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कहानी

गुरू-ग्रंथि

कैलाश बनवासी


''आइए-आइए गुरू! आपका स्वागत है!'' कांति भाई ने बहुत हुलस कर गुरू का स्वागत किया था, अपने घर के दरवाजे पर ही।

कांति भाई एकदम खुश हो गए-बिलकुल बच्चों के समान! यह खुश होने की बात ही थी। कितने महीने बाद तो गुरू उनके घर आए हैं!

गुरू कांति भाई के चंद मित्रों में से हैं, और बहुत खास। उनके पारिवारिक और अंतरंग मित्र। कोई तीस साल पुराने साथी। और कांति भाई जबसे सुभाष चौक वाला अपना घर बेच कर इधर विजयनगर में शिफ्ट हुए हैं तब से पुराने दोस्तों का मिलना-जुलना भी कम ही हो गया है।

सुभाष चौक में कांति भाई का जो पुश्तैनी घर था, शहर के मुख्य सड़क पर, जो बाजार और रेलवे स्टेशन को जोड़ती है। उनका घर उनके पिता का बनाया हुआ पुराना बाड़ा था। उनके तीन सौतेले भाई थे, जो इसी बाड़े में रहते थे। कांति भाई के हिस्से में सामने से बारह फीट चौड़ा और चालीस फीट लंबा मकान आया था, जिस पर भी भाइयों में विवाद चल रहा था। कांतिभाई ने अपने घर के सामने के कमरे को अपनी चाय दुकान बना लिया था। यही था उनकी रोजी-रोटी का जरिया।

और यही चाय दुकान उनके मित्रों का एक ठियाँ था - बैठने बात करने का।

अक्सर शाम को जुटने वाली इस मंडली का हिस्सा थे गुरू।

गुरू आज की तारीख में शहर के बहुत रईस तो नहीं, लेकिन एक जम चुके व्यवसायी अवश्य हैं। आकाश नगर में उनका बड़ा-सा दोमंजिला मकान है। शहर से 35 किलोमीटर दूर धमधा में शिवनाथ नदी के किनारे उनका सात एकड़ में फैला हुआ ईंट-भट्ठा है, धंधा चमकने के बाद जिसका आफिस उन्होंने आजकल गंजपारा के मेनरोड में डाल रखा है। और कांति भाई को गुरू की सबसे बड़ी, और सबसे अच्छी बात जो लगती है, वह है उनका एक अग्रणी समाज-सेवी होना। एक सामाजिक व्यक्ति के रूप में गुरू का नाम है शहर में। अपने अग्रवाल समाज के जिला सचिव हैं ही। अपने समाज के लिए कुछ न कुछ करते ही रहते हैं।

गुरू कार में आए थे। ड्राइवर साथ था।

गुरू घर में आए। बैठे। कहा, भाभी को बुलाओ।

''नमस्ते भइया!'' कांतिभाई की पत्नी कमला ने हँस कर कहा।

''भाभी, बेटे की शादी है। ये कार्ड। और आप सबको आना है!

''अरे वाह! बधाई हो गुरू!'' कांति भाई कार्ड लेकर देखने लगे।

कमला ने पूछा, ''भइया कब है शादी?''

''भाभी इसी अट्ठाइस को है जैनम पैलेस में। जरूर आइए।''

कांति भाई पत्नी से बोले, ''अरे कुछ चाय-पानी तो लाओ गुरू के लिए... इतने दिनों बाद आए हैं!''

गुरू कहते रहे, अरे नहीं कांतिभाई, और जगह जाना है, लेकिन कांति भाई ने थोड़ी नाराजी जता कर ऐसा इसरार किया कि मना नहीं कर सके।

बातचीत में गुरू बताने लगे कि सबकुछ फटाफट तय हो गया। और लड़की वाले तो कांति भाई, आपसे भी गरीब हैं, एक कमरे का मकान है फाफाडीह रायपुर में। बाप मजदूर है। माँ भी साड़ी के पीकू-फाल कर लेती है। बेटी बस है, इकलौती। बारहवीं तक पढ़ी। वैसे भी अपन को कौन-सा बहू को नौकरी करानी है? हम तो केवल लड़की देख कर शादी कर रहे हैं। और कांति भाई, उनकी तो कोई हैसियत ही नहीं कि भवन या पार्टी वगैरह कर सके। इसलिए हमने उनसे कह दिया है कि भाई, हम तो यहाँ के मैरिज पैलेस में शादी करेंगे। तुम लोग ऐसा करो, अपने परिवार, रिश्तेदारों को लेकर उसी भवन में आ जाओ। दान-दहेज और खर्चे की चिंता करने की कोई जरूरत नहीं। आपको आना है कांति भाई!''

''अरे गुरू, ये भी कोई कहने की बात है?'' कांतिभाई गुरू की इस प्रगतिशीलता से प्रभावित हुए। बोले, जरूर आएँगे!

