कार्तिक ने एक मैले से दिखने वाले सरकारी क्वार्टर के नीले दरवाजे के ऊपर लगी घंटी दबाई। पर कोई बाहर नहीं आया।
उसे लगा घंटी खराब है। अब उसने दरवाजा खटखटाया और उसके खुलने का इंतजार करने लगा।
काफी देर तक कोई बाहर नहीं आया।
उसने एक बार फिर दरवाजा खटखटाया, किसी ने भीतर से कहा,
'चले आओ, दरवाजा खुला है।'
कार्तिक दरवाजा खोलकर सामने वाले कमरे में पहुँचा। एक साँवला, छरहरा, कोई पैंतीस चालीस बरस का आदमी, लुंगी और बनियान पहने, किताबों तथा कागजों से घिरा बैठा था। उसने कार्तिक को देखकर कहा,
'आइए, चले आइए।'
कार्तिक ने अपना हाथ बढ़ाते हुए कहा था,
'कार्तिक।'
'रामनारायण।'
'वैसे तो मैं आपके शहर का ही हूँ पर पहले कभी आपसे मुलाकात नहीं हुई। पिछले दिनों दिल्ली गया था। वहाँ आपके दोस्तों से मुलाकात हुई थी। उन्होंने आपके नाम ये पत्र दिया है। पत्र काफी दिनों तक मेरे पास ही रखा रहा। आज अचानक ही मिला, सो आपसे मिलने चला आया।'
रामनारायण ने पत्र ले लिया। खोला और पढ़ा,
'प्रिय रामनारायण जी,
पत्रवाहक कार्तिक आपके शहर के ही हैं। यहाँ दिल्ली में अपने दोस्त केदार से मिलने आए थे जो हमारे भी दोस्त और साथी थे। आपने उनके संघर्ष और शहादत के बारे में सुना ही होगा।
कार्तिक अच्छे आदमी हैं। आगे कुछ करना भी चाहते हैं। हमने सोचा, आपसे बेहतर मित्र इन्हें कौन मिल सकता है?
तो आप इनकी मदद करें। इन्हें दोस्त बनाएँ।
आदर सहित,
आपका साथी,
रघु'
रामनारायण ने पत्र समाप्त किया, फिर कुछ हँसते हुए कहा।
'आपके ही शहर में दोबारा आपका स्वागत है। तो आप केदार के दोस्त हैं?'
'जी।'
'वैसे आप करते क्या हैं?'
'इंजीनियर हूँ। एक कंसल्टेंसी फर्म में नौकरी करता हूँ। अभी अभी प्रशासनिक सेवा के लिए भी चुना गया हूँ।'
'अरे वाह, बधाई।'
'पर जाना नहीं चाहता।'
'क्यों? जरूर जाइए। अच्छी मजे की नौकरी है। मोटी तनख्वाह और सत्ता से निकटता का सुख!'
'मुझे बंधन जैसा लगता है।'
अब रामनारायण ने कार्तिक को तौलती हुई निगाहों से देखा। उसे लगा सामने बैठा आदमी कोई साधारण आदमी नहीं था। पर उसने ये महसूस नहीं होने दिया। पूछा,
'तो क्या करना चाहते हैं?'
कार्तिक को न जाने क्यों ऐसा लगा कि इस आदमी से खुलकर बातचीत की जा सकती है, कि वह विश्वास के योग्य है, कि वह उन व्यक्तियों में से है जिनके सामने लोग अचानक ही अपने दिल की बात रख दिया करते हैं। उसने रामनारायण को अपने पिछले दिनों के अनुभवों के बारे में बताया, केदार से अपनी दोस्ती, उसकी मृत्यु और उसके बाद की उदासी तथा खालीपन के बारे में बताया, कहा कि वह कैरियर वगैरह के विचार से ऊब चुका है और कुछ नया करना चाहता है। अपनी बात समाप्त करते हुए उसने कहा,
'अभी निर्णय नहीं किया है। पर मैं बड़े फलक पर काम करना चाहता हूँ।'
'अच्छा ये बताइए, अभी जहाँ काम करते हैं वहाँ बहुत काम करना पड़ता है या कुछ समय निकल आता है?'
'काम करना मेरी आदत है। मगर मैं आपका मतलब नहीं समझा।'
'मतलब ये भाई कि अगर आप हमारे साथ काम करेंगे तो नौकरी में से कुछ समय निकालना पड़ेगा या नहीं?'
रामनारायण ने कहा और जोर से ठहाका लगाया। कार्तिक ने मुस्कुराते हुए कहा,
'समय निकाल लूँगा।'
अब रामनारायण ने थोड़ी गंभीरता से पूछा था।
'आप शहर में कब से हैं?'
'स्कूल के समय से ही आ गया था। अब तो यहाँ रहते रहते करीब बीस साल होने को आए।'
'मतलब आपने शहर खूब देख रखा है?'
'कॉलेज भी यहीं था, दोस्त भी यहीं थे। पूरा शहर घूमा है हम लोगों ने।'
फिर कार्तिक ने उसे अपनी हाल की इतिहास यात्रा के बारे में भी बताया।
'वेरी गुड। आपने बढ़िया शुरुआत की है। पर शहर की एक पहचान और भी है। कहिए पहचानेंगे मेरे साथ?'
'जरूर।'
'तो चलिए, तय रहा। कल से ही शुरू करते हैं। कल शाम को हम वर्तमान शिक्षा की सार्थकता पर एक बहस करा रहे हैं। कुछ लड़के रहेंगे, कुछ शिक्षक और कुछ श्रोता। आप भी आएँ। हम साथ चलेंगे।'
अब कार्तिक ने पूछा।
'आप करते क्या हैं रामनारायण जी?'
'एक सरकारी विभाग में काम करता हूँ। वहाँ मेरी प्रतिष्ठा ऐसी है कि मुझसे ज्यादा पूछताछ नहीं की जाती।'
इस बार हँसने की बारी कार्तिक की थी। उसने हँसते हुए कहा,
'तो ठीक है, कल मिलते हैं।'
अगले दिन कार्तिक और रामनारायण गोष्ठी में इकट्ठे पहुँचे। गोष्ठी का संचालन रामनारायण को करना था। काफी लड़के, कुछ शिक्षक और पत्रकार इकट्ठा थे। रामनारायण ने आज के समय में शिक्षा की स्थिति पर एक आलोचनात्मक वक्तव्य दिया। गर्मागर्म बहस छिड़ गई। कुछ लोगों का मानना था कि शिक्षा पद्धति अपनी उपयोगिता खो चुकी है, वह बच्चों को यांत्रिक बना रही है। शिक्षा महँगी होती जा रही है और जो उत्कृष्टता के केंद्र बन भी गए हैं, वहाँ से बच्चे बाहर चले जाते हैं। उससे देश को कोई लाभ नहीं हो रहा।
बहस के बीच में रामनारायण ने कार्तिक का परिचय कराते हुए कहा,
'मेरे साथ कार्तिक हैं जो शिक्षा और उद्योग दोनों से जुड़े रहे हैं। मेरा ख्याल है इनकी बात सुनना महत्वपूर्ण होगा।'
कार्तिक तैयार नहीं था। उसने लगभग अचानक ही बोलना शुरू किया। उसे लगा कि उसे अपने अनुभव के बारे में बोलना चाहिए। उसने अपने कॉलेज के बारे में बताया और कहा कि कैसे कॉलेज में इंजीनियरिंग के विषयों को यांत्रिक रूप से पढ़ा दिया जाता है और कैसे इस पृष्ठभूमि के साथ उद्योगों में काम करने में मुश्किलें आती हैं। कैसे विषयों की अंतर्धारा को पहचानने और उन्हें सामाजिक या औद्योगिक प्रक्रियाओं के साथ रिलेट करने का काम होना चाहिए। उसने प्रशासनिक सेवा की अपनी तैयारी के बारे में भी बताया और समझाया कि कैसे इंजीनियरिंग के साथ इतिहास और साहित्य का अध्ययन करने से उसे अपनी दृष्टि विकसित करने में मदद मिली।
वह करीब आधे घंटे तक बोलता रहा। फिर जब अचानक रुका तो जोरदार तालियों से उसके वक्तव्य का स्वागत हुआ।
गोष्ठी की समाप्ति पर रामनारायण ने कहा,
'आप अच्छा बोलते हैं।'
'दिल से बोलता हूँ।'
'वही तो बड़ी बात है।'
फिर धीरे-धीरे कार्तिक की साहित्य और संगीत की अभिरुचियाँ रामनारायण पर खुलती गईं और शहर की सभाओं, गोष्ठियों और चर्चाओं में कार्तिक को अधिक से अधिक स्थान मिलना शुरू हो गया। लगभग हर कार्यक्रम में वह और रामनारायण साथ साथ नजर आते। कार्तिक की ब्रिलियंस की पूरे शहर में सराहना होने लगी। उसकी और रामनारायण की जोड़ी के रूप में पहचान होने लगी थी।
अधिकतर लोग इससे खुश थे, पर कुछ ईर्ष्या भी महसूस करते थे।
सबसे महत्वपूर्ण बात ये थी कि कार्तिक खुद इस अनुभव से खुश था। वह मानवीय संबंधों की ऊष्मा को महसूस कर पा रहा था। उसे लगता था कि उसके दिल का फैलाव इतना है कि उसमें पूरी दुनिया समा सकती थी। वह गोष्ठियों और सभाओं के आयोजन में खुशी खुशी सहयोग देता था, उसे कार्ड बाँटने, बैनर बाँधने, दरी बिछाने या माइक लगाने में भी कोई संकोच नहीं होता था, वह पूरी तरह डि-क्लास होता जा रहा था।
तभी कार्तिक के शहर में वह त्रासदी हुई थी जिसने पूरी दुनिया को हिला कर रख दिया था।
गैस त्रासदी वाली रात को, या यूँ कहा जाए कि रात के बाद वाली सुबह को, कार्तिक अपनी बहन और उसके परिवार को अपने घर ले आया था। उनके अपने घर में उनकी देखभाल कौन करता?
डॉ. अय्यर अब तक घर में ही थे। कार्तिक के भांजे पीयूष को कुछ आराम मिल गया था और वह आँखें बंद किए लेटा था। अय्यर ने बहन, जीजाजी और उनकी दोनों लड़कियों का चेकअप कर आँखों पर गीली पट्टी रखने तथा आराम करने की सलाह दी थी। फिर कहा था,
'गैस बहुत नहीं लगी है। आँखों में तकलीफ है पर मेरा ख्याल है जल्दी ही ठीक हो जाएँगे।'
कार्तिक की आँखों में रात की जगार की थकान भरी थी। वह हाथ पैर धोने के बाद थोड़ा आराम करने की सोच रहा था। पता नहीं आज का दिन कैसा कटने वाला था? तभी फोन की घंटी बजी थी।
'कार्तिक?'
'हाँ, बोल रहा हूँ।'
'मैं, रामनारायण।'
'कहाँ हो? ठीक तो हो?'
'हाँ मैं बिल्कुल ठीक हूँ। तुमने गैस त्रासदी के बारे में तो सुन ही लिया होगा? तुम्हारे घर पर क्या हाल हैं?'
कार्तिक ने संक्षेप में बहन के हालचाल और रात की घटनाएँ सुनाई। रामनारायण ने कहा,
'अच्छा सुनो, अगर घर पर सब ठीक हो तो डाक्टर अय्यर को लेकर अस्पताल आ जाओ।'
'तुम अस्पताल में हो?'
'हाँ, रात तीन बजे से, और दोस्तों को ढूँढ़ रहा हूँ। इस समय जितने अधिक लोग मदद को आ सकें, अच्छा है।'
'तुम वहाँ कर क्या रहे हो?'
'इस समय ज्यादा मत पूछो। यहाँ आओ, तब देखना!'
'अच्छा मैं घर का इंतजाम करके निकलता हूँ।'
कार्तिक ने नीति से सबकी देखभाल करने के लिए कहा था, जरूरत पड़ने पर डाक्टर अय्यर को बुला लेने की सलाह दी थी और अस्पताल की ओर चल पड़ा था।
आज कमला पार्क और कमलापति का महल उस सपनीले शहर का हिस्सा नजर नहीं आ रहे थे, शौकत महल और सदर मंजिल वीरान पड़े थे, सड़कें दहशत से भरी थीं और लोग अस्पताल की तरफ भागते नजर आ रहे थे। जैसे किसी ने कार्तिक के सुंदर शहर को नजर लगा दी थी।
अस्पताल उसी फतेहगढ़ पहाड़ी पर था जहाँ से दोस्त मोहम्मद ने भोपाल शहर की शुरुआत की थी, जहाँ उसका मकबरा और ढाई सीढ़ी की मस्जिद थी। झील अपनी जगह पर थी पर आज वह चुप थी, दहशतजदा।
कार्तिक ने अस्पताल के परिसर में कदम रखा। अपने जीवन के तीस वर्षों में उसने ऐसा दृश्य नहीं देखा था। सैकड़ों लोग अस्पताल में बिखरे हुए थे। कई अपना सिर नीचा किए, कई लेटे, कई अधलेटे। लोगों ने अपनी आँखें हाथ या रूमाल या किसी कपड़े से ढाँप रखी थीं। वे खाँस रहे थे, कराह रहे थे और मदद की गुहार कर रहे थे। चारों ओर मौत जैसे अपने पंख पसार रही थी। लोग धीरे-धीरे मर रहे थे।
कार्तिक को समझ नहीं आया कि वह क्या करे? चारों तरफ बदहवासी का आलम था। वह अस्पताल के गेट से सीधे मेन बिल्डिंग की तरफ बढ़ा। रामनारायण मिल जाए तो उससे बात करके तय करे कि क्या करना है।
अचानक वह उसे शवगृह के सामने दिखा। पैंट और कुर्ते में, थकन भरे चेहरे पर झुक आए बालों को पीछे झटकते हुए।
शवगृह के सामने का दृश्य देखकर कार्तिक का दिल दहल गया। करीब चालीस से पचास शव, वहाँ शवगृह के सामने लाइन लगा कर रख दिए गए थे। स्पष्ट था कि भीतर जगह नहीं थी। उनके लिए ठीक से रोने वाला भी कोई नहीं था। शायद रिश्तेदार खुद त्रासदी का शिकार हुए थे या बिछड़ गए थे। रामनारायण कुछ और लोगों के साथ मिलकर उन शवों को लाइन में रख रहा था, उनके ऊपर नंबर लिखकर कुछ परची जैसी लगा रहा था और उन्हें विच्छेदन के लिए अंदर भेज रहा था।
कार्तिक को देखकर उसने बस इतना कहा,
'आओ कार्तिक, कुछ काम करवाओ।'
फिर कुछ सोचकर कहा,
'अच्छा तुम उधर मैदान में चले जाओ। वहाँ अपने कुछ दोस्त और डॉक्टर काम कर रहे हैं। तुम मरीजों की आँखों में दवा डालना, आँखों पर गीली पट्टी रखना और डॉक्टरों की मदद करना।'
इसके बाद करीब करीब दिन भर रामनारायण और कार्तिक मरीजों के बीच काम करते रहे थे। उन्हें दवा देते, आँखों पर पट्टियाँ रखते और कुछ न होता तो दिलासा ही देते। बीच बीच में दो-चार मिनिट सुस्ताने का अवकाश निकालते और फिर काम पर लग जाते। इस बीच रामनारायण से और अन्य लोगों से बात करते हुए कार्तिक को उस रात के बारे में जो मालूम पड़ा, वह इस प्रकार था।
रात के करीब तीन बजे रामनारायण के घर असगर की पत्नी का फोन आया था। असगर गजलें लिखा करता था और कार्तिक और रामनारायण का दोस्त था। वह उसी बस्ती में रहता था जहाँ गैस का सबसे ज्यादा असर हुआ था।
'भाई जान, मैं फरहा बोल रही हूँ। क्या आपको शहर की कुछ खबर है?'
