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कविता

कैसे देखूँ

प्रभात रंजन


डूबती साँझ की व्यथा
कैसे देखूँ -

इन सहमे उदास पेडों को
कैसे देखूँ-

इस स्तब्ध अंधियारी को
कैसे देखूँ -

यह भयावना एकाकीपन
और सूनी बोझिल शामें
यह घुट-घुट, डूबती स्याह शामें -

पूजा घंटियों को शून्य कर देने वाली प्रतिध्वनियाँ
झाड़ियों में झींगुरों का अनवरत गुंजन,
नयन-तट से अवश्य होते पाल
झिलमिलाते द्वीप-
कैसे? कैसे? कैसे? ...मैं
कैसे देखूँ !


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