गुरू ने चाय आने पर उनकी पत्नी से फिर कहा, ''आना है भाभी। हर हाल में। कोई बहाना नहीं चलेगा, है ना?''

''आएँगे न भइया। बिल्कुल आएँगे।'' कमला हँस कर बोली।

जाते-जाते गुरू कांति भाई के बेटे-बेटी से भी बोले - ''तुम लोगों को भी आना है... पक्का!''

''जी चाचा जी! आएँगे।'' राजू और पिंकी हँस कर बोले।

''चलता हूँ यार! सोफे से उठते हुए बोले, ''कितना काम रहता है साला इस शादी-ब्याह में! अभी पद्मनाभपुर निकलना है रिश्तेदारों के यहाँ, फिर महावीर कालोनी, फिर रायपुर...

''अरे गुरू, जब लड़के की शादी हो रही है तो बाप को तो पसीना बहाना ही पड़ेगा! कांति भाई ने कहा तो गुरू बोले, ''कांति भाई, बाप ने चाहे जितना पसीना बहाया हो पर ब्याह के बाद तो लौंडा बाप को नहीं, खाली डउकी को ही पूछेगा!''

हँस पड़े कांतिभाई। गुरू ने यह कहा तो उनको मजा आ गया! सोचा, अरे गुरू साला आज भी वैसा ही है! वैसे ही खुले दिल का, जिंदादिल! खुशमिजाज!

गुरू को कांति भाई ने बिदा किया। उसकी कार को वो अगले मोड़ तक जाते देखते रहे, बहुत सुख के भाव से।

कांतिभाई के आगे यादों के बहुत सारे चित्र हैं... गुरू के साथ बीते इतने दिनों के... कोई तीस साल पहले से शुरू।

...सुभाष चौक की उसी लाइन में जिसमें कांति भाई की चाय दुकान है, गुरू -विनोद अग्रवाल - ने एक छोटे-से कमरे में अपनी शाप डाली है - 'रेनबो कलर लैब'! गुरू का परिवार भाटपारा से यहाँ आया है। माता-पिता और गुरू सहित तीन भाई। आदर्श नगर में किराये के मकान में रह रहे हैं। धंधे के मामले में बहुत दूरदर्शी हैं गुरू। दूसरों से दस कदम आगे की सोच लेने वाले। इन्हीं दिनों दुर्ग से लगे भिलाई के सिविक सेंटर में उनके किसी रिश्तेदार ने जापान की आटोमेटिक फोटो कलर प्रिंटर मशीन डाली थी। यह इस इलाके में फोटोग्राफी के क्षेत्र में नई और बड़ी क्रांतिकारी पहलकदमी थी। इस मशीन ने फोटो की प्रिंटिंग एकदम आसान कर दी थी। फोटोकापी निकालने के जैसा। अब स्टुडियो वालों को अपने स्टुडियो के डार्करूम में मगजमारी करने और समय खपाने की जरूरत नहीं थी। फोटो रील को मशीन प्रिंट कर लेती थी। शहर में अपने तरह की यह पहली दुकान थी। प्रतिसाद अच्छा मिलना ही था। गुरू ने पहले घूम-घूम कर शहर के तमाम फोटो स्टूडियोज से फोटो रील लेकर उन्हें प्रिंट कराने का आर्डर लेना शुरू किया। फिर साल भर के भीतर ही आसपास के पूरे इलाके से - क्या डोंगरगढ़, क्या कवर्धा, और क्या राजहरा, सब जगह से आर्डर मिलने लगे! दुकान में उनका छोटा भाई राजू बैठने लगा। और उन दिनों देखते कि गुरू अपनी लूना से गाँव और शहर के तमाम स्टुडियोज छान मार रहे हैं आर्डर लेने। उनका धंधा चल निकला। अब उसकी दुकान में फोटो-स्टुडियो वालों की भीड़ रहने लगी। आगे गुरू ने काम बढ जा़ने पर दूर-दराज के गाँवों में, तहसीलों में अपने एजेंट बना लिए, जो वहाँ के फोटो-स्टुडियो के रीलों का कलेक्शन करके यहाँ प्रिंटिंग के लिये दे जाते, और दूसरे दिन प्रिंट ले जाते।

कोई पाँच साल लग गए इस धंधे को जमने में। गुरू गले में गमछा डाले अपनी लूना में मस्त। दिनभर धूल, धूप में यहाँ-वहाँ की चक्करदारी के बाद शाम को कांतिभाई की चाय दुकान में बैठते, फुर्सत से। जहाँ इस समय असपास के और भी कारोबारी या दूसरे लोग जमा हो जाते। फिर गप्प ऊपर गप्प! दुनिया जहान की बातें और किस्से! राजनीति, सिनेमा, समाज, धरम, परिवार जो भी चर्चा छि़ड जाए। इस समय तक कांति भाई भी फ्री हो चुके होते और इस मंडली के साथ अपना समय बिताते।