'नहीं तो, क्या हुआ?'
'भाई जान यहाँ कहर बरपा हुआ है। हमारे पास वाली कार्बाइड फैक्ट्री से गैस छूटी है। तमाम लोग घर छोड़-छोड़ कर भाग रहे हैं। कई लोग मरे भी हैं। असगर कुछ लोगों को लेकर हमीदिया अस्पताल की तरफ गए हैं। मुझे कह गए थे कि मैं आपको फोन करूँ।'
'मैं अभी पहुँचता हूँ। आप हैं कहाँ?'
'हमने रात में ही घर छोड़ दिया था। फिलहाल मैं कमला पार्क पर रशीद भाई के यहाँ हूँ। यहाँ कुछ असर कम है। पर ये भी निकलने का कह रहे हैं।'
'तो मैं रशीद भाई के घर पहुँचता हूँ। आप और बच्चे हमारे घर आ जाइए।'
उसके बाद रामनारायण स्कूटर उठाकर रशीद भाई के घर पहुँचा था। असगर की बीवी और उसके दोनों छोटे-छोटे बच्चों को अपने घर लाकर छोड़ा था और फिर सीधे हमीदिया अस्पताल पहुँचा था।
रामनारायण अस्पताल के टॉक्सिकोलॉजी और फोरेसिंक विभाग के हेड डॉ. चंद्रा को जानता था। वे अस्पताल के पास ही ईदगाह पहाड़ी पर रहते थे। उनको सुबह पाँच बजे उठकर घूमने जाने की आदत थी। वे अपने खुशनुमा मकान से निकलकर सामने वाले बाग का एक चक्कर लगाते और फिर वहीं सुस्ताने बैठ जाते। इस बीच उन्होंने हँसने वालों का एक क्लब भी बनाया था जो घूमने के बाद करीब दस मिनिट तक जोर जोर से हाके लगाने का व्यायाम करता था।
रामनारायण सीधे डॉ. चंद्रा के घर पहुँचा था। वहाँ पहले से ही करीब तीस चालीस लोग खड़े थे। सुबह के चार बज रहे थे और डॉ. चंद्रा शायद नींद में थे। पहले लोगों ने कुछ आवाजें लगाकर उन्हें बाहर बुलाने की कोशिश की। फिर किसी ने कहा,
'सोने वाले कमरे की खिड़की पर एक कंकड़ मारिए। जाग जाएँगे।'
साथ खड़े एक आदमी ने कंकड़ फेंका जो उनके दरवाजे पर जाकर लगा। डॉ. चंद्रा आँखें मलते हुए बालकनी में निकल आए। किसी ने चिल्लाकर कहा,
'डॉ. साहब शहर में बड़ा हादसा हो गया है। आपकी मदद की जरूरत है। नीचे आ जाइए।'
डॉ. चंद्रा नीचे उतरे और बाहर निकल आए। रामनारायण को देखकर पूछा,
'अरे रामनारायण तुम भी? इतनी रात गए कैसे?'
'डॉ. साहब यूनियन कार्बाइड से जहरीली गैस छूटी है। शहर में भारी अफरातफरी मची है अस्पताल में लोग आना शुरू हो गए हैं। बहुत सारे लोग मारे भी गए हैं। लोगों की साँस चल रही है और आँखों में जलन है। मेरा ख्याल है एक बार आपको चलकर देखना चाहिए...।'
'मैं चलने को तैयार हूँ। पर क्या तुमने सी.एम.ओ. को खबर की? डॉक्टरों की टीम तो वही मोबिलाइज करेंगे...।'
'जी, उन्हें मैंने फोन कर दिया है। हालाँकि उन्हें पहले से ही खबर थी...।'
'आओ। तुम अंदर आओ। पहले जरा डॉक्टर गौर से बात करते हैं...।'
डॉ. चंद्रा एक बार फिर भीतर पहुँचे। वे कार्बाइड के डॉक्टर गौर को जानते थे। उन्होंने उसे फोन लगाया।
'डॉक्टर गौर? मेरे घर के सामने कुछ लोग खड़े हैं, कहते हैं आपकी फैक्ट्री से कोई गैस निकली है, जिससे शहर में बड़ी अफरातफरी मची है। आप जानते हैं?'
'नहीं ऐसी कोई खास बात नहीं। गैस लीक अगर हुआ भी होगा तो गैस कोई जहरीली गैस नहीं है।'
डॉक्टर गौर ने कहा और उधर से फोन काट दिया। डॉक्टर चंद्रा ने कोट कंधे पर डाला और बाहर निकल आए।
उन्होंने गेट अभी खोला ही था कि डॉक्टर महापात्र करीब करीब दौड़ते हुए आते दिखे। उन्होंने आते ही कहा,
'सर, समय बिल्कुल नहीं है। पूरा अस्पताल आदमियों, औरतों और बच्चों से भर रहा है। कई लोग मरे भी हैं। आप चलें...।'
'चलो।'
डॉ. चंद्रा ने वहाँ खड़े लोगों से अस्पताल पहुँचने के लिए कहा और वे खुद डॉ. महापात्र तथा रामनारायण के साथ अस्पताल की ओर बढ़े।
अस्पताल का अहाता लोगों से भरता जा रहा था। जैसे दर्द और तकलीफ का एक सागर चारों ओर अट्टहास कर रहा था। मौत जैसे धीरे धीरे सबको अपने आगोश में लेती जा रही थी।
डॉ. चंद्रा ने ओ.पी.डी. में डॉ. दवे को फोन लगाया,
'दवे? मैं चंद्रा बोल रहा हूँ। तुम्हारे यहाँ क्या हाल है?'
'सर, बुरे हाल हैं। लोग आते चले जा रहे हैं, पर समझ नहीं आ रहा कि ट्रीटमेंट क्या करें? अभी तो सिम्टम्स के आधार पर इलाज कर रहा हूँ।'
'मैं पहुँचता हूँ।'
वहाँ पहुँचकर डॉ. चंद्रा ने कुछ मरीजों को सरसरी तौर पर देखा। एक बार फिर उन्होंने कार्बाइड के डॉक्टर गौर को फोन लगाया,
'आप तो कह रहे थे कि गैस जहरीली नहीं है? जरा यहाँ आकर तो देखिए, हजारों लोग प्रभावित हुए हैं, सैकड़ों मर रहे हैं...।'
'जहाँ तक मैं जानता हूँ, गैस जहरीली नहीं है...।'
'आप बताएँगे कि गैस है कौन सी?'
'हम एम.आई.सी. बनाते हैं। पर कोई इससे मर नहीं सकता। बस थोड़ी सी चुनमुनाहट होगी...।'
इस बार डॉक्टर चंद्रा ने फोन काट दिया।
वे वापस अपने कमरे की ओर दौड़े। उन्होंने टॉक्सिकोलॉजिकल मैन्युअल निकाला और एम.आई.सी. के बारे में देखना शुरू किया। गैस के विवरण और उसके रखरखाव की सलाह के साथ साथ मैन्युअल कहता था,
'एम.आई.सी. के थर्मल डिकंपोजिशन से हाइड्रोजन साइनाईड, नाइट्रोजन ऑक्साईड, कार्बन मोनोऑक्साईड एवं/या कार्बन डाइऑक्साइड पैदा हो सकती है।'
अब डॉ. चंद्रा डॉ. महापात्र की ओर मुड़े,
'मुझे ये केसेज साइनाइड पॉइजनिंग के लगते हैं...।'
'सर, मुझे इसमें शक है। आपको याद है जब पिछले साल हम लोगों ने कार्बाइड से लाए एक आदमी का पोस्टमॉर्टम किया था? वह फॉस्जीन से दम घुटने के कारण मरा था। मुझे लगता है ये फॉस्जीन हो सकती है...।'
'दिक्कत ये है कि कार्बाइड के डॉक्टर सही जानकारी नहीं दे रहे हैं। उनके पास सही जानकारी होनी चाहिए...।'
डॉ. चंद्रा, रामनारायण और डॉ. महापात्र एक बार फिर लोगों के बीच थे।
सुबह का उजाला फैल चुका था और रोशनी ने त्रासदी की भयानकता पर से जैसे पर्दा उठा दिया था। चारों ओर मरीजों का रेला, कराहों के बीच एक असहनीय चुप्पी, पीला पड़ता सूरज...
करीब सात बजे से लाशों के आने का सिलसिला शुरू हुआ। डॉ. महापात्र ने एक अजीब बात देखी। कई लाशें नंगी थीं। पूरी तरह नंगी। दिसंबर की कड़ाके की ठंड वाली रात में, इन लोगों के शरीर पर कपड़े क्यों नहीं थे? क्या गैस के प्रभाव ने इतनी गर्मी पैदा की थी कि लोगों ने अपने कपड़े उतार डाले थे? रामनारायण ने भी शायद ये देख लिया था। उसने डॉक्टर चंद्रा से कहा,
'सर, आपने देखा? कितनी लाशें पूरी तरह...।'
'हाँ गर्मी के कारण लोगों ने अपने कपड़े उतारे हैं...।'
'ये मेरी सायनाइड वाली थ्योरी को ही सपोर्ट करता है...'
मेडिकल कॉलेज के छात्र और डॉक्टर अस्पताल में आना शुरू हो गए थे। डॉक्टर महापात्र ने उनकी टीमें बनाना शुरू किया,
'लोगों के कपड़े और पहचान चिन्हों के रिकार्ड बनाओ। हम पोस्टमॉर्टम शुरू करते हैं...।'
रामनारायण ने बाहर खड़े एक आदमी से, जो आँखों पर हाथ रखे हाँफ रहा था, पूछा,
'गैस की गंध कैसी थी?'
'मीठी। कुछ कुछ शराब की तरह साहब...।'
पास खड़े एक दूसरे ने कहा,
'आँखों में लाल मिर्च की तरह लग रही थी...।'
रामनारायण ने एक बच्चे के कंधे पर हाथ रख कर कहा,
'दिखता है?'
'बहुत धुँधला साहब...'
'किसी चीज से आराम मिला?...'
'पानी से आँखें धोने से कुछ आराम मिला था साहब...'
बच्चा गहरी साँसें ले रहा था। होंठों पर भिंच जाने के कारण दाँतों के निशान थे। वह अपने फेफड़ों से नहीं बल्कि अपने पेट से साँस ले रहा था। नब्ज धीमी पड़ रही थी। हाथों और पैरों को जैसे लकवा मार रहा था। उसने अपने ऊपरी कपड़े उतार फेंके थे।
तो क्या ये फॉस्जीन नहीं थी? फॉस्जीन से पीड़ित व्यक्ति को तो शुद्ध हवा में ले जाने पर आराम मिलता है, पर यहाँ तो ऐसा नहीं था। तो फिर ये गैस कौन सी थी? ये जाने बिना इलाज कैसे हो सकता था?
उसने तय किया कि जिस चीज से लोगों को आराम मिले, उसे वही करना चाहिए। उसने साथ खड़े लोगों से कहा,
'दो दो लोगों की टीम बना लीजिए। फिलहाल लोगों की आँखों पर गीले पानी की पट्टी रखवाइए और आई ड्रॉप्स डलवाइए। बीच में डॉक्टरों से भी बात करते रहिए...'
फिर वह तत्काल काम पर लग गया था।
करीब आधा घंटे बाद डॉ. चंद्रा बाहर आए। रामनारायण ने उन्हें देख लिया था। वह दौड़कर उनके पास आया,
'सर, क्या कहते हैं?'
'खून का रंग लाल और बैंगनी है और फेफड़े फूले हुए। जैसे किसी की मृत्यु डूबने से होती है। मैंने दो पोस्टमार्टम किए हैं अब तक। खून छू कर देखो तो तार की तरह उठता चला आता है। फेफड़ों से सड़े काजू की बदबू आ रही है। मुझे लगता है कि गैस सायनाइड ही थी। तुम एक काम करो। एक बार फिर गौर को फोन लगाओ। उसे ये सब बताओ। उससे पूछो एक बार फिर, कि गैस कौन सी हो सकती है...'
इस बार रामनारायण ने फोन लगाया,
'डॉ. गौर?'
'यस, स्पीकिंग।'
'मैं डॉ. चंद्रा के यहाँ से बोल रहा हूँ। उन्होंने दो पोस्टमॉर्टम किए हैं और आपको उनके रिजल्ट बताने के लिए कहा है...।'
रामनारायण ने गौर को रिजल्ट बताए।
'अब आप बता सकते हैं कि गैस क्या होनी चाहिए? और इलाज क्या होना चाहिए...?'
