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कहानी

इस समय चिड़ियों के बारे में

कैलाश बनवासी


दीवाली का दिन था।

ग्यारह बजने को आ रहे थे और मैं अपना बाजार जाना टाले हुआ था। लेकिन अब ज्यादा देर तक टालना संभव नहीं था। पत्नी के नाराज हो जाने का खतरा था, क्योंकि दो-तीन बार से भी अधिक वह मुझे जाने को कह चुकी थी। दीवाली की पूजा के सामान खरीदने हैं। धन की देवी लक्ष्मी की पूजा के सामान-लाई, खील, बताशे, दिए, पान, फूल दुबी इत्यादि। बहुतों की तरह उसे भी विश्वास है कि आज पूजा करने से लक्ष्मी की कृपा से घर साल भर धन-धान्य से भरा रहेगा। और उसके विश्वास को ज्यादा तोड़ने का साहस मुझमें नहीं था।

लेकिन मैं बाजार दूसरे कारणों से जाना टाल रहा था। बाजार और भीड़... इनका जैसा गहरा साथ है, मुझे उतनी ही एलर्जी। दरअसल मैं बाजार से मानसिक तौर पर ऊब चुका था। बहुत बुरी तरह! त्यौहार आ रहा है, पिछले महीने से त्यौहार-त्यौहार, बाजार-बाजार रटा जा रहा है, सुबह-शाम, दिन-रात लगातार! अखबार विज्ञापनों से मार भरे पड़े हैं। खबर को खोजना पड़ता है रंगीन विज्ञापनों की चकाचौंध के बीच। घर में टीवी खोलो तो उसमें भी वही चल रहा है, दीवाली के एड्स। दीवाली की शुभकामनाएँ लेते-लेते मन थक चुका है। इसमें आते धारावाहिकों में भी दीवाली की भव्य तैयारियाँ चल रही हैं। नेता ही नहीं अभिनेता, अभिनेत्री बार-बार हमें 'हैप्पी दीवाली' कह रहे हैं। और हर कंपनी दीवाली पर कुछ न कुछ दे रही है, नारियल तोड़ो ऑफर, फटाका फोड़ो ऑफर, स्क्रैच एंड विन ऑफर, दसियों तरह के लुभावने ऑफर! चौतरफा बाजार और दीवाली का शोर! कई बार लगता है, सचमुच हमारे भीतर जितना भी बचा-खुचा उत्साह है, उसको ये कंपनियाँ और बाजार हवा भर-भर कर दुगुना कर देना चाहती हैं। हमारे दीवाली मनाने की हमसे ज्यादा चिंता इन कंपनियों को हो गई है! और यह भी कि हमारा दीवाली मनाना इन्हीं चमकदार, हँसते-गाते, बेफिक्र चेहरों द्वारा संचालित होने लगा है जो खुद बाजार से संचालित हैं। मैं तय नहीं कर पाता, दीवाली हमारी होती है या इनकी?

यही हाल त्यौहारी बाजार का है। शहर की दुकानें सज गई हैं। हालत ये है कि घर से कदम बाहर रखते ही आप बाजार में होते हैं और दुकानदार आपको खींच लेना चाहता है।

दूसरों की तो नहीं जानता, लेकिन महीने भर से चले आते इस त्यौहारी माहौल से मैं एकदम ऊब चुका था और दीवाली के जल्द से जल्द आगे निकल जाने की राह देख रहा था कि राहत से साँस ले सकूँ।

दूसरी वजह, बाजार में इन दिनों रहने वाली भयानक भीड़! ऐसी भीड़ होती है कि दो कदम सही चलना संभव नहीं रह जाता। लगता है पूरा शहर उमड़ा पड़ा है। कल शाम बाजार गया था और भीड़ में फँसकर रह गया था। बाजार नहीं, मेला लगता था! मुझे लग रहा था मैं भीड़ में चल नहीं रहा हूँ, घिसट रहा हूँ। एक बार इस भीड़ के समंदर में आप चले गए तो लहरों की तरह आप कहाँ फिंकाओगे, कहना मुश्किल है। मैंने खुद को सब्जी मंडी में पाया था, जहाँ आने का मेरा कोई इरादा नहीं था। वहाँ का भयंकर शोर, चीख-चिल्लाहट दिमाग में अब भी नगाड़े की तरह बज रहा है, और चारों तरफ फैले ताजा और बासी साग-भाजी की अजीब-सी बास मानो अब भी मैं महसूस कर रहा हूँ...।

कल ही के इस दुष्कर अनुभव को मैं फिर से नहीं भुगतना चाहता था। लेकिन मजबूरी थी। मैंने खद को बाजार के चक्रव्यूह में घुसने के लिए अभिमन्यू की तरह तैयार किया।

बाजार जाने वाली मुख्य सड़क पर वैसी ही भीड़ थी जैसी कल्पना मैं कर रहा था। सारे लोग, मोटर गाड़ियाँ, रिक्शा ताँगे सब बाजार की तरफ जा रहे थे। नवंबर की शुरुआती धूप थी। ग्यारह बजे की धूप जो चमकदार थी, लेकिन चुभती नहीं थी। ऊपर साफ चमकीला नीला आकाश तना था...।