गुरू को 'गुरू' नाम इसी चहकड़ी मंडली का दिया हुआ है। और यह ऐसा पड़ा कि आज भी बहुत से लोग उनके असली नाम से जानते ही नहीं। गुरू असल में बहुत व्यावहारिक आदमी हैं। जीवन के अनेक उतार-चढ़ाव, धूप-छाँव के अनुभवों से भरे। धंधे के सिलसिले में आसपास ही नहीं, दिल्ली, मुंबई,या कलकत्ते तक की खाक छाने हुए। और बतरसिया गुरू की हर मामले में राय हाजिर! तुमको किसी उधारी लेना हो, किसी से उधारी वसूलना हो, मकान बनवाना हो, इंजीनियर को पटाना हो, कि नया धंधा शुरू करना हो, कि आफिस के बाबू से अपने फाइल पर ओ.के. रिपोर्ट लेना हो, रेलवे में रिजर्वेशन के लिए टी.टी. को पटाना हो, सब काम के लिए उनके पास नुस्खे हाजिर! चाहे बेटी की शादी में उजड्ड बरातियों से निपटना हो या ऐन मौके पर कम पड़ गई दाल के संकट से उबरना हो, सब पर उनकी राय हाजिर! अपनी पतली, लचकीली आवज में गुरू ज्ञान दे रहे हैं - 'तुम बरातियों से प्रेम से बोलो कि अभी आ रहा है भाई। उन्हें बातचीत में फुसलाए रखो तब तक बची दाल में पानी मिला कर करछुल चलवा दो... किसको पता चलेगा?' यहाँ तक कि किसी को अपने परिजन के अस्थि-विसर्जन के लिए राजिम या इलाहाबाद जाना हो, तो गुरू के वहाँ ऐसे समाजसेवियों से संपर्क हैं जो आपको न केवल कम से कम खर्चे में पंडा उपलब्ध करवा देगा, बल्कि पूजा-पाठ में भी होने वाली लूट से भी बचा देगा। गरज कि गुरू हर तरह की सेवा में हाजिर और माहिर। इसीलिए तो गुरू हैं!

गहरे साँवले रंग के, मँझोले कद और हल्के गदबदे देह के खुशमिजाज गुरू सबके चहेते हैं। सिर के सामने के बाल बहुत पहले से झड़ गए हैं। और गुरू अपने लिए ही नहीं दूसरों के लिए भी कर्मठ हैं। चौक पर ही कांतिभाई की दुकान के ठीक सामने सड़क पार पर रियाज की गद्दा-तकिया सीलने की दुकान है। उस दिन जाने कैसे दिन-दहाड़े उसकी रूई दुकान में आग लग गई। उन दिनों नगर निगम में अग्निशामक गाड़ियाँ नहीं थीं। भिलाई से बुलाना पड़ता था जिसमें काफी समय लग जाता था। आग लगी तो आसपास के सारे धंधेवाले इसे बुझाने में जुट गए। कांति भाई देख रहे हैं, अपना धंधा छोड़कर गुरू भी भिड़े हुए हैं, बाल्टी भर-भर कर कुएँ से पानी ला रहे हैं, उनके कपड़े और शरीर पसीने से एकदम तरबतर... सर के बाल भी माथे से पसीने के कारण चिपके हुए हैं, लेकिन गुरू हैं कि भिड़े हुए हैं किसी भूत की तरह...।

और मजाकिया भी कम नहीं। जहाँ गुरू हैं वहाँ हँसी-मजाक चलता ही रहेगा। कांति भाई को याद है कैसे गुरू के आने के बाद वहाँ कहकहे फूटने लगते थे!

गुरू अपना अनुभव बता रहे हैं, अरे भाई, इन डौकी लोगों को क्या कहें, शादी हुए साला बीस साल बीत गए लेकिन आज भी रात में उनसे पूछो तो जवाब - 'नहीं'। नहीं। नहीं!' अरे यार कभी तो बोलो हाँ! इन लोगों को मानो किसी ने जिंदगी भर के लिए कसम दिला रक्खी है, कि अपनी तरफ से हाँ नहीं बोलना! साला पचीस बार उनकी 'नहीं' सुनके भी 'हाँ' के लिए पीछे पड़े रहना पड़ता है! अरे चलो न... अरे चलो न...!