'मैं अपना मत डॉ. चंद्रा को पहले ही बता चुका हूँ...।'
इस बार रामनारायण ने अपनी आवाज ऊपर उठाते हुए कहा था,
'आप सिर्फ एक ही बात कह रहे हैं। गैस जहरीली नहीं है, गैस जहरीली नहीं है। अगर गैस जहरीली नहीं थी तो सैकड़ों लोग उससे मर कैसे रहे हैं? हजारों प्रभावित कैसे हुए हैं? इतने लोगों की जिंदगी दाँव पर लगी है और आप सही जानकारी देने से कतरा रहे हैं...।'
'मैं इससे ज्यादा कुछ नहीं कह सकता।'
'यू बास्टर्ड। तुझसे तो मैं बाद में निबटूँगा।'
फिर उसने डॉ. चंद्रा से कहा था,
'सर वे कुछ बता नहीं रहे।'
'मुझे मालूम था। वे कुछ नहीं बताएँगे। मैं महापात्र से कहता हूँ। वह डॉक्टरों की एक मीटिंग कर ले।'
वह एक हड़बड़ी में बुलाई गई मीटिंग थी। सभी डॉक्टर अजीब भ्रम की स्थिति में थे। चारों तरफ मरीजों और लाशों का अंबार और किसी को ठीक से मालूम नहीं कि करना क्या है? सभी डॉक्टर खड़े थे, कोई कुर्सियों पर नहीं बैठा। डॉ. चंद्रा ने एक कुर्सी पर पैर रखकर कहना शुरू किया,
'मैं पिछले कुछ पोस्टमॉर्टमों से इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि मरीजों की मौत साइनाइड पॉइजनिंग से हुई है।'
'आप ये कैसे कह सकते हैं? गैस फॉस्जीन भी हो सकती है, एम.आई.सी. भी या कार्बन डाइऑक्साइड या कुछ और...।'
'देखिए फॉस्जीन नहीं थी। अगर होती तो ताजी हवा में आने पर मरीज को आराम मिलता। और अगर एम.आई.सी. भी थी तो उसमें उपस्थित आइसोसायनेट शरीर में उपस्थित पानी से मिलकर हाइड्रोसायनाइड का निर्माण कर सकता है...'
'ये आपका कयास भी हो सकता है...।'
'आप खून का रंग देखिए। फेफड़ों से आने वाली बदबू देखिए। लोगों का हाँफना देखिए, ये सभी सायनाइड पॉइजनिंग के संकेत हैं। फिर मैन्युअल भी मेरी बात की पुष्टि करता है।'
'मैंने कार्बाइड फोन किया था। वो कहते हैं गैस सायनाइड नहीं हो सकती।'
'वो तो ये कहेंगे ही। आखिर उन्हें अपनी जिम्मेदारी से बचना है।'
'डॉ. चंद्रा, आखिर आप कहना क्या चाहते हैं?'
'मेरा कहना है कि अगर ये सायनाइड है तो सोडियम थायोसल्फेट इस पर असर करेगा। सोडियम थायो सल्फेट ट्राय करके देखना चाहिए। अगर उससे किसी तरह का फायदा नहीं हुआ, तो नुकसान भी नहीं होगा।'
डॉ. भंडारी, जो अस्पताल के सी.एम.ओ. थे, ने कहा,
'डॉ. चंद्रा का एक व्यूपॉइंट हो सकता है। पर हमें किसी निष्कर्ष पर पहुँचने के पहले एक्सपर्ट ओपिनियन का इंतजार करना पड़ेगा। मुझे मिनिस्ट्री से फोन आया है। कल जर्मनी से डॉक्टर डांडीयर यहाँ पहुँच रहे हैं। हम उनका इंतजार करेंगे...।'
'और तब तक?'
'तब तक सिमप्मैटिक ट्रीटमेंट जारी रखें।'
डॉ. महापात्र ने डॉ. चंद्रा के कंधे पर हाथ रखकर कहा,
'आखिर ये मानते क्यों नहीं कि सायनाइड पॉइजनिंग हुआ है?'
'इसलिए कि उससे कार्बाइड की जिम्मेदारी बढ़ जाएगी और अगर गैस सामान्य मान ली जाए तो उसका गुनाह कम माना जाएगा। सिद्ध होगा कि एंटीडोट की कोई आवश्यकता नहीं थी, कि वे कोई खतरनाक काम नहीं कर रहे थे, उन्हें इसकी कम कीमत चुकानी पड़ेगी...।'
'पर सर, लोग मर रहे हैं।'
'वे मर सकते हैं। कार्बाइड की नजरों में भारतीय जीवन का क्या मूल्य?'
डॉ. चंद्रा ने घृणा से एक ओर थूका। अब बाहर निकलकर उन्होंने रामनारायण से कहा,
'आप जो कर रहे हैं, वही करते रहिए। लोगों की आँखों पर पट्टी रखवाइए, आई ड्रॉप डालिए, लोगों को दिलासा दीजिए, और अगर हो सके तो लाशों की पहचान कराइए। उन्हें मॉर्चुअरी तक पहुँचाइए...।'
इसके बाद रामनारायण ने कार्तिक को फोन किया था।
वे पाँच छह दोस्त इकट्ठे हो गए थे। दिन भर वे लोगों की मदद करते रहे थे। उनके जैसे और भी थे जो मानवीय त्रासदी की इस घड़ी में घर से बाहर निकल आए थे, और मदद में लगे थे।
शाम होते होते मृतकों की संख्या एक हजार पार कर गई थी।
अब प्रश्न था इनका क्या करें?
श्मशान में शायद इतनी लकड़ी न हो और कब्रिस्तान में जगह।
थकान समेटते हुए कार्तिक ने रामनारायण से कहा था,
'चलो, लकड़ी का इंतजाम करें।'
उस शाम जब दसियों चिताएँ धू धू कर एक साथ जल रही थीं, तो कार्तिक और रामनारायण की आँखों में एक बूँद भी आँसू नहीं था।
उनकी आँखें जैसे पत्थर की हो चुकी थीं।
रात के करीब दो बजे कार्तिक और रामनारायण अपने अपने घर पहुँचे थे। तय हुआ था कि दो घड़ी आराम करके सुबह फिर अस्पताल में मिलेंगे। पर ऐसा हो नहीं सका।
सुबह कार्तिक सोकर उठ भी नहीं पाया था कि दरवाजे पर एक बार फिर खट् खट् हुई।
उसने उठकर दरवाजा खोला।
पहले पहल तो वह आगंतुक को पहचान नहीं पाया। फिर अचानक उसे याद आया। यह तो दिनेश था, केदार का दोस्त दिनेश, जिससे दिल्ली में मुलाकात हुई थी।
उसने बढ़कर हाथ मिलाया,
'दिनेश, पहचाना?'
'हाँ, हाँ बिल्कुल। आओ, अंदर आओ!'
दिनेश भीतर आ गया। उसने बताया कि वह गैसकांड के बारे में जानने-समझने और अगर हो सके तो कुछ मदद करने के लिए आया है। वह खुद और उसके तमाम दोस्त इस त्रासदी से बहुत विचलित हुए हैं और एक दो दिन में और मित्र भी यहाँ पहुँच जाएँगे। क्या कार्तिक यह बताने में उनकी मदद कर सकता है कि ये हादसा कैसे हुआ? इसके लिए कौन जिम्मेदार है, और वे पीड़ितों की क्या मदद कर सकते हैं?
कार्तिक ने उसे पिछले दो दिनों के पूरे घटनाचक्र के बारे में बताया। बहन और उसके बच्चे बुरी तरह प्रभावित हुए थे। फिलहाल यहीं घर में हैं, उनकी देखभाल जारी है। रामनारायण के साथ कल दिनभर अस्पताल में रहा था और वह भयावह अनुभव था। अभी ये स्पष्ट नहीं हो पाया है कि दुर्घटना की वजह क्या थी, लेकिन वे ऐसे कुछ लोगों के पास जा सकते हैं जो उन्हें जानकारी देंगे। रामनारायण को भी साथ लेना ठीक रहेगा।
नीति आकर चाय रख गई।
दिनेश ने कहा,
'अगर तुम्हें घर पर रहना जरूरी हो तो मुझे रामनारायण का पता दे दो। मैं खुद उससे मिल लेता हूँ।'
'घर तो नीति देख ही रही है। मैं तुम्हारे साथ चलता हूँ।'
कार्तिक ने कहा। फिर वे दोनों सुबह के काम निबटाकर रामनारायण के घर पहुँचे। कार्तिक ने दिनेश का परिचय कराते हुए कहा,
'राम ये दिनेश हैं। दिल्ली में केदार के समय इनसे मुलाकात हुई थी। ये गैस त्रासदी के कारणों का पता लगाने आए हैं। कुछ मदद भी करना चाहते हैं।'
रामनारायण ने कहा,
'चलो, एक दोस्त और मिला। हम शकील भाई के घर चलते हैं।'
'शकील भाई कौन?'
'मेरे दोस्त हैं। हादसे के समय फैक्ट्री में थे। दीवार फाँद कर भागे और अपना पैर तुड़ा बैठे हैं। इस समय घर पर ही होंगे। सुना है लोगों से बात नहीं कर रहे हैं पर मुझसे जरूर कर लेंगे।'
दिनेश ने कहा,
'चलो चलते हैं।'
हम सब बाहर निकल आए।
शकील भाई के घर के सामने गहरा सन्नाटा था। दरवाजा खटखटाने पर एक महिला ने आधे खुले दरवाजे में से झाँक कर कहा,
'क्या काम है?'
रामनारायण ने कहा,
'शकील भाई से मिलना है।'
'उनकी तबियत ठीक नहीं है। वे किसी से नहीं मिल रहे।'
'सुनिए। अगर जाग रहे हों तो कहिए रामनारायण आया है।'
उन्होंने दरवाजा फेरा और भीतर चली गईं।
कुछ देर बाद लौटकर उन्होंने कहा,
'आइए, भीतर आ जाइए।'
वे भीतर पहुँचे तो उन्हें बेडरूम में ले जाया गया। वहाँ शकील भाई लेटे थे। उनके एक पैर पर प्लास्टर बंधा था। रामनारायण को देखकर वे मुस्कुराए। कहा,
'आइए जनाब। मुझे पता था कि स्पेशल इनवेस्टीगेशन टीम जरूर आएगी। पर मियाँ हम भी तय किए बैठे हैं। कुछ नहीं बताएँगे।'
रामनारायण ने हँसते हुए कहा,
'मेरी खातिर नहीं तो इनकी खातिर ही कुछ बता दीजिएगा। ये दिनेश हैं, दिल्ली से आपसे बात करने के लिए यहाँ तक आए हैं।'
शकील भाई ने कोशिश कर आधा उठते हुए कहा,
'आइए दिनेश भाई। बैठिए।'
फिर रामनारायण से बोले।
'मुझे मालूम है कि तुम बिना कुछ जाने यहाँ से नहीं टलोगे। साले, पुराने पत्रकार हो। पूछो। जो मुझे पता है, बता दूँगा। वैसे चाय पीने में तो आप लोगों को कोई दिक्कत नहीं है?'
'आप पिलवा कर देख लीजिए। हम बिल्कुल मना नहीं करेंगे।'
एक जोर का ठहाका पड़ा। अब दिनेश ने बात आगे बढ़ाते हुए कहा।
'सुना है उस दिन आप फैक्ट्री के भीतर थे। आपका क्या अनुमान है, कैसे हुआ ये हादसा?'
'उस दिन मैं रात की ड्यूटी पर था। पाली करीब १०.४५ पर शुरू होती है। रात की पाली में हजार लोगों में से करीब ७५ आदमी ड्यूटी पर थे। पाली बदलने के करीब आधा घंटे पहले सुपरवाइजर ने एक ऑपरेटर को एम.आई.सी. रिएक्टर के पास के पाइप को पानी से धोने का आदेश दे डाला। बस यहीं से कहानी शुरू होती है। पाइप को धोने से पहले उसे मेंटेनेंस विभाग द्वारा एम.आई.सी. टैंक से अलग किया जाता है और इसके लिए एक स्टील की तख्ती यानी स्लिप ब्लाइंड का प्रयोग करते हैं। मेरा ख्याल है कि ऐसा नहीं किया गया...'
'ये सिर्फ आपका ख्याल है कि वाकई यही हुआ...?'
'पूरी बात तो इनक्वायरी से पता चलेगी पर मेरा ख्याल है कि ऐसा ही हुआ होगा, क्योंकि इससे पूरी घटना को समझने में मदद मिलती है। पाली बदलने के ठीक पहले पाइप की सफाई शुरू हुई। ऑपरेटर ने स्लिप ब्लाइंड नहीं डाला और इससे पानी टैंक नं. ६१० में पहुँच गया। पाली बदलने पर जो नए ऑपरेटर आए उन्हें इस बात का अंदाज भी शायद नहीं था कि टैंक नं. ६१० में एक भयानक रासायनिक क्रिया शुरू हो चुकी है...।'
शकील भाई कहते जा रहे थे और दिनेश नोट्स ले रहा था। उसने डायरी और पेंसिल निकाल लिए थे और वह तेजी से लिखता जा रहा था। शकील भाई जब पूरी घटना बयान कर चुके तो अचानक उसने पूछा,
'तो आप कहना चाहते हैं कि इस तरह की घटना को लेकर फैक्ट्री प्रबंधन ने पहले सोचा नहीं था? जिस गैस के लीक होने पर हजारों लोग मर सकते हैं उसके बारे में कोई सुरक्षा व्यवस्था नहीं थी?'
'नहीं ऐसी बात नहीं है। सोचा गया था। पाँच पाँच सुरक्षा व्यवस्थाएँ थीं पर पाँचों फेल हो गई। किसी की मरम्मत की जा रही थी, कोई बंद थी, किसी को चालू नहीं किया जा सका। हालाँकि कम से कम दो सुरक्षा व्यवस्थाओं के बिना प्रबंधन को प्लांट चालू नहीं करना चाहिए था...।'
दिनेश लिखता जा रहा था। आखिर बहुत देर तक नोट्स लेने के बाद उसने कहा, 'शुक्रिया शकील भाई। आपने बहुत महत्वपूर्ण जानकारी दी है। इससे पूरी रिपोर्ट बन सकती है।'
'रिपोर्ट जरूर बनाइए पर देखिए फिलहाल इसमें मेरा नाम न आए।'
रामनारायण ने बैठक समाप्त करते हुए कहा,
'शुक्रिया भाई जान, हम आपकी बात याद रखेंगे।'
उस रात कार्तिक और दिनेश बहुत देर तक साथ साथ बैठे रहे। दिनेश ने चारों ओर अपने नोट्स, अखबार और पत्रिकाएँ फैला रखे थे। वह रिपोर्ट बनाता जा रहा था और बीच बीच में कार्तिक से बातचीत भी करता जा रहा था। खत्म होने पर उसने कार्तिक की ओर कुछ कागज बढ़ाए और कहा,
'लो, देखो। बताओ कैसी बनी है?'
