे शुरू से कोलकाता में ही नौकरी करते थे। माँ के नहीं रहने के बाद कुछ दिनों मैं कोलकाता में आकर रहा था - शायद उन्हीं दिनों। मुझे सेंट्रल लाइब्रेरी के गेट पर दो तरफ खड़े शेरों की याद थी। लेकिन हम लाइब्रेरी नहीं - चिड़ियाखाना देखने आए थे। यहीं कहीं आस-पास चिड़ियाखाना होना चाहिए - मैं सोच रहा था।

वह कार से उतर गई थी - शायद मुझे भी उतरने को कहा था।

मैं सामने की फुटपाथ पर खड़ा लायब्रेरी के गेट के शेरों को खोजता रहा। वह जब आई तो उसके हाथ में दो टिकट थे। मैंने उसकी ओर प्रश्न भरी आँख से देखा।

हम जू के अंदर चलेंगे। वह अनायास ही मेरे हाथ पकड़कर गेट की ओर चल पड़ी।

यह दूसरी बार था कि मैं चिड़ियाघर पहुँचा था। लेकिन पता नहीं क्यों एक लड़की के साथ आने का जादू था याकि इतने अंतराल के बाद आने का चमत्कार कि सब कुछ बदला-बदला-सा लग रहा था। झाड़ियों के रंग अधिक हरे, जमीन थोड़ी अधिक सोनल, झील का पानी काईदार होने के बावजूद कुछ और ज्यादा नीला और चमकदार लग रहा था। यहाँ तक कि पिंजरे में बंद जानवर भी उस दिन मुझे अंदर से खुश लग रहे थे। बंदरों का उछलना - जिराफ का दौड़ना - शेर के चलने तक में एक संगीत की लय शामिल थी।

मैं उदासी और झेंप के बीच भी खुश था। रिंकी सेन सुंदर लग रही थी - उसे देखकर किसी बड़े चित्रकार की पेंटिंग याद हो आती थी - करीने से कटी देह - सबकुछ संतुलित। मैं कई बार चोर नजरों से उसे देख लेता इसका ध्यान रखते हुए कि मुझे देखते हुए वह न देखे। जब कभी उसकी आँखें मुझसे टकरातीं मैं झट नजरें नीची कर लेता - एक झेंप सी होती और मैं आसमान या जमीन देखने का अभिनय करने लगता।

तो श्रीमान पेंटर महाशय किसका चित्र बनाएँगे आप? यह एक प्रश्न था जिसमें रिंकी के आवाज की चहक थी।

चित्र? मैं उसकी ओर देख रहा था।

हाँ, क्योंकि हम बच्चे तो हैं नहीं कि चिड़ियाघर में जानवर देखने के लिए आए हैं। पेपर और पेंसिल निकालिए और तैयार हो जाइए, हम चित्र बनाते हैं - देखते हैं किसकी तस्वीर ज्यादा सुंदर होती है।

वह एकटक मुझे घूरे जा रही थी। उसके देखने में ऐसा कुछ था जिसका सामना मैं नहीं कर पा रहा था। मैंने सोचा कि क्यों न रिंकी की ही तस्वीर बनाई जाए - मैं कहना चाहता था कि रिंकी तुम पेड़ की उस जड़ पर झाड़ियों के बीच बैठ जाओ और मैं तुम्हारी तस्वीर बनाता हूँ। मैं सचमुच उससे कहना चाहता था लेकिन कहने के लिए जिस साहस की जरूरत होती है वह मेरे पास नहीं था। मैंने कागज और पेंसिल झोले से बाहर निकाल ली थी और तैयार हो गया था - मैं उसकी ओर इस आशा से देख रहा था कि वह कहेगी कि बंदर या भालू या पेड़ या फूल या किसी बच्चे का चित्र बनाया जाय। लेकिन वह मेरी हरकतों को चुपचाप देखे जा रही थी।

अब? मैं उसकी ओर देख रहा था।

उस हरिण का चित्र बनाते हैं जिसकी पीठ पर एक पंछी बैठा है। मैंने बीच की चुप्पी को तोड़ दिया था।

लेकिन पंछी तो उड़ जाएगा, फिर?

तो सिर्फ हरिण?

वह भाग गया तो?

हुम्म...। तो ऐसा करते हैं पेड़ का चित्र बनाते हैं, वह तो नहीं भागेगा न।

नहीं पेड़ का नहीं, पानी का।

पानी के किनारे पेड़ का।

हाँ, यह ठीक है। वह अंततः मान गई।

हम झील के किनारे पहुँच गए। वहाँ पानी था। पानी के किनारे पेड़ थे। झील के किनारे बैठने के लिए पत्थर की कई बेंच बनी हुई थी। एक बेंच पर हम बैठ गए। मैंने दृश्य में पेड़ और पानी को एक गहरी आँखों से देखा और कागज पर लकीरें खींचनी शुरू कर दी।

वह मेरे करीब चुपचाप बैठी सिर्फ पेड़ और पानी को देखती रही - कई-कई बार उसने मेरी ओर भी देखा लेकिन मैं चित्र बनाने में मशगूल था। इस बीच वह पानी पी आई - झील के पानी से खेल आई कई बार मेरी ओर देखा कि मैं उससे कुछ कहूँ लेकिन मैं चित्र बनाता रहा।

आखिर चित्र बनकर तैयार हो गया। जैसे लंबी बेहोशी के बाद मैं अचानक जाग गया होऊँ।

दिखाइए कैसी बनी हैं - उसने कागज मेरे हाथ से छिन लिया यह परवाह किए बिना कि उसका चित्र मैं भी देखना चाहता हूँ।

तो उसका चित्र देखा आपने? कथाकार मेरी ओर देख रहा है। मैं वही बात सत्यदेव के सामने दुहरा देता हूँ - तो उसका चित्र देखा आपने?

आँ...? विमल बाबू मेरी आँखों में जलन हो रही है। बत्ती बुझा दीजिए कृपया। सत्यदेव अपनी आँखें अपनी तरहत्थियों से मसलने लगते हैं।

बत्ती बुझा दीजिए - कथाकार का निर्देश है।

मैं बत्ती बुझा देता हूँ। कमरे में थोड़ी देर के लिए भक अँधेरा छा जाता है फिर बाहर की रोशनियाँ आहिस्ता-आहिस्ता घर में प्रवेश करनी शुरू करती हैं। कुछ ही देर में इतनी रोशनी हो जाती है कि हम एक-दूसरे की उपस्थिति को महसूस कर सकें।

बोलिए साधुखान...।

मैं थक गया हूँ विमल बाबू। मैं अगर मर जाऊँ तो मेरे काँधे को अर्थी देने वाला भी कोई नहीं। लेकिन मुझे इसकी परवाह नहीं कि क्या होगा फिर भी मैं मर जाना चाहता हूँ - मर कर फिर से जिंदा होना चाहता हूँ। साहस के साथ जिंदा होना चाहता हूँ कि लड़ सकूँ। अपनी बात पूरी ताकत के साथ कह सकूँ और उसके हक के लिए जीवन भर संघर्ष कर सकूँ। इसलिए मैं मर जाना चाहता हूँ इसकी परवाह किए बिना कि मेरी लाश को अग्नि देने वाला कोई नहीं।

सत्यदेव अँधेरे में अनवरत बोलते जा रहे हैं - मैं कथाकार की ओर देख रहा हूँ कि इन्हें कथा की ओर फिर कैसे मोड़ा जाए।

कथाकार चुप रहने का इशारा करता है - सुनो। चुपचाप सुनो। सत्यदेव का एक-एक कथन कथा का ही अंग है।

बोलते हुए जब उनकी अवाज मद्धिम हो जाती है तो बहुत ही करुण आवाज में गुनगुनाना शुरू करते हैं - बहुत धीमे कि वे हमारे लिए नहीं - खुद के लिए गा रहे हों कि गा नहीं रहे बल्कि प्रार्थना कर रहे हों -

जे दिन रबो ना आमि
आसिबो ना कौनो छले
तुमी शून्य समाधि मोर
छेये दियो फूल दले...।
(जिस दिन मैं नहीं रहूँगा
लौट नहीं पाऊँगा
किसी छल से भी नहीं
तब तुम मेरी सूनी समाधि को
फूलों के दल से ढक देना...।)

सतीनाथ मुखोपाध्याय का यह गीत उस मद्धिम अँधेरे में समय को चीर कर हमें कहीं दूर लिए जा रहा था - हमें कथाकार को और मुझे और सत्यदेव को। अनवरत, अविचल और चुप-सा मद्धिम।

उस दिन उसने कोई तस्वीर नहीं बनाई थी विमल बाबू। वह मुझे सिर्फ देखती रही थी।

और मैंने जो तस्वीर बनाई थी - उसमें पेड़ थे। पानी था। और पता नहीं कहाँ से एक लड़की भी आ गई थी जो पेड़ के नीचे उदास खड़ी थी। उसकी साड़ी सफेद थी - बाल उलझे हुए और आँखों में लाल डोरे थे - वह लगभग रोने-रोने को थी - भयभीत।

मैं नहीं जानता कि यह कैसे हुआ कि उस तस्वीर में वह लड़की कैसे आ गई।

लेकिन यह अप्रत्याशित ही था कि तस्वीर देखकर वह उछल पड़ी थी और उसने पहली बार मेरे गालों पर अपने होंठ रख दिए थे। मेरे अंदर एक बिजली का झटका-सा लगा था उस समय और मैं सिहर उठा था। ऐसा मैंने सोचा न था - यह मेरी सोच के एकदम विपरीत था कि उसने अपने होंठ मेरे गालों पर रख दिए थे। मैंने देखा कि उस समय उसकी आँखों में शर्म की-सी एक हँसी थी और उसके चेहरे पर एक ललछौहुँ चमक उभर आई थी।

मैं ज्यादा देर तक उसकी आँखों में देख न पाया था और अपनी नजरें अपनी बनाई हुई तस्वीर पर गड़ा दीं।

मुझे लगा कि तस्वीर से निकल कर वह लड़की मेरे सामने आ गई है और उसने ही मुझे अचानक चूम लिया है - मैं यकीन के साथ नहीं कह सकता लेकिन तस्वीर में जो लड़की थी उसकी शक्ल कुछ-कुछ मयना से जरूर मिलती थी।

तो फिर उस तस्वीर का क्या हुआ? यह प्रश्न कथाकार के कहने पर मैं करता हूँ।

तस्वीर, हाँ तस्वीर रिंकी ने ले लिया। वह तस्वीर उसे इतनी पसंद आई कि जब मैं उसके घर गया तो मैंने देखा कि वही तस्वीर एक सुंदर फ्रेम के साथ उसके ड्राइंगरूम में लटक रही थी।

हुम्म...। तो आप उसके घर भी गए थे?

हाँ, दो बार... नहीं, तीन बार...। एक बार उसने खाने पर बुलाया था। दूसरी बार उसकी तस्वीर यानी पोट्रेट बनाया था और तीसरी बार...।

तीसरी बार...?

तीसरी बार...? नहीं, उसकी बात भूल जाइए विमल बाबू। देखिए सुबह हो गई...। सूरज की लाली देख रहे हैं - इन अँधेरों के बीच भी सूरज अपने आने का अहसास दिला रहा है - जैसे-जैसे ऊजाला होगा मेरी नाक में बदबू भरती जाएगी - इससे पहले कि उजाला हो मुझे अपने अँधेरे कोने में लौट जाने दीजिए न विमल बाबू...।

मैं आकाश की ओर देखता हूँ। पंछी का कलरव शुरू हो चुके वक्त बीत गया है - शायद बीच में एक चुचुहिया भी बोल गई है। कथाकार अब भी सत्यदेव की बातों पर अपना पूरा ध्यान टिकाए बैठा है।

सुबह होने वाली है - मैं कथाकार की ओर देखकर कहता हूँ।

सुबह होने वाली है - सत्यदेव बुदबुदाते हैं।

अँधेरे का परदा उठ रहा है - अब दृश्य बदलने वाला है। मुझे अपनी पत्नी की याद आती है। वह अब उठने वाली ही होगी। उसके जग जाने के पहले मुझे बिस्तर में दुबक जाना होगा।

दृश्य बदल चुका है।

मैं बिस्तर में दुबक चुका हूँ। पत्नी जग गई है - मैं जागते हुए सो रहा हूँ। जब वह मुझे झिंझोड़ेगी तो मुझे सोए हुए की तरह जागना होगा। जागते हुए कि तरह जागने का मतलब यह कि कलह की शुरुआत यहीं हो जाने की संभावना बन जाएगी।

मैं बिस्तर में दुबका हुआ सोच रहा हूँ भयभीत... कथाकार जा चुका है... सत्यदेव जा चुके हैं... अब दृश्य में मैं हूँ और एक पागल संसार है - उस संसार को अपनी झाड़ू से चीरती हुई मेरी पत्नी है।

मैं आपको पहले ही बता चुका हूँ कि मेरे लेखन को लेकर मेरे घर में कोई खुश नहीं। मेरी पत्नी के लिए सब्जी-आटा और बाजार से मछली लाना या बच्चों के होम वर्क करवाना, या खाना बनाने में पत्नी की मदद करना किसी भी कविता कहानी से ज्यादा जरूरी है। बीच में कई साल मैं इस वजह से ही लिखना छोड़ चुका था - उन दिनों मैं पूरी तरह एक पालतू मनुष्य था। बच्चों की पॉटी धोने से लेकर स्कूल के लिए उन्हें तैयार करना और घरेलू काम करना मेरी ड्युटी थी। दफ्तर जाने के पहले तक मैं घर के कामों में लगा रहता और दफ्तर जाकर फाइलों में उलझ जाता। इस बीच मुझे दो तीन बार फोन कर के पत्नी की हाल-चाल पूछना होता और घर के मोबाइल पर मासी से यह पूछना होता कि बच्चे स्कूल से आए या नहीं, खाना ठीक से खाया या नहीं, कोई तंग तो नहीं कर रहा, कोई रो तो नहीं रहा। इत्यादि...।

लेकिन मेरा यकीन कीजिए यह सब कर के भी मैं खुश नहीं था। पत्नी की आदत थी कि जब तक वह चख-चख नहीं करेगी तब तक उसके पेट का पानी नहीं पचेगा। इस तरह का फाल्तू जीवन जीते-जीते जब एक दिन मैं ऊब गया तो बहुत दिनों बाद दफ्तर के एक फाल्तू कागज पर कविता की शक्ल में मैंने अपना दुख लिखा। उस दुख को बार-बार पढ़कर मुझे सचमुच बहुत खुशी हुई - तब से मैं जब भी मौका मिलता इस तरह के हर्ष विषाद और दुख को लिखकर उसे बार-बार पढ़ा करता। ये सारे काम चोरी छुपे चल रहे थे।

इसी बीच एक दिन घर में पत्नी ने मुझे बहुत फटकारा।

असल में उस दिन मैंने छुट्टी ली थी और मुझे बच्चों को स्कूल से लेकर आना था। मैं घर से ठीक समय पर ही निकला था लेकिन रास्ते में एक मदारी जादू दिखा रहा था और घर के कलह को शांत करने की ताबीज बेंच रहा था। मैं उसका तमाशा देखने में इतना मशगूल हो गया कि जब ताबीज लेकर और उसे बीस रुपये देकर बच्चों के स्कूल पहुँचा तो बहुत देर हो चुकी थी। मैंने दरबान से पूछा - छुट्टी हो गई क्या, मैं अपने बच्चों को लेने आया हूँ। दरबान मुझे ऐसे देख रहा था जैसे किसी अजीब शक्ल वाले आदमी को देख रहा हो - भाई साहब छुट्टी तो दो घंटे पहले हो चुकी है और सारे बच्चे अपने-अपने घर चले गए।

मैं उल्टे पाँव लौट आया। मैंने फोन करने के लिए जेब से अपनी मोबाइल निकालने की कोशिश की। मोबाइल कहीं नहीं था। शायद घर में छूट गया हो - मैंने सोचा।

लेकिन बच्चे? मुझे बहुत चिंता हुई।

मैं घर की ओर तेज कदमों से चल पड़ा - अगर बच्चे घर न गए हों तो क्या होगा?