कभी बता रहे हैं, यार, मुझको तो आज भी खुले में निपटना अच्छा लगता है। मैं तो घूमते ही रहता हूँ। बाहर में प्रेशर बना तो कभी किसी खेत में, या कभी नाले के पास या कभी नदी किनारे... इस सुख का तो कोई मुकाबला ही नहीं! आह्हाऽऽऽऽ... कितना चैन मिलता है खुले में बैठने से! बैठे रहो इत्मीनान से... देखते रहो सामने नदी, पेड़, पंछी, आसमान... इस सुख को तो भइया निबटने वाला ही जान सकता है! और तुम लोगों को बताता हूँ, मैं मान लो शहर में आ भी गया होऊँ, तो भी नाला या तालाब खोजता हूँ...।

कोई टोक देता - अरे क्या फालतू बात करते हो गुरू?

''अरे, इसमें फालतू बात क्या है? तुम प्रकृति के नजदीक जाओ तो ही जीवन का असली सुख है! ये क्या कि साला एक दड़बे में जिंदगी गुजार देना!''

गुरू का दिमाग तेज चलता है। धंधे के मामले में हमेशा कुछ न कुछ नया ही सोचते हैं। उनकी नजर बराबर इस बात पर रहती है कि मार्केट में नया क्या आया है, जिसकी आगे चलकर डिमांड बढ़ सकती है...।

इन्हीं दिनों कंस्ट्रक्शन-मार्केट में परंपरागत कुम्हारों के या चिमनी के बने ईंटों की जगह हालो ब्रिक्स और सीमेंट पोल का चलन शुरू हुआ था। सबसे छोटा भाई पप्पू अभी-अभी ग्रेजुएट हुआ था। और गुरू का विचार है कि लड़का कहीं बहके, इससे पहले ही उसको कोई जिम्मेदारी दे दो। गुरू ने इस उद्योग के लिए भिड़-भिड़ा कर राज्य उद्योग विभाग से मंजूरी ली, और बैंक से लोन फाइनेंस कराया। पास के गाँव जेवरा में मेनरोड से लगी एक जगह खरीद कर यह काम शुरू कर दिया। इस नये धंधे को जमाने में, सरकारी विभागों के अधिकारियों और बाबुओं को प्रभावित करने में उनकी कर्मठता, दक्षता और वाकपटुता ही काम आई। जल्दी ही बड़े सरकारी आर्डर मिलने लगे। जब देखा कि सब मामला अच्छे से 'सेट' हो गया है तब इसकी जिम्मेदारी पप्पू को सौंप दी। और उसने इसे बखूबी सँभाल लिया।

गुरू ने दोनों भाइयों की शादी भी खूब धूमधाम से की। घर में बहुएँ आ गईं।

लेकिन डेढ़-दो साल बाद ही गुरू ने जब दुर्ग से पैंतीस किलोमीटर दूर धमधा में शिवनाथ नदी के किनारे पाँच एकड़ का खेत खरीदा तो सभी चौंक गए। यही नहीं, गुरू अपना परिवार-पत्नी और दो बेटे के साथ अचानक वहीं रहने लगे और खेतीबाड़ी करने लगे, तो सब चकरा गए। शहर में बसा, जमा-जमाया कारोबार छोड़ कर यों कोई गाँव में रहने लगे, सो भी परिवार सहित, तब लगा गया कि मामला गहरा है, कोई पारिवारिक विवाद ही इसके जड़ में है।

लेकिन गुरू ने कभी खुल कर इसके बारे में नहीं बताया। इतना ही बताया, कांति भाई, अब चार बर्तन जहाँ रहेंगे वहाँ खटपट तो होगी ही। और डउकी लोगों तो जानते ही हो! मेरी बीवी ही अड़ गई - इस घर में अब एक मिनट नहीं रहना है! जबकि बच्चे अभी आठवीं-नवीं में पढ़ रह थे।

गाँव में अच्छे और बड़े प्राइवेट स्कूल तो थे नहीं, लिहाजा बच्चों को गाँव के सरकारी स्कूल में ही भरती करा दिया गया। यह उनके परिवार में विचित्र बात हो गई। जिन भाइयों को उन्होंने पढ़ाया लिखाया, धंधे-पानी से लगाया, उनके बच्चे तो शहर के नामी प्राइवेट इंग्लिश मीडियम स्कूल में पढ़ रहे थे, और उनके खुद के बच्चे गाँव के सरकारी स्कूल में! लेकिन गुरू का मानना है सब कुछ स्कूल से थोड़े ही तय होता है! आपका भविष्य आपके काबिलियत में है, न कि किसी स्कूल विशेष में। यह सिद्धांत उन्होंने शिक्षा के इन घोर व्यावसायीकरण और निजीकरण के दौर में भी बनाए रखा, ये उनके हौसले की ही बात है।

गुरू ने गाँव में रहते हुए कुछ और जमीन खरीद ली। अपना ईंट भट्ठा डाल लिया। उसका एक आफिस शहर में डाल लिया।

बच्चे पढ़ते गए और बढ़ते गए।

यहीं अब गुरू के बेटे की कहानी शुरू होती है, जिसके बारे में वह कांति भाई को बीच-बीच में बताते रहे हैं।

दो बरस पहले गुरू एक बार कांति भाई से मिलने आए थे, तब काफी परेशान थे। इतना परेशान कांति भाई ने उन्हें कभी नहीं देखा था। और मानसिक रूप से भी बहुत कमजोर और टूटे हुए लगे थे। उनके चेहरे पर जिंदादिली की वह मुस्कान - जो उनकी खास पहचान है - गायब थी, कि हर समस्या का अपनी तरह से हल बताने वाले गुरू जैसे खुद किसी समस्या में उलझ गए थे।

समस्या थी - बेटे का प्रेम-विवाह के लिए अड़ जाना!