कार्तिक ने रिपोर्ट ले ली और उसे पढ़ना शुरू किया।
'क्या हुआ था गैस त्रासदी की काली रात को?'
११.०० : रात के ग्यारह बजे पाली बदल चुकी थी और नए ऑपरेटर ड्यूटी पर आ चुके थे। टैंक नं. ६१० में किसी तरह पानी ने प्रवेश किया। टैंक का दबाव ३ पौंड प्रति स्क्वेयर इंच से बढ़कर १० पौंड प्रति स्क्वेयर इंच तक पहुँच गया। उसी समय टैंक नं. ६११ का दबाव जानबूझ कर बढ़ाया गया था, जिससे कि एम.आई.सी. को कीटनाशक संयंत्र में पहुँचाया जा सके। नई पाली के स्टाफ ने टैंक ६१० के बढ़ते हुए दबाव पर कोई ध्यान नहीं दिया। उन्होंने सोचा कि टैंक नं. ६११ की तरह उसमें भी दबाव बढ़ाया गया है जिससे एम.आई.सी. कीटनाशक संयंत्र तक पहुँचे।
११.३० : टैंक के आसपास काम कर रहे कर्मचारियों को आँखों में हल्की सी चुनमुनाहट महसूस हुई क्योंकि तब तक थोड़ी बहुत एम.आई.सी. बाहर आने लगी थी। पर वे बहुत चिंतित नहीं हुए क्योंकि थोड़ी बहुत गैस पहले भी लीक होती रही थी। आधी रात के आसपास ऑपरेटर्स की बेचैनी बढ़ी। उन्होंने प्रोडक्शन असिस्टेंट को खबर की। इसी समय एम.आई.सी. कंट्रोल रूम ऑपरेटर ने टैंक नं. ६१० में बढ़ते हुए दबाव को नोटिस किया।
१२.०५ : मध्यरात्रि के कुछ मिनिटों के बाद ही प्रोडक्शन असिस्टैंट एवं ऑपरेटर ने टैंक नं. ६१० को चेक किया और पाया कि टैंक की रप्चर डिस्क जो दबाव के ४० पौंड प्रति स्क्वेयर इंच पहुँचने के बाद फट जानी चाहिए, अब फट चुकी है और उसके बाद सुरक्षा प्रदान करने वाला सेफ्टी वॉल्व भी खुल चुका है।
००.३० : पाइप लाइन को धोने वाले पानी को तत्काल बंद किया गया। पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी।
१.०० : एम.आई.सी. गैस ३३ मीटर ऊँचे टावर से निकलती देखी गई। प्रोडक्शन असिस्टैंट और ऑपरेटर सायरन बजाने के लिए भागे।
'तो क्या कोई सुरक्षा व्यवस्था नहीं थी?'
पाँच सुरक्षा व्यवस्थाएँ थीं, पर एक भी नहीं चली। कैसे, आइए देखते हैं।
वेंट गैस स्क्रबर : बाहर से रॉकेट की तरह दिखने वाले इस संयंत्र का काम था कॉस्टिक सोडा सोल्यूशन से एम.आई.सी. गैस को गुजार कर उसका जहरीलापन खत्म करना। यदि वह चालू रहता तो करीब एक चौथाई गैस को समाप्त कर सकता था, पर वह मरम्मत के लिए बंद था। उसे अचानक चालू किया गया पर वह पूरी ताकत से नहीं चला। इस तरह उसमें से होकर गैस गुजरती रही पर कॉस्टिक सोडा पूरी ताकत से उसमें नहीं मिल पाया।
ज्वलनशील टॉवर : एम.आई.सी. गैस का एक हिस्सा इस साठ मीटर ऊँचे टावर में जाना चाहिए था जहाँ जलती हुई लौ जमीन के बहुत ऊपर गैस को जलाकर उसका नाश कर देती। पर वहाँ तक जाने वाला पाइप भी जंग खा चुका था और उसे बदला जा रहा था। इसलिए वह सिस्टम भी नहीं चल सका।
पानी के पर्दे : कार्बाइड फैक्ट्री में जगह जगह इस तरह के फव्वारों का प्रबंध है जो १२ से १५ मीटर ऊपर तक पानी की बौछार छोड़कर एक परदा जैसा बना सकते थे। इससे भी गैस समाप्त की जा सकती थी। पानी के इन फव्वारों को चालू भी किया गया पर वे ३३ मीटर की ऊँचाई तक नहीं पहुँच सके।
शीतलीकरण इकाई : एम.आई.सी. टैंकों के शीतलीकरण के लिए ३० टन का शीतलीकरण यूनिट भी है, जो फ्रियॉन २२ का उपयोग कर टैंक को ठंडा रखता है। अगर यह चालू होता तो टैंक को ठंडा रखा जा सकता था और तब जाकर शायद दबाव नहीं बढ़ता। पर इसमें से फ्रियॉन गैस निकाल ली गई थी जिसका कहीं और उपयोग किया जाना था। इसे घंटों तक चालू नहीं किया जा सकता था।
खाली टैंक नं. ६१९ : सौ टन क्षमता के एक टैंक को इमरजेंसी के लिए हर समय खाली रखा जाता था जिससे ६१० या ६११ में दबाव बढ़ने पर गैस को ६१९ में ले जाया जा सके। ६१९ असल में खाली भी था। ६१० में ४० टन और ६११ में १५ टन गैस थी। अगर इन्हें ६१९ से जोड़ने वाली पाइप लाइन के वॉल्व खोल दिए जाते तो गैस शायद निकलती ही नहीं। पर गड़बड़ी इस कदर फैली थी कि किसी को उन वॉल्वों को खोलने की याद ही नहीं आई।
इस तरह पाँचों सुरक्षा व्यवस्थाओं के होते हुए दुर्घटना हुई।
जिम्मेदार कौन?
सवाल उता है कि इस सबके लिए जिम्मेदार कौन है? क्या कार्बाइड प्रबंधन? या कार्बाइड की अमेरिका स्थित फैक्ट्री और उनका कार्पोरेट ऑफिस? या हमारे अपने नेतागण और सरकार जिन्होंने बार-बार खतरे की घंटी बजने के बावजूद कार्बाइड पर कोई कार्यवाही नहीं की और उनकी फैक्ट्री को घनी आबादी के बीच लगने दिया? या तीनों? जनता जवाब चाहती है।
कार्तिक ने रिपोर्ट को अलग रखते हुए कहा,
'वाह यार दिनेश। सारी बातें मैंने भी सुनी थीं। पर मैं इतनी अच्छी रिपोर्ट नहीं बना सकता था। तुमने तो कमाल कर दिया। तुम्हारी रिपोर्ट से सारी घटना शीशे की तरह साफ दिखती है। अब क्या?'
'हम लोग रिपोर्ट प्रकाशित करेंगे। कुछ चित्रों और फोटोग्राफ की और जरूरत है। इस पर बहस करवाएँगे। जनमत बनाएँगे। पर मेरा असली सवाल अभी भी वहीं का वहीं है। जिम्मेदार कौन?'
इसका जवाब हमें शायद पत्रकार कुमार के पास मिलने वाला था जिससे हम अगले दिन मिले।
कुमार अपनी किताबों और कागजों से घिरा बैठा था। कमरे में छोटा सा दीवान पड़ा था और उस पर बिड्रे चटाई पर पाजामे और बनियान में, पूरे देश में हो रही अपनी रिपोर्ट की तारीफ से लगभग अनजान, वह कुछ लिखने में मशगूल था।
कार्तिक, दिनेश और रामनारायण का उसने गर्मजोशी से स्वागत किया। रामनारायण से उसकी गहरी दोस्ती थी। उसने बैठते हुए कहा,
'तो कुमार सर! आपका क्या विचार है?'
'मैं तो अपना विचार करीब चार साल पहले ही बता चुका था। ये साली सरकार जिम्मेदार है, पूरी तरह! लिख रहे हैं, कह रहे हैं, बता रहे हैं, मगर कोई साला सुनता ही नहीं।'
रामनारायण ने मजाकिया लहजे में पूछा,
'सर आपके विश्वप्रसिद्ध पत्र की कॉपी हमें मिल जाएगी?'
'वह तो मुख्यमंत्री के नाम खुला पत्र था। उसमें छिपाने जैसा कुछ नहीं। मैं तुम्हें कॉपी देता हूँ।'
कुमार एक छोटा सा साप्ताहिक निकालता था। जिसमें बरसों पहले उसने सरकार को यूनियन कार्बाइड के खतरे से आगाह किया था। वह उठा और उसने अखबार के उस अंक की कॉपी दिनेश को दी जिसमें मुख्यमंत्री के नाम उसका खुला पत्र छपा था,
'आदरणीय महोदय,
यह खत मेरी बहुत सारी शिकायतों को ढोकर आप तक पहुँच रहा है। ये शिकायतें मेरी निजी नहीं, बल्कि सामाजिक पीड़ा से उपजी शिकायतें हैं।
इस पत्र के साथ मैं अखबार 'रपट' साप्ताहिक के तीन अंकों की प्रतियाँ भेज रहा हूँ। इन अंकों के मुख्य मुद्दे हैं - यूनियन कार्बाइड की इस शहर को मौत की धमकी और गवर्नमेंट प्रेस की मशीनों और फाइलों के बीच दबी मोनोकास्टर सेक्शन के मजदूरों की सिसकियाँ। बाकी खबरें भ्रष्टाचार से संबंधित हैं जिसको मैं दूसरा स्थान देता हूँ।
यह पत्र लिखने का कारण मात्र इतना है कि जब आप नामदेव ढसाल की पीड़ा को सामाजिक पीड़ा से उपजे क्रोध के संदर्भों में देखते और जायज मानते हैं तो मेरे आक्रोश को भी आप यकीनन संदर्भों से परे हटाकर नहीं देखेंगे। मेरी गुजारिश है आपसे, यकीन जानिए यह शहर भोपाल खतरे में है, इसे बचा लीजिए। इस दीवाने की बात मानकर तहकीकात तो करवाइए, आपको भी यकीन हो जाएगा।
मैं अपने लिखे और अपने अखबार की वकत बहुत अच्छी तरह जानता हूँ। कोई क्रांति नहीं आ जाएगी। किसी का तख्ता नहीं पलट जाएगा। लेकिन क्या महज इसी वजह से मैं चुप रहूँ? क्या यह सोचकर कि मेरी इस कोशिश को पीत पत्रकारिता का नाम दिया जा सकता है, मैं अंधा बन जाऊँ? नहीं, मैं हिम्मत नहीं हारूँगा। लड़ूँगा और इस दृढ़ निश्चय के साथ कि इस शहर को हिटलर का गैस चैंबर नहीं बनने दूँगा।
बहुत सारी बातें, बहुत सारी। लेकिन मन में इस वक्त एक ही बात है कि एक बार आप सचमुच झाँक कर ही, देख तो लें। इस शहर भोपाल के चलते फिरते इनसानों के खिलाफ मौत क्या मंसूबे बाँध रही है?
मैं जानता हूँ, जवाब आएगा।
अपनी धुन में,
कुमार।'
दिनेश ने कहा,
'आपने तो लगभग भविष्यवाणी ही कर दी थी।'
'नहीं, नहीं। भविष्यवाणी जैसी कोई बात नहीं थी। इस कारखाने में दुर्घटना कोई पहली बार नहीं हो रही है। हाँ इस बार पैमाना बहुत बड़ा है। सन बयासी में जब अशरफ खान फॉस्जीन गैस लगने के कारण मरा था, तब भी मैंने रिपोर्ट प्रकाशित की थी। पर यहाँ सुनने वाला कौन है?'
'इसे शहर के बीचों बीच से हटाने के बारे में कभी बात नहीं हुई?'
'हुई थी। कई बार बात हुई थी। विधान सभा में सवाल भी उठाया गया था। पर मंत्री जी ने फरमाया था - इस कारखाने को बनाने में करीब पच्चीस करोड़ की लागत लगी है। यह कोई छोटा सा पत्थर नहीं है कि इसको उठाकर किसी दूसरी जगह रख दूँ। इसका पूरे देश से संबंध है। ऐसा भी नहीं कि इससे भोपाल को कोई बहुत बड़ा खतरा पैदा हो गया हो। ऐसी कोई संभावना भी नहीं है।'
'मैं जानना चाहूँगा कि मंत्री जी अब कहाँ हैं?'