मैं हाँफते-सिंकते हुए घर पहुँचा तो बच्चों की आवाज सीढ़ियों से ही सुनाई पड़ी - मैंने राहत की साँस ली। लेकिन तभी पत्नी का तमतमाया चेहरा याद आया।

उस दिन पता नहीं कहाँ से उसे मेरी एक डायरी भी मिल गई थी जिसमें हाल की लिखी कुछ कविताएँ थीं। उसने उस दिन मुझे इतना कुछ कहा और इस तरह के ताने दिए कि मैंने कसम खा ली कि अब कविताएँ नहीं लिखूँगा और हुगली नदी में छलाँग लगाकर अपने इस तथाकथित निकम्मे जीवन की इति कर दूँगा और फिर कभी वापिस घर नहीं लौटूँगा।

उस दिन बहुत देर की चख-चख सुनने के बाद मैं घर से निकल गया। घर से थोड़ी दूर पर ही हुगली नदी है जिसके ऊपर एक ब्रिज है। मैं चलते हुए उस ब्रिज तक पहुँचा। मैंने ब्रिज से नीचे देखकर हुगली नदी के अथाह जल का मुयायना किया - कई बार मैंने छलाँग लगाई और जल के गहरे गर्त में साँस फूलने पर जल के ऊपर उतराया - मैंने बचाओ-बचाओ की आवाज लगाई और जब तक मुझे कोई आकर बचाता मैं अचेत होकर पानी की गोद में समा चुका था। नदी के ऊपर खड़े उस विशाल ब्रिज पर मैं खड़ा पता नहीं कितनी बार खुद को समाप्त करने का यह खेल खेलता रहा।

मेरे आस-पास कई प्रेमी युगल थे जो एक-दूसरे को चूम रहे थे - मुझे वह दिन याद आया जब मैंने भी एक पार्क में मिन्नी को चूमा था - तब वह मुझे दुनिया की सबसे खूबसूरत लड़की लगती थी। वह पार्क भी नदी के किनारे बना हुआ था जहाँ हम कई बार शादी के पहले मिल चुके थे - उसी पार्क में मैंने पता नहीं कितनी कविताएँ मिन्नी को सुनाई थीं और उसने मेरी आँखों में सम्मोहित होकर देखते हुए सबकुछ सुना था।

लेकिन वह वक्त अब बदल चुका था।

मैं हुगली नदी पर बने उस ब्रिज पर खड़ा होकर मिन्नी के उस चेहरे को याद करता रहा जब वह बेहद खूबसूरत थी और उसे मेरी कविताएँ अच्छी लगती थीं। लेकिन धीरे-धीरे पता नहीं उसे क्या हो गया था। एक समय आकर इस सच्चाई का पता मुझे चला कि दरअसल उसे कविता कहानी से ज्यादा अन्य चीजें प्रिय थीं। और आज तो उसने हद ही कर दी। मुझे निकम्मा कहा सो कहा। यह तक कह दिया कि तुम मर जाओगे तभी मुझे चैन मिलेगा। यह भी तो नहीं करते तुम।

मेरी नजर में यह इतनी बड़ी गलती नहीं थी जिसके लिए वह इतना कुछ कह चुकी थी। मुझे कई बार लगता था कि उसे इस तरह चांय-चांय करने में मजा आता था - और उसे बकने के बहाने की तलाश होती थी। जिन ढूँढ़ा तिन पाइयाँ की तर्ज पर उसे कोई न कोई बहाना मिल ही जाता था - और आज तो मेरी गलती थी ही।

अंततः जिन रास्तों से हुगली पर बने उस ब्रिज तक मैं गया था उन्हीं रास्तों से वापिस लौट रहा था - उदास - थका और बेहद निराश। मैं कुछ नहीं सोच रहा था - मेरे चारों ओर एक शून्य था और उस शून्य में भटकता मैं एक असहाय ऑर्गेनिक जीव था - सिर्फ एक जीव।

तभी से बहुत दिन तक बिना किसी खास दिमाग के मैं एक ऑर्गेनिक जीव था। उसी एक दौरान मुझे एक आदमी कैनवास के साथ बारिश में भींगते हुए मिला था और उसी रात यह कथाकार भी मेरे सामने प्रकट हुआ था जिसके निर्देश पर मैं सत्यदेव शर्मा की कथा लिख रहा था - बिल्कुल गुप्त तरीके से। कि मेरी पत्नी को इसकी कोई खबर न हो। अगर यह हो गया तो इस बार मेरे कंप्यूटर के की-बोर्ड पर वह जरूर एक मग पानी उझल देगी और पेश्तर इसके सारी बातें जो घटित होंगी उसकी कल्पना तक करने से मेरी रूह अंदर तक काँप जाती है।

और मैं बिस्तर में दुबका हुआ सोने का अभिनय कर रहा था।

वह उसी दिन की शाम थी जब कथाकार के होने का अहसास मुझे हुआ था। बच्चे कंप्यूटर पर गेम खेलने की जिद कर रहे थे और मैं दफ्तर के काम के बहाने कथा के कुछ सूत्र जोड़ लेने की कोशिश में था। रोज की कथा रोज न लिख लेने से बेतरतीबी का अंदेशा होता था फिर सत्यदेव कथा का कोई एक सिरा पकड़ते थे फिर उछल कर किसी दूसरे इतिहास में खो जाते थे - अगर कथाकार का साथ न होता और उसकी जिद न होती तो यह कथा एक सूत भी आगे न बढ़ती। यह मैं पूरे यकीन के साथ कह सकता हूँ।

उसके होने को भाँपकर मैं उस कमरे में चला गया जिस कमरे में सत्यदेव कल अपनी बेतरतीब बातें कह रहे थे।

वह वहीं बैठा था। किसी प्रेतात्मा की तरह। अँधेरे कोने में काठ की एक कुर्सी पर। मेरे आते ही वह सक्रिय हो गया था।

आज ही सबकुछ खत्म होना है। आज के बाद और मेरे पास समय नहीं है। कथा की एक अवधि होती है। उसका एक ताप होता है - उस ताप के खत्म हो जाने के बाद कथा अपनी प्रवाह के साथ अपनी अर्थवत्ता भी खो देती है। बुलाओ, सत्यदेव को बुलाओ। मैं कहना चाहता था कि यह समय कथा का नहीं है - तुम यह क्यों नहीं समझते कि मैं एक अकथा और अकविता के माहौल में जीता हूँ। मेरी अपनी पारिवारिक मजबूरियाँ हैं। इस समय मैं एक पालतू जीव हूँ। तुम बाद में आओ जब मेरी पत्नी सो जाए। मेरे बच्चे नींद की आगोश में चले जाए। और इस समय सत्यदेव को खोज निकालना क्या आसान है? अभी से भटकना शुरू करने पर शायद आज वे मिल जाएँ - वह भी देर रात तक। लेकिन अभी तो मैं दफ्तर से आया ही हूँ। पत्नी किचेन में है कभी भी आकर यह पूछ सकती है कि बच्चे अब तक होम वर्क करने क्यों नहीं बैठे। और तुम इस कंप्यूटर पर काम कर रहे हो या अपनी प्रेयसियों से चैट पर मशगूल हो। मैं उससे अपने दुख कहना चाहता था लेकिन उस कथाकार को मेरे दुख से कोई लेना-देना नहीं था। वह कथा से शुरू होकर कथा पर ही खत्म होता था - उसके लिए कथा के सूत्र और विवरण और प्रकरण ही सबसे अधिक महत्वपूर्ण थे कि मात्र वही।

वह बेचैन होकर कुछ देर कमरे में चहलकदमी करता है - कुछ सोचता हुआ। जैसे उसे कहीं जाने की जल्दी हो और समय रहते कोई महत्वपूर्ण काम खत्म कर लेना हो।

मैं चुपचाप उसकी हरकतों को देखे जा रहा हूँ। मुझे समझ में नहीं आता कि अचानक चली आई इस बला को कैसे टाला जाए।

कुछ देर बाद वह थोड़ा शांत होता है और आकर मेरे सामने खड़ा हो जाता है।

चलिए-चलिए सत्यदेव अपने अँधेरे घर में ही होंगे। वह हड़बड़ी में बुदबुदा रहा है मेरे सामने। वह बेचैन आत्मा।

लेकिन अभी मुझे बच्चों के होम वर्क कराने हैं...। और भी काम है... फिर पत्नी...।

तुम चिरकुट लोगों की तरह बात मत किया करो मुझसे। मैं बहुत बेचैन हूँ। मेरे पास बस आज भर का समय है - मैं अपना काम पूरा कर लेना चाहता हूँ। तुम चलो मेरे साथ...। अभी।

ठीक है तुम यहीं रुको मैं आ रहा हूँ...। मैं उसकी बेचैनी और आवाज की गंभीरता के बीच बेबश हो जाता हूँ।

इस समय मैं कैसे निकलूँगा इस कथाकार के साथ मैं सोचते हुए भारी मन से कपड़े पहनना शुरू करता हूँ। कोई ऐसा बहाना बनाना होगा मुझे कि वह मुझे जाने से रोक न सके। पत्नी किचेन में कुछ बनाने में व्यस्त है।

कहाँ चल दिए आप इस समय - वह मुझे अजीब नजरों से देखती है। मै पत्नी के सामने खड़ा हूँ।

वह मनोज है न उसका एक्सिडेंट हो गया है - वह हॉस्पिटल में है, तो...।

अरे, कैसे हुआ?

यही तो पता नहीं। रितेश जी का फोन था।

मैं उसकी ओर इस तरह देखता हूँ जैसे कह रहा होऊँ कि मैं जाऊँ? मेरे अंदर झूठ बोलने का एक ग्लानिबोध भी है। लेकिन सच कहने पर मैं घर से निकल नहीं पाता, यह मैं अच्छी तरह जानता हूँ।

हुम्म...। कुछ पैसे रख लो, शायद जरूरत पड़े।

वह थोड़ी देर में पाँच हजार रुपये मेरे हाथ में रख जाती है।

जल्दी आना।

मैं बस मिन्नी को देखे जा रहा हूँ। मन होता है कि कह दूँ कि मिन्नी मैं झूठ बोल रहा हूँ, असल में मैं मनोज को देखने नहीं जा रहा वह कथाकार...।

लेकिन मैं चुप रहता हूँ। मुझे फिर से पत्नी की ओर देखने का साहस नहीं होता। सचमुच स्त्रियों को समझना बहुत मुश्किल है - एक तरह से नामुमकिन। मैं सोचते हुए धीरे-धीरे आगे बढ़ जाता हूँ।

वह मेरे इंतजार में दरवाजे पर ही खड़ा है - मुझे आते देख वह सीढ़ियाँ उतरने लगता है और मैं उसके पीछे-पीछे।

सबसे पहले कथाकार मुझे उनके घर लेकर जाता है। मुझे विश्वास नहीं था कि वे इस वक्त अपने घर में मिलेंगे। लेकिन वे घर में ही हैं - जमीन पर कागज के कुछ टुकड़े बिछाए और कंबल ओढ़े वे चुपचाप सोए हुए मिलते हैं। इतनी ठंड तो नहीं कि अभी कंबल ओढ़ने की जरूरत पड़े - मैं कथाकार की ओर मुखातिब हूँ।

इन्हें बुखार है - इनके बदन को छूकर देखो।

अरे विमल बाबू आप क्यों आए। मैं आपके पास ही आने वाला था - वह एक पेंटिंग आपके पास रह गई है।

पेंटिंग?

हाँ, वह आपके टेबल पर छूट गई है रात के अँधेरे में। अभी-अभी रवि दा आया था। वह पूछ रहा था कि मैं मर जाऊँ तो इस पेंटिंग का क्या होगा जो मेरे पूरे जीवन की कमाई है। उसका सवाल भी बाजिब है - मैंने भी कह दिया कि होगा क्या इसे भी मेरी लाश के साथ फूँक देना तुम लोग। और मेरे पिता को खबर मत देना कि मैं मर गया हूँ। मरछिया को भी नहीं। उसके जो लड़के हैं - उन्हें भी नहीं। मेरे साथ और कुछ नहीं तो कम से कम दो तस्वीरें जरूर जला देना। एक मेरी माँ की तस्वीर है और दूसरी...। विमल बाबू बैठिए... यहाँ बैठने की जगह नहीं। बहुत गंदगी है।

मैं उनकी चौकी पर से कुछ कागज हटाकर बैठ जाता हूँ। कथाकार खिड़की के किनारे खड़ा उनकी पेंटिंग देखे जा रहा है। पेंटिंग ही नहीं - छीज गई दीवारें, फुले हुए पलस्तर, सड़ रहे कैनवास, और मिट्टी में धँसते जा रहे संदूक। पता नहीं क्या भरा था उन संदूकों में। पूछने पर सत्यदेव कुछ नहीं कहकर बात को टाल देते थे।

आपको तो बुखार है। कब से है ऐसा? मैं उनकी कलाई पकड़कर उनकी नब्ज टटोलने की कोशिश कर रहा हूँ।

सुबह आकर पास के पुकुर में नहा लिया - खाँसी उसके बाद ही शुरू हुई। पता नहीं ये बंगाली लोग कैसे नहाते हैं उसमें। वहाँ सड़ी हुई मछलियों की गंध है। उसके बाद ही मेरे चारों ओर किसी सड़ी हुई चीज की गंध फैल गई। अचानक ठंड से मेरा बदन काँपने लगा। मैं कंबल ओढ़कर सोया रहा कुछ देर। मुझे लगा कि अब मैं जिंदा नहीं बचूँगा। विमल बाबू अगर मैं मर जाऊँ तो मेरे सारे चित्र मेरे साथ जला देना। यह कैनवास भी और और...।

उन्हें जोर की खाँसी आ गई थी।

कथाकार चुप था। मुझे आश्चर्य हो रहा था कि वह कुछ क्यों नहीं बोल रहा। जबकि वह जबरदस्ती मुझे लेकर आया था सत्यदेव शर्मा के पास। मैंने उसकी ओर देखा।

जाओ पास की दुकान से दवाई लेकर आओ। बिस्कुट का एक पैकेट भी। वह पहली बार बोला था मेरी ओर बिना देखे घर की उस गंदगी में पता नहीं क्या खोजते हुए।

मैं पास की बब्लू की दुकान से दवाई ले आया। सत्यदेव को खिलाया। उन्होंने सिर्फ दो बिस्कुट ही खाए।

आज लगता है विमल बाबू कि मैंने गलती की। मुझे किसी सही नतीजे पर पहुँचना चाहिए था उस समय। पता है आपको जब मैं कंबल के अंदर काँप रहा था - और मुझे लगा कि मेरा दम निकल जाएगा तो मुझे अपनी माँ की याद आई - फिर मयना की याद आई और फिर रिंकी की। और बाद उसके एक वह तीखी गंध जो रिंकी के चले जाने के बाद और गहरी हो गई थी। वह जब तक थी मेरे अंदर की उदासी को सोखती रही और जब गई तो उदासी का एक समंदर छोड़ गई।

वे अपने आप बोले जा रहे थे। मैं चुपचाप सुनता कभी उनकी ओर और कभी सतर्क हो गए कथाकार की ओर देखे जा रहा था। थोड़ी देर बाद उन्होंने कंबल को शरीर से उतार दिया - वे पसीने से भीग गए थे। शायद बुखार उतर चुका था। उन्हें शायद पानी की जरूरत थी - उनके सिरहाने मिट्टी की एक कलसी रखी हुई थी और मिट्टी के ही ढकने के ऊपर प्लास्टिक का एक गिलास था। उन्होंने कलसी से पानी निकाला और गटागट पीते चले गए।

उनसे आगे की कथा के बारे में पूछो - कथाकार की गंभीर आवाज मेरे कानों में टकराई।

तुम कैसे इनसान हो, एक आदमी बीमार है और तुम्हें कथा की पड़ी है? मैं लगभग विफर पड़ता हूँ।

मुझे उनकी हालत पर तरस आ रहा था - मैं कहना चाहता था कि साधुखान आप आराम करें। उनके पास दवाइयाँ और कुछ खाने के लिए रखकर मैं जल्दी अपने घर पहुँचना चाहता था। और थोड़ी देर बाद मेरे फोन का मोबाइल बजना शुरू ही करने वाला था। पत्नी को और अधिक झूठ बोलने की नौबत से बचने के लिए मैं जल्दी घर वापिस लौट आना चाहता था...। मैंने मोबाइल निकाल कर उसे एक बार चेक किया - 9 बजकर 11 मिनट हो रहे थे।

पूछो...। कथाकार की यह दूसरी आवाज थी जो पहले से अधिक तेज थी। और मोबाइल का स्वीच ऑफ करो। यहाँ कोई नाटक नहीं चल रहा है।