स्कूल के जमाने से गाँव में अपने साथ ही पढ़ने वाली एक लड़की से उनका बेटा प्रेम करता था और अब विवाह उसी से करूँगा कि जिद। उन्होंने पता लगा लिया था कि लड़की सुंदर है और उनके बेटे के साथ जोड़ी अच्छी दिखाई देगी। यहाँ तक तो कोई समस्या नहीं थी । समस्या थी लड़की की जात। वह यादव थी। यही बात उनको पसंद नहीं थी।

''यार, साले को लड़की पसंद भी करनी थी तो थोड़ा जात-बिरादरी देखकर करता! तब तो कोई दिक्कत नहीं थी। लड़की गरीब घर की भी होती तो चल जाता। और मैं जो अपने समाज का मुखिया हूँ, अपने ही बेटे की शादी कैसे जात के बाहर कर दूँ? समाज वाले क्या कहेंगे। देखो भाई, तुम मानते हो या न मानते हो, लेकिन मैं तो मानता हूँ। ये जात-पांत हमारे पुरखों ने बनाई है तो कुछ सोच कर ही बनाई है। और अपने यहाँ तो यही शादियाँ सफल है। लव-मैरिज वाले कितने ही जोड़ों का हाल मैं खुद देख चुका हूँ। मैंने भी अपनी जिद लड़के को बता दी है कि देख बेटा, तेरे को अगर इस घर में रहना है तो हमारी मर्जी से शादी करनी पड़ेगी। नहीं तो अपना बोरिया बिस्तर समेट और निकल ले!

लड़का तब तक नहीं माना था। जिद कि शादी उसी लड़की से करूँगा।

''यार, तुम लोग आ के समझाओ उसको। घर में ऐसे थोड़े ही चलता है!'' गुरू ने कहा।

''अरे गुरू, हम लोग भला क्या समझाएँगे? वो भी आपके जैसे समझाने वाले के होते?'' कांति भाई ने टालने की कोशिश की, ''वो जवान लड़का है, अपना भला-बुरा खुद समझने लगा है, हम लोग क्या बोलेंगे?

''अरे कांति भाई, एक बार समझाने में क्या हर्ज है? घर की ही बात है।'' गुरू ने आग्रह किया।

कांति भाई का जाने का मन नहीं था। लेकिन लगा, कहीं गुरू इस बात का बुरा मत मान जाए, कि देखो एक काम बोला, वो भी...? इसलिए एक दिन चले गए अपने ग्रुप के ही एक मित्र को साथ लेकर। कांति भाई को जाते हुए कोई खुशफहमी नहीं थी। उल्टे अटपटा ही लग रहा था। और सच में वे हड़बड़ा गए, जब इतने दिनों बाद अब जवान हो चुके एक लड़के से कमरे में मिले। कांति भाई ने गुरू के हवाले से उसे अपनी तरह से समझाया - जैसे एक जवान बेटे को समझाया जाता है।

लेकिन लड़के ने अपना रुख साफ कर दिया कि वह अपने पुराने निर्णय पर कायम है। अब जवान लड़के से ज्यादा कोई क्या बोले?

वहाँ से लौटते हुए मन में बात पक्की हो गई थी कि ये नहीं मानेगा। और फिर सोचा कि गुरू को दिक्कत क्या है? लड़का जहाँ चाहता है, कर दे वहीं शादी। घर में और कोई समस्या तो है नहीं, कि पहले कमा के दिखा, या अपने पाँवों पर पहले खड़े हो के दिखा...।

लेकिन आगे जाने क्या हुआ कि इस बार भी जीत गुरू की ही हुई! गाँव में गुरू ने क्या तिकड़म भिड़ाया यह तो वही जाने, लेकिन लड़का बाप की बात मान गया!

गुरू मिलने आये तो काफी खुश थे, ''चलो यार, बला टली! अब लड़के की शादी दिल खोलकर करूँगा! अब लड़की भले ही गरीब घर की हो, मैं सोचूँगा नहीं!''