यही सवाल लिए हुए वे तीनों उस दिन कुमार के घर से बाहर आए थे।
रामनारायण के घर पर फिर एक छोटी सी बैठक हुई थी। उसने बैठक की शुरुआत करते हुए कहा था,
'हमें इस सरकार को एक्सपोज करने की जरूरत है। हमें एक प्रदर्शन आयोजित करना चाहिए।'
दिनेश ने कहा,
'मैं सहमत हूँ। पर क्या सिर्फ सरकार ही जिम्मेदार है? यूनियन कार्बाइड और अमेरिकी सरकार भी क्यों नहीं? फिर जिम्मेदारी फिक्स करने के साथ साथ ये भी तो देखना है कि हमारी आज की जरूरत क्या है? फिलहाल तो जरूरत इस बात की है कि पीड़ितों को तत्काल और पूरी चिकित्सा सुविधा मिले। अगर उनके रोजगार खत्म हो गए हैं तो उन्हें कुछ दूसरा काम मिले। उन्हें मुआवजा और न्याय दिलाने की तैयारी हो। मेरा तो ख्याल है कि हमें दोतरफा लड़ाई के लिए तैयार होना होगा। एक तो प्रदेश सरकार, केंद्र सरकार तथा यूनियन कार्बाइड जैसे मल्टीनेशनल के खिलाफ और दूसरे पीड़ितों के पक्ष में - उन्हें इलाज, रोजगार और मुआवजा दिलाने के लिए।'
रामनारायण ने कहा,
'हम एक परचा तैयार करते हैं जिसमें ये सारे मुद्दे रहें। फिर शहर के सभी संगठनों, सामाजिक सांस्कृतिक संस्थाओं और राजनैतिक दलों से बात करते हैं, उन्हें इकट्ठा करते हैं और एक प्रदर्शन आयोजित करते हैं। इससे जो जनमत और एकता बनेगी वही हमारे अगले संघर्ष का आधार होगी।'
दिनेश बोला।
'इस समय किसी का ध्यान इस बात पर नहीं है कि कितने लोग मरे या लापता हुए हैं, बीमारियाँ क्या हो रही हैं, लोगों के रोजगार की स्थिति क्या है? अगर हम एक सर्वेक्षण भी करवाते हैं तो हमारे पास बेशकीमती डाटा होगा, जिसके आधार पर हम अपने निर्णय ले सकेंगे और पीड़ितों के लिए कोई ठोस काम भी कर सकेंगे।'
कार्तिक ने सुझाव दिया था,
'जितनी तरह के मुद्दे हैं, उन्हें एक नाटक के माध्यम से न दिखाएँ? उससे हम अपने संदेश में ताकत भी ला सकते हैं और लोगों को जोड़ भी सकते हैं। उसे पूरे शहर में खेला जाए।'
इस तरह एक सहमति बनी थी। रामनारायण सभी संगठनों से संपर्क करे, दिनेश सर्वेक्षण की तैयारी करवाए और कार्तिक नाटक तैयार करे।
बहुत देर नहीं की जा सकती थी। तीन चार दिनों के भीतर ही प्रदर्शन आयोजित करना होगा। स्थान वही होगा - शहर का सबसे व्यस्त बुधवारा चौक।
कार्तिक और रामनारायण ने तीन टीमें बनाई। एक प्रदर्शन की तैयारी में लगी थी, सैकड़ों झंडे और बैनर बना रही थी, परचे बाँट रही थी। दूसरी दिनेश के साथ सर्वेक्षण और इलाज में जुटी थी। इस टीम में कुछ डॉक्टर और वकील भी थे। तीसरी कार्तिक के साथ नाटक लिखने और उसे बनाने में लगी जिसे प्रदर्शन के दिन खेला जाना था।
अद्भुत ऊर्जा के साथ, दुर्घटना के तीन दिनों के भीतर ही आयोजित हुआ था, शहर में वह जबर्दस्त प्रदर्शन।
बुधवारा चौक झंडों और बैनरों से पटा हुआ था।
वहीं बीच चौक में मंच बना दिया गया था जिसके चारों तरफ, दूर तक जाती सड़कों पर माइक लगे थे। 'यूनियन कार्बाइड मुर्दाबाद', 'एंडरसन को फाँसी दो', 'गैस पीड़ितों को न्याय दो' जैसे नारों से आकाश गूँज रहा था। मंच पर राजनैतिक व्यक्ति नहीं बल्कि सामाजिक कार्यकर्ता, वैज्ञानिक, साहित्यकार और बुद्धिजीवी इकट्ठा थे।
सबसे ज्यादा भीड़ कार्तिक और उसकी टीम के आसपास थी जो वहीं मंच से कुछ दूर हटकर 'दास्तान ए गैस कांड' नामक नाटक खेल रही थी।
नाटक शहर का भयानक मंजर प्रस्तुत करता था, राजनेताओं और कार्बाइड की मिलीभगत का खुलासा करता था और अमेरिकी कंपनियों के दोहरे चित्र को उजागर करता था। नुक्कड़ नाटक की स्टाइल में लिखे नाटक में कभी व्यंग्य, कभी तनाव और कभी गुस्सा नजर आता था। उसने देखने वालों को बाँध लिया था।
नाटक अब अमेरिका तथा यूनियन कार्बाइड पर हमला करने की दिशा में बढ़ रहा था।
जादूगर : लड़के सात समंदर पार जाएगा?
जमूरा : पासपोर्ट नहीं है!
जादूगर : फिकर नहीं!
जमूरा : तो ठीक है उस्ताद, मगर काहे के वास्ते?
जादूगर : पकड़ लाने को।
जमूरा : किसको?
जादूगर : एंडरसन को।
जमूरा : एंडरसन कौन?
जादूगर : यूनियन कार्बाइड का मालिक, लाशों का सौदागर, अमेरिकी पूँजीपति, मुनाफाखोर, गरीब देशों के अवाम की जान का दुश्मन...
जमूना : समझ गया, समझ गया उस्ताद। मगर अंग्रेजी नहीं आती।
जादूगर : फिकर नहीं, बस बै हवा के झोंके पर, रुकना मत किसी के रोके पर। घुस जाना गोरों के देश में। पकड़ लाना एंडरसन को... गिलि, गिलि, गिलि फूँ...
(जमूरा घेरे के चक्कर लगाता है और एंडरसन को पकड़ लाता है)
जमूरा : उस्ताद, पकड़ लाया, पकड़ लाया। बड़ी मुश्किल से हाथ आया है। के रिया था टेम नहीं है। बोला डॉलर की एक बोरी उठाओ और मजमा वजमा बंद करके ऐश करो। जमूरे ने पटकनी मंत्र सुनाया और कंधे पर बिठाकर ले आया। कहो तो इसे वेलकम गीत सुनाएँ?
(सब गाते हैं)।
एंडरसन आया
डॉलर लाया।
लाशों के ढेर पर मुँह फाड़कर
ठहाका खूब लगाया
अमेरिका के गोरे ने।
गिरफ्तार कर छोड़ दिया
डॉलर भर बोरे में।
डॉलर भर बोरे में
सत्ता यूँ मुसकाई
चलो खर्च निकले चुनाव के
शुक्रिया अमेरिकी भाई।
देखो और भी आना
देश में कंपनियाँ खोलकर
कब्रिस्तान बनाना।
कब्रिस्तान बनाना जनता हम दे देंगे
मगर ध्यान रखना समय पर
नोट जरूर खिलाना...
एंडरसन : तुम लोग ये क्या गाटा ठा...? हमको समझ नहीं आया। तुम हमको ट्रांसलेशन करके सुनाटा क्या?
जमूरा : हम तेरा वेलकम करता। हमारे देश का परंपरा हाय। जो भी विदेशी आता उसको एयरपोर्ट पर भक्ति गीत सुनाटा हम लोग...
एंडरसन : फरंफरा! ये क्या होटा हाय?
जमूरा : फरंफरा मीन्स ट्रेडीशन, ट्रेडीशन।
एंडरसन : ओह ट्रेडीशन! पर ये टूम कैसा वेलकम करता है? तुम्हारा सरकार ने टो हमारा बहुत अच्छा वेलकम किया। हमको एयरपोर्ट से हमारा कंपनी के गेस्ट हाउस तक लाया। अच्छा खाने पीने का इंतजाम किया। हमको बोला, सर आप सात समंदर पार से आया, भूखा होगा, खाना खाओ। हम खाया, खूब खाया, खूब पिया और डंड पेला। फिर देखो। टुम्हारा सरकार को हमारा कितना फिकर हाय। हमको बोला, युअर ऐक्सीलेंसी इधर टुम्हारा जान को खतरा हाय। टुमको डेहली भेजने को माँगता, बुरा नई मानने का। टुमको इंपोर्टेड कार में घुमाएगा, फिराएगा, एश कराएगा। स्टेट प्लेन से भोपाल और हिंदुस्तान का खूबसूरत नजारा दिखाएगा। टुमको मालूम? हमको रिक्वेस्ट किया टुम्हारा सरकार ने कि सर, हम एक नाटक करना माँगटा। आपको हीरो बनाने को माँगटा। हम बोला, हजारों लोगों को जान से मारने के बाद हम टो वैसे ही दुनिया का हीरो है। फिर भी हम बोला, ठीक है। टुमको मालूम, नाटक का नाम क्या? नाम है 'एंडरसन का गिरफ्टारी'।
जादूगर : हाँ और उन्होंने जनता को मूर्ख बनाने के लिए एक नाटक किया। 'एंडरसन की गिरफ्तारी।' कानूनी जरूरत पूरी करने के बहाने हजारों लोगों के हत्यारे को छोड़ दिया, सिर्फ पच्चीस हजार की जमानत लेकर। हजारों लोगों के तड़पते तड़पते दम तोड़ने और लाखों लोगों के बीमार होने की सजा सिर्फ पच्चीस हजार की जमानत? लानत है। हाँ तो जमूरे, कर दे इस मौत के सौदागर को कटघरे में खड़ा और बाँध दे इसकी शैतान आँखों पर उगलवाऊ पट्टा...
(जमूरा पट्टा बाँधता है और गाता है)
जमूरा : नहीं चलेगी, नहीं चलेगी, नहीं चलेगी ये चालाकी
देख ली दुनिया ने अब झाँकी
बना रखे षड़यंत्रों की, चकनाचूर करेंगे हम सब
नसें तुम्हारे तंत्रों की...।
जनता ने नाटक के कलाकारों के आसपास घेरा बना लिया था। वे उनकी हर बात समझ रहे थे, तालियाँ बजा रहे थे। गुस्सा हो रहे थे, आक्रोश प्रदर्शित कर रहे थे। नाटक ने उन्हें सम्मोहित कर लिया था। वह उन्हें दूसरी दुनिया में ले जा रहा था, उससे परिचित करा रहा था।
कार्तिक को लगा उसका ये प्रयोग सफल रहा है।
उधर मंच पर से वैज्ञानिक, साहित्यकार, सामाजिक कार्यकर्ता एक के बाद एक दुर्घटना के सामाजिक, वैज्ञानिक, आर्थिक पक्षों का खुलासा कर रहे थे।
तभी एक खिचड़ी दाढ़ीवाले, पैंट और कुर्ता पहने, बड़ी बड़ी आँखों और कंधों पर झूलते बालों वाले वैज्ञानिक ने मंच सम्हाला।
किसी ने कहा, 'प्रोफेसर अनिल कुमार।'
कार्तिक ध्यान से उनका वक्तव्य सुनने लगा।
'सवाल ये उता है कि मिथाईल आइसोसाइनेट को इतने लंबे समय तक जमा करके क्यों रखा गया जबकि सुरक्षा की दृष्टि से उसे पंद्रह दिनों से अधिक जमा करके नहीं रखा जाना चाहिए था। अगर टंकी वॉटर प्रूफ थी तो उसके अंदर पानी कैसे पहुँचा? खतरे की सूचना देने वाले ताप और दबाव के सूचक खराब क्यों थे? मिक में फॉसजीन की मात्रा इतनी अधिक क्यों थी? टंकियों का तापमान कम रखने वाला रेफ्रिजरेशन सिस्टम साल भर से बंद क्यों था? स्क्रबर का काम गैस को न्यूट्रलाइज करने का है। अगर वह खराब था तो उसे सुधारा क्यों नहीं गया? उसमें सोडे की मात्रा इतनी कम क्यों थी? ज्वलन टॉवर को चौबीस घंटे जलते रहना आवश्यक है, उसे ठीक क्यों नहीं किया गया? क्या खर्चा बचाने के लिए सुरक्षा संयंत्रों को बंद किया गया था? और क्या अमेरिका में इस प्रकार के कारखाने को चलने दिया जा सकता था?
और जब यूनियन कार्बाइड को कारखाना चलाने की अनुमति दी गई तो क्या इस बात का ध्यान नहीं रखा जाना चाहिए था कि उसे शहर से सुरक्षित दूरी पर बनाया जाए? साल दर साल दुर्घटनाओं के बावजूद उसके लाइसेंस का नवीनीकरण कैसे होता रहा? उन तमाम जाँच रिपोर्टो का क्या हुआ जिनमें पहले भी कार्बाइड को दोषी पाया गया था? फिर क्या फैक्ट्री के इर्द-गिर्द रहने वाले लोगों को फैक्ट्री से निकलने वाले पदार्थों के बारे में, उनसे होने वाले खतरों के बारे में, सूचना नहीं होनी चाहिए? फैक्ट्री के पास रसायनों की सही जानकारी और इलाज की सही सुविधा नहीं होनी चाहिए?
यूनियन कार्बाइड के आसपास की बस्तियों में रहने वाले अधिकांश परिवार मजदूर, हम्माल, ठेलेवाले जैसे गरीब मेहनतकश परिवार हैं। सैकड़ों परिवारों के कमाने वाले सदस्य गैस का शिकार हो गए हैं। बहुत से ऐसे परिवार हैं जिनमें केवल विधवा, बूढ़े या छोटे बच्चे ही बचे हैं। इनकी रोजी रोटी का क्या होगा? साँस फूलने और सीने में दर्द की शिकायत आम है। ऐसे मजदूर अब क्या काम करेंगे? इन्हें मुआवजा क्या मिलेगा, कब मिलेगा, इसे कौन देगा?