मैं कथाकार की ओर बेबस नजरों से देखता हूँ और सत्यदेव के संयत हो जाने का इंतजार करता हूँ।

यह तस्वीर आपने बहुत अच्छी बनाई है - मैं रिंकी सेन की तस्वीर को देखते हुए कहता हूँ, वह तस्वीर टेबल पर ही पड़ी हुई मुझे मिल गई है।

हाँ पहली बार जब उसके घर गया था तब बनाई थी। मैं नहीं बनाना चाहता था लेकिन उसकी जिद थी। यह चाँद वाली बिंदी देख रहे हैं - वह हमेशा इसी तरह की बिंदी लगाती थी। मुझे पता नहीं किस समय उसके और मेरे सपने जुड़कर एक हो गए थे। हमारे सपने में हमारी बनाई हुई तस्वीरों की प्रदर्शनी उस समय विश्व के किस कोने में नहीं लगी। कितनी पेंटिंग्स लाखों रुपये में बिकी और खूब पैसे आए। उस दौरान हम दोंनों खूब-खूब अमीर थे विमल बाबू। वह हमारे सपनों का समय था - ऐसा लगता था कि वह टूटेगा ही नहीं। लेकिन वह टूटा...।

उनकी आँखें कातर होकर रिंकी की तस्वीर पर टिक जाती है - वे उस तस्वीर को सहलाना चाहते हैं - बार-बार उनके हाथ उस तस्वीर तक जाकर वापिस लौट आते हैं।

यह तस्वीर कब बनाई थी? यह कथाकार है।

कब बनाई यह तस्वीर? मैं पूछता हूँ।

बता रहा हूँ विमल बाबू...। आप तपन से कहिए न वह चाय ला देगा। मेरी बात नहीं सुनेगा - मेरी बात कोई नहीं सुनता यहाँ। सब समझते हैं कि मैं पागल हो चुका हूँ। आप कहेंगे तो वह ला देगा।

मैं तपन को आवाज देता हूँ। एक गंदा-सा लड़का आकर दरवाजे पर खड़ा हो जाता है - मैं उसे चाय के पैसे दे देता हूँ। वह लगभग दौड़ता हुआ दरवाजे से ही वापिस चला जाता है।

तो यह तस्वीर आपने उसके घर में बनाई थी। उसके घर में और भी तो लोग रहते होंगे।

हाँ, उसके पिता थे, माँ थी। पिता कभी-कभी आते थे। शायद अमेरिका में रहते थे। बहुत बड़ा बंगला था बालीगंज सर्कुलर रोड पर। बड़ा-सा लॉन। कई गाड़ियाँ लगी रहती थीं। आज सोचता हूँ तो लगता है वह मैं ही था जिसे इतने बड़े घर की लड़की ने इतना महत्व दिया? क्या था मेरे अंदर दुख और उदासी के सिवा और कुछ धूसर रंगों के सिवा? और उन रंगों से बनी तस्वीरें चमकती नहीं थी - एक अजीब किस्म की उदासी में डूबी हुई थीं।

यह पहली तस्वीर है जो हँस रही है। इसके माथे की बिंदी चमक रही है। पता नहीं कितने समय से यह ऐसे ही हँस रही है - देखिए मेरे चेहरे पर उदासी की कितनी परतें चढ़ गईं लेकिन यह तस्वीर है कि हँसे जा रही है - लगातार और बेपरवाह।

तपन बीच में चाय देकर जा चुका है। सत्यदेव चाय पीते-पीते अतीत की किसी गहरी सुरंग में समाते चले जा रहे हैं। मेरा मोबाइल बंद हो चुका है। कथाकार सतर्क होकर बैठ चुका है और सत्यदेव बुदबुदा रहे हैं लगातार... अविरल... कभी हँसते कभी रोते कभी गुस्से में। उस गंदे और मद्धिम अँधेरे घर में पुराने चित्रों और सड़ रहे कैनवासों के बीच जैसे अपने अंदाज में एक चित्रकार रोमांस कर रहा है।

 

कथाकार का नोट

अगर मैं सत्यदेव की बुदबुदाहट और इस चिरकुट लेखक के फेर में पड़ूँगा तो कथा का कुछ नहीं होना है - सत्यदेव मरीज हो चुके हैं शायद उनके दिमाग में कोई समस्या है। इस तरह के मरीज कई होते हैं जो रोते-रोते हँसने लगते हैं और हँसते-हँसते रोने लगते हैं। वे चुपचाप अकेले में कुछ बुदबुदाते रहते हैं। इस कथा में चित्र महत्वपूर्ण नहीं, प्रेम महत्वपूर्ण नहीं वह संवेदना महत्वपूर्ण है जो धीरे-धीरे मनुष्य के अंदर से मिटती जा रही है और वह एक ऑर्गेनिक जीव में बदलता जा रहा है।

यह एक बेतरतीब कथा है और इस कथा को सत्यदेव के दिमाग की तरह बेतरतीब ही होना है। मेरा यह अंतिम दिन है और कथा के सारे बिंदुओं को एक जगह पर लाकर उसे समाप्ति की ओर ले जाना है। नहीं, समाप्ति की ओर नहीं एक नई शुरुआत की ओर। मुझे नहीं पता कि क्या हुआ था कि क्या होगा? यह सबकुछ सत्यदेव शर्मा के ऊपर निर्भर है - वे ही असल में इस कथा के नायक सूत्रधार सब कुछ हैं। तो उनसे ही सुनते हैं कि वे क्या कह रहे हैं। कथा को किसी और दिशा में मुड़ जाने से रोकने के लिए मैं यहीं हूँ आपके साथ-साथ। वे बोल रहे हैं कुछ... सुनिए...

दूसरी बार जब मैं उसके घर गया था तब तक हम और करीब आ चुके थे। वह मेरा हाथ पकड़ कर चौरंगी के फुटपाथों पर भटक चुकी थी। हम विक्टोरिया से लेकर सेंट्रल पार्क तक घूम चुके थे - इस बीच मुझे याद नहीं आता कि अकादमी ऑफ फाइन आर्ट और नंदन आर्ट गैलरी का कोई भी एक्जिविशन हमने छोड़ा हो। हम हर प्रदर्शनी में मौजूद रहते। घंटों हमारी बात पेंटिंग की बारिकियों पर होतीं। कई बार हम लड़ भी पड़ते लेकिन साथ रहते और सपना देखते कि हमारे चित्रों की भी प्रदर्शनी इसी तरह लगेगी।

उसने ही मुझे एस्पलेनेड की एक बड़ी दुकान से मुस्टैच का एक जिंस और पावर का एक टी शर्ट खरीद कर दिया था। मेरे चेहरे की गँवई धूल अब कम होने लगी थी। मेरे अंदर शहर का एक जाना-पहचाना रंग उभरना शुरू हो गया था। मैं उस दिन उसी के दिए हुए कपड़े पहनकर उसके घर गया था।

हमने साथ में खाना खाया। मैंने देखा कि वह अपने माँ और पिता से बांग्ला और अँग्रेजी में बात कर रही थी। मेरे थाली में पाब्दा मछली परोसी गई थी - जिसे मैं ध्यान से देखे जा रहा था। रिंकी को पता था कि मैं वेजिटैरियन हूँ और हमने यह तय कर लिया था कि हमारी शादी के बाद या तो मैं नॉनवैजिटैरियन हो जाऊँगा या वह वैजिटैरियन हो जाएगी।

लेकिन यह मछली? मैंने रिंकी की ओर देखा।

अरे बेटा यह हम लोग गेस्ट लोगों को देता है। तुम मत खाना। लेकिन उसे देना हमारा कर्तव्य है।

रिंकी की ओर से उसकी माँ थी। उनकी उम्र ज्यादा नहीं लगती थी। बाल सफेद नहीं हुए थे और चेहरे पर जवान लोगों की तरह की कांति थी। उसके पिता मुझे अपेक्षाकृत अधिक बूढ़े लगे थे।

उस दिन उसने मुझे अपनी पेंटिग्स दिखाई थी। वे सारी जो उसने बचपन से अब तक बनाए थे। उसमें कई पेंटिंग किसी घोड़े पर बैठे राजकुमार के थे। और हर तीसरी पेंटिंग में वह राजकुमार आता था।

वह राजकुमार कहाँ है - तुम्हें मिला?

राजकुमार... हाँ, समझो मिल गया लेकिन वह घोड़े पर सवार होकर नहीं आता - पैदल आता है। उसके बाल बिखरे रहते हैं - कमीज थोड़ी गंदी रहती है लेकिन वह है सचमुच का राजकुमार। वह थोड़ा शर्मीला है और बुद्धू भी। दिल की बात नहीं समझता।

वह धीरे-धीरे मेरे करीब आकर बैठ गई थी और अपने चेहरे को मेरे चेहरे के करीब ले आई थी। मेरे दिल के अंदर एक तूफान-सा उभरा था उस समय और किसी अदृश्य शक्ति के वशीभूत दो जोड़े होंठ एक-दूसरे से जुड़ गए थे। कुछ ही देर में तस्वीरों के ऊपर दो बदन थरथरा रहे थे।

तुम्हारे माता पिता? माँ आ सकती है छोड़ो - मैंने होश में आते हुए कहा।

वे चले गए हैं, उन्हें आज मासी के घर जाना है। पापा कल अमेरिका वापिस लौट रहे हैं। वह हमें भी ले जाना चाहते हैं। घर में सिर्फ नौकर हैं - वह अब भी नशे में थी।

तुम चली जाओगी अमेरिका? मेरा शरीर ठीला पड़ गया था।

तुम्हें छोड़कर मैं कहीं नहीं जाऊँगी। मैंने पापा को साफ-साफ कह दिया है। उसने मुझे और अधिक मजबूती से पकड़ लिया।

मैं बहुत गरीब हूँ। मेरे पास रहने की जगह नहीं। एक कोना है जो खैरात में मुझे मिला है।

तुम्हारे पास हुनर है। तुम्हारी पेटिंग जब बिकनी शुरू होगी तब तुम गरीब नहीं रह जाओगे। जानते हो एम.एफ. हुसैन भी बहुत गरीब थे - लेकिन आज उनकी पेंटिंग लाखों में बिकती हैं।

वह होने में अभी बहुत समय है मेरी रिंकी, मेरी दोस्त। फिलहाल तो मेरे पास कुछ नहीं।

और मैं...?

हाँ तुम हो...। तुम चली जाओगी तो मेरे पास का यह हुनर भी चला जाएगा।

मैं कहीं नहीं जाऊँगी मेरे राजकुमार...। आओ मेरे करीब आओ...। उसने फिर से अपने तपते हुए होंठ मेरे होंठों पर रख दिए थे।

मुझे याद है मेरे हाथ अनायास ही उसके नीवि बंधन की ओर चले गए थे। उसने कोई विरोध नहीं किया। मुझे याद नहीं कि उस दिन और क्या हुआ था। एक समंदर की लहर आती थी और तटों से टकराकर वापिस लौट जाती थी। यह क्रम पता नहीं कितनी देर तक चलता रहा था - बीच इसके दर्द की एक झीनी सिसकी थी जो उभरती थी और कुछ लम्हा बाद गायब हो जाती थी और देह का एक मद्धिम संगीत बज रहा था जिसे सिर्फ हम दोनों ही सुन पा रहे थे। मैं कैनवास पर कूँची से रंग भर रहा था - एक तस्वीर जो हिल रही थी - काँप रही थी और अपने दैवीय रूप में रंगों के बीच पवित्र हो रही थी, उसी तस्वीर के बीच मैं तस्वीर की शक्ल में जा मिला था। दो तस्वीरें साथ मिलकर एक तस्वीर हो गई थीं और पूरी दुनिया में एक असंभव किस्म का रंगीन उजाला फैल गया था। बहुत देर के लिए... और शायद उस एक खास वक्त में सदियों के लिए...।

उस दिन और कुछ खास भले न हो मेरे लिए लेकिन मैं उसके और करीब आ गया था - उसके साथ होने की लालसा कुछ और बड़ी होकर मेरे भीतर कहीं बैठ गई थी। उस दिन जब मैं लौट रहा था तो मेरे पैरों में एक अजीब तरह की रफ्तार थी बार-बार हृदय के भीतर कुछ पिघलता था और वह मुझे और अधिक आत्मविश्वास से भरे दे रहा था। मेरे चलने में उस दिन एक विजेता का तेवर था। उस रात जब मैं अकेले कमरे था, तब सैफू आया था - उसके चेहरे पर हँसी चमक रही थी। उसने कुछ कहा नहीं मुझसे। मेरे सामने देर तक खड़ा वह मुस्कुराता रहा। उसके चले जाने के बाद मैना आई थी - उसके चेहरे पर एक सुकून था जैसे कह रही हो कि यह रिंकी सेन कोई और नहीं यह मैं ही हूँ। वह खुश थी। लेकिन जब वह जाने लगी तो बेहद उदास हो गई - जैसे वह हमेशा के लिए जा रही हो कि वह फिर कभी लौटकर नहीं आने वाली। मैं हाथ उठाकर उसे आवाज देता रहा था देर तक - उसे पुकारता रहा था लेकिन वह रुकी नहीं, तेज कदमों से चलती हुई अँधेरे में तिरोहित हो गई थी।

दूसरे दिन रिंकी से नहीं मिल सका। तीसरे दिन मिलने का वादा था। मैं तय समय पर लेक गार्डेन पहुँच गया था। मैं बिरला अकादमी के गेट के सामने खड़ा कुछ देर इंतजार करता रहा। वह रविवार का दिन था और उस दिन अकादमी बंद रहती थी। मैं कुछ देर अकादमी के दसमंजिली इमारत को देखता रहा फिर वापिस लेक गार्डेन पहुँच गया और उस लंबी-चौड़ा झील के किनारे एक पेड़ के नीचे घास पर बैठ गया। वह अब तक नहीं आई थी। क्या हुआ क्यों नहीं आई - मेरे अंदर हल्की-सी बेचैनी की एक लहर उठी थी जिसे मैंने दबा दिया।

मैंने अपने झोले से एक पेपर ओर पेंसिल निकाली और कुछ लकीरें खींचने लगा। मेरे अंदर उस समय सिर्फ रिंकी का ही खयाल था। मैंने कल्पना कर लिया कि वह मेरे सामने बैठी है और मैं उसकी तस्वीर आँक रहा हूँ।

क्या कर रहे हो? पीछे से आई आवाज उसी की थी। मैंने अपनी नजरें ऊपर उठाई। वह आ चुकी थी। वह आते ही मेरे पास बैठ गई यह परवाह किए बिना कि उसके कपड़े खूब साफ धुले हुए हैं।

देखें क्या बना रहे हो? उसने शरारत से मेरी ओर देखा और मेरी बनाई पेंटिंग मुझसे छीनने लगी। मैंने विरोध नहीं किया। और चुपचाप वह तस्वीर उसे छीन लेने दिया।

अरे यह कौन है, इसकी नाक टेढ़ी है। ओह पेंटर साहेब, लगता है यह कोई नई प्रेमिका है आपकी।

अरे नहीं, यह तस्वीर...। मैं उसकी बातों से झेंप गया था।

उस दिन वह बहुत सुंदर लग रही थी। उसके चेहरे पर एक अलग तरह की कांति थी - काजल के रंग बहुत गहरे थे और उसकी चाल में एक अल्हड़पन था।

हम बालीगंज के फुटपाथ पर चल रहे थे। वह आगे-आगे ऐसे चल रही थी जैसे नृत्य कर रही हो - साथ में कोई एक गीत भी गुनगुनाती जा रही थी - जो सलिल चौधरी के किसी बांग्ला फिल्म की थी। मैं उसे सम्मोहित होकर देखे जा रहा था और यह सोच रहा था कि यह भी कैसा संयोग है कि यह इतनी सुंदर लड़की - सुंदर और अमीर - मेरे जैसे फटेहाल और देहाती आदमी के पीछे इतनी क्यों पागल है - इसने मेरे अंदर ऐसा क्या देख लिया है कि उसके चलने में एक नृत्य पैदा हो रहा है। यह सोचते हुए मैं उसे हृदय से धन्यवाद भी दे रहा था कि उसने मेरे गमगीन जीवन में रोशनी के नवीन कतरे बिखेरे हैं।

वह चलते-चलते एक जगह रुक गई है - फुटपाथ पर बने एक चबूतरे पर वह बैठ गई है और उसने मुझे भी बैठा लिया है अपने पास। कई आते-जाते लोग हमें अजीब नजरों से देखते हुए गुजर जाते हैं लेकिन वह इन सबसे बेपरवाह मेरे पास एकदम चिपटी हुई बैठी है। उसकी आँखों में उस समय प्यार की एक नदी उतर आई है जिसे देखकर मेरे हृदय को असीम सुख मिल रहा है। वह बैठे-बैठे अचानक उद्वेलित हो उठती है और मुझे अपनी बाँहों में भर लेती है। मुझे उस समय अजीब-सी झेंप और शर्म आती है क्योंकि आस-पास लोग हैं। मैं कुछ क्षण उसे ऐसे ही रहने देता हूँ फिर उसे अपने से अलग कर देता हूँ - झटके से नहीं बहुत ही प्यार और आत्मियता से।

क्या हो गया है तुम्हें आज? मेरे स्वर में गहरा स्नेह है।

पता नहीं लेकिन, मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकती। वह एक जिद्दी बच्चे की तरह मचलती आवाज में कहती है।

मैं कहना चाहता हूँ कि मैं भी तुम्हारे बिना नहीं रह सकता कि यह कहकर तुम मेरे ऊपर कितना उपकार कर रही हो - तुम्हें नहीं पता। लेकिन मैं चुप रहता हूँ और उसे सिर्फ देखे जा रहा हूँ।

चलो अब यहाँ से, लोग देख रहे हैं। मैं उसे एक हल्का-सा धक्का देता हूँ कि वह वहाँ से उठ जाए, लेकिन वह वहीं बैठी रहती है।

चलो, अब लोग देख रहे हैं और देर भी हो रही है - मैं इस बार उठकर खड़ा हो जाता हूँ।

तुम मुझे छोड़कर तो नहीं जाओगे न?