अगली बार जब गुरू मिले तो इसी खुशखबरी के साथ। उन्होंने रायपुर में एक लड़की देख ली थी। लड़के को भी लड़की पसंद आ गई है। गुरू ने किंचित गर्व से बताया था, ''बेटे का रिश्ता जहाँ हुआ है कांति भाई, उनका घर तो तुम्हारे घर से भी छोटा है। बिल्कुल एक कमरे का मकान। बाप किसी बर्तन दुकान में काम करता है। एक ही बेटी है। पर अपन ने लड़की की हैसियत बिल्कुल नहीं देखी। अरे यार, जब हमारे जैसे लोग उनका नहीं सोचेंगे तो फिर कौन सोचेगा? गरीब घर से है तो क्या हुआ, यहाँ आ कर सब सीख जाएगी!'' कांति भाई ने नोटिस किया, गुरू का साँवला चेहरा चमक रहा है, अपनी मदद से किसी गरीब का उद्धार कर देने वाले किसी दानवीर सेठ के उत्साह से!

कांति भाई को गुरू की यह बात बहुत अच्छी लगी थी कि उन्होंने बेटे का रिश्ता करते हुए हैसियत की ऊँच-नीच नहीं देखी थी। यह एक बड़ी बात थी! उन्होंने खुश हो कर उनको बधाई दी थी!

बारात निकलने के पहले ही कांतिभाई सपरिवार विवाह-स्थल में पहुँच गए थे। भइ, आखिर दोस्त के बेटे की शादी है।

...सारा कुछ अमूमन वैसा ही था जो आमतौर पर ऐसे रिसेप्शन पार्टियों में देखने को मिलता है। बिजली के चमकते रंगबिरंगे झालर, एक ओर खाने-पीने के सजे हुए स्टाल, दूल्हे-दुल्हन के लिए सजे हुए मंडप..., स्टेज... पानी के रंगीन फव्वारे, हल्का-हल्का बजता मन को भाता संगीत... फिर यहाँ कांति भाई को अपने लगभग सारे पुराने साथी मिल गए, जिससे आनंद दुगुना हो गया! उनमें जम के हँसी-मजाक होने लगे। बढ़िया हँसी-खुशी का वातावरण!

शादी में सब कुछ नियम और रस्मों के मुताबिक निपट रहा था। कांति भाई लड़के पक्ष की तरफ से गुरू के साथ खड़े थे। गुरू आज ग्रे रंग के चमकीले सूट में चमक रहे थे, सर पे गुलाबी साफा बांधे हुए। वर पक्ष के तमाम रिश्तेदार यही साफा बांधे हुए थे।

बारात बाज-गाजे, आतिशबाजियों और लड़कों के जम कर नाचते-गाते हुजूम के साथ घूम कर लौटी। अब समय था वधू पक्ष द्वारा वर पक्ष के लोगों के स्वागत करने का।

लड़की के पिता, जो सफेद कुरते-पाजामे में थे, गमछे का फेंटा बांधे हुए, अभी वर के तमाम रिश्तेदारों के पैर धोने का नेग निभा रहे थे। सबसे आगे वहाँ गुरू खड़े थे, जो अपने समधी को उनका परिचय देते हुए पैर धुलवाने एक-एक कर बुलाते जा रहे थे। कांति भाई देख रहे थे, पैर धुलवाने वाले गुरू के नातेदारों की संख्या तीस पार कर चुकी थी। ये इकतीस... ये बत्तीस...। कांति भाई गिनने लगे थे...। ये उनचालीस... ये चालीस...। और गुरू बताए जा रहे थे, ये लड़के के नरसिंहपुर वाले मामा का बेटा, ...ये लड़के के दादा का अंबिकापुर वाला भतीजा... ये...

कांति भाई को यह बात बड़े जोर से खटक गई वहाँ!

अरे! ये क्या तरीका है? पैर धुलवाए जाते हैं महज नेग की खातिर। कि किसी जमाने से यह चला आ रहा है तो नाम के लिए इसका पालन करें। दो, चार, आठ दस... अधिक से अधिक पंद्रह ...या बीस... यहाँ तो गुरू, जिनके भीतर पता नहीं कब से कुंडली मारे बैठे ऐसे पांरपरिक, रूढ़िवादी संस्कार सहसा हावी हो गए थे कि वह एक के बाद एक अपने तमाम रिश्तेदारों को लड़की के पिता से पैर धुलवाने आगे करते जा रहे थे...।

...हाँ, आप हैं मेरे भाई के काकाससुर..., आप हैं मेरी बहन के डोंगरगढ़ वाले फुफाससुर...,। आप हैं छोटे भई के मौसाससुर ...आप हैं हमारे चाचा के ममेरे भाई... आप हैं...।

सिलसिला थमने का नाम ही नहीं ले रहा था। गुरू ने करीब-करीब अपने सारे रिश्तेदारों के पैर लड़की के पिता से धुलवाए। संख्या पचास से कम तो हरगिज नहीं थी...।