असल में तो पूरे देश में और हमारे अपने प्रदेश में भी सैकड़ों ऐसे कारखाने, खदानें और उद्योग हैं जहाँ दुर्घटनाएँ घटने का इंतजार कर रही हैं, मैहर, सतना और कटनी की एसबेस्टॉस की खदानों में फेफड़े खराब किए जा रहे हैं, मंदसौर की स्लेट पेंसिल की खदानें मजदूरों में खतरनाक सिलिकोसिस की बीमारी फैला रही हैं, नागदा और अमलाई की मिलें नदियों में खतरनाक रसायन उगल रही हैं और हमारी सरकारें चुप हैं। मल्टीनेशनल कंपनियों द्वारा गरीब देशों में मुनाफे के लिए कहर बरपा किया जा रहा है और सब चुप हैं।
दोस्तो मुझे लगता है कि लड़ाई बहुत बड़ी है और हमें इसे लड़ना होगा। एक तरफ आज की जरूरतें हैं, इलाज, मुआवजा, न्याय पाने की जरूरतें और दूसरी तरफ है एक और बड़ी लड़ाई, विज्ञान और तकनीक की धारा को जनता के पक्ष में मोड़ने की लड़ाई। इस गैस त्रासदी ने पूरे विश्व को झकझोर दिया है। आइए हम यहाँ से एक नए संघर्ष की शुरुआत करें...।'
वहाँ उपस्थित हजारों लोगों की भीड़ ने तालियाँ बजाकर उनकी इस घोषणा का स्वागत किया था। तय किया गया था कि एक संघर्ष मोर्चा बनाया जाए जो ये दोनों काम हाथ में लेगा। कार्तिक खुद को इस संघर्ष में शामिल पा रहा था।
उधर दिनेश की टीम ने सबसे अधिक प्रभावित बस्तियों का अपना सर्वेक्षण पूरा कर लिया था।
प्रदेश भर से लड़के और लड़कियाँ इस काम के लिए इकट्ठा हुए थे। दो दो लोगों की टीमें घर घर दस्तक दे रही थीं और मृत्यु, बीमारी तथा रोजगार की जानकारी इकट्ठा कर रही थीं। कार्तिक इस सर्वे के दौरान त्रासदी की भयावहता से रूबरू हुआ।
जय प्रकाश नगर और कार्बाइड के आसपास की बस्तियों के लोग वैसे भी नारकीय जीवन जी रहे थे। झुग्गियों की बेतरतीब बाढ़ के बीच सड़ांध मारती नालियाँ, कच्ची गलियाँ और टाट के परदे। हर झुग्गी में आशा से अधिक आदमी, औरत और बच्चे। बीमारियाँ वहाँ वैसे भी घर करके बैठी हुई थीं। लोगों के पास रोजगार पहले भी नहीं थे और अब जिनके पास थे भी वे काम करने लायक नहीं बचे थे। अगर त्रासदी नहीं भी होती तो भी उन्हें मदद की जरूरत थी।
दिनेश ने कहा था,
'हमारे पास अब बेशकीमती जानकारी है। इसे तरतीब देकर हम एक विस्तृत रिपोर्ट बनाएँगे जो हमारी लड़ाई का आधार होगी। हम इसे देश और विदेश में तो प्रकाशित करेंगे ही इलाज, मुआवजे और न्याय के लिए भी इसका उपयोग करेंगे।'
कार्तिक ने सुझाव दिया था।
'क्यों न हम कुछ ठोस काम भी करें जिससे पीड़ितों को सीधी मदद मिल सके। सर्वे के दौरान इतने डॉक्टर हमारे साथ जुड़े हैं। उनसे बात कर हम एक क्लीनिक की स्थापना भी कर सकते हैं। इससे मरीजों की मदद भी हो सकेगी और बस्ती से हमारा संपर्क भी बना रहेगा।'
कार्तिक के सुझाव को सबने पसंद किया था। डाक्टर नरेंद्र को ये जिम्मेदारी दी गई थी कि वे क्लीनिक के लिए जरूरी सामान खरीदें, एक कमरा किराये पर लें और सुबह शाम मरीजों की जाँच शुरू करें। उनके पूरे आँकड़े भी अपने पास रखें।
रामनारायण ने कहा,
'जानकारी, रिपोर्ट, क्लीनिक वगैरह सब ठीक है पर लड़ाई तो संगठित रूप में ही लड़ी जा सकेगी। हमें एक संगठन के निर्माण के बारे में भी सोचना चाहिए। अपने शहर में ही इतने वैज्ञानिक, साहित्यकार, बुद्धिजीवी, पत्रकार इस त्रासदी से विचलित हुए हैं। इस दशा को बदला जाना चाहिए ऐसा मानते हैं। क्यों न उन्हें साथ लेकर हम एक संगठन बनाएँ जो इस लड़ाई को जारी रख सके?'
इस तरह शहर के एक छोटे से कोने में बीस पच्चीस बुद्धिजीवियों को लेकर हुआ था जन विज्ञान समिति का गन। उसने तय किया था कि वह त्रासदी की भयावहता को उजागर करने का काम तो करेगी ही साथ ही मरीजों के लिए इलाज, रोजगार, मुआवजा और न्याय की लड़ाई भी लड़ेगी। पर इसी के साथ उसका लक्ष्य होगा देश के स्तर पर विज्ञान और तकनीक के सही उपयोग पर जोर देना, लोगों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित करना, पर्यावरण और विकास के रिश्तों की पड़ताल करना और इस तरह एक नए आदमी तथा नए समाज की रचना करना।
कार्तिक को जन विज्ञान समिति का सचिव चुना गया था।
अब उसके सामने एक स्वप्न था। वैज्ञानिक दृष्टि से लैस आधुनिक समाज की रचना का स्वप्न।
समिति के संचालन के लिए एक कठोर ग्रुप बनाया गया। इसमें कार्तिक और रामनारायण के अलावा दो नए लोग भी थे। एक सरफराज जिससे कार्तिक की नई नई मुलाकात हुई थी और जो अपने छोटे से दुपहिया वाहन पर शहर भर में संपर्क करता घूमता था और दूसरे डॉ. नरेंद्र जिन्हें क्लिनिक चलाने की जिम्मेदारी दी गई थी। युवा कवि कथाकार अनिमेष भी उसमें थे।
कठोर ग्रुप ने अपने लिए तीन काम चुने। एक, गैस प्रभावित इलाके में क्लिनिक का नियमित संचालन, दो, यूनियन कार्बाईड के खिलाफ केरल से चली यात्रा का अपने प्रदेश में प्रसार और तीन, इस आधार पर एक व्यापक वैज्ञानिक-सांस्कृतिक मोर्चे का गठन।
कार्तिक अब बहुत व्यस्त हो गया। उसे शहर और प्रदेश भर में वैज्ञानिकों तथा बुद्धिजीवियों से संपर्क कर समिति की सदस्यता करनी थी, दिनेश के काम को आगे बढ़ाते हुए आधार पत्र और रिसर्च पेपर तैयार करवाने थे, केरल से आने वाली यात्रा के ठहरने तथा प्रदर्शन का प्रबंध करना था और शाम को क्लिनिक का एक चक्कर भी लगाना था। डॉ. नरेंद्र जैसे जैसे गैस पीड़ितों का इलाज करते जाते थे उनके पास ऐसे आँकड़े और तथ्य इकट्ठे होते जा रहे थे जो बहुमूल्य थे। वे एक लोकप्रिय डॉक्टर के रूप में उभरे थे।
कार्तिक को लगता था क्लिनिक को भी संघर्ष का केंद्र बिंदु बनाया जा सकता है। वह बराबर आँकड़ों को सहेज कर रखने और उनके विश्लेषण पर जोर देता। उनके आधार पर डॉक्टरों और विशेषज्ञों से बात करता और क्लिनिक के आसपास एक समूह के निर्माण की कोशिश करता।
सरफराज और डॉ. नरेंद्र से उसका परिचय इस दौरान बढ़ा। डॉ. नरेंद्र कुछ कुछ दार्शनिक मुद्रा वाले व्यक्ति थे। खूब पढ़ाकू और बहस करने वाले, उनसे कार्तिक की खूब जमती। वे बात बात में उद्धरण देते और मित्रों को बहस में उखाड़ते भी जाते। पर वैसे वे गंभीर आदमी थे और मरीजों की दिल लगाकर चिकित्सा करते।
सरफराज मूलतः संपर्क बनाने वाला व्यक्ति था। अपनी मीठी मुस्कुराहट और अच्छे सेंस ऑफ ह्यूमर के साथ वह लो प्रोफाईल भी रखता था और लोगों को पसंद आ सके इस तरह का व्यवहार भी। पार्टी के लिए अखबार बाँटने से लेकर खबरें पहुँचाने तक के कई छोटे मोटे काम वह करता ही रहता था। शाम को क्लिनिक उसका भी स्थायी अड्डा था।
उस दिन कार्तिक, रामनारायण और सरफराज तीनों इकट्ठे ही क्लिनिक पहुँचे। जैसी कि उसकी आदत थी, रामनारायण ने छूटते ही कहा,
'चलो आज तीनों अच्छे मिले। कुछ काम की बातें हो जाएँगी।'
कार्तिक ने कहा,
'तो क्या बाकी समय हम लोग बेकार की बातें करते हैं?'
रामनारायण ने कहा,
'नहीं नहीं जनाब, मैं जानता हूँ कि मैं जन विज्ञान समिति के सचिव से बातें कर रहा हूँ, जो अति व्यस्त आदमी है। पर फिर भी मैं आपका ध्यान चाहूँगा।'
'अर्ज करिए!'
'हुजूर वह केरल से विज्ञान यात्रा 'बॉयकॉट किलर कार्बाइड' का नारा लेकर तीन दिन बाद हमारे यहाँ पहुँच रही है। करीब पाँच दिन हमारे शहर में रहेगी।'
'चिंता की कोई बात नहीं। हमारा प्रोग्राम तैयार है। उनके रहने की व्यवस्था भी कर दी गई है।'
'एक अच्छा सा परचा भी लिख लें। ये अपनी संस्था के प्रचार प्रसार का भी अच्छा मौका है।'
'जी, लिख लूँगा। और कोई आदेश?'
'बाकी सब ठीक है। आमीन!'
फिर कार्तिक ने एक परचा लिखा जो इस प्रकार था।
'इस सदी की सबसे दुर्भाग्यपूर्ण त्रासदी को हमारे शहर ने २ दिसंबर की रात से झेलना शुरू किया है। बहुराष्ट्रीय रासायनिक उद्योग यूनियन कार्बाइड ने दस हजार से अधिक लोगों को लील लिया है, इस घटना से सबक न लेना शायद युग का सबसे बड़ा अपराध होगा। हमारे शहर के विज्ञान, तकनीक, समाज विज्ञान और कलाओं से जुड़े तमाम बुद्धिजीवियों ने मिलकर जन विज्ञान यानी जनता के लिए विज्ञान के पक्ष में खड़े होने का निर्णय लिया है। नतीजे में जन्म हुआ है हमारी जन विज्ञान समिति का।
हमारा लक्ष्य है विज्ञान से आम आदमी की दूरी कम करना। हम बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा विकासशील देशों की अर्थव्यवस्था पर नियंत्रण का विरोध करना चाहते हैं, हम संतुलित विकास के पक्षधर हैं, हम व्यापक तौर पर वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास करना चाहते हैं, हम चाहते हैं जनता के लिए जनता के द्वारा वैज्ञानिक विकास।
राष्ट्रीय जन विज्ञान यात्रा में हम आपका स्वागत करते हैं...'
यात्रा के पहले जन विज्ञान समिति यात्रा के पक्ष में अच्छा खासा माहौल बना चुकी थी। यात्रा आने के पहले एवरेडी बैटरी के बॉयकॉट का आह्वान किया गया जो अत्यधिक सफल रहा।
यात्रा आई और शहर पर छा गई।
कुल पंद्रह कलाकार, एक संयोजक और सादगीपूर्ण प्रदर्शन। कोई मंच नहीं, कपड़ों के नाम पर सिर्फ एक लाल लुंगी, काला चमकता बदन, गीली भुजाएँ और बंद मुट्ठियाँ, जैसे साक्षात प्रतिरोध ही हमारे सामने था। इस जत्थे ने सिर्फ 'भोपाल' नाटक ही नहीं खेला, जो गैस त्रासदी के दर्द और उसके पीछे की तथाकथा को उजागर करता था, बल्कि अवैज्ञानिक और यांत्रिक शिक्षा, युद्ध की विभीषिका, इतिहास का सही विश्लेषण और सामाजिक कुरीतियाँ भी उसके निशाने पर थीं।
कार्तिक जो कि प्रोसिनियम थियेटर से अच्छी तरह से परिचित था और खुद नुक्कड़ नाटक का प्रयोग अपने आंदोलन के प्रचार में कर चुका था, एक बार फिर पोलेमिकल थियेटर की ताकत से परिचित हो रहा था।
जत्था जहाँ भी जाता भीड़ लग जाती। लोग नाटक दिल लगाकर देखते और उसकी अच्छाई-बुराई, उसके सच पर बहस करने लग जाते।
कार्तिक ने अपने गायक कलाकारों का एक समूह भी केरल से आए जत्थे के साथ उतारा था जो गैस कांड पर अपना लोकप्रिय आल्हा प्रस्तुत करता था,
'सुमरि कालिका पुलपुख्ता की, गैस कांड का करौं बखान।
रक्षा करना माँ शासन से ताने मुझ पर तीर कमान...
अमरीका के एंडरसन ने खोली जहर फैक्ट्री आय।
जहर बनाता सुनो रात दिन, दुनिया भर में बिकने जाय...
बहुतेरे अफसर, मंत्री के, लड़के करते इसमें काम।
ऊँची ऊँची तनखा पाते, टकराते व्हिस्की के जाम...
चंदा देता जो इन सबको लाख नहीं दस बीस करोड़।
सबसे ज्यादा परदूषण को, फैलाने की लगती होड़...
यहाँ की बातें यहीं छोड़कर अब आगे की कहता बात।
गैस रिसन जब हरने आई, रही दिसंबर दो की रात...'
कहानी प्रदेश के इस लोकप्रिय फॉर्म में चलती जाती। लोग खड़े सुनते, मंत्रमुग्ध।
अपनी तमाम तल्लीनता के बावजूद कार्तिक की छठी इंद्रिय जागृत थी। न जाने क्यों उसे लग रहा था कि कुछ लोग हैं जो लगातार उनका पीछा करते रहे हैं। उसने रामनारायण को अपनी इस शंका के बारे में बताया।
रामनारायण ने कहा था,
'दो तरह के लोग हैं, एक तो लोकल इंटेलीजेंस वाले'
'वे क्यों?'
'आखिर आप एक राजनैतिक कार्यवाही कर रहे हैं। ये सिर्फ नाटक नहीं है'
'अच्छा? तुम इंटेलीजेंस वालों को कैसे जानते हो?'
'कुछ को तो चेहरे से पहचानता हूँ और कुछ को जूतों से।'
'जूतों से कैसे?'
'वे ड्रेस तो सिविल पहन लेते हैं पर जूते वही पुलिस वाले पहने रहते हैं'
रामनारायण ने कहा और ठठा कर हँसा। कार्तिक ने पूछा,
'और दूसरे लोग कौन हैं?'
'वही प्रतिक्रियावादी पार्टी वाले हमारे दोस्त।'
'उन्हें कैसे पहचानते हो?'