नहीं...।

कभी नहीं...?

कभी नहीं...।

वादा...? वह अपना हाथ आगे कर देती है।

वादा। मैं उसके हाथ पर हाथ रख देता हूँ।

मेरे पापा मुझे अमेरिका ले जाना चाहते हैं। लेकिन मैं सोचती हूँ कि वहाँ जाकर आखिर मैं करूँगी क्या? एक ऐसा देश जो मेरे लिए अजनबी है - उसकी हवा-पानी और मिट्टी तक मेरे लिए अजनबी होगी। मैं वहाँ कैसे रह पाऊँगी। फिर अब तुम हो मेरे साथ। मैं चाहती हूँ कि हमारे और तुम्हारे बनाए हुए चित्रों की एक प्रदर्शनी नंदन के बड़े आर्ट गैलरी में लगे। मैं यहीं इसी जमीन पर, अपने देश की मिट्टी में रहना चाहती हूँ सत्यदेव। अगर मैं कहीं जाऊँ भी तो तुम मुझे जाने मत देना। नहीं जाने दोगे न?

बोलो न, तुम इतने चुप क्यों रहते हो? नहीं जाने दोगे न?

हाँ, बाबा नहीं जाने दूँगा। मैं कह तो देता हूँ लेकिन मुझे उस समय बड़े पिता और बड़ी माँ का चेहरा याद हो आता है - लेकिन मैं मन ही मन संकल्प करता हूँ कि चाहे कुछ भी हो जाए मैं रिंकी से अलग नहीं हो पाऊँगा।

मैं शिद्दत से उससे कहना चाहता था - कहना नहीं पूछना चाहता था कि अगर तुम चली गई तो, लेकिन मैंने कुछ नहीं कहा और उसे देर तक खड़ा बस देखता रहा।

हम उस दिन काफी देर तक बालीगंज सर्कुलर रोड के फुटपाथों पर टहलते रहे - ऐसा लग रहा था कि जैसे हम कभी थकेंगे ही नहीं। हमारे हर कदम हमें एक-दूसरे के और-और नजदीक लाते जा रहे थे - मुझे ऐसा लग रहा था कि मैं कोई बहुत सुंदर सपना देख रहा हूँ जो कभी भी टूटने वाला नहीं।

जब रात के दस बजने को हुए तो हमें लगा कि अब हमें अपने-अपने घर की ओर लौटना चाहिए। मुझे याद है उसने मुझे हावड़ा आने वाली बस में चढ़ा दिया था और बस के खुलने का इंतजार करती रही थी - जब बस चली तो उसके हाथ हिलने लगे थे - बहुत देर तक मैं उसके हिलते हुए हाथों को देखता रहा था और उसके चेहरे की उन मासूम लकीरों को जो मुझे लौटते देखकर बन और बिगड़ रहे थे।

तब मुझे नहीं पता था कि वह हमारी आखिरी मुलाकात थी - कि मैं अंतिम बार उसके इतने करीब था कि उसके हिलते हुए वे हाथ और बनते-बिगड़ते हुए चेहरे के रंग मुझे बहुत दिनों तक मेरा सोना हराम करने वाले हैं।

उसने वादा किया था कि वह मुझे छोड़कर कभी नहीं जाएगी।

लेकिन वह चली गई। सत्यदेव कमरे की दीवार के कोने में चिपक गए थे मानों दीवार का वह कोना कोई सुरंग हो और वे उसमें समा जाना चाहते हों।

चली गई? कब और कहाँ चली गई? मैं पूछता हूँ।

पता नहीं, जब मैं आखिरी निर्णय लेने के बाद बालीगंज के उसके बंगले पर पहुँचा तो वह जा चुकी थी। उस बूढ़े दरबान को मैं पहचानता था जिसने मुझे बताया की बेबी तो अमेरिका चली गई। लेकिन विमल बाबू इसमें उसकी कोई गलती नहीं थी। मैं ही देर से पहुँचा था। मुझे निर्णय करने में बहुत देर हुई।

क्या निर्णय करने में? मैं लगभग चीखते हुए पूछता हूँ।

मेरे बड़े पिता ने शादी तय कर दी थी। और लड़की वालों से गहने, कपड़े और पैसे ले लिए थे - मुझे उसी दौरान सूचना दी थी। यह एक ऐसी कथा है विमल बाबू जो लगभग घिस और पिट चुकी है - फिल्मों ने इसे सबसे ज्यादा पीटा है - सैफू की बहुत याद आती रही मुझे उन दिनों। पता है इतनी शिद्दत से मुझे उसकी कभी याद नहीं आई थी।

पिता का मैंने विरोध किया - यह कहकर नहीं कि मुझे कोई दूसरी लड़की पसंद है - यह कहने का साहस मेरे अंदर तब भी विकसित नहीं हुआ था - बल्कि यह कहकर कि अभी मैं शादी नहीं करना चाहता कि मैं पेंटिंग में कुछ करना चाहता हूँ और आगे।

पिता ने शर्त रख दी कि मेरे घर में रहना है तो मेरी बात माननी होगी। दो तीन दिनों तक मैंने इंतजार किया कि पिता शांत हो जाएँगे लेकिन उनकी अवाज तेज से तेजतर होती गई। फिर एकदिन मैंने अपने कपड़े और अपनी पेंटिंग और पेंटिंग से संबंधित किताबें निकाली और घर से बाहर निकल आया। पिता घर में चुपचाप खड़े रहे - बड़ी माँ रोकती रहीं - रोती रहीं लेकिन पिता शांत। मैं उस दिन घर से बाहर निकला तो फिर वापिस नहीं गया।

हमारी परीक्षाएँ हो चुकी थीं। रिंकी के साथ मेरे लगभग तीन साल के संबंध थे। मुझे घर से निकल कर रिंकी को सूचना देनी थी लेकिन मैंने नहीं दी। दो दिन तक मैं रवि दा के साथ फुटबॉल एसोसिएशन ऑफ बंगाल के ऑफिस में था। मैं तब तक ट्यूशन पढ़ाता था और अपने छोटे-मोटे खर्च निकाल लेता था। लेकिन रहने के लिए मुझे एक घर की जरूरत थी। रवि दा शराब पीकर आता था कई बार कई लोग उसी घर में शराब पीते और मुझे बाहर जाकर बैठना पड़ता - वे लोग मुझे अजीब निगाह से घूरते थे और मुझ पर हँसते थे।

रवि दा अब तक पार्टी का एक्टिव मेंबर हो चुका था वह अब भी अश्लील चुटकुले सुनाता था - उसके घर में देर रात गए पार्टी की मिटिंग चलती थी। वहाँ रहकर मुझे अजनबीयत सा महसूस होता। रिंकी के साथ तीन साल रहते हुए मेरी सोच और रहन-सहन में बहुत फर्क आ चुका था। प्रेम आपको कितना आत्मकेंद्रित और घरेलू बना देता है।

तो फिर आप इस घर में चले आए? मेरा एक स्वाभाविक सवाल था।

नहीं, उसके बाद मैं अमर सिंह के साथ रहा। मेरे बाबा के शिष्य थे अमर सिंह। उन्हें जब पता चला तो वे मेरे पास आए और अपने घर लेकर गए।

और रिंकी? उससे नहीं मिले आप?

एक दिन जब उसकी बहुत याद आई तो मैं बालीगंज सेर्कुलर रोड पहुँचा। वहीं पर उसका बंगला था। वहाँ बूढ़ा दरबान था - उसने देखते ही मुझे पहचान लिया। मैं अंदर जाना चाहता था लेकिन उसने बताया कि सारे लोग चले गए।

चले गए...?

ऐसा कैसे हो सकता है - रिंकी भी?

हाँ बेबी भी चली गई...। रुकिए उसने कुछ दिया है - जाते हुए कहा था कि आप आएँ तो मैं दे दूँ...।

उस दिन मुझे लगा कि मुझे किसी ने एक तेज धार वाली नदी में फेंक दिया है - एक आँधी से भरी काली रात है - मैं अपने जीवन को बचाने के लिए चिल्ला रहा हूँ लेकिन मेरी आवाज कहीं भी पहुँच नहीं पा रही है।

वह चली गई थी विमल बाबू...। मुझे यकीन नहीं हो रहा था लेकिन वह सचमुच चली गई थी।

सत्यदेव लंबी-लंबी साँसें लेना शुरू कर देते हैं।

क्या रख के गई थी वह लड़की। क्या था उसमें...? कथाकार उनकी बातें सुनते हुए मेरे करीब आ चुका है।

पूछो, इनसे पूछो क्या था वह जिसे वह लड़की इनके लिए छोड़ गई थी - कथाकार की फुसफुसाहट अब एक गंभीर आवाज में बदल चुकी थी।

सत्यदेव की साँसें तेज हो गई हैं - उन्हें जोर की खाँसी आ रही है। मैं कथाकार की बातों को अनसुना कर उन्हें एक गिलास पानी देता हूँ। वे अपने काँपते हाथों से पानी का गिलास थाम लेते हैं। मुझे पहली बार इस कथाकार पर तेज गुस्सा आता है - एक आदमी हैरान परेशान है - बीमार है और यह है कि कथा के पीछे पड़ा हुआ है।

तुम्हारे अंदर इनसान का दिल नहीं है? कैसे हो यार तुम...? तुम जाओ यहाँ से। कथा को गोली मारो - जाओ यहाँ से। यह आदमी बीमार है लेकिन तुम्हें कथा की पड़ी है।

कथाकार मुझे गहरी आँखों से देख रहा है। वह पीछे मुड़ता है और फिर से सत्यदेव की बनाई पेंटिंग्स में खो जाता है जैसे कह रहा हो कि तुम जो चाहे करो अब मुझे परवाह नहीं और तुम हो तभी मैं हूँ कि मैं तुम्हारे अंदर की ही एक आवाज हूँ जो तुम्हारे साथ रहने के लिए चला आया है।

विमल बाबू... तुम जाओ। बहुत रात हो गई है - देखो चारों ओर फिर से वही गंध फैल रही है। थोड़ी देर में यहाँ रहना मुश्किल जो जाएगा। यह सपनों के जल जाने की गंध है... यह वह गंध है जो मयना के आग में जलने के समय पैदा हुई थी - यह सैफू के शरीर के सड़ जाने की बदबू है विमल बाबू। यह रिंकी सेन के शरीर से हर समय आने वाली एक खुशबू के अचानक बदबू में बदल जाने की बू है। मुझे कंबल के अंदर दुबक जाने दीजिए...। सिर दर्द से फटा जा रहा है - वो देखिए वह बूढ़ा दरबान खड़ा है - उसे अंदर आने दीजिए।

मैं आश्चर्य से दरवाजे की ओर देखता हूँ। वहाँ कोई नहीं है।

तरुण दा के आदमी एक दिन मेरी सारी तस्वीरें चुरा कर ले जाएँगे। इनका एक्जिविशन लगेगा। लाखों रुपये में बिकेंगी ये तस्वीरें। रवि दा ठीक कहता है तरुण बहुत शैतान मनुष्य है - चोट्टा है वह। वह कमरेडों के साथ घूमता है - कुछ भी करवा सकता है। जब कमरेड लोग भाषण देते हैं तो वह मंच पर चुपचाप बैठा रहता है। चुनाव होने वाला है - मेरा कार्ड बक्से के अंदर है - मैंने छुपाकर रक्खा है। इस बार इन हरामियों के कहने से वोट नहीं दूँगा। मैं अपनी मर्जी से वोट दूँगा इस बार...। तुम जाओ विमल बाबू इस बूढ़े दरबान को अंदर आने दो।

मैं कथाकार की ओर प्रश्न भरी आँखों से देख रहा हूँ। वह धीरे-धीरे चहलकदमी करता हुआ दरवाजे के बाहर आ जाता है - मैं भी पीछे। सत्यदेव चौकी के नीचे कंबल ओढ़े किसी मुर्दे की तरह लग रहे हैं।

मैं मोबाइल ऑन करता हूँ। रात के डेढ़ बजने वाले हैं। बहुत दूर कहीं से एक टूटती-जुड़ती हुई लय कानों तक चली आ रही है - बेहद करीब - आजि झोड़ेर राते तोमार अभिशार, परान सखा बंधु हे आमार...।

रवींद्रनाथ ने अपनी किसी प्रेमिका के लिए यह गीत लिखा होगा। कथाकार मेरी ओर देखकर मुस्कुराता है।

मुझे बहुत पहले की लिखी अपनी ही एक कविता याद आ जाती है -

जहाँ चुप रहने की जरूरत
चुप रहूँ
बोलने की जरूरत जहाँ
बोल सकूँ बेधड़क
इस तरह मैं
सच को सच
और झूठ को झूठ बोलूँ
और इस तरह बोलने और चुप रहने पर कोई शर्म न हो...।

मैं एक सिगरेट निकालकर होंठो पर रखता हूँ - माचिस को टटोलता हुआ मेरा पूरा ध्यान कथाकार पर है। वह बहुत धीमे और गंभीर कदमों से आगे बढ़ रहा है - उसे शायद इस बात का अफसोस है कि आज भी कथा के तार खुलते-खुलते कहीं उलझ गए। शायद वह मेरे जैसे लिजलिजे और दब्बू लेखक के साथ रहना नहीं चाहता है - मैं उसकी ओर एक सिगरेट बढ़ा देता हूँ। वह बिना किसी विरोध के सिगरेट ले लेता है। कथा के बीच में धुआँ-धुआँ सा फैलता जा रहा है - वह शायद अभी जाने के मूड में नहीं है।

 

रात के डेढ़ बजे अपनी पत्नी और बच्चों से दूर सुनसान सड़क पर मैं सिगरेट फूँक रहा हूँ। कथाकार को यह दिखाते हुए कि देखो जितना डरपोक और लिजलिजा तुम मुझे समझते हो उतना मैं हूँ नहीं।

लेकिन शायद उसे किसी बात की फिकर नहीं। उसे फिकर है दास्तान-ए-सत्यदेव की - और वह इस फिक्र को धुएँ में उड़ाने के बिल्कुल मूड में नहीं है। इतने दिन से वह मेरे साथ है - मैं उसके लक्षण अब पहचानने लगा हूँ। वह जरूर अभी कहीं नहीं जाएगा - यह घर तक मेरा पीछा करेगा और बड़-बड़ करता हुआ अपना आखिरी नोट मुझे देकर जाएगा।

और वह सचमुच मेरे पीछे पीछे मेरे घर तक आता है। मैं उसे जाने के लिए नहीं कहता। शायद मैं भी यही चाहता हूँ कि वह मेरे साथ आए।