मन खट्टा हो गया कांति भाई का। उदार, जिंदादिल गुरू के इस रूप की कल्पना भी उन्होंने कभी नहीं की थी। सोच रहे थे, ये क्या हो गया है गुरू को? अरे, भला ऐसा भी क्या स्वागत करवाना? मान लिया कि नेग होता है। तो चार-आठ का धुलवा देते? इतने सारे लागों के पैर धुलवा के क्या साबित करना चाहते हैं आप? कि देखो हमारे कितने रिश्तेदार हैं! या यह कि तुम हमारी हैसियत के कहीं से नहीं हो! कि तुम्हारी लड़की को माँग कर हमने तुम पर बहुत बड़ा अहसान किया है! कि तुमको आज से हमारे इस अहसान के तले सदैव दबे रहना है। कि तुम लड़की वाले हो, और लड़की वालों को तो हमेशा उसके ससुराल वालों के आगे झुक कर रहना पड़ता है...।

पता नहीं क्या था गुरू के मन में ये सब करवाने के पीछे! जो भी हो, यह तो दिखाई पड़ रहा था कांति भाई को, कि ये अपने समाज के अगुआ और आधुनिक सोच-समझ वाले माने जाने के बावजूद, हैं अंततः दकियानूस, जो ऐसी-ऐसी प्रथाओं को आज भी बढ़-चढ़ के महत्व दे रहे हैं! अपने बरसों पुराने साथ पर आज उन्हें बड़ी हैरानी हो रही थी, कि भला गुरू का यह रूप अब तक वह क्यों नहीं देख सके?

इसके बाद कांति भाई का काफी दिनों तक - शायद साल भर से - गुरू से मिलना नहीं हो पाया। जाने क्यों, उनका मन ही नहीं हुआ। गुरू का ध्यान आता तो उन्हें वह सब भी ध्यान आ जाता तो उन्हें बिलकुल नहीं जमा था! फिर सोच लिया, ठीक है, ये गुरू की अपनी सोच है। इसमें भला मैं क्या कर सकता हूँ? और यारी-दोस्ती में ऐसी बहुत-सी बातों को नजर-अंदाज करना ही पड़ता है। व्यावहारिकता के नाते।

एक दोपहर वह चले गए गुरू के गंजपारा वाले आफिस। अच्छा ही था कि इस समय वे व्यस्त नहीं थे। उनके केबिन के बाहर जो सोफा लगे थे, गुरू भी वहीं बैठ गए। बातचीत होने लगी। वैसे ही जैसे पुराने मित्रों से मिलने पर हुआ करती है... ज्यादातर अपने ग्रुप के साथियों के वर्तमान हाल-चाल, जिसमें इधर बढ़ती उम्र के साथ सबकी कोई न कोई स्वास्थ्यगत समस्या खड़ी हो रही थी। इसी गपशप में फिर उनके पारिवरिक मामले भी आते चले आए। कांति भाई भी बेटी-दामाद वाले हैं, तीन साल पहले वे अपने बड़ी बेटी की शादी कर चुके हैं।

बातचीत के दौरान गुरू बोले, ''देखो कांति भाई, आप इसका बुरा मत मानना, लेकिन ये पक्की बात है कि अधिकांश लोग जो गरीब रहते हैं, उनके दिल-दिमाग भी साले दरिद्र ही रहते हैं!''

चौंक गए कांति भाई। उन्हें एकबारगी लगा, कहीं मेरे बारे में ही तो नहीं बोल रहे हैं? वह बहुत गौर से गुरू का कहना सुनने लगे।

''इनको सुधारना भी चाहो तो तुम नहीं सुधर सकते। ये जैसे हैं... अपनी दरिद्री में... कंगले... ये बस वैसे ही रहना चाहते हैं!'' गुरू का मुँह घृणा से कुछ विकृत हो गया और तेज बोलने के कारण होंठ के किनारे सफेद फुचके जम गए थे।

''क्यों? क्या हो गया गुरू?'' कांति भाई को कुछ समझ नहीं आया, यह कहना क्या चाहता है? पूछा, ''ये आप किसके बारे में बोल रहे हो?''

''यार, मैं अपने समधी के बारे में बोल रहा हूँ! समधी के बारे में! वो छतीसगढ़ी में एक ठो गाना है न, ...लाखों में एक झन हाबै गा मोर समधी!''

गुरूदेव ने जब यों चिढ़ कर, भीतर से तिलमिला कर अपने समधी को ताना मारा तो कांति भाई को हँसी आ गई। पूछा, ''अच्छा? भला उन्होंने ऐसा क्या कर दिया जिससे आप उन पे इतना नाराज हो रहे हो?''

''अरे, नाराजी की तो बात ही है कांति भाई! आप भी एक लड़की के पिता हो। आपकी बेटी भी ससुराल में है। और अगर, आपको उसके ससुराल वाले प्रेम से किसी कार्यक्रम में बुलाते हैं तो क्या आप नहीं जाओगे...?''