'हर समय चुप और षड्यंत्र की मुद्रा में रहते हैं।'
रामनारायण फिर हँसा। अब उसने गंभीर होते हुए कहा,
'इस दूसरे ग्रुप से सावधान रहने की जरूरत है। ये कभी भी गड़बड़ कर सकते हैं। वैसे मेरे साथ भी दस लोग रहते हैं जिन्हें वे पहचानते हैं। इसलिए शायद ही गड़बड़ी हो।'
यात्रा सकुशल निबट गई थी और उसमें कोई गड़बड़ नहीं हुई थी।
कार्तिक ने इससे अपने लिए कई निष्कर्ष निकाले थे। नुक्कड़ नाटक एक राजनैतिक कार्यवाही हो सकता है और उससे पूरा शहर हिलाया जा सकता है, कि सरकार उस पर गहरी नजर रखती है, कि विरोधी पक्ष भी उससे सम्हल कर रहता है इसलिए उसे सावधानी से खेला जाना चाहिए, कि संदेश की ताकत बहुत बड़ी ताकत है और अगर जनता पक्ष में हो तो कोई आपका कुछ नहीं बिगाड़ सकता...।
यात्रा की समाप्ति पर जन विज्ञान समिति ने एक सेमिनार तथा रैली का आयोजन किया था।
सेमीनार में दिनेश के साथ साथ प्रख्यात बुद्धिजीवी पी.एन. कौल भी आए। वे प्रधानमंत्री के सलाहकार रह चुके थे और देश में वैज्ञानिक दृष्टिकोण की लड़ाई लड़ रहे समूह के नायक थे। इतिहास, विज्ञान, समाज विज्ञान कोई भी विषय उनसे छूटा नहीं था।
खचाखच भरे सभागार में पहले दिनेश ने अपनी प्रसिद्ध रिपोर्ट रखी जो अब भारत के साथ साथ विदेशों में भी स्टैंडर्ड रिपोर्ट मानी जा रही थी। उसने गैस पीड़ितों को मुआवजे और इलाज में तात्कालिक प्रश्नों के साथ साथ, जन विज्ञान तथा आत्मनिर्भरता के व्यापक प्रश्नों को उठाया।
अब पी.एन. कौल को बोलने बुलाया गया। वे खड़े हुए। सफेद झक पैंट और शर्ट, सुनहरे फ्रेम का चश्मा, बड़ी बड़ी आँखें और उनमें से बोलता एक युग का अनुभव, उन्होंने बोलना शुरू किया,
'अभी मेरे दोस्त दिनेश ने यहाँ हुई गैस त्रासदी की, जिसे अब सारी दुनिया जानती है, एक तस्वीर पेश की।
आप में से कई वैज्ञानिक हैं। उसकी दशा और दिशा ठीक करना चाहते हैं। मैं आपसे सहमत हूँ। पर मेरी गुजारिश है कि समाज को देखने का नजरिया भी वैज्ञानिक होना चाहिए। अगर हम प्रयोगशालाओं, कॉलेजों तथा संस्थानों में ही वैज्ञानिक दृष्टिकोण की बात करते रहेंगे और समाज पर उसे नहीं लागू करेंगे तो हम एक रूढ़ और अंधविश्वासी समाज बना रहे होंगे।
भारत एक बहुत बड़ा देश है। इसे किसी फार्मूले में नहीं बांधा जा सकता। इसके लंबे और गौरवपूर्ण इतिहास की अलग अलग तरह से व्याख्या की जा सकती है। लेकिन जो लोग यहाँ रही असहमतियों पर ही जोर देना चाहते हैं मैं उन्हें बताना चाहूँगा कि ये असहमतियाँ या जातीय हिंसा, लंबे सहयोग एवं सहमतियों की पृष्ठभूमि में छिटपुट घटनाओं से अधिक कुछ नहीं। भारत को उसकी विविधताओं में समझना पड़ेगा और इसमें वैज्ञानिक और तार्किक दृष्टि हमारी बड़ी मदद कर सकती है...'
कौल साहब ने इतिहास, समाज और विज्ञान का एक अनोखा चित्र उस दिन खींचा। अकादमिक उत्कृष्टता क्या होती है ये कार्तिक ने उस दिन देखा।
अब वे अपने वक्तव्य के अंत में पहुँच रहे थे,
'मैं चाहूँगा कि देश में विज्ञान और समाज के रिश्तों को लेकर काम करने वाला ऐसा समूह उभरे जो वाकई देश को अगली शताब्दी में ले जाने का काम करेगा...'
श्रोताओं ने तालियों की गड़गड़ाहट के साथ जैसे उनका समर्थन किया।
सेमीनार के बाद यूनियन कार्बाइड तक पैदल मार्च का आयोजन था।
कार्तिक, सरफराज और रामनारायण ने इसे मशाल जुलूस का रूप दे दिया था। सैकड़ों कार्यकर्ता जय प्रकाश नगर के मोड़ पर मशालें लिए तैयार खड़े थे। उस रोशनी की पृष्ठभूमि में कार्बाइड कारखाना किसी दैत्य की तरह खड़ा था।
पी.एन. कौल साहब के साथ दिनेश, कार्तिक एवं सभी बुद्धिजीवी वैज्ञानिक भी मशाल जुलूस में शामिल हुए। कार्बाइड के गेट पर एक छोटा सा मंच बना दिया गया था जिस पर खड़े होकर पी.एन. कौल ने सभी लोगों को जन विज्ञान के पक्ष में लड़ने और गैस पीड़ितों की मदद करने की शपथ दिलाई।
दूर दूर तक फैली मशालों की रोशनी, पीछे किसी पराजित दैत्य की तरह खड़ा कार्बाइड कारखाना, पी.एन. कौल के साथ उठे सैकड़ों हाथ...
कार्तिक लंबे समय तक इस दृश्य को नहीं भूल सका था।
रैली बिखरने के बाद दिनेश कार्तिक के साथ हो लिया। रामनारायण भी साथ था। वे पैदल ही पास की चाय की दुकान पर चल दिए।
दिनेश ने बधाई देते हुए कहा,
'वाह भाई कार्तिक। तुमने थोड़े से समय में शानदार काम कर डाला।'
'सभी दोस्तों की मदद से।'
'फिर भी बधाई तो सचिव को ही दी जाएगी।'
'चलो ठीक है। मान लेता हूँ।'
'अच्छा एक बात बताओ, मैं तुमसे खुले दिल से पूछता हूँ। जो काम तुम कर रहे हो वह तुम्हें अच्छा लगता है?'
'हाँ। नहीं तो मैं इसे करता ही नहीं।'
'गुड। तो मेरा दूसरा सवाल। क्या तुम हमारी पार्टी में काम करोगे?'
'मैं अन्याय के खिलाफ किसी भी संगठित कार्यवाही का हिस्सा बनने को तैयार हूँ। लेकिन पार्टी के बारे में मैं मेनिफेस्टो से आगे कुछ नहीं जानता।'
'ज्यादा जरूरी ये है कि तुम एक मेहनती और ईमानदार आदमी हो। बाकी तो संघर्ष खुद सिखा देता है।'
फिर उसने रामनारायण से मुखातिब होते हुए कहा,
'भई कार्तिक को कॉमरेड श्यामलाल से मिलवाओ!'
'अभी चलें?'
'क्यों नहीं?'
दो स्कूटरों पर सवार होकर वे तीनों पुराने शहर की एक पतली सी गली में पहुँचे जहाँ पुराने से नीले रंग के तिमंजिले मकान की दूसरी मंजिल पर, पार्टी ऑफिस था। जीने पर से ऊपर जाते हुए, कार्तिक ने नोटिस किया कि मकान में से एक अजीब बुसी हुई गंध आ रही थी, जो अक्सर पुराने मकानों में से आती है। प्लास्टर जगह जगह से झड़ रहा था। जीने का रास्ता झंडों और डंडों से अँटा पड़ा था।
अंदर एक छोटे से पार्टीशन के भीतर कॉमरेड श्यामलाल बैठे थे। करीब साठ साल की उम्र, आँखों पर भारी फ्रेम का चश्मा, गहरी धंसी आँखें और चेहरे पर हल्की सी ऊब। वे कोई अखबार पढ़ रहे थे। दिनेश और रामनारायण को देखकर उन्होंने कहा,
'आओ भई आओ। कैसा चल रहा है तुम लोगों का आंदोलन।'
'कॉमरेड बढ़िया है। आज का प्रोग्राम शानदार रहा।'
'चलिए। अब क्या इरादा है?'
'इलाज और मुआवजे की लड़ाई लड़ेंगे कॉमरेड। विज्ञान संगठनों का एक ऑल इंडिया नेटवर्क भी उभर रहा है। अगले कुछ महीनों में एक राष्ट्रीय यात्रा निकालने का भी प्लान है।'
'वो तो ठीक है। पर हमारे यहाँ कौन रहेगा?'
'कॉमरेड ये कार्तिक हैं। इन्होंने इस बीच बहुत शानदार संगठन खड़ा किया है। वैज्ञानिकों और बुद्धिजीवियों में भी इनकी अच्छी पकड़ है। इन्हें जिम्मेदारी दी जा सकती है।'
रामनारायण ने भी समर्थन करते हुए कहा,
'सही है कॉमरेड, जुझारू कार्यकर्ता हैं।'
अब कॉमरेड श्यामलाल ने कार्तिक से कहा,
'मैं आपके काम के बारे में जानता हूँ। वैसे आप नौकरी वगैरह कहाँ करते हैं?'
'जी फिलहाल एक कंसल्टेंसी फर्म में इंजीनियर हूँ। भारतीय प्रशासनिक सेवा के लिए भी चुना गया था।'
'तो गए नहीं?'
'जी नहीं।'
'क्यों?'
'जी मन नहीं किया।'
अब कॉमरेड श्यामलाल ने कुछ ध्यान से उसे देखा,
'पार्टी में काम कर लेंगे?'
'जी मैं ठीक ठीक नहीं जानता कि इसका अर्थ क्या है पर मैं बदलाव के लिए समर्पित किसी भी संगठित कार्यवाही में रह सकता हूँ। मैंने दिनेश से भी यही कहा था।'
'बढ़िया, तो आ जाइए। रामनारायण आपको बाकी चीजें समझा देंगे।'
एक साँवले से नवयुवक ने कमरे में प्रवेश करते हुए कहा था,
'कॉमरेड लाल सलाम।'
रामनारायण ने जवाब दिया था,
'लाल सलाम कॉमरेड, कहाँ से आ रही है आपकी सवारी?'
फिर साँवले युवक ने कार्तिक की ओर देखकर कहा था,
'कॉमरेड, लाल सलाम।'
कार्तिक को समझ नहीं आया था कि क्या कहे। उसने अचकचाते हुए अपना हाथ आगे बढ़ा दिया था,
साँवले नवयुवक ने अपना हाथ बढ़ाते हुए कहा था,
'मोहन'
'कार्तिक'
तो यही थे कॉमरेड मोहन? अब कॉमरेड मोहन ने हाथ मिलाते हुए कहा,
'मैंने सुना है आपके बारे में। आपको यहाँ देखकर अच्छा लगा।'
इस तरह कार्तिक पार्टी में शामिल हुआ था।
गैस त्रासदी के बाद अक्सर कार्तिक बीच बीच में अपने कार्यालय से गायब हो जाता था। हालाँकि उसने ध्यान रखा था कि वह अपनी छुट्टी की सीमा में रहे। इधर उसका पूरा समय विज्ञान आंदोलन, गैस क्लीनिक या संगठन लेने लगा था।
इस बार वह करीब एक महीने बाद कार्यालय पहुँचा। अभी वह अपनी सीट पर बैठा भी नहीं था कि कंपनी के मैनेजिंग डायरेक्टर दत्ता ने बुला भेजा। बहादुर ने आकर कहा,
'साहब बुला रहे हैं।'
दत्ता कलकत्ते से आया था। खुर्राट किस्म का फाइनेंशियल कंसल्टेंट और कर्मचारियों के प्रति कठोरता बरतने वाला बॉस। बात बात पर कहता था कि 'इंप्लाइज को कंट्रोल करना मैं जानता हूँ, कड़ाई न बरतो तो सिर पर चढ़ जाएँगे' या 'मैं कलकत्ते से आया हूँ। मैंने वहाँ बड़ी बड़ी यूनियनें देखी हैं।'
कार्तिक के पहुँचते ही बोला,
'आप महीने भर से कहाँ थे?'
'सर, छुट्टी पर था।'
'क्या मैं जान सकता हूँ किसलिए?'
'व्यक्तिगत कारणों से'
'ठीक है तो आप नहीं बताएँगे। मैं आपको बताता हूँ। आप जुलूस और रैलियाँ आयोजित करवा रहे थे, गैस पीड़ितों की झुग्गी बस्तियों में घूम रहे थे, देशभर से लोगों को बुलाकर भाषण करवा रहे थे, सड़कों पर नाटक कर रहे थे, क्या किसी प्रतिष्ठित कंसल्टेंसी फर्म के एक्जीक्यूटिव को ये शोभा देता है?'
कार्तिक ने कहा,
'अगर आप इतना सब जानते हैं तो मुझसे पूछने का कोई मतलब नहीं है। फिर भी मैं बताना चाहता हूँ कि हमारा शहर अभी अभी विश्व की सबसे भयानक औद्योगिक त्रासदी से गुजरा है, मैं उसे देख और महसूस कर बहुत विचलित हुआ हूँ, मैं अपना फर्ज समझता हूँ कि इसमें पीड़ितों की जितनी मदद कर सकूँ। मेरी बहन और उसका परिवार भी दूर तक प्रभावित हुआ है। उन्हें मेरी मदद की जरूरत है। और ये सब मैं अपनी उपलब्ध छुट्टियाँ लेकर कर रहा हूँ। इसमें आपको कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। कंपनी टर्नओवर में पिछले वर्ष मेरा अधिकतम योगदान रहा है और इस समय मेरे पास कोई भी प्रोजेक्ट पेंडिंग नहीं है...'
'मैं ये सब नहीं जानता। आई थिंक युअर बिहेवियर इस अनबिकमिंग ऑफ एन एक्जीक्यूटिव ऑफ अवर कंपनी। आई एम गिविंग यू एन एक्सप्लेनेशन नोटिस...'
'ठीक है जब आपने मन बना ही लिया है तो...'
कार्तिक ने कहा और बाहर निकल आया।
रघुवंशी जो एम.डी. का सेक्रेटरी था, आकर नोटिस दे गया।
नोटिस में उससे पूछा गया था कि उसने किसकी अनुमति से जन विज्ञान समिति की स्थापना की, किसकी अनुमति से जुलूसों और रैलियों का आयोजन किया, पी.एन. कौल को बुलाने और सेमीनार आयोजित करने के लिए उसके पास धन कहाँ से आया और क्या ये सब करना अनुशासनहीनता नहीं थी?
कार्तिक ने नोटिस का विस्तृत जवाब दिया। उसने कहा कि उनका शहर एक विशिष्ट परिस्थिति से गुजरा था जिसमें प्रभावितों की मदद करना उसे अपनी मानवीय जिम्मेदारी लगती थी, कि भारत का संविधान उसे इस बात की इजाजत देता है कि वह नौकरी में रहते हुए गैर वित्तीय आधार पर सामाजिक कार्य कर सके इसलिए जन विज्ञान समिति बनाकर उसने कोई गलत काम नहीं किया है, कि सेमीनार का आयोजन उसने समिति के सदस्यों एवं मित्रों के आर्थिक सहयोग से किया था और उसमें कंपनी का कोई रोल नहीं था...