मुझे लगा, बाजार का यह शोर नीले आसमान के पार पहुँच रहा है... और शायद इस शोर से उसका नीलापन दरक जाएगा अचानक...।

यह गनीमत थी कि मुझे बाजार के अंदर नहीं घुसना पड़ा। बाजार का प्रवेश स्थल आज काफी बाहर तक खिंच आया था। मुख्य बाजार के पहले ही सड़क के दोनों तरफ फुटपाथिए दुकानों की कतारें थीं, जहाँ भीड़ थी। इन्हीं पसरों में मैंने अपने काम का पसरा तलाश लिया। वहाँ चार-पाँच महिलाएँ गाँव की देहातिन-अपना सामान सड़क पर बिछाए दुकानदारी में व्यस्त थीं। मैं जहाँ खड़ा था, वहाँ पूजा के सामान थे - फूल, पत्तियाँ, हरी दुबियाँ, छोटे-छोटे हार, लक्ष्मी जी के फोटो, कमल के फूल (शायद कुमुदनी हों) इत्यादि। एक अधेड़ गंवइहिन थी जो आवाज लगा रही थी लगातार - 'पूजा के सामान... पाँच रुपिया! पूजा के सामान पाँच रुपिया!'

मैंने एक पुड़ा बंधवा लिया। इसमें कुछ फूल, पत्तियाँ, दुबी और आम के पत्ते थे।

"कमल फूल कितने का...?''

"पाँच रुपिया जोड़ी।''

मैंने दो रख लिए, जो वैसे ही मुरझाते दिख रहे थे।

मैंने कहा, "कैसे, ये मुरझा क्यों रहे हैं?''

बोली, "अब कालि साँझकुन के तोड़े हन बाबू। पानी में रखबे त बने रही। काँही नइ होवय। अभी खुला घाम में हाबे त अइलावत हे।''

मैंने अपने थैले में उन्हें रख लिया।

अचानक मेरी नजर वहीं रखे धान के झालर पर पड़ी। मैं एक उठाकर देखने लगा। इसके पहले मैंने इन्हें बिकते नहीं देखा था। अलबत्ता गाँव के घरों में या पेड़ों में इसे लटके जरूर देखा है। ये गाँव की चीज है। गाँव की कला।

"इसको कैसे दिए?''

"बारा रुपिया जोड़ी। ले जा बाबू...।''

मैं ध्यान से उस सादे और सुंदर झालर को देख रहा था। धान के लगभग पकने को आते पौधों को चटाई की तरह त्रिभुजाकार इस प्रकार बुना जाता है कि धान की बालियाँ नीचे झूलती रहती हैं। मेरे हाथ में अभी तैयार होते धान की फसल थी - सुंदर, सुनहरी बालियाँ जिनमें अन्न भरे थे। नरम, अनछुए, सोंधी गंध से भरे...।

"ले जा बाबू'', वह बोली, "चिरई मन आही खए बर... बने पुन्न मिलही तोला।''

मैंने कहा, "इसको तो मैं घर की दीवाल पर लटकाऊँगा सोच रहा हूँ।''

"त का होगे। बनेच बात हे। घर में लटका देबे तब्भो ले आही चिरई मन।'' वह हँसी, "चिरई मन खाहीं बढ़िया... बने पुन्न मिलही बाबू...।''

मुझे अच्छा लगा था उसका ऐसा कहना।

उसका यह कहना आप ही बता रहा था कि वह पेशेवर दुकानदार नहीं है। मैंने इस बार कुछ ध्यान से देखा उसे, वह अधेड़ होती देहातिन, गहरे नीले रंग के सस्ती सूती साड़ी में लिपटी थी। चेहरा धूप में झुलसा हुआ, लेकिन आत्मीयता की चमक बाकी है...। मैं सोचने लगा, जरूर आसपास के गाँव से आई होगी, जिसे इस बीच बाजार में भी उन चिड़ियों की भूख की चिंता है, जो उसके झालर का धान खाने पहुँचेंगी... जिनके खाने से पुन्न मिलता है।

मैंने वहाँ रखे दोनों झालर खरीद लिए।

इन्हें लटकाते ही मेरा घर सुंदर हो जाएगा... धान की इन बालियों की गंध पूरे घर में भर-भर जाएगी... घर महर-महर महकने लगेगा...।

इसी की बगल में एक कुम्हारिन का पसरा था, जहाँ मिट्टी के बने दिए, खिलौने और गुल्लक, कलश आदि बिक रहे थे।

ये महिलाएँ आपस में जिस ढंग से बात कर रहीं थीं, मुझे लगा ये सभी एक ही गाँव की हैं, पड़ोसी हैं, और बाजार साथ-साथ आई हैं। यहाँ भी ये पड़ोसी ही थीं।

मैंने मिट्टी के दिए खरीदे। एक सुंदर खिलौना भी-मिट्टी का एक कलश था, मिट्टी के ही बने नारियल और पत्तियों से सजा हुआ। गेरू रंग से रंगे। ये बहुत आकर्षक नहीं होने के बावजूद मुझे इसलिए अच्छे लगे कि इनके पीछे इनका श्रम है, इनकी सोच है।

तभी बगल के फूल-पत्ती वाली के पसरे पर चार लड़के आके खड़े हो गए। उनके हाथ में रजिस्टर और रसीद बुक थी।

"चल कूपन पटा ओ बाई!''