सोच में पड़ गए कांति भाई। थोड़ा समय ले कर बोले, ''क्यों नहीं जाऊँगा? मेरे जाने लायक हुआ तो बिल्कुल जाऊँगा!''

गुरू ने तत्काल कहा, ''और ये मेरा समधी है साला, लाखों में एक! बुलाओ तो उसके बाद भी नहीं आता।''

''कुछ काम होने से तो आना चाहिए उनको...।'' कांतिभाई ने अपनी राय दी। फिर पूछा, ''वैसे किस काम के लिए बुला रहे थे?''

''यार, बहू की 'सधौरी' थी। मैंने खबर दिया था और उससे कहा था आने के लिए। तो वो खुद नहीं आया, अपनी पत्नी और दूसरे रिश्तेदारों को भेज दिया!''

''अरे, तो क्या हो गया? चलो, उनके घर से लोग आए न?''

''अभी और एक कार्यक्रम था। हमारे एक करीबी रिश्तेदार के बेटी की सगाई थी। खबर मैंने खुद ही दी थी, लेकिन वो हाँ-हाँ करके भी नहीं आया..., अब इसको क्या बोलोगे...?''

''वैसे करते क्या हैं आपके समधी?''

''अरे बताऊँगा तो तुम भी हँसोगे! ठठेरा है! बर्तन पीटने का काम करता है! घर में इनके और कोई है नहीं। मैं उसको कई बार बोल चुका कि भाई, तुम यहाँ आ जाओ... मेरे भट्ठे में मुनीम का काम देखो। वहाँ कमरा बना है उसमें रहो। पर नहीं!! भले रह लेंगे कुंदरापारा की अपनी आठ बाइ दस की खोली में! मगर मेरे साथ रहने में लाट साहब की नाक कटती है! मैं इसीलिए तो बोल रहा हूँ न कि ये साले दिमाग से भी कंगले होते हैं! एकदम पैदल!'' गुरू एक बार फिर चोट खाए साँप-सा तिलमिला गए।

कांति भाई ने पूछा, ''गुरू, आपने कभी जानने की कोशिश की कि क्यों वो आपके साथ नहीं रहना चाहता?''

''भला इसमें जानने की क्या बात है? अरे,ऐसे लोग न कोई अच्छी बात न सुनना चाहते हैं न समझना! न करना! और क्या?''

अब कांति भाई को मामले का सूत्र हाथ लगते जान पड़ा। बोले, ''देखो ऐसा है गुरू, आपकी और उसकी हैसियत में बड़ा भारी अंतर है! आपके सामने तो वो नहीं के बराबर है! हो सकता है, बेटी के घर आने-जाने की जो परंपरा है, उसके चलते उनको दिक्कत होती हो। पुराने लोग तो बेटी के घर का पानी तक नहीं पीते थे। या लेन-देन की जो व्यावहारिकता है उसमें अपनी गरीबी के कारण परेशानी होती हो...। जैसे मैं अपनी ही बात बता रहा हूँ। मेरी बेटी भी एक खाते-पीते घर में गई है, पास ही बिलासपुर में। लेकिन हमको वहाँ जाने के पहले दस बार पहले सोचना पड़ता है! हजार-पाँच सौ तो ऐसे ही उड़ जाते हैं! तो गरीब आदमी के लिए...।''

गुरू कांति भाई की बात पूरी होने के पहले ही बोल पड़े, ''अरे नहीं भाई, मैंने तो उससे कह के रखा है कि इसे अपना घर समझ के आते-जाते रहो। हमसे संपर्क रखा करो। आखिर मैं तुम्हारा समधी हूँ... लड़के का बाप! और, एक बात बताओ, तुम्हारी एक ही बेटी है, तो क्या तुम उसके लिए इतना भी नहीं करोगे? फिर कैसे बाप हुए तुम?''

''आपके लिए ऐसा कह देना आसान है गुरू, लेकिन जिसकी स्थिति ठीक नहीं है, उसके लिए तो ये बहुत बड़ी बात है!'' कांति भाई बोले।

लेकिन गुरू मानने को तैयार नहीं! उनको ये जिद थी कि लड़की के बाप को लड़की के ससुराल वालों से संबंध अच्छे रखने चाहिए। यानी, उनकी मर्जी के मुताबिक जब-तब हाजरी, सेवा और जी हुजूरी...।

और यही नहीं चाहता इसका समधी! कांति भाई को लगा ठीक कर रहा है वह। बेटी ब्याह दी इसका ये मतलब तो नहीं कि लड़की वाले तुम्हारे गुलाम हो जाएँ? तुम जैसा चाहते हो वैसा ही करें?

कांति भाई ने गुरू के इस रूप के बारे में भी कभी नहीं सोचा था।


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