कंपनी के अधिकतर कर्मचारी कार्तिक द्वारा दत्ता का विरोध करने से खुश थे।
पर कुछ चाहते थे कि कार्तिक विरोध को आगे न बढ़ाए। शंकरन आकर कह गया था कि दत्ता से उसकी बात हुई है और अगर कार्तिक माफी माँग ले तो वह दत्ता से बात कर सकता है।
कार्तिक ने कहा था,
'जब मैंने कोई गलत काम किया ही नहीं तो माफी किस बात की?'
दत्ता को कार्तिक का स्पष्टीकरण पसंद नहीं आया था। उसने उसे बुलाकर कहा,
'आपका स्पष्टीकरण काफी नहीं। और उसमें से इनडिसिप्लिन की ध्वनि भी आ रही है। आई एम सेटिंग अप एन इनक्वायरी कमिटी। यू बेटर कोऑपरेट...'
शंकरन ने एक बार फिर समझाया था,
'देखो इसमें सिर्फ दत्ता ही शामिल नहीं है। उसके कान भरने वालों में शर्मा सीनियर कंसल्टेंट, रघुवंशी और मैडम अग्निहोत्री भी हैं, जिनके संबंध शर्मा से हैं। शर्मा तुम्हारे काम से चिढ़ता है और तुम्हें नीचा दिखाना चाहता है...'
कार्तिक ने कहा,
'शंकरन तुम समझते क्यों नहीं। मैं माफी माँग कर अपनी नजरों से गिर जाऊँगा। मैंने कोई गलत काम नहीं किया। लोग छुट्टियाँ लेकर घूमने जाते हैं, मैंने सामाजिक कार्य में लगाईं। बाकी सब आरोप बोगस हैं। दत्ता जो चाहे सो करे...'
शंकरन ने कहा,
'मैं तुम्हारा दोस्त हूँ। मेरा काम तुम्हें समझाना है। आगे तुम्हारी मर्जी...'
दत्ता ने इनक्वायरी कमिटी बना दी। जैसी कि उम्मीद थी उसमें शर्मा और रघुवंशी को ही रखा गया। शर्मा को इनक्वायरी ऑफिसर बनाया गया था और रघुवंशी को मैनेजमेंट का प्रतिनिधि। शर्मा के लिए कार्तिक से बदला निकालने का ये अच्छा अवसर था।
उसने बहुत ही चालाकी के साथ इनक्वायरी शुरू की,
'कार्तिक जी मैं तो आपका दोस्त हूँ। आप मुझे सब कुछ बता दीजिए। मैं आपके पक्ष में ही रिपोर्ट दूँगा।'
'आप इनक्वायरी ऑफिसर हैं। आप अपना काम करें।'
'आप कुछ पूछना चाहेंगे?'
'हाँ, सबसे पहले तो ये कि किन नियमों के तहत ये इन्क्वायरी हो रही है?'
शर्मा कुछ अचकचा गया था। सबको मालूम था कि कंपनी के डिसिप्लिनरी रूल्स घोषित नहीं थे और इनक्वायरी हो ही नहीं सकती थी। फिर भी शर्मा ने कहा,
'कंपनी के रूल्स के अंतर्गत।'
'तो ठीक है पहले मुझे उनकी एक प्रति दिलवा दीजिए।'
अगली बैठक में उसे कुछ आधे अधूरे रूल्स उपलब्ध कराए गए थे जो न तो बोर्ड द्वारा पास किए गए थे, न ही कर्मचारियों को पहले कभी दिए गए थे, उन्हें लेते हुए कार्तिक ने शर्मा से कहा,
'आप नोट करें कि न तो रूल्स वैधानिक हैं न ये इन्क्वायरी। मैं चाहूँ तो इसमें हिस्सा लेने से मना भी कर सकता हूँ।'
रघुवंशी ने जो मैनेजमेंट का प्रतिनिधि था और तुतलाकर बोलता था, कहा,
'आपटो आपटे अपॉइंटमेंट लेटर में बटा टो डिया ठा। टि कंपनी टे रूल्स होंगे...'
कार्तिक ने उसका जवाब न देकर कहा था।
'फिर भी आप जो चाहें पूछ सकते हैं।'
शर्मा ने पूछा,
'ये जन विज्ञान समिति क्या है।'
'गैस पीड़ितों के हित में एक सामाजिक संस्था।'
'आप उसमें क्या हैं?'
'सचिव हूँ'
'सचिव बनने के पहले क्या आपने कंपनी से अनुमति ली थी?'
'जी नहीं। सामाजिक और अवैतनिक कार्य के लिए मुझे अनुमति लेने की जरूरत महसूस नहीं हुई।'
'सीधे बताएँ। आपने अनुमति ली थी या नहीं ली थी?'
'ऐसा कोई नियम नहीं है कंपनी में।'
रघुवंशी ने बीच में कहा,
'हैगा। मैं बटाटा हूँ...'
शर्मा ने उसे काटते हुए कहा,
'मतलब आपने नहीं ली।'
'जी नहीं'
'चलिए अब दूसरा सवाल। आप जुलूसों और धरनों में शामिल हुए?'
'वो गैस पीड़ितों के पक्ष में निकाले गए जुलूस थे। उनका कंपनी से कोई वास्ता नहीं।'
'सवाल ये नहीं है। सवाल ये है कि आप उनमें शामिल हुए या नहीं?'
रघुवंशी ने फिर कहा,
'हुए ठे। मैंने खुड इन्हें डेखा ठा।'
कार्तिक ने कहा,
'हुआ था।'
अब शर्मा ने कहा,
'तीसरा सवाल। आपने कंपनी से बिना अनुमति लिए सेमीनार करवाया। उसके लिए धन इकट्ठा किया?'
अब कार्तिक को गुस्सा आ गया,
'मैं आपको पहले ही बता चुका हूँ कि मैंने अपनी छुट्टी के दौरान गैस पीड़ितों के हित में, उनके इलाज और मुआवजे के लिए काम किया, जनचेतना को मोबिलाइज किया, देशभर के बुद्धिजीवियों का समर्थन जुटाया और जो कुछ हो सकता था किया। इसमें मेरी समझ से हमारी कंपनी को कोई नुकसान नहीं हुआ है। कंपनी के भीतर मुझे मेरे काम से मापा जाना चाहिए...'
'आपने धन इकट्ठा किया या नहीं?'
'किया।'
रघुवंशी ने मुस्कराते हुए कहा,
'टो आप टीनों आरोप मानटे हैं?'
'मैं कोई भी आरोप नहीं मानता। जो तथ्य है बता रहा हूँ।'
शर्मा ने कहा,
'कार्तिक जी सच बताने की जिम्मेदारी मेरी है। अगली बैठक से विटनेस के बयान होंगे। आप तैयारी कर लें।'
इस तरह पहली बैठक समाप्त हो गई थी।
अब विटनेस पेश करने का सिलसिला चला।
मैनेजमेंट की ओर से रघुवंशी और दत्ता के निकट माने जाने वाले अग्रवाल ने बयान दिए। 'हाँ जी, हमने कार्तिक को जुलूस में शामिल देखा था।', 'हाँ जी हमें सेमीनार का निमंत्रण कार्ड मिला था उस पर सचिव के रूप में कार्तिक के दस्तखत थे,' 'हमारे पास तो कंपनी के रूल्स हैं जी। पता नहीं इनके पास क्यों नहीं हैं?', 'जी ये उस दिन अखबार के रिपोर्टरों से बात भी कर रहे थे'...
कार्तिक ने अपनी ओर से शहर और कार्यालय के करीब पचास कर्मचारियों, बुद्धिजीवियों, वैज्ञानिकों को विटनेस के तौर पर बुलाने का अनुरोध किया।
अब इन्क्वायरी करीब करीब हर हफ्ते ही होने लगी। वह एक यंत्रणा की तरह थी। शर्मा अपनी कुटिल मुस्कराहट के साथ कहता 'ठीक है फिर अगले मंगलवार को।' कार्तिक का सोमवार तैयारी में गुजरता और बाकी हफ्ता पिछली बैठक के प्रभाव जाँचने में। ऑफिस के नब्बे प्रतिशत कर्मचारी उसके साथ थे। शहर में भी इनक्वायरी के विरोध में हवा बन गई थी। पर कार्तिक का मन अब ऑफिस में नहीं लगता था। वह कुछ भी पॉजिटिव काम नहीं कर पा रहा था और धीरे धीरे करके कई हफ्ते और अब तीन महीने इसी झिक झिक में गुजर चुके थे।
उधर दत्ता और शर्मा ने मन बनाया था कि वे कार्तिक के विटनेसेस को अब नहीं बुलाएँगे क्योंकि वे सब कार्तिक के पक्ष में थे और उनकी सूची बहुत लंबी थी। इनक्वायरी खिंचती ही चली जा रही थी।
कार्तिक ने रामनारायण से बात की,
'यार, मैं इस लड़ाई से ऊब चुका हूँ।'
'वे यही तो करना चाहते हैं। वे लड़ाई लंबी खींच कर तुम्हें तोड़ना चाहते हैं।'
'महत्वपूर्ण ये नहीं है कि वे क्या चाहते हैं! महत्वपूर्ण ये है कि मैं क्या चाहता हूँ। क्या मैं अब भी वहाँ काम करना चाहता हूँ, करते रह सकता हूँ?'
'तो बताओ, क्या चाहते हो?'
'मैं ये कंपनी छोड़कर पूरी तरह आंदोलन में लगना चाहता हूँ।'
'अच्छा विचार है। पर खाओगे-पिओगे क्या?'
'कुछ न कुछ कर ही लूँगा। आखिर प्रोफेशनल आदमी हूँ।'
'यार ऐसे तो नहीं जाने देंगे। दत्ता के खिलाफ एक शानदार प्रदर्शन बनता है।'
'तो ठीक है। वह कर लेते हैं।'
एन बोर्ड मीटिंग के दिन रामनारायण और सरफराज के साथ साथ कोई बीस लोग बोर्ड रूम दरवाजे पर इकट्ठा हुए। इसमें कुछ पत्रकार, कुछ ट्रेंड यूनियन कार्यकर्ता, और कुछ कार्तिक के साथी बुद्धिजीवी थे। बोर्ड मीटिंग शुरू होते ही रामनारायण ने आवाज उठाई,
'एम.डी. दत्ता मुर्दाबाद, मुर्दाबाद'
'कार्तिक के साथ अन्याय बंद करो, बंद करो'
'एम.डी. दत्ता होश में आओ, होश में आओ।'
'दत्ता की तानाशाही बंद करो, बंद करो।'
'एम.डी. दत्ता हो बर्बाद, हो बर्बाद।'
धीरे धीरे कार्तिक के साथी कर्मचारी भी इकट्ठा हो गए और दत्ता के खिलाफ नारे लगाने लगे। किसी ने बोर्ड रूम के दरवाजे को धक्का दिया। वह शायद भीतर से बंद नहीं था, खुल गया। सभी प्रदर्शनकारी नारे लगाते हुए भीतर घुस गए। दत्ता भाग कर टॉयलेट में घुस गया। बाकी बोर्ड मेंबरों ने एक कमरे में घुस कर दरवाजा बंद कर लिया। रामनारायण ने कहा,
'कोई तोड़ फोड़ नहीं करेगा। हम सिर्फ विरोध प्रगट करने आए हैं।'
इसके बाद करीब आधे घंटे तक नारेबाजी चलती रही। सरफराज और रामनारायण एक ज्ञापन लिखकर लाए थे जो उन्होंने दत्ता की अनुपस्थिति में उसके सेक्रेटरी को दे दिया। कहा,
'साहब से कहना हमसे बात करें।'
अगले दिन पूरे मीडिया में इस प्रदर्शन की खबरें जोर शोर से छपी थीं। बोर्ड के सामने प्रदर्शन, मीडिया में अपनी आलोचना और अपने कर्मचारियों के विरोध में हो जाने से दत्ता डर गया था। उसने एक बार फिर समझौते की कोशिश की। उसने अगले दिन कार्तिक को बुलवाया और कहा,
'देखिए कार्तिक जी आप अच्छे एक्जीक्यूटिव हैं। आपमें संगठन क्षमता भी है। बस आप दो लाइनें लिख कर दे दीजिए कि आपसे गलती हुई है। मैं इनक्वायरी बंद करा दूँगा...'
कार्तिक ने दत्ता के टेबल पर से ही एक कागज उठाया और उस पर लिखा,
'मैं आपके साथ काम नहीं करना चाहता। ये मेरा इस्तीफा है'
बाहर आकर उसने रामनारायण को फोन किया,
'मैंने नौकरी छोड़ दी।'
'चलो अच्छा किया। दत्ताज लॉस इस पार्टीज गेन। अब हमारे यहाँ चले आओ। एक एक कप बढ़िया कॉफी पिएँगे।'
उस दिन शाम को, बहुत दिन बाद कार्तिक नीति के साथ हाट गया। हाट वैसे ही रोशनी में जगमग जगमग कर रही थी जैसे वह पहले जगमगाया करती थी।
नीति उसी तल्लीनता के साथ आलू-टमाटर, धनिया मिर्च खरीदती रही जैसे वह पहले खरीदती थी। अंत में कार्तिक ने पुराने दिनों की तरह एक दर्जन संतरे खरीदे। जब वे झोला उठाकर चलने को हुए तब कार्तिक ने कहा,
'नीति तुमसे एक बात कहनी थी।'
'क्या?'
'मैंने नौकरी छोड़ दी है।'
'अच्छा? मैं जानती थी तुम वहाँ ज्यादा नहीं रहोगे। चलो अब नया कुछ करना।'
कार्तिक को उसकी दृढ़ता पर आश्चर्य हुआ था। उसका सहारा पाकर मन थोड़ा हल्का भी हुआ था। अब वह आगे की ओर देख सकता था।
उस शाम जगमगाती रोशनियों के बीच कार्तिक, जिसके पास चार प्रतिष्ठित कंपनियों की नौकरी के ऑफर रहे थे, जो अपनी कंसल्टेंसी फर्म में दूर तक जा सकता था और जो भारतीय प्रशासनिक सेवा का बड़ा अधिकारी बन सकता था, अकेला खड़ा था, बेरोजगार।
उसके पास बस एक स्वप्न था, ज्ञान-विज्ञान के द्वारा दुनिया को बदलने का स्वप्न।