मैं डुप्लीकेट चाबी का इस्तेमाल कर दरवाजा खोलता हूँ और घर में दाखिल हो जाता हूँ और वह मेरे पीछे-पीछे। पत्नी और बच्चे बेसुध सो रहे हैं - मैं मोबाइल चेक करता हूँ पत्नी के पता नहीं कितने मिसकॉल पड़े हुए हैं - कल के दिन के बारे में सोचकर मेरी रूह काँप जाती है। कहीं मेरा नंबर न मिलने पर उसने रितेश को फोन न कर लिया हो। यदि ऐसा हुआ तो मेरे झूठ पर से पर्दा उठ गया होगा और अब मेरी खैर नहीं...।

कथाकार को इससे कुछ लेना-देना नहीं। वह आराम से आकर एक चेयर पर बैठ चुका है। और मेरी डायरी में कुछ लिखने लगा है।

कथाकार का नोट

यह कथा का अंतिम पड़ाव है लगभग। लगभग इसलिए कि कथा का कोई अंत नहीं - यह कथा यहाँ ठहर जाएगी लेकिन इस जगह से इतर वह चलती रहेगी। जैसे जीवन को आप बाँध नहीं सकते - मतलब उसके साथ जुड़े समय को - वैसे ही कथा को भी बाँधने की हर कोशिश आपकी बेकार ही होगी।

सत्यदेव ने भी अपने दोस्त सचिन खन्ना की तरह देश-विदेश में अपनी पेंटिग्स के एक्विविशन के सपने देखे होंगे - वह सपना जरूर रिंकी सेन के साथ जुड़ा हुआ होगा। एक कलाकार को चाहे वह पेंटर या चाहे लेखक हो, उसके पास अपनी कला को लेकर सपने तो होते ही हैं - सबसे बड़ा सपना कला होती है लेकिन एक और सपना जो साथ में चुपके से सेंध लगाकर आ जाता है - वह है कला का लोगों तक पहुँचना। अगर कला को आप प्रोफेशन बनाना चाहाते हैं तो जाहिर है उसकी बदौलत आप रोटी-दाल के जुगाड़ का सपना भी देख रहे होते हैं।

सपने सत्यदेव के पास भी थे - वे सपनों का जिक्र नहीं करते ये अलग बात है। वह सपने उनके एक-एक मरे और उन्होंने अपने चित्रों के साथ एक-एक उन्हें दफ्न किया। जिस घर में वे रहते हैं वह दरअसल उनका घर नहीं, उनके अपने सपनों की समाधि है - उनके सहारे ही रहने और जीने की कला उन्होंने विकसित कर ली है शायद।

यदि अभी मैं चला गया तो यह चिरकुट लेखक कथा के सूत्रों को छोड़कर सत्यदेव की तीमारदारी में लग जाएगा - करे यह तीमारदारी यह कोई बुरी बात नहीं है लेकिन कथा के सूत्र जो चल पड़े हैं तो बिना एक खास जगह पहुँचाए मेरा जाना नहीं हो पाएगा - इसलिए फिलहाल कुछ दिनों के लिए मैं कहीं नहीं जाऊँगा।

मुझे अभी इस लेखक से बात करनी होगी - वह भयभीत है - शायद उसकी पत्नी को उसके झूठ का पता चल गया है। वह कोई और अच्छा बहाना ढूँढ़ रहा है जो उसकी पत्नी के गुस्से को कम कर सके।

तुम अब जाओ। इससे पहले कि पत्नी जग जाए - सुबह जल्दी उठना होगा। बच्चों को स्कूल के लिए तैयार करना, टिफिन पैक करना। बेल्ट और जूते पहनाना। बहुत सारे काम हैं जो मुझे करने हैं। और तुमने यह क्या लिखा है - इसे अपने साथ लेकर जाओगे?

यह तुम्हारी सुविधा के लिए है। कथा के सूत्र अभी बाकी हैं - मैं कल आऊँगा। तुम जब कहो।

कल मत आओ।

क्यों?

अभी वह आदमी बीमार है, उसे ठीक हो जाने दो।

वह तो बहुत दिनों से बीमार है महोदय। आपको क्या लगता है कि वह सामान्य मनुष्य है? कोई भी कलाकार सामान्य मनुष्य नहीं होता।

कल जाकर एक बार देख लेना कि उनकी तबियत कैसी है। मैं शाम को आऊँगा। तुम्हारे दफ्तर से आने के बाद।

नहीं कल नहीं। अभी कल क्या होगा और पत्नी किस तरह रिएक्ट करेगी इस पर निर्भर करेगा। कल तो तुम मत ही आओ।

वह धीरे-धीरे मुस्कुरा रहा है। उसकी मुस्कुराहट से एक अजीब-सी खीझ ऊभरती है मेरे अंदर। वह धीरे-धीरे गायब होता जा रहा है। मैं सत्यदेव के बारे में सोचता हुआ कल सुबह की कल्पना से डर जाता हूँ।

घर में चारों ओर सन्नाटा है - बीच इसके पत्नी की जोर-जोर चलती साँसें हैं और पंखे की आवाज है जो लगातार मेरे मन को मथ रही है। इस काली और उदास रात मेरी आँखों में नींद नहीं है।

सुबह कब होती है पता नहीं चलता। छोटा बेटा मुझे जगा रहा है - पापा उठिए मुझे जूते पहनने हैं।

मैं उसकी आवाज सुन रहा हूँ। मुझे लगता है कि मेरे गाँव की जो नदी है उस पार से मेरा बेटा मुझे आवाज दे रहा है और मैं उसकी आवाज सुन रहा हूँ और सोच रहा हूँ कि वह उस पार कैसे पहुँच गया। मैं उससे कहना चाहता हूँ कि वह वहीं रहे - इधर न आए। नदी के पानी में तेज बहाव है - और वह नदी में गिर सकता है। लेकिन कल्पना में वह बहुत तेज दौड़ता है और नदी में गिर पड़ता है - मैं अंकू... अंकू चिल्ला रहा हूँ।

अरे पापा, मैं तो यहीं हूँ आप इतने जोर से क्यों चिल्ला रहे हैं - उसकी आवाज से झट मेरी आँखें खुल जाती हैं।

मम्मी कहाँ है? - मुझे अपने बेटे को सामने देखकर राहत मिलती है और सुकून कि मैं एक डरावना सपना देख रहा था जो सच नहीं है।

मम्मी तो किचेन में है। मुझे जूते पहना दीजिए न। भइया तैयार हो चुका है। और आज मैं आलू रोटी और सॉस नहीं खाऊँगा, मुझे कैलोग्स खाना है। आप खिलाएँगे न?

हाँ, बेटा। मम्मी गुस्से में है? मैं धीरे से पूछता हूँ।

नहीं, लेकिन कल रात में बहुत गुस्से में थी, जब आपका फोन बंद हो गया था, तब।

मैं उठकर बैठ जाता हूँ।

बच्चा तैयार हो चुका है - मैं उसको खिलाने के लिए कैलॉग्स लेने किचेन में पहुँचता हूँ। मैं शर्मिंदा हूँ - पत्नी चुपचाप रोटी बेले जा रही है मैं उसकी ओर नहीं देखता - मेरे चेहरे पर भय की कातरता के साथ एक अपराधबोध भी है। वह जरूर गुस्से में है।

मैं बच्चों को स्कूल छोड़ने के लिए चला जाता हूँ। आकर नहाता हूँ और पत्नी के सामने किसी अपराधी बच्चे की तरह खड़ा हो जाता हूँ।

घूमिए रात भर इसी तरह। मुझे समझ में नहीं आता कि कुछ दिनों से आप गायब कहाँ हो जाते हैं?

नहीं कल वो...।

आप झूठ बोलना भी सीख चुके हैं - किस कलमुँही के पास गए थे। कौन है वह औरत जो मेरे संसार में आग लगा रही है? बताइए मैं उसका खून कर के फाँसी पर चढ़ूँगी। रितेश ने बताया कि मनोज का तो एक्सिडेंट नहीं हुआ। तो फिर आप मोबाइल ऑफ कर के किसके साथ गुलछर्रे उड़ा रहे थे - बताइए। अब इस घर में मैं एक पल नहीं रहूँगी। बच्चों को आने दीजिए मैं आज ही यह घर छोड़कर निकलने वाली हूँ - फिर आप आजाद होकर जो जी में आए करना। कोई रोकने नहीं आएगा।

अरे मिन्नी...। क्या कह रही हो तुम। तुम्हें मुझ पर भरोसा नहीं।

भरोसा क्या करूँ? आप झूठ बोलकर घर से निकल गए यह तो साबित हो गया न। अब क्या भरोसा करूँ?

वह गुस्से में एक कमरे में चली जाती है। मुझे दफ्तर के लिए देर हो रही है और मुझे सत्यदेव शर्मा से भी मिलना है - लेकिन इसने अलग ही कहानी शुरू कर दिया है।

कविता-कहानी तक ठीक था। अब यह कौन-सा नाटक शुरू किया है आपने। याद रखिए मैं किरासन तेल छिड़क कर खुद को आग लगा लूँगी और...।

सुनो, मैं सत्यदेव शर्मा से मिलने गया था। मैंने ये नहीं कहा कि मुझसे मिलने के लिए आजकल एक कथाकार आता है।

अब एक और झूठ। कौन है यह? इसके पहले तो इस आदमी का नाम नहीं सुना। वह तमतमाई हुई अपने कमरे से ही चिल्लाए जा रही है। मुझे पता है कि वह अभी शांत नहीं होगी।

मैं जा रहा हूँ - मैं उसके समीप जाकर कहता हूँ। वह कुछ नहीं बोलती।

मैं जा रहा हूँ ऑफिस। मेरा मन उखड़ जाता है। वह हर छोटी बात का इतना बड़ा बतंगड़ खड़ा करती है कि लगता है अब जीना मुश्किल हो जाएगा। मैं उसको कोई जवाब न देते देख घर से बाहर निकल आता हूँ।

मैंने कहा न आपको - पता नहीं इस औरत को मेरी कविताओं से इतनी चिढ़ क्यों है? वह शुरू से मुझे एक पालतू पशु में तब्दील करने की हर कोशिश कर चुकी है लेकिन इस जगह आकर इस अनहोनी का घटना जैसे उसे विचलित कर गया है। मैं सोचता हूँ कि वह घर छोड़ के क्या जाएगी - मैं ही घर वापिस नहीं आऊँगा आज। सच मैं घर नहीं आऊँगा अब। रहे यह औरत अकेले या कुछ भी करे - भाड़ में जाए।

मैं अनमने कदमों से आगे की ओर बढ़ता चला जाता हूँ। आज तो चाय भी नहीं पी। ऐसा कितनी बार हुआ है कि मैं बिना कुछ खाए घर से दफ्तर की ओर चल पड़ा हूँ। कई-कई बार सोचा है कि घर वापिस नहीं आऊँगा लेकिन हर बार लौटकर घर ही आया हूँ। कभी-कभी अपने लिजलिजेपन पर कोफ्त-सी भी होती है। तब लगता है कि सचमुच मैं कभी बड़ा रचनकार नहीं बन पाऊँगा। नोबेल तो दूर की बात मुझे किसी संस्था का कोई थर्ड क्लास पुरस्कार भी नहीं मिलेगा। सच कहता है कथाकार - मैं एक चिरकुट लेखक हूँ और जीवन भर चिरकुट लेखक ही बना रहूँगा। आशंकित - डरपोक-लिजलिजा - एक ऑर्गेनिक जीव पालतू पति इत्यादि... इत्यादि। हुह्ह...।

मैं सत्यदेव शर्मा की बाड़ी के दरवाजे पर खड़ा हूँ। दरवाजे पर ताला लटका हुआ है। कहाँ गए, कल तक तो बीमार थे उठने की स्थिति में नहीं थे - अभी कहाँ चले गए।

मैंने देखा तपन नल से पानी भर रहा था - मैंने उससे इशारे में पूछा।

दादा तो सुबह से ही नहीं है। मैं सुबह सात बजे उठा तो देखा कि तभी से ताला लटका हुआ है। वह पानी भरने में मशगूल हो जाता है।

मैं थोड़ी देर सत्यदेव के उपेक्षित घर को गहरे और उदास नजरों से देखता हूँ और दफ्तर की ओर जाने के मन से लौट जाता हूँ।

पूरा दिन मन अनमनस्क-सा बना रहता है - कई बार सोचता हूँ कि कुछ लिख लूँ लेकिन लिख नहीं पाता। दफ्तर के जो रूटीन काम हैं उसी को निपटाने में लगा रहता हूँ - एक बार सोचता हूँ कि पत्नी को फोन कर के साफ-साफ कह दूँ कि असल में मैं एक कथा में उलझा हुआ हूँ और इस वजह से ही कल रात मैं इतनी देर तक घर से बाहर रहा लेकिन फिर सोचता हूँ कि कथा और कविता के नाम पर वह और भड़क उठेगी। इसके पहले वह मेरी कविताओं को श्राप दे ही चुकी है। कलह से बचने के लिए ही मैं चुपके-चुपके कविताएँ लिखता हूँ और अगर कहीं कोई कविता छप-वप गई तो उस पत्रिका को आलमारी में करीने से छुपा देता हूँ ताकि उसकी नजर उसपर न जाए।

अगर पत्नी और बच्चे न होते तो मैं यह दफ्तर भी छोड़ देता, लेकिन मजबूरी यह है कि मेरा घर इस दफ्तर की वजह से ही चलता है - लेखन में गुमनामी तो है ही - मैं किसी को फोन नहीं करता - किसी संपादक से उसका हलचल नहीं पूछता। मैं यह सब नहीं कर पाता कि पत्नी को कोई शिकायत न हो लेकिन उसकी शिकायतें हैं कि कभी कम नहीं होती। तिसपर पता नहीं कहाँ से यह कथाकार टपक पड़ा है - अगर मैं पत्नी से कहूँ कि मेरे पास हर रोज एक कथाकार आता है और मुझे सत्यदेव शर्मा की कहानी लिखने को कहता है - कि मैं रात को सब लोगों के सो जाने के बाद उसी से बात करता हूँ तो वह जरूर पास के गुरूजी के पास मुझे लेकर चली जाएगी जिनके बारे में सुना है कि वे पागलों को ठीक करते हैं और अपनी मंत्र और सिद्ध शक्तियों से बुरी आत्मा के प्रकोप से लोगों को मुक्ति दिलाते हैं।

मेरे हाथ फोन के की-बोर्ड पर बार-बार जाते हैं और वापिस आ जाते हैं।

मैं सोचता हूँ कि दफ्तर से लौटते वक्त सत्यदेव का हाल-चाल पूछता जाऊँगा। लेकिन शाम को पहुँचने पर फिर उनके घर में ताला लटका हुआ पाता हूँ। अब क्या करूँ, कहाँ जाऊँ। मैं कुछ देर उन जगहों पर भटकता हूँ जहाँ उनके मिलने की संभावना हो सकती है। मैं रवि दा के ऑफिस यानि फुटबॉल एसोसिएशन के उपेक्षित घर में जाता हूँ। वह नशे में धुत घर के बाहर चेयर लगाकर बैठा है उसके आस-पास कई कुत्ते और बिल्लियाँ एक गोलाई में बैठी हुई हैं - वह उन लोगों से लगातार कुछ बोलता जा रहा है। मैं कुछ देर तक अँधेर में टिठका खड़ा हूँ। मुझे पता तो चल ही जाता है कि सत्यदेव यहाँ भी नहीं हैं लेकिन फिर भी उसके पास जाकर मैं उससे पूछ लेता हूँ, शर्मा जी नहीं आए थे न यहाँ?

नहीं इदर तो नहीं आया। घर में होगा - हम उसका पास गया था कल उसको तो जोर (बुखार) छिलो (था)। तुम उसका देश का आदमी है न इसलिए उसको खोजता है। वो साला पगला है - किसी अँधेरा में बैठकर अपना प्रेमिका से बात करता होगा।

हाँ, वो चाँद की विंदी वाली। उसको छोड़के भाग गया। वह जोर-जोर से हँसना शुरू करता है उसकी हँसी इतनी तेज है कि एक बिल्ली उठकर दूसरी ओर चली जाती है। एक भूरे बालों वाला कुत्ता मुझे टेढ़ी नजरों से देखता है और उठकर कुछ दूर जाकर बैठ जाता है।

आप जानते हैं उसकी प्रेमिका को?

नईं ओतना तो नईं जानता, तबे ओ एक बार बताया था। उसको हम कितना बोला था कि जहाँ पर तुम्हरा बाबा (पिता) चाहता है वहाँ पर शादी कर लो। उसका बाबा भी इधर आया था उसको समझाने को बोला था - लेकिन वह उस लड़की का प्यार में पगला हो गया - इतना अच्छा पेंटर। शाला तरुण को कुछ भी नहीं आता और वो इतना बड़ा पेंटर बन गया और यह शाला कुत्ता का माफिक इदर-उधर घूरता है। कुछ नहीं होएगा इसका। ऐसे ही कुत्ता का माफिक मर जाएगा एक दिन। आओ रानी - चुम्मा खाएगा। ये देखो हमको रानी कैसा चुम्मा खाएगा - आ जा बाबू दे दे। एक दे दे। दादा देखता है। उसको दिखा दे।

वह बिल्ली को अपनी गोद में उठा चुका है - बिल्ली कैसा तो मुँह बना कर इधर-उधर देखती है फिर इपना मुँह उसके गाल से सटा देती है।

देखा, बहुत प्यार करता है ये रानी हमको।

मैं चुपचाप खड़ा देखता रहता हूँ रवि दा का यह सब तमाशा। वह फिर से उस बिल्ली के साथ बात करने में मशगूल हो जाता है। मुझे लगता है कि मेरा फोन बज रहा है - फोन निकालता हूँ - मिन्नी का फोन है।

बोलो - मैं गंभीर और उदास स्वर में कहता हूँ।

इतना समय हो गया। घर नहीं आना है क्या? बच्चे पूछ रहे हैं।

हुम्म... मैं फोन काट देता हूँ।

अब? मैं कई जगहों पर जासूसी नजरों से देखता हूँ कि कहीं सत्यदेव मिल जाएँ। लेकिन उनका कहीं अता-पता नहीं।

अंततः थका हुआ मैं भारी और हारे हुए कदमों से घर की सीढ़ियाँ चढ़ रहा हूँ।

12.

मैं चुपचाप घर में किसी चोर की तरह प्रवेश करता हूँ। पत्नी चुप है। सिर्फ बच्चे हैं जो मेरे पास आकर पूछ रहे हैं कि आज आप क्या लाए हैं पापा। मैंने हमेशा की तरह दो चॉकलेट निकाल कर उन्हें दे दिए हैं। वे आपस में लड़-झगड़ रहे हैं। बच्चों के शोर से पूरा घर भरा हुआ लगता है।

खाना रखा है मन करे तो खा लीजिएगा। पत्नी खिझी हुई आवाज में बोलकर चली जाती है। मैं किसी से कुछ नहीं बोलता। आलमारी से एक किताब निकलता हूँ - फरनांदो पैसोआ का लिखा एक बेचैन आदमी का रोजनामचा और उसे उलट-पुलट कर देखना शुरू करता हूँ। कंप्यूटर ऑफ है। बाहर कई लोगों की तेज आवाजें सुनाई पड़ती हैं। पास के कारखाने का साइरन बज उठा है। बच्चे और पत्नी सब दूसरे कमरे में सोने चले गए हैं।

मेरी चेतना दूर किसी खोह में उतरती जा रही है।

मैं जानता हूँ कि वह आज अंतिम बार आएगा ही। लगता है कि मैं उसके आने की ही प्रतीक्षा में यहाँ बैठा हुआ हूँ। सत्यदेव का कुछ पता नहीं। कथा एक धीमी गति की पैसेंजर ट्रेन की तरह हो गई है - जहाँ रुकती है कि रुकी रह जाती है।

लेकिन वह सच कह रहा है - उसके बिना इस कथा को लिखना मेरे लिए सचमुच असंभव है - यह इतनी-सी कथा उसकी बदौलत ही है - सिर्फ उसके कारण कि मैं एक कलाकार के जीवन में प्रवेश कर सका - भले ही उतनी गहराई में जाना मेरे जैसे मामूली लेखक के लिए एक तरह से नामुमकिन ही था।

अगर वह न आया तब भी इस कथा के छोर तक मुझे पहुँचना होगा - और यह परवाह किए बिना कि मेरी पत्नी क्या सोचती है - मुझे लगातार लेखन से जुड़े रहना होगा। बहुत हो चुका - अब और सह्य नहीं। मुझे अपनी खोल से बाहर निकलना होगा - वह करना होगा जिसे मैं वाकई करना चाहता हूँ।

मैं एक सिगरेट सुलगा लेता हूँ और शून्य में आँखें टिकाए एक-एक कश को मंथर गति से खींचता हूँ। मेरे फेफड़े में सिगरेट का धुआँ भर रहा और निकल रहा है और यह प्रक्रिया इतनी धीमी गति से चल रही है कि मैं उसे साफ-साफ महसूस कर रहा हूँ। साथ इसके मेरे अंदर का लिजलिजापन और भय भी बाहर निकल रहा है और मैं खुद को मुक्त मनुष्य-सा महसूस कर रहा हूँ।

और वह कुछ ही देर बाद मेरे सामने प्रकट हो जाता है। मेरी आँखें खुली हैं - उसका चेहरा गंभीर है।

क्या हुआ? मैंने तुम्हें मना किया था न कि आज मत आना।

हाँ, लेकिन सत्यदेव सुबह से अपने घर से गायब हैं। तुम्हें पता है?

हाँ, पता है, मैं शाम को उनके घर गया था - रवि दा से भी मिल चुका हूँ। लेकिन उनका कही कोई पता नहीं। अगर वह नहीं मिले तो कथा का क्या होगा? इस अधूरी कथा का मैं क्या करूँगा कथाकार महोदय...। इस कथा को लिखने के लिए मैंने इतनी रातें खराब की हैं - मेरी पत्नी मुझसे बात करना छोड़ चुकी है - वह घर छोड़कर जाने की धमकी तक दे चुकी है।

चलो... वह बदहवास सी आवाज में बोलता है। एकदम उठकर चलने को तैयार। कि यदि वह अभी नहीं गया तो यह पृथ्वी किसी रसातल में समा जाएगी।

कहाँ? मैं अचकचाकर उसकी ओर देखता हूँ। अब फिर मुझे कहाँ लेकर जाना चाहता है यह इतनी रात को?

सत्यदेव शर्मा से मिलने चलो।

कहाँ? वे सुबह से गायब हैं। कहाँ मिलेंगे वे अभी...?

वहीं, अपने घर में। वे कहीं नहीं जाएँगे उस घर को छोड़कर। वह घर उनकी समाधि है विमल बाबू। अगर कहीं गए भी होंगे तो वापिस यहीं आएँगे। उनकी सारी पेंटिंग यहीं है - कैनवास भी। भले उन अधसड़े कैनवास पर बहुत दिनों से कोई तस्वीर नहीं बनी।

लेकिन आज अब मैं कहीं नहीं जाऊँगा। अगर ऐसा हुआ तो मेरी पत्नी सचमुच यह घर छोड़कर चली जाएगी।

मुझे उस समय उस पागल कथाकार को टालने के लिए और कोई बात नहीं सुझती।

चलो, अगर आज तुम नहीं गए तो फिर मैं कभी वापिस नहीं आऊँगा। तुम अपनी कथा खुद ही पूरी करते रहना। तुम चिरकुट लेखक हो और वही बने रहना चाहते हो।

चलते हो? मैं आखिरी बार पूछ रहा हूँ।

वह सिर पर सवार हो जाता है।

रुको, एक मिनट। मैं पत्नी और बच्चों के कमरे में जाता हूँ। सबकुछ शांत है। मैं ठीक से मुयायना कर लेना चाहता हूँ कि सभी लोग सो गए हैं। मैं एक बार जोर से खाँसता हूँ लेकिन उन लोगों में कोई हरकत नहीं होती। मैं अपना नोट पैड निकालता हूँ और कथाकार के पीछे-पीछे दरवाजा लॉक कर निकल जाता हूँ।

बाहर लगभग सुनसान है। रात के साढ़े ग्यारह बज रहे हैं। कथाकार जल्दी-जल्दी आगे की ओर बढ़ता जा रहा है और मैं उसके पीछे। कई गलियाँ पार कर हम सत्यदेव के घर पहुँचते हैं। यह देखकर राहत मिलती है कि उनके दरवाजे पर लटका मोरचाया ताला अब नहीं है। इसका मतलब वे घर के अंदर ही हैं।

मैं दरवाजा खटखटाता हूँ...।

कौन है - बाद में आना। मैं अभी बहुत व्यस्त हूँ। बहुत देर के बाद यह आवाज आती है।

मैं हूँ साधु खान।

मैं... मैं हूँ दरवाजा खोलिए...।

कौन...? विमल बाबू?

हाँ...।

दरवाजा खुल जाता है। अंदर एक अजीब तरह की गंध फैली है। किरासन तेल से जलने वाली एक ढिबरी टिमटिमाती हुई जल रही है। कथाकार अंदर प्रवेश कर जाता है, मुझसे पहले ही।

फर्श पर रंग बिखरे पड़े हैं।

तो क्या सत्यदेव कोई चित्र बना रहे थे। मेरा ध्यान चौकी के सहारे खड़े स्टैंड और उसपर लगे हुए कैनवास पर पड़ती है - अँधेरे में भी स्टैंड पर लगा एक कैनवास दिख जाता है - सत्यदेव ने उस पर कुछ आकृतियाँ बनाई हुई हैं। समझ में नहीं आता कि वह क्या है - लगता है जैसे आग जल रही हो और धुआँ बादलों की शक्ल में आकाश को छू रहा हो। आग के बीच में एक स्त्री खड़ी है और उस तस्वीर से लगी हुई एक नदी गुजर रही है - नदी के पार एक पुरुष खड़ा है - उसके चेहरे पर एक तरह की असंभव विवशता चिपकी हुई है। उसी से कुछ दूरी पर एक आदमी को गिलोटन जैसी किसी चीज पर सुला दिया गया है और कई लोग मिल कर उसके गले को तलवार से रेत रहे हैं। खून का एक फौवारा चारों ओर फैल रहा है...।

मैं तस्वीर को एक बार ध्यान से देखता हूँ और फिर मेरी आँख कथाकार की ओर चली जाती है। मुझे लगता है कि वह उस तस्वीर के भीतर तक धँस जाना चाहता है। इन सबसे इतर सत्यदेव अपने घुटने में अपनी ठुढ्ढियों को थामें गुड़ीमुडी बैठे हुए हैं - चुप। एक मुर्दे किस्म की उदासी उनके चेहरे पर झूल रही है।

मैं उनकी ओर धीरे-धीरे बढ़ता हूँ - उनके बैठने में एक अजीब किस्म की बेचारगी है। वह ऐसी है जिसे देखकर किसी के भी मन में दया का भाव उपज सकता है।

ये क्या बनाया है आपने साधु खान? मुझे खुशी है कि आप रंगों की तरफ लौट रहे हैं।

मैं उनके कंधे पर अपना हाथ रख देता हूँ। उनके कपड़े चिकट हो चुके हैं खिचड़ी दाढ़ी बेतरतीब ढंग से बढ़ी हुई है उनके आधे सफेद हो गए बाल किसी घने जंगल की तरह लग रहे हैं।

आपकी तबियत कैसी है साधु खान?

वे चुप हैं। मैं उनकी नब्ज पकड़ता हूँ। उनके हाथ एकदम ठंडे हैं।

कथाकार लगातार मुझे इशारा कर रहा है कि तुम उन्हें कथा की ओर मोड़ो और मैं कथाकार की बातों को अनसुना कर उनसे एक-दोस्त की तरह बात कर रहा हूँ।

यह पेंटिंग बहुत अच्छी है साधुखान।

विमल बाबू, इसमें मेरे हृदय का लहू शामिल है।

यह जो आग में जल रही औरत है न - यह मयना है और जिसका गला रेता जा रहा है वह मेरा दोस्त सैफू है।

सत्यदेव उठ खड़े हुए हैं। कैनवास के कई हिस्से सड़ चुके हैं। ध्यान से देखने पर लगता है कि आर्ट पेपर भी बहुत पुराना है, लेकिन तस्वीर अभी ताजी है।

यह बहुत पहले की तस्वीर है विमल बाबू...। तब की जब रिंकी चली गई थी। मैं पूरे संसार में अकेला हो गया था - यह लगभग अंतिम पेंटिंग है जो मैंने बनाई थी और खूब हिचकियाँ लेकर रोता रहा था।

तस्वीर में यह जल रही मयना है। वह सिर्फ तस्वीर में नहीं जली।

तो...? मैं बदहवास-सा पूछता हूँ - एकदम उद्विग्न।

मयना के प्रेम को सजा दी गई थी जो उसके घर वालों ने उसे सुनाई थी - उस दिन मैं और सैफू देर तक मयना के आने का इंतजार करते रहे थे। और वह नहीं आई थी। उस दिन हमें सूरत के लिए निकलना था मेरे हाथ में इस्राईल के नाम लिखी सैफू की चिट्ठी थी।

हम बहुत देर के इंतजार के बाद लौट आए थे विमल बाबू उस दिन। और उसी दिन की बात है।

जब सैफू की लिखी हुई चिट्ठी मयना के घर में पकड़ ली गई थी। उसी रात उसके शरीर पर किरासन तेल डालकर... इतना कहते-कहते उनका गला रुँध आता है।

क्या...? सत्यदेव की यह बात मेरे अंदर किसी गंभीर विस्फोट की तरह पहुँचती है।

सत्यदेव ऐसे कह रहे हैं जैसे उनकी भाषा मर गई हो। उनके चेहरे की नसें तनी हुई हैं और लगता है कि वे अब हिचकियाँ लेकर रोना शुरू कर देंगे। वे अपनी आँख उस बनी हुई तस्वीर पर गड़ाए रहते हैं और आँख से लगातार आँसू बरसते जा रहे हैं।

इन तमाम चीजों के लिए मैं जिम्मेवार हूँ विमल बाबू। मैं अब तक यही सोच रहा हूँ कि वह मयना जिसके हाथ में फूल भी चुभ जाते थे कई बार - वह किस तरह जली होगी। कितना पुकारा होगा उसने अपनी सहायता के लिए। शायद वह जलते हुए मेरा नाम भी ले रही होगी। शायद उसकी आखिरी उम्मीद होगी कि मैं कहीं से अचानक प्रकट होकर उसे बचा लूँगा - लेकिन मैं नहीं गया। कोई नहीं गया। वह चुपचाप अपने प्रेम की चिता पर - अमानवीयता की आँच पर जलती रही... जलती रही विमल बाबू...। पहली बार सत्यदेव अपनी हिचकियों को रोक नहीं पाते। वे ऐसे रो रहे हैं जैसे कोई निर्दोष शिशु हों और जिनसे इस निर्मम समय और समाज ने उसकी कोई सबसे प्रिय चीज छिनकर उसे जला दिया हो।

कथाकार चुप है अपनी आँख के कोर को अपनी हथेलियों से पोंछता हुआ। मैं ऐसा अचंभित हूँ कि जड़ हो गया हूँ - मुझे यह भी समझ नहीं आता कि सत्यदेव को कैसे सम्हालूँ।

गाँव भर में यह खबर फैला दी गई कि स्टोव के फटने से मयना जल गई। उसे हॉस्पिटल भी पहुँचाया गया था - लेकिन वह इतनी बुरी तरह जलाई जा चुकी थी कि हॉस्पिटल तक पहुँचने के बहुत पहले ही उसकी मौत हो चुकी थी।

उसके दूसरे दिन ही अचानक सैफू गायब हो गया था। वह जो गायब हुआ कि कभी उसका पता नहीं चला। कहने वाले कहते हैं कि उसका गला रेतकर उसकी लाश को टुकड़े-टुकड़े कर धर्मावती नदी में बहा दिया गया था।

सत्यदेव की आवाज ऐसी हो गई है जैसे वे एक-एक शब्द बोलने में सदियों की यात्रा कर रहे हों। कथाकार और मैं निर्वाक होकर उनके एक-एक शब्द सुन रहे हैं - गहरे विस्मय और दुख से भरे हुए।

मैंने मयना की जलती हुई लाश देखी थी विमल बाबू। शरीर तो उसका पहले ही जल चुका था - वहाँ श्मशान घाट में सिर्फ उसकी हड्डियाँ जलाई गईं। जब उसकी लाश जलाकर सब लोग जा चुके तो मैं और सैफू वहाँ गए थे - मैं बहुत देर तक राख और छाई में मयना को खोजता रहा था - मेरे आँसू सूख चुके थे - मैं पागलों की तरह चिल्ला रहा रहा था। सैफू नहीं होता तो मैं वहीं जल समाधि ले लेता।

सैफू रात तक मेरे साथ था। मेरे यहाँ से लौटते हुए ही शायद उन लोगों ने उसे पकड़ लिया था... और...।

सत्यदेव कैनवास पर बनी तस्वीर से चिपक जाते हैं और उनकी हिचकियाँ थमने का नाम नहीं ले रही हैं...।

लगता है जैसे सबकुछ शांत हो गया है। हवा रुक गई है कि पृथ्वी अपने अक्ष पर घूमती हुई थोड़ी देर के लिए ठहर गई है और एक कलाकार एक अँधेरे घर में अपने चित्रों के बीच रोए जा रहा है - अनवरत-अनवरत-अनवरत।

मैं हक्का बक्का कभी तस्वीर को और कभी सत्यदेव को देख रहा हूँ। कथाकार सन्न होकर चुपचाप एक जगह बैठ गया है।

मैं जानता हूँ विमल बाबू इस तथ्य को जानने के लिए पता नहीं आप कितने दिनों से बेचैन थे।

नहीं सत्यदेव बाबू। आप इन सब चीजों से निकलिए। बाहर बहुत अच्छी दुनिया है। फिर से एक बार शुरुआत कीजिए ।

मुझे मयना की जलती हुई देह की गंध की आदत हो गई है विमल बाबू। मेरी बनाई हुई हर तस्वीर एक कथा है - इनसे बाहर कोई दुनिया नहीं। मुझे ऐसे ही मर जाना है एक दिन। तस्वीरों की ओट में एक पूरा संसार छिपा हुआ है - इन्ही तस्वीरों के पीछे एक पूरा समय है जो मेरा अपना है जिस समय में मेरी आवाजाही जिस दिन बंद कर दोगे - मैं मर जाऊँगा। उस जगह सैफू की दोस्ती से भरी हुई निगाह है - मयना की निर्दोष हँसी है - रिंकी के सपने हैं जिसमें मेरा मन शामिल है। इन तस्वीरों को छोड़कर जब आपकी दुनिया में आता हूँ तो लगता है कि किसी जंगल में आ गया हूँ।

तस्वीरें कुछ नहीं करतीं विमल बाबू - वे हँसती हैं - बोलती हैं - आपके साथ चलती हैं - आपके माथे पर हाथ रखती हैं - आपका हाथ पकड़ कर अँधेरी सुरंगों को पार कराती हैं।

मनुष्य निर्मम है - वह सचमुच बहुत निर्मम है।

और आप जानना चाहते होंगे न कि रिंकी ने जाने के पहले क्या दिया था - जिसे मैंने आज तक अपने संदूक में करीने से रखा है। एक दिन अँधेरे में जब मैंने उसे खोलकर देखना चाहा तो एक अजीब तरह की बदबू उभरी थी - मेरी आँखें छलछला आई थीं। मैंने झट उसे बंद कर दिया था - एक कागज का टुकड़ा था - दो कनबाली थी जो उसके जन्मदिन पर मैंने हाथी बागान से खरीद कर दिया था - और वह तस्वीर थी जिसे मैंने उसके घर में बनाया था। कागज के उस टुकड़े में कई तरह के रंग थे - जो पानी से फैल गए थे - शायद आँसू से। बहुत कुछ नहीं लिखा था उसमें जो नहीं लिखा था उसको भी मैं पढ़ पा रहा था - ध्यान से पढ़ने पर उन रंगों के बीच भी अक्षर और शब्द दिख रहे थे - खूब तस्वीरें बनाना - खूब बड़ा चित्रकार बनना - हमेशा तुम मेरी स्मृतियों में रहोगे।

इस जन्म में शायद इतना ही साथ था...। अगले जन्म में मिलते हैं।

यह सबकुछ लिखा था उस कागज में या नहीं कुछ ठीक तरह नहीं कह सकता - लेकिन एक कागज के टुकड़े में सिर्फ रंग ही बिखरे थे तो उन रंगों का और क्या अर्थ हो सकता था?

इसके बाद कुछ नहीं बचता विमल बाबू। सिर्फ मौन है चारों ओर और तस्वीरों की राख है जो मेर बदन से चिपकी हुई है।

देखिए मयना आ रही है - सैफू भी तस्वीर से बाहर निकलेगा अभी। हम भागकर यहीं कोलताता ही आएँगे। यहाँ हमारा अपना घर बनेगा। रिंकी सेन और मेरी तस्वीरों की प्रदर्शनी नंदन के बड़े आर्ट गैलरी में लगेगी। फिर हम अमेरिका जाएँगे। तरुण दा इस मुहल्ले में सड़कर मर जाएगा। मेरी पेंटिंग सचिन खन्ना की तरह विश्व में प्रसिद्ध होगी। तब आप रश्क करेंगे हमसे विमल बाबू...। हाँ, रश्क करेंगे आप।

उफ्फ, फिर से वही गंध आ रही है। रहना मुश्किल हो जाएगा अब इस घर में। चलिए बाहर निकलिए अब। निकलिए आज भी रात भर मुझे पेड़ के नीचे सोना पड़ेगा।

हम बाहर निकल आते हैं। कथाकार उनके साथ नहीं है - वह मेरे पीछे है - मैं आगे बढ़कर सत्यदेव को रोकना चाहता हूँ। लेकिन वे आगे बढ़ते जा रहे हैं... बुदबुदाते लड़खड़ाते... रोते और हँसते हुए...।

मैं पीछे मुड़कर कथाकार से कुछ कहना चाहता हूँ लेकिन पीछे कोई नहीं है।

दूर-दूर तक अँधेरा पसरा हुआ है और सूनी सड़क पर बहुत दूर से आती रोशनियों की परछाइयाँ चमक रही हैं।

उत्तर कथन - कथाकार से इतर कथा के अंत में एक अनावश्यक-सा हस्तक्षेप

कथा तो बहरहाल खत्म हो चुकी है लेकिन जैसा कि मैंने पहले ही कहा कि कथा का अंत नहीं। एक कथा खत्म होती है और वहीं से दूसरी एक कथा चल पड़ती है। जीवन का जैसे अंत नहीं उसी तरह कुछ-कुछ। जीवन के खत्म होने के बाद भी किसी एक खास व्यक्ति की कथा तो चलती ही रहती है - वह मर कर भी कई बार कथा का हिस्सा हो सकता है। जैसे इस कथा में मयना और सैफू न होकर भी बाद की कथा में मौजूद थे। उनके न रहने पर भी सत्यदेव के जीवन में उनके किरदार हैं - उनके साथ बोलते बतियाते उनके दुख-सुख में रोते-हँसते। रिंकी सेन भी है - वह हमेशा के लिए जाकर भी सत्यदेव के मन में कहीं ठहरी हुई है।

कथाकार जा चुका है - हमेशा के लिए। उसके लिए सत्यदेव की कथा खत्म हो चुकी है लेकिन मेरे लिए और सत्यदेव के लिए कथा कहाँ खत्म हुई? वह तो चल रही है अनवरत। और मैं इस कथा का यहीं अंत कर देना नहीं चाहता - मेरे मन में अब भी कुछ सवाल हैं। मैं सोचता हूँ कि क्या रिंकी सेन को वापिस कथा में बुलाया जा सकता है - इससे सत्यदेव के जीवन में कुछ फर्क पड़ेगा? आप यकीन मानिए मैं मयना को और सैफू को तो नहीं लौटा सकता लेकिन रिंकी - उसकी खोज खबर तो ली जा सकती है न? आपको क्या लगता है?

तो ठीक है अगले कुछ दिन इसी मुहिम में। सबसे पहले तो सत्यदेव की तलाश करनी होगी और फिर बालीगंज सर्कुलर रोड के उस बंगले पर उन्हें लेकर जाना होगा। वहीं जहाँ रिंकी सेन रहा करती थी। वहीं जाकर ठीक-ठाक पता चलेगा।

और अगर वह अमेरिका चली गई होगी हमेशा के लिए तो?

वहीं रह-बस गई हो तब तो मुश्किल होगी लेकिन यह भी तो हो सकता है कि वह आती जाती रहती हो, या फिर हमेशा के लिए हिंदुस्तान चली आई हो। क्योंकि जहाँ तक मुझे याद है सत्यदेव ने मुझे बताया था कि उसके पिता शुरू से उसे अमेरिका ले कर जाना चाहते थे लेकिन वह अपना देश छोड़कर जाना नहीं चाहती थी।

यही करना होगा। हाँ, यही करना होगा - मैं दीवार पर लटकी घड़ी की ओर देखता हूँ। सुबह के चार बजने वाले हैं और मेरी आँखों में नींद नहीं है। पत्नी और बच्चे बेसुध सो रहे हैं। मैं उठकर बाहर लॉन में आता हूँ - मुझे सिगरेट की याद आ रही है बेतरह।

मैं सिगरेट को जलाते हुए सोच रहा हूँ कि सत्यदेव विक्षिप्त नहीं हैं - समय ने उन्हें ऐसा बना दिया है - एक लंबे समय तक अकेले रहने और अपने अंतर की गुहाओं में बद्ध रहने के कारण उनकी यह अवस्था हो गई है - अगर उनके संग के इस समय को बदल दिया जाए तो वे फिर अपने जीवन में वापिस लौट सकते हैं।

लेकिन यह कैसे संभव होगा? कथाकार से पूछूँ, लेकिन कैसे, वह तो चला गया है - क्या वह फिर आएगा। आज कथाकार को सचमुच बहुत मिस कर रहा हूँ - आज पता नहीं क्यों लग रहा है कि उससे ढेर सारी बातें करूँ - अपने बारे में उसे भले न बताऊँ लेकिन सत्यदेव के बारे में उससे बात करूँ। कहूँ उससे कि एक लेखक का, कम से कम इन पंक्तियों के लेखक का उतरदायित्व अभी खत्म नहीं हुआ है - अभी वह बाकी है।

एक कथा को पूरा कर लेने का सुकून तो है लेकिन सत्यदेव को लेकर एक गहरी बेचैनी भी है। सिगरेट खत्म हो चुकी है - पूरब की ओर से एक धुँधला उजास फैल रहा है और मैं कॉरिडोर में कुर्सी पर बैठे-बैठे ही ऊँघ रहा हूँ।

अचानक मुझे आकर कोई झंकझोर देता है - मैं पीछे मुड़कर देखता हूँ - यह मिन्नी है - मेरी पत्नी। उसे पता है कि मैं रात में बहुत देर तक गायब रहा था और आकर भी बिस्तर से अलग एक कुर्सी पर ऊँघ रहा हूँ।

देखो, अब बहुत हो चुका। मैं फैसला कर चुकी हूँ। तुम्हें इस तरह रात-रात भर अवारगी करनी है तो या तो तुम इस घर से निकल जाओ या मुझे निकल जाने के लिए कह दो। मैं सच कहती हूँ - मुझे कोई अफसोस नहीं होगा।

वह अपनी रौ में बोलती जा रही है। और भी बातें उसकी बातों का कोई अंत नहीं।

देखो मिन्नी, ऐसी बात नहीं है। असल में मैं-मैं उसे रोकने की कोशिश करता हूँ। मेरा स्वर उसकी तेज आवाज के बीच बहुत मद्धिम है - मद्धिम और आत्मियता से भरा हुआ।

और कुछ कहने की जरूरत नहीं। झूठ तो आप बोलना शुरू कर ही चुके हैं - अब कोई और बहाना बनाएँगे।

नहीं, देखो आज मैं तुमसे झूठ नहीं बोलूँगा। सब सच-सच बताऊँगा। भले तुम मेरी बात न समझ पाओ। कोशिश भी न करो समझने की, लेकिन आज मैं तुमसे सच ही कहूँगा।

क्या सच कहेंगे आप। यही कहिए कि अब आपको मुझसे कोई लगाव नहीं रहा - कि ऊब चुके हैं आप। लेकिन आप मुझसे अलग हों इसके पहले मैं चली जाऊँगी।

ऐसी बात नहीं है - दरअसल मैं... मैं एक कथा लिख रहा हूँ। सत्यदेव की कथा। और कल रात भी मैं सत्यदेव के साथ ही था - तुम देखो, प्लीज मुझे समझने की कोशिश करो। यह मेरे अंदर की विवशता है - मैं लिखकर ही जीवित रह सकता हूँ। यह मेरा एक तरह का बौद्धिक खाद्य है। तुम क्यों नहीं समझती यह बात?

मुझे नहीं समझनी तुम्हारी ये बड़ी-बड़ी बातें। तुम्हारा एक परिवार है - उसके प्रति तुम्हारा दायित्व पहले है।

मैं जानता हूँ वह नहीं समझेगी। कुछ लोग कभी भी नहीं समझते। उनको कभी भी बदला नहीं जा सकता।

मेरे अंदर एक अतिआत्मविश्वास था कि लोगों की सोच को बदला जा सकता है लेकिन लाख कोशिश करने के बाद भी इस एक जगह मैं बुरी तरह असफल हुआ। प्यार से, पुचकारकर, दुलारकर, डाँटकर और भी जो करना था सबकुछ कर के देख लिया लेकिन वह नहीं बदली - वह हमेशा ही मेरे ऊपर इसी तरह चिल्लाती रही और सदैव ही उसने मेरे लेखन को प्रश्नांकित किया। सिर्फ यही नहीं उसने मुझे अपनी पूरी कोशिश कर के लेखन से मुझे दूर किया - और मैं धीरे-धीरे समझौता करते-करते एक ऑर्गेनिक जीव में बदल गया।

लेकिन मेरे अंदर का एक कलाकार अब जागृत हो चुका है - इसके लिए अचानक मेरे सामने प्रकट हुए कथाकार और निश्चय ही सत्यदेव भी दाई हैं। मैंने सोच लिया है कि इस औरत की बातें अब नहीं सुननी हैं - अब लिखना है और सबसे पहले जो करना है वह यह कि सत्यदेव की कथा को एक ऐसी जगह लेकर जाना है, कि जहाँ पहुँचाकर मेरे अंदर की घुटन और बेचैनी का अंत हो सके।

मैं सुबह के सारे काम नियमानुसार ही करता हूँ। बच्चों को खाना खिलाने से लेकर उन्हें कपड़े और जूते पहनाने तक।

मैं बच्चों को स्कूल वैन तक छोड़ने के लिए सीढ़ियाँ उतरते हुए नीचे की ओर जा रहा हूँ। अंकू ने मेरी ऊँगली पकड़ी हुई है - पापा, मम्मी इतनी गुच्छे में क्यों है?

मम्मी पापा से नाराज है न बेटा।

क्यों नाराज है, आपने कोई बदमाछी किया होगा।

पता नहीं बेटा मैं जो कर रहा हूँ वह बदमाशी है कि क्या? लेकिन तुम्हारी मम्मी मुझे गुनहगार समझती है।

वह कुछ बातें न समझकर मेरी ओर अजीब निगाह से देखता है - किट्टू वैन तक आगे बढ़ गया है।

पापा, मम्मी को छैली बोल दीजिएगा। उछका गुच्छा चला जाएगा। बाय... बाय पापा...।

दोनों बच्चों के हाथ हिल रहे हैं बहुत देर तक। और मैं पता नहीं क्या सोचते हुए चुपचाप उसी एक जगह पर पत्थर की तरह खड़ा हूँ।

प्लीज मिन्नी मुझे समझो। मुझे तुम्हारी जरूरत है - दफ्तर जाने के पहले मैं एक बार फिर मिन्नी के सामने खड़ा हूँ।

वह एक बार रुआँसी और विकृत-से हो आए चेहरे से मुझे देखती है। कुछ बोलती नहीं। और मैं धीरे-धीरे घर की सीढ़ियों से नीचे उतर रहा हूँ।

मैंने तय किया है कि आज सत्यदेव से मिलूँगा और जरूरत पड़े तो दफ्तर नहीं जाऊँगा। मैं कई गलियों से गुजरते हुए सत्यदेव के यहाँ पहुँचता हूँ तो देखता हूँ कि कई बार की तरह इस बार भी उनके घर में ताला लटका हुआ है। आस-पास जो लोग हैं वे भी उनके बारे में बता नहीं सकते - फिर क्या करूँ?

मैं निराश होकर दफ्तर की ओर निकल पड़ता हूँ। यह सोचकर कि शाम को किसी न किसी तरह सत्यदेव को खोज निकालना है।

दफ्तर में भी मेरा जी नहीं लगता। मैं बिना किसी से कुछ कहे बाहर निकल आता हूँ। सबसे पहले बालीगंज। फिर विरला अकादमी और फिर नंदन आर्ट गैलरी, जहाँ पेंटिंग की प्रदर्शनी लगती है। इस भटकाव का फल यह है कि मुझे लगता है कि कथा के बिखरे सूत्रों को मैं जोड़ पाऊँगा और सत्यदेव जिस समय में रह रहे हैं उसे शायद बदल भी पाऊँ। पूरी तरह थककर चूर हो जाने के बाद भी मैं अपने घर नहीं लौटना चाहता।

मेरे पैरों अजीब तरह का एक वेग उतर आया है और मैं लगभग दौड़ते हुए चल रहा हूँ। मुझे बस पकड़नी है - मुझे ट्रेन पकड़नी है। कि मुझे सत्यदेव की तलाश करनी है - कहीं न कहीं तो वे मिल ही जाएँगे। अगर न मिले तो उनके घर के पास बैठा रहूँगा - कभी न कभी तो वे आएँगे।

सबसे पहले मुझे उनके घर जाकर यह इत्मिनान कर लेना होगा कि वे घर में ही हैं या नहीं।

मैं डेढ़ घंटे की यात्रा कर के जब उनके घर पहुँचता हूँ तो मुझ राहत और संतोष होता है - दरवाजे पर ताला नहीं लगा है।

साधु खान, मैं दरवाजे के बाहर से ही आवाज लगाता हूँ।

दरवाजा खुल जाता है, आइए विमल बाबू। सत्यदेव की बहुत कमजोर आवाज मेरे कानों तक आती है - जब उनका चेहरा देखता हूँ तो बहुत बेतरतीबी-सी दिखती है। उनकी किचड़ी दाढ़ियों और उलझे हुए बालों को देखकर किसी अवधूत योगी की शक्ल याद आती है अचानक।

जरा अपनी पुरानी तस्वीरों को देख रहा था, मच्छर बहुत हो गए हैं इसलिए यह मॉर्टिन भी जला दिया है।

मच्छर भगाने वाली अगरबत्ती की एक तीखी गंध मेरी नाक में जा घुसती है।

मुझे लगा कि अब आप नहीं आएँगे। मैंने तो आपको सबकुछ बता दिया है। अब लिखिए। लेकिन मुझे नहीं लगता कि इस कथा को कोई तवज्जो देगा।

हाँ, साधुखान। मैं कथा लिखने के लिए आपके पास आया था, लेकिन अब वह कथा नहीं है, वह अब सच्चाई है और सच सबको आकर्षित भले न करे, स्पर्श जरूर करता है।

हम्म। बैठिए। अब कोई सवाल न पूछिएगा।

सवाल नहीं पूछूँगा। आपको ले चलूँगा एक जगह।

कहाँ?

इस कथा के क्लाईमैक्स तक।

क्या कह रहे हैं विमल बाबू...। कथा का तो अंत हो चुका।

नहीं साधु खान। कथा का अंत नहीं हुआ।

सत्यदेव मुझे अजीब निगाह से देख रहे हैं - आज उनसे बात करते हुए लगता है कि वे बिल्कुल नॉर्मल इनसान हैं। उन्होंने अब तक कोई ऐसी बात नहीं कही है आज जिससे उनका पागलपन प्रकट हो। वे शांत हैं - गंभीर और बेहद संजीदा।

अंत नहीं हुआ। ऐसा करिए कथा में मुझे मार दीजिए। अगर कथा मेरे बारे में है - और मैं मर जाऊँ तो कथा का अंत...। है न...।

मैं पहली बार देख रहा हूँ कि सत्यदेव हँस रहे हैं। उनके गलों और आँखों के चमड़े सिकुड़ गए हैं। हँसते हुए मुझे वे अधिक बूढ़े दिख रहे हैं।

नहीं साधु खान, ऐसा न कहें। आपको जीना है। आपको फिर से अपने जीवन में लौटना है।

बहुत थक गया हूँ विमल बाबू। अब तो मर जाता तभी अच्छा होता। कभी-कभी जब बहुत गहरी सोच में होता हूँ और रात में नींद नहीं आती तो सीने में एक अजीब असह्य दर्द अभरता है।

अरे, किसी डॉ. को दिखाना चाहिए न।

अब डॉ. क्या करेगा विमल बाबू - जा दिन मन पंछी उड़ि जइहें...।

तो चलें...

मैं उनकी खो गई आँखों में देखता हूँ।

कहाँ ले जाएँगे विमल बाबू आप मुझे।

आप चलिए तो सही।

चलिए।

वे अचानक चलने को तैयार हो जाते हैं। मैं देखता हूँ कि उनके कपड़े चिकट की तरह हो गए हैं। बाल और दाढ़ी तो बेतरतीब हैं ही। मैं उनसे कोई दूसरा कपड़ा पहनने के लिए कहता हूँ। बहुत कहने पर अपने बक्से से वे एक साफ पजामा और खादी का एक कुर्ता निकालते हैं और उसे पहन लेते हैं। मैं कहता हूँ कि वे अपने बाल सँवार लें - वे मान जाते हैं। एक शिशु की तरह अप्रतिरोधात्मक जिद के बाद।

हम अब निकल पड़े हैं एक ऐसी यात्रा पर जो इस कथा के लिए बेहद जरूरी है - मेरा दिल धड़क रहा है। मैं बार-बार साधु खान की ओर देखता हूँ - उनकी आँखें कमजोर दिख रही हैं - और वे लगातार टैक्सी से बाहर देखे जा रहे हैं - चुप और निर्विकार।

शाम गहराने लगी है - हावड़ा ब्रिज की बत्तियाँ जल चुकी हैं। ब्रिज के फुटपाथ के रास्ते लोगों का एक शैलाब अपने घरों की ओर लौट रहा है और हम और सत्यदेव एक टैक्सी में बैठे तेज रफ्तार से हावड़ा ब्रिज से गुजर रहे हैं। बल्ब की रोशनियों में गंगा का चंचल पानी बार-बार हमारी आँखों में चमक उठता है।

लगभग एक घंटे तक टैक्सी कोलकाता की सड़कों पर दौड़ती रहती है। अब हम अकदमी ऑफ फाइन आर्ट के सामने पहुँच चुके हैं। यहीं से उतरकर हमें नंदन आर्ट गैलरी में जाना है।

यह अकादमी ऑफ फाइन आर्ट है न - कितने दिन हो गए। सत्यदेव टैक्सी से उतर चुके हैं और लगातार उसी ओर देखे जा रहे हैं जिधर अकादमी का साइनबोर्ड लगा हुआ है।

यहाँ मैंने ढेर सारे एक्जिविशन देखे हैं। गणेश पाइन, नंदलाल बोस और एक बार तो एम.एफ. हुसैन का भी। हम और वह...। वे तनिक सोच में पड़ जाते हैं और कुछ बुदबुदाने लगते हैं। मैं चाहता हूँ कि उनकी बुदबुदाहट को सुन लूँ लेकिन वह इतनी धीमी है कि मैं उनके होठों को सिर्फ हिलते हुए ही देख पाता हूँ।

चलें विमल बाबू - वे कुछ संयत होकर कहते हैं। उनकी आँखों में नमी उतर आई है।

हम्म।

हम बहुत ही धीमें कदमों से उस ओर बढ़ते हैं जहाँ नंदन आर्ट गैलरी है - जहाँ चित्रकारों के एक्जिविशन लगते हैं।

सत्यदेव की चाल देखकर मुझे लगता है कि यह जगह उनके लिए नई नहीं है - वे बहुत पहले भी यहाँ आ चुके हैं। वे मेरी परवाह किए बिना तेज कदमों से चलते हुए आर्ट गैलरी के दरवाजे से अंदर दाखिल हो जाते हैं। मैं उनके पीछे-पीछे।

अंदर तस्वीरों की प्रदर्शनी लगी हुई है। वे सीधे तस्वीरों की ओर जाते हैं और एक तस्वीर की ओर उनकी नजर चली जाती है - वे सीधे उस तस्वीर की ओर लपकते हैं। वे बार-बार उस तस्वीर को देख रहे हैं - मैं उनके पीछे ही खड़ा हूँ। उनके चेहरे के बनते और बिगड़ते हुए भावों को एकटक देखता हुआ।

विमल बाबू... विमल बाबू...

जी, साधु जी।

यह तस्वीर यहाँ कैसे आई? इसे तो मैंने बनाई थी। बिल्कुल वही तस्वीर है। उसी की तस्वीर। वे झट नीचे की ओर देखते हैं - तस्वीर के निचले हाशिए पर लिखा हुआ है - ए पोट्रेट बाई सत्यदेव शर्मा।

भाई सुनिए, ये किसकी तस्वीरों की प्रदर्शनी है? वे पास में ही खड़े एक बंगाली-से लगते आदमी से पूछते हैं।

ओह, यु डोंट नो। इट्स ऑल क्रिएशन ऑफ मिसेस रिंकी सेन।

रिंकी सेन...।

गहरे आश्चर्य से भरी उनकी आँखें अब मेरी आँखों में धँसती चली जा रही हैं। उनकी आँखों में सवाल हैं, हर्ष है, विषाद है, संशय है और इतना कुछ है कि उन्हें शब्दों में बाँधने की ताकत मेरे पास नहीं। वे इतने बेचैन हो जाते हैं उस समय कि उन्हें समझ नहीं आता कि वे क्या करें? मैं उन्हें अपने दोनों हाथों से पकड़ लेता हूँ और पास ही में बने एक काउंटर के सामने रखी कुर्सी पर बैठा देता हूँ।

विमल बाबू...। मेरा गला सूख रहा है।

मैं काउंटर पर खड़ी एक लड़की से पानी देने के लिए कहता हूँ। वे पानी पीते हैं। मैं देखता हूँ कि पानी पीते हुए उनके होंठ और हाथ काँप रहे हैं। कुछ देर बाद वे थोड़े नॉर्मल दिख रहे हैं - लेकिन उनके अंदर की बेचैनी अभी भी कम नहीं हुई है।

विमल बाबू चलिए यहाँ से, मेरे सीने में दर्द हो रहा है। मेरी नाक में फिर से वही बदबू भरने लगी है। वह देखिए मुझे सैफू बुला रहा है - वह मयना खड़ी है - मेरा इंतजार कर रही है। मेरे दादा आए हैं मुझे ले जाने के लिए।

साधु खान, होश में आइए। देखिए सामने कौन खड़ा है। पहचानिए इन्हें।

सामने एक सुंदर-सी महिला खड़ी है। उसके चेहरे पर उम्र का असर साफ दिखाई दे रहा है लेकिन उसके बाल करीने से रंगे हुए हैं। वह कहीं से अभी-अभी आई है और एकटक सत्यदेव को देखे जा रही है - उसकी आँखों में विस्मय की नमी साफ-साफ झलक रही है।

कौन...? वे अपना चेहरा ऊपर करते हैं। और सामने खड़ी महिला को देखकर सन्न रह जाते हैं। वे अचानक कुर्सी से उठकर खड़े हो जाते हैं - बदहवास से। पागलपन की हद तक बेचैन।

कौन...?

मैं हूँ सत्य... रिंकी...। महिला की आँखों से अश्रुधार फूट पड़ते हैं। वह बहवासी में सत्यदेव के कंधे से चिपट जाती है।

कैसे हो गए हो तुम...। कितना ढूँढ़ा मैंने तुम्हें। आज भी तुम्हारी बनाई हुई तस्वीर मेरे हर एक्जिविशन में लगती है। कि शायद तुम कहीं मिल जाओ...।

कुछ नहीं बोलते सत्यदेव...। उनकी आँखों से लगातार पानी बह रहा है। मैं चुप हूँ एकदम निर्वाक...। और मुझे गहरी तसल्ली है। कथा के पूरा होने की तसल्ली नहीं - लेकिन तसल्ली ही है वह - एक आत्मिक संतोष।

मैं देखता हूँ दो शरीर एक-दूसरे से गुँथे हुए चुप हैं - सिर्फ उनकी आँखें बोल रही हैं - लागातर बिना रुके। अचानक सत्यदेव का शरीर काँपना शुरू करता है - वे अवश होने लगते हैं - रिंकी के हाथ से उनकी पकड़ छूटती जा रही है - वे फर्श पर गिर चुके हैं। उनकी आँखें उलट गई हैं - साँसें जोर-जोर चल रही हैं - ऐसा लग रहा है कि उन्हें साँस लेने में बेहद तकलीफ हो रही हो। कोई एंबुलेंस को फोन करो, ओह माय गॉड इट्स एन एटैक... स्ट्रोक। कोई जोर से चिल्लाता है।

साधु खान... साधु खान... क्या हुआ आपको? कुछ नहीं होगा... सब ठीक हो जाएगा...। मैं सत्यदेव के पास दौड़ता हुआ पहुँचता हूँ। उनके मुँह से आवाज नहीं निकल पा रही। वे कुछ कहना चाह रहे हैं - लेकिन उनके हलक उनका साथ नहीं देते। रिंकी उनके पास है - उसने उनके सिर को अपनी गोद में रख लिया है और लगातार उनके माथे पर हाथ फेरती हुई पता नहीं क्या-क्या बोलती जा रही है और रोती जा रही है।

प्रिय पाठकों सत्यदेव को मेजर हार्ट अटैक आया है। उन्हें हॉस्पिटल ले जाते समय रिंकी सेन के साथ मैं भी था - उन्हें आइसीसीयू में भर्ती किया गया है - हम देर तक वहाँ हास्पिटल में उनकी हालत जानने के लिए खड़े हैं - जब डॉक्टर बनर्जी आते हैं तो बताते हैं कि उनकी अवस्था क्रिटिकल है - उन्हें वेंटिलेशन पर रखा गया है।

यह सुनने के बाद बार-बार मेरा गला रुँध जा रहा है - मेरे अंदर से एक गहरी रुलाई फूट रही है - मैं हॉस्पिटल के एक कोने में खड़ा होकर बहुत देर तक रोता रहता हूँ - चुपचाप। बिना किसी आवाज के। सुबह के पाँच बजे तक हम हॉस्पिटल में ही रहते हैं - मेरा मोबाइल स्विच ऑफ हो चुका है - मुझे इसकी परवाह नहीं कि पत्नी फोन कर रही होगी। मैं घर नहीं लौटना चाहता। मैं रिंकी सेन से पूछता हूँ कि क्या वह चलेंगी। वह कहती है कि जब तक सत्यदेव की हालत नहीं सुधरती वह वहाँ से कहीं नहीं जाएगी। मैं रिंकी सेन को हॉस्पिटल में ही छोड़कर बहार निकल आता हूँ।

मैं पी.जी. हॉस्पिटल के फुटपाथ से होते हुए पार्क-स्ट्रीट तक पैदल आता हूँ - निराश और हैरान। पूरा शहर सोया हुआ है - सड़कों पर इक्का-दुक्का बसें चल रही हैं - कुछ लोग बहुत तेज गति में सुबह-सुबह टहलने के लिए निकले हैं। बहुत देर तक चलते-चलते मैं हुगली नदी के एक घाट पर पहुँच चुका हूँ - घाट पर खड़ा मैं गंगा नदी के जल को देख रहा हूँ - आज मेरा मन नहीं होता कि मैं हुगली नदी में छलाँग लगा लूँ - मैं गंगा के जल को देखकर मन-ही-ही मन प्रार्थना करता हूँ कि सत्यदेव की हालत सुधर जाए।

बहुत दूर से एक नौका तैरती हुई आ रही है - गंगा के जल में हिलती हुई। नौका धीरे-धीरे चलती हुई करीब आती जा रही है और मल्लाह कोई एक गीत गा रहा है - एक करुण ध्वनि भी कान में पड़ रही है - वह रवि ठाकुर का कोई गीत गा रहा है -

तोमारे आबरिया धुलाते ढाके हिया

मरण आने राशि-राशि

आमि जे प्राण भरि तादेर घृणा करि,

तबुओ ताई भालोबासि।

(तुम्हें आवृत कर हृदय यह धूल में ढक जाता

मरण आता लेकर राशि-राशि

मैं घृणा करता उनको जी भर, तब भी

उनसे ही करता हूँ प्यार।)

मैं बहुत देर तक हुगली नदी के चौड़े पाट पर प्रार्थना की मुद्रा में खड़ा हूँ...।

मेरे समीप से गुजरकर बहुत दूर नौका हिलती हुई मेरे आँख से ओझल हो रही है - मैं उसे लगातार नम आँखों से एकटक देखता जा रहा हूँ।


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हिंदी समय में विमलेश त्रिपाठी की रचनाएँ