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कविता

सेतु

प्रभात रंजन


सेतु रौंदा गया है हर बार
दोनों ओर से वह
ठोकरें ही आज तक खाता रहा है
और फिर भी
यात्रियों को पार पहुँचाता रहा है -

...और अबकी बार भी ओ सेतु मेरे
तुम सहो -
दाँत भींचे रहो -
पेट के बल लेट
यूँ ही पीठ पर से पैर रखकर गुजर जाने दो इन्हें -

इस अनवरत रौंदे जाने में
चाहे तुम एक दिन जर्जर हो
ढह जाओ
यदि आज ये नहीं...
तो कभी जरूर
तुम्हारी ढही काया के स्थान पर
स्मारक बनाएँगे।


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