मैं जान गया, ये बाजार के ठेकेदार के कारिंदे हैं। हट्टे-कट्टे और शक्ल से ही सख्त नजर आते थे, अपनी किशोर उम्र के बावजूद।

"के रुपिया लगही गा?'' उसने सहजता से पूछा।

"तीस रुपिया!''

"तीस रुपिया!'' वह हैरान रह गई। फिर बोली, "पाछू साल तो दस-दस रुपिया लेत रेहेव बाबू।''

"अब गया वो जमाना बाई। तीस निकाल फटाफट!'' लड़के की आँख में काले रंग का चश्मा था।

"नइ भइया! इतना-इतना पइसा हम नइ दे सकन!'' यह उसका नम्र विरोध था।

"नइ दे सकती तो उठा अपना सामान और फूट ले पतली गली से!''

लड़कों में हँसी की लहर उठी।

वह देहातिन चिंतित होकर बोली, "अरे, अभी धंधा पानी नइ हे भइया, बाद में आके ले जाबे।''

"बाद-वाद का हम कुछ नहीं जानते। तीस रुपिया निकाल!''

कुम्हारिन ने कहा, "अभी तीस रुपिया के धंधा नइ होहे, तुमन माँगथो त हम कहाँ ले देबो?''

"अरे सब होता है। धंधा करना है तो सीधी तरह कूपन कटाओ, नहीं तो चलते नजर आओ!'' उनमें से एक घुड़का।

"नहीं बाबू...।'' उसको अब लग रहा था ये कम में मान जाएँगे।

"तू देती है कि तेरा सामान उठा के फेंकू...?'' लंबी कली वाले काले रंग की टी शर्ट पहने लड़के ने अपने जूते की नोक पालिथिन के बोरे पर गड़ा दी।

जब देहातिन को लगा कि लड़के एक पैसा कम नहीं करेंगे, तब वह हार गई। उसने एक बोरे के नीचे जमा अपने धंधे के पैसे निकाले... वहाँ कुछ नोट और चिल्हर पैसे थे। उसने एक दस का... दो पाँच के नोट दिए। बाकी के चिल्हर पैसे...।

लड़के ने रसीद फाड़कर कागज उसकी तरफ फेंक दिया और कुम्हारिन की तरफ बढ़ गए, "हाँ, चल निकाल तो तू भी जल्दी...।''

कुम्हारिन ने चुपचाप रुपये निकालकर दे दिए।

लड़के आगे बढ़ गए, जोश, ताकत और गुरूर से भरे हुए...।

मैंने देखा, इनके साँवले चेहरों पर दुख की काली छाया थी। अभी जो ये सहज हँस-बोल रहीं थीं, एकाएक सख्त चुप्पी में थीं।

फूल-पत्ती वाली देहातिन उस रसीद को बोरे के नीचे रखते हुए जैसे खुद से ही कह रही थी, "ये दे, जतना के बेचे रहेंव, तेनो ल कूपन वाला मन झटक के लेगे! ...अइसना में ते का कमाबे बहिनि...।''

अब उनके चेहरों से वह मुसकान और आत्मीयता गुम थी जो थोड़ी देर पहले थी। अब वे चिंतित थीं।

मैं सोचने लगा, यहाँ इनके जैसे न जाने कितने लोग आए होंगे, कि कुछ कमाकर लौटें। आखि़र शाम तक ये कितना कमा लेंगे? पचास रुपया? सौ रुपया? या दो सौ? नहीं-नहीं, दो सौ तो शायद ज्यादा है। इनके त्यौहार की खुशी इन्हीं रुपयों से मननी है। मैं जान रहा हूँ, अपनी इसी कमाई से वे घर के लिए सौदा-सुलफ खरीदेंगी, घर जाते हुए त्यौहार मनाने के लिए कोई सस्ती-सी मिठाई और कम दाम वाले फटाके खरीदेंगी अपने बच्चों के लिए... जो शाम से ही इनका रस्ता देखते बैठे होंगे...।

और हर साल की तरह इनकी यह दीवाली भी मन जाएगी।

... मैं उन आतिशबाजियों को देख रहा था जो शहर में रात को होनी है और देर रात तक होती है, रह-रहकर रात का काला आकाश सतरंगी रोशनियों से जगमगा उठता है... जोर की आवाज वाली बम की लड़ियाँ फूट रही हैं... बम के धमाकों से पूरा इलाका हिल उठा है... लोग काँप जाते हैं...।

... मुझे लगता है, इस समय चिड़ियों के बारे में कोई नहीं सोच रहा, जो शायद दहशत में कहीं छुपी हुई हैं